रात आठ बजे राजधानी से निकलना था, एक सप्ताह के प्रशिक्षण के लिये, लम्बी ट्रेन यात्रा प्रतीक्षा में थी। सायं जमकर फुहारें बरसी थीं, सारी प्रकृति द्रवित थी, पानी के छोटे छोटे कण हवा का सोंधापन परिष्कृत कर रहे हैं। मन अनमना सा था। पिताजी पास के पार्क में टहलने गये थे, बेटा फुटबाल खेलने गया था, श्रीमतीजी बिटिया को ड्रॉइंग क्लास से लाने के लिये गयी थीं। घर में माँ कोई पुस्तक पलट रही थी, माँ को कहा कि चलो बाहर टहलने चलते हैं, आधे घंटे तक हम साथ साथ टहलते रहे। मन में परिवार से एक सप्ताह तक दूर रहने का सूनापन कचोट रहा था, अपनों से दूर रहने का भाव एक विशेष नीरवता ले आता है, वातावरण में।
यात्रा के लिये पुस्तकें रख रहा था, उर्वशी रखी, रानी नागफनी की कहानी रखी, तभी बेटा एक पैकेट लाता है और कहता है कि कुरियर से आया है। लिफाफा खोला तो अन्दर से सतीश सक्सेनाजी का स्नेह पुस्तक का रूप धरे निकला, 'मेरे गीत' की एक प्रति मेरे हाथों में थी। संयोग देखिये कि जिस समय उस पुस्तक की मुझे सर्वाधिक आवश्यकता थी, वह उसी समय मेरे हाथों में थी। संबंधों के एकात्म उपासक ने अपने उपासना मंत्रों को शब्दों में सजाकर मुझे भेज दिया था।
जब ईश्वर को प्रयोग की सूझती है तो आगे आगे संयोग भेज देता है। ट्रेन में एक कूपे मिला और अगले १२ घंटों तक कोई सहयात्री नहीं। एकात्म उपासना के गीतों को पढ़ने के लिये इससे अधिक उपयुक्त वातावरण असंभव था।
माँ की ममता को व्यक्त कर पाना कठिन कार्य है। जो माँ नहीं है, उसके लिये इसका अनुमान लगाना और भी कठिन है। जब धूप से ही सब तृप्ति और पोषण मिल जाये तो सूर्य के गर्भ की ऊष्मा कोई कैसे मापे भला? संयोगी वात्सल्य की तुलना में वियोगी वात्सल्य कितना तीक्ष्ण हो सकता है, इसका अनुमान 'मेरे गीत' के उन गीतों से मिलता है जिनमें सतीश सक्सेना जी ने माँ से बिछोह की पीड़ा को कागज में उड़ेल दिया है।
बचपन के अनुभवों ने सतीश सक्सेना जी को भावों का वह असीम अंबार दे दिया जिसमें संबंधों का मर्म छलकता है। हर संबंध में उन्हें एक अधिनायक की तरह स्थापित करती हैं उनकी कवितायें। जिस स्थिति को हम आदर्श मान कर छोड़ बैठते हैं, उस सत्य को जीने की आत्मकथा है 'मेरे गीत'। विशेषकर पुत्रवधुओं के प्रति उनका स्नेहिल आलोड़न उन्हें एक आदर्श श्वसुर के रूप में संस्थापित करता है, हर बेटी का पिता संभवतः ऐसा ही घर चाहता है अपनी लाड़ली बिटिया के लिये।
पुत्र, भाई, पति और पिता के हर रूप में एक स्पष्ट चिन्तन शैली प्रतिपादित होती है उनकी कविताओं में। समर्पण और निष्ठा का भाव, हर किसी के लिये कुछ कर गुजरने का भाव, परिवार के स्थायी आधार-स्तम्भ बने रहने का भाव। सहज संबंधों का स्नेहमयी इन्द्रधनुष सामाजिक सहजीवन को भी सौन्दर्यमयी कर जाता है, आत्म का सरल और सहज प्रक्षेपण। सतीश सक्सेना जी के गीत बड़े बड़े विवादों को बड़ी सरलता से समाधान की ओर खींचते हुये दिखते हैं।
दर्शन, जागरण, अध्यात्म, हास्य, जीवन उद्देश्य आदि विषयों की छिटकन संबंधों के गीत को सुर देती है। सुर जो गीतों को और भी रोचक और गेय बनाते हैं। 'मेरे गीत' जीवन अनुभवों का संक्षिप्त पर पूर्ण लेखा जोखा है।
जब सारी की सारी जिम्मेदारी शब्दों पर ही छोड़ दी गयी है, और जब शब्दों ने उस अर्थ को सशक्त भाव से संप्रेषित भी किया है, तब किसी कविता विशेष के बारे में चर्चा करना उन शेष १२१ रत्नों को छोड़ देना होगा जो सतीश सक्सेना जी के हृदय से प्रस्फुरित हुये हैं।
मेरी श्रीमतीजी कोई अवसर नहीं छोड़ती हैं आपका एक गीत उद्धरित करने का, 'हम बात तुम्हारी क्यों माने'। विशेषकर अन्तिम पद हम पतियों का हृदय विदीर्ण करने के लिये पर्याप्त है। यदि कभी भविष्य में नारियों ने पतियों के विरुद्ध सामूहिक अवज्ञा आन्दोलन चलाया तो सारा दोष आपकी इसी कविता को दिया जायेगा। तब आप पोषितों की पंक्ति में और हम शोषितों के समूह में खड़े होंगे।
'मेरे गीत' हम सबके गीत हैं, हम सबके हृदय के उन भावों के स्वर हैं जो प्रकट तो होना चाहते हैं पर जगत को जटिल मानकर सामने आने से हिचकिचाते हैं। संबंधों के तन्तु जितने जटिल दिखते हैं, उतने हैं नहीं। संबंधों को समझना और निभाना आवश्यक है, उनसे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। प्रयास तो करना ही होगा, संबंधों की उपासना के मंत्रों को गुनगुनाना होगा, जीवन में 'मेरे गीत' गाना होगा।
यात्रा के लिये पुस्तकें रख रहा था, उर्वशी रखी, रानी नागफनी की कहानी रखी, तभी बेटा एक पैकेट लाता है और कहता है कि कुरियर से आया है। लिफाफा खोला तो अन्दर से सतीश सक्सेनाजी का स्नेह पुस्तक का रूप धरे निकला, 'मेरे गीत' की एक प्रति मेरे हाथों में थी। संयोग देखिये कि जिस समय उस पुस्तक की मुझे सर्वाधिक आवश्यकता थी, वह उसी समय मेरे हाथों में थी। संबंधों के एकात्म उपासक ने अपने उपासना मंत्रों को शब्दों में सजाकर मुझे भेज दिया था।
जब ईश्वर को प्रयोग की सूझती है तो आगे आगे संयोग भेज देता है। ट्रेन में एक कूपे मिला और अगले १२ घंटों तक कोई सहयात्री नहीं। एकात्म उपासना के गीतों को पढ़ने के लिये इससे अधिक उपयुक्त वातावरण असंभव था।
बचपन के अनुभवों ने सतीश सक्सेना जी को भावों का वह असीम अंबार दे दिया जिसमें संबंधों का मर्म छलकता है। हर संबंध में उन्हें एक अधिनायक की तरह स्थापित करती हैं उनकी कवितायें। जिस स्थिति को हम आदर्श मान कर छोड़ बैठते हैं, उस सत्य को जीने की आत्मकथा है 'मेरे गीत'। विशेषकर पुत्रवधुओं के प्रति उनका स्नेहिल आलोड़न उन्हें एक आदर्श श्वसुर के रूप में संस्थापित करता है, हर बेटी का पिता संभवतः ऐसा ही घर चाहता है अपनी लाड़ली बिटिया के लिये।
पुत्र, भाई, पति और पिता के हर रूप में एक स्पष्ट चिन्तन शैली प्रतिपादित होती है उनकी कविताओं में। समर्पण और निष्ठा का भाव, हर किसी के लिये कुछ कर गुजरने का भाव, परिवार के स्थायी आधार-स्तम्भ बने रहने का भाव। सहज संबंधों का स्नेहमयी इन्द्रधनुष सामाजिक सहजीवन को भी सौन्दर्यमयी कर जाता है, आत्म का सरल और सहज प्रक्षेपण। सतीश सक्सेना जी के गीत बड़े बड़े विवादों को बड़ी सरलता से समाधान की ओर खींचते हुये दिखते हैं।
दर्शन, जागरण, अध्यात्म, हास्य, जीवन उद्देश्य आदि विषयों की छिटकन संबंधों के गीत को सुर देती है। सुर जो गीतों को और भी रोचक और गेय बनाते हैं। 'मेरे गीत' जीवन अनुभवों का संक्षिप्त पर पूर्ण लेखा जोखा है।
जब सारी की सारी जिम्मेदारी शब्दों पर ही छोड़ दी गयी है, और जब शब्दों ने उस अर्थ को सशक्त भाव से संप्रेषित भी किया है, तब किसी कविता विशेष के बारे में चर्चा करना उन शेष १२१ रत्नों को छोड़ देना होगा जो सतीश सक्सेना जी के हृदय से प्रस्फुरित हुये हैं।
'मेरे गीत' हम सबके गीत हैं, हम सबके हृदय के उन भावों के स्वर हैं जो प्रकट तो होना चाहते हैं पर जगत को जटिल मानकर सामने आने से हिचकिचाते हैं। संबंधों के तन्तु जितने जटिल दिखते हैं, उतने हैं नहीं। संबंधों को समझना और निभाना आवश्यक है, उनसे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। प्रयास तो करना ही होगा, संबंधों की उपासना के मंत्रों को गुनगुनाना होगा, जीवन में 'मेरे गीत' गाना होगा।
प्रयास तो करना ही होगा, संबंधों की उपासना के मंत्रों को गुनगुनाना होगा, जीवन में 'मेरे गीत' गाना होगा।
ReplyDeleteजीवन की समग्रता का सुंदर वर्णन सतीश जी की कविताओं मे है और .. आपकी समीक्षा मे भी ... सुंदर समीक्षा ....
आपको और सतीश जी,दोनो को शुभकामनायें...!!
आभार आपका अनुपमा जी ...
Deleteआपकी नज़र से मेरे गीत को जानना एक अनुभव है ,बस वही अवज्ञा आन्दोलन का डर है ,वह भी सविनय होगा उग्र ?:)
ReplyDeleteसावधान रहें...
Delete:)
सहज समीक्षा, वाकई दिल से पढी गई और सहजता से प्रस्तुत हुई!!
ReplyDelete...बिलकुल मन से और मान से समीक्षा की है आपने!
ReplyDelete'हम बात तुम्हारी क्यों मानें' को केवल मजे के लिए पढ़ें और श्रीमतीजी को बताएं कि यह महज़ हास्य है.इसे गंभीरता से न लें !
Delete@
पत्नी सावित्री सी चहिये ?
पतिपरमेश्वर का ध्यान रखे
गंगा स्नान के मौके पर ,
जी करता धक्का देने को !
तुम पैग हाथ लेकर बैठो , हम गरम गरम भोजन परसें !
हम आग लगा दें दुनिया में,हम बात तुम्हारी क्यों माने ?
ये शकल कबूतर सी लेकर
पति परमेश्वर बन जाते हैं !
जब बात खर्च की आए तो
मुंह पर बारह बज जाते हैं !
पैसे निकालते दम निकले , महफ़िल में बनते शहजादे !
हम बुलबुल मस्त बहारों की, हम बात तुम्हारी क्यों मानें ?
मज़े के लिए क्यों ...???
इस गलत फहमी में ना रहें त्रिवेदी जी,महिलाओं को विश्वास में लेकर पूंछ कर देखिये, वे काफी हद तक ऐसा ही सोंचती हैं :)
मामला गंभीर है त्रिवेदी जी ...
आपकी कलम से,मेरे गीतों को जानना मेरे लिए गौरव शाली है...
ReplyDeleteटिप्पणियां जानने की उत्सुकता रहेगी !
आभार
ReplyDeleteअपने श्रोताओं में , सहसा,
तुम्हे देखकर मन सकुचाया !
कैसे आये, राह भूलकर, मैं
लोभी, कुछ समझ ना पाया !
साधक जैसी श्रद्धा लेकर, तुम भी सुनने आये गीत !
कहाँ से वह आकर्षण लाऊँ ,तुम्हें लुभाएं मेरे गीत !
आपने छोटी सी रेल यात्रा में जीवन यात्रा के संपूर्ण झंझावातों को न केवल महसूस किया बल्कि औरों को भी महसूस करने के लिए बाध्य किया।
ReplyDeleteएक शीर्षक में ही संपूर्ण समीक्षा...संबंधों की एकात्म उपासना।
ReplyDeleteयह सामर्थ्य शायद छोटी मगर सारगर्भित टिप्पणी करने की आपकी आदत का ही परिणाम है।
गज़ब की तीक्ष्ण द्रष्टि है आपकी देवेन्द्र भाई ...
Deleteवाकई समीक्षा के लिए शीर्षक काफी है !
इस छोटे से जीवन में हम,अगर अपनों को ही ना सहेज पाए तो क्या किया , मुझे तो समझ नहीं आता !एक दुसरे को देख स्नेह से मुस्करा तो सकें ...
जीवन मूल्यों का अवमूल्यन बचाया जा सकता है बस थोडा ध्यान देने की आवश्यकता है ..
आभार आपका !
अभी थोड़ी ही पढ़ पाया हूँ 'मेरे गीत' लेकिन जितनी कम पढ़ी उतना ही ज्यादा छाप छोड़ गयी है मन पर... अच्छी समीक्षा की है आपने...
ReplyDeleteकविताओं के प्रति कमतर रुचि और समझ के कारण मेरे लिए ऐसी समीक्षा के साथ कविताएं पढ़ना कुछ आसान हो जाता है.
ReplyDeleteयह सब पढ़ कर उत्सुकता बढ़ती जा रही है .
ReplyDeleteआप की कलम से सतीश जी की पुस्तक ' मेरे गीत' को जाना..बहुत सुन्दर सार्थक समीक्षा...आभार
ReplyDeleteसमीक्षा में सिद्ध-हस्त हैं प्रवीण हैं |
ReplyDeleteआभार ||
उत्कृष्ट समीक्षा ...सतीश जी को उनके ब्लॉग पर पढ़ा है.... उनके शाब्दिक संसार और गीतों की समीक्षा बहुत सुंदर ढंग से की आपने.....
ReplyDelete'मेरे गीत' हम सबके गीत हैं,
ReplyDeleteउपासना के मंत्रों को गुनगुनाना होगा, जीवन में 'मेरे गीत' गाना होगा।
भावमय करते शब्दों के साथ समीक्षात्मक कलम को सादर नमन ... आभार
@ 'मेरे गीत' हम सबके गीत हैं,
Deleteइस सम्मान के लिए आभार आपका ...
जिस स्थिति को हम आदर्श मान कर छोड़ बैठते हैं, उस सत्य को जीने की आत्मकथा है 'मेरे गीत'। विशेषकर पुत्रवधुओं के प्रति उनका स्नेहिल आलोड़न उन्हें एक आदर्श श्वसुर के रूप में संस्थापित करता है, हर बेटी का पिता संभवतः ऐसा ही घर चाहता है अपनी लाड़ली बिटिया के लिये।समालोचना का मूल तत्व है लेखक के साथ सहानुभूति रखते हुए आगे बढना इस मायने में यह समीक्षा खरी है तदानुभूती करती हुई आगे बढती है हर गीत के संग साथ ऊँगली पकड़ के जिसे प्रवीण जी पांडे जैसा सहृदय व्यक्ति ही स्वर और साज़ दे सकता है . अच्छी प्रस्तुति .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteबुधवार, 20 जून 2012
क्या गड़बड़ है साहब चीनी में
क्या गड़बड़ है साहब चीनी में
http://veerubhai1947.blogspot.in/ने में यह समीक्षा खरी है तदानुभूती करती हुई आगे बढती है हर गीत के संग साथ ऊँगली पकड़ के जिसे प्रवीण जी पांडे जैसा सहृदय व्यक्ति ही स्वर और साज़ दे सकता है . अच्छी प्रस्तुति .कृपया यहाँ भी पधारें -
प्रबुद्ध समीक्षा
ReplyDeleteआश्चर्यजनक रूप से मेरी टेबल से 'मेरे गीत' गायब हो गए.... :)
ReplyDeleteपुरे स्टाफ से पूछताछ हुई, पर पता नहीं चला. एक दो सिरफिरे मित्र हैं, उनसे फोन पर बात हुई ... उन्होंने भी मना किया..... और आश्चर्यजनक रूप से नारायणा के एक प्रिंटर (जो मित्र हैं) के टेबल पर 'मेरे गीत' की प्रति मिली... .
बेचिंत से होकर बोले की तुम्हारे ऑफिस गया था, तुम थे नहीं ये गीतों की किताब अच्छी लगी सो उठा लाया .... चिंता मत करो पढ़ कर वापिस दे दूँगा... एक दो दिन...
:)
तो ये हैं मेरे गीत.
अचंभित हूँ और अच्छा लगा दीपक बाबा !
Deleteआम और अनजान पाठक जिस लेखन को पसंद करे तो लेखन सफल माना जाना चाहिए ! आपका कमेन्ट मनोरंजक भी है...
वैसे भी बाबा लोगों का ही ज़माना है...
:)
उत्कृष्ट अन्दाज़ मे शानदार समीक्षा।
ReplyDelete'मेरे गीत' ब्लॉग पर पढ़ते रहने का सौभाग्य मिलता रहा है...!
ReplyDeleteसमग्र पुस्तक तो अद्भुत होगी ही!
सुन्दर समीक्षा!
आप दोनों को सादर बधाई!
मेरी श्रीमतीजी कोई अवसर नहीं छोड़ती हैं आपका एक गीत उद्धरित करने का, 'हम बात तुम्हारी क्यों माने'। विशेषकर अन्तिम पद हम पतियों का हृदय विदीर्ण करने के लिये पर्याप्त है।
ReplyDeleteसतीश जी ने हर रिश्ते को महसूस कर गीत रचे हैं .... इसी लिए लगता है कि मेरे गीत हम सबके गीत हैं .... सुंदर प्रस्तुति
आभारी हूँ इस मंगल कामना के लिए ...
Deleteमेरे गीत की सुन्दर , सच्ची , सार्थक समीक्षा !
ReplyDeleteसतीश जी के गीत , एक भावुक, विशुद्ध और संबंधो को सर्वोपरि मानने वाले ह्रदय से प्रस्फुटित शब्द है .ऐसे तो काफी पढ़ा है सतीश जी को लेकिन अब समग्र पुस्तक पढने की इच्छा बलवती हो रही है . अति सुन्दर .समीक्षक और लेखक को हार्दिक बधाई
ReplyDeleteआभार आशीष भाई....
Deleteसतीश जी की कवितायेँ संगीता जी ब्लॉग पर पढने को मिली बहुत आकर्षक लिखते हैं
ReplyDelete'मेरे गीत'के लिए सतीश जी को हार्दिक बाधाई....
ReplyDelete'मेरे गीत' से परिचित कराने हेतु आपको साधुवाद....
ऐसे लगा समीक्षा नहीं दिल की बातें लिख दो हों ... सहज ही ...
ReplyDeleteसहजता प्रवीण जी की विशेषता है दिगंबर भाई ...
Deleteसतीश जी एक भावुक और संवेदनशील इंसान है और उनका यह स्वभाव उनके गीतों में सहज परिलक्षित होता है. आपका समीक्षा लिखने का अंदाज एकदम उनके गीतों के अनुकूल है. भावात्मक और सुन्दर.
ReplyDeleteशुक्रिया शिखा ....
Deletesoch rahi hoon jab samiksha itni bahtreen hai to original book kitni interesting hogi...:)
ReplyDeleteआपकी समीक्षा बहुत अच्छी लगी । 'मेरे गीत ' अभी पढ़ नहीं पाए है, आशा है भविष्य मे जरुर अवसर मिलेगा सतीश जी को हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteवाह जी समीक्षा पढ के तो मन में और भी कुलबुलाहट सी हो गई है इसे जल्दी से जल्दी पढने की । जल्दी ही कब्जा जमा के पढता हूं
ReplyDeleteप्रवीण जी,...दिल से की है मेरे गीत की समीक्षा,,जिसे पढ़ कर मेरे गीत पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ और गई है,
ReplyDeleteMY RECENT POST:...काव्यान्जलि ...: यह स्वर्ण पंछी था कभी...
सतीश सक्सेना जी की पुस्तक मेरे गीत का बहुत सुन्दर विश्लेषण किया है क्यूँ न हो उनके गीत उनकी रचनाएं दिल को छूती हैं आप दोनों को हार्दिक बधाई
ReplyDeleteआभार राजेश कुमारी जी ...
Deleteनिश्छल दिल की आवाज है 'मेरे गीत' इसीलिये तो हम में से हरेक इसे अपने गीत मान रहा है|
ReplyDeleteइससे बड़ा और कोई पुरस्कार नहीं संजय ...
Deleteआभार आपका !
मीठा खाना न छोड़ें गुड खाएं ,फीकी चाय के साथ गुड की डली आजमाएं ....मीठी गीत लिखेंगे और भी मीठी समीक्षा भी ......कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteram ram bhai
बुधवार, 20 जून 2012
ये है मेरा इंडिया
ये है मेरा इंडिया
http://veerubhai1947.blogspot.in/
रिश्तों के प्रति उनका समर्पण ही इन गीतों को सबके गीत बनाता है !
ReplyDeleteप्रभावपूर्ण समीक्षा !
आपका आभार....
Deleteरसोई कहीं कहीं ही बची है भाई साहब .आप खुशनसीब हैं संयुक्त परिवार के आँचल की छाँव तले,सलामत रहे आप और आपका धारदार लेखन सामाजिक सन्दर्भों से रु -बा -रु सक्सेना साहब के गीतों सा प्रतिबद्ध और नूतन .
ReplyDeletesambandhon ki ekatam upasna hai 'mere geet' ................bahoot khoobsurat
ReplyDeletesameeksha.........abhar apka aur subhkamnayen satish bhaijee ko.
pranam.
संक्षेप में अतिसुन्दर समीक्षा...
ReplyDeleteसच यह है सतीश सक्सेना साहब का व्यक्तित्व और कृतित्व एक दूसरे में दूध पानी हो गया है .बहुत ही सहृदय और पोजिटिव व्यक्ति है अपनी अप्रोच में .चीज़ों का सही आदर्श रूप ही उनका लक्ष्य रहता है .आपने उनके कृतित्व के साथ पूरी इंसाफी की है .
ReplyDeleteकृपया यहाँ भी पधारें -
बृहस्पतिवार, 21 जून 2012
सेहत के लिए उपयोगी फ़ूड कोम्बिनेशन
http://veerubhai1947.blogspot.in/
बहुत सुन्दर समीक्षा...
ReplyDeleteभाई साहब इतने महत्वपूर्ण आलेख की खबर दे दिया कीजिए .कुछ तो ब्लोगर नेट वर्किंग करिए .अब हम ही वंचित रह गए इतने व्यापक कलेवर वाले विषय को आपने चंद अल्फाजों में समेट कर गागर में सागर भर दिया ऐसे में हम अपने को कोस ही सकते हैं.
ReplyDeleteकृपया यहाँ भी पधारें -
बृहस्पतिवार, 21 जून 2012
सेहत के लिए उपयोगी फ़ूड कोम्बिनेशन
http://veerubhai1947.blogspot.in/आप की ब्लॉग दस्तक अतिरिक्त उत्साह देती है लेखन की आंच को सुलगाएं रखने में .
उचित व उत्तम समीक्षा ...
ReplyDeleteसुंदर व भावप्रद प्रस्तुति। आशा करता हूँ आपके लखनऊ से लौटने के उपरांत यह पुस्तक अवश्य पढ़ने को मिलेगी। सतीश सक्सेना जी को सादर शुभकामनायें।
ReplyDeleteआभार आपका मिश्र जी ...
Deleteसहृदय समालोचना आपने प्रस्तुत की है 'मेरे गीत 'की .गाँव गली ,डगर डगर में दस्तक देते मेरे गीत ,गाता रहता एक बंजारा सांझ सवेरे मेरे गीत ...
ReplyDeleteकृपया यहाँ भी पधारें -
बृहस्पतिवार, 21 जून 2012
सेहत के लिए उपयोगी फ़ूड कोम्बिनेशन
http://veerubhai1947.blogspot.in/आप की ब्लॉग दस्तक अतिरिक्त उत्साह देती है लेखन की आंच को सुलगाएं रखने में .
praveen ji halanki saxena ji ki is pustak ko padhne ka su-avsar mujhe nahi mil paaya, lekin aapki itni acchhi sameeksha padh kar man lalayit ho utha is pustak ko padhne ke liye aur dusra ek aur vichar bhi man me u hi aa gaya...jise yaha likhna chahungi....ki itni acchhi sameekha padh kar to dil kiya ki apni bhi ek pustak publish kara hi li jaye jis par aapki sameeksha to jaroor ho :-)
ReplyDeletesunder sameeksha.
श्री सतीश सक्सेना द्वारा रचित कृति ’मेरे गीत’ पर आपका समीक्षा सटीक रही.
ReplyDeletemere paas to nahin hai.. agar kahin mili to zaroor padhoonga...
ReplyDeleteमेरे गीत के विमोचन पर उपस्थित था.
ReplyDeleteब्लॉग पर पढता रहा हूँ सफल गीतकार सतीश जी को ...
आपकी समीक्षा ने किताब को पढने का लोभ जगा दिया है । ब्लॉग पर पढते हैं सतीश जी को ।
ReplyDeleteबस, पलक पावड़े बिछाये बैठे हैं कि कब हम तक पहुँचे और हम धन्य हो जायें बांच कर....
ReplyDeletebooks effect lives.. !!
ReplyDeleteउत्सुकता जगाती बेहतरीन समीक्षा।
ReplyDelete