लखनऊ का असह्य ताप, प्रशिक्षण की गम्भीरता, सायं तरणताल में निस्पंद उतराना, कार्य से कहीं दूर आधुनिक मनीषी की तरह बहते दिन। जहाँ मन में एक अपराधबोध था, किसी को न सूचित करने का, वहीं एक निश्चिन्तता भी थी कि शेष समय अपना ही रहेगा। यद्यपि सामाजिकता के प्रति यह उदासीनता और अन्यमनस्कता किसी भी कोण से क्षम्य नहीं है, पर स्वयं को एकान्तवास में रखने का दण्ड भी भुगतना था, अपने को समझने के लिये समय चाहिये था। स्वार्थ सर चढ़ बोला और मैं अपने आगमन के बारे में मित्रों और शुभचिन्तकों को सूचित करने के स्थान पर मौन रहा।
एकान्त ढेरों सम्भावनायें लेकर आता है, लगता है कि अब अपने से बतियायेंगे, अपने मन को मनायेंगे, अपने को तनिक और जानेंगे। अब एकान्त काटता नहीं है, जो अपेक्षित रहता है यथासंभव दे ही जाता है। एक क्रम बन गया, सोने के पहले रामधारी सिंह दिनकर कृत 'उर्वशी' पढ़ने का, सोने की प्रक्रिया में उसे समझने का, और उठने के पश्चात उसे गुनने का। रात्रि को कल्पनालोक में बिचरने का पूरा वातावरण था, श्रृंगार-ऊर्मियों में बहकने की प्रचुर सामग्री थी, पर शरीर दिनभर की थकान के बाद निढाल निद्रा में मन के आग्रहों को कल पर टालता रहा, हर रात।
पुरुरवा सनातन नर का प्रतीक है, उर्वशी सनातन नारी की, दिनकर की आधारभूत संकल्पना में स्वयं को रखकर, अपनी विवशताओं के आवरण में उर्वशी को समेटने का प्रयास करता रहा। यह समझने का प्रयास करता रहा कि सब कुछ पाने के बाद भी प्यास क्यों नहीं बुझती है, क्या पाना शेष रह जाता है? दिनकर मानते हैं कि नर के भीतर एक और नर रहता है और नारी के भीतर एक और नारी, उनको ही पाकर प्रेम को संतुष्टि मिलती है, प्रेम को अपने अस्तित्व का उत्कर्ष मिलता है। अपने अन्दर के एक और नर को अपने वाह्य आवरण से अलग रखने और नारी के भीतर की नारी की झलक को अपनी स्मृतिकक्षों से सहेज लाने का प्रयास करता रहा।
बात गहरी हो चली थी, सतही-श्रृंगार की कल्पना निस्तेज थी। उर्वशी की काव्यमयी पंक्तियाँ रह रहकर मन को प्रेम के उस पंथ पर ले जाने को तैयार बैठी थीं, जहाँ सनातन नर को सनातन नारी के अन्तरतम के दर्शन होने थे।
आकर्ष का संचार, संचार की मात्रा और मात्रा की गणित, सब का सब समझना था शब्दों के माध्यम से। प्रायोगिक प्रकरण तो बहुधा हमें हतप्रभ सा अकेला छोड़ चुके थे, न जाने कितनी बार। स्वयं को समझने का प्रयास तो तब भी किया जा सकता है, आप अपने मन से बातें कर सकते हैं, पर उस अग्नि को कैसे समझेंगे जिसके प्रभाव में आते ही दिग्भ्रम हो जाता है, मन और विचार अस्थिर हो जाते हैं, हृद के स्पंद अनियन्त्रित से अपना आश्रय ढूढ़ने लगते हैं। आप भी पुरुरवा की तरह प्रश्न पूछते फिरते हैं,
पर न जाने बात क्या है,
इन्द्र का आयुध, पुरुष जो झेल सकता है,
सिंह के बाहें मिलाकर खेल सकता है,
रूपसी के सामने असहाय हो जाता,
शक्ति के रहते हुये निरुपाय हो जाता,
बिद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से,
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से।
काश मुनियों की तपस्या भंग न हो, वे सिद्ध हैं, वे इस तत्व को समझकर इससे पार पाने में सक्षम भी हैं। हम असहाय हैं, इस आकर्षण को समझने में असमर्थ, हतप्रभ और स्थिर हैं।
स्वीकार है कि कई बार अपेक्षित को पा न पाने का क्रोध राह भरमाता है, बहुधा मन दुख से भर जाता है, जीवन भर उस राह में न बढ़ने के प्रण तक कर बैठता है, पर फिर भी इस विषय का सत्य जानने को मन उत्सुक रहता है। एक अद्भुत सी पुरुवाई बह रही है जगत में, प्रकृति में, जो सदा ही मन की जिज्ञासा और आनन्द की उत्कण्ठा प्रेम की राह में बलवत ले जाती है।
प्रश्नों की अग्नि में अनुभवों की आहुतियाँ पड़ रही हैं, प्रेम के सिद्धान्त अनमने हैं, अपने ऊपर किसी का नियन्त्रण नहीं चाहते हैं। पुरुरवा थोड़ा समझ आता है, लगता है उसमें संभवतः वही आकांक्षायें अतृप्त रही होंगी जो कि हम सब में हैं। उर्वशी भी थोड़ी समझ आती है, अपने हृदय का आह्लाद उसकी प्रेम तरंगों का संकेत भर है।
वापस आ गया हूँ, लखनऊ की तपन पर भले ही बंगलोर ने शीतल फुहार छिड़क दी हो, पर उर्वशी का पढ़ना और उर्वशी की खोज अब तक जारी है, 'उर्वशी' के बीच पृष्ठों में विचारों और अंगारों के बवंडर अब भी उठ खड़े होते हैं। दिनकर की 'उर्वशी' को पढ़ना अपनी सनातन उर्वशी को जानने का संकेत है, अन्तहीन को समझने का संकेत है।
एकान्त ढेरों सम्भावनायें लेकर आता है, लगता है कि अब अपने से बतियायेंगे, अपने मन को मनायेंगे, अपने को तनिक और जानेंगे। अब एकान्त काटता नहीं है, जो अपेक्षित रहता है यथासंभव दे ही जाता है। एक क्रम बन गया, सोने के पहले रामधारी सिंह दिनकर कृत 'उर्वशी' पढ़ने का, सोने की प्रक्रिया में उसे समझने का, और उठने के पश्चात उसे गुनने का। रात्रि को कल्पनालोक में बिचरने का पूरा वातावरण था, श्रृंगार-ऊर्मियों में बहकने की प्रचुर सामग्री थी, पर शरीर दिनभर की थकान के बाद निढाल निद्रा में मन के आग्रहों को कल पर टालता रहा, हर रात।
बात गहरी हो चली थी, सतही-श्रृंगार की कल्पना निस्तेज थी। उर्वशी की काव्यमयी पंक्तियाँ रह रहकर मन को प्रेम के उस पंथ पर ले जाने को तैयार बैठी थीं, जहाँ सनातन नर को सनातन नारी के अन्तरतम के दर्शन होने थे।
पर न जाने बात क्या है,
इन्द्र का आयुध, पुरुष जो झेल सकता है,
सिंह के बाहें मिलाकर खेल सकता है,
रूपसी के सामने असहाय हो जाता,
शक्ति के रहते हुये निरुपाय हो जाता,
बिद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से,
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से।
काश मुनियों की तपस्या भंग न हो, वे सिद्ध हैं, वे इस तत्व को समझकर इससे पार पाने में सक्षम भी हैं। हम असहाय हैं, इस आकर्षण को समझने में असमर्थ, हतप्रभ और स्थिर हैं।
स्वीकार है कि कई बार अपेक्षित को पा न पाने का क्रोध राह भरमाता है, बहुधा मन दुख से भर जाता है, जीवन भर उस राह में न बढ़ने के प्रण तक कर बैठता है, पर फिर भी इस विषय का सत्य जानने को मन उत्सुक रहता है। एक अद्भुत सी पुरुवाई बह रही है जगत में, प्रकृति में, जो सदा ही मन की जिज्ञासा और आनन्द की उत्कण्ठा प्रेम की राह में बलवत ले जाती है।
प्रश्नों की अग्नि में अनुभवों की आहुतियाँ पड़ रही हैं, प्रेम के सिद्धान्त अनमने हैं, अपने ऊपर किसी का नियन्त्रण नहीं चाहते हैं। पुरुरवा थोड़ा समझ आता है, लगता है उसमें संभवतः वही आकांक्षायें अतृप्त रही होंगी जो कि हम सब में हैं। उर्वशी भी थोड़ी समझ आती है, अपने हृदय का आह्लाद उसकी प्रेम तरंगों का संकेत भर है।
वापस आ गया हूँ, लखनऊ की तपन पर भले ही बंगलोर ने शीतल फुहार छिड़क दी हो, पर उर्वशी का पढ़ना और उर्वशी की खोज अब तक जारी है, 'उर्वशी' के बीच पृष्ठों में विचारों और अंगारों के बवंडर अब भी उठ खड़े होते हैं। दिनकर की 'उर्वशी' को पढ़ना अपनी सनातन उर्वशी को जानने का संकेत है, अन्तहीन को समझने का संकेत है।