स्थान बंगलोर सिटी रेलवे स्टेशन, प्लेटफार्म 8, समय सायं 7:30 बजे, बंगलोर राजधानी के यात्री स्टेशन आने लगे हैं, यद्यपि ट्रेन छूटने में अभी 50 मिनट का समय है। सड़क यातायात में बहुधा जाम लग जाने के कारण यात्री अपने घर से एक घंटे का अतिरिक्त समय लेकर चलते हैं, ट्रेन छूट जाने से श्रेयस्कर है स्टेशन में एक घंटा प्रतीक्षा करना। सायं होते होते बंगलोर की हवाओं में एक अजब सी शीतलता उमड़ आती है, यात्री प्रतीक्षाकक्ष में न बैठकर पेड़ के नीचे लम्बी बनी सीढियों में बैठकर कॉफी पीते हुये बतियाना पसन्द करते हैं। व्यस्तमना युवा अपने लैपटॉप व मोबाइल के माध्यम से समय के सदुपयोग की व्यग्रता व्यक्त करने लगते हैं। बैटरीचलित गोल्फ की गाड़ियों में सजे अल्पाहार के स्टॉल अपनी जगह पर ही खड़े हो ग्राहकों की प्रतीक्षा और सेवा में निरत हैं, मानो अन्य स्टेशनों की तरह चिल्ला चिल्लाकर ग्राहकों का ध्यान आकर्षित करना कभी उन्होंने सीखा ही नहीं। शान्त परिवेश में बहती शीतल बयार का स्वर स्पष्ट सुनायी पड़ता है।
तभी 8-10 ढोलों का समवेत एक स्वर सुनायी पड़ता है, नियमित वातावरण से अलग एक स्वर सुनायी पड़ता है, यात्रियों का ध्यान थोड़ा सा बटता है पर पुनः वे सब अपने पूर्ववत कार्यों में लग जाते हैं। ढोलों की थाप ढलने की जगह धीरे धीरे बढ़ने लगती है और तेज हो जाती है। यात्रियों की उत्सुकता उनके स्वर की दिशा में बढ़ते कदमों से व्यक्त होने लगती है। प्लेटफार्म पर ही एक घिरे हुये स्थान पर 9 नर्तक ढोल और बड़ी झांझ लिये कलात्मकता और ऊर्जा से नृत्य कर रहे थे, 7 के पास ढोल, एक के पास झांझ और एक के पास बड़ा सा झुनझुना था। झांझ की गति ही ढोल और नृत्य की गति निर्धारित कर रही थी। ढोल नर्तकों के शरीर से किसी अंग की तरह चिपके थे क्योंकि नृत्य में जो उछाल थे, वे ढीले बँधे ढोलों से संभव भी न थे।
इसके पहले कि लोगों को इस उत्सवीय नृत्य का कारण समझ में आता, प्लेटफार्म में नयी नवेली की तरह सजी बंगलोर राजधानी ट्रेन लायी जा रही होती है। जो लोग पहले राजधानी में यात्रा कर चुके थे, उनके लिये राजधानी की नयी ट्रेन को देखना एक सुखद आश्चर्य था, मन का उछाह अब ढोल की थापों से अनुनादित होता सा लग रहा था। राजधानी की पुरानी ट्रेन अपनी क्षमता से अधिक बंगलोरवासियों की सेवा करके जा चुकी थी और उसका स्थान लेने आधुनिकतम ट्रेन आज से अपनी सेवायें देने जा रही थी। यह उत्सवीय थाप उस प्रसन्नता को व्यक्त कर रही थी जो हम सबके हृदय में थी और उस नृत्य में लगी ऊर्जा उस प्रयास का प्रतीक थी जो इस आधुनिकतम ट्रेन को बंगलोर लाने में किये गये।
नृत्य का नाम था डोलू कुनिता, शाब्दिक अर्थ ढोल के साथ उछलना। यह नृत्यशैली उत्तर कर्नाटक के चित्रदुर्गा, शिमोगा और बेल्लारी जिलों की कुरुबा नामक चरवाहा जातियों के द्वारा न केवल अस्तित्व में रखी गयी, वरन सदियों से पल्लवित भी की गयी। इस नृत्य और संगीत की लयात्मकता न केवल शारीरिक व्यायाम, मनोरंजन, धार्मिक अनुष्ठानों और सांस्कृतिक प्रयोजनों से सम्बद्ध है वरन उनके अध्यात्म की पवित्रतम अभिव्यक्ति भी है, जो इस नृत्यशैली के माध्यम से अपने आराध्य की ऊर्जस्वित उपासना के रूप में व्यक्त किया जाता है। आजकल तो इस नृत्य का प्रयोग सामाजिक कुरीतियों से लड़ने के लिये भी किया जा रहा है, संदेश को शब्द, संगीत और भावों में ढालते हुये।
इसकी पौराणिक उत्पत्ति जिस कथा से जुड़ी है, वह भी अत्यन्त रोचक है। एक असुर भगवान शिव को प्रसन्न कर लेता है और भगवान शिव से अपने शरीर में आकर रहने का वर माँग लेता है। शिव उसके शरीर में रहने लगते हैं। वह असुर पूरे हिमालय में उत्पात मचाने लगता है, त्रस्त देवता विष्णु के पास पहुँचते हैं और अनुनय विनय करते हैं। विष्णु असुर का सर काट कर शिव को मुक्त करते हैं, पर शिव कुपित हो जाते हैं। शिव को प्रसन्न करने के लिये असुर के धड़ को ढोल बनाकर विष्णु नृत्य करते हैं। वह प्रथम डोलू कुनिता था, तब से शिव उपासक अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिये इस नृत्य को करते आये हैं। संभवतः ढोल का चपटा और छोटा आकार धड़ का ही प्रतीक है। ढोल की बायीं ओर बकरी और दायीं ओर भेड़ की खाल का प्रयोग दोनों थापों की आवृत्तियों में अन्तर रखने के लिये किया जाता है।
जैसे जैसे ट्रेन के जाने का समय आता है, नृत्य और संगीत द्रुतगतिमय हो जाता है, क्रमशः थोड़ा धीमे, फिर थोड़ा तेज, फिर आनन्द की उन्मुक्त स्थिति में सराबोर, थापों के बीच शान्ति के कुछ पल और फिर वही क्रम। मैं खड़ा दर्शकों को देख रहा था, सबकी दृष्टि एकटक स्थिर और पैरों में एक आमन्त्रित सी थिरकन। ढोलों पर चढ़ते हुये तीन मंजिला पिरामिड बनाकर, गतिमय थापों का बजाना हम सबको रोमांचित कर गया।
नृत्य धीरे धीरे समाप्ति की ओर बढ़ रहा था और राजधानी की नयी ट्रेन अपनी नयी यात्रा प्रारम्भ करने को आतुर थी, इंजन की लम्बी सीटी ढोल की थापों को थमने का संदेश देती है, नृत्य में मगन यात्री दौड़कर अपने अपने कोचों में बैठ जाते हैं। महाकाय ट्रेन प्रसन्नमना अपने गंतव्य दिल्ली को ओर बढ़ जाती है, प्रयास रूपी डोलू कुनिता निष्कर्ष रूपी कुपित शिव को पुनः प्रसन्न कर देते हैं, यात्री सुविधा का एक नया अध्याय बंगलोर मंडल में जुड़ जाता है।
इसके पहले कि लोगों को इस उत्सवीय नृत्य का कारण समझ में आता, प्लेटफार्म में नयी नवेली की तरह सजी बंगलोर राजधानी ट्रेन लायी जा रही होती है। जो लोग पहले राजधानी में यात्रा कर चुके थे, उनके लिये राजधानी की नयी ट्रेन को देखना एक सुखद आश्चर्य था, मन का उछाह अब ढोल की थापों से अनुनादित होता सा लग रहा था। राजधानी की पुरानी ट्रेन अपनी क्षमता से अधिक बंगलोरवासियों की सेवा करके जा चुकी थी और उसका स्थान लेने आधुनिकतम ट्रेन आज से अपनी सेवायें देने जा रही थी। यह उत्सवीय थाप उस प्रसन्नता को व्यक्त कर रही थी जो हम सबके हृदय में थी और उस नृत्य में लगी ऊर्जा उस प्रयास का प्रतीक थी जो इस आधुनिकतम ट्रेन को बंगलोर लाने में किये गये।
नृत्य का नाम था डोलू कुनिता, शाब्दिक अर्थ ढोल के साथ उछलना। यह नृत्यशैली उत्तर कर्नाटक के चित्रदुर्गा, शिमोगा और बेल्लारी जिलों की कुरुबा नामक चरवाहा जातियों के द्वारा न केवल अस्तित्व में रखी गयी, वरन सदियों से पल्लवित भी की गयी। इस नृत्य और संगीत की लयात्मकता न केवल शारीरिक व्यायाम, मनोरंजन, धार्मिक अनुष्ठानों और सांस्कृतिक प्रयोजनों से सम्बद्ध है वरन उनके अध्यात्म की पवित्रतम अभिव्यक्ति भी है, जो इस नृत्यशैली के माध्यम से अपने आराध्य की ऊर्जस्वित उपासना के रूप में व्यक्त किया जाता है। आजकल तो इस नृत्य का प्रयोग सामाजिक कुरीतियों से लड़ने के लिये भी किया जा रहा है, संदेश को शब्द, संगीत और भावों में ढालते हुये।
जैसे जैसे ट्रेन के जाने का समय आता है, नृत्य और संगीत द्रुतगतिमय हो जाता है, क्रमशः थोड़ा धीमे, फिर थोड़ा तेज, फिर आनन्द की उन्मुक्त स्थिति में सराबोर, थापों के बीच शान्ति के कुछ पल और फिर वही क्रम। मैं खड़ा दर्शकों को देख रहा था, सबकी दृष्टि एकटक स्थिर और पैरों में एक आमन्त्रित सी थिरकन। ढोलों पर चढ़ते हुये तीन मंजिला पिरामिड बनाकर, गतिमय थापों का बजाना हम सबको रोमांचित कर गया।
बहुत ख़ूब!!
ReplyDeleteविवरण, नृत्य, रेल, सब सुन्दर!
ReplyDeleteक्या खूब, अनूठी रिपोर्टिंग.
ReplyDeleteबहुत सुंदर विवरण ...विडिओ देखकर आपके शब्द और जीवंत लगे ......
ReplyDeleteअहा! जल्दी नींद खुल जाना बेकार नहीं गया मेरा.और सफ़र की सुबह वाले दिन इसे सुनना और देखना तरोताजा कर गया...तो सफ़र करते हुए भी कहीं मिला जाने की प्रतिक्षा है!!..........एक यात्रा की प्रतिक्षा करती हुई प्रसन्नमना यात्री की बधाई पहूँचा दी जाए इस ग्रुप को.....सादर...
ReplyDeleteकलात्मक संस्मरण संजीदा व रुचिकर बन पड़ा है ,बंगलुरु वासियों को राजधानी मुबारक .....
ReplyDeleteशानदार रहा नई राजधानी रेल का स्वागत |
ReplyDeleteबैंगलूर वासियों को नई आधुनिकतम राजधानी रेल मुबारक हो |
ढोल नगाड़े तो ठीक. पर नई गाड़ी में क्या नई सुविधाएं हैं ये भी तो बता देते...☺
ReplyDeleteडोलू कुनिता की उद्भव कथा के साथ ही नयी रेल सेवा के उद्घाटन पर यह पोस्ट एक सांस्कृतिक अनुभूति सी लगी
ReplyDeleteसुंदर और जीवन्त प्रस्तुति।
ReplyDelete"झांझ की गति ही ढोल और नृत्य की गति निर्धारित कर रही थी।"
उक्त पंक्ति में त्रुटि है। आप ध्यान से सुनेंगे तो स्वयं पाएंगे कि पूरे नृत्य और संगीत की गति को ढोल की थाप ही निर्धारित कर रही है।
वैसे भी संगीत और नृत्य में यह निर्देशन सदैव ही ताल वाद्य का होता है।
पहले मुझे भी लगा था कि ढोल ही गति निर्धारण करते हैं। जो मुखिया होता है, उसके हाथ में झाँझ होती है और उसकी विशिष्ट ध्वनि सब सुन पाते हैं। आठ ढोलों में कौन गति कैसे बढ़ायेगा, यह समन्वय करना बड़ा कठिन है। जब गति बहुत अधिक तेज होती है तो ताल की गति बड़ा सा झुनझुना निश्चित करता है।
Deleteबंगलुरु विविध क्षेत्रो में
ReplyDeleteनए नए प्रयोग
बड़ी खूबसूरती से कर रहा है ।
बहुत सुन्दर ढंग से आपने इसका वर्तांत लिखा है . पढकर आनन्द आ गया
ReplyDeleteवाह...क्या बात है...
ReplyDeleteयात्रियों को मज़ा आ गया होगा..अब जब हम आयेंगे बैंगलोर तो आपको कुछ इसी तरह का प्रबंध करवाना पड़ेगा.. :)
बाई द वे, ये लिखना तो कोई जरूरी नहीं था की "सायं होते होते बंगलोर की हवाओं में एक अजब सी शीतलता उमड़ आती है" :P
...एक पौराणिक कथा के साथ आधुनिकता का संगम !
ReplyDeleteकिसी न किसी रूप से हम अपने अतीत से जुड़े रहना चाहते हैं और इससे हमें अतीव आनंद की प्राप्ति होती है !
बढ़िया धमक ...
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
इस नृत्य शैली का ज्ञान नहीं था. उनकी थापों के एहसास के लिए यूट्यूब में ढूढता हूँ.
ReplyDeleteआप कितना कुछ बताते हैं मेरे ज्ञान से परे ... बहुत अच्छा लगा
ReplyDeleteपुराकथाएँ का कितने मनभावन स्वरूप में हमारी संस्कृति में, कलाओं और साहित्य में अनुस्यूत हो गई हैं-जैसे काल का व्यवधान उनमें ही सिमट गया हो !
ReplyDeleteआपकी वर्णन-शैली आँखों के सामने चित्र पट-सा खोल देती है ,मानस में आनन्द की लहरें उठने लगती हैं .
आभार !
बंगलोर रेलवे मंडल के बारे में और यात्री सुविधा के सन्दर्भ में बेहतरीन जानकारीपूर्ण प्रस्तुति ... यूं. टूयूब बहुत बढ़िया लगा... आभार
ReplyDeleteमक्खन सोच रहा है....फिर तो पंजाबी भांगड़ा भी डोलू कुनिता हुआ...
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जय हिंद...
रोचक और नई जानकारी देता आपका यह आलेख ... आभार सहित बधाई
ReplyDeleteयात्री सुविधा के नए अध्याय का रंगारंग शुभारम्भ इस नृत्य की तर्ज पर सबको ऊर्जा प्रदान कर गया| वीडिओ देखकर अच्छा लगा|
ReplyDeleteएक लोक कला के जीवन्त चित्रण से मानसिक संतोष मिला।
ReplyDeleteरेलवे में अब बहुत से ऐसे परिवर्तनों का समावेश हुआ है जो इसे इस प्रतियोगी युग में अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा करता है।
बहुत सुंदर प्रभावी बेहतरीन जानकारी देती प्रस्तुति,..
ReplyDeleteMY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: गजल.....
बहुत रोचक पोस्ट ! बधाई!
ReplyDeleteनई जानकारी के साथ सुन्दर प्रस्तुति .
ReplyDeleteसंगीत किसी भी रूप में हो , मन मोह लेता है .
नयी राजधानी ट्रेन और डोलू कुनिता नृत्य के माध्यम से पारंपरिक जानकारी ...बहुत अच्छी लगी
ReplyDeleteवाह नई जानकारी ..आपके शब्दों के साथ जैसे अपने पैर भी थिरक रहे थे.
ReplyDeletesamajik jivan in dhol ki thapo se bahut utprerit hota rahta hai
ReplyDeleteलोकनृत्य और राष्ट्रीय रेल का जीवंत अनुभव!!
ReplyDeleteEk anubhav mehsoos hua aapka yeh post padhke
ReplyDeleteडोलू कुनिता' की सुन्दर और प्रभावशाली शैली में जानकारी
ReplyDeleteविडियो ने तो सजीव कर डाला
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति.नई जानकारियाँ भी मिलीं.
ReplyDeleteविडियो में देखकर बहुत अच्छा लगा.
डोलू कुनिता नृत्य के बारे में बहुत सुंदर और रोचक जानकारी. बहुत जीवंत नृत्य..
ReplyDeleteकर्णाटक के उस लोक नृत्य का अनुभव ले लिया.
ReplyDeleteरेल की छुक छुक के साथ नृत्य का धमाल , कितनी समानता है !
ReplyDeleteडोलू कुनिता की रोचक जानकारी!
डोलू कुनिता को जानना सुखद है..
ReplyDeleteवाह प्रवीण जी आपने आँखों देखा हाल इस सुन्दर अंदाज में सुनाया कि अंत तक गति और इंटरेस्ट बना रहा ऐसा लगा कि हम सचमुच वहीँ हैं आपको और बेंगलोर वालों को नई राजधानी मुबारक हो कृपया स्वछता का ध्यान रखे और इसे नई ही रहने दें शुभकामनाएं ...चित्र और विडियो भी बहुत सुन्दर हैं
ReplyDeletebahut sundar aur rochak jankari.....
ReplyDeleteलोकनृत्य का सुंदर वर्णन .....आभार इस संगीतमय पोस्ट के लिए .......डोलू कुनिता ,मेरे लिए संग्रहणीय पोस्ट है ...!!
ReplyDeleteसर जी सुन्दर समाचार और राजधानी एक्सप्रेस ! आज रात मै गरीब रथ से यशवंत पुर आ रहा हूँ !
ReplyDeleteडोलू कुनिता लोकनृत्य का सुंदर जीवंत वर्णन
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति!
जीवंत रिपोर्टिंग। समूचे उल्लास को आपने शब्दों में जीवित कर दिया।
ReplyDeleteइस बार बैंगलोर वापसी मतलब इसी नई ट्रेन में होगी, अब तो बहुत ही उत्सुकता से उस यात्रा का इंतजार है।
ReplyDeleteरोचक जानकारी.|
ReplyDeleteरोचक वर्णन ....
ReplyDeleteVery interesting...there are many such hidden treasures we don't know about.
ReplyDeleteसहज अभिव्यक्ति के साथ रोचक जानकारी
ReplyDeleteआभार
डोलु कुनीता की व्यत्पत्ति कथा तो रोचक थी ही यह रिपोर्ताज अपने आप में अप्रतिम था .वातावरण प्रधान .परिवेश को आन्जता तौलता सा .ताजगी भरी पोस्ट अभिनव विषय पर पढ़ी .बढ़िया अनुभूति हुई .
ReplyDeleteरेल्वे प्लेट्फार्म पर यह नजारा कितनी ही आँखों ने देखा होगा, कितने ही कानों ने ढोल की थाप सुनी होगी, कितने ही पैर उस थाप पर थिरके होंगे. राजधानी चल दी अपनी राह, लोक नर्तक दल चल दिया होगा अपने ठाँव.आपने उन क्षणों को अविस्मरणीय बना दिया.डोलु कुनीता के उद्भव से अब तक के सफर को जीवंत कर दिया. कहना यही शेष रह गया है :- " वो जिधर देख रहे हैं-सब उधर देख रहे हैं.हम तो बस देखने वाले की नज़र देख रहे हैं ".
ReplyDeleteविवरणात्मक रोचक संस्मरण...
ReplyDeleteडोलू कुनिता के बारे में जानकारी और रोचक वर्णन के लिए धन्यवाद ... वीडीओ बेहद पसंद आया ... आभार
ReplyDeleteबढिया जानकारी।
ReplyDeleteवाह! बढ़िया वृत्तांत रहा यह!
ReplyDeleteबेल्लारी से अधिक जुड़ाव रहा है, इसीलिए डोलू कुनिता बहुत नजदीक रहे हैं, अच्छा लगा दुबारा से देखना पढना।
धन्यवाद प्रवीण जी!
वाह!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया जानकारी नृत्य का वर्णन तो रोचक था ही मगर मुझ वह शिव और असुर वाली कहानी पढ़कर बहुत मज़ा आया पहली बार यह कहानी सुनी आभार .....
ReplyDeleteतो नई राजधानी को देख कर हुआ ये डोलू कुनीता । हम तो आपका लेख पढकर कर.......
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteरोचक वृतांत!
रोचक रोचक राजधानी।
ReplyDeleteसच में आपके लेखन ने इसे जीवित कर दिया ... डोलू कुनिता ... अब तो भूलने वाला नहीं ...
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