जीवन की प्राथमिकतायें संस्कृतियों के निर्माण में अहम योगदान देती हैं। जब धन की प्राथमिकता होती है, सारे तन्त्र बाजार का रूप धर लेते हैं, यहाँ तक कि मन्दिर भी बाजार की प्रवृत्ति से प्रभावित दिखते हैं। जब विकास प्राथमिकता होती है, हर घर कारखानों का एक उपभाग सा लगने लगता है, दिनचर्या मशीनों से कदमताल करने लगती है। जब स्वतन्त्रता शापित होती है, हर शब्द क्रांति का स्वर बन जाता है, हर युवा मर मिटने को तैयार घूमता है। और जब देश की पुनर्रचना का समय होता है, हर व्यक्ति मजदूर बन जाता है। हर दिन ईंट, हर रात गारा और निर्मित होती जाती है एक सुदृढ़ और स्थायी संरचना।
संस्कृति का रूप बड़ा ही धीरे प्रभाव डालता है, बहुत समय तो पता ही नहीं चलता है कि क्या परिवर्तन हो रहा है। जब वह प्रभाव स्थूल रूप से परिलक्षित होता है तब तक वह हमारे गुणसूत्रों में आ चुका होता है। तब पीढ़ियों का अन्तर संस्कृतियों के अन्तर में परिलक्षित होने लगता है। एक साथ ही कई पीढ़ियाँ, कई सामाजिक समूह, कई संस्कृतियाँ, हमारे देश में ही साथ साथ बसी हुयी हैं, कभी कभी तो शहर के अन्दर ही आपको इस विविधता के दर्शन हो जाते हैं।
पिछले दो वर्षों में प्राप्त अनुभव के आधार कह सकता हूँ कि एक नया सांस्कृतिक झोंका आ रहा है। जो परिवेश के बदलाव पर सतत ध्यान रखते हैं, उन्हें भी इसकी आहट आने लगी होगी। इस बदलाव में बहुत कुछ न केवल बदला बदला सा दिखने वाला है वरन खटकने भी वाला है, विशेषकर तब तक, जब तक उसके अभ्यस्त न हो जायें हम। जितनी बार भी मॉल जाता हूँ, यह विश्वास और भी दृढ़ होता जाता है। भविष्य का जो खाका समझ में आता है, हर बार की मॉल यात्रा उसी भविष्य-दिशा को स्थापित करती हुयी सी प्रतीत होती है।
जब कभी भी आप मॉल में जाते हैं, धीरे धीरे वहाँ का वातावरण आप पर प्रभाव डालने लगता है, आप शारीरिक रूप से सहज हो जाते हैं, शीतलता अस्तित्व में बसने लगती है। चारों ओर चमकती दुकानों के प्रकाश में आपका चेहरा और दमकने लगता है, लगता है जैसे तेज अन्दर से फूट रहा हो। धीरे धीरे आप भूलने लगते हैं कि आप किस देश में जी रहे हैं, वहाँ की क्या समस्यायें हैं? आपके सामने ऐश्वर्य, प्रसन्नता, उत्सव का वातावरण होता है, सब के सब अपना श्रेष्ठ समय बिताने आये होते हैं वहाँ। आप जिस दुकान में जाते हैं, सारे के सारे सेल्समानव आदर के साथ आपके स्वागत में लग जाते हैं, आपके सारे प्रश्नों के उत्तर देने में तत्पर। आप 'स्वतन्त्र देवता' जैसा अनुभव करने लगते हैं।
आप लोग खाते पीते हैं, खरीददारी करते हैं और फिल्में आदि देखकर वापस आ जाते हैं, एक पिकनिक सा मना कर। बच्चे भी प्रसन्न हो जाते हैं, आपको भी परिवार के मुखिया के रूप में लगता है कि आपने अपना पारिवारिक कर्तव्य अच्छे से निभा दिया। कभी कभी आप मॉल-भ्रमण को एक हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं, बच्चों से कोई कार्य करवाने के लिये।
यहाँ तक तो सब कुछ अच्छा लगता है, साथ ही लगता है कि देश बढ़ रहा है, अच्छे परिवेश में सामान को कम मूल्य में उपलब्ध कराने का प्रयास सबको भा भी रहा है। खुदरा व्यापारी और साम्यवादी इसे अर्थव्यवस्था में आ रहा अनचाहा बदलाव भी मानते हैं। संभवतः वे नहीं चाहते कि आप स्वतन्त्र देवता जैसा अनुभव करें। जैसा भी हो, यह उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है, बंगलोर में ही हर वर्ष पाँच-छह बड़े मॉल तैयार हो रहे हैं, लोगों के लिये भी एक अलग और सुखद अनुभव है इस तरह सामान खरीदना, और वह भी लगभग किसी भी खुदरा बाजार के समकक्ष मूल्यों पर।
यहाँ आर्थिक धारायें अपना मार्ग बदल रही हैं, छोटी छोटी नहरों का स्थान एक विशाल नदी ले रही है, जैसे भी हो, जल बह रहा है। पर एक बात है जो हर बार खटकती है, और जो संस्कृति को प्रभावित करने की क्षमता भी रखती है। वह है, इन मॉलों में हो रहे व्यवहार की कृत्रिमता। वहाँ जाकर जो आदर आपको मिलने लगता है, वह बहुत ही कृत्रिम सा लगता है। बाज़ार व्यवस्था का इसमें बहुत बड़ा योगदान है, धन का मान है। कोई गरीब हैं तो उसका अपमान अत्यन्त प्राकृतिक है। किसी के हाथ में पैसा है तो उसका सम्मान कृत्रिम है, उसे समाज में कोई आदर दे न दे, बाज़ार में उसे शत प्रतिशत मान मिलता है।
ध्यान से देखा जाये तो मॉलों में कार्य करने वालों में यह व्यवहार कूट कूट कर भरा जाता है, बस कुछ ही नये कर्मचारियों में एक हिचक दिखायी पड़ जाती है। २०-२१ साल के युवा लड़के जो नयी संस्कृति के प्रभाव में घर में अपने बड़ों का आदर करना भूल गये हैं, उन्हें भी प्रारम्भ में हिचक होती है, कालान्तर में घर के बड़ों का आदर करना आये न आये, मॉल में आये धनाड्य का आदर करना आ ही जाता है। जो लड़के भले और संस्कारी परिवारों से भी आते हैं, उन्हें भी प्रारम्भ में हिचक होती है, उन्हें गुणों को छोड़ धन को आदर देने में हिचक होती है, धीरे धीरे उन्हें भी यह छद्म गुण सीखना पड़ता है। कृत्रिमता का आवरण दोनों को ही खटकता है और खटकता है उन सबको भी, जिनको इस प्रकार की कृत्रिमता में घुटन सी होती है। स्वतन्त्र देवता का भाव स्थायी नहीं है, कुछ ही बार सुहाता है, बाद में आपकी विचारशीलता आपको कचोटने लगती है।
मानसिकता क्या है, यदि सामान की गुणवत्ता अच्छी है तो कृत्रिम आचरण की आवश्यकता कहाँ है? यदि सामान की गुणवत्ता अच्छी नहीं है तो इस तरह का आचरण विश्वास-हरण की श्रेणी में आता है। मुझे लगता है कि यह किसी सत्य पर पर्दा डालने जैसा है, यह संदेश पर कोलाहल डालने है। लगता है कि पहाड़ों को काट कर और गढ्ढों को पाट कर सारे विश्व को समतल बनाने की संस्कृति आ रही है। वह संस्कृति, जहाँ सबको लगता है कि वे स्वतन्त्र देवता हैं, जबकि उसका पूरा आधार धन की दासता का है।
अब तो जब भी मॉल जाता हूँ, थोड़ा सहमा रहता हूँ, कहीं कोई कृत्रिमता प्रभाव न छोड़ जाये मानसिकता पर।
संस्कृति का रूप बड़ा ही धीरे प्रभाव डालता है, बहुत समय तो पता ही नहीं चलता है कि क्या परिवर्तन हो रहा है। जब वह प्रभाव स्थूल रूप से परिलक्षित होता है तब तक वह हमारे गुणसूत्रों में आ चुका होता है। तब पीढ़ियों का अन्तर संस्कृतियों के अन्तर में परिलक्षित होने लगता है। एक साथ ही कई पीढ़ियाँ, कई सामाजिक समूह, कई संस्कृतियाँ, हमारे देश में ही साथ साथ बसी हुयी हैं, कभी कभी तो शहर के अन्दर ही आपको इस विविधता के दर्शन हो जाते हैं।
पिछले दो वर्षों में प्राप्त अनुभव के आधार कह सकता हूँ कि एक नया सांस्कृतिक झोंका आ रहा है। जो परिवेश के बदलाव पर सतत ध्यान रखते हैं, उन्हें भी इसकी आहट आने लगी होगी। इस बदलाव में बहुत कुछ न केवल बदला बदला सा दिखने वाला है वरन खटकने भी वाला है, विशेषकर तब तक, जब तक उसके अभ्यस्त न हो जायें हम। जितनी बार भी मॉल जाता हूँ, यह विश्वास और भी दृढ़ होता जाता है। भविष्य का जो खाका समझ में आता है, हर बार की मॉल यात्रा उसी भविष्य-दिशा को स्थापित करती हुयी सी प्रतीत होती है।
आप लोग खाते पीते हैं, खरीददारी करते हैं और फिल्में आदि देखकर वापस आ जाते हैं, एक पिकनिक सा मना कर। बच्चे भी प्रसन्न हो जाते हैं, आपको भी परिवार के मुखिया के रूप में लगता है कि आपने अपना पारिवारिक कर्तव्य अच्छे से निभा दिया। कभी कभी आप मॉल-भ्रमण को एक हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं, बच्चों से कोई कार्य करवाने के लिये।
यहाँ तक तो सब कुछ अच्छा लगता है, साथ ही लगता है कि देश बढ़ रहा है, अच्छे परिवेश में सामान को कम मूल्य में उपलब्ध कराने का प्रयास सबको भा भी रहा है। खुदरा व्यापारी और साम्यवादी इसे अर्थव्यवस्था में आ रहा अनचाहा बदलाव भी मानते हैं। संभवतः वे नहीं चाहते कि आप स्वतन्त्र देवता जैसा अनुभव करें। जैसा भी हो, यह उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है, बंगलोर में ही हर वर्ष पाँच-छह बड़े मॉल तैयार हो रहे हैं, लोगों के लिये भी एक अलग और सुखद अनुभव है इस तरह सामान खरीदना, और वह भी लगभग किसी भी खुदरा बाजार के समकक्ष मूल्यों पर।
यहाँ आर्थिक धारायें अपना मार्ग बदल रही हैं, छोटी छोटी नहरों का स्थान एक विशाल नदी ले रही है, जैसे भी हो, जल बह रहा है। पर एक बात है जो हर बार खटकती है, और जो संस्कृति को प्रभावित करने की क्षमता भी रखती है। वह है, इन मॉलों में हो रहे व्यवहार की कृत्रिमता। वहाँ जाकर जो आदर आपको मिलने लगता है, वह बहुत ही कृत्रिम सा लगता है। बाज़ार व्यवस्था का इसमें बहुत बड़ा योगदान है, धन का मान है। कोई गरीब हैं तो उसका अपमान अत्यन्त प्राकृतिक है। किसी के हाथ में पैसा है तो उसका सम्मान कृत्रिम है, उसे समाज में कोई आदर दे न दे, बाज़ार में उसे शत प्रतिशत मान मिलता है।
मानसिकता क्या है, यदि सामान की गुणवत्ता अच्छी है तो कृत्रिम आचरण की आवश्यकता कहाँ है? यदि सामान की गुणवत्ता अच्छी नहीं है तो इस तरह का आचरण विश्वास-हरण की श्रेणी में आता है। मुझे लगता है कि यह किसी सत्य पर पर्दा डालने जैसा है, यह संदेश पर कोलाहल डालने है। लगता है कि पहाड़ों को काट कर और गढ्ढों को पाट कर सारे विश्व को समतल बनाने की संस्कृति आ रही है। वह संस्कृति, जहाँ सबको लगता है कि वे स्वतन्त्र देवता हैं, जबकि उसका पूरा आधार धन की दासता का है।
अब तो जब भी मॉल जाता हूँ, थोड़ा सहमा रहता हूँ, कहीं कोई कृत्रिमता प्रभाव न छोड़ जाये मानसिकता पर।
अगर आचरण स्वाभाविक/वास्तविक है तो? इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश में स्वाभाविक विनम्र लोगों की कोई कमी तो नहीं है, खासकर बैंगलोर में!
ReplyDeleteनिश्चय ही मॉल में कई स्वाभाविक विनम्र व्यक्ति मिले हैं, पर उन्हें वहाँ पर भी अपवाद ही समझा जाता होगा।
Deleteवह संस्कृति, जहाँ सबको लगता है कि वे स्वतन्त्र देवता हैं, जबकि उसका पूरा आधार धन की दासता का है।
ReplyDeleteवैश्विकरण का कुप्रभाव ....कहें या धन की दासता की सार्वभौमिकता ...
आज हमें स्वयम तो इससे बचना ही है ....उससे भी बड़ी चुनौती है अगली पीढ़ी को इससे बचाना ....!!
सामयिक लेख पर बड़े दर्द छिपाए ,मॉल संसकृति की जनक हमारी आवश्यकता है , बिचौलिए अपना संगठित गिरोह बना समाज के प्रत्येक प्राणी का आर्थिक शोषण कर रहे हैं ,अगर गाढ़ी कमाई का पैसा सही ,शुद्ध, समर्पित मानकानुसार,मन -इच्छित एक सुखद वातावरण , ,सुरक्षित परिवेस प्राप्त होने में लगा , संतुष्टि पाते हैं , फिर क्या चहिये ....मिलावट ,उत्तरदायित्व से दूर , डर , असुबिधा को क्यों वरन करें ,क्यों प्रश्रय दिया जाये ....मुझे मॉल संसकृति से परहेज नहीं वरन थोड़े संसोधन के साथ सम्यक लगता है .....
ReplyDeleteमॉलस् में कार्यरत युवाओं का ड्यूटी के बाद एकदम बदला व्यवहार यह धारणा बनाने के काफी है कि मॉलस् में कार्यरत लोगों द्वारा प्रदर्शित आदर व विनम्रता सिर्फ प्रोफेशनल है हकीकत नहीं !!
ReplyDeleteअब तो घर में भी लोग मॉल की संस्कृति जी रहे हैं, छद्म ही सही आदर दिखाना भी आ जाए तो क्या बात है!
ReplyDeleteप्रकृति ने जानवरों , पशु पक्षियों , कीड़ों मकोड़ों को शत्रु से बचाव के उद्देश्य से उनके बाहरी आवरण को लगभग उनके आसपास के स्थान जैसा ही रंग -रूप दिया है जिससे वे स्वयं को अपने दुश्मनों से बचा सके और अपने आसपास के परिवेश में छुप सा जाएँ | यही गुण अब मनुष्य ने भी आत्मसात कर लिया है | यहाँ दुश्मन उनकी निर्धनता,गरीबी और अशिक्षा है ,वह शापिंग माल में धनाड्य वर्ग के लोगों से मिलने पर उन जैसा ही व्यव्हार कर स्वयं survive करना चाहता है | कृत्रिमता की पराकाष्ठा है यह |
ReplyDeleteसच कहा आपने, वहाँ आकर गरीबों को भी कुछ समय के लिये अपनी पीड़ा से आराम मिल जाता है, कृत्रिम ही तो है यह...
Deleteकितना सही आकलन है , स्वतन्त्र होने के झूठे आश्वासन के साथ आँखे मूंदे हम गुलाम हुए जा रहे हैं !
ReplyDeleteमॉल संस्कृति मोंटेक सिंह की देन है।
ReplyDeleteमिलिए सुतनुका देवदासी और देवदीन रुपदक्ष से रामगढ में
जहाँ रचा गया महाकाव्य मेघदूत।
यह परिवर्तन सह्मनेवाला ही है .... चकाचौंध में कोई भी चीज सही रूप में नहीं दिखती .
ReplyDelete"लगता है कि पहाड़ों को काट कर और गढ्ढों को पाट कर सारे विश्व को समतल बनाने की संस्कृति आ रही है।"
ReplyDeleteसारयुक्त!!
'समान' रूप से सभी को 'विशिष्टता' महसुस करवाना अपने आप में विरोधाभासी है। निश्चित ही स्वतन्त्र देवता का अहसास कृत्रिमता की पराकाष्ठा है, और अन्ततः उभय पक्षों में कृत्रिमता से वितृष्णा आना स्वभाविक है।
गिरगिटिया आचरण वाले लोगो की बहुतायत हो रही है . मॉल संस्कृति इसकी आधुनिक पोषक है.
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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बरसों पहले एक कहानी पड़ी थी शायद प्रेमचंद जी की, उसका नायक नाई मैले कुचैले मजदूर की कटिंग-हजामत भी उतनी ही लगन व आदर से बनाता है जितने आदर से कस्बे के सेठ की... उसके लिये उसका हर ग्राहक राजा है...मॉल वालों के लिये every customer is king... चाहे कृत्रिमता से ही यह किया जा रहा हो पर यह अच्छा बदलाव है... पर हर जगह ऐसा नहीं है, हमारे कुछ धर्मस्थलों में रइसों को जिस तरह वीआईपी ट्रीटमेन्ट दिया जाता है व गरीब-गुरबों को जिस तरह जानवरों की तरह ठेला जाता है वह वितृष्णा जगाता है... काश मंदिरों के यह पुजारी भी मॉल वालों से कुछ सीखते...
...
प्रवीण शाह साहब,
Delete"मॉल वालों के लिये every customer is king..." पूर्ण सच्चाई नहीं है। नॉट एवरी!! शरूआत तो मीठे आदर भाव से होती है पर बातों ही बातों में आपसे बज़ट और मात्रा की जानकारी ले ली जाती है फिर शुरू होती है राजा, सम्राट और चक्रवर्ती सम्राट की श्रेणियाँ :) उसी श्रेणी के आधार पर आपसे ट्रीट्मेंट में अन्तर आना प्रारम्भ हो जाता है। वस्तुओं के परीक्षण में आपको अधिक जागृत पा ले तो सेल्समेन दूसरे सम्राट के खेमे में जाते देर नहीं लगाएगा। यह अच्छा बदलाव आखिर तो बाजार संस्कृति है, लाभ-अलाभ से प्रभावित होना निश्चित है। फिर ऐसा कृत्रिम आदर धर्मस्थलों मन्दिरों को क्यों सीखना चाहिए, क्या मात्र इसलिए कि फिर हम पलट कर सबूत के साथ कह सकें कि यह धर्मस्थल मन्दिर दुकानें है? मॉल है।
वाह! सुग्य जी...
Delete---सही कहा.... ऐसा कृत्रिम आदर धर्मस्थलों मन्दिरों को क्यों सीखना चाहिए, .... वहां जो भी व्यवहार होता है इतना क्रत्रिम नहीं....हां यह बात अलग है कि ...सरल-सहज़ व्यवहार तो हर जगह ही होना चाहिये ।
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Delete.
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आदरणीय सुज्ञ जी,
१- मॉल में मेरा अपना अनुभव हमेशा बहुत अच्छा रहा है, जबकि अपनी घिसी जीन्स व पुरानी, बेतरतीब बुशशर्ट में मैं चक्रवर्ती तो नहीं ही लगता... इसलिये मैंने यह लिखा...
२- क्या आप धर्मस्थलों के कारिन्दों द्वारा रइसों को वीआईपी व गरीब-गुरबों को जानवरों की तरह ठेले जाने को उचित मानते हैं ?
...
शाह साहब,
Delete१- सभी आपकी तकदीर वाले नहीं होते न? :)मैने भी मात्र कपडों के आधार पर स्तर निर्धारण की बात नहीं की। उनकी निर्धारण विधि में कईं तथ्य काम करते है। वे तो उसे भी परख कर चक्रवर्ती समान लेते है्। जो है तो सामान्य किन्तु धन-प्रदर्शन का शौक है।
२- इसमें बहुत सी बातें है-
१- व्यक्तिगत मैं तो नहीं मानता कि जहाँ धन के आधार पर भेद-भाव होता हो वे धर्मस्थल हो सकते है।
२- जहाँ धन देकर पुनः समृद्धि पाने का अंधविश्वास प्रवर्तमान हो,वहां आखिर जानवरों की तरह धक्के खाने गरीब-गुरबे जाते ही क्यों है? (और लोभी को तो कोई भी ठग सकता है)
३- यथार्थ धर्मस्थल तो वह है जहाँ जीवन को उत्कृष्ट बनाने की प्रेरणा, ज्ञान या उपदेश मिलते हों। और किसी उपदेशों में यह ताकत नहीं कि वे अमीर गरीब में भेद करके ही प्रसारित या ग्रहित हों।
४- अब जहां तक मॉल के कर्मचारियों से आदर मान सम्मान की कला सीखने की बात है तो अर्थ-सापेक्ष-धर्मस्थलों में तो यह कुरिति पहले से मौजुद है। सभी को व्यापार विधि में आवृत क्यों हो जाना चाहिए।
...हमें आगे-पीछे नाचने वाले सेल्समैन नहीं पसंद हैं.हम चाहते हैं कि किसी वस्तु के लेने न लेने के निर्णय में उसका कोई दकाह्ल न हो,सिर्फ गुणवत्ता ही देखनी चाहिए.
ReplyDelete...आप अपने को 'स्वतंत्र देवता' समझ लेते हैं पर यदि उनके वाग्जाल में फंसते हैं तो 'मोटा आसामी' भी बनते हैं !
मुझे तो मॉल बिल्कुल भी पसंद नहीं लेकिन कभी ज़रुरत, कभी मजबूरी... और आचरण हमेशा कपडे और रंग रूप देख कर ही किया जाता है.. चाहे मॉल के अन्दर हो या बाहर....
ReplyDeleteमुझे अगर नोर्मल लाइफ में कोई ज़रूरत से ज़्यादा विनम्र दिखाई देता है.. तो उसे फ़ौरन ही भगा देता हूँ.. क्यूंकि ऐसा व्यक्ति झूठा और मक्कार होता है.. लेकिन मैं यह काम मौल्ज़ में नहीं कर सकता.. कई बार तो मुझे भी ऐसा लगता है कि यह मौल्ज़ के वर्कर्स ज़रूरत से कहीं ज़्यादा हम्बल हैं.... हाँ ! यह है कि कई लोग इनके हम्बलनेस से ही सामान खरीद लेते हैं जो उनकी ज़रूरत के भी नहीं होते.. यह इनकी ट्रेनिंग होती है जैसे कभी किसी प्राइवेट सेकटर के इंश्युरेंस वाले सिर्फ यह पूछ दीजिये कि आप काम क्या करते हैं.. फ़िर वो अपनी पॉलिसी बेच कर ही दम लेगा... वैसा ही हाल इनका होता है.. यह हम्बलनेस से मार डालते हैं.. फ़िर भी यह ठीक है.. कम अज़ कम.. यह लोगों को तमीज़ और सहनशक्ति तो सिखा रहे हैं.. वैसे एक चीज़ और बताऊँ यह अँगरेज़ ही हैं जिन्होंने हिन्दुस्तानियों को कल्चर सिखाया.. कैसे खाया जाता है? कैसा बैठा जाता है? पैसे पहना जाता है? वैरायटी ऑफ़ डिशेस तो सिर्फ अंग्रेजों और मुग़लों की देन है... यहाँ तक कि एडमिनिसट्रेशन गवर्नेंस भी हमें उन्ही लोगों दी है.. और यह मौल कल्चर भी ... मौल में आकर अमीरी और गरीबी में दूरी ख़तम हो गई है... इनके लिए हर तबका बराबर है... और यह रिस्पेक्ट सबके लिए इकूअल है... तो है तो अच्छी बात.. हाँ ! यह है कि इतनी विनम्रता हम लोगों से डाइजेस्ट नहीं होती है... तो खटकती तो है.. शायद यह सिर्फ इसीलिए.. क्यूंकि हम हिन्दुसतनी हमेशा कॉम्प्लेक्स और फ्रस्ट्रेशन में रहे हैं.. आज भी दिल्ली वालों को देखिये इनके ज़ुबां से फ्रस्ट्रेशन टपकता है.. और हमारे लखनऊ की ज़बान कोई सुन लेगा तो पगला जायेगा.. उसे ऐसा लगेगा कि क्या आज के ज़माने में भी ऐसी कोई भाषा है क्या? लखनऊ की तहज़ीब कितनी भी ख़राब क्यूँ ना हो गई हो... लेकिन आज भी वो चीज़ कहीं ज़िंदा है.... जो कि भारत के किसी भी हिस्से में नहीं मिलेगी.. यहाँ तक कि तमीज़ भी अंग्रेजों और मुग़लों की देन है.... हमारी हिन्दुस्तानी संस्कृति सिर्फ बहुत पुरानी और रिच है.. पर उसने डेवलपमेंट अंग्रेजों से सीखा है.. यहाँ तक कि टैक्सेशन पौलिसीज़ भी .. (फॉर एग्जैमपल VAT)... यह मौल्ज़ ही हैं जिन्होंने कम अज़ कम.. तमीज़ और विनम्रता तो सिखाई.. यह बात अलग है कि इतनी विनम्रता हमें डाइजेस्ट करने में टाइम लगेगा.. :)
ReplyDeleteआप भी कहेंगे अजीब आदमी है ..कहाँ की बात कहाँ ले जा रहा है.. :) कितने लोग हैं यहाँ इस ब्लॉग वर्ल्ड में जिनके पोट्स पर आप कमेन्ट कर सकते हैं? इंटेलेक्चुयलटी मैटर्ज़... मैं दिमाग़ से बहुत प्यार करता हूँ .... [अगर वो दिमाग़ महिला का हो तो क्या कहने.. :) ]
अच्छा ! आपने लिखा सेल्समानव .. मुझे यह वर्ड बहुत अच्छा लगा.. मानव वर्ड ही अपने आप में विशाल लगता है.. और सेल्स्मानव तो ख़ैर मोर दैन विशाल है.... बिक्रिमानव अजीब लगता .. लेकिन यह मजेदार है... यू आर द फादर ऑफ़ दिस न्यूली कॉइनड टर्म ....:)
मैं अभी तक माल में सहज नहीं हो सका।
ReplyDeleteजय हो मॉल-महिमा!
ReplyDeleteसटीक बात कही प्रवीणजी आपने. मॉल में वस्तु बाजार से कम भाव में मिले यह थोड़ा मुश्किल दिखाई पड़ता है पर इस चकाचौंध ने अपने पैर मिडिल टियर शहर और कस्बों तक फिअल दिए हैं. जहाँ पर बस स्टेंड और रेलवे स्टेशन कि स्थिति दयनीय है उस कस्बे में २-३ सुसज्जित मॉल दिखाई पड़ जाते हैं.
ReplyDeleteऐसी कृत्रिम जगहों पर थोड़ी सी शुरूआती अंग्रेज़ी ठोकने के बाद फ़्लोर-स्टॉफ़ से मैं आराम से हिन्दी में बात करता हँ, वे ख़ुश्ा होते हैं कि ये आदमी पहनावे में तो नकली सा लगता है पर बात देसी ही है इसमें, इसे अंग्रेज़ी में लपेट के गोली नहीं दी जा सकती. क्योंकि मुझे पता है कि वहां काम करने वाले सभी, आम रिहायशी कॉलोनियों से ही आते हैं न कि उन हाई-फ़ाई अंग्रेज़ीदां कॉलोनियों से जहां का होने का दम भरते हैं वहां आने वाले उनके कस्टमर. वैसे मॉलबाज़ी कुछ सालों में आम बात हो जाएगी भारत में भी और इसकी कृत्रिमता भी ज़मीनी सच्चाई अपनाने लगेगी... अभी नया नया है सो अजब ग़ज़ब सा बना के रखा हुआ है
ReplyDeleteशहर सभी अपने से भैया ,माल सभी बे -गाने
ReplyDeleteगाओ यही तराने भैया ,गाओ यही तराने ,
माल में आकर गरीब अमीर का फर्क काल्पनिक टूट पर मिट जाता है .दिल्ली में DLF PROMENADE MALL ME घुमते हुए लगा ,विदेश के किसी माल में हूँ ..माल रच रहें हैं एक यूनी कल्चर /मोनोकल्चर .चेहरे मिट रहें हैं मुखौटे उभर रहें हैं सब तरफ .
धीरे धीरे आप भूलने लगते हैं कि आप किस देश में जी रहे हैं, वहाँ की क्या समस्यायें हैं?
ReplyDeleteऐसा है भैया माल का जादू .,काला जादू है यह .
सही कहा प्रवीण जी आजकल बहुत कुछ बदलता जारहा है...ये चकाचौंध की दुनिया है...
ReplyDeleteपाश्चात्यीकारन, आधुनिकता के नाम पर अब सहजता छोडकर कृत्रिम स्वतंत्र देवता बनाने की होड चली है !
ReplyDeleteआपकी बात से सहमत ... बहुत ही बढिया प्रस्तुति ... आभार
ReplyDeleteमॉल कल्चर मूल रूप से व्यवसायिकता पर आधारित है . मार्केटिंग के लिए सेल्समेनशिप तो सीखनी ही पड़ेगी . फिर कस्टमर को भी सर कहलवाना कहाँ बुरा लगता है . हम तो उस जगह से खरीदारी ही नहीं करते जहाँ के सेल्समेन को एटिकेट्स नहीं आते . यह पूर्णतया मानविक व्यवहार है .
ReplyDeleteलेकिन ज़रा सोचिये , मॉल्स में खरीदारी करते ही कितने है --मुश्किल से १०-१५% लोग . बाकि तो सब मौज मस्ती के लिए जाते हैं .
इसीलिए कभी कभी आज की पीढ़ी से जलन सी होती है . :)
इसलिये हम तो जाते ही नही।
ReplyDeleteमॉल कल्चर मूल रूप से बड़े पैसे वालो के लिये है,आम आदमी के लिये नही,यहा सिर्फ पैसे के दम पर पैसो की लूट होती है,
ReplyDeleteRECENT POST ,,,,पर याद छोड़ जायेगें,,,,,
कालान्तर में घर के बड़ों का आदर करना आये न आये, मॉल में आये धनाड्य का आदर करना आ ही जाता है।
ReplyDeleteवह संस्कृति, जहाँ सबको लगता है कि वे स्वतन्त्र देवता हैं, जबकि उसका पूरा आधार धन की दासता का है।
मॉल कल्चर का सार्थक विश्लेषण .....
--------"लगता है कि पहाड़ों को काट कर और गढ्ढों को पाट कर सारे विश्व को समतल बनाने की संस्कृति आ रही है।"
ReplyDeleteसारयुक्त तथ्य ..परन्तु हां...सब कुछ समतल होजाने पर..न नदिया बहेगी, न हवा चलेगी....फ़िर.जीवन का क्या ???
-------------बहुत समय पहले हमारे यहां बिसाती...नानबाइयों की दूकानें होती थीं.....जहां से जो कुछ चाहिये
मिलता था ।........ बाद में विदेशी प्रभाव से हम एड्वान्स हुए तो सिर्फ़ गार्मेन्ट, सिर्फ़ लक्स सोप, सिर्फ़ शर्ट,
सिर्फ़ मिर्च की दूकान आदि विशेषग्यता वाली दूकानें प्रारम्भ हुईं बडे गर्व से यह कहते हुए कि हम सिर्फ़ एक
ब्रान्ड,एक माल ही बेचते हैं..... .....हम अमरीका-योरोप प्रभाव से पुन: एडवान्स हुए और अब एक बडे मौल में
सभी वस्तुयें एक ही जगह मिलती हैं........ अर्थात...जैसे थे ...
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (17-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
एक छोर पर गोबर से अनाज के चंद दाने बीनते बच्चे दूसरे पर माल ही माल माल ही माल चुन तो लें फैसला करें आप कहाँ है एशिया की सबसे बड़ी माल सबसे बड़ी देह मंडी ,झोपड़ पट्टी?
ReplyDeleteवाकई ..सब कुछ प्लास्टिक का लगता है.
ReplyDeleteअब कृत्रिमता कहां अथवा आडंबर, पर ग्राहक को विशेष अनुभव कराना मार्केटिंग की रणनीति का मुख्य माना जाता हैं। हालाँकि सफल व सार्थक आचरण तो वही होता है जो बनावटी नहीं बल्कि वास्तविक(genuine)हो।
ReplyDeleteसचमुच सांस्कृतिक संघात! किन्तु शायद अच्छे के लिये ?
ReplyDeleteकृत्रिमता से मोहभंग होता ही है, जल्दी या फिर कुछ समय बाद| लेकिन ये सच है कि मॉल-कल्चर अब दिनोंदिन और शक्तिशाली होना है|
ReplyDeleteइतने वर्षों से विदेश में रहने का एक नुकसान ये हैं कि कुछ बातें भारत के सन्दर्भ में समझ नहीं पाते हैं...लेकिन गौर करने पर आपकी बातें काफ़ी मायने रखतीं हैं...हर इन्सान का अपना व्यक्तिगत गुण-अवगुण होता है, वो कितना भी ओढ़ पहन कर बात करे, उसके बुनियादी गुण झलक ही जाते हैं...आवरण, आवरण ही है नैसर्गिग हो ही नहीं सकता...
ReplyDeleteपश्चिमी देशों में शिष्टाचार कदम-कदम पर है...ख़ास करके के कनाडा में...आप जिसे मॉल कल्चर कहते हैं, वो यहाँ का कल्चर है...किसी अजनबी से भी अगर राह चलते आँखें मिल जाए तो अभिवादन करना सरल भाव है...चाहे वो कोई भी हो...अनुशासन और शिष्टाचार यहाँ के जीवन का अभिन्न अंग है...
यहाँ के मॉल में ग्राहक न सिर्फ़ सहज होता है, दृढ़ता पूर्वक अपने अधिकारों का प्रयोग भी करता है, यहाँ सेल्सपर्सन आप पर हम्बल बन कर हावी नहीं होते...उनका काम होता है प्रोडक्ट की सही जानकारी देना....यहाँ 'कस्टमर ईज किंग' नहीं 'कस्टमर ईज आलवेज राईट' की प्रक्टिस कि जाती है...
विदेशों में मॉल का प्रादुर्भाव क्यूँ हुआ इसका अर्थ फिर भी समझ में आता है, सबसे बड़ा कारण है मौसम....साल के ६ महीने बर्फ होती है...एक ही जगह सारी दुकामें एक छत के नीचे ग्राहकों को बहुत सुविधा देतीं हैं...एक बार आप अंदर जाते हैं अपना सारा सामान लेते हैं, कुछ खा पी भी लेते हैं, बच्चों को एक उत्सव का वातावरण भी मिल जाता है और बाहरबर्फ में एक दूकान से दूसरे दूकान में निकलने घुसने के झंझट से बच जाते हैं...बहुत सुविधाजनक होता है सबकुछ...लेकिन भारत में इसकी कोई ज़रुरत नहीं थी...हाँ नक़ल करने की आदत से बाज़ आना भारत के वश का न कभी रहा है और न ही रहेगा...लोग ये भूल जाते हैं कि विदेशों में, यहाँ के लोग जो करते हैं वो सब कुछ अपनी सुविधा, वातावरण, परिवेष और मौसम के हिसाब से करते हैं, इनके फैसलों में आर्थिक नजरिया भी होता है...मॉल की सारी दुकाने बिजली का खर्चा, पानी का चर्चा, कॉमन स्पेस का खर्चा, पार्किंग का खर्चा और भी बहुत सारे खर्चों एक साथ वहन करते हैं...जो दुकानदारों के लिए माफिक पड़ता है...
सभ्यता, संस्कृति के मामले में विदेशी जैसे थे वैसे ही हैं...बदल तो हिन्दुस्तानी रहे हैं...हमेशा की तरह...संस्कृति की तुरही आज से नहीं बज रही...अनादिकाल से बज रही है और बजती ही रहेगी...ये संस्कृति बचती कितनी है ये सोचने वाली बात ज़रूर है...
सामयिक आलेख, हमेशा की तरह..
आभार
बिलकुल सही बात!
Deleteईमेल से प्राप्त उर्मिला सिंह जी की टिप्पणी
ReplyDeleteहर परिवर्तन, धूप-छांव लिये होता है,माल-संसकृति पर आपका वृहद अध्ध्यन,प्रसंसनीय है,
कम से कम, आदर-सत्कार की परंपरा पुनःजीवित हो रही है,आशा की एक किरण.
सामान, जरूरत और उसकी प्रकट उपलब्धता के कारक से होता निर्धारण.
ReplyDeleteBadlaav prakriti ka niyam hai...ye to hona hii hai.
ReplyDeleteयह एक अलग संस्कृति है जो आज की पीढ़ी को खूब भा रही है | सच है यहाँ जाकर देश की समस्याओं का ख्याल ही नहीं आता , एक अलग ही संसार दिखता है | वजह शायद भी है देश की समस्याओं का ख्याल करना भी नहीं चाहते बहुत लोग अब |
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बेहतरीन रचना
दंतैल हाथी से मुड़भेड़
सरगुजा के वनों की रोमांचक कथा
♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥
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♥सप्ताहांत की शुभकामनाएं♥
ब्लॉ.ललित शर्मा
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आपकी विचारशीलता हमें भी कचोटती है ..ये दुहरापन का क्या भविष्य है..?
ReplyDeleteधन की दासता और स्वतंत्र देवता सब आजके बदलते बाजार और समाज के प्रतिबिम्ब है.
ReplyDeleteबदलाव कहाँ रुक पाता है...पर एक तरफ धन और विलासिता का प्रदर्शन और दूसरी तरफ गरीबी का दंश मन को ज़रूर कचोटता है....
ReplyDeleteपहुँच हमारी नुक्कड़ की दुकान तक
ReplyDeleteतुम मँहगे और ऊँचे मॉल हो गये
ये कृत्रिमता... ये आवरण निश्चित ही कचोटता है...!
ReplyDeleteचमचमाती भव्यता के भीतर झाँक कर तथ्य खोजता सार्थक आलेख!
मॉल का एकमात्र लाभ मुझे तो यही लगता है कि सब चीज़ें एक ही जगह मिल जाती हैं ..... कृत्रिमता तो जीवन के हर लम्हे को थामे रहती है .....
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट पर क्या कहूँ जो कुछ में कहना चाह रही वीएच सभी लिख चुके फिलहाल अमित श्रीवास्तव जी की बात से पूर्णतः सहमत हूँ।
ReplyDeleteअब हर शहर का अपना चेहरा छिपने लगा है .माल मुखर होने लगें हैं .पहले चण्डीगढ़ प्रवेश लेते वक्त अम्बाला साइड से आते हुए और कुछ दिखता बता अब पहले माल दिखती है चण्डीगढ़ बाद में .सिटी ब्यूटीफुल का बोर्ड ढूंढोगे तो ढूंढते भी रह जाओगे .
ReplyDeleteअब हर शहर में एक माल होता है वही उसकी विशेषता मान लिया गया है मानो माल होना शहर होने को पूर्णता देता हो .कुछ समय के बाद माल ही माल होंगें उन्हीं में कहीं थोड़ा बहुत अंश शहर का भी दिख जाया करेगा .
ReplyDeleteअब तो हर शहर में माल कल्चर आता जा रहा है ... संस्कृति के इस बदलाव को धीरे धीरे सब आत्मसात कर रहे हैं ...
ReplyDelete"ध्यान से देखा जाये ..............आपको कचोटने लगती है। " यही महत्वपूर्ण है .
ReplyDeletepaisa kya na karwa de..:)
ReplyDeleteaur har parivartan jaruri nahi galt hi ho.. mall culture me bhi kuchh fayde to hain...
माल-कल्चर का सतहीपन सहज और स्वस्थ नहीं लगता -ऊपरी चमक-दमक के कारण आकर्षित सभी को करती है.
ReplyDeleteमॉल संस्कृति की चमक-दमक के पीछे छिपा बाजारुपन आपकी संवेदनशील नज़र से बच नहीं पाया.खाओ, पियो और मौज करो की मानसिकता वालों को देश की समस्या से क्या लेना देना.पूंजीपतियों की यह दुकान न जाने कितने छोटे -मोटे दुकानदारों की रोजी-रोटी छीन रही है.
ReplyDeleteमुझे मॉल जाना तनिक भी पसंद नहीं, ना आज न पहले कभी.
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन विश्लेषण....मॉल जाना मुझे भी पसंद नहीं है...वहां की कृत्रिमता में दम घुटता है...
ReplyDeleteसारी दुनिया ही मॉल बनती जा रही है...
ReplyDeleteमॉल जाना कम ही हो पाता है पर धन का सम्मान और दारिद्रय का अपमान कोई नई बात तो नही सदियों से चली आ रही है ये रीत । हर कोई कृष्ण नही होता जो सुदामा का आदर भी कर और ुसे मालामाल भी करे ।
ReplyDeleteप्रवीणजी, पोस्ट देर से पढ़ पा रही हूं लेकिन शायद विचार एकसाथ ही उपजे थे। मैं भी इन्हीं तारीखों में मॉल-संस्कृति के बारे में ही सोच रही थी बस आप बैंगलोर में थे और मैं पुणे में। बहुत ही सधा हुआ आलेख।
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