यह एक विशुद्ध गंभीर विषय है, हास्य से कोसों दूर। कृपया तेज हँसकर हम गृहस्थों की ध्यानस्थ अवस्था में विघ्न न डालें। हाँ, यदि हँसी न रुके तो मन ही मन हँस लें, क्योंकि मन ही मन हँसने से कभी किसी की भावनायें आहत नहीं होती। जहाँ औरों के ऊपर हँसना आनन्द देता है, अपने ऊपर हँसना परमानन्द। यदि अविवाहित हैं तो विवाहितों में अपना भविष्य देख कर हँसिये, यदि विवाहित हैं तो आपको हर अवस्था में आनन्द मिलेगा, दुख की तलहटी छूने के बाद तो सुख के अतिरिक्त कुछ शेष भी नहीं रहता है।
अमित श्रीवास्तवजी सोच विचार कर और बड़ा ही मौलिक लिखते हैं, उनकी एक पोस्ट से प्रेरणा, ऊर्जा और साहस पा कर हमने भी अपना जीवन अनुभव साझा करने का मन बनाया है। विषय में घुसने के पहले पात्र का परिचय आवश्यक है। 'वोडाफोन के वो' से अमितजी का तात्पर्य उस छोटे और प्यारे कुत्ते से है जो सदा ही अपने मालिक के साथ रहता है। वैसे तो कुत्ता स्वामिभक्त होता है, मेरे पास भी है, जर्मन शेफर्ड, मेरे मन की स्थिति को मुझसे बेहतर न केवल समझता है वरन जताता भी रहता है। हमसे वह भले ही प्रेम से रहे पर कभी कभी घर आने वाले उससे भय खा जाते हैं। पर वोडाफोन के प्रचार में आने वाला छुटकू कुत्ता न केवल स्वामिभक्त है वरन प्यारा भी है, हानिरहित और ग्लानिरहित।
अपने नेटवर्क की तुलना इस प्रकार के जीव के साथ करने का उद्देश्य वोडाफोन के लिये अपने नेटवर्क की पहुँच को प्रचारित करना था, जिसमें वह एक सीमा तक सफल भी रहा, पर यह प्रचार गाहे बगाहे एक ऐसी उपमा भी दे गया जो एक आदर्श पति को परिभाषित करने का समर्थ आधार बन सकती है। अब निवेदिताजी ने इस उपमा का प्रयोग अत्यधिक गर्व और संतुष्टि के साथ ही किया होगा। हम भी इसे उनका व्यक्तिगत मामला मान कर छोड़ दिये होते या भूल गये होते, यदि इस उपमा में हमें सब पतियों की झलक न दिखी होती।
पतियों को इस आधार पर पुरस्कृत भी किया जा सकता है कि उनमें 'वोडाफोन के वो' का भाव कितनी मात्रा में विद्यमान है। वोडाफोन को चाहिये कि वे एक पुरस्कार की घोषणा करें जिसमे 'वोडाफोन के वो' जैसे पतियों को समुचित सम्मान मिल सके। निर्णय के मानक तय करने के लिये एक विशेष समिति बनायी जा सकती है। पाठकगण चाहें तो अपने अंदर उपस्थित उन वांछनीय गुणों को बता भी सकते हैं, जिनको संकलित कर वोडाफोन के लिये एक पूरी प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार की जा सकती है।
ऐसा नहीं है कि 'वोडाफोन के वो' की विमायें केवल भौतिक ही हों, वह तो है ही, जहाँ जहाँ श्रीमतीजी जायें वहाँ जाना तो आपका कर्तव्य ही है। इसके अतिरिक्त आपके विचारों में, पहनावे में, जीवनशैली में, बैंक के खाते में, घूमने जाने में, बाहर खाने में, फिल्म देखने में, और न जाने कितने प्रभावित क्षेत्रों में 'वोडाफोन के वो' की प्रतिच्छाया दिखायी पड़ती है। हाँ, थोड़ा और जोर डालिये दिमाग पर और आपके व्यक्तिगत जीवन से कई क्षेत्र और संबद्ध उदाहरण निकल ही आयेंगे।
अभी तक तो लगता था कि इस प्रभाव से हम पर्याप्त मात्रा में मुक्त हैं पर आज ही सेपो की यह पोस्ट पढ़ते समय लगा कि ऐसा नहीं है। पोस्ट कपड़ों के ऊपर थी, होनी भी चाहिये, नारियों को कपड़ों से अत्यधिक लगाव जो होता है। मन का उत्साह रंगों से व्यक्त किये जाने की परम्परा रही है, अब बाल और कान तो रंगे नहीं जा सकते, तो सारा रंग कपड़ों में ही उतर आता है। अब उत्साह का रंग रोज एक जैसा तो हो नहीं सकता, कभी लाल होता है तो कभी पीला। उत्साह का आकार भी बदलना आवश्यक है, कभी साड़ी, कभी सूट, कभी लहँगा, कभी जीन्स। अब चाहते, न चाहते, ढेरों कपड़े हो ही जाते हैं, नहीं कुछ खरीद रहें हैं तो कोई संबंधी ही कुछ भेंट कर जाता है, कहाँ तक कोई सबको समझाये?
अब कपड़ों की खपत के क्षेत्र में घर का औसत देश के औसत से बहुत आगे न निकल जाये, इसीलिये हम बहुत कम कपड़े रखते हैं, अपने उपयोग के लिये, या कहें कि औसत बराबर करने में बुद्धत्व को प्राप्त हुये जा रहे हैं। कार्यालयीन उपयोग के कपड़ों के अतिरिक्त जीन्स और टीशर्ट ही पहनते हैं, दो नीली जीन्स और छह रंगों की टीशर्ट, सफेद, काली, स्लेटी, लाल, मैरून और ऑरेन्ज। अकेले कहीं जाने पर तो सफेद टीशर्ट ही चढ़ाते हैं, शेष पाँच रंगों की उपस्थिति श्रीमतीजी के रंग बिरंगे कपड़ों से मैच करने के लिये है।
यही करते हैं कि कनखियों से देख लेते हैं कि श्रीमतीजी की साजसज्जा में निखरा हुआ रंग कौन सा है, उसी रंग से मैच करती टीशर्ट चढ़ा लेते हैं और चुपचाप साथ में चल देते हैं, बिल्कुल 'वोडाफोन के वो' की तरह। कितना भी चाह लें, आप भाग नहीं सकते हैं, स्वीकार कर लीजिये, वोडाफोन जैसी बड़ी कम्पनी के साथ जुड़ने का सौभाग्य मिल रहा है, उसका लाभ उठाईये, जमीनी वास्तविकता तो बदलने से रही, जैसी थी वैसी ही बनी रहेगी। आप समर्थ हो पायें या न हो पायें पर 'वोडाफोन के वो' का भाव पतियों की निष्ठा नापने में एक समर्थ मानक सिद्ध होने वाला है
अपने नेटवर्क की तुलना इस प्रकार के जीव के साथ करने का उद्देश्य वोडाफोन के लिये अपने नेटवर्क की पहुँच को प्रचारित करना था, जिसमें वह एक सीमा तक सफल भी रहा, पर यह प्रचार गाहे बगाहे एक ऐसी उपमा भी दे गया जो एक आदर्श पति को परिभाषित करने का समर्थ आधार बन सकती है। अब निवेदिताजी ने इस उपमा का प्रयोग अत्यधिक गर्व और संतुष्टि के साथ ही किया होगा। हम भी इसे उनका व्यक्तिगत मामला मान कर छोड़ दिये होते या भूल गये होते, यदि इस उपमा में हमें सब पतियों की झलक न दिखी होती।
पतियों को इस आधार पर पुरस्कृत भी किया जा सकता है कि उनमें 'वोडाफोन के वो' का भाव कितनी मात्रा में विद्यमान है। वोडाफोन को चाहिये कि वे एक पुरस्कार की घोषणा करें जिसमे 'वोडाफोन के वो' जैसे पतियों को समुचित सम्मान मिल सके। निर्णय के मानक तय करने के लिये एक विशेष समिति बनायी जा सकती है। पाठकगण चाहें तो अपने अंदर उपस्थित उन वांछनीय गुणों को बता भी सकते हैं, जिनको संकलित कर वोडाफोन के लिये एक पूरी प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार की जा सकती है।
ऐसा नहीं है कि 'वोडाफोन के वो' की विमायें केवल भौतिक ही हों, वह तो है ही, जहाँ जहाँ श्रीमतीजी जायें वहाँ जाना तो आपका कर्तव्य ही है। इसके अतिरिक्त आपके विचारों में, पहनावे में, जीवनशैली में, बैंक के खाते में, घूमने जाने में, बाहर खाने में, फिल्म देखने में, और न जाने कितने प्रभावित क्षेत्रों में 'वोडाफोन के वो' की प्रतिच्छाया दिखायी पड़ती है। हाँ, थोड़ा और जोर डालिये दिमाग पर और आपके व्यक्तिगत जीवन से कई क्षेत्र और संबद्ध उदाहरण निकल ही आयेंगे।
अभी तक तो लगता था कि इस प्रभाव से हम पर्याप्त मात्रा में मुक्त हैं पर आज ही सेपो की यह पोस्ट पढ़ते समय लगा कि ऐसा नहीं है। पोस्ट कपड़ों के ऊपर थी, होनी भी चाहिये, नारियों को कपड़ों से अत्यधिक लगाव जो होता है। मन का उत्साह रंगों से व्यक्त किये जाने की परम्परा रही है, अब बाल और कान तो रंगे नहीं जा सकते, तो सारा रंग कपड़ों में ही उतर आता है। अब उत्साह का रंग रोज एक जैसा तो हो नहीं सकता, कभी लाल होता है तो कभी पीला। उत्साह का आकार भी बदलना आवश्यक है, कभी साड़ी, कभी सूट, कभी लहँगा, कभी जीन्स। अब चाहते, न चाहते, ढेरों कपड़े हो ही जाते हैं, नहीं कुछ खरीद रहें हैं तो कोई संबंधी ही कुछ भेंट कर जाता है, कहाँ तक कोई सबको समझाये?
अब कपड़ों की खपत के क्षेत्र में घर का औसत देश के औसत से बहुत आगे न निकल जाये, इसीलिये हम बहुत कम कपड़े रखते हैं, अपने उपयोग के लिये, या कहें कि औसत बराबर करने में बुद्धत्व को प्राप्त हुये जा रहे हैं। कार्यालयीन उपयोग के कपड़ों के अतिरिक्त जीन्स और टीशर्ट ही पहनते हैं, दो नीली जीन्स और छह रंगों की टीशर्ट, सफेद, काली, स्लेटी, लाल, मैरून और ऑरेन्ज। अकेले कहीं जाने पर तो सफेद टीशर्ट ही चढ़ाते हैं, शेष पाँच रंगों की उपस्थिति श्रीमतीजी के रंग बिरंगे कपड़ों से मैच करने के लिये है।
यही करते हैं कि कनखियों से देख लेते हैं कि श्रीमतीजी की साजसज्जा में निखरा हुआ रंग कौन सा है, उसी रंग से मैच करती टीशर्ट चढ़ा लेते हैं और चुपचाप साथ में चल देते हैं, बिल्कुल 'वोडाफोन के वो' की तरह। कितना भी चाह लें, आप भाग नहीं सकते हैं, स्वीकार कर लीजिये, वोडाफोन जैसी बड़ी कम्पनी के साथ जुड़ने का सौभाग्य मिल रहा है, उसका लाभ उठाईये, जमीनी वास्तविकता तो बदलने से रही, जैसी थी वैसी ही बनी रहेगी। आप समर्थ हो पायें या न हो पायें पर 'वोडाफोन के वो' का भाव पतियों की निष्ठा नापने में एक समर्थ मानक सिद्ध होने वाला है
वाकई ये तो बहुत बड़ा मानक हो गया :)
ReplyDeleteमुबारक हो वोडाफ़ोन के वो होना।
ReplyDeleteपांडे जी कुछ अधिक न कह एक शेर अर्ज है -
ReplyDelete"वोडा फोन के वो - बेमिशाल निकले कमाल निकले ,
सापेक्षता में तुल गए , फकत वो वजनदार निकले- "
एक पुरस्कार\सम्मान इस श्रेणी का भी होना चाहिए:)
ReplyDelete:)
Delete:)
Deleteहा हा हा..हम तो ऐसे ही हँसते हैं भले से वोडाफोन के वो का जर्मन शेफर्ड हम पर झपट पड़े।:) टी शर्ट वाला आइडिया कमाल का है! सभी 'वो' अपनाना चाहेंगे जो जीन्स पहनते हैं।:)
ReplyDeleteअच्छा है सुधर जाएँ ...
ReplyDeleteये शकल कबूतर सी लेकर
पति परमेश्वर बन जाते हैं !
जब बात खर्च की आए तो
मुंह पर बारह बज जाते हैं !
पैसे निकालते दम निकले , महफ़िल में बनते शहजादे !
हम बुलबुल मस्त बहारों की, हम बात तुम्हारी क्यों मानें ?
विचारपूर्ण :)
ReplyDeleteसुकून मिला कि हम ' सिंगुलर' नहीं हैं | हमारे 'प्लूरल्स' भी हैं बहुत |
ReplyDelete'सेपो' की पोस्ट पर लिंक त्रुटिपूर्ण हो गया है | संशोधन वांछित है |
ReplyDeleteजी हाँ, लिंक बदल दिया है, आभार।
Deleteमुझे तो लगता है,वोडाफोन का नेटवर्क पत्नीजी हैं क्योंकि सारा कनेक्शन और नेटवर्क तो उन्हीं के पास होता है.
ReplyDelete...फिर से विचारिये,नेटवर्क कौन है ?
ईश्वर करे आप खरे सिद्ध हों इस कसौटी पर !
ReplyDeleteवैसे सर, 'वोडाफोन की वो' पुरस्कार अगर पत्नी के लिए होगा तो मेरी लुगाई प्रथम आएगी क्योंकि," wherever i go, her network follows!!"
ReplyDeleteसिर्फ छः रंग?
ReplyDelete16 मिलियन कलर होते हैं श्रीमान्!
और, इसी विपदा के मारे तो हमारे पास सिर्फ दो रंग के टी-शर्ट्स होते हैं - सफेद और काला. :)
वाह ... बहुत खूब ।
ReplyDelete:-)
ReplyDeleteवोडाफोन के वो,,,,,,आपके लेख का शीषर्क जोरदार लगा,,,,,,
ReplyDeleteMY RESENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: स्वागत गीत,,,,,
कार्यालयीन उपयोग के कपड़ों के अतिरिक्त जीन्स और टीशर्ट ही पहनते हैं, दो नीली जीन्स और छह रंगों की टीशर्ट, सफेद, काली, स्लेटी, लाल, मैरून और ऑरेन्ज। अकेले कहीं जाने पर तो सफेद टीशर्ट ही चढ़ाते हैं, शेष पाँच रंगों की उपस्थिति श्रीमतीजी के रंग बिरंगे कपड़ों से मैच करने के
ReplyDeleteलिये है।
जैसा देश वैसा भेष,फिर "वो का "कोई अपना बुनियादी वजूद तो रहता नहीं है किसी के 'वो ' जाने पर .फिर चाहे वह वो वोडाफोन का हो या रिलायंस का '.वो ' होने का अपना गौरव है .क्वारे मिस्टर ही रह जाते हैं .
अजी सुनो हो क्यों वो की रेड पिटवाते हो पति, वोडाफोन, व्यंग "व्यंग्य "कर लो व्यंग का .
ReplyDelete:)
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनाएं वोडाफोन के वो !
ReplyDeleteशादी के बाद सच में 'वोडाफोन के वो' बन कर रह जाते हैं...बहुत सटीक व्यंग्य?, नहीं सार्थक प्रस्तुति....
ReplyDeleteवाह: बहुत सटीक व्यंग....सार्थक प्रस्तुति....
ReplyDeletea lo vodafone ke bhi wo hai ab:) accha laga samiti aur puruskaar wali baat me maza aa gaya
ReplyDeleteबढ़िया व्यंग्य .....:))
ReplyDeleteaanand aa gaya padhkar... "wo"hoon pahle se hi...
ReplyDelete:)
ReplyDeleteवो ' और 'एजी' होना सुनना जी बड़ी बात है .'वो ' होना जीवन को अर्थ देता है सन्दर्भ मुहैया करवाता है जी .कोई तो हो जिसके हम फरमा बरदार हो जिसके आगे दुम हिलाएं .छुट्टा आदमी किस काम जी .खूंटा होना ही नहीं उससे आबद्ध होना छंद बद्ध होना भी ज़रूरी है जी .जीवन में 'मुक्त छंद ' के कोई मायने नहीं होते .'वो 'होना प्रति बद्धता है , कमिटमेंट है .बढ़िया पोस्ट है जी .
ReplyDeleteवोडोफोन में तो वैसे भी 'वो' समाहित है, आपकी उपमा बिलकुल सही है।
ReplyDelete"वो" को वोडाफोन के वो के रूप में एक प्रतीकात्मक पहचान मिल गई। अन्यथा यह वो बे-पहचाना ही रह जाता। :)
ReplyDeleteThanks for including my post in this beautiful piece of writing :-)
ReplyDelete:-)
ReplyDeleteपुरस्कार समारोह में ’वो’ का इंट्रोडक्शन :
ReplyDeleteमेरे "वो" कितने उदार हैं गदगद हूँ यह कहते।
रानी सी रखते हैं मुझको, स्वयं सचिव से रहते॥
हास्य व्यंग के क्षेत्र में अच्छा प्रयास है .
ReplyDeleteवोडाफोन के ज़माने में हम तो बुड्ढ़ा फोन हो गए हैं।
ReplyDeleteमतलब थोड़ा और स्पष्ट कर दूं कि आजकल भी बी.एस.एन.एल. ही बने हैं। न काम का न काज का ...
अब का कहें महाराज ... हमारा फेसबूक स्टेटस देख लीजिएगा ... सब साफ हो जाएगा !
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - रुपये की औकात बता दी योजना आयोग ने - ब्लॉग बुलेटिन
वोडाफोन के वो और ऐसे उच्चस्तरीय मानक , सदा बने रहें
ReplyDeleteक्या मानक है वोडाफोन का वो होना ...कोई अजनबी दिखा नहीं कि भौंकना शुरू , कभी कभी किसी परिचित को देखकर भी :):)
ReplyDeleteरोचक !
:-)
ReplyDeleteवोडा फोन के वो ..... रोचक प्रस्तुतीकरण .....
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर
ReplyDelete"यह एक विशुद्ध गंभीर विषय है"
ReplyDeleteविषय की गंभीरता को बड़ी गंभीरता से अवशोषित किया. नुस्खे अचूक हैं 'वोडाफोन' से जुड़े न जुड़े पर कहीं न कहीं जुड़ाव तो होगा ही
अच्छा पति बनने के गुर तो बताया आपने लेकिन काफी कुछ छिपा भी गए. बहरहाल, अच्छा व्यंग्य.
ReplyDelete'वो ' बन ,वो बिन गति न होय ,
ReplyDeleteप्राणि सिसक सिसक के रोय.
भाई साहब यथार्थ तो यही है पर आपने उसे एक विशेष नाम देकर इस संसार के सभी वो लोगों के खाते में एक खास विशेषण जोड़ दिया है।आप का लेख पढ़कर अब तो हरबात मे स्वयं के अंदर भी वोडाफोन के वो की ही परछाईं नजर आ रही है। अब तो यही कहना पड़ेगा आपने तो इस संसार के सभी वो लोगों को कहीं का नहीं छोड़ा ।
ReplyDeleteहाँ अब तो आपके टी-सर्ट पर खास ध्यान देना पड़ेगा।
चलते चलते- इतने सुंदर व चटपटे लेख के लिये विशेष बधाई ।
यह एक विशुद्ध गंभीर विषय है, हास्य से कोसों दूर। कृपया तेज हँसकर हम गृहस्थों की ध्यानस्थ अवस्था में विघ्न न डालें। हाँ, यदि हँसी न रुके तो मन ही मन हँस लें, क्योंकि मन ही मन हँसने से कभी किसी की भावनायें आहत नहीं होती। जहाँ औरों के ऊपर हँसना आनन्द देता है, अपने ऊपर हँसना परमानन्द। यदि अविवाहित हैं तो विवाहितों में अपना भविष्य देख कर हँसिये, यदि विवाहित हैं तो आपको हर अवस्था में आनन्द मिलेगा, दुख की तलहटी छूने के बाद तो सुख के अतिरिक्त कुछ शेष भी नहीं रहता है।
ReplyDeleteअभी सुख है, अभी दुःख है, अभी क्या था ,अभी क्या है ,
जहां दुनिया बदलती है ,उसी का नाम दुनिया है .
अजी ,ओजी ,वो ,एजी बनके भी देखा ,
मगर उसमे भी धोखा है .
कृपया यहाँ भी पधारें -
फिरंगी संस्कृति का रोग है यह
प्रजनन अंगों को लगने वाला एक संक्रामक यौन रोग होता है सूजाक .इस यौन रोग गान' रिया(Gonorrhoea) से संक्रमित व्यक्ति से यौन संपर्क स्थापित करने वाले व्यक्ति को भी यह रोग लग जाता है .
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
ram ram bhai
शुक्रवार, 8 जून 2012
जादू समुद्री खरपतवार क़ा
बृहस्पतिवार, 7 जून 2012
कल का ग्रीन फ्यूल होगी समुद्री शैवाल
http://veerubhai1947.blogspot.in/
aapka yah aalekh bahut hi badhiya v ruchkar laga
ReplyDeletebadhai
poonam
:)
ReplyDelete'वो ' जब कवि/लेखक हो तो रवि से भी अतुलनीय..
ReplyDeletebahut acchha,
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