जुआ खेलने वाले जानते हैं कि दाँव इतना लगाना चाहिये कि एक बार हारने पर अधिक कष्ट न हो, और दाँव इतनी बार ही लगाना चाहिये कि अन्त में जीने के लिये कुछ बचा रहे। वैसे तो लोग कहते हैं कि जुआ खेलना ही नहीं चाहिये, सहमत हूँ और खेलता भी नहीं हूँ, पर जीवन में इससे बचना संभव नहीं होता है। वृहद परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो ऐसे निर्णय जिनका निष्कर्ष नहीं ज्ञात होता है, एक प्रकार से जुये की श्रेणी में ही आते हैं। ताश आदि के खेलों में अनिश्चितता अधिक होती है, इसीलिये जुआ अधिक बदनाम है, इसे खेलना टाला भी जा सकता है। जीवन के निर्णयों में अनिश्चितता कम होती है, ये आवश्यक होते हैं, लम्बित तो किये जा सकते हैं पर पूरी तरह से टाले नहीं जा सकते हैं।
शेयर खरीदने वाले जानते हैं कि उन कम्पनी के शेयरों पर पैसा लगाना अच्छा है जिनका नाम है, जिनके भविष्य में कुछ निश्चितता है, जिनका प्रबन्धतन्त्र सुदृढ़ हाथों में है। यह विकास का अंग अवश्य है पर उसमें उपस्थित अनिश्चितता इसे भी जुये की श्रेणी में ले आती है। मैं शेयर भी नहीं खरीदता हूँ यद्यपि कई लोग उकसाते रहते हैं, उनके अनुसार हम अपनी बुद्धि और ज्ञान का सही उपयोग नहीं कर रहे हैं क्योंकि बुद्धि और बल का उपयोग धनार्जन में नहीं किया गया तो जीवन व्यर्थ हो गया। यथासंभव इन सबसे बचने के प्रयास के कारण कई बार भीरु और मूढ़ होने के सम्बोधन भी झेल चुका हूँ।
कई लोग हैं मेरे जैसे ही, जो इस अनावश्यक और अनिश्चित के दुहरे पाश से यथासंभव बचे रहना चाहते हैं। बचा भी रहा जा सकता है यदि तन्त्र ठीक चलें, अपने नियत प्रारूप में, व्यवस्थित। बहुत से ऐसे तन्त्र हैं जो अच्छे से चल भी रहे हैं और उन क्षेत्रों में हमारा जीवन स्थिर भी है, यदि स्पष्ट न दिखते हों तो पड़ोसी देशों को निहारा जा सकता है। कई क्षेत्र पर ऐसे हैं जिन्होंने एक पीढ़ी में ही इतना पतन देख लिया है, जो हमारे विश्वास को हिलाने के लिये पर्याप्त है, निश्चित से अनिश्चित तक की पूरी यात्रा। अनिश्चित और अनावश्यक अन्तर्बद्ध हैं, बहुत अन्दर तक, एक दूसरे को सहारा देते रहते हैं और निर्माण करते रहते हैं, एक आधारभूत गर्त।
बहुत क्षेत्र हैं जिसमें बहुत कुछ कहा जा सकता है, पर विषय की एक निश्चयात्मक समझ के लिये बिजली और पानी की स्थिति ले लेते हैं, सबसे जुड़ा और सबका भोगा विषय, हर बार घर की यात्रा में ताजा हो जाता विषय, अपने बचपन से तुलना किया जा सकने वाला विषय, एक पीढ़ी के अन्तर पर खड़ा विषय।
बचपन की स्थिति स्पष्ट याद है। दिन में तीन बार पानी आता था, कुल मिलाकर ६ घंटे, कहते थे उसी समय पंपहाउस का पंप चलता था। साथ ही साथ बिजली भी रहती थी, लगभग १८ घंटे, बिजली कटने के घंटे नियत, कहते थे कि बचे हुये ६ घंटे उद्योगों और खेतों को बिजली दी जाती थी। सुविधा तब जितनी भी थी, निश्चितता थी। यदा कदा यदि किसी कारण से बिजली और पानी नहीं आता था, तो उसका कारण ज्ञात रहता था, साथ ही साथ कब तक स्थिति सामान्य हो जायेगी, यह भी ज्ञात रहता था। पानी नहीं आने पर नदी में नहाने जाते थे और बिजली नहीं आने पर हाथ से पंखा झल लेते थे।
स्थितियाँ बिगड़ी, अनिश्चितता बढ़ी। सबसे पहले वोल्टेज कम होना प्रारम्भ हुआ, अब सब क्या करें? जो सक्षम थे उन्होंने अपने घर में स्टेबलाइज़र लगाना प्रारम्भ किया, जो कभी अनावश्यक समझा जाता था, आवश्यक हो गया। धीरे धीरे बिजली अधिक समय के लिये गायब रहने लगी, उस अन्तराल को भरने के लिये लोगों ने इन्वर्टर ले लिये, धीरे धीरे वह हर घरों में जम गया। जब इन्वर्टर को भी पूरी चार्जिंग का समय नहीं मिला, तो छोटे जेनसेट हर घरों में आ गये। घनाड्य तो बड़े जेनेरेटर लगा कर एसी में रहने का आनन्द उठाते रहे।
पानी जहाँ बिजली पैदा करता है वहीं बिजली से पंप भी किया जाता है। बिजली की अनिश्चितता ने पानी को भी पानी पानी कर दिया। जब लोगों का विश्वास सार्वजनिक सेवाओं से हट गया तो घरों में बोरिंग हुयी, पंप लगे और बड़ी बड़ी टंकियाँ बनायी गयीं।
जहाँ एक ओर तन्त्र अनिश्चित हो रहा था, अनावश्यक यन्त्र आवश्यक हो रहे थे, हमारी सुविधाभोगी जीवनशैली और साधन जुटाने में लगी थी। फ्रिज, वाशिंग मशीन, कूलर, ओवेन, एसी आदि हमारे जीवन में छोटे छोटे स्वप्नों के रूप में जम रहे थे। विश्वास ही नहीं होता है कि तीस वर्ष पहले तक बिना इन यन्त्रों के भी घर का बिजली पानी चल रहा था। सीमित बिजली पानी बड़े नगर सोख ले रहे हैं, इस आधारभूत गर्त में छोटे नगरों का जीवन कठिन हुआ जा रहा है, सारा समय इन्हीं आधारभूत समस्याओं से लड़ने में निकल जाता है।
हम सबने सुविधाओं के नाम पर विकास के जुये में इतना बड़ा दाँव लगा दिया कि हार का कष्ट असहनीय हुआ जा रहा है, इतनी बार दाँव लगाया है कि जीने के लिये कुछ बचा भी नहीं। पुरानी स्थिति में भी नहीं लौटा जा सकता है क्योंकि सुविधाओं ने उस लायक नहीं छोड़ा है कि पुरानी जीवनशैली को पुनः अपनाया जा सके। इस आधारभूत गर्त में एक हारे हुये मूर्ख जुआरी का जीवन जी रहे हैं हम सब।
शेयर खरीदने वाले जानते हैं कि उन कम्पनी के शेयरों पर पैसा लगाना अच्छा है जिनका नाम है, जिनके भविष्य में कुछ निश्चितता है, जिनका प्रबन्धतन्त्र सुदृढ़ हाथों में है। यह विकास का अंग अवश्य है पर उसमें उपस्थित अनिश्चितता इसे भी जुये की श्रेणी में ले आती है। मैं शेयर भी नहीं खरीदता हूँ यद्यपि कई लोग उकसाते रहते हैं, उनके अनुसार हम अपनी बुद्धि और ज्ञान का सही उपयोग नहीं कर रहे हैं क्योंकि बुद्धि और बल का उपयोग धनार्जन में नहीं किया गया तो जीवन व्यर्थ हो गया। यथासंभव इन सबसे बचने के प्रयास के कारण कई बार भीरु और मूढ़ होने के सम्बोधन भी झेल चुका हूँ।
कई लोग हैं मेरे जैसे ही, जो इस अनावश्यक और अनिश्चित के दुहरे पाश से यथासंभव बचे रहना चाहते हैं। बचा भी रहा जा सकता है यदि तन्त्र ठीक चलें, अपने नियत प्रारूप में, व्यवस्थित। बहुत से ऐसे तन्त्र हैं जो अच्छे से चल भी रहे हैं और उन क्षेत्रों में हमारा जीवन स्थिर भी है, यदि स्पष्ट न दिखते हों तो पड़ोसी देशों को निहारा जा सकता है। कई क्षेत्र पर ऐसे हैं जिन्होंने एक पीढ़ी में ही इतना पतन देख लिया है, जो हमारे विश्वास को हिलाने के लिये पर्याप्त है, निश्चित से अनिश्चित तक की पूरी यात्रा। अनिश्चित और अनावश्यक अन्तर्बद्ध हैं, बहुत अन्दर तक, एक दूसरे को सहारा देते रहते हैं और निर्माण करते रहते हैं, एक आधारभूत गर्त।
बहुत क्षेत्र हैं जिसमें बहुत कुछ कहा जा सकता है, पर विषय की एक निश्चयात्मक समझ के लिये बिजली और पानी की स्थिति ले लेते हैं, सबसे जुड़ा और सबका भोगा विषय, हर बार घर की यात्रा में ताजा हो जाता विषय, अपने बचपन से तुलना किया जा सकने वाला विषय, एक पीढ़ी के अन्तर पर खड़ा विषय।
बचपन की स्थिति स्पष्ट याद है। दिन में तीन बार पानी आता था, कुल मिलाकर ६ घंटे, कहते थे उसी समय पंपहाउस का पंप चलता था। साथ ही साथ बिजली भी रहती थी, लगभग १८ घंटे, बिजली कटने के घंटे नियत, कहते थे कि बचे हुये ६ घंटे उद्योगों और खेतों को बिजली दी जाती थी। सुविधा तब जितनी भी थी, निश्चितता थी। यदा कदा यदि किसी कारण से बिजली और पानी नहीं आता था, तो उसका कारण ज्ञात रहता था, साथ ही साथ कब तक स्थिति सामान्य हो जायेगी, यह भी ज्ञात रहता था। पानी नहीं आने पर नदी में नहाने जाते थे और बिजली नहीं आने पर हाथ से पंखा झल लेते थे।
पानी जहाँ बिजली पैदा करता है वहीं बिजली से पंप भी किया जाता है। बिजली की अनिश्चितता ने पानी को भी पानी पानी कर दिया। जब लोगों का विश्वास सार्वजनिक सेवाओं से हट गया तो घरों में बोरिंग हुयी, पंप लगे और बड़ी बड़ी टंकियाँ बनायी गयीं।
हम सबने सुविधाओं के नाम पर विकास के जुये में इतना बड़ा दाँव लगा दिया कि हार का कष्ट असहनीय हुआ जा रहा है, इतनी बार दाँव लगाया है कि जीने के लिये कुछ बचा भी नहीं। पुरानी स्थिति में भी नहीं लौटा जा सकता है क्योंकि सुविधाओं ने उस लायक नहीं छोड़ा है कि पुरानी जीवनशैली को पुनः अपनाया जा सके। इस आधारभूत गर्त में एक हारे हुये मूर्ख जुआरी का जीवन जी रहे हैं हम सब।
बहुत बढ़िया प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टी की चर्चा आज शनिवार के चर्चा मंच पर लगाई गई है!
हुई वोल्टेज लो तनिक, बिजली रानी जाँय |
ReplyDeleteपानी की मुश्किल हुई, गर्मी तन तड़पाय |
विचारणीय |
मोहल्ले में एक टुल्लू -
फिर हर घर में टुल्लू-
रह गए उल्लू के उल्लू-
फिर बड़े टुल्लू और बड़े उल्लू-
उफ़-
सट्टा शेयर जुआं से, रह सकते हम दूर |
जीवन के कुछ दांव पर, कर देते मजबूर |
कर देते मजबूर, खेलना ही पड़ता है |
पौ बारह या हार, झेलना ही पड़ता है |
पड़ता उलटा दांव, शाख पर लागे बट्टा |
बने सिकंदर जीत, खेल के जीवन सट्टा ||
हुई वोल्टेज लो तनिक, बिजली रानी जाँय |
Deleteपानी की मुश्किल हुई, गर्मी तन तड़पाय |
गर्मी तन तड़पाय, हुई मंहगाई हाई ।
बैठा मन गम खाय, प्यास पर कौन बुझाई ।
लो-हाई का खेल, व्यवस्था पूर्ण हिलादी ।
तंत्र हुआ जब फेल, बनो सब इसके आदी ।
आधुनिक जीवन जहां एक समस्या का हल ढूंढता है वह एक नयी समस्या को जन्म दे जाता है ,,,और आपाधापी चलती रहती है -इसलिए ही इस युग को दुश्चिंताओं दुविधाओं का युग भी कहा जा रहा है -एज आफ ऐन्क्जायिटी!
ReplyDeleteगहन विश्लेष्णात्मक पोस्ट |व्यवस्था और अव्यवस्था पर गंभीर चिंतन अच्छा लगा |आभार
ReplyDeleteसब पैसे की माया है ...
ReplyDeleteहम लोग शानोशौकत से मरना चाहते हैं :)
सही मानिये तो जीवन का हर अगला कदम जुएं जैसा ही होता है.यह खेल ऐसा है कि जिसको आज हम जीत समझते हैं,वही कल हमारी हार लगने लगती है !
ReplyDelete...बस,इसे जरूरत-भर खेलें,दांव लगाएं,यही कर सकते हैं !
विकास के साथ बढती समस्याएं ...!सारगर्भित आलेख ..!हमारी हर समस्या के लिए दोषी है जनसँख्या ...इसी वजह से हर जगह मारा मारी .. ...सही लिखा है आपने ...
ReplyDeleteसारा समय इन्हीं आधारभूत समस्याओं से लड़ने में निकल जाता है।...
समाज के प्रति जो हमारा कर्त्तव्य है उस पर ध्यान जाता ही नहीं ...
चिंतन देता हुआ सार्थक आलेख ....!
शुभकामनायें ....!!
पुरानी शैली कहाँ से लाएँ? गाँव में नहाने नदी पर जाते थे। गाँव की नदी अब नाला हो गई है। इधर कोटा में बांध में खूब पानी रहता है लेकिन उस में थर्मल बिजलीघर के बायलर का उबलता पानी लगातार डिस्चार्ज होता रहता है तो इतना गर्म कि प्राण ले ले। कोई तीन वर्ष पूर्व मैं वहाँ नहाने गया कि तैरने का कुछ आनन्द ले लिया जाए। पहले तो पानी में घुसा न गया। घुसे और दो-तीन मिनट में गर्मी को सहन करने का अहसास हुआ तब कुछ दूर तक तैरने गए। लेकिन वहाँ जा कर अहसास हुआ कि गर्म पानी ने शरीर के रक्तचाप को बढ़ा दिया है। मैं चक्कर खा कर पानी के हवाले हुआ उस के पहले ही चेतना ने मुझे वापस लौटने को कहा। मैं जैसे तैसे तैरता हुआ किनारे तक आ गया। नतीजा यह है कि आप सब के बीच हूँ।
ReplyDeleteजब जीवन आगे बढ़ जाता है तो वह वापस नहीं लौटता। उसे आगे ही बढ़ाना पड़ता है। विकास चक्रीय नहीं होता। वह स्प्रिंग की तरह होता है। जीवन वापस उसी बिन्दु पर लौटता तो है लेकिन तब तक उस की ऊंचाई बढ़ जाती है। एक दूसरे से दूर भागती हुई नीहारिकाएँ कभी वापस पुरानी स्थिति में नहीं लौटतीं।
बेहतरीन आलेख. घर में एक AC थी अब दूसरी लगवा ली है. कूलर के लिए पानी नहीं है. बिजली के बिल का झटका तो लगेगा और उसे सहना भी पड़ेगा क्योंकि कुछ ही दिनों के बाद मेहमानबाजी करनी होगी. अब पुरानी स्थतियों की तरफ जाया नहीं जा सकता. वह "समय" था. प्रबंधन में विकल्पों का चयन भी एक प्रकार से जुआ ही हुआ लेकिन खेलने की मजबूरी रहती है.
ReplyDeleteabhi to duniya badal rehi hai aage aage dekho hota hai kya ,san paise ka khel hai
ReplyDeletebadhiya lekh, lekin mujhe lagta hai ki pehle dhanadyon ke paas generator aaye aur baad mein Inverter aane lage jo madhyamvargiiy bhi afford kar sakte the....dhanpashu to dono hii rakhne lage..
ReplyDeleteअनियंत्रित पाँव पसारने का नतीजा ...
ReplyDeleteजीवन का सारा समय इन्हीं आधारभूत समस्याओं से लड़ने में निकल जाता है।...
ReplyDeleteअब मुमकिन नही कि पुरानी जीवनशैली को पुनः अपनाया जा सके। ....सार्थक आलेख
पूर्णतया ऐसा भी नहीं है . मनुष्य ने अपने दिमाग का इस्तेमाल करते हुए अपनी सुख सुविधा के सभी साधन जुटा लिए हैं . हम क्यों वापस जाना चाहेंगे आदि मानव के जीवन में ? यदि कुछ संसाधन कम हो भी रहे हैं तो नए आयाम खुल रहे हैं .
ReplyDeleteआज ही पढ़ा --टाटा ने बनायीं पानी से चलने वाली कार . सब कुछ संभव है भाई . मनुष्य का दिमाग बहुत विकसित हो चुका है .
प्रवीण जी मैं तो बंगलौर में बन रही ऊंची ऊंची अट्टालिकाएं और फ्लाईओवर देखकर ही चकित हूं। कि आज से पचास साल बाद-जब शायद हम तो नहीं होंगे- इनका क्या होगा। अट्टालिकाओं के लिए पानी कहां से आएगा और फ्लाईओवर पर चलने वाले वाहनों के लिए ईंधन कहां से आएगा। तब क्या होगा। नई और पुरानी जीवनशैली में से चुनने का अवसर कुछ मुठ्ठी भर लोगों के पास ही है। बाकी तो जो सामने है उसी में गुजारा कर रहे हैं।
ReplyDeleteहाँ अब दाव पर लगाने के लिए कुछ भी नहीं बचा......
ReplyDeleteइस युग की यही कहानी
मुश्किल है जीना बिन बिजली पानी,
बिन बिजली सब सून………
ReplyDeleteविकास के साथ-साथ सम्स्या तो बढ़नी ही है...फिर भी हम नहीं मानते......क्या करे जरुरी है कह कर खुद को समझा लेते है...सार्थक आलेख...
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
Pehli bar aapke blog par ayi hu, aakar accha laga.
ReplyDeleteMere blog post ko bhi aapki rai ka intzaar rahega.
तथाकथित विकास की आड़ में प्रकृति का विनाश और कृत्रिम सुविधाओ के लिए मूलभूत सुविधाओ से वंचित होता आदमी .
ReplyDeleteहाँ ! त्रिशंकु का शाप सा आज का जीवन..सुन्दर आकलन..
ReplyDeleteसही है कि सभ्यता की बहुत बड़ी कीमत चुका रहे हैं हम। कल क्या होगा... किसे पता है.....
ReplyDeleteहम सबने सुविधाओं के नाम पर विकास के जुये में इतना बड़ा दाँव लगा दिया कि हार का कष्ट असहनीय हुआ जा रहा है, इतनी बार दाँव लगाया है कि जीने के लिये कुछ बचा भी नहीं।
ReplyDeleteवैचारिक विवेचन ....सच है सोचा ही नहीं गया कि जो कुछ भी किया जा रहा है भावी जीवन में उनकी परिणति किस रूप में होगी..... यक़ीनन हार तो हम गए हैं.....
और इस जुए से बचना भी नामुमकिन सा है|
ReplyDeleteसुविधाओं का सुख भी है तो दुःख ...सच में सोचना मुश्किल होता है की मिक्सी , फ्रिज , वाशिंग मशीन के बिना गृहिणी का काम कैसे चलता होगा!
ReplyDeleteसुविधाओं के गुलाम हो गए हैं हम लोग ...
सार्थक चिंतन !
Kal Chamundi hill jana hua Mysore me....solar se chalne wale traffic singals dekha kar aanand aa gaya......
ReplyDeleteकहे कबीर अंत की बारी, हाथ झारि के चले जुआरी.
ReplyDeleteपानी जहाँ बिजली पैदा करता है वहीं बिजली से पंप भी किया जाता है। बिजली की अनिश्चितता ने पानी को भी पानी पानी कर दिया। जब लोगों का विश्वास सार्वजनिक सेवाओं से हट गया तो घरों में बोरिंग हुयी, पंप लगे और बड़ी बड़ी टंकियाँ बनायी गयीं।
ReplyDeleteभाई साहब अब तो -
हाथ का नलका भी अब पानी नहीं उठाता .भू -जल नीचे चला गया है .जहां तक बिजली का सवाल है हिन्दुस्तान में बिजली के खभे हैं बिजली नहीं है .बिजली हमारी अर्थ व्यवस्था की तरह है जिसका लाभ अम्बानियों के लिए है वहां 24x7 घंटा बिजली है .हमारी आर्थिक वृद्धि का ढोल पीटने वाली अर्थ व्यवस्था खुद आम आदमी का जुआ बनके रह गई है जहां गरीब और अमीर का फासला विश्व में सर्वाधिक है .और आर्थिक वृद्धि इसी फासले को बढा रही है .बढ़िया विचार मंथन कराता है आपका आलेख सदैव की तरह .
सुबिधाएँ कुछ असुबिधाओं को भी साथ हि साथ जन्म दे रही है. जरूरत एक सामंजस्य बैठाने की है.
ReplyDeleteबहुत सार्थक आलेख...जीवन के विकास चक्र में फंसे हम एक जुआ ही तो खेल रहे हैं जिसमें हारने पर भी बीच में खेल छोड़ कर उठा नहीं जा सकता...
ReplyDeleteज़िंदगी इक जुआ..
ReplyDeleteलेकिन न आते वक्त कुछ साथ होता है और न जाते वक्त...
जय हिंद...
जुआ खेलने वाले जानते हैं कि दाँव इतना लगाना चाहिये कि एक बार हारने पर अधिक कष्ट न हो, और दाँव इतनी बार ही लगाना चाहिये कि अन्त में जीने के लिये कुछ बचा रहे।
ReplyDeleteबहुत सही कहा है आपने । मरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
जुआ अगर खेल की हद तक खेला जाए तो वह ठीक है, पर हार-जीत के प्रश्न के रूप में खेला जाए तो ... विनाश ही है।
ReplyDeleteवैसे जीवन एक जुआ ही है, हर पल कुछ न कुछ दाव पर रहता ही है। कहां तक इससे भागना।
आपकी सोच जायज है ,परन्तु जीवन, विकास का क्रमांक है ,ठौर बदलती रहती है ,प्राथमिकताएं भी / अस्थायित्व विकास का जड़ विन्दु है..... कल का सवेरा विकास का उद्दगम स्थल हो इंकार नहीं किया जा सकता ......हाँ विकास की वगडोर, असंतुलित व असमर्पित हाथों में होने से गति धीमी व कष्टकारी होती है .....हम जुआ नहीं सहभागिता में हैं ...यदि सहकारिता का स्थान लेता तो बात कुछ और होती /
ReplyDeleteहाँ यह भी सच है की ,भारत की आधी से अधिक आबादी ,उर्जा उपयोग से दूर व वंचित है ....जरा सोचें हालात क्या होंगे .... विकास की दौड़ में हम कहाँ होंगे ......./ सार्थक सोच व चिंता .. साभार
द्यूतं छलयतामस्मि...!!
ReplyDeleteसुविधाओं की आदत है कि हड्डियों में समा जाती हैं...
ReplyDeleteडा.अंजना संधीर की कविता ,अमरीका सुविधायें देकर हड्डियों में समा जाता है,
डा.अंजना संधीर की कविता का अंश:
............
............
इसीलिए कहता हूँ कि
तुम नए हो,
अमरीका जब साँसों में बसने लगे,
तुम उड़ने लगो, तो सात समुंदर पार
अपनों के चेहरे याद रखना।
जब स्वाद में बसने लगे अमरीका,
तब अपने घर के खाने और माँ की रसोई याद करना ।
सुविधाओं में असुविधाएँ याद रखना।
यहीं से जाग जाना.....
संस्कृति की मशाल जलाए रखना
अमरीका को हड्डियों में मत बसने देना ।
अमरीका सुविधाएँ देकर हड्डियों में जम जाता है!
सुविधाओं की आदत हो जाने पर उनकी उपलब्धता सुनिश्चित करना एक मानवीय दुर्बलता ही है ,जोकि हम सामान्यतया करते ही रहते हैं ....
ReplyDeleteDhoodhta hai tu kya dekh kar bahut hassi aye :)
ReplyDeleteदांव लगे सी बिजली-पानी.
ReplyDeleteHistory of gambling (DYUT KREEDA) goes down to Mahabharat era.Marriage in India is a gamble and so is every day life of a resource less person.Good post .
ReplyDeleteबहुत सटीक विश्लेषण किया है आपके आलेख ने... विकास की गति और हमारे दाँव का!
ReplyDeleteसुन्दर, गम्भीर, सारगर्भित आलेख...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteअधिक से अधिक वसूलने का खामियाज़ा कभी न कभी तो भुगतना ही पड़ेगा.
ReplyDeleteबहुत सशक्त आलेख हमेशा कि तरह रोचक भी सही कहा है विकास के इस जुए का खामियाजा छोटे शहर ,कसबे गाँव भुगत रहे हैं आबादी कि रफ़्तार बढती ही जाती है एक वक़्त आएगा घर बनाने के लिए जगह भी नहीं होगी
ReplyDeletevicharneeye post. shubhakaamanaayen
ReplyDeleteबिल्कुल सही ...कहा है आपने इस आलेख में ... बेहतरीन प्रस्तुति।
ReplyDeleteये भी तो एक जूअया ही है जो विकास की आद में खेला जा रहा है ...
ReplyDeleteपर पता नहीं किस स्तर खेला जाएगा ये ...
त्वरित टिप्पणी से सजा, मित्रों चर्चा-मंच |
ReplyDeleteछल-छंदी रविकर करे, फिर से नया प्रपंच ||
बुधवारीय चर्चा-मंच
charchamanch.blogspot.in
हम सबने सुविधाओं के नाम पर विकास के जुये में इतना बड़ा दाँव लगा दिया कि हार का कष्ट असहनीय हुआ जा रहा है, इतनी बार दाँव लगाया है कि जीने के लिये कुछ बचा भी नहीं। पुरानी स्थिति में भी नहीं लौटा जा सकता है क्योंकि सुविधाओं ने उस लायक नहीं छोड़ा है कि पुरानी जीवनशैली को पुनः अपनाया जा सके। इस आधारभूत गर्त में एक हारे हुये मूर्ख जुआरी का जीवन जी रहे हैं हम सब।
ReplyDeleteऐसा लगा जैसे आपने खुद ही प्रश्न किया और खुद ही उसका उत्तर भी दे दिया विचारणीय एवं बहुत ही सार्थक आलेख.....
निश्चित ही सुविधाओं के नाम पर हमने बहुत बड़ा जुआ खेला. जीवन को दाव को पर लगाकर सब कुछ हारते रहे, अंततः जीवन भी.
ReplyDeleteहम सबने सुविधाओं के नाम पर विकास के जुये में इतना बड़ा दाँव लगा दिया कि हार का कष्ट असहनीय हुआ जा रहा है, इतनी बार दाँव लगाया है कि जीने के लिये कुछ बचा भी नहीं। पुरानी स्थिति में भी नहीं लौटा जा सकता है क्योंकि सुविधाओं ने उस लायक नहीं छोड़ा है कि पुरानी जीवनशैली को पुनः अपनाया जा सके। इस आधारभूत गर्त में एक हारे हुये मूर्ख जुआरी का जीवन जी रहे हैं हम सब।
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा है ... इच्छाएँ अनियंत्रित हैं .... आदतें बदल चुकी हैं ... न पुरानी जीवन शैली अपना सकते हैं और नयी के लिए सुविधाएं कम होती जा रही हैं ...
आधारभूत गर्त में एक हारे हुये मूर्ख जुआरी का जीवन जी रहे हैं हम सब। truly said----a aadhaarbhoot saty.........
ReplyDelete----kuchh log ise vikaas kah rahe hain......yah anaavashyak ati-vikaas hai.....yhee vaastav men RAVAN yaa KANS aadi hote hain.....ati-vikaas men jab manavataa vyathit hone lagati hai to ...RAM/ KRISHN naamak praakratik shaktiyaan ---apraakratik vikaas ko nasht kar detee hain.....
----itihaas gavaah hai ki sadaa.......ati-vakasit sabhyataayen sadaa kam vikasit sabhyataaon se paraajit huee hain ....
बीमा एजेण्ट हूँ। घर-घर घूमता हूँ। लगा कि जिन्दगी ही अपने आप में एक जुआ है।
ReplyDelete