पहले यह स्पष्ट कर दूँ कि इस विषय में लिखने की योग्यता और अधिकार, दोनों ही मेरे पास नहीं है, योग्यता इसलिये क्योंकि इस विषय पर अब भी मैं भ्रम लिये जीता हूँ, अधिकार इसलिये क्योंकि मैं इतना अच्छा भी नहीं हूँ कि अच्छाई पर साधिकार लिख सकूँ। मेरे पास भी मेरे हिस्से की बुराईयाँ हैं, सहेजे हूँ, चुप रहता हूँ, उनसे लड़ता नहीं हूँ, संभवतः उतनी शक्ति नहीं है या संभवतः उतनी ऊर्जा नहीं है जो उन पर व्यर्थ की जा सके। कुछ तो इस उपेक्षा से दुखी होकर चली गयी हैं, कुछ धीरे धीरे चली जायेंगी। जो रहेंगी, वो रहें, पर उन्हें अपने पूरे जीवन पर अधिकार नहीं करने दूँगा।
प्रश्न पर स्वाभाविक है, क्या अच्छा होने से कठिनाईयाँ कम हो जाती है, क्या है जो आपको अच्छा होने पर मिल जाता है, क्या अच्छा होना सच में इतना आवश्यक है? जब हम प्रश्नों का उत्तर स्वयं से नहीं पाते हैं तो उसका उत्तर बाहर ढूढ़ते हैं, वर्तमान में, भूतकाल में, घटनाओं में, ग्रन्थों में। भले ही ऐसे प्रश्न जीवन भर अनुत्तरित रहें पर अतार्किक और भ्रामक उत्तरों से संतुष्ट न हो बैठें।
इन प्रश्नों को समझने और उसका उत्तर ढूढ़ने में गुरचरनदास ने महाभारत का आधार लिया है। बड़े ही चिन्तनशील लेखक हैं, उन्होंने महाभारत का न केवल विधिवत अध्ययन किया है वरन उसके पहले के ३० वर्षों में अपने कार्यक्षेत्र में उस महाभारत को जिया है। व्यावसायिक युद्ध में निरत किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के शीर्ष तक पहुँचने के क्रम में ये प्रश्न नित ही आते होंगे। उन्होंने महाभारत क्यों चुनी, इसका स्पष्ट उत्तर उन्होंने अपनी पुस्तक 'द डिफ्कल्टी ऑफ बीईंग गुड' में नहीं दिया है, पर महाभारत में ऐसे उदाहरणों की बहुतायत है जिससे यह द्वन्द्व गहनता से समझा जा सकता है। पोस्ट का शीर्षक उनकी पुस्तक के नाम का हिन्दी अनुवाद भर है।
बड़ा ही मूल प्रश्न है, सबको दिखता भी है, कि जहाँ एक ओर बुरे लोग आनन्द में रहते हैं अच्छे लोगों को सारी कठिनाईयाँ झेलनी पड़ती हैं। तिकड़मियों का गुणवानों की तुलना में विश्व पर अधिक अधिकार है, अनुपात से बहुत अधिक। ऐसा नहीं कि यह स्थिति आज ही उत्पन्न हो गयी, महाभारत के समय भी दुर्योधन और शकुनि अपनी धूर्तता से सारे राज्य पर अधिकार किये बैठे थे। अच्छों के किये कार्यों का फल जब निठल्ले उठाते हैं तो कोफ्त होना स्वाभाविक है। अच्छे लोगों का व्यवस्था से विश्वास संभवतः यही देख कर डगमगाता होगा, उनकी तटस्थता का यही एकमेव कारण होगा।
कई वर्ष पहले 'ऐन रैण्ड' नामक लेखिका की बहुचर्चित पुस्तक पढ़ी थी, 'द एटलस श्रग्ड'। उसकी भी मूल की अवधारणा में यही बात थी कि किस तरह अच्छे कर्मों के फल को असहाय रिसने से रोका जा सके, किस तरह एक अलग विश्व बनाया जा सके जिसमें अच्छे लोगों को अपने श्रम और बुद्धि के अनुसार मान मिल सके, सुविधायें मिल सकें, धन मिल सके। मानवता और समाज के नाम पर लगा ब्याज अच्छे लोगों से उनका मूल भी छीन लेता है, कठिनाई में जीते हैं अच्छे लोग। वहीं बुरे लोग संसाधनों के बँटवारे में सदा विजयी होते हैं।
कहने को तो अन्ततः महाभारत में भी पाण्डवों की विजय हुयी, धर्म की विजय हुयी, सत्यमेव जयते। पर क्या वह सत्य जीत पाता यदि कृष्ण पाण्डवों का साथ न देते? क्या युधिष्ठिर की नीतिप्रियता और धर्मनिष्ठता अपने आप में पर्याप्त थी, महाभारत का युद्ध जीतने के लिये? संभवतः नहीं, कौरवों को जिताने के लिये भीष्म स्वयं ही पर्याप्त थे, यदि वह एक या दो दिन और जीवित रहते। कृष्ण ने युद्ध जीतने को जिन उपायों का सहारा लिया, उसे धर्मयुद्ध से अधिक छलयुद्ध की संज्ञा दी जा सकती है। भीष्म, द्रोण, कर्ण और अन्ततः दुर्योधन, सबका अन्त छल से ही किया गया।
अच्छाई धारण करने के लिये अत्यधिक सहन शक्ति चाहिये, जो अच्छे लोगों में होती भी है, युधिष्ठिर में थी। जब यही सहनशक्ति अन्याय सहन करने में लगायी जाती है, तो अच्छाई की मात्रा हर ओर से सिकुड़ने लगती है, बुराई अनियन्त्रित सी फैल जाती है, दुर्योधन की तरह। कोई कृष्ण तब बताता है कि क्या किया जाये और कैसे किया जाये, जिससे अच्छाई बची रहे।
सत्य अपने आप अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रहता है, कोई सत्यमेव जयते का उद्घोष करने वाला होना चाहिये। तभी वह बचा रहता है और अन्ततः जीतता भी है। अच्छाई की कठिनाईयों को समझने के लिये महाभारत की समझ हो और साथ ही हो समझ कृष्ण-प्रदत्त-हल की जिसके कारण सत्य टिक सका। जीवन भी किसी महाभारत से कम नहीं है, पर यह निश्चय भी नहीं कि हर महाभारत में धर्म और सत्य की विजय ही हो।
प्रश्न पर स्वाभाविक है, क्या अच्छा होने से कठिनाईयाँ कम हो जाती है, क्या है जो आपको अच्छा होने पर मिल जाता है, क्या अच्छा होना सच में इतना आवश्यक है? जब हम प्रश्नों का उत्तर स्वयं से नहीं पाते हैं तो उसका उत्तर बाहर ढूढ़ते हैं, वर्तमान में, भूतकाल में, घटनाओं में, ग्रन्थों में। भले ही ऐसे प्रश्न जीवन भर अनुत्तरित रहें पर अतार्किक और भ्रामक उत्तरों से संतुष्ट न हो बैठें।
बड़ा ही मूल प्रश्न है, सबको दिखता भी है, कि जहाँ एक ओर बुरे लोग आनन्द में रहते हैं अच्छे लोगों को सारी कठिनाईयाँ झेलनी पड़ती हैं। तिकड़मियों का गुणवानों की तुलना में विश्व पर अधिक अधिकार है, अनुपात से बहुत अधिक। ऐसा नहीं कि यह स्थिति आज ही उत्पन्न हो गयी, महाभारत के समय भी दुर्योधन और शकुनि अपनी धूर्तता से सारे राज्य पर अधिकार किये बैठे थे। अच्छों के किये कार्यों का फल जब निठल्ले उठाते हैं तो कोफ्त होना स्वाभाविक है। अच्छे लोगों का व्यवस्था से विश्वास संभवतः यही देख कर डगमगाता होगा, उनकी तटस्थता का यही एकमेव कारण होगा।
कई वर्ष पहले 'ऐन रैण्ड' नामक लेखिका की बहुचर्चित पुस्तक पढ़ी थी, 'द एटलस श्रग्ड'। उसकी भी मूल की अवधारणा में यही बात थी कि किस तरह अच्छे कर्मों के फल को असहाय रिसने से रोका जा सके, किस तरह एक अलग विश्व बनाया जा सके जिसमें अच्छे लोगों को अपने श्रम और बुद्धि के अनुसार मान मिल सके, सुविधायें मिल सकें, धन मिल सके। मानवता और समाज के नाम पर लगा ब्याज अच्छे लोगों से उनका मूल भी छीन लेता है, कठिनाई में जीते हैं अच्छे लोग। वहीं बुरे लोग संसाधनों के बँटवारे में सदा विजयी होते हैं।
अच्छाई धारण करने के लिये अत्यधिक सहन शक्ति चाहिये, जो अच्छे लोगों में होती भी है, युधिष्ठिर में थी। जब यही सहनशक्ति अन्याय सहन करने में लगायी जाती है, तो अच्छाई की मात्रा हर ओर से सिकुड़ने लगती है, बुराई अनियन्त्रित सी फैल जाती है, दुर्योधन की तरह। कोई कृष्ण तब बताता है कि क्या किया जाये और कैसे किया जाये, जिससे अच्छाई बची रहे।
सत्य अपने आप अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रहता है, कोई सत्यमेव जयते का उद्घोष करने वाला होना चाहिये। तभी वह बचा रहता है और अन्ततः जीतता भी है। अच्छाई की कठिनाईयों को समझने के लिये महाभारत की समझ हो और साथ ही हो समझ कृष्ण-प्रदत्त-हल की जिसके कारण सत्य टिक सका। जीवन भी किसी महाभारत से कम नहीं है, पर यह निश्चय भी नहीं कि हर महाभारत में धर्म और सत्य की विजय ही हो।
' पर क्या वह सत्य जीत पाता यदि कृष्ण पाण्डवों का साथ न देते? क्या युधिष्ठिर की नीतिप्रियता और धर्मनिष्ठता अपने आप में पर्याप्त थी, महाभारत का युद्ध जीतने के लिये?'
ReplyDelete- शायद कृष्ण का साथ पाने के लिए यही योग्यता हो, युधिष्टिर की नीतिप्रिय्ता और धर्मनिष्ठता अकेले महाभारत का युद्ध जीतने के लिए पर्याप्त नहीं रही होगी लेकिन कृष्ण का संबल पाने को तो यही पर्याप्त रही होगी न|
जिधर हैं कृष्ण मेहरबां-योगेश्वर हैं खुद जहाँ ,
Deleteजिधर है साहबे कमाल अर्जुन जैसा पहलवां,
वहीँ हैं शाद कामियां,वहीं खुश इंतजामियाँ,
वहीं हैं कामरानियाँ वहीं है शादमनियां
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज शनिवार के चर्चा मंच पर भी की गयी है!
सूचनार्थ...!
यह जीवन में कई बार देखा है कि अच्छा होने से कठिनाइयाँ कम नहीं होतीं बल्कि बढती ही हैं | यह भी सच है कि अच्छा होना ही पर्याप्त नहीं है बुराई का प्रतिकार भी आवश्यक है..... सुंदर वैचारिक आलेख....
ReplyDelete@क्या वह सत्य जीत पाता यदि कृष्ण पाण्डवों का साथ न देते?
ReplyDelete- सवाल हाइपोथिटिकल है लेकिन उत्तर तो कृष्ण ने ही दिया है
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम।"
मेरा प्रतिप्रश्न भी यही है, 'साथ क्यूं न देते?' और कृष्ण रूपी उद्धारक का साथ पाने के लिए सच्चा और न्यायप्रिय होना निश्चित रूप से पांडवों के लिए सहायक सिद्ध हुआ होगा|
Deleteसत्य अपने आप अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रहता है, कोई सत्यमेव जयते का उद्घोष करने वाला होना चाहिये।....बस इसमें सब समाहित हो गया.
ReplyDeleteसत्य कोई बुलबुला नहीं जो हाथ लगते ही फूट जाए। वह फुटबॉल की तरह होता है, पूरे दिन ठोकर खाने के बाद शाम तक वह पहले जैसा ही सख्त रहता है। ओलिवर वैंडेल होम
Delete...अच्छा होने में कठिनाइयाँ हैं तभी तो अच्छा बनना श्रेयस्कर है.साधारण ढंग से ,आम ढर्रे पर तो आसानी से चला जा सकता है पर धरा के विरुद्ध चलने का अपना आनंद है !क्षणिक आनंद के बजाय लंबा और अंतिम आनंद हमारा लक्ष्य होना चाहिए !
ReplyDeleteI know I'm good...Smiles...:)
ReplyDeletepraveen ji , mujhe lagta hai ki accha hona ek 'feel good ' effect ko generate karta hai jiske wajah se zindagi ko behtar banaaya ja sakti hai .. aaccha bana rahan bahut kathin kaarya hia , lekin at the end of the day this gives utmost pleasure.
ReplyDeletepraveen ji ,bahut acchi post .. salaam kabul kare. gurucharn is one ofmy favorite writers.
thanks a lot.
plos send yor mobile number by email to me . or please call me @ 9849746500
thanks
अच्छे लोग सरल होते हैं। सरलता के बिना कोई व्यक्ति अन्य आत्माओं का सच्च स्नेह नहीं पा सकता। इसलिए उन्हें कृष्ण मिले।
ReplyDeleteपांडव अच्छे लोग थे। अच्छे लोग इसलिए अच्छे होते हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी नाकामियों से काफी ज्ञान बटोरा है। और इसीलिए पांडव सफल हुए। जबकि कौरव की आंखों और ज्ञान/बुद्धि पर दंभ और अहंकार का परदा पड़ा रहा।
कठिनाइयां तो हर हाल में आती हैं , पर अच्छाई का मूल्य जरा महंगा है ...
ReplyDelete@ जो रहेंगी, वो रहें, पर उन्हें अपने पूरे जीवन पर अधिकार नहीं करने दूँगा।
ReplyDeleteबड़ा प्यारा लेख है,उपरोक्त पंक्तियाँ मेरी भी हैं ! बुराइयों से मुक्ति पाना संभव नहीं है, मगर वे अच्छाइयों पर हावी न हों पायें तब भी सौदा बुरा नहीं होगा !
अच्छाइयों की सहनशक्ति कहाँ तक हो ? मेरे अनुभव में,आज दुष्टता आसानी से जीतती नज़र आती है !
जहाँ संवेदनशीलता का अभाव, दुष्टों की चमड़ी मज़बूत बना देता है वहीँ क्रूरता, दुखित संवेदित ह्रदय पर और घातक चोट करती है !
अंततः कष्ट में भले लोग ही पाए जाते हैं और हम अफ़सोस जाहिर कर चुप हो जाते हैं !
भौतिक सुख और आत्मिक संतोष -जब जिसका पलड़ा हो जाय!.
ReplyDeleteकृपया स्पैम से टिप्पणी मुक्त करें प्रवीण भाई ...
ReplyDeleteआज गूगल अधिक दुखी कर रहे हैं।
Deleteकल 24/06/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
जब 'सत्यमेव जयते' भी बाज़ार की चीज बन जाये, तो स्वयं का पुनर्मूल्यांकन आवश्यक हो जाता है...।
ReplyDeleteअच्छाई धारण करने के लिये अत्यधिक सहन शक्ति चाहिये, जो अच्छे लोगों में होती भी है, युधिष्ठिर में थी। जब यही सहनशक्ति अन्याय सहन करने में लगायी जाती है, तो अच्छाई की मात्रा हर ओर से सिकुड़ने लगती है, बुराई अनियन्त्रित सी फैल जाती है, दुर्योधन की तरह। कोई कृष्ण तब बताता है कि क्या किया जाये और कैसे किया जाये, जिससे अच्छाई बची रहे। मैं इसीलिए अन्याय कभी नहीं सहता,..... मैं अपना प्रोटेस्ट हमेशा ज़ाहिर कर देता हूँ.. और बहुत फर्मली अन्याय के खिलाफ बोलता हूँ.. मुझे यह लाइंस काफी अच्छी लगीं..
ReplyDeleteसत्य अपने आप अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रहता है.. यह लाइन भी बहुत अच्छी है.. देखिये..झूठ हमेशा झूठ ही होता है.. और जब झूठ खुलता है तो नज़रें हमेशा नीची रहतीं हैं.. पर दिक्कत यह है झूठ प्रिवेल ज्यादा करता है.. और सच को डटे रहने के लिए चुप रहना पड़ता है.. इसीलिए सच ज्यादा समय के लिए सुरक्षित नहीं रहता है...
अगर आप अच्छे नहीं होते तो मैं कमेन्ट नहीं करता.. अगर हम अच्छे तो सब अच्छे ... वाइसे-वरसा...
महफूज़ भाई आप कि बात से सहमत नहीं कि " सच ज्यादा समय के लिए सुरक्षित नहीं रहता है" सत्य ही हमेशा सुरछित रहता है झूट कि उम्र कम हुआ करती है |
Deleteअच्छाई धारण करने के लिये अत्यधिक सहन शक्ति चाहिये, जो अच्छे लोगों में होती भी है, युधिष्ठिर में थी। जब यही सहनशक्ति अन्याय सहन करने में लगायी जाती है, तो अच्छाई की मात्रा हर ओर से सिकुड़ने लगती है, बुराई अनियन्त्रित सी फैल जाती है, दुर्योधन की तरह। कोई कृष्ण तब बताता है कि क्या किया जाये और कैसे किया जाये, जिससे अच्छाई बची रहे। मैं इसीलिए अन्याय कभी नहीं सहता,..... मैं अपना प्रोटेस्ट हमेशा ज़ाहिर कर देता हूँ.. और बहुत फर्मली अन्याय के खिलाफ बोलता हूँ.. मुझे यह लाइंस काफी अच्छी लगीं..
ReplyDeleteसत्य अपने आप अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रहता है.. यह लाइन भी बहुत अच्छी है.. देखिये..झूठ हमेशा झूठ ही होता है.. और जब झूठ खुलता है तो नज़रें हमेशा नीची रहतीं हैं.. पर दिक्कत यह है झूठ प्रिवेल ज्यादा करता है.. और सच को डटे रहने के लिए चुप रहना पड़ता है.. इसीलिए सच ज्यादा समय के लिए सुरक्षित नहीं रहता है...
अगर आप अच्छे नहीं होते तो मैं कमेन्ट नहीं करता.. अगर हम अच्छे तो सब अच्छे ... वाइसे-वरसा...
apke is lekh ne antas me vicharon ka kolahal aarambh kar diya hai. kon se vichar pahle rakhu abhi to isi me hi asmarth hun. lekin sab baaton ki ek baat ki acchha hone me jo khushi aur garv hai vo kisi aur kaam me nahi. dusra har insaan me acchhe aur bure jeans hote hain in par insan ka khud ka jor nahi. agar acchhe jeans jyada hain to vo lakh bura banNe ki koshish kare nahi ban payega...beshak uske liye use kitna kuchh bhi khona pade...par vo acchha hi rahega.
ReplyDeleteaur ant-to-gatva bhagwaan bhi to sada acchhon ki hi madad k liye aate hain. apna itihas itne udaahrno se bhara pada hai.....to insan acchha hi rahe ye soch k bhi ki agar me acchha rahunga to shayad bhagwan meri madad karne aa hi jayen. (ha.ha.ha.)
bahut acchha lekh.
हम अच्छे हैं या बुरे इससे किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता फर्क पड़्ता है तो हमे हमारी आत्मा को..लेकिन ये दोनों ही दर्द देते हैं..प्रवीण जी...
ReplyDeleteअच्छा, बुरा सब सापेक्ष है | निरपेक्ष कुछ भी नहीं | एक फ्रेम में जो घटना हम देखते हैं , अगर समय / काल के अनुसार तनिक उस फ्रेम को आगे या पीछे शिफ्ट कर दें तब उस घटना का अर्थ कुछ और ही निकल आता है | हाँ ! जहां तक आमतौर पर साधारण रूप में अच्छे होने का सवाल है , थोड़ा झेलना तो पड़ता है |
ReplyDeleteअच्छा, बुरा सब सापेक्ष है | निरपेक्ष कुछ भी नहीं | एक फ्रेम में जो घटना हम देखते हैं , अगर समय / काल के अनुसार तनिक उस फ्रेम को आगे या पीछे शिफ्ट कर दें तब उस घटना का अर्थ कुछ और ही निकल आता है | हाँ ! जहां तक आमतौर पर साधारण रूप में अच्छे होने का सवाल है , थोड़ा झेलना तो पड़ता है |
ReplyDelete'स्पैमासुर' सब टिप्पणी लील जा रहा है | अब 'न दैन्यं न पलायनम' ही इस असुर से छुटकारा दिलाएंगे ,तभी मेरी टिप्पणी का उद्धार होगा |
ReplyDeleteपता नहीं, आज स्पैमासुर इतना सक्रिय कैसे हो गया है। गूगल बाबा तो अच्छों को सहारा देते हैं।
Deleteअच्छाई अपने आप में एक कठिनाई है।
ReplyDeleteसत्य का साथ देने के लिए और सत्य का साथ पाने के लिए योग्यता तो होनी ही चाहिए।
ReplyDeleteअच्छाइयों की शुरुआत होती है घर से मिले संस्कारों से . यदि शुरू में कदम न डगमगाएं तो अच्छाई एक आदत बन जाती है जो समय के साथ साथ पक जाती है .
ReplyDeleteउसके बाद तो सलमान खान का डायलोग याद आता है -- एक बार में फैसला कर लूँ तो फिर खुद की भी नहीं सुनता .
यह सच है की हर बार अच्छाई की जीत नहीं हो पाती . कम से कम कुछ समय के लिए . लेकिन लोंग रन में सच का ही बोलबाला होता है .
अच्छा न होना दीवार में सिर मारने जैसा है
ReplyDeleteमहाभारत में सकल दृष्टान्त समाहित हैं... अच्छाई, बुरे, सत्य की विजय सब कुछ उसे आधारस्वरूप मान कर समझा जा सकता है...!
ReplyDeleteबढ़िया आलेख!
प्रवीण ज़ी बहुत सही आकलन करती पोस्ट लगायी है हर इंसान को जीवन के महाभारत मे उतरने से पहले किसी महापुरुष के संसर्ग मे एक बार महाभारत जरूर पढनी या सुननी चाहिये जीवन जीने की कला है उसमे , पता है युधिष्ठिर ने पूछा एक बार कि हम तो सदा सत्य पर चले अच्छाई की फिर हमारे साथ ऐसा क्यों हुआ तो उसका जवाब ये मिला कि बेशक तुमने सब किया मगर सावधानी नही बरती अगर एक बार तुमने धोखा खाया तो जरूरी था कि तुम सावधान रहते दूसरा मौका ना देते मगर तुमने हमेशा यही किया जिसके कारण तुम्हे इतना दुख भोगना पडा और यही हम मनुष्यों के साथ होता है मगर जो ये सीख जीवन मे उतार लेते हैं वो सुखद जीवन भी जीते हैं अपने सत्य और अच्छाइयों के साथ भी।
ReplyDeleteजीवन भी किसी महाभारत से कम नहीं है, पर यह निश्चय भी नहीं कि हर महाभारत में धर्म और सत्य की विजय ही हो।
ReplyDeleteसच्चाई के मार्ग पर चलने वालों को निरंतर ही एक परीक्षा के लिये तैयार रहना पड़्ता है ....सजग जीवन जीना होता है ....बुराई सच्चाई को ,अच्छाई को ,कई बार पछाड़ देती है ....पर हरा नहीं पाती ...हमारे इंडियन फिल्म के हीरो की तरह ....अच्छाई जीतती ही है ...
सत्य और अच्छाइयों के साथ रहे तो,भले ही देरी हो पर सत्य की विजय ही होती है
ReplyDeleteबुराई को जड़ से मिटाने के लिए छल का सहारा वर्जनीय तो नहीं है . सठे साठय्म समाचरेत .
ReplyDeleteसहज सरल शब्दों में कही गई हर बात बिल्कुल गहरे उतरते हुई सच्ची और अच्छी पोस्ट ... आभार
ReplyDeleteअच्छे और गंभीर विषय पर ध्यान आकर्षित करने और मनन करने का अवसर देने के लिए आपका आभार...
ReplyDeleteक्या अच्छे बने रहना ज़रूरी है ? प्रश्न आपका सही है | हमने हमेशा अच्छों को मात खाते हुए ही देखा है, हिंदी फिल्मों में भी अच्छों को कमज़ोर और बुरे लोगों को मजबूत दिखाया जाता रहा है, लेकिन अंततोगत्वा जीत हमेशा अच्छाई की ही हुई है, जीतने की बात को अगर हम दरकिनार करें और अपने बारे में ही सोचें, छोटा सा भी गलत काम अगर आप करते हैं तो रातों की नींद हराम हो जाती है...आपकी अंतरात्मा आपको कचोटती रहती है, अच्छे काम करने से एक फायदा यह होता है कि आप सोते बहुत मज़े से हैं....
ReplyDeleteवैसे तो अपने-अपने हिस्से की अच्छाईयाँ बुराईयाँ सब में हैं..अच्छा बने रहना ज़रूर कठिन है, इसके लिए अत्यधिक आत्मबल की आवश्यकता होती है, इसीलिए तो ऐसे ही लोगों को देख कर, हम कहते हैं कि फलां इंसान कितना अच्छा है, ज़ाहिर सी बात है उस इंसान में बुराइयों की अपेक्षा अच्छाईयाँ ज्यादा होतीं हैं..और ऐसे अच्छे लोगों को देख कर खुद को बदलने को जी चाहता है..
कुछ तो बुनियादी गुण होते हैं जिनको हम किसी में भी देख कर कहते हैं, यह व्यक्ति अच्छा है |
यहाँ पर ज़रा लीक से हट रही हूँ...
अच्छाई की परिभाषा बहुत विस्तृत होगी फिर भी कुछ गुण यहाँ लिखना चाहूंगी :
अच्छा वो है जिसमें सामान्यतः निम्नलिखित वांछनीय गुण होंगे :
जी दूसरों की सफलता को बढ़ावा देता हो
जो दूसरों के कल्याण के बारे में सोचता हो और करता हो
जो स्वयं खुश रहता हो और दूसरों को भी ख़ुशी देता हो
जो आक्रामक न हो
जो दूसरों को हानि (मानसिक, शारीरिक, आर्थिक और चारित्रिक ) न पहुंचाता हो,
जो भ्रष्ट न हो
जो दूसरों को परेशान न करता हो, और दूसरों को परेशान देख कर खुश न होता हो
जो दूसरों की बात सुनता और समझता हो
जो धार्मिक हो
जो मन से पवित्र हो
जो नैतिक रूप से उत्कृष्ट हो
जो पुण्य करता हो
जो उदार हो
जो दयालु हो
जो चतुर हो
जो चापलूस न हो
जो विनीत एवं विनम्र हो
जो विश्वासी हो, भरोसे के लायक हो
जो खुशमिजाज़ हो लेकिन चरित्र का गंभीर हो
जो कानून का पालन करता हो
जो स्वार्थी न हो
जो अच्छे के लिए परिस्थिति और समय के अनुसार खुद को बदलने की चाह रखता हो
इत्यादि
और भी गुण होंगे लेकिन फिलहाल मुझे इतने ही ध्यान में हैं...
आलेख की तारीफ सबने कर ही दी है...मेरी तरफ से भी बधाई स्वीकारें
आभार
सर जी जो भी हो सोने का रंग नहीं बदलता और उसका अस्तित्व हमेशा रहता है, लोग पछताते है जब परिणाम को देखते है !हवा कभी मुड कर नहीं देखती बल्कि सबको उड़ा ले जाती है ! अच्छे विषय की प्रस्तुति
ReplyDeleteबड़ा गम्भीर चिन्तन है प्रवीण जी. एकदम मनन योग्य :)
ReplyDeleteनीति शास्त्र में साम , दाम ,दंड ,भेद का भी अपना महत्व है..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सार्थक चर्चा है..... और आरंभ में कही आपकी बातें बहुत भायीं....
ReplyDeleteसादर आभार स्वीकारें।
सबसे पहले तो गुरचरनदास की इस पुस्तक के बारे में बता कर आपने मेरी इसमें तत्क्षण रूचि जगा दी है ...
ReplyDeleteकहते हैं न शठे शाठ्यम समाचरेत ..कृष्ण भी यही युक्ति अपनाते थे ...
समय के साथ युग धर्म बदलता गया है मगर कुछ मानवीय गुण हमेशा समादृत होंगे
आपमें भी जो है वो बना रहे यही कामना है !
गंभीर चिंतन :)
ReplyDeleteयह प्रश्न तो महाभारत बनकर निरंतर हमारे स्वयं के अंदर वर्तमान है व संघर्षशील है।
ReplyDeleteसत्य अपने आप अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रहता है, कोई सत्यमेव जयते का उद्घोष करने वाला होना चाहिये। तभी वह बचा रहता है और अन्ततः जीतता भी है।
ReplyDeleteसटीक उदाहरण दिया है अच्छा होने का .... बहुत विचारणीय लेख
आपके निष्कर्ष से सहमत।
ReplyDeleteEk ek shabd sach hai aapki iss post ka :)
ReplyDeleteसमीक्षा और आलेख का परस्पर लोप गया लगता है इस पोस्ट में .बुरे भले ही चांदी कूट रहें हो लेकिन आंतरिक सौन्दर्य से शून्य हैं और रहेंगे .
ReplyDeleteअच्छाई धारण करने के लिये अत्यधिक सहन शक्ति चाहिये, जो अच्छे लोगों में होती भी है, युधिष्ठिर में थी। जब यही सहनशक्ति अन्याय सहन करने में लगायी जाती है, तो अच्छाई की मात्रा हर ओर से सिकुड़ने लगती है, बुराई अनियन्त्रित सी फैल जाती है, दुर्योधन की तरह। कोई कृष्ण तब बताता है कि क्या किया जाये और कैसे किया जाये, जिससे अच्छाई बची रहे।
ReplyDeleteसहमत आपके निष्कर्ष से .
अच्छाई और कठिनाई, दृष्टिकोण के साथ बदल भी जाती है.
ReplyDeleteअच्छाई में लाख कठिनाईयां हो, अभावों भरा जीवन हो, बुराईयां अनवरत अपनी मंशाओं में सफल रहती हो। किन्तु अच्छाई के पक्ष में एक सबूत ही काफी है कि अभावों, कठिनाईयों, प्रलोभन और विचलन के बाद भी लोग अच्छाई पाना चाहते है, अच्छे बनना, अच्छे के रूप में स्वीकृत होना चाहते है। अच्छाई पर डटे रहने में कुछ तो है कि सबकुछ सहकर भी इसकी हस्ती या आवश्यकता नहीं मिटती।
ReplyDeleteअच्छा होने पर परेशानियाँ बहुत झेलनी पड़ती है , कलियुग का सत्य यही है ... शायद प्रकृति विपरीत परिस्थितियों में रख उन्हें ही मजबूत भी बनाती है !
ReplyDeleteगंभीर चिंतन !
जीत किसे कहते हैं ? यह जान लेना भी आवश्यक है | जब अच्छाई का साथ देने वालों और बुराई का साथ देने वालों में युद्ध हों तो जो जी गया वो जीता और जो मर गया वो हारा जैसी सोंच सही नहीं हुआ करती| बल्कि जिसका मकसद बच गया वो जीता और जिसका मकसद खत्म हों गया वो हार जाता है |
ReplyDeleteएक युद्ध कर्बला में इमाम हुसैन और यजीद के बीच हुआ था | इमाम हुसैन के परिवार ने सत्य को बचने के लिए अपनी जान दे दी लेकिन यजीएद बेनकाब हों गया और सत्य बच गया आज भी लोग यजीद को इतना बुरा कहते हैं कि कोई यह नाम भी रखना पसंद नहीं करता और हुसैन आप को हर जगह मिल जाएंगे | जान दे के भी हुसैन ने सत्य को बचा लिया |
waht a lovely post,keep it up we supports u alot
ReplyDeleteपर यह निश्चय भी नहीं कि हर महाभारत में धर्म और सत्य की विजय ही हो।'
ReplyDeleteऔर फिर कृष्ण तो महज़ युधिष्ठिर और अर्जुन के साथ ही नज़र आयेंगे.
सत्य अपने आप अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रहता है, कोई सत्यमेव जयते का उद्घोष करने वाला होना चाहिये।
ReplyDeleteअच्छाई और बुराई का युद्ध सदैव चलने वाला है, जरूरत है सम्हल के चलने की.
भौतिक सुविधा ना मिली,मिले नहीं उत्कर्ष
ReplyDeleteलेकिन इनसे कीमती , मिला हृदय को हर्ष
मिला हृदय को हर्ष , सदा कीजे अच्छाई
"फल पाने की चाह" ,यही होती दुखदाई
पाकर गीता ज्ञान , मिटी अर्जुन की दुविधा
क्या सुख का पर्याय,सिर्फ है भौतिक सुविधा ?
अतिसुन्दर, साधुवाद!!
Deleteसत्यमेव जयते !
ReplyDeleteआज ही प्रवास के लिए क्या पढ़े करके किताबे DW कर रही थी, चलिए इसे अपनी झोली मे भर लेते है.
यह पोस्ट तो अच्छी है ही।
ReplyDelete.आप की पोस्टें ज्ञान बड़ाने के लिए हैं
ReplyDeleteहम जैसों की टिप्पणी पाने के लिए नही!
खुश रहें!
सत्य की जीत होती है या जिसकी जीत होती है सत्य उसका होता है? शायद यही यक्ष प्रश्न है?
ReplyDeleteरामराम.
दोनों अन्योन्याश्रित हैं!
Deleteपाण्डे जी
ReplyDeleteमूर्धन्य साहित्यकार प्रताप नारायण मिश्र सरीखी धारदार रचना.इन विषयों पर लिखना आसान नहीं होता लेकिन बहुत बेबाकी से इतिहास के प्रसंगों से गुज़रते हुए आपने अच्छा लेख लिखा है
बहुत बहुत साधुवाद
आपके इस खूबसूरत पोस्ट का एक कतरा हमने सहेज लिया है साप्ताहिक महाबुलेटिन ,101 लिंक एक्सप्रेस के लिए , पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक , यही उद्देश्य है हमारा , उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी , टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें
ReplyDeleteबुरा व्यक्ति अर्थात बुराइयों से भरा व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो सकता. जैसे ही हमारे मन में बुरे भाव या विचार आते हैं हम अपनी स्वाभाविकता और शांति खो देते हैं. बुरे व्यक्ति के पास भौतिक संपदा हो सकती है, लेकिन सुख से उसका कोई लेना देना नहीं.इसी सम्पदा को देखकर कई बार हम मान लेते है की यह तो सुखी होगा ही.
ReplyDeleteलेख में अच्छाई और सत्य की अच्छी विवेचना है.
सटीक बात!!
Deleteहमारे ग्रंथों में ...जो कुछ भी घटित हुआ है ...किसी उद्देश्य के तहत हुआ है .....कृष्ण को भी कलयुग आने से पहले, इस पृथ्वी को दिव्य पुरुषों से विहीन करना था .....इसी वजह से महाभारत का युद्ध हुआ ...जिस में हर महारथी को दूसरे के समक्ष खड़ा कर दिया गया .....इस में उन्हें साम दाम दंड भेद सभी का प्रयोग करना पड़ा .....छल किसी उद्देश्य से ही किया गया ...किसी बुरी नियत से नहीं .....
ReplyDeleteConflict of being good n bad..
ReplyDeletemeasuring its merits and demerits.. . Road of goodness isn't easy, but its cosy in long term :)
कभी कभी सत्य को बचाने के लिए भी चल का सहारा लेना ही पड़ता है जैसे महाभारत में लिया गया था इसलिए अच्छे या यूं कहें की सादे सरल लोगों को कठिनाइयों का सामना ज्यादा करना पड़ता है मगर अंतः जीत सच की होती है।
ReplyDeleteबुरे लोगों को आखिर में मिलती है तिहाड़ भले वह मंत्री पद बरसों हथियाए रहें हों यहाँ तो प्रधान मंत्री भी जेल की हवा खाए थे .
ReplyDeleteबेहतरीन..
ReplyDeleteसच और झूठ की जंग शास्वत है....अपने अन्दर भी चलती है ..... इस से हर कोई छुटकारा नहीं पा सकता...
ReplyDeleteIt’s nice to be a friend with you.
ReplyDeleteBut may give you somethings special.
You should to try it. It’s free, friends.
HERE
chain se sone ke liye aatma ke drpan me achchha hona behad jroori hai . bhut km aise log hote hai jinhe ye beshkeemti neend nseeb hoti hai .
ReplyDeleteहम भी आजकल इसी समस्या के चिन्तन में है।
ReplyDeleteसत्य की राह आसान नहीं होती, लेकिन इसी वजह से इस राह को छोड़ा नहीं जा सकता...सत्यमेव जयते, आज नहीं तो कल यही आशा और विश्वास है...बहुत गहन और सार्थक चिंतन...
ReplyDeleteWonderful post....sochne par majboor kiya....Gurucharan Das jee ki yah book bhi padhne kii koshish karunga.
ReplyDeleteGambhir aur sarthak vishleshan kiya hai.
ReplyDelete"अच्छाई धारण करने के लिये अत्यधिक सहन शक्ति चाहिये, जो अच्छे लोगों में होती भी है, युधिष्ठिर में थी। जब यही सहनशक्ति अन्याय सहन करने में लगायी जाती है, तो अच्छाई की मात्रा हर ओर से सिकुड़ने लगती है, बुराई अनियन्त्रित सी फैल जाती है, दुर्योधन की तरह। कोई कृष्ण तब बताता है कि क्या किया जाये और कैसे किया जाये, जिससे अच्छाई बची रहे।"
ReplyDeleteअति सुन्दर विचार. प्रणाम.
एटलस श्रग्ड हाल ही में दुबारा पढी । िसीसे आपकी बात से रिलेट करना आसान होगया । पर ितना अति इन्डिविजुअलिज्म भी अछ्चा नही होता । बुराई को इतना ताकतवर ना होने दो किवह अचचाई को मिटा कर दम ले और अंततः सब कुछ ही नष्ट हो जा.े ।
ReplyDelete