सबसे पहले एक मित्र का फोन आया, कहा कि यार अच्छा लिखते थे, बन्द काहे कर दिया? हम सन्न, हम सोचे बैठे थे कि ईमेल के माध्यम से किये सब्सक्रिप्शन में कुछ गड़बड़ हुयी होगी, उन्हें वह सुधारने की सलाह दे बैठे। बाद में पता लगा कि वे फेसबुक से ही हमें पढ़ लेते थे, ईमेल खोलने में आलस्य लगता था उन्हें। कहीं हम उन्हें तकनीक में अनाड़ी न समझ बैठें, इस डर से ईमेल की सलाह पर हामी तो भर गये पर उस पर अमल नहीं किया।
घर गये तो वहाँ पर भी दो परिचित मिले, घूम फिर कर बात अभिरुचियों की आयी। उन्होने कहा कि लेखन अच्छी अभिरुचि है और उसके बाद दो तीन पुरानी पोस्टों पर चर्चा करने लगे। हमारा माथा ठनका, उसके बाद भी बहुत कुछ लिखा था, उसके विषय क्यों नहीं उठाये, मर्यादावश उनकी पसन्द पर ही चर्चा को सीमित रखा। बाद में ज्ञात हुआ कि उन तक भी फीड फेसबुक से ही पहुँचती थी।
कुछ दिन पहले बंगलोर में रहने वाले और मेरे विद्यालय में पढ़े लगभग ४० लोगों का एक मिलन आयोजित किया था अपने घर में। पता लगा कि उसमें से बहुत से लोग ऐसे थे जो ब्लॉगजगत के सक्रिय पाठक थे, लिखते नहीं थे, टिप्पणी भी नहीं करते थे, पर पोस्टें कोई नहीं छोड़ते थे। उनमें से कुछ आकर कहने लगे कि भैया, जब व्यस्तता थोड़ी कम हो जाये तो लेखन पुनः आरम्भ कर दीजियेगा, आपका लिखा कुछ अपना जैसा लगता है। स्नेहिल प्रशंसा में लजा जाना बनता था, सो लजा गये, पर हमें यह हजम नहीं हुआ कि हमने लेखन बन्द कर दिया है। अतिथियों को यह कहना कि वे गलत हैं, यह तुरन्त खायी हुयी खीर के स्वाद को कसैला करने के लिये पर्याप्त था, अतः उन्हें नहीं टोका।
इन तीन घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि पाठकों का एक वर्ग जो विशुद्ध पाठकीय रस के लिये पढ़ता है, पिछले ३ महीनों से हमें पढ़ नहीं पा रहा है। टिप्पणी करने वाले सुधीजन और ब्लॉगों के मालिक अभी भी जुड़े हुये थे, ईमेल या गूगल रीडर के माध्यम से। शेष लोग फेसबुक में प्राप्त लिंक के सहारे पढ़ते थे, हमारे फेसबुक से मुँह मोड़ लेने के कारण वे न चाहते हुये भी हमसे मुँह मोड़ चुके थे। समझ मे तब स्पष्ट आया कि फेसबुक अकेले ही १०० के लगभग पाठक निगल चुका है।
क्या करें तब, अपने आनन्द में बैठे रहना एक उपाय था। चिन्तन के जिस सुलझे हुये स्वरूप में फेसबुक को छोड़ा था, उसे पुनः स्वीकार करने से अहम पर आँच आने का खतरा था। सहेजे समय को बलिदान कर पुनः पहुँच बढ़ाने के लिये गँवा देना हर दृष्टि से अटपटा था। बहुत से ऐसे प्रश्न थे, जिसके निष्कर्ष हानि और लाभ के रूप में ज्ञात तो थे पर किसी एक ओर बैठ जाने की स्पष्टता का आभाव चिन्तन में छाया हुआ था।
निर्णय इसका करना था कि मेरे हठ की शक्ति अधिक है या मुझ पर पाठकों के अधिकार की तीव्रता। निर्णय इसका करना था कि लेखन जो स्वान्तः सुखाय होता था, वह अपना स्वरूप रख पायेगा या पाठकों के अनुरूप विवश हो जायेगा। निर्णय इसका करना था कि पूर्व निर्णयों का मान रखा जाये या अतिरिक्त तथ्य जान कर निर्णय संशोधित किये जायें। निर्णय इसका करना था कि त्यक्त को पुनः अपनाना था या एकान्त में आत्ममुग्धता की वंशी बजाना था।
क्या कोई और तरीका है, ब्लॉग सब तक पहुँचाने का? क्या ब्लॉग के साथ सारी सामाजिकता पुनः ओढ़नी पड़ेगी? प्रश्न किसी विस्तृत आकाश में न ले जाकर पुनः फेसबुक की ओर वापस लिये जा रहा था। जुकरबर्गजी, आप नजरअन्दाज नहीं किये जा सकते हैं, हमारे परिचित और पाठकगण आपके माध्यम से ही मुझे जानना चाहते हैं। आपके बारे में मेरे पूर्व विचार न भी बदलें पर अपनों के सम्पर्क में बने रहने के लिये मुझे आपकी छत में रहने से कोई परहेज नहीं है।
पर इस बार ट्विटर की चूँ चूँ भी साथ में रहेगी हमारे। जब दिखना है तो ढंग से और हर रंग से दिखा जायेगा।