स्वर्ग का नाम आते ही उसके अस्तित्व पर प्रश्न खड़े होने लगते हैं, गुण और परिभाषा जानने के पहले ही। यद्यपि सारे धर्मों में यह संकल्पना है, पर उसके विस्तार में न जाते हुये मात्र उन गुणों को छूते हुये निकलने का प्रयास करूँगा, जिनसे उर्वशी और उसकी प्रेम भावनायें प्रभावित हैं। इस प्रेमकथा में स्वर्ग से पूरी तरह से बच पाना कठिन है क्योंकि इसमें प्रेम का आधा आधार नर और नारी के बीच का आकर्षण है, और शेष आधार स्वर्ग और मही के बीच के आकर्षण का। स्वर्ग और मही के आकर्षण की पहेली समझना, प्रेम के उस गुण को समझने जैसा है जिसमें परम्परागत बुद्धि गच्चा खा जाती है।
अच्छे कर्म और परिश्रम करने से स्वर्ग मिलता है। स्वर्ग की परिभाषा कुछ पहचानी पहचानी से लगे, अतः समानता हेतु यह माना जा सकता है कि स्वर्ग हमारी पृथ्वी के उन स्थानों जैसा है, जहाँ ऐश्वर्य है, धनधान्य है, जहाँ किसी चीज की कमी नहीं है। जहाँ सब कुछ बहुत ही अच्छा है, आनन्द विलास की सारी सुविधायें हैं, सुख ही सुख पसरा है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, इसकी तनिक छाँव नहीं है वहाँ। वहीं दूसरी ओर मृत्युलोक में पीड़ा है, हर सुख में दुख छिपा है, द्वन्द्व भरा है। मृत्युलोक में रहने वाले हम सब, स्वाभाविक है कि इसी कारण से स्वर्ग के प्रति आकृष्ट होते हैं।
पुरुरवा भी अपवाद नहीं हैं। उर्वशी नारी है और सौन्दर्य का चरम है, आकर्षण गहरा होना ही है। साथ ही साथ वह स्वर्ग से भी है, जहाँ प्रणय एक कला है, जहाँ ऐश्वर्य एक जीवन पद्धति है, जहाँ श्रृंगार समीर संग बहता है। उर्वशी के प्रति पुरुरवा की प्रेमासित आकांक्षा सहजता से समझी जा सकती है, पर उर्वशी को पुरुरवा के अन्दर क्या भाया जिसके लिये वह स्वर्ग छोड़कर मही पर आने को उद्धत हो गयी। इस तथ्य को समझ पाना न केवल प्रेम का रहस्य जानने में सहायक होगा वरन मृत्युलोक के नरों को वह अभिमान भी देगा जो स्वर्गलोक में अनुपस्थित है।
चलिये ढूढ़ते हैं कि पुरुरवा में मृत्युलोक के कौन से विशेष गुण हैं जिससे उर्वशी अभिभूत है। पुरुरवा सुन्दर हैं, राजा हैं, शक्तिशाली हैं, वीर हैं, देवताओं का साथ देते हैं, सात्विक हैं, गुणवान हैं। पर यह सब तो स्वर्ग के देवों में भी है। कहीँ ऐसा तो नहीं कि उर्वशी को मृत्युलोक की मूलभूत प्रकृति ही अच्छी लगती हो, वही प्रमुख हो, पुरुरवा गौड़ हों। ऐसा भी हो सकता है कि प्रेम बिना किसी नियम के अनियन्त्रित ही उमड़ आता हो, उर्वशी को स्वयं भी न समझ आता हो कि उसे पुरुरवा से प्रेम क्यों हो गया। संभावनायें अनेक हैं। जब भी संशय हो, तो सबसे अच्छा समाधान वही कर सकता है जिसके बारे में संशय हो। उर्वशी के संवाद ही इस संशय को मिटाने में सहायक होंगे।
स्वर्ग के सुखों में कल्पना की प्रधानता हैं, वहाँ रूप का आनन्द दृष्टि से ही मिल जाता है, वहाँ व्यञ्जन का आनन्द उसकी गन्ध से ही मिल जाता है। जब मन की कल्पना सुख का निर्धारण करने लगे और सुख का संचार शरीर तक न पहुँचे तो कुछ छूटा छूटा सा लगता होगा स्वर्ग में, कुछ कुछ कृत्रिम सा लगता होगा स्वर्ग में। यद्यपि प्रेम का प्रारम्भ दृष्टि और कल्पना के माध्यम से ही होता है, स्वर्गलोक में भी और मृत्युलोक में भी, पर स्वर्गलोक में वह संचार कल्पना तक ही सीमित रहता है, मृत्युलोक में वह संचार शरीर तक आता है, अप्रतिबन्धित। शरीर से सुख भोगने की प्रवृत्ति दुख भी देती है, शरीर का सुख अल्पकालिक भी होता है। द्वन्द्व देता है शरीर, तब सुख की अनुपस्थिति दुख का आधार निर्माण करने लगती है। यद्यपि मृत्युलोक में दुख की उपस्थिति सुख की उपलब्धता बाधित और सीमित कर देती हैं, पर दुख के बाद सुख की अनुभूति में जो गाढ़ापन होता है, वह स्वर्गलोक में कहीं नहीं मिलता है। उर्वशी और अन्य देवता जिन्हें मृत्युलोक का आकर्षण है, उनके अन्दर सुख का गाढ़ापन एक न एक कारक होगा।
प्रेम स्वर्ग में एक क्रीड़ा है, देवताओं के लिये भी और अप्सराओं के लिये भी, वहाँ भावों से अधिक भोगों की प्रधानता है। प्रेम हुआ तो हुआ, नहीं तो जीवन चलता ही रहता है। जहाँ भोगों की अधिकता हो, वहाँ प्रेम को क्या वरीयता मिलेगी, यह विचार कर पाना कोई कठिन कार्य नहीं है। वहीं मृत्युलोक में प्रेम से बड़ा कोई रोग नहीं है, जिसे हो जाता है, उसे कोई औषधि नहीं मिलती है, न नींद आती है, न स्थायित्व मिलता है। कारण यही होगा कि हम प्रेम को अत्यधिक गम्भीरता से लेते हैं। जहाँ सुखों का आकाल पड़ा हो, वहाँ प्रेम में ही सुखों की उपस्थिति ढूढ़ने लगते हैं हम पृथ्वीवासी। उर्वशी के मन में प्रेम की उस एकात्मता और गूढ़ता की आकांक्षा जगी होगी, प्रेम के उस पक्ष की जो मात्र मृत्युलोक में मिलती है। उर्वशी के लिये मृत्युलोक के प्रेम का लोभ यातना से भरा होने वाला था, माँ बनने की पीड़ा से भरा, फिर भी वह प्रेम की उस गहराई को छूना चाहती थी जो केवल मृत्युलोक में सुलभ थी।
तीसरा कारण नर के भीतर की वह अग्नि है जो उसे संघर्ष करते रहने को प्रेरित करती रहती है। देवताओं के मन में कोई कामना, द्वन्द्व व परिताप शेष नहीं रहता है, तब उस अग्नि की अनुपस्थिति भी स्वाभाविक है जो इन गुणों का कारण बनती है। नर जानता है कि जब तक उसके अन्दर वह अग्नि है, जब तक उसके अन्दर कामना है, तभी तक सब उसके सम्मुख नत मस्तक हैं, सब इसी अग्नि का सम्मान करते हैं, देव भी, दानव भी। यही अग्नि द्वन्द्व उत्पन्न करती है, मन को स्थिर भी नहीं रहने देती है, उसे बारी बारी से दोनों तटों पर डुलाती है, कभी स्वर्ग सुहाता है, कभी मही सुहाती है। वह अग्नि रक्त की ऊष्णता में विद्यमान है, जब रक्त नर की नसों में अनियन्त्रित दौड़ता है, जब हुंकार अग्नि बरसाती है, सामने उपस्थित जन सहम जाते हैं, सुरक्षित आश्रय ढूढ़ते हैं। जिस समय पुरुरवा ने उर्वशी को केसी दानव से बचाया होगा तो अनजाने में हुये स्पर्श में इसी अग्नि की तपन उर्वशी के उर में बस गयी होगी।
प्रेम शरीर का भी विषय है, मन में उत्पन्न होता है पर निरूपण शरीर में पाता है। जैसे जैसे आत्मा का प्रकाश फैलता है, शरीर अपना महत्व खोने लगता है, जन्म मृत्यु के चक्र से बाहर निकलने लगता है। आत्मा का प्रकाश प्रेम के उपासकों के लिये बाधक है। गन्धमादन पर्वत पर, जब उर्वशी ने पुरुरवा से पूछा कि यदि आपको प्रेम था तो आपने मेरा हरण क्यों नहीं कर लिया? जब पुरुरवा कर्म और विकर्म की बात करने लगे तो उर्वशी का हृदय धक से रह गया, उसे लगा कि वह पुनः किसी देव की बाहों में पड़ी है। उसने कहा कि मैं अन्धकार की प्रतिमा हूँ, मैं आपके हृदय के अन्धकार पर राज्य करती हूँ, उसी के माध्यम से मेरा आप पर अधिकार है, जिस दिन आपको प्रकाश मिलेगा, आप भी देव हो जाओगे, वे देव जिन्हे छोड़ मैं आपकी बाहों में पड़ी हूँ।
प्रेम अंधकार से पोषित क्यों होता है, कहना कठिन है, पर दैनिक जीवन में उसका उदाहरण मिल जाता है। पति कभी कोई धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने लगे तो पत्नी तुरन्त ही सशंकित हो जाती हैं। उन्हें लगने लगता है कि पति विरक्त हो जायेंगे, उनके प्रेम में भला ऐसी क्या कमी रह गयी जो पति विरक्तिमना होने लगे हैं। आप पर उनका और प्रेम उमड़ने लगता है। मही में एक गुरुता है, सब चीजों को अपनी ओर आकर्षित करने की, प्रेम भी आकर्षण का विषय है अतः उसमें भी गुरुता स्वाभाविक है। प्रेम और मही में स्वभावों का मिलन है, स्वर्ग प्रेम को समझने में असमर्थ रहता है, उर्वशी को प्रेम की अनुभूति पाने मही पर उतरना पड़ता है, किसी पुरुरवा के बाहु-वलय में।
अच्छे कर्म और परिश्रम करने से स्वर्ग मिलता है। स्वर्ग की परिभाषा कुछ पहचानी पहचानी से लगे, अतः समानता हेतु यह माना जा सकता है कि स्वर्ग हमारी पृथ्वी के उन स्थानों जैसा है, जहाँ ऐश्वर्य है, धनधान्य है, जहाँ किसी चीज की कमी नहीं है। जहाँ सब कुछ बहुत ही अच्छा है, आनन्द विलास की सारी सुविधायें हैं, सुख ही सुख पसरा है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, इसकी तनिक छाँव नहीं है वहाँ। वहीं दूसरी ओर मृत्युलोक में पीड़ा है, हर सुख में दुख छिपा है, द्वन्द्व भरा है। मृत्युलोक में रहने वाले हम सब, स्वाभाविक है कि इसी कारण से स्वर्ग के प्रति आकृष्ट होते हैं।
पुरुरवा भी अपवाद नहीं हैं। उर्वशी नारी है और सौन्दर्य का चरम है, आकर्षण गहरा होना ही है। साथ ही साथ वह स्वर्ग से भी है, जहाँ प्रणय एक कला है, जहाँ ऐश्वर्य एक जीवन पद्धति है, जहाँ श्रृंगार समीर संग बहता है। उर्वशी के प्रति पुरुरवा की प्रेमासित आकांक्षा सहजता से समझी जा सकती है, पर उर्वशी को पुरुरवा के अन्दर क्या भाया जिसके लिये वह स्वर्ग छोड़कर मही पर आने को उद्धत हो गयी। इस तथ्य को समझ पाना न केवल प्रेम का रहस्य जानने में सहायक होगा वरन मृत्युलोक के नरों को वह अभिमान भी देगा जो स्वर्गलोक में अनुपस्थित है।
स्वर्ग के सुखों में कल्पना की प्रधानता हैं, वहाँ रूप का आनन्द दृष्टि से ही मिल जाता है, वहाँ व्यञ्जन का आनन्द उसकी गन्ध से ही मिल जाता है। जब मन की कल्पना सुख का निर्धारण करने लगे और सुख का संचार शरीर तक न पहुँचे तो कुछ छूटा छूटा सा लगता होगा स्वर्ग में, कुछ कुछ कृत्रिम सा लगता होगा स्वर्ग में। यद्यपि प्रेम का प्रारम्भ दृष्टि और कल्पना के माध्यम से ही होता है, स्वर्गलोक में भी और मृत्युलोक में भी, पर स्वर्गलोक में वह संचार कल्पना तक ही सीमित रहता है, मृत्युलोक में वह संचार शरीर तक आता है, अप्रतिबन्धित। शरीर से सुख भोगने की प्रवृत्ति दुख भी देती है, शरीर का सुख अल्पकालिक भी होता है। द्वन्द्व देता है शरीर, तब सुख की अनुपस्थिति दुख का आधार निर्माण करने लगती है। यद्यपि मृत्युलोक में दुख की उपस्थिति सुख की उपलब्धता बाधित और सीमित कर देती हैं, पर दुख के बाद सुख की अनुभूति में जो गाढ़ापन होता है, वह स्वर्गलोक में कहीं नहीं मिलता है। उर्वशी और अन्य देवता जिन्हें मृत्युलोक का आकर्षण है, उनके अन्दर सुख का गाढ़ापन एक न एक कारक होगा।
प्रेम स्वर्ग में एक क्रीड़ा है, देवताओं के लिये भी और अप्सराओं के लिये भी, वहाँ भावों से अधिक भोगों की प्रधानता है। प्रेम हुआ तो हुआ, नहीं तो जीवन चलता ही रहता है। जहाँ भोगों की अधिकता हो, वहाँ प्रेम को क्या वरीयता मिलेगी, यह विचार कर पाना कोई कठिन कार्य नहीं है। वहीं मृत्युलोक में प्रेम से बड़ा कोई रोग नहीं है, जिसे हो जाता है, उसे कोई औषधि नहीं मिलती है, न नींद आती है, न स्थायित्व मिलता है। कारण यही होगा कि हम प्रेम को अत्यधिक गम्भीरता से लेते हैं। जहाँ सुखों का आकाल पड़ा हो, वहाँ प्रेम में ही सुखों की उपस्थिति ढूढ़ने लगते हैं हम पृथ्वीवासी। उर्वशी के मन में प्रेम की उस एकात्मता और गूढ़ता की आकांक्षा जगी होगी, प्रेम के उस पक्ष की जो मात्र मृत्युलोक में मिलती है। उर्वशी के लिये मृत्युलोक के प्रेम का लोभ यातना से भरा होने वाला था, माँ बनने की पीड़ा से भरा, फिर भी वह प्रेम की उस गहराई को छूना चाहती थी जो केवल मृत्युलोक में सुलभ थी।
तीसरा कारण नर के भीतर की वह अग्नि है जो उसे संघर्ष करते रहने को प्रेरित करती रहती है। देवताओं के मन में कोई कामना, द्वन्द्व व परिताप शेष नहीं रहता है, तब उस अग्नि की अनुपस्थिति भी स्वाभाविक है जो इन गुणों का कारण बनती है। नर जानता है कि जब तक उसके अन्दर वह अग्नि है, जब तक उसके अन्दर कामना है, तभी तक सब उसके सम्मुख नत मस्तक हैं, सब इसी अग्नि का सम्मान करते हैं, देव भी, दानव भी। यही अग्नि द्वन्द्व उत्पन्न करती है, मन को स्थिर भी नहीं रहने देती है, उसे बारी बारी से दोनों तटों पर डुलाती है, कभी स्वर्ग सुहाता है, कभी मही सुहाती है। वह अग्नि रक्त की ऊष्णता में विद्यमान है, जब रक्त नर की नसों में अनियन्त्रित दौड़ता है, जब हुंकार अग्नि बरसाती है, सामने उपस्थित जन सहम जाते हैं, सुरक्षित आश्रय ढूढ़ते हैं। जिस समय पुरुरवा ने उर्वशी को केसी दानव से बचाया होगा तो अनजाने में हुये स्पर्श में इसी अग्नि की तपन उर्वशी के उर में बस गयी होगी।
प्रेम शरीर का भी विषय है, मन में उत्पन्न होता है पर निरूपण शरीर में पाता है। जैसे जैसे आत्मा का प्रकाश फैलता है, शरीर अपना महत्व खोने लगता है, जन्म मृत्यु के चक्र से बाहर निकलने लगता है। आत्मा का प्रकाश प्रेम के उपासकों के लिये बाधक है। गन्धमादन पर्वत पर, जब उर्वशी ने पुरुरवा से पूछा कि यदि आपको प्रेम था तो आपने मेरा हरण क्यों नहीं कर लिया? जब पुरुरवा कर्म और विकर्म की बात करने लगे तो उर्वशी का हृदय धक से रह गया, उसे लगा कि वह पुनः किसी देव की बाहों में पड़ी है। उसने कहा कि मैं अन्धकार की प्रतिमा हूँ, मैं आपके हृदय के अन्धकार पर राज्य करती हूँ, उसी के माध्यम से मेरा आप पर अधिकार है, जिस दिन आपको प्रकाश मिलेगा, आप भी देव हो जाओगे, वे देव जिन्हे छोड़ मैं आपकी बाहों में पड़ी हूँ।
प्रेम अंधकार से पोषित क्यों होता है, कहना कठिन है, पर दैनिक जीवन में उसका उदाहरण मिल जाता है। पति कभी कोई धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने लगे तो पत्नी तुरन्त ही सशंकित हो जाती हैं। उन्हें लगने लगता है कि पति विरक्त हो जायेंगे, उनके प्रेम में भला ऐसी क्या कमी रह गयी जो पति विरक्तिमना होने लगे हैं। आप पर उनका और प्रेम उमड़ने लगता है। मही में एक गुरुता है, सब चीजों को अपनी ओर आकर्षित करने की, प्रेम भी आकर्षण का विषय है अतः उसमें भी गुरुता स्वाभाविक है। प्रेम और मही में स्वभावों का मिलन है, स्वर्ग प्रेम को समझने में असमर्थ रहता है, उर्वशी को प्रेम की अनुभूति पाने मही पर उतरना पड़ता है, किसी पुरुरवा के बाहु-वलय में।