30.6.12

पर न जाने बात क्या है

लखनऊ का असह्य ताप, प्रशिक्षण की गम्भीरता, सायं तरणताल में निस्पंद उतराना, कार्य से कहीं दूर आधुनिक मनीषी की तरह बहते दिन। जहाँ मन में एक अपराधबोध था, किसी को न सूचित करने का, वहीं एक निश्चिन्तता भी थी कि शेष समय अपना ही रहेगा। यद्यपि सामाजिकता के प्रति यह उदासीनता और अन्यमनस्कता किसी भी कोण से क्षम्य नहीं है, पर स्वयं को एकान्तवास में रखने का दण्ड भी भुगतना था, अपने को समझने के लिये समय चाहिये था। स्वार्थ सर चढ़ बोला और मैं अपने आगमन के बारे में मित्रों और शुभचिन्तकों को सूचित करने के स्थान पर मौन रहा।

एकान्त ढेरों सम्भावनायें लेकर आता है, लगता है कि अब अपने से बतियायेंगे, अपने मन को मनायेंगे, अपने को तनिक और जानेंगे। अब एकान्त काटता नहीं है, जो अपेक्षित रहता है यथासंभव दे ही जाता है। एक क्रम बन गया, सोने के पहले रामधारी सिंह दिनकर कृत 'उर्वशी' पढ़ने का, सोने की प्रक्रिया में उसे समझने का, और उठने के पश्चात उसे गुनने का। रात्रि को कल्पनालोक में बिचरने का पूरा वातावरण था, श्रृंगार-ऊर्मियों में बहकने की प्रचुर सामग्री थी, पर शरीर दिनभर की थकान के बाद निढाल निद्रा में मन के आग्रहों को कल पर टालता रहा, हर रात।

पुरुरवा सनातन नर का प्रतीक है, उर्वशी सनातन नारी की, दिनकर की आधारभूत संकल्पना में स्वयं को रखकर, अपनी विवशताओं के आवरण में उर्वशी को समेटने का प्रयास करता रहा। यह समझने का प्रयास करता रहा कि सब कुछ पाने के बाद भी प्यास क्यों नहीं बुझती है, क्या पाना शेष रह जाता है? दिनकर मानते हैं कि नर के भीतर एक और नर रहता है और नारी के भीतर एक और नारी, उनको ही पाकर प्रेम को संतुष्टि मिलती है, प्रेम को अपने अस्तित्व का उत्कर्ष मिलता है। अपने अन्दर के एक और नर को अपने वाह्य आवरण से अलग रखने और नारी के भीतर की नारी की झलक को अपनी स्मृतिकक्षों से सहेज लाने का प्रयास करता रहा।

बात गहरी हो चली थी, सतही-श्रृंगार की कल्पना निस्तेज थी। उर्वशी की काव्यमयी पंक्तियाँ रह रहकर मन को प्रेम के उस पंथ पर ले जाने को तैयार बैठी थीं, जहाँ सनातन नर को सनातन नारी के अन्तरतम के दर्शन होने थे।

आकर्ष का संचार, संचार की मात्रा और मात्रा की गणित, सब का सब समझना था शब्दों के माध्यम से। प्रायोगिक प्रकरण तो बहुधा हमें हतप्रभ सा अकेला छोड़ चुके थे, न जाने कितनी बार। स्वयं को समझने का प्रयास तो तब भी किया जा सकता है, आप अपने मन से बातें कर सकते हैं, पर उस अग्नि को कैसे समझेंगे जिसके प्रभाव में आते ही दिग्भ्रम हो जाता है, मन और विचार अस्थिर हो जाते हैं, हृद के स्पंद अनियन्त्रित से अपना आश्रय ढूढ़ने लगते हैं। आप भी पुरुरवा की तरह प्रश्न पूछते फिरते हैं,

पर न जाने बात क्या है,
इन्द्र का आयुध, पुरुष जो झेल सकता है,
सिंह के बाहें मिलाकर खेल सकता है,
रूपसी के सामने असहाय हो जाता,
शक्ति के रहते हुये निरुपाय हो जाता,
बिद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से,
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से।

काश मुनियों की तपस्या भंग न हो, वे सिद्ध हैं, वे इस तत्व को समझकर इससे पार पाने में सक्षम भी हैं। हम असहाय हैं, इस आकर्षण को समझने में असमर्थ, हतप्रभ और स्थिर हैं।

स्वीकार है कि कई बार अपेक्षित को पा न पाने का क्रोध राह भरमाता है, बहुधा मन दुख से भर जाता है, जीवन भर उस राह में न बढ़ने के प्रण तक कर बैठता है, पर फिर भी इस विषय का सत्य जानने को मन उत्सुक रहता है। एक अद्भुत सी पुरुवाई बह रही है जगत में, प्रकृति में, जो सदा ही मन की जिज्ञासा और आनन्द की उत्कण्ठा प्रेम की राह में बलवत ले जाती है।

प्रश्नों की अग्नि में अनुभवों की आहुतियाँ पड़ रही हैं, प्रेम के सिद्धान्त अनमने हैं, अपने ऊपर किसी का नियन्त्रण नहीं चाहते हैं। पुरुरवा थोड़ा समझ आता है, लगता है उसमें संभवतः वही आकांक्षायें अतृप्त रही होंगी जो कि हम सब में हैं। उर्वशी भी थोड़ी समझ आती है, अपने हृदय का आह्लाद उसकी प्रेम तरंगों का संकेत भर है।

वापस आ गया हूँ, लखनऊ की तपन पर भले ही बंगलोर ने शीतल फुहार छिड़क दी हो, पर उर्वशी का पढ़ना और उर्वशी की खोज अब तक जारी है, 'उर्वशी' के बीच पृष्ठों में विचारों और अंगारों के बवंडर अब भी उठ खड़े होते हैं। दिनकर की 'उर्वशी' को पढ़ना अपनी सनातन उर्वशी को जानने का संकेत है, अन्तहीन को समझने का संकेत है।

65 comments:

  1. Beautifully expressed ,the beautiful content ,which is still to search the real sens of fragrance of URVASHI . At what place[spiritual, ethical or mythical,]pencil or pen may stake.

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  2. दिनकर की यह निष्पत्ति कि नर के अंदर एक और नर तथा नारी के अंदर एक और नारी होती है,बिलकुल सत्य है.कई बार दूसरों की बात छोड़ दें ,यदि हम स्वयं में आत्मावलोकन करते हैं तो पाते हैं कि यह हमीं हैं क्या..?

    ...दूसरों से न मिल पाने की टीस या अपराधबोध से कहीं अच्छा है कि हम अपने आप से मिल लें.

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  3. अगर मैं लखनऊ में होता तो कम से कम दो दिन आपसे बात करने का मन नहीं होता :)
    ...यह धोखा वैसा ही है जैसा अंत में पुरुरवा के साथ हुआ ! :)
    वैसे एकांतवास का अपना आनंद है !

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  4. ''ज़िन्दगी के गीत की, धुन बदल के देख ले ...'' सुन जा दिल की दासतां.

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  5. पुरुरवा और उर्वशी पुरुष नारी के बीच शाश्वत चाह,रागात्मकता के प्रतीक हैं ! अच्छा समय बिताया आपने नवाबों के शहर में
    जैसे कोई स्वैच्छिक अध्ययन टूर ......काव्य शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम .... :-)

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  6. अरे हम भी लखनऊ की गर्मी झेल रहे थे ......अब भी....
    ----दिनकर की यह निष्पत्ति कि नर के अंदर एक और नर तथा नारी के अंदर एक और नारी होती है उचित ही है ......
    -----सच तो यह है कि ... नर के अंदर अनेकों नर व नारी के अंदर अनेकों नारी होती हैं ....
    ----और प्रत्येक नर के अंदर एक नारी व नारी के अंदर एक नर होता है ....प्रेम में आकर्षण आह्लाद के साथ संशय, समझकर भी न समझ पाने का अहसास, तीब्रतम रागात्मकता व इच्छा के साथ पूर्ण विश्वास में हिचकिचाहट, प्रश्नों की अग्नि, अनुभवों आहुतियाँ... इसीलिए रहती है....
    ---परन्तु अन्तत:काम-वाण की विजय इसीलिये होती है कि..पुरुरवा की अतृप्त आकांक्षायें हम सब में हैं..

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  7. हम लोग तो बारिश के लिए त्राहि माम त्राहि माम कर रहे हैं.. और अब तो गोमतीनगर में भी लाईट चली जाती है.. उर्वशी को मैंने भी पढ़ा है... और ज़िन्दगी की उर्वशियों को पढ़ते रहते हैं.. समझना मुश्किल होता है.. पर समझ आ ही जाती है.. वैसे यह तो है कि एकांतवास का एक अलग ही मज़ा है..

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  8. स्‍वयं की खोज में एकान्‍तवास का सहारा लेना अध्‍यात्‍म की ओर अग्रसर होना है। अपनी आत्‍मा की ओर प्रवृत होना ही अध्‍यात्‍म है।

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  9. समझ नहीं पा रहा हूं इस पोस्ट को कैसे समझूं । एकांतवास ने आपको और धारदार कर दिया है , उर्वशी आपसे कुछ बहुत तगडा लिखवा के ही मानेगी , या कि नर नारी और प्रकृति के रिश्ते को समझने समझाने के लिए आपको उर्वशी का ही इंतज़ार था । बेहतरीन बेहतरीन और बहुत बेहतरीन लेखन । हां एकांत में कई बार हम खुद को सुन पाते हैं ...चलिए लिए जा रहा हूं आपकी पोस्ट को चुटकियों से पकड के , इन्हें टांग कर अपनी दीवार सजाऊंगा ।

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  10. "Self" is a riddle..
    and we keep solving it all our lives..

    Awesome post as ever :)

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  11. कुछ समय यूँ निकाला जाना चाहिए ....आत्मवलोकन कर अपने ही करीब जाने का मार्ग मिलता है मानो.....

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  12. बहुत सुन्दर प्रवीण जी....दिनकर की उर्वशी को पूरी तरह जानने समझने के लिए पहले हमें अपने अंदर के नर या नारी को बाहर निकालना होगा ..बहुत सही कहा..आज आप की ये पोस्ट पढ़ कर अपने कालेज के दिन याद दिलादिया.. आभार ..

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  13. दिनकर की 'उर्वशी' को पढ़ना अपनी सनातन उर्वशी को जानने का संकेत है, अन्तहीन को समझने का संकेत है।
    स्वयम से स्वयम तक की यात्रा पर चलता मन ...सुंदर आलेख ..!!

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  14. पढ़ा... अच्छा लगा तो एक बार और पढ़ा... सच में एकांतवास प्रभावशाली दिख रहा है....

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  15. दिनकर की 'उर्वशी' को पढ़ना अपनी सनातन उर्वशी को जानने का संकेत है, अन्तहीन को समझने का संकेत है।
    रोचकता लिए बेहतरीन आलेख ...आभार

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  16. स्वंय को खोजना हीतो परम लक्ष्य है।

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  17. जीवन भी एक सत्य सा , थोडा बुझा , थोडा अनबुझा ....उर्वशी और पुरुरवा के जैसा ही .
    एकांतवास ने लाभ भरपूर दिया !

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  18. पुरुष के अंदर पुरुष और नारी के भीतर नारी। हो सकता है पूर्णता की खोज का एक हिस्‍सा हो। पुरुष अधिक पौरुषत्‍व की खोज खुद के भीतर करता तो नारी अपने भीतर पूर्ण नारी की। यही उन्‍हें अपने अस्तित्‍व पर टिके रहने में मदद करता हो...


    बहुत गहरे उतर गए पाण्‍डेजी... :)

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  19. दिनकर के बहाने आप जिस उर्वशी कों खोज रहे हैं कहीं वो आपके पास ही तो नहीं ... बेंगलोर में ही ...

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  20. आज अकेला होना भी आसान कहां है

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  21. एकांतवास में उर्वसी पढ़ना ,,,,,बहुत खूब पाण्डेय जी,,,,,

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  22. आप तो सदैव अच्छा लिखते हैं और इस बार भी अच्छा ही लिखा होगा | पर इस बार मैं बिना पूरे पढ़े ही यह कमेन्ट कर रहा हूँ कि आपसे हम लोगों को शिकायत है कि आपने लखनऊ में होने की जानकारी नहीं दी | अन्यथा आपसे मिलने का सुनहरा अवसर मिलता |

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  23. सत, चित आनंद की प्राप्ति के लिए एकांत आवश्यक है. श्रीमती अजित गुप्ता जी से सहमत.

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  24. `उर्वशी' पढ़ना अंतहीन यात्रा है। पढ़ना शुरू कर देने पर कभी पढ़ना पूरा ही नहीं होता।

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  25. उर्वशी भी थोड़ी समझ आती है, अपने हृदय का 'अह्ला'द'" उसकी प्रेम तरंगों का संकेत भर है।
    दिनकर की उर्वशी में सम्मोहन है रूप का तो भौतिक द्वंद्व भी है .दो बिम्ब देखिए -

    (१)सत्य ही रहता नहीं ये ध्यान तुम कविता कुसुम या कामिनी हो

    (२)और वक्ष के कुसुम कुञ्ज सुरभित विश्राम भवन ये ,जहां मृत्यु के पथिक ठहर कर श्रान्ति दूर करतें हैं और यह भी

    रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है ,
    स्नेह का सौन्दर्य को उपहार रस चुम्बन नहीं है .

    मन आह्लादित होता है "आह्लाद" से भर जाता है द्वंद्व से भी उर्वशी पढ़ते पढ़ते और अर्द्धनारीश्वर की कल्पना साकार हो उठती है .मैं तुझमे हूँ तू मुझमे है ........

    सवाल योनिज सृष्टि को भी लेकर उठें हैं जो आज भी प्रासंगिक हैं .रूप गर्विताएं इसे तुच्छ समझ रहीं हैं ये ही तो हैं इस दौर की उर्वशियाँ हैं .दिनकर युगदृष्टा हैं ,योद्धा हैं ,विद्रोही हैं जितनी उनकी कृतियाँ उतने उनके रंग .
    बहुत बढ़िया प्रस्तुति .हाँ एकांत ज़रूरी है फोन की टिक टिक से चार्जर की ज़रुरत से बचना भी .रात को एक निजी अनुभव बनाइए .

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  26. उर्वशी पढते हुए एकांतवास संभव ही नहीं है, अंतर्द्वंदों के बदल घेर ही लेते होंगे.

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  27. जरूरी है..खुद के साथ कुछ समय बिताना..

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  28. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (01-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  29. बढ़िया भाव |
    आभार ||

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  30. पर न जाने बात क्या है,
    इन्द्र का आयुध, पुरुष जो झेल सकता है,
    सिंह के बाहें मिलाकर खेल सकता है,
    रूपसी के सामने असहाय हो जाता,
    शक्ति के रहते हुये निरुपाय हो जाता,
    बिद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से,
    जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से।
    --------------

    दिनकर जी को ज्यादातर पाठ्यपुस्तकों में ही अब तक पढ़ा है। इन पंक्तियों को पढ़वाने के लिये बहुत बहुत आभार ।

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  31. एक अद्वितीय कृति का पठन एक रोचक और सुखद अनुभव लेकर आता ही है, चाहे ताप कितना भी अधिक क्यों न हो!

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  32. उर्वशी की चर्चा, लखनऊ और ब्लॉगिंग चैट से भी एकांत मांगती है शायद।

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  33. दिनकर जी को सामने बैठा देखकर भी नहीं बोध था की ये लिखते है . अच्छा मनन चल रहा है .

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  34. बहुत सुन्दर रोचक आलेख लगा आपका चलिए एकांत में उर्वशी तो थी आपके साथ फिर एकांत क्यूँ सालता दिनकर जी की उत्कृष्ट रचनाओं को पढने वाले ही जाने |

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  35. एकांत में कहाँ थे आप ? उर्वशी साथ थी .... और जब उर्वशी जैसी कृति पर चिंतन मनन चल रहा हो तो किसी का होना कष्टकारक होता ....

    अब आप साक्षात उर्वशी के पास हैं चलिये ढूंढिए अपने अंदर के नर को और नारी के अंदर दूसरी नारी को .... शुभकामनायें

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  36. यह आकर्षण का रहस्य ही तो जीवन में एक उन्माद व इसके प्रति निरंतर जुगुस्पा बनाये रखता है। प्रभावशाली व सुंदर लेख।

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  37. Urvashi ki talaash jaari rehni chahiye...A beautiful reason to live.

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  38. किसी श्रेष्ठ कृति को सीढ़ी बना कर अपने भीतर उतरने का प्रयास ,एकान्त ही मांगता है.
    चिन्तन ,मनन और गहरे ले जायेंगे पर थाह पा ले, अभी तक तो ,ऐसा कहीं देखा नही .
    कोशिश करने का अपना आनन्द है - बाँटने के लिये आभार !

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  39. वापस आ गया हूँ, लखनऊ की तपन पर भले ही बंगलोर ने शीतल फुहार छिड़क दी हो, पर उर्वशी का पढ़ना और उर्वशी की खोज अब तक जारी है, 'उर्वशी' के बीच पृष्ठों में विचारों और अंगारों के बवंडर अब भी उठ खड़े होते हैं। दिनकर की 'उर्वशी' को पढ़ना अपनी सनातन उर्वशी को जानने का संकेत है, अन्तहीन को समझने का संकेत है।

    रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं तो और क्या है ,?
    स्नेह का सौन्दर्य को उपहार रस चुम्बन नहीं तो और क्या है ?

    उर्वशी को पढ़ना एक नदी में बहना है .प्रेम और द्वंद्व की नदी में .

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  40. आकर्ष एवं प्रेम का संचार स्त्री और पुरुष के प्रेम के विभांतर के कारण सदैव प्रवाहित होने को बाध्य होता है | और यह सतत चलता रहेगा ,जिस दिन उर्वशी और पुरुरवा के मध्य प्रेम का विभव समान हो जाएगा ,संसार की गति थम जायेगी ,जो असंभव ही है, चाहे कितनी ही उर्वशी और कितने ही पुरुरवा जन्म ले लें |

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  41. सार्थक चिंतन
    बढ़िया प्रस्तुति.

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  42. उर्वशी पर अपना शोध चलने दें.

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  43. दिनकर की 'उर्वशी' को पढना, वह भी एकान्‍त में और वह भी लखनऊ में रहते हुए! मैं तो आपके आलेख की पंक्तियों के बीच का अनलिखा पढने की कोशिश कर रहा हूँ और सच मानिए, बहुत आनन्‍द आ रहा है।

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  44. रामधारी दिनकर जी द्वारा कृत ’उर्वशी’ पर आपके द्वारा प्रस्तुत,समीक्षा व उस समीक्षा के झीने आवरण में लिपती मानवीय अभीप्सा—काव्यमई शब्दों में खूब उभारा है.
    पढते-पढते,प्रश्नों के अंबार लग गये—यह प्यास अछोर है?
    हम जहां से चलते हैं ,उसी बिंदु पर लौट आते हैं.
    ओशो-ने कहा है जीवन वर्तुल है,जीवन का हर अहसास वर्तुल है,जहां आदि-अंत है ही नहीं.अन्यथा प्रकृति का चेहरा हर रोज नया कैसे दिखाई दे—एक बार प्यास बुझाने के बाद,बादलों का हर वर्ष लौट कर आने का क्या प्रयोजन---

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  45. गज़ब असर दिखाया न उर्वशी ने.क्या खूब चिंतन कराया.

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  46. मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं,
    उर्वशी, अपने समय का सूर्य हूं मैं!

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  47. सतीश जी से सहमत हूँ ....लखनऊ वालों को सूचित न करने का दंड तो मिलना ही चाहिए ....-:)

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  48. दिनकर जी की उर्वशी तो पढी नही । पर उर्वशी महाभारत के जरिये जानी जरूर है । उर्वशी छलना है । थोडी देर तक स्वप्न संसार में भटका कर वास्तव की तप्त धरती पर हमें छोड देती है । हम सब में एक पुरुरवा है कहीं न कहीं जो आकर्ष का शिकार बनता है ।
    सामान्यों में तो यह सब हारमोन्स का खेला है ।

    आत्म चिंतन तो अचछा है ही पर कभी कभी मिलने जुलने का अपना आनंद होता है ।

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  49. वापस आ गया हूँ, लखनऊ की तपन पर भले ही बंगलोर ने शीतल फुहार छिड़क दी हो, पर उर्वशी का पढ़ना और उर्वशी की खोज अब तक जारी है, 'उर्वशी' के बीच पृष्ठों में विचारों और अंगारों के बवंडर अब भी उठ खड़े होते हैं। दिनकर की 'उर्वशी' को पढ़ना अपनी सनातन उर्वशी को जानने का संकेत है, अन्तहीन को समझने का संकेत है।
    सत्य कथन . .कृपया यहाँ भी पधारें -
    ram ram bhai
    रविवार, 1 जुलाई 2012
    कैसे होय भीति में प्रसव गोसाईं ?

    डरा सो मरा
    http://veerubhai1947.blogspot.com/

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  50. Beautiful Post....!

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  51. पढ़ते-पढ़ते पात्र सजीव हो कर बात करे तो पढ़ना सार्थक है.. सुन्दर मंथन..

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  52. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल के चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आकर चर्चामंच की शोभा बढायें

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  53. आत्मावलोकन के लिए एकान्त , और उस एकांत में उर्वशी का साथ ......!!!!!!

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  54. सार्थक,प्रभावशाली व सुंदर लेख।

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  55. सार्थक,प्रभावशाली,सुन्दर आलेख के लिए बधाई...

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  56. किताबें भी किसी दोस्त से कम नहीं.... अच्छी पोस्ट.

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  57. आपकी पोस्ट पर हमेशा मुझे आने में देर हो जाती है और जो कुछ मैं कहना चाहती हूँ वो पहले ही सब कह चुके होते है। अब में क्या कहूँ शिखा जी की बात से सहमत हूँ।

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  58. उर्वशी कालजयी रचना है. कामना के ज्वार की थाह पाने की कोशिश.स्वागत.

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  59. Uttam aalekh..kitabon se behtar aur kya...

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  60. बहुत सुन्दर आलेख...

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  61. अप बहुत चिन्तन मनन करते हैं । तो हम भी इस से लाभान्वित होते हैं सुन्दर आलेख।

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  62. पर न जाने बात क्या है,
    इन्द्र का आयुध, पुरुष जो झेल सकता है,
    सिंह के बाहें मिलाकर खेल सकता है,
    रूपसी के सामने असहाय हो जाता,
    शक्ति के रहते हुये निरुपाय हो जाता,
    बिद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से,
    जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से।
    बढ़िया रचना .मर्द को गुलाम ये बनाए बड़े प्यार से

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  63. बढिया प्रस्तुति , ​अद्धितीय चिंतन

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  64. उर्वशी पढना बाकी है अभी !

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