यह तो सुना था कि भवनों के नाम महापुरुषों के नाम पर रखे जाते हैं। सही भी है, निर्जीव भवनों को इसी बहाने कोई नाम मिल जाता है, महापुरुषों का नाम मिल जाता है, उनका जीवन बस इसी बात से धन्य हो जाता है। पहचान के लिये नाम आवश्यक भी होता है, बिना नाम अनाथ जैसा लगता होगा, निर्जीव भवनों को।
दो उद्देश्य रहते होंगे, नाम रखने के। पहला, यह जताने के लिये कि किसने उसका निर्माण कराया, सम्पन्नता को अनाम रखना सच में कितना कठिन कार्य रहा है, सदियों से। दूसरा, भवन के सहारे ही सही पर स्वयं को अमरत्व प्रदान कराने के लिये भी नामकरण होता होगा, सही भी है क्योंकि भवन मानवों से कहीं अधिक जीते हैं। जब कभी औरों को प्रसन्न करना अधिक आवश्यक होता है तो भवन आदि का नामकरण एक विशेष उद्देश्य सिद्ध करने लगता है। भवन के साथ साथ नगर के मार्ग, चौराहे, उपवन, पुल आदि किसी न किसी का नाम ग्रहण करने को उतावले रहते हैं, सत्तासीनों की सुविधानुसार। बेनामों और बेजानों के नामकरण के बाद उस महापुरुष के गुण उसके निर्जीव वातावरण को जीवन्त कर देते होंगे। तब सड़कों में चलने वालों में और भवनों में रहने वालों में चरित्र उत्थान और व्यक्तित्व निर्माण की पूर्ण संभावनायें बनी रहती होंगी।
संक्षिप्त में कहा जाये तो अभी तक भवनों को औरों से प्रभावित होते ही देखा है, औरों को नाम ग्रहण करते ही सुना है। ऐसा नहीं है कि भवनों में कोई विशेष गुण नहीं होता है, कुछ गिने चुने भवनों में ही वह गुण होता है जो विशेषण के रूप में प्रयुक्त किया जा सके। ताजमहल का सौन्दर्य, पीसा की मीनार का तिरछापन आदि विशेष गुण हो सकते हैं और उनका हम उपयोग भी कर सकते हैं।
सब कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था मन्दिया रही है। लग भी रहा है, डालर फूल रहा है, रुपया सिकुड़ रहा है। अर्थव्यवस्था की जटिलतायें हमको समझ में नहीं आती हैं, जैसा लोग समझाते हैं, हम समझ जाते हैं। सुना था कि बहुत समय पहले जब लखनऊ में अकाल पड़ा था, किसी को कोई काम नहीं था, तब सभ्रांत समाज को रात के समय कार्य करने का अवसर देकर वहाँ के नवाब ने न केवल उनका जीवन बचाया वरन इमामबाड़ा जैसा बड़ा भवन निर्मित करवा दिया।
जिनको ज्ञात न हो, उन्हें बताते चलें कि इमामबाड़ा अपने भूलभुलैया के लिये बहुत प्रसिद्ध है। गलियारों का जाल और ४८९ एक जैसे दरवाजों का होना ही भूलभुलैये का प्रमुख कारण है। न भूलने की ठान ली थी तो उस भवन के निर्माण को समझना आवश्यक हो गया था। भूलभुलैया को उसके निर्माण से पृथक रख कर देखना ही उसमें भटक जाने का प्रमुख कारण है। जो लोग गये होंगे वहाँ, उन्हें यह याद होगा कि भूलभुलैया प्रथम खण्ड में जाकर प्रारम्भ होता है, तीन परतों में ऊपर नीचे गलियारों, सीढ़ियों और दरवाजों की भटकन और सबसे ऊपर एक सपाट छत।
इमामबाड़े का वास्तु और स्थापत्य कौशल तब समझ में आया जब ऊपर से नीचे के विशालकाय हॉल में झाँका। न कोई खम्भा, न कोई बीम, न कोई सरिया, और ऊपर स्थित वृहदतम अर्धबेलनाकार छत, मेहराब शैली का निर्माण। गजब की कलाकारी है, सरल भाषा में समझा जाये तो एक विशाल भवन के ऊपर तीन मंजिला छप्पर। अब छप्पर पूरा ठोस तो बनाया नहीं जा सकता था, उसका भार इतना अधिक हो जाता कि वह स्वयं सहारा देने में विफल हो जाता। संभवतः इसीलिये उसे खोखला बनाया गया होगा, खोखले में गलियारों की दीवारों का प्रयोग नीचे की अर्धबेलनाकार छत और ऊपर की सपाट छत के बीच सततता बनाये रखने के लिये, सीढ़ियों का प्रयोग मेहराब के रूप में, और द्वारों का प्रयोग पूरे आकार को आपस में जोड़ने के लिये किया गया होगा।
इमामबाड़े जैसे भवनों का मर्म कहीं और छिपा है और हम उसके भूलभुलैये में खो जाते हैं। मर्म अन्दर छिपा होता है और हम आवरण में उलझ जाते हैं। जो दीवारें भार सहन करती हैं, उनसे अधिक महत्व भटकाने वाली दीवारों को मिलता है। मेहराबदार स्थापत्य का अद्भुत उदाहरण, रात में अपनी जीविका के लिये कार्य करने वालों की कहानी बन जाता है। यह आपाधापी या व्यर्थ में बहाये हुये श्रम का उदाहरण नहीं, वरन उन्नत योजनानुसार क्रियान्वित भवननिर्माण का उदाहरण है। इसके निर्माण की वैज्ञानिक प्रक्रिया और संबन्धित तथ्य निश्चय ही इतिहास के किसी भूलभुलैया में पड़े अपने बचावदल की राह देख रहे होंगे।
जो बड़े भवनों का सच है, वही सच बड़े महापुरुषों का भी है। उनकी उपाधियों, जीवनी, कार्यों आदि के आवरण के अन्दर छिपे भाव कभी उद्घाटित और स्थापित किये जाने के प्रयास ही नहीं किये जाते। बाहरी भूलभुलैया हमें इतना उलझा देता है कि हम यह भी याद नहीं रख पाते हैं कि मर्म में क्या है, नीचे का बड़ा हॉल जहाँ सबके लिये पर्याप्त स्थान है, समुचित और सुरक्षित स्थान।
शताब्दियाँ बीत गयी हैं, हम महापुरुषों का नाम भवनों को देते आये हैं। आज हम अपनी क्षुद्र समझ से अपने महापुरुषों के व्यक्तित्वों को इमामबाड़ा का स्वरूप देने में लगे हैं, मर्म कम, भूलभुलैया अधिक। गलियारों में भटकते भटकते कभी तो नीचे झाँकना होगा, और समझना होगा कि हम सब एक बड़े आकार के चारों ओर खड़े हैं, एक ही भवन में और एक साथ।
दो उद्देश्य रहते होंगे, नाम रखने के। पहला, यह जताने के लिये कि किसने उसका निर्माण कराया, सम्पन्नता को अनाम रखना सच में कितना कठिन कार्य रहा है, सदियों से। दूसरा, भवन के सहारे ही सही पर स्वयं को अमरत्व प्रदान कराने के लिये भी नामकरण होता होगा, सही भी है क्योंकि भवन मानवों से कहीं अधिक जीते हैं। जब कभी औरों को प्रसन्न करना अधिक आवश्यक होता है तो भवन आदि का नामकरण एक विशेष उद्देश्य सिद्ध करने लगता है। भवन के साथ साथ नगर के मार्ग, चौराहे, उपवन, पुल आदि किसी न किसी का नाम ग्रहण करने को उतावले रहते हैं, सत्तासीनों की सुविधानुसार। बेनामों और बेजानों के नामकरण के बाद उस महापुरुष के गुण उसके निर्जीव वातावरण को जीवन्त कर देते होंगे। तब सड़कों में चलने वालों में और भवनों में रहने वालों में चरित्र उत्थान और व्यक्तित्व निर्माण की पूर्ण संभावनायें बनी रहती होंगी।
संक्षिप्त में कहा जाये तो अभी तक भवनों को औरों से प्रभावित होते ही देखा है, औरों को नाम ग्रहण करते ही सुना है। ऐसा नहीं है कि भवनों में कोई विशेष गुण नहीं होता है, कुछ गिने चुने भवनों में ही वह गुण होता है जो विशेषण के रूप में प्रयुक्त किया जा सके। ताजमहल का सौन्दर्य, पीसा की मीनार का तिरछापन आदि विशेष गुण हो सकते हैं और उनका हम उपयोग भी कर सकते हैं।
सब कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था मन्दिया रही है। लग भी रहा है, डालर फूल रहा है, रुपया सिकुड़ रहा है। अर्थव्यवस्था की जटिलतायें हमको समझ में नहीं आती हैं, जैसा लोग समझाते हैं, हम समझ जाते हैं। सुना था कि बहुत समय पहले जब लखनऊ में अकाल पड़ा था, किसी को कोई काम नहीं था, तब सभ्रांत समाज को रात के समय कार्य करने का अवसर देकर वहाँ के नवाब ने न केवल उनका जीवन बचाया वरन इमामबाड़ा जैसा बड़ा भवन निर्मित करवा दिया।
जो बड़े भवनों का सच है, वही सच बड़े महापुरुषों का भी है। उनकी उपाधियों, जीवनी, कार्यों आदि के आवरण के अन्दर छिपे भाव कभी उद्घाटित और स्थापित किये जाने के प्रयास ही नहीं किये जाते। बाहरी भूलभुलैया हमें इतना उलझा देता है कि हम यह भी याद नहीं रख पाते हैं कि मर्म में क्या है, नीचे का बड़ा हॉल जहाँ सबके लिये पर्याप्त स्थान है, समुचित और सुरक्षित स्थान।
शताब्दियाँ बीत गयी हैं, हम महापुरुषों का नाम भवनों को देते आये हैं। आज हम अपनी क्षुद्र समझ से अपने महापुरुषों के व्यक्तित्वों को इमामबाड़ा का स्वरूप देने में लगे हैं, मर्म कम, भूलभुलैया अधिक। गलियारों में भटकते भटकते कभी तो नीचे झाँकना होगा, और समझना होगा कि हम सब एक बड़े आकार के चारों ओर खड़े हैं, एक ही भवन में और एक साथ।
इमामबाड़े के बारे में नई जानकारियां मिलीं.बड़े लोगों को समझने में हम कहाँ उलझे रहते हैं यह भी इस बहाने बता दिया आपने |
ReplyDelete.....कई बार हम कुछ चीजों को तभी समझते हैं जब इसी तरह से साक्षात्कार होता है !
bahut hi acchi post .. padhte samay , wahi jaa pahuncha.. kabhi dekhunga jarur.
ReplyDeleteshukriya
बेहद रोचक शैली में ,भवन निर्माण व उनके अंतस का मर्म ,बनानेवालों की दूरदृष्टि का विश्लेषण,संक्षिप्त में बृहद अर्थ देता हुआ सुन्दर आलेख ...शुभकामनायें जी पांडे साहब /
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.
ReplyDeleteभवन निर्माण भूल भूलैया और महापुरुषों का जीवन
बहुत अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया है आपने.
इतनी गहराई से अगर कोई करे/सोचे/देखे/लिखे/तो नाम तो अमर होना ही है/काम भी अमर होना ही चाहिये....
ReplyDeleteइमामबाड़े पर बहुत ही खूबसूरत आलेख.. आपको पता है लखनऊ के रेलवे स्टेशन को चारबाग कहा जाता है.. और यह चारबाग शैली बाबर ने डेवलप करवाई थी.. इस शैली की ख़ास बात यह थी... कि इस में चार मीनारें होतीं हैं जो की देखने में छह दिखाई देंगी.. यह दुश्मनों को धोखा देने के लिए थी.. और इस शैली में अन्दर की आवाज़ बाहर नहीं जाती है...आज भी लखनऊ रेलवे स्टेशन में ट्रेनों की आवाज़ बाहर नहीं आती है.. जबकि ट्रेन की आवाज़ कितनी ज्यादा होती है हम सबको पता है.. उसी तरह इमामबाड़े में भूलभूलैया भी उसी शैली में बनाये गए हैं.. भूलभूलैया में भी आवाज़ सिर्फ भरमाने के लिए बाहर से आती है...अन्दर की आवाज़ बाहर जाती ही नहीं है.. इसी बेस पर हैदराबाद का गोलकोंडा किला भी है.. लेकिन उसमें वायरलेस टेक्निक का यूज़ किया है.. जो कि उस ज़माने में बहुत ही अनोखी बात थी. आपका आलेख बहुत अच्छा लगा..
ReplyDeleteपुराने भवन हमें यह दर्शाते हैं की भले ही तब विज्ञानं का विकास न हुआ हो , लेकिन इन्सान की बुद्धि तब भी पूर्णतया विकसित थी . इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं जैसे भवन को ठंडा रखने के लिए वाटर चैनल्स बनाना, खोखली दीवारों में बहता पानी आदि. निर्माण के लिए उपलब्ध सामग्री और तकनीक का बेहतरीन इस्तेमाल किया जाता था .
ReplyDeleteपूरा मानव विकास ही आश्चर्यचकित करने वाला है .
यही तो झलक है हमारे संस्कृति की - बहुत अच्छा आलेख !
ReplyDeleteदूसरे अंदाज में इन महापुरुषों की तुलना इमामबाड़े से इस रूप में भी की जा सकती है कि बाहर से शानदार , अन्दर भूल बुलैया और ऊपर से झांको तो नीचे पूरा खोखला :)
ReplyDeleteअपनी पहचान हुई भूलभुलैया
ReplyDeleteरहीम खानखाना ने कहा था "जिन्दगी एक पुल है, इसपर से गुजर जाइए। इसपर घर बनाने की कोशिश मत कीजिये।" इस पुल पर घर कितना ही पक्का क्यों न हो, चिरस्थायी नहीं हो सकता। आदमी मकान और इमारतों की शक्ल में ही सही, लम्बा जीना चाहता है और खुद के एक दिन खाक होने की बात पचा नहीं पाता।
ReplyDeleteहम उसके भूलभुलैये में खो जाते हैं ... बिल्कुल जैसे आपके लेखन की सशक्तता ... आभार
ReplyDeleteभूल भुलैया से जुडी एक कहावत सुनाई थी गाइड ने "जिसको ना दे मौला उसको दे असुफोदौला " .
ReplyDelete'मर्म अन्दर छिपा होता है और हम आवरण में उलझ जाते हैं।'
ReplyDeleteगहन आलेख!
आज हम अपनी क्षुद्र समझ से अपने महापुरुषों के व्यक्तित्वों को इमामबाड़ा का स्वरूप देने में लगे हैं, मर्म कम, भूलभुलैया अधिक। गलियारों में भटकते भटकते कभी तो नीचे झाँकना होगा, और समझना होगा कि हम सब एक बड़े आकार के चारों ओर खड़े हैं, एक ही भवन में और एक साथ।
ReplyDeleteव्यक्तित्व की इमामबाड़े से तुलना सटीक लगी .... इसकी भूलभुलइयाँ से बचना है तो बस जहां भी सीढ़ी दिखे ऊपर को चढ़ते जाएँ .... और अंत में मिल जाएगी सपाट छत .... जिसकी सीढ़ियों से उतर इमामबाड़े से बाहर आया जा सकता है .... इसी तरह अपने व्यक्तित्व को भी ऊंचा उठाना होगा ..... बढ़िया पोस्ट
इमामबाड़े पर बहुत ही खूबसूरत आलेख.. महत्वपूर्ण जानकारी .....
ReplyDeleteसमग्र दृष्टि से निष्कर्ष बड़ा ही कठिन कार्य, किन्तु भूलभुलैया का अन्तिम यथार्थ होता है।
ReplyDelete@मर्म कम, भूलभुलैया अधिक..
ReplyDeleteसत्य है, मर्म को समझने पर ही धर्म की व्याख्या हो सकती है.
thik hi kaha gaya hai, ki khandhar se mahlo ki ronak ka pata chalta hai,ye to abhi jiwit hai,,,,,,,,
ReplyDeleteइसके निर्माण की वैज्ञानिक प्रक्रिया और संबन्धित तथ्य निश्चय ही इतिहास के किसी भूलभुलैया में पड़े अपने बचावदल की राह देख रहे होंगे।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर प्रस्तुति,,,इमामबाड़े पर बेहतरीन नई जानकारी देता आलेख,,,,,
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जो बड़े भवनों का सच है, वही सच बड़े महापुरुषों का भी है। उनकी उपाधियों, जीवनी, कार्यों आदि के आवरण के अन्दर छिपे भाव कभी उद्घाटित और स्थापित किये जाने के प्रयास ही नहीं किये जाते। बाहरी भूलभुलैया हमें इतना उलझा देता है कि हम यह भी याद नहीं रख पाते हैं कि मर्म में क्या है, नीचे का बड़ा हॉल जहाँ सबके लिये पर्याप्त स्थान है, समुचित और सुरक्षित स्थान।
ReplyDeletejai baba banaras....
शिल्पकला और विज्ञानं का नमूना है इमामबाड़ा ... आपने इसको जीवन दर्शन से जोड़ के नया आयाम दे दिया है ...
ReplyDeleteरोचक और दिलचस्प...
ReplyDeleteऐतिहासिक महत्व के स्थापत्य कला पर आधिनिक संदर्भ की सोंधी सुगंध में आपने जो प्रस्तुत किया वह बड़ा ही मन भावन और विचारों को स्पंदित करने वाला था।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है ...
ReplyDeleteबहुत पुरानी यादें आ गयीं ..
सर जी इसे मैंने देखा है और बिना किसी के मदद लिए गलियारे का चक्कर लगा चूका हूँ ! इस पोस्ट की आखिरी वाक्य बेहद महत्त्व रखती है !
ReplyDeleteऐतहासिक धरोहर,इमामबाडे पर,सुंदर आलेख,साथ ही महापुरुषों का व्यक्तित्व की जो समीक्षा, निम्न
ReplyDeleteपंक्तियों में की है,सटीक बन पडी है,’ आज हम अपनी क्षुद्र समझ से अपने महापुरुषों के व्यक्तित्व को इमामबाडा का स्वरूप देने में लगे हैं---’
इमामबाड़े जैसे भवनों का मर्म कहीं और छिपा है और हम उसके भूलभुलैये में खो जाते हैं। मर्म अन्दर छिपा होता है और हम आवरण में उलझ जाते हैं।
ReplyDeleteगहरी बात लिखी है ...विचार और दर्शन से भरा गहन आलेख ...!!
भवनों को नाम दिए जाने पर उनका जीवन सार्थक होना..और फिर एक भवन की वास्तु कला का परिचय देते हुए आज के समय में भटके लोगों की अपरिपक्व या सतही समझ को इस मुद्दे से जोड़ना पोस्ट को दार्शनिक रूप भी दे रहा है.
ReplyDeleteबहुत ही रोचक ...
ReplyDeleteगलियारों में भटकते भटकते कभी तो नीचे झाँकना होगा, और समझना होगा कि हम सब एक बड़े आकार के चारों ओर खड़े हैं, एक ही भवन में और एक साथ। बहुत सही कहा आपने यही तो सच है मगर हम देख ही नहीं पाते सटीक बात कहती सार्थक रचना....
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने-ज्यादातर मनुष्य का जीवन सचमुच इमामबाड़ा सरीखा सा ही है
ReplyDeleteदेखा तो कई बार ये इमामबाड़ा पर समझ में अभी आया जब आपने समझाया.
ReplyDeleteठीक कहते हैं आप।
ReplyDeleteरोचक , हम एक बार फिर पूरी स्थापत्य कला में खोखलेपन की संरचना और खोखली सोच और व्यक्तित्व को तोलने लगे है ,
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण जानकारी इमामबाड़े पर बहुत ही खूबसूरत आलेख.......
ReplyDeleteबहुत ही रोचक एवं महत्वपूर्ण जानकारी ... सुन्दर आलेख..आभार
ReplyDeleteआपकी पोस्ट कल 14/6/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें
चर्चा - 902 :चर्चाकार-दिलबाग विर्क
इमामबाड़े जैसे भवनों का मर्म कहीं और छिपा है और हम उसके भूलभुलैये में खो जाते हैं। रोचक जानकारी। कोटी-कोटी नमन।
ReplyDeleteबहुत सुंदर आलेख.
ReplyDeleteइमामबाड़े का निर्माण भीषण अकाल से निबटने के लिये एक प्रयास था जिसका निर्माण लगभग दस साल से अधिक चला था. यह भी कहा जाता है दिन में गरीब तबके के लोग उसे बनाते थे और जो सम्मानित व्यक्ति थे वह रात में काम करते थे उसे तोडने का और उनको उसे तोडने के लिये भी मजदूरी दी जाती थी. कोशिश यही थी कि काम अधिक समय तक चलता रहे.
बहुत पते की बातें कह दीं आपने- एक इमारत के बहाने !
ReplyDeleteआज हम अपनी क्षुद्र समझ से अपने महापुरुषों के व्यक्तित्वों को इमामबाड़ा का स्वरूप देने में लगे हैं, मर्म कम, भूलभुलैया अधिक। गलियारों में भटकते भटकते कभी तो नीचे झाँकना होगा, और समझना होगा कि हम सब एक बड़े आकार के चारों ओर खड़े हैं, एक ही भवन में और एक साथ।
ReplyDeleteबहुत सार्थक लेख..... आपकी वैचारिक अभिव्यक्ति से पूरी तरह सहमत
Was totally unaware of this!! thanks for sharing :)
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 14-06-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में .... ये धुआँ सा कहाँ से उठता है .
बहुत बढ़िया विश्लेषण
ReplyDeleteबहुत सार्थक प्रस्तुति!
ReplyDeleteऐसी ईमारतों की तरह ही हम लोग दूसरों के व्यक्तित्व को अपने अपने नजरिये से देखते हैं, और प्रायः सब अपनी अपनी जगह अंशतः सही होते हैं|
ReplyDeleteइमामबाड़े की स्थापत्य कला पर बहुत रोचक आलेख....
ReplyDeleteअर्थ गर्भित विश्लेषण प्रधान बढ़िया प्रस्तुति भाई साहब ,आदाब .
ReplyDeleteसभी विषय एक दूसरे से एकदम गूँथे हुये...
ReplyDeleteइमाम बाड़ा की अच्छी जानकारी प्राप्त हो गई इस सुंदर पोस्ट से....
सादर आभार।
बहुत रोचक अंदाज़ मे अपनी बात कही है सर!
ReplyDeleteइमाम बाड़े के बारे मे भी अच्छी जानकारी मिली।
सादर
इस भूल भुलए में जीवन का सही मर्म भी है और उद्देश्य भी।
ReplyDeleteimambade ki bhoobhulaiya me bahut hi marmik, gehen chintan ki baat kah di....sach hai ham upar upar ka dekh kar bhatak jate hain bheetar tak to pahunch hi nahi pate.
ReplyDeleteYour posts are always interesting and teach us something.
ReplyDeleteगलियारों में भटकते भटकते कभी तो नीचे झाँकना होगा, और समझना होगा कि हम सब एक बड़े आकार के चारों ओर खड़े हैं, एक ही भवन में और एक साथ। ....So true...
ReplyDelete.
आप के पोस्ट तो कमाल के होते है प्रवीण जी
ReplyDeletevaastu kalaa kaa apratim namunaa hai imaam baadaa .shukriyaa behatreen chhaayaankan se saji post ke lie .
ReplyDeleteवास्तु कला का अप्रतिम नमूना है इमाम बादा .शुक्रिया बेहतरीन छायांकन से सजी पोस्ट के लिए
ReplyDeleteimambaade ke baare me bahut hi sundar v rochak jaankaari di aapne .
ReplyDeletebahut hi sarthak prastuti
aabhaar
poonam
अद्धभुत आलेख ..इमामबाड़े की जानकारी ...मेरे लिए तो नई हैं ...इसके लिए आभार
ReplyDeleteअच्छी जानकारी देती पोस्ट |
ReplyDeleteआशा
इमामबाड़े की जानकारी के साथ महापुरुषों से उसकी तुलना लाजवाब है . सचमुच विराट व्यक्तित्व या भवनों की भूल भुलैया में खोये लोंग आधार और नींव को भूला देते हैं !
ReplyDeletebehavior can be affected n manipulated by so many things..
ReplyDeletenice read as ever !!!
ऐतिहासिक इमामबाड़े के बारे में रोचक जानकारी. इमामबाड़े के बहाने आपने जीवन के मर्म को छुआ.
ReplyDeleteनीचे झाँकने पर बहुत कुछ दिख जाता है तो फिर क्यों न खोखलापन लिए आसमान निहारा जाए...
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