भगवान ने कोई भी चीज सीधी नहीं बनाई है, मीठे में ढंग से बीमारी तो कड़वे में औषधीय गुण डाल रखे हैं, भोग में दुख तो धैर्य में सुख छिपा रखा है, न्यूनता में दुख है तो अधिकता में भी दुख है। दिन में सम्पन्नता का सुख रात में चिन्ता बन जाती है, नींद न आने का कारण। वहीं दिन की विपन्नता और जी तोड़ श्रम रात का सुख बन जाता है, गाढ़ी नींद का सुख। मूढ़ अपनी मूढ़ता में प्रसन्न रह लेता है, विद्वान छोटा सा विकार देखकर उद्वेलित हो जाता है।
जहाँ पर इस तरह की अनिश्चितता या विरोधाभासी निष्कर्ष हों वहाँ किसी भी प्रकार के नियम बनाना समय व्यर्थ करना होगा। एक घटना, सबके ऊपर अलग अलग प्रभाव। एक परिवेश, सर्वथा अलग अलग व्यक्तित्व। पेड़ के पत्तों सा क्रम दिखता है जगत में। अधिक निकट जाकर देखेंगे, तो कुछ समझ नहीं आयेगा, किसी भी नियम से स्वतन्त्र। थोड़ा अधिक दूर जाकर देखेंगे तो छोटा होता जायेगा, बिन्दु सा, किसी भी नियम में प्रयुक्त।
इस मुक्त व्यवस्था में केवल दो ही निष्कर्ष समझ आते हैं। पहला, नियम के आभाव में सब विशेष हैं, एक के अनुभव दूसरे पर अधिरोपित नहीं किये जा सकते हैं, सबको अलग अलग समझना होगा। दूसरा, किसी को समझने के लिये बहुत अधिक निकट या बहुत अधिक दूर नहीं जाना चाहिये, कहीं मध्य से ही वह पूरा और स्पष्ट समझ में आयेगा।
समाजशास्त्री मेरे कथ्य से सहमत नहीं होंगे क्योंकि किसी भी बड़े समूह को समझने के लिये एक एक अवयव पर ध्यान नहीं दिया जा सकता, समूह का सम्मिलित व्यवहार ही उनके अध्ययन का आधार होता है। समाजशास्त्रियों का यह तर्क स्वीकार्य है पर हमारा अधिकतम व्यवहार समूह पर आधारित नहीं होता है, परिवार, निकटस्थों, मित्रों, वरिष्ठों और अधीनस्थों से हमारा व्यवहार व्यक्तिगत ही होता है। समाज आदि का अध्ययन भी अन्ततः व्यक्ति के व्यवहार-समुच्चय पर ही निर्भर होता है।
जब स्वयं की दृष्टि ही समष्टि समझने का माध्यम है तो स्वयं को समझना जगत को समझने का प्रथम सोपान है। अपना व्यवहार, अपनी अभिरुचियाँ, अपनी चाह, अपनी राह, सब समझ आती है, स्पष्ट होती जाती है धीरे धीरे। समस्या तब आती है जब अपनी समझ से दूसरे व्यक्तित्वों को समझने का प्रयास होता है। अपने जीवन की घटनायें इतनी जानी पहचानी लगती है कि वह नियम जैसी चिपक जाती हैं मानसिकता से। जब उस दृष्टि से दूसरों के जीवन की घटनायें देखी जाती हैं तो एक भ्रम सा लगने लगता है, मानव व्यवहार।
किंकर्तव्यविमूढ़ का अर्थ शब्द में ही छिपा है, किं कर्तव्य विमूढ़, क्या कर्तव्य हो इस बारे में विमूढ़ता। यह स्थिति हर एक के साथ आती है, अधिक इसलिये भी आती है क्योंकि नियमों में प्रकृति को बाँध पाना कठिन होता है, विशेषकर मानव प्रकृति को। आप क्या करते हैं ऐसी स्थिति में?
किंकर्तव्यविमूढ़ होने के गर्भ में या तो कोई व्यक्ति होता है या कोई घटना। कभी भी किंकर्तव्यविमूढ़ सी स्थिति आती है तो अपने नियत दो निष्कर्षों को ही लगाता हूँ। पहला तो उस व्यक्ति या घटना को विशेष मान लेता हूँ, सब नियमों से मुक्त, सब निष्कर्षों से परे, किसी उपाधि के अनुग्रह से निर्बन्ध, बस विशेष। ऐसा करने से संबंध की जड़ता लुप्त हो जाती है, प्राप्त गतिमयता का उपयोग उत्तर ढूढ़ने में प्रयुक्त होता है, एकल संबंध पर विचार होता है, एक ऐसा परिसीमन जहाँ समस्या और उसका उत्तर निश्चय ही विद्यमान होगा।
दूसरा कार्य होता है, मध्य में पहुँच जाना, वहाँ पर जहाँ से सब कुछ स्पष्ट दिखायी दे। यदि आत्मीय अधिक हो तो थोड़ी दूरी, यदि अपरिचित हो तो थोड़ी निकटता। मध्य खड़े होकर समस्या की समझ पूरी होती है। दूरदृष्टि और निकटदृष्टि के बीच कहीं अवस्थित है जीवन का संतुलन। बुद्ध का मध्यमार्ग दर्शन का प्रबल पक्ष हो सकता है पर मेरे लिये विमूढ़ता की स्थिति से बाहर आने का उपाय भर है।
जितनी बार भी किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति को इन दो निष्कर्षों पर मापा है, एक निश्चित उत्तर पाया है। पता नहीं आप कैसे बाहर आते हैं, इस स्थिति से?
इस मुक्त व्यवस्था में केवल दो ही निष्कर्ष समझ आते हैं। पहला, नियम के आभाव में सब विशेष हैं, एक के अनुभव दूसरे पर अधिरोपित नहीं किये जा सकते हैं, सबको अलग अलग समझना होगा। दूसरा, किसी को समझने के लिये बहुत अधिक निकट या बहुत अधिक दूर नहीं जाना चाहिये, कहीं मध्य से ही वह पूरा और स्पष्ट समझ में आयेगा।
समाजशास्त्री मेरे कथ्य से सहमत नहीं होंगे क्योंकि किसी भी बड़े समूह को समझने के लिये एक एक अवयव पर ध्यान नहीं दिया जा सकता, समूह का सम्मिलित व्यवहार ही उनके अध्ययन का आधार होता है। समाजशास्त्रियों का यह तर्क स्वीकार्य है पर हमारा अधिकतम व्यवहार समूह पर आधारित नहीं होता है, परिवार, निकटस्थों, मित्रों, वरिष्ठों और अधीनस्थों से हमारा व्यवहार व्यक्तिगत ही होता है। समाज आदि का अध्ययन भी अन्ततः व्यक्ति के व्यवहार-समुच्चय पर ही निर्भर होता है।
जब स्वयं की दृष्टि ही समष्टि समझने का माध्यम है तो स्वयं को समझना जगत को समझने का प्रथम सोपान है। अपना व्यवहार, अपनी अभिरुचियाँ, अपनी चाह, अपनी राह, सब समझ आती है, स्पष्ट होती जाती है धीरे धीरे। समस्या तब आती है जब अपनी समझ से दूसरे व्यक्तित्वों को समझने का प्रयास होता है। अपने जीवन की घटनायें इतनी जानी पहचानी लगती है कि वह नियम जैसी चिपक जाती हैं मानसिकता से। जब उस दृष्टि से दूसरों के जीवन की घटनायें देखी जाती हैं तो एक भ्रम सा लगने लगता है, मानव व्यवहार।
किंकर्तव्यविमूढ़ का अर्थ शब्द में ही छिपा है, किं कर्तव्य विमूढ़, क्या कर्तव्य हो इस बारे में विमूढ़ता। यह स्थिति हर एक के साथ आती है, अधिक इसलिये भी आती है क्योंकि नियमों में प्रकृति को बाँध पाना कठिन होता है, विशेषकर मानव प्रकृति को। आप क्या करते हैं ऐसी स्थिति में?
किंकर्तव्यविमूढ़ होने के गर्भ में या तो कोई व्यक्ति होता है या कोई घटना। कभी भी किंकर्तव्यविमूढ़ सी स्थिति आती है तो अपने नियत दो निष्कर्षों को ही लगाता हूँ। पहला तो उस व्यक्ति या घटना को विशेष मान लेता हूँ, सब नियमों से मुक्त, सब निष्कर्षों से परे, किसी उपाधि के अनुग्रह से निर्बन्ध, बस विशेष। ऐसा करने से संबंध की जड़ता लुप्त हो जाती है, प्राप्त गतिमयता का उपयोग उत्तर ढूढ़ने में प्रयुक्त होता है, एकल संबंध पर विचार होता है, एक ऐसा परिसीमन जहाँ समस्या और उसका उत्तर निश्चय ही विद्यमान होगा।
जितनी बार भी किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति को इन दो निष्कर्षों पर मापा है, एक निश्चित उत्तर पाया है। पता नहीं आप कैसे बाहर आते हैं, इस स्थिति से?
हमारे सामने ऐसी स्थितियाँ या तो समाज की तरफ से या व्यक्तिगत कारणों से आती हैं.दोनों से उबरने का हल भी अलग है.समाज से आई ऐसी स्थिति से निपटना थोड़ा मुश्किल होता है जबकि व्यक्तिगत रूप से हम मानसिक-संघर्ष से निपटने में मजबूती दिखा सकते हैं.
ReplyDelete...कई बार हम आत्म-चिंतन करके भी इस स्थिति से पार पा सकते हैं |
सुबह सुबह ज्ञान की बातें!!! :) :)
ReplyDeleteज्ञान वर्धक
ReplyDeleteमध्यम मार्ग पर, सम पर आना अक्सर मुश्किल से संभव होता है और वहां बने रहना तो असंभव ही.
ReplyDelete@@ समाजशास्त्रियों का यह तर्क स्वीकार्य है पर हमारा अधिकतम व्यवहार समूह पर आधारित नहीं होता है, परिवार, निकटस्थों, मित्रों, वरिष्ठों और अधीनस्थों से हमारा व्यवहार व्यक्तिगत ही होता है।
ReplyDeleteएकदम सटीक भाव प्रकट किये हैं आपने ...यह सच है कि जीवन में हर भाव , हर विचार , हर घटना , हर परिस्थिति को व्यक्ति को खुद ही समझना होता है ..किसी दुसरे के अनुभव से सीख ली जा सकती है , लेकिन वही बात जब खुद पर घटित हो तो अपना अनुभव अलग हो जाता है ..यही तो ईश्वर की विविधता है ....और यह विविधता ही हमें किंकर्तव्यविमूढ़ करती है ...!
किंकर्तव्यविमूढ़ता के समय विकल्पो के प्रति अपेक्षाओं का दबाव होता है। निर्पेक्ष चिंतन ही समदृष्टि उत्पन्न कर सकता है। इसे भले मध्यममार्ग, समदृष्टि,निर्पेक्षदृष्टि,साक्षीभाव,निस्पृहता जो भी कहें, उत्तम कर्तव्य-चुनाव के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है।
ReplyDeleteबहुत कड़ा लिख दिया
ReplyDeleteमनन का विषय . कई बार कर्तव्यों की अवहेलना करने या टालते रहने के कारण ,किसी अभीष्ट ओ प्राप्त करने में किंकर्तव्य विमूढ़ता सामने आती है
ReplyDeleteकोई एक नियम या व्यवहार सार्वभौमिक नहीं हो सकता , सबके अपने अनुभव होते हैं , उनके अनुसार ही प्रतिक्रियाएं भी !
ReplyDelete" किंटिप्पणीविमूढ़ "
ReplyDeleteवैसे अब तो प्रत्येक समस्या , चाहे वो परिस्थिजन्य हो अथवा व्यक्तिजन्य हो, का समाधान customize सा करना पड़ता है | case to case different.
स्वयं को समझने की कोशिश ही नहीं करते ...??
ReplyDeleteसच है परिस्थितियों के अनुसार नियम भी बदल जाते हैं , सर्व स्वीकार्य तो कुछ भी नहीं .....हाँ मध्य मार्ग अक्सर संतुलन का मार्ग दिखा देता है .....
ReplyDeleteदूरदृष्टि और निकटदृष्टि के बीच कहीं अवस्थित है जीवन का संतुलन।
ReplyDeleteसारगर्भित ...आसक्ति और विरक्ति के बीच अनुरक्ति की राह पर चल मन ...
---सत्य बचन ...
ReplyDelete-----समाज शास्त्री चाहे कुछ भी कहें ..पर भारतीय शास्त्र-बचन निश्चय ही सटीक मार्ग दर्शक हैं एसी स्थिति में .....
------स्वयं को समझना ही तो जगत को समझने का प्रथम सोपान है। यही तो भारतीय-दर्शन का आत्म-तत्व है..."अप्प दीपो भव" तथा..." अति सर्वत्र वर्ज्ययेत"... एवं जब कुछ समझ न आये तो "सब कुछ ईश्वर (जिस पर भी आप का विश्वास हो ) पर छोडो यारो "...
आत्म चिंतन ही एकमात्र उपाय है .
ReplyDeleteइस स्थिति से बाहर आने के लिए कर्तव्य की असमंजसता से निकल अपने दृष्टिकोण से फिर से पूरे दृश्य को जानना समझना होता है ...
ReplyDeleteप्रभु के इन गूढ़ रहस्यों के बड़े गूढ़ अर्थ हैं - अनुपात
ाच्छा आ6त्मव्चिन्तन करते रहते हैं आप । हए पोस्ट मे जीवन दर्शन क्4ए भाव होते हैं। आभार।
ReplyDeleteमन भावन, बेहतरीन पोस्ट।
ReplyDeleteइसी बात का दार्शनिक लाभ उठाते हैं। कभी उल्टे को सीधा समझाते हैं कभी सीधे को उल्टा समझाते हैं। मैने भी एक बार लिखा था...
सही गलत है, गलत सही है
दुःख का कारण सिर्फ यही है।
सुख के अपने-अपने चश्में
दुःख के अपने-अपने नग्में
दिल ने जब-जब, जो-जो चाहा
होंठो ने वो बात कही है।
आत्म चिन्तन का सुन्दर स्वरूप..सारगर्भित आलेख..
ReplyDeleteजीवन-रहस्य ..?
ReplyDeleteक्योंकि नियमों में प्रकृति को बाँध पाना कठिन होता है,
मैं तो यहीं तक सोच सकता हूँ |
दूर से स्पष्ट दिखते क्षेत्र
ReplyDeleteदूसरा कार्य होता है, मध्य में पहुँच जाना, वहाँ पर जहाँ से सब कुछ स्पष्ट दिखायी दे। यदि आत्मीय अधिक हो तो थोड़ी दूरी, यदि अपरिचित हो तो थोड़ी निकटता। मध्य खड़े होकर समस्या की समझ पूरी होती है। दूरदृष्टि और निकटदृष्टि के बीच कहीं अवस्थित है जीवन का संतुलन। बुद्ध का मध्यमार्ग दर्शन का प्रबल पक्ष हो सकता है पर मेरे लिये विमूढ़ता की स्थिति से बाहर आने का उपाय भर है।
बहुत बढ़िया विश्लेषण .जीवन के धुर ध्रुवों पर एक्सट्रीम पे जाके जीने वाले लोग बीच में कभी पहुँचते ही नहीं है .मध्य मार्ग इसीलिए तो उत्तम है .वहां से दोनों सिरे बराबर दूरी पर दिखलाई देतें हैं .किम -कर्तव्य -विमूढ़ता से बाहर आने की सबकी अपनी युक्ति होती होगी .कितने ही ब्लंडर इसी स्थिति में हो जातें हैं .
बढ़िया विचार परक पोस्ट .
बहुत बढ़िया विश्लेषण .जीवन के धुर ध्रुवों पर एक्सट्रीम पे जाके जीने वाले लोग बीच में कभी पहुँचते ही नहीं है .मध्य मार्ग इसीलिए तो उत्तम है .वहां से दोनों सिरे बराबर दूरी पर दिखलाई देतें हैं .किम -कर्तव्य -विमूढ़ता से बाहर आने की सबकी अपनी युक्ति होती होगी .कितने ही ब्लंडर इसी स्थिति में हो जातें हैं .
ReplyDeleteबढ़िया विचार परक पोस्ट .
आज आत्मचिंतन करने को कोई तैयार नहीं है।
ReplyDeleteआत्मचिंतन न करने का ही परिणाम है कि लोग खुद से कितने दूर हो गए हैं, ये भी नही जानते।
बढिया चिंतन
किम कर्तव्य विमूढ़ होना आम आदमी का गुण नहीं है .नेताओं का है .जिसमे यह गुण सर्वाधिक होता है उसे मनमोहन बना दिया जाता है .राहुल भी उसी मार्ग पर हैं .दर्शन सिखा देंगें आप प्रवीण जी .दर्शन में गुंथी रहती है आपकी हर पोस्ट .
ReplyDeleteकिंकर्तव्यविमूढ़,, का बहुत ही सुंदर विश्लेषण किया आपने,,,,,बढिया चिंतन बधाई प्रवीण जी,,,,,
ReplyDeleteऐसी स्थिति में हम तो खुद को दर्शक के रूप में स्थापित कर लेते हैं|
ReplyDeleteपरिस्थिति तो ऐसी कई बार आती है ..पर हालात पर निर्भर करता है. विचारविमर्श और आत्म चिंतन भी हल है.
ReplyDeleteबढ़िया पोस्ट है.
सर जी बस किंकर्तव्यविमूढ़ एक भवर ही तो है !
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
ReplyDeleteसूचनार्थ!
समष्टि में स्वयं का निरूपण देखना ( नजदीक होने के अभिप्राय में) और स्वयं को समष्टि के मूलतत्व रूप मे देख पाना ( निरपेक्ष होने के अभिप्राय में) सत्य के बहुआयामी स्वरूप के साथ सहजता व समन्वय बैठाने में सहयोग करता है। अंततः सत्य तो यही है- नेति, नेति । अति विचारपूर्ण लेख ।
ReplyDeleteWe dance around in a ring & suppose,
ReplyDeleteBut secret sits in the middle & knows !
किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ........क्या लिखू....??
ReplyDeleteआभार!
बड़ा गहन दर्शन है। मैं तो किं कर्तव्यविमूढ़ ही हो गया हूं।
ReplyDeleteज्ञान भरी बेहतरीन पोस्ट.... परवीन जी
ReplyDeleteस्थितियां जो कभी आदमी को किम -कर्तव्य विमूढ़ बनाती थी अब रूटीन में आ गईं हैं .भारत के हर क्षेत्र में पसरी राजनीति इसकी वजह बनी है . .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteram ram bhai
शनिवार, 9 जून 2012
स्ट्रेस से असर ग्रस्त होतें हैं नन्नों के नन्ने विकासमान दिमाग
http://veerubhai1947.blogspot.in/
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteविमूढता से बाहर आने का सहज मार्ग मध्य मार्ग ही है.
ReplyDeleteWords of wisdom... Indeed :)
ReplyDeleteदूरदृष्टि और निकटदृष्टि के बीच कहीं अवस्थित है जीवन का संतुलन'
ReplyDeleteऔर फिर दूर से देखो तो सब कुछ व्यवस्थित नज़र आता है और नज़दीक जाने पर .....
आज तो ज्ञान गंगा बहा दी. क्या बात..., क्या बात...., क्या बात.....
ReplyDeleteमध्य खड़े होकर समस्या की समझ पूरी होती है। दूरदृष्टि और निकटदृष्टि के बीच कहीं अवस्थित है जीवन का संतुलन। बुद्ध का मध्यमार्ग दर्शन का प्रबल पक्ष हो सकता है पर मेरे लिये विमूढ़ता की स्थिति से बाहर आने का उपाय भर है।
ReplyDeleteये पंक्तियाँ बहुत कुछ सार्थक चिंतन के लिए विवश कर रहि हैं पाण्डेय जी .................इस सुन्दर प्रविष्टि हेतु आपको सादर बधाई |
आपने सही कहा है शायद बुद्ध का मध्यमार्ग विमूढ़ता की स्थिति से बाहर आने का सही उपाय है।
ReplyDeleteआप की बाते प्रवीणता से प्रस्तुत की गयी हैं.
ReplyDeleteसार्थक चिंतन की कला में आपकी निपुणता
अनोखी और रस का संचार करती है.
आभार
मानव प्रकृति कों एक ही नीं से बांधना मुश्किल होता है ... क्योंकि हर मानव की अपनी अपनी प्राकृति होती है ... सार्थक चिंतन है ...
ReplyDeleteदूरदृष्टि और निकटदृष्टि के बीच कहीं अवस्थित है जीवन का संतुलन।
ReplyDelete.....बहुत गहन और विचारणीय निष्कर्ष ....
किम कर्तव्य विमूढ़ता क्या होती है कईयों को इसका इल्म भी कहाँ होता है .अकसर कोई बड़ी गलती ,कोई ब्लंडर ही इस और ठेलता है आम औ ख़ास को .आपकी ब्लॉग दस्तक अनुग्रहीत करती है .
ReplyDeleteकिम कर्त्तव्य विमूढ़ता क्या होती है कईयों को इसका इल्म भी कहाँ होता है .अकसर कोई बड़ी गलती ,कोई ब्लंडर ही इस और ठेलता है आम औ ख़ास को .आपकी ब्लॉग दस्तक अनुग्रहीत करती है .
ReplyDeleteकिम कर्त्तव्य विमूढ़ बने सोच रहें हैं किसकी तारीफ़ ज्यादा करें शैफ की या छाया कार की ? हाँ जब चीज़ें एक से बढ़के एक होतीं हैं और उनकी ग्रेडिंग करनी होती है तब भी यह स्थिति आती है .
कई दिनों से गलत वर्तनी का इस्तेमाल किये जा रहे थे हम .
मन प्रश्नो की गहनता और उनके समाधानो की उलझन शायद हमे किमकर्तव्यविमूढता की ओर खीचे जाती है। सुन्दर आलेख।कोटी-कोटी नमन।
ReplyDeleteकिंकर्तव्य विमूढ़ करता आखिर का सवाल
ReplyDeleteहमारा सामर्थ्य क्या, हमारी बुद्धि क्या?
ReplyDeleteमन में बसे हैं राम, वही उत्तर देते हैं...
Nice Post. Bas sahi nirnay lein aisi paristhiti mein yahi praathna hai :)
ReplyDeleteकब तक रखियेगा किम कर्त्तव्य विमूढ़ ?
ReplyDeleteमज्झिम निकाय.क्योंकि सब कुछ अनित्य और परिवर्तनशील है.
ReplyDeleteरे मन हो जा कुछ पल मौन.
देख सकूँ मैं जो है जैसा
समझ सकूं मैं कौन.
very...very nice article.
ReplyDelete'मध्य खड़े होकर समस्या की समझ पूरी होती है।'
ReplyDeleteनिश्चय ही...!
सुन्दर आलेख!
कभी-कभी मध्य में भी त्रिशंकु वाली स्थिति हो जाती है..
ReplyDeleteशुद्ध रूप क्या है -किम्कर्त्तव्य विमूढ़ या किंकर्तव्य विमूढ़ ,किम्कर्त्तव्य विमूढ़ बने हम सोच रहें हैं .हाँ भाई साहब शुद्ध रूप वही है जो आपने इस्तेमाल किया है .किंकर्तव्य विमूढ़ .
ReplyDeleteखुद को ईमानदारी से समझ लेना ही बहुत बड़ी बात है और शायद कुछ हद तक इस बात का हल भी...
ReplyDeleteज्ञानवर्धक आलेख ... आभार
ReplyDeleteसुंदर,प्रभावकारी व ज्ञानवर्धक लेख ।
ReplyDeleteकिंकर्तव्यविमूढ़.. learned this word today :)
ReplyDeleteits like middle way path of Buddha !!!
Yes of course it's like middle way of Buddha's apologies
ReplyDeleteबहुत दिनो बाद ऐसी हिंदी पढ़ने को मिली है।
ReplyDeleteअति उत्तम और ज्ञानवर्धक। क्या कहें आंखें खोल देने वाला
ReplyDeleteस्पष्टता लाने वाला।
धन्यवाद !