बहने को तो हवा भी बहती है पर दिखती नहीं, जल का बहना दिखता है। न जाने कितने विचार मन में बहते हैं पर दिखते नहीं, शब्दों का बहना दिखता है। कल्पना हवा की तरह बहती है, इधर उधर उन्मुक्त। लेखन का प्रवाह नदी सा होता है, लिखने में, पढ़ने में, सहेजने में, छोड़ देने में।
चिन्तन की पृष्ठभूमि में एक प्रश्न कई दिनों से घुमड़ रहा है, बहुत दिनों से। कभी वह प्रश्न व्यस्तता की दिनचर्या में छिप जाता है, पर जैसे ही ब्लॉग के भविष्य से संबंधित कोई पोस्ट पढ़ता हूँ, वह प्रश्न पुनः उठ खड़ा होता है। प्रश्न यह, कि ब्लॉग जिस विधा के रूप में उभरा है, उसे प्रवाहमय बनाये रखने के लिये किस प्रकार का वातावरण और प्रयत्न आवश्यक है। प्रश्न की अग्नि जलती रही, संभावित उत्तरों की आहुति पड़ती रही, शमन दूर बना रहा, ज्वाला रह रह भड़कती रही।
ऐसा नहीं है कि ब्लॉग के प्रारूप को समझने में कोई मौलिक कमी रह गयी हो, या उसमें निहित आकर्षण या विकर्षण का नृत्य न देखा हो, या स्वयं को व्यक्त करने और औरों को समझने के मनोविज्ञान के प्रभाव को न जाना हो। बड़ी पुस्तकों को न लिख पाने का अधैर्य, उन्हें न पढ़ पाने की भूख, समय व श्रम का नितान्त आभाव और अनुभवों के विस्तृत वितान ने सहसा हजारों लेखक और पाठक उत्पन्न कर दिये, और माध्यम रहा ब्लॉग। सब अपनी कहने लगे, सब सबकी सुनने लगे, संवाद बढ़ा और प्रवाह स्थापित हो गया। एक पोस्ट में एक या दो विचार न ही समझने में कठिन लगते हैं और न ही लिखने में, उससे अधिक का कौर ब्लॉगीय मनोविज्ञान के अनुसार पचाने योग्य नहीं होता है।
यह सब ज्ञात होने पर वह निष्कर्ष सत्य अनुपस्थित था, जिसे जान सब स्पष्ट दिख जाता। कुछ प्रश्न उत्तर की प्रतीक्षा तो अधिक कराते हैं पर उत्तर सहसा एक थाली में परोस कर दे देते हैं। कल ही जब यह पोस्ट पढ़ रहा था, मन में उत्तरों की घंटी बजने लगी।
लेखन नदी सा होता है और हमारा योगदान एक धारा। नदी बहती है, समुद्र में मिल जाती है, पानी वाष्पित होता है, बादल बन छा जाता है, बरसता है झमाझम, नदी प्रवाहमयी हो जाती है, वही जल न जाने कितनी बार बरसता है, बहता है, एकत्र होता है, वाष्पित होता है, उमड़ता है और फिर से बरसता है। नदी को प्रवाहमय बने रहने के लिये जल सतत चाहिये। जल के स्रोत ज्ञान के ही स्रोत हैं, कहीं तो सकल जगत सागर से वाष्पित अनुभव, कभी पुस्तकों के रूप में जमे हिमाच्छादित पर्वत।
महान पुस्तकें एक भरी पूरी नदी की तरह होती हैं, गति, लय, गहराई, और प्रवाह बनाये रखने के लिये ज्ञान के अक्षय हिमखण्ड। रामचरितमानस, गीता जैसी, सदियों से प्रवाहमयी, विचारों की न जाने कितनी धारायें उसमें समाहित। हम अपनी पोस्टें में एक या दो विचारों के जल की अंजलि ही तो बना पाते हैं, अपने सीमित अनुभव से उतना ही एकत्र कर पाते हैं, वही बहा देते हैं ब्लॉग की नदी में। बहते जल में अपनी अंजलि को बहते देख उसे बहाव का कारण समझ लेना हमारे बालसुलभ उत्साह का कारण अवश्य हो सकता है, हमारी समझ का निष्कर्ष नहीं। धारा का उपकार मानना होगा कि आपका जल औरों तक पहुँच पा रहा है, आपको उपकार मानना होगा कि आप उस धारा के अंग हैं।
एक अंजलि, एक धारा का कोई मोल नहीं, थोड़ी दूर बहेगी थक जायेगी। यह तो औरों का साथ ही है जो आपको प्रवाह होने का अभिमान देता है। मतभेद हों, उछलकूद मचे, पर ठहराव न हो, बहना बना रहे, प्रवाह बना रहे। जैसे वही पानी बार बार आता है, हर वर्ष और अपना योगदान देता है, उसी प्रकार ज्ञान और अनुभव की अभिव्यक्ति का प्रवाह भी एक निश्चय अंतराल में बार बार आयेगा, हम निमित्त बन जायें और कृतज्ञ बने रहें।
पढ़ने और लिखने में भी वही सम्बन्ध है, यदि आप अधिक पढ़ेंगे तो ही अधिक लिख पायेंगे, अच्छा पढ़ेंगे तो अच्छा लिख पायेंगे, स्तरीय पढ़ेंगे तो स्तरीय लिख पायेंगे, प्रवाह का सिद्धान्त यही कहता है। संग्रहण या नियन्त्रण का मोह छोड़ दें, आँख बन्द कर बस प्रवाह में उतराने का आनन्द लें।
जिस प्रवाह में हैं, आनन्द उठायें, बहते जल का। बहें, नदी सा।
चिन्तन की पृष्ठभूमि में एक प्रश्न कई दिनों से घुमड़ रहा है, बहुत दिनों से। कभी वह प्रश्न व्यस्तता की दिनचर्या में छिप जाता है, पर जैसे ही ब्लॉग के भविष्य से संबंधित कोई पोस्ट पढ़ता हूँ, वह प्रश्न पुनः उठ खड़ा होता है। प्रश्न यह, कि ब्लॉग जिस विधा के रूप में उभरा है, उसे प्रवाहमय बनाये रखने के लिये किस प्रकार का वातावरण और प्रयत्न आवश्यक है। प्रश्न की अग्नि जलती रही, संभावित उत्तरों की आहुति पड़ती रही, शमन दूर बना रहा, ज्वाला रह रह भड़कती रही।
ऐसा नहीं है कि ब्लॉग के प्रारूप को समझने में कोई मौलिक कमी रह गयी हो, या उसमें निहित आकर्षण या विकर्षण का नृत्य न देखा हो, या स्वयं को व्यक्त करने और औरों को समझने के मनोविज्ञान के प्रभाव को न जाना हो। बड़ी पुस्तकों को न लिख पाने का अधैर्य, उन्हें न पढ़ पाने की भूख, समय व श्रम का नितान्त आभाव और अनुभवों के विस्तृत वितान ने सहसा हजारों लेखक और पाठक उत्पन्न कर दिये, और माध्यम रहा ब्लॉग। सब अपनी कहने लगे, सब सबकी सुनने लगे, संवाद बढ़ा और प्रवाह स्थापित हो गया। एक पोस्ट में एक या दो विचार न ही समझने में कठिन लगते हैं और न ही लिखने में, उससे अधिक का कौर ब्लॉगीय मनोविज्ञान के अनुसार पचाने योग्य नहीं होता है।
यह सब ज्ञात होने पर वह निष्कर्ष सत्य अनुपस्थित था, जिसे जान सब स्पष्ट दिख जाता। कुछ प्रश्न उत्तर की प्रतीक्षा तो अधिक कराते हैं पर उत्तर सहसा एक थाली में परोस कर दे देते हैं। कल ही जब यह पोस्ट पढ़ रहा था, मन में उत्तरों की घंटी बजने लगी।
लेखन नदी सा होता है और हमारा योगदान एक धारा। नदी बहती है, समुद्र में मिल जाती है, पानी वाष्पित होता है, बादल बन छा जाता है, बरसता है झमाझम, नदी प्रवाहमयी हो जाती है, वही जल न जाने कितनी बार बरसता है, बहता है, एकत्र होता है, वाष्पित होता है, उमड़ता है और फिर से बरसता है। नदी को प्रवाहमय बने रहने के लिये जल सतत चाहिये। जल के स्रोत ज्ञान के ही स्रोत हैं, कहीं तो सकल जगत सागर से वाष्पित अनुभव, कभी पुस्तकों के रूप में जमे हिमाच्छादित पर्वत।
एक अंजलि, एक धारा का कोई मोल नहीं, थोड़ी दूर बहेगी थक जायेगी। यह तो औरों का साथ ही है जो आपको प्रवाह होने का अभिमान देता है। मतभेद हों, उछलकूद मचे, पर ठहराव न हो, बहना बना रहे, प्रवाह बना रहे। जैसे वही पानी बार बार आता है, हर वर्ष और अपना योगदान देता है, उसी प्रकार ज्ञान और अनुभव की अभिव्यक्ति का प्रवाह भी एक निश्चय अंतराल में बार बार आयेगा, हम निमित्त बन जायें और कृतज्ञ बने रहें।
पढ़ने और लिखने में भी वही सम्बन्ध है, यदि आप अधिक पढ़ेंगे तो ही अधिक लिख पायेंगे, अच्छा पढ़ेंगे तो अच्छा लिख पायेंगे, स्तरीय पढ़ेंगे तो स्तरीय लिख पायेंगे, प्रवाह का सिद्धान्त यही कहता है। संग्रहण या नियन्त्रण का मोह छोड़ दें, आँख बन्द कर बस प्रवाह में उतराने का आनन्द लें।
जिस प्रवाह में हैं, आनन्द उठायें, बहते जल का। बहें, नदी सा।
अच्छा पढ़ कर अपने लिखने का उत्साह नियंत्रित हो जाता है.
ReplyDeleteज्ञान और अनुभव की अभिव्यक्ति का प्रवाह भी एक निश्चय अंतराल में बार बार आयेगा, हम निमित्त बन जायें और कृतज्ञ बने रहें।......
ReplyDeleteसंग्रहण या नियन्त्रण का मोह छोड़ दें, आँख बन्द कर बस प्रवाह में उतराने का आनन्द लें।
जिस प्रवाह में हैं, आनन्द उठायें, बहते जल का। बहें, नदी सा।
ये ब्लोग लेखन ...जीवन दर्शन ही है ....!!!!इतनी सी बात अगर समझ मे आ जाये,बहुत सारी परेशानी से बच जाते हैं हम ...!!लिखते लिखते अपने आप से भी परिचय होता रहता है |प्रवाहमयी ब्लोग लेखन पर सार्थक आलेख |
नदी के प्रवाह से ब्लॉग की उपमा रोचक रही
ReplyDeleteपढ़ भी लिया,लिख भी लिया और बह भी गया...नदी के प्रवाह की तरह !
ReplyDeleteबरसता हुआ जल नाले में भी गिरता है और सूखती फसल पर भी....अब यह जल का दुर्भाग्य है या नाले का ?
पढ़ने और लिखने में भी वही सम्बन्ध है, यदि आप अधिक पढ़ेंगे तो ही अधिक लिख पायेंगे, अच्छा पढ़ेंगे तो अच्छा लिख पायेंगे, स्तरीय पढ़ेंगे तो स्तरीय लिख पायेंगे, प्रवाह का सिद्धान्त यही कहता है।
ReplyDelete@ सत्य वचन
ब्लॉग की नदी में बहना नदी सा ...
ReplyDeleteक्या बात है !
कल ही " वह एक नदी थी " कविता प्रकाशित हुई वटवृक्ष पर !
अंजली भर योगदान!! यदि महानद में प्रवाहित न भी हुआ, कहीं सूखी धरती से तापशोषित हुआ तब भी विशाल बादल में मिल बरसेगा अवश्य।
ReplyDeleteक्या बात है !प्रवाहित रहे निर्मल ,स्वच्छ विचारों की धारा,जितना डूबेंगे ,धुलेंगें ,उतनी मैल विस्थापित होगी ,सुवासित होगा तन -मन ......विचार सरित प्रवाह सतत होना ही चाहिए ......
ReplyDeleteसुंदर सन्देश है आपके विचारों में .... आजकल काफी समय पढने को ही दे रही हूँ......
ReplyDeleteहवा का बहना दिखता है पत्तियों में - फिर भी यूँ हवा नहीं दिखती
ReplyDeleteजल का बहना भी जो दिखता है उससे परे उसका प्रवाह नहीं दिखता
शब्द बहते हैं , पकड़ में नहीं आते ...
..........
बहते जल में अपनी अंजलि को बहते देख उसे बहाव का कारण समझ लेना हमारे बालसुलभ उत्साह का कारण अवश्य हो सकता है, हमारी समझ का निष्कर्ष नहीं।
पढ़ने और लिखने में भी वही सम्बन्ध है, यदि आप अधिक पढ़ेंगे तो ही अधिक लिख पायेंगे, अच्छा पढ़ेंगे तो अच्छा लिख पायेंगे, स्तरीय पढ़ेंगे तो स्तरीय लिख पायेंगे, प्रवाह का सिद्धान्त यही कहता है। संग्रहण या नियन्त्रण का मोह छोड़ दें, आँख बन्द कर बस प्रवाह में उतराने का आनन्द लें।.... सही कथन
नदी की कल कल अविरल बहाव में हम संगीत सुरभि लहरी का आनंद लेते रहते है
ReplyDeletehar upma bahut sundar .padhe aur padhe .
ReplyDeletekisi smy hm mhilao ne ak chlta firta pustkaly bnaya tha aur usko nam diya tha .
padho -padho .
नदी का बहता पानी अपने साथ सारी गंदगी बहा ले जाता है . नदी का पानी फिर भी साफ ही रहता है .
ReplyDeleteसही कहा प्रवीण जी आप ने महान पुस्तके और अच्छा साहित्य एक विशाल समुन्द्र की तरह है जितनी गहरई में जाओगे उतनी मोती पाओगे.....
ReplyDeleteबहुत सुंदर,बेहतरीन आलेख ,,,,,
ReplyDeleteMY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि,,,,,सुनहरा कल,,,,,
बहुत सार्थक लेख है ,मेरे मन में कई बार चलने वाले सवाल भी आप ने उठाये है इस लेख में, ऐसे ही लिखते रहिये
ReplyDeleteठीक बात है :)
ReplyDeleteबड़ी पुस्तकों को न लिख पाने का अधैर्य, उन्हें न पढ़ पाने की भूख, समय व श्रम का नितान्त आभाव और अनुभवों के विस्तृत वितान ने सहसा हजारों लेखक और पाठक उत्पन्न कर दिये, और माध्यम रहा ब्लॉग। सब अपनी कहने लगे, सब सबकी सुनने लगे, संवाद बढ़ा और प्रवाह स्थापित हो गया। एक पोस्ट में एक या दो विचार न ही समझने में कठिन लगते हैं और न ही लिखने में, उससे अधिक का कौर ब्लॉगीय मनोविज्ञान के अनुसार पचाने योग्य नहीं होता है।
ReplyDeleteबहते जल में अपनी अंजलि को बहते देख उसे बहाव का कारण समझ लेना हमारे बालसुलभ उत्साह का कारण अवश्य हो सकता है, हमारी समझ का निष्कर्ष नहीं। धारा का उपकार मानना होगा कि आपका जल औरों तक पहुँच पा रहा है, आपको उपकार मानना होगा कि आप उस धारा के अंग हैं।
एक अंजलि, एक धारा का कोई मोल नहीं, थोड़ी दूर बहेगी थक जायेगी। यह तो औरों का साथ ही है जो आपको प्रवाह होने का अभिमान देता है। मतभेद हों, उछलकूद मचे, पर ठहराव न हो, बहना बना रहे, प्रवाह बना रहे।
पूरी पोस्ट ही एक वेगवती धारा बनी हुई है एक अंडर करेंट लिए है .सच मुच ब्लॉग ने हमें एक आई डी दिया ,हम भी तो कुछ दें .....बढ़िया पोस्ट .कृपया पहले पैरा में आभाव छप गया है अभाव के स्थान पर .कृपया यहाँ भी पधारें -
ram ram bhai
शनिवार, 26 मई 2012
दिल के खतरे को बढ़ा सकतीं हैं केल्शियम की गोलियां
http://veerubhai1947.blogspot.in/तथा यहाँ भी ज़नाब -
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
'gigo' दर्शन सिद्धांत.
ReplyDeleteसरित प्रवाह!लेखन और नदिया की धारा!!
ReplyDeleteप्रभावशाली प्रस्तुति.. !
ReplyDeleteप्रवाह के सिद्धांत का सुन्दर विश्लेषण...!
ReplyDeleteप्रवाह में ही आनंद है .....
ReplyDelete'' मतभेद हों, उछलकूद मचे, पर ठहराव न हो, बहना बना रहे, प्रवाह बना रहे।''
ReplyDeleteबहुत संतुलित परामर्श.
सही कह रहे हैं आप !
ReplyDeleteप्रभावशाली और सशक्त प्रस्तुति । आभार ।
ReplyDeleteनदी को प्रवाहमय बने रहने के लिये जल सतत चाहिये। जल के स्रोत ज्ञान के ही स्रोत हैं, कहीं तो सकल जगत सागर से वाष्पित अनुभव, कभी पुस्तकों के रूप में जमे हिमाच्छादित पर्वत।
ReplyDeleteजिस प्रवाह में हैं, आनन्द उठायें, बहते जल का। बहें, नदी सा।
इस विशाल चिठ्ठा सागर में आप एक बूँद समान है कभी न भूलें -बूँद बूँद सो भरे सरोवर .हर बूँद की एक शख्शियत है उसकी हेटी न करें .बूँद बूँद में फर्क न करें .. बढ़िया प्रस्तुति है .... .कृपया यहाँ भी पधारें -
रविवार, 27 मई 2012
ईस्वी सन ३३ ,३ अप्रेल को लटकाया गया था ईसा मसीह
.
ram ram bhai
को सूली पर
http://veerubhai1947.blogspot.in/
तथा यहाँ भी -
चालीस साल बाद उसे इल्म हुआ वह औरत है
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
प्रवाह के सिद्धान्त की बात सही है।
ReplyDeletesahi kaha aapne.... jitna pado utna gyan bade aur likhane ke liye gyan ka bhandar jaruri hota hai..... sunder prastuti.
ReplyDeleteबहुत सही कहा है.. जैसा इंसान पता है वैसा ही देता है.. अची पुस्तकों को पड़ने वाला दिमाग से उतरा लेखन भी सुन्दर होता है...प्रवाह का सिद्धांत ..बहुत उम्दा लेख.
ReplyDeleteबहे नदी सा और पहुंचे अपने गंतव्य ब्लॉग सागर तक जैसे गंगा गंगोत्री से निकल गंगा सागर तक पहुँच रही है .यही लक्ष्य भी होना चाहिए चिठ्ठागीरी का .चिठ्ठागीरी का मतलब छींटाकसी और उपालम्भ नहीं है .ब्लॉग कोई प्रकरी(बीच में ही विलुप्त होने वाली कथा जिसका विस्तार न हो )प्रबंध काव्य है .आपके तवरित टिपण्णी के लिए शुक्रिया .. .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteरविवार, 27 मई 2012
ईस्वी सन ३३ ,३ अप्रेल को लटकाया गया था ईसा मसीह
.
ram ram bhai
को सूली पर
http://veerubhai1947.blogspot.in/
तथा यहाँ भी -
चालीस साल बाद उसे इल्म हुआ वह औरत है
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
नदी की विशेषता यह है कि स्वयं तो बहती ही है , दूसरों को भी अपने साथ बहने की शक्ति प्रदान करती है |
ReplyDeleteaaj kal bahut see nadiyaan sukh rahee haen
ReplyDeletepravaah nahin reh gayaa haen
kachra bahut ikthaa kar diyaa haen
pehlae kachra saaf karae bahaav tab hi hogaa
बैठकें, चौपाल, अड्डेबाज़ी, गोष्ठियाँ, मजलिसें पहले भी होती थीं। कहने सुनने के लिये सबके पास कुछ न कुछ रहता ही है। ब्लॉग से पहले उठकर जाना पड़ता था, इंतज़ामात करने पड़ते थे। अब ब्लॉग आदि के द्वारा सब कुछ घर बैठे हो जाता है। मजलिस तो वही है, बस माध्यम बदला है, और बदले हैं तौर तरीके तकनीक के परवान चढकर। उन गोष्ठियों में बिना चेहरे वाले नहीं होते थे, यहाँ बेनाम, अनाम, गुप्तनाम, छद्मनाम सबी होते हैं। वहाँ लिहाज़ होता था बड़ों का, पृष्ठभूमि का यहाँ कई लोगों को उसकी ज़रूरत नहीं दिखती क्योंकि वहाँ हर व्यक्ति अपनी हरकत का ज़िम्मेदार होता था और उसे भुगतान का डर था। यहाँ कई लोग इस छूट का दुरुपयोग भी कर लेते हैं। वार्ता, वाद-विवाद, सम्वाद मानवता की ज़रूरत हैं, ब्लॉग हो या न हो, सम्वाद रहेगा, उसकी फ़िक्र करने की ज़रूरत तब तक नहीं है जब तक जनतंत्र है और अभिव्यक्ति की आज़ादी है। हाँ कभी मिलिटरी या कम्युनिस्ट तानाशाही आ गयी तब ज़रूर ज़ुबाँ पर मुहर लगने का खतरा रहेगा। अभी का खतरा तो बस आज़ादी के दुरुपयोग और बदज़ुबानी का है।
ReplyDeleteNice post abhar.
ReplyDeleteपढ़े इस लिक पर
दूसरा ब्रम्हाजी मंदिर आसोतरा में जिला बाडमेर राजस्थान में बना हुआ है!
....
चिठ्ठाकार होना एक बड़ा कर्म है यहाँ उन्मुक्तता तो है स्वच्छन्दता स्वेच्छाचारिता छिछोड़ा पन नहीं है .यदि है तो वह हमारा प्रक्षेपण है निजिक ,धत कर्म है कोई अच्छी बात नहीं .मिलनसारी बनाए रहिये ,चिठ्ठों में चिठ्ठा अपना मिलाये रहिये दोस्तों सा . ज्योत से ज्योत जगाते चलो .. चिठ्ठे की गंगा बहाते चलो प्रवाह चिठ्ठाकारी का खंडित न होने पाए ....बहुत सुन्दर पोस्ट
ReplyDeleteऔर यहाँ भी दखल देंवें -
सोमवार, 28 मई 2012
क्रोनिक फटीग सिंड्रोम का नतीजा है ये ब्रेन फोगीनेस
स्मार्ट इन्डियन से सहमत ....बहुत सुन्दर पोस्ट
ReplyDeleteऔर यहाँ भी दखल देंवें -
सोमवार, 28 मई 2012
क्रोनिक फटीग सिंड्रोम का नतीजा है ये ब्रेन फोगीनेस
चलो एक संवाद तो हुआ -यहाँ तो कुछ लोग पट बंद किये बैठे हैं -
ReplyDeleteइतने शहरी हो गए चिठ्ठे के ज़ज्बात ,सबके मुंह पर सिटकनी क्या करते संवाद .
और यहाँ भी दखल देंवें -
सोमवार, 28 मई 2012
क्रोनिक फटीग सिंड्रोम का नतीजा है ये ब्रेन फोगीनेस
सही कह रहे हैं आप प्रवाह में ही आनंद है। जहां तक अच्छे साहित्य को पढ़ने कि बात है तो मुझे ऐसा सुने में आया था कि हिन्दी कि पुस्तकों का मूल्य आज कल आम आदमी के पहुँच के बाहर होता है जिसके के कारण साधारण या फिर यूं कहिए कि नये लेखकों कि रचनायें बढ़िया होते भी आम इंसान तक नहीं पहुँच पाती। जिसके चलते इस नदी के प्रवाह में कुछ लोगों कि अजुली जो इस नदी के प्रवाह में शुरू में बहा करती है वह आगे जाकर धीरे-धीरे ख़त्म हो जाती है।
ReplyDeleteयदि आप अधिक पढ़ेंगे तो ही अधिक लिख पायेंगे, अच्छा पढ़ेंगे तो अच्छा लिख पायेंगे, स्तरीय पढ़ेंगे तो स्तरीय लिख पायेंगे, प्रवाह का सिद्धान्त यही कहता है।
ReplyDeleteaapke blog par hamesha achcha padhta hun aur achcha likhne ka hi prayas karta hun:-) bahut sundar lekh.....
.बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeletei had started writing a bit, still amateurish...mujhe bhi sabhi bade logo ne yahi suggest kia ki acha padogi, tabhi acha likh paogi..nice post..:)
ReplyDeleteब्लॉग तो स्वयं का विस्तार होता है फिर यहाँ लोग अनामी और बे -नामी क्यों हैं चिठ्ठा कोई नेता का स्विस बेन्कीय खाता तो है नहीं जिसके धारक का नाम छिपाए रखा जाए .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteram ram bhai
http://veerubhai1947.blogspot.in/रोगों के बिलकुल आरंभिक चरण में निदान के लिए नव(अभिनव )परीक्षण
मंगलवार, 29 मई 2012
अब बिना दर्द किये लगेंगी सुइंयाँ
Marital Love
समय संगम का दवाब उसके परिणाम
http://veerubhai1947.blogspot.in/रोगों के बिलकुल आरंभिक चरण में निदान के लिए नव(अभिनव )परीक्षण
ReplyDeleteमंगलवार, 29 मई 2012
अब बिना दर्द किये लगेंगी सुइंयाँ
Marital Love
समय संगम का दवाब उसके परिणाम
कब खिलेंगे फूल कैसे जान लेते हैं पादप ?
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
ब्लॉग तो मैंने सुना है एक परिवार के मानिंद है फिर यहाँ पर्दा क्यों ?छद्म नामी चिठ्ठे क्यों ?
एक ब्लॉग का नाम हुआ करता था वर्ज्य नारी .हमने एक मर्तबा पूछा आप किस के लिए किसकी नजर में वर्ज्य हैं अगर पुरुष की तो संवाद होना चाहिए वही हल है .और अगर आप अपनी ही नजर में वर्ज्य हैं तो इसका चिठ्ठे में ज़िक्र क्यों ?यह आपका निजी मामला हो जाता है .चिठ्ठा एक सार्वजानिक मंच है .शिनाख्त में आपने पहली मर्तबा एक बिच(चुडेल ) का चित्र लगाया फिर देवी दुर्गा हो गईं गरज ये कि सहज जो आप हैं वह नहीं होना है .बहु -रूपा ही रहना है .आपने वायदा किया था आप हमें ज़वाब ज़रूर देंगीं .हम आज तक प्रतीक्षा रत हैं .यहाँ सार्वजनिक मंच पर दे दें .ताकि सनद रहे .प्रवाह बना रहे .
बहो नदी बनके बहो ,वेगवती धार बन ,सरस्वती नहीं होना ,नदी रहना ,सतत बहना ....
सुन्दर आलेख सुन्दर सन्देश के साथ !
ReplyDeleteचरैवेति चरैवेति.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर आलेख है बिलकुल सही लिखा अच्छा पढेंगे तो अच्छा सोचेंगे और अच्छा लिखेंगे
ReplyDeleteसिद्धांतों को तोड़ कर भी बहने में अति आनंद है..सुन्दर आलेख..
ReplyDeleteएक पोस्ट में एक या दो विचार न ही समझने में कठिन लगते हैं और न ही लिखने में, उससे अधिक का कौर ब्लॉगीय मनोविज्ञान के अनुसार पचाने योग्य नहीं होता है।
ReplyDeleteथो धार बन कर ही सही बहने में आनंद है बहते बहते आप किसी नदी का हिस्सा बनें या अपने को दूसरी और मोड दें पर बहें अवश्य ।