सुभाषितों में सदियों के अनुभव का निचोड़ छिपा रहता है, पाठ्यक्रम में कुछ सुभाषित थे, अभी तक याद हैं। उन्हें भूलना संभव ही नहीं, कोई न कोई ऐसी परिस्थिति आ ही जाती है जिसमें वे शतप्रतिशत प्रयुक्त होते हैं। पंचतन्त्र, हितोपदेश, गीता, रामचरितमानस, कबीर और न जाने कितने स्रोतों में ज्ञान के ऐसे गूढ़ तत्व छिपे हैं जो कि न केवल पढ़कर याद किये जायें वरन समय आने पर जीवन में उपयोग भी किये जायें। यह अलग विषय है कि आधुनिक शिक्षा पद्धति में इस प्रकार के सहज और ग्राह्य ज्ञान को बेसिरपैर की तुकबंदियों से भी अधिक हीन समझा जाता है। बुद्धिहीनता को रंगहीनता मानकर परोस देने का निष्कर्ष भी रंगहीन रहता है, परीक्षा के बाद उन्हें भूल न जाने का कोई कारण ही नहीं। जिन तुकबंदियों की बस अंक देने की उपादेयता हो, उनसे अधिक अपेक्षा क्यों रखी जाये भला?
ये सुभाषित केवल ज्ञानियों की ही विचारणीय सामग्री नहीं रही है, वह समाज के अशिक्षित व अर्धशिक्षित वर्ग के लिये सहजता से उपलब्ध है। अशिक्षित ग्रामीण भी जब अपने बेटे को अच्छी संगत के बारे में बताना चाहता है, तो वह भी तुलसीदास की वही चौपाई उद्धृत करता होगा, 'सात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिय तुला एक अंग, तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सत्संग'। जब ज्ञान ही गेय हो जाये तो उससे अधिक उपयुक्त क्या हो सकता है, शब्द ज्ञान के लिये।
शिक्षा पद्धति जब जागे, तब जागे, हम बौद्धिक गुणवत्ता के प्रति जगे रहते हैं। ऐसे अमूल्य रत्नों को सुनना, मन में गुनना और फिर जीवन में उतारना, ऐसा लगता है कि किसी ने हाथ में कभी न समाप्त होने वाले रसना का पात्र दे दिया है। जितनी बार पढ़ते जाते हैं, सुनते जाते हैं, अर्थ और स्पष्ट होता जाता है। ज्ञान का अथाह अंबार भरा है सुभाषितों में, जब भी अवसर मिलता है, पढ़ता हूँ।
न्यूनतम-श्रमतन्त्रों से भरे इस विश्व में जब परिश्रम के बारे में स्वयं को आश्वस्त करना होता है तो सहज ही 'उद्यमेन हि सिद्धयन्ति, कार्याणि न मनोरथैः' याद आता है। जहाँ पराक्रम की आवश्यकता दिखती है, वहाँ 'वीरा भोग्या वसुन्धरा' याद आता है। जहाँ परिस्थियाँ अस्थिर करने के प्रयास में रहती हैं, वहाँ 'न दैन्यं न पलायनम्' का उद्घोष उठता है। जब नीरवता छा जाती है, तो 'सुख दुखे समेकृत्वा' का स्मरण हो आता है। ऐसे न जाने कितने ज्ञानसिंधु वाक्य हैं जो अतिसामान्य से अतिविशेष, सभी परिस्थितियों में अपना महत्व स्पष्ट कर जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि अपनी संस्कृति में प्रति नैसर्गिक आकर्षण ही इस अनुराग का कारण है। निश्चय ही सत्य की खोज का प्रथम आधार वह होता है, पर अपनी संस्कृति के बाहर भी ज्ञान का आधार स्वीकार है और जितना अधिक अन्य संस्कृतियों और सभ्यताओं को जानता हूँ, अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा और प्रबल होती जाती है। उस पर भी यह ज्ञानमयी आधार प्रेम को सहज स्थायित्व दे जाता है।
कई प्रश्न होते हैं जो उत्तरित होने में समय लेते हैं। धन के प्रति अधिक मोह न पिताजी में देखा और न ही कभी स्वयं को ही मोहिल पाया। ऐसा भी नहीं था कि धन के प्रति कोई वितृष्णा रही हो। अधिक धन के प्रति न कभी जीवन को खपा देने का विचार आया और न ही कभी वैराग्य ले हिमालय प्रस्थान की सोच। जितना है, जो है, सहज है। जहाँ धन की सर्वोच्चता स्वीकार नहीं रही है, वहीं कभी धन के महत्व को नकारा भी नहीं है। यह सोच समाज-मत से भिन्न अवश्य हो सकती है, पर हमारी प्रसन्नता का संसार वहीं बसता है। इस स्वभाव को समझा पाना बहुधा कठिन हो जाता था, बस मन यही कहता था, कि हम ऐसे ही हैं, ईश्वर ने अधिक रुचि लेकर हमें नहीं बनाया।
जब भी कोई दोहा या सुभाषित आपकी विचारशैली से अनुनादित होता हुआ मिलता है तो ऐसा लगता है कि आपकी जैसी मनःस्थिति इस धरा में पहले भी आ चुकी है, आपको सहसा किसी के साथ होने का अनुभव होने लगता है, आपको सहसा सहारा मिल जाता है। ऐसा लगता है किसी ने आपको ही लक्ष्य करके यह लिखा है या लगता है कि बस यही उत्तर है जो प्रश्नभरी आँखों में जाकर झोंक आओ।
बस ऐसे ही विचार तब आये जब कबीर का यह दोहा पढ़ा,
सहज मिले सो दूध सम, मांगा मिले सो पानि
कह कबीर वह रक्त सम, जामें एंचातानि।
आशय स्पष्टतम है, जो सहजता से प्राप्त हो वह दूध जैसा है, जिसके लिये किसी से झुककर माँगना पड़े वह पानी के समान है और जिसके लिये इधर उधर की बुद्धि लगानी पड़े और दन्द-फन्द करना पड़े वह रक्त के समान है। किसी घर में संपत्ति संबंधी छोटी छोटी बातों पर जब झगड़ा होते देखता हूँ तो बस यही दोहा मन ही मन बुदबुदाने की इच्छा होती है। भाईयों का रक्त बहते तक देखा है, यदि न भी बहे तो भी संबंधों का रक्त तो निश्चय ही बह जाता है, संबंध सदा के लिये दुर्बल और रोगग्रस्त हो जाता है।
बहुत लोग ऐसे हैं, जिन्हें छोटी छोटी बातों के लिये झगड़ा करना तो दूर, किसी से कुछ माँगना भी नहीं सुहाता है। ऐसे दुग्धधवल व्यक्तित्वों से ही विश्व की सज्जनता अनुप्राणित है। ईश्वर करे उन्हें उनके कर्मों से सब सहज ही मिलता रहे। ईश्वर करे कि जो ऐसी आदर्श स्थिति में नहीं भी है, उन्हें भी कम से कम वह रक्त तो दिखायी पड़े जो हमारे छलकर्मों से छलक आता है।
मनन कीजिये, मन स्वीकार करे तो भजन कीजिये, कबीर के साथ, 'सहज मिले तो....'
शिक्षा पद्धति जब जागे, तब जागे, हम बौद्धिक गुणवत्ता के प्रति जगे रहते हैं। ऐसे अमूल्य रत्नों को सुनना, मन में गुनना और फिर जीवन में उतारना, ऐसा लगता है कि किसी ने हाथ में कभी न समाप्त होने वाले रसना का पात्र दे दिया है। जितनी बार पढ़ते जाते हैं, सुनते जाते हैं, अर्थ और स्पष्ट होता जाता है। ज्ञान का अथाह अंबार भरा है सुभाषितों में, जब भी अवसर मिलता है, पढ़ता हूँ।
न्यूनतम-श्रमतन्त्रों से भरे इस विश्व में जब परिश्रम के बारे में स्वयं को आश्वस्त करना होता है तो सहज ही 'उद्यमेन हि सिद्धयन्ति, कार्याणि न मनोरथैः' याद आता है। जहाँ पराक्रम की आवश्यकता दिखती है, वहाँ 'वीरा भोग्या वसुन्धरा' याद आता है। जहाँ परिस्थियाँ अस्थिर करने के प्रयास में रहती हैं, वहाँ 'न दैन्यं न पलायनम्' का उद्घोष उठता है। जब नीरवता छा जाती है, तो 'सुख दुखे समेकृत्वा' का स्मरण हो आता है। ऐसे न जाने कितने ज्ञानसिंधु वाक्य हैं जो अतिसामान्य से अतिविशेष, सभी परिस्थितियों में अपना महत्व स्पष्ट कर जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि अपनी संस्कृति में प्रति नैसर्गिक आकर्षण ही इस अनुराग का कारण है। निश्चय ही सत्य की खोज का प्रथम आधार वह होता है, पर अपनी संस्कृति के बाहर भी ज्ञान का आधार स्वीकार है और जितना अधिक अन्य संस्कृतियों और सभ्यताओं को जानता हूँ, अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा और प्रबल होती जाती है। उस पर भी यह ज्ञानमयी आधार प्रेम को सहज स्थायित्व दे जाता है।
कई प्रश्न होते हैं जो उत्तरित होने में समय लेते हैं। धन के प्रति अधिक मोह न पिताजी में देखा और न ही कभी स्वयं को ही मोहिल पाया। ऐसा भी नहीं था कि धन के प्रति कोई वितृष्णा रही हो। अधिक धन के प्रति न कभी जीवन को खपा देने का विचार आया और न ही कभी वैराग्य ले हिमालय प्रस्थान की सोच। जितना है, जो है, सहज है। जहाँ धन की सर्वोच्चता स्वीकार नहीं रही है, वहीं कभी धन के महत्व को नकारा भी नहीं है। यह सोच समाज-मत से भिन्न अवश्य हो सकती है, पर हमारी प्रसन्नता का संसार वहीं बसता है। इस स्वभाव को समझा पाना बहुधा कठिन हो जाता था, बस मन यही कहता था, कि हम ऐसे ही हैं, ईश्वर ने अधिक रुचि लेकर हमें नहीं बनाया।
जब भी कोई दोहा या सुभाषित आपकी विचारशैली से अनुनादित होता हुआ मिलता है तो ऐसा लगता है कि आपकी जैसी मनःस्थिति इस धरा में पहले भी आ चुकी है, आपको सहसा किसी के साथ होने का अनुभव होने लगता है, आपको सहसा सहारा मिल जाता है। ऐसा लगता है किसी ने आपको ही लक्ष्य करके यह लिखा है या लगता है कि बस यही उत्तर है जो प्रश्नभरी आँखों में जाकर झोंक आओ।
बस ऐसे ही विचार तब आये जब कबीर का यह दोहा पढ़ा,
सहज मिले सो दूध सम, मांगा मिले सो पानि
कह कबीर वह रक्त सम, जामें एंचातानि।
बहुत लोग ऐसे हैं, जिन्हें छोटी छोटी बातों के लिये झगड़ा करना तो दूर, किसी से कुछ माँगना भी नहीं सुहाता है। ऐसे दुग्धधवल व्यक्तित्वों से ही विश्व की सज्जनता अनुप्राणित है। ईश्वर करे उन्हें उनके कर्मों से सब सहज ही मिलता रहे। ईश्वर करे कि जो ऐसी आदर्श स्थिति में नहीं भी है, उन्हें भी कम से कम वह रक्त तो दिखायी पड़े जो हमारे छलकर्मों से छलक आता है।
मनन कीजिये, मन स्वीकार करे तो भजन कीजिये, कबीर के साथ, 'सहज मिले तो....'
जो जीवन को सुगन्धित करता रहे वही सुभाषितम है ...
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट से कितने ही सुभाषित मन में कौंध से गए ...
दरअसल इनमें ही जीवन का वह दर्शन छुपा है जिससे सहज ही सभी पुरुषार्थ प्राप्य हैं !
जो सहजता से मिल जाये उसे समेटने के बाद दन्द-फन्द में जुटे रहना भी देखने में आता है आजकल तो......
ReplyDeleteजितना है, जो है, सहज है,
सार्थक अनुकरणीय सोच है..... यूँ ही बनी रहे , शुभकामनायें
"बिन हिय प्रीत परोसि लै, माखन कीच समांनि"
ReplyDeleteमित्र अलसुबह आपकी विनयशील व स्वयं से साक्षात्कार कराती पोस्ट पढ़ कर,दूर तक झांकती ख़ामोशी केसाथ सहज लोकोक्तियों का स्पंदन, जो किसी विषमताओं ,अनसुलझे सवालों को पल में सुलझाने में समर्थ, सुखद वातावरण में अंतर्मन के कपाटों को दस्तक से दे रहे हैं / सहजता के साथ निभाई गयी भावनाओं की रस्म वस्तुतः मन को स्निग्ध कर रही है ...... शुभकामनायें जी /
सहज और स्वाभाविक जीवन-पद्धति आज सबसे मुश्किल वस्तु हो गयी है .
ReplyDeleteसहजता अब कहाँ भाई जी ...??
ReplyDeleteलुभावने चमक के आकर्षण से आबद्ध सभी - सहजता सहज नहीं रही
ReplyDeleteहमारी तरफ एक कहावत मशहूर है कि 'पढ़े हुए से कढा हुआ बेहतर' औपचारिक शिक्षा हमें सब कुछ नहीं सिखा सकती लेकिन लोक जीवन की बातें, मुहावरे अनुभव का अर्क होते हैं| जिन स्रोतों का आपने जिक्र किया, अपने आप में उनमें से हरेक समग्र जीवन दर्शन समेटे है और हमारे पास तो ये सब हैं, फिर भी हम लाभान्वित नहीं होते तो कमी हमारी ही है|
ReplyDeleteअब सीनैरियो कुछ चेंज है.. अब इतनी नौरमैल्सी...मिलनी मुश्किल है... आखिरी पंक्तियों से रिलेटेड ... बहुत कुछ समझ में आया... बस एक प्रॉब्लम रही कि पोस्ट को समझने के लिए प्रिंट आउट निकाल कर पढना पढ़ा..
ReplyDeleteअब सीनैरियो कुछ चेंज है.. अब इतनी नौरमैल्सी...मिलनी मुश्किल है... आखिरी पंक्तियों से रिलेटेड ... बहुत कुछ समझ में आया... बस एक प्रॉब्लम रही कि पोस्ट को समझने के लिए प्रिंट आउट निकाल कर पढना पढ़ा..
ReplyDelete'सात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिय तुला एक अंग,
ReplyDeleteतुले न ताहि सकल मिलि, जो सुख लभ सतसंग'।
उत्कृष्ट प्रस्तुति |
आभार ||
आज सहजता तो सपने में भी नहीं....उत्कृष्ट पोस्ट..
ReplyDeleteसुभाषित ...यह शब्द मुझे मेरे स्कूल ले गया "सरस्वती शिशु मंदिर" . जहां हर दीवार पर सुभाषित लिखे होते थे और हम बच्चे समझते इन्हें सुभाष चन्द्र बोस ने कहा होगा इसीलिए ये सुभाषित है :-)
ReplyDeleteआपकी इस ज्ञान गंगा में आनंद आ गया .
ReplyDeleteपढ़कर जो भाव बहे थे ....टिप्पणि दी थी ...लगता है ..गूगल बाबा ...ले गये शौक से ...
ReplyDeleteअब फिर सोच कर लिख रही हूँ ...
सुभाषित आलेख ...दूध..पानी और खून ...तीनो को लेकर बह रही है हमारी कितनी पुरानी सभ्यता ...यही सुभाषित विचार हैं ..ग्रंथ हैं ...जो अभी भी बचाये चलते हैं हमे ....गहन अंधकार से घिरने नहीं देते ...!!सहजता अभी भी बची हुई है ...निश्चय ही ....!!
सहजता आज बहुत कम हो गयी है पर जब भी ऐसे शख्सियत से मिलते है अच्छा लगता है !
ReplyDeleteस्वीकार कर करते हैं, ओर सहजता से जीने का प्रयत्न भी जारी है.
ReplyDeleteसार्थक पोस्ट.
अथ सुभाषितानि ....आह ! क्या क्या न याद दिला देते हैं आप भी । वो सहजता अब जो होती तो और रहने पाती तो बात ही क्या थी । शायद ये युग ही बदल चला है , हम तो निपट लिए हैं जाने भविष्य में क्या होगा
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ... आभार
ReplyDeleteआजकल स्थिति यह है कि सहजता से सामना हो जाय तो सहज विश्वास ही नहीं होता, और उसी सहजता पर संदेह उत्पन्न होता है। और इन्सान शंकाग्रस्त होकर उस सहजता को ही जटिल बनाकर उसी में उलझ कर रह जाता है।
ReplyDeleteआज बच्चों के पाठ्य क्रम में क्या है नहीं मालूम .... पर हमने तो सुभाषितानी पढे हैं ..... हिन्दी में भी और संस्कृत में भी .....
ReplyDeleteहिन्दी राजभाषा पर कबीर की दोहवाली की शृंखला हर शुक्रवार को चल रही है .... एक बार वहाँ भी आयें ---
कबीर की दोहावाली
कबीर की दोहावली
ReplyDeleteलिंक में दोहावली शब्द गलत था .... इसलिए फिर से लिंक दे रही हूँ
व्यर्थ वाणी नहीं , संजीवनी आधार हैं
ReplyDeleteमनन और भजन में लीन हों तो होता है सब सहज...!
ReplyDeleteसुन्दर आलेख!
यह ज्ञान की भारत की पूंजी है। बाकि तो सब अर्थ के निमित्त ली गयी शिक्षा है।
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा है,सहमत हूँ निष्पत्ति से !
ReplyDelete...केवल एक सुधार करूँगा:
'तूल न ताहि सकल मिलि,जो सुख लव सत्संग'
"ऐसे दुग्धधवल व्यक्तित्वों से ही विश्व की सज्जनता अनुप्राणित है।"
ReplyDeleteऔर यह प्राणी अब लुप्तप्राय है, इस धरा से ! जो इक्के-दुक्के सज्जन वृन्द वाकई निष्काम भाव से अपने ज्ञान का खजाना लुटा भी रहे है उन्हें आज इन हरामखोर बाबा/स्वामियों ने ओवरटेक कर दिया !
आपने कहा " कई प्रश्न होते हैं जो उत्तरित होने में समय लेते हैं। धन के प्रति अधिक मोह न पिताजी में देखा और न ही कभी स्वयं को ही मोहिल पाया। ऐसा भी नहीं था कि धन के प्रति कोई वितृष्णा रही हो। अधिक धन के प्रति न कभी जीवन को खपा देने का विचार आया और न ही कभी वैराग्य ले हिमालय प्रस्थान की सोच। जितना है, जो है, सहज है। जहाँ धन की सर्वोच्चता स्वीकार नहीं रही है, वहीं कभी धन के महत्व को नकारा भी नहीं है।"
इस बाबत शायद मेरा कथन कुछ दकियानूसी सा लगेगा किन्तु चूंकि मुझे जान्ने के बाद रोचक लगा था इसलिए यहाँ कहना पसंद करूंगा कि यदि आप ब्राह्मण है ( ब्राह्मण से मेरा यह कतई तात्पर्य नहीं है कि किसी ने सिर्फ किसी ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया हो, ब्रह्मण से तात्पर्य है विद्वान, विवेकशील और आचरणशील इंसान) तो शायद यह आप भी जानते होगे कि आप भले ही इच्छा भी रखते हों और लाख कोशिश भी कर ले तब भी आपको अपार दौलत नहीं मिलेगी, और न ही आपके समक्ष कभी भूखा रहने की समस्या खडी होगी बस यों समझिये कि ठीकठाक गाडी चलती रहेगी ! उसकी वजह मेरे एक कश्मीरी सीए मित्र यह बताते हैं कि चूँकि ब्राह्मण सरस्वती का उपाषक होता है ! और धन लक्ष्मी के हाथों का कमल ! जिसे लक्ष्मी अपने हाथों में उठाये रखती है उसे सरस्वती पैरों तले रखती है ! किम्वदंती है कि शायद यही इगो एक सरस्वती उपासक को धनवान नहीं बनने देता ! :)
knowledge from all source is worth taking !!
ReplyDeleteजब भी कोई दोहा या सुभाषित आपकी विचारशैली से अनुनादित होता हुआ मिलता है तो ऐसा लगता है कि आपकी जैसी मनःस्थिति इस धरा में पहले भी आ चुकी है, आपको सहसा किसी के साथ होने का अनुभव होने लगता है, आपको सहसा सहारा मिल जाता है। ऐसा लगता है किसी ने आपको ही लक्ष्य करके यह लिखा है या लगता है कि बस यही उत्तर है जो प्रश्नभरी आँखों में जाकर झोंक आओ।
ReplyDeleteएकदम सच..काश हमारी शिक्षा व्यवस्था के ठेकेदार समझ पाते.
ये पोस्ट भी आपकी सुभाषित की तरह सहेजने वाली है ... मन में शान्ति का होना बहुत जरूरी है ...
ReplyDeleteसशक्त और सार्थक आलेख!
ReplyDeleteसहज मिले तो --- अगर मिले तो !
ReplyDeleteaaj to aapne bahut hi kamaal ki baat likhi hai jyun- jyun padhti gai sabhi pahle padhe hue shlok v suktiyan yaad aati gai.
ReplyDeletebahut bahut hi achha laga padh kar aur man me bhiachha sa ahsaas hua.
bahut hi prbhavi prastuti---poonam
सम्पूर्ण पोस्ट ही 'सुभाषित' है, सार्थक प्रस्तुति ... आभार.
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पढी ,मन को भाई ,हमने चर्चाई , आकर देख न सकें आप , हाय इत्ते तो नहीं है हरज़ाई , इसी टीप को क्लिकिये और पहुंचिए आज के बुलेटिन पन्ने पर
ReplyDeleteस्कूल में पढ़े सुभाषित के श्लोक मन ही नहीं आत्मा के स्तर पर आत्मसात हो गये, और किसी भी विषम परिस्थिति में प्रेरणा व आत्मबल प्रदान करते रहते हैं। कबीर दास जी की तरह रहीम दास जी के दोहों में भी सद्ज्ञान की अमृतधारा बहती है-
ReplyDeleteरहिमन वे नर मर चुके, जे कछु माँगन जाँइ.
उनसे पहले वे मुये, जे मुख निकसत नाहिं।।
सुंदर व प्रेरणादायी लेख के लिये आभार व बधाई।
सहज मिले सो दूध सम ...,माँगा मिले सो पानी
ReplyDeleteबिन मांगे मोती मिले ,मांगे मिले न मौत /राम ....सूक्तियां हैं पथ प्रदर्शक सर्व कालिक सार्वत्रिक निस्संदेह .बढ़िया पोस्ट के लिए आपका आभार .
Thanks for sharing this information...
ReplyDeleteसार्थक अनुकरणीय सोच के लिए बधाई ,,,,,
ReplyDeleteMY RECENT POST काव्यान्जलि ...: बहुत बहुत आभार ,,
जो मन भाए...वही लेखनी भली .......आभार
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 28 -06-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में .... चलो न - भटकें लफंगे कूचों में , लुच्ची गलियों के चौक देखें.. .
काश! हर कोई अनुकरण करे |moral science के पाठ जैसा लेख |
ReplyDeleteमैं उस मनः स्थिति के बारे में सोच रहा हूँ जब इस विषय पर लिखने का स्वतः स्फूर्त विचार आया होगा. यही सहजता तो जीवन का लक्ष्य है. ताकि कबीर के शब्दों में ज्यों की त्यों चदरिया धर दी जाये. सहज पके सो मीठा होए.
ReplyDeleteसत्यवचन !
ReplyDeleteकबीर के पास सोच-समझकर ही जाना चाहिए। 'अत्यधिक ज्वलनशील' की तरह कबीर 'अत्यधिक संक्रामक' है। जिसको लग गया, समझ लीजिए, अपना घर जलाने की जुगत में भिड गया।
ReplyDeleteवही चक्र, वही लोग, वही विचार! आपकी प्रार्थना में हमें भी शामिल मानिये!
ReplyDeleteआहा !. हम भजन करने में जुटे हैं
ReplyDeleteपढने के बाद ना जाने कितनी सुभाषित याद आये . सुभाव निर्मल करने वाला आलेख
ReplyDeleteपता नहीं पढ़ते-पढ़ते कैसे याद आया -- वत्सल को शादी से पहले बताया था-
ReplyDeleteउत्तमा अत्मना ख्याता,पितॄ ख्याताश्च मध्यमा,
मातुलेना धमा ख्याता,श्वसुरेणा धमा धमा......
(शायद ऐसा ही कुछ था)
जो पुराने लोगो ने कह दिया था बडा सोच समझ कर कहा था और आज भी प्रासंगिक है
ReplyDeleteसर जी
ReplyDeletebahut ही upayogi पोस्ट !
बहुत लोग ऐसे हैं, जिन्हें छोटी छोटी बातों के लिये झगड़ा करना तो दूर, किसी से कुछ माँगना भी नहीं सुहाता है। ऐसे दुग्धधवल व्यक्तित्वों से ही विश्व की सज्जनता अनुप्राणित है। ईश्वर करे उन्हें उनके कर्मों से सब सहज ही मिलता रहे। ईश्वर करे कि जो ऐसी आदर्श स्थिति में नहीं भी है, उन्हें भी कम से कम वह रक्त तो दिखायी पड़े जो हमारे छलकर्मों से छलक आता है।
ReplyDeleteरहीम दास जी ने भी यही कहा था -
रहिमन वे नर मर चुके ,जो कछु मांगन जांहि ,
उनते पहले वे मुए जिन मुख निकसत नांहि.
जीवन में खुद्दारी ज़रूरी है .
वीरुभाई ,४३,३०९ ,सिल्वर वुड ड्राइव ,कैंटन ,मिशिगन ४८ ,१८८
बहुत अर्थपूर्ण प्रस्तुति—
ReplyDeleteभूली बिसरी विरासत को उजागर करने के लिये
सादर आभार—सहज मिले सो दूध समाना,मांगे मिले सो पानी
कह कबीर वो रक्त समाना,जामें एंचातानी
सत्य वचन
ReplyDeleteनैतिक शास्त्र आजकल मज़ाक की बात है , और उसका असर साफ़ नजर आता ही है !
ReplyDeleteबहुत सार है इन दोहों मे जिसे समझने के लिए ज्ञान का बोझ नहीं , सहज बुद्धि ही चाहिए !
very good post hai
ReplyDeletebilkul sahi...very informative
ReplyDeleteसहज मिले सो दूध सम............... । सही कहा हर चीज में सॉडरेसन की आवस्यक्ता है चाहे धन हो या मान।
ReplyDeleteहबकि न बोलिबा , ठबकि न चलिबा , धीरे धरिबा पाँव.. गरब न करीबा ,सहजे रहिबा..ये भी हमारी संस्कृति है.. अनुकरणीय आलेख..
ReplyDeleteperfect!
ReplyDeleteसोलह आने सच!