एक लड़का था, बचपन में देखता था कि सबकी माँ तो घर में ही रहती हैं, घर का काम करती हैं, बच्चों को सम्हालती हैं, पर उसकी माँ इन सब कार्यों के अतिरिक्त एक विद्यालय में पढ़ाने भी जाती है। दोपहर में जब सब बच्चे अपने विद्यालयों से घर आते थे, वे सब कितना कुछ बताते थे अपनी माँओं को, आज यह किया, आज वह किया, किसको अध्यापक ने दण्ड दिया, किसे सराहा गया। वह लड़का चुपचाप अकेले घर आता, सोचता काश उसकी भी माँ को पढ़ाने न जाना पड़ता, उसके पास भी अपनी माँ को बताने के लिये कितना कुछ था, विशेषकर उन दिनों में जब उसे किसी विषय में पूरे अंक मिलते थे, विशेषकर उन दिनों में जब अध्यापक सबके सामने उसकी पीठ ठोंक उसकी तरह बनने का उदाहरण औरों को देते थे।
माँ के जिस समय पर उसका अधिकार था, उसको किसी नौकरी में लगता देखता तो उसे लगता कि उसका विश्व कोई छीने ले रहा है। माँ की नौकरी से एक अजब सी स्पर्धा हो गयी थी, उसे पछाड़ने का विचार हर दिन उसे कचोटता। बचपन के अनुभवों से उत्पन्न दृढ़निश्चय बड़ा ही गाढ़ा होता है जो समय के कठिन प्रवाह में भी अपनी सांध्रता नहीं खोता है। निश्चय मन में घर कर गया कि जब वह नौकरी करने लगेगा तो माँ को नौकरी नहीं करने देगा।
समय आगे बढ़ता है, परिवार के जिस भविष्य के लिये माँ ने नौकरी की, उन्हीं उद्देश्यों के लिये उस लड़के को बाहर पढ़ने जाना पड़ता है, छात्रावास में रहना, छठवीं कक्षा से ही। भाग्य न जाने कौन सी परीक्षा लेने पर तुला हुआ था। कहाँ तो उसे दिन में माँ का आठ-दस घंटे नौकरी पर रहना क्षुब्ध करता था, कहाँ महीनों तक घर न जा पाने की असहनीय स्थिति। पहले भाग्य को जिसके लिये कोसता था, वही स्थिति अब घनीभूत होकर उपहार में मिली। दृढ़निश्चय और गहराया और बालमन यह निश्चय कर बैठा कि वह माँ को नौकरी न कर देने के अतिरिक्त उन्हें अपने साथ रख बचपन के अभाव की पूर्ति भी करेगा।
समय और आगे बढ़ता है, उस लड़के की नौकरी लग जाती है। बचपन से ही समय और भाग्य के साथ मची स्पर्धा में लड़के को पहली बार विजय निकट दीखती है, लगता है कि उन दो दृढ़निश्चयों को पूरा करने का समय आ गया है। माँ की १५ वर्ष की नौकरी तब भी शेष होती है। लड़का अपनी माँ से साधिकार कहता है कि अब आप नौकरी छोड़ दीजिये, साथ में रहिये, अब शेष उत्तरदायित्व उसका। शारीरिक सक्षमता और कर्मनिरत रहने का तर्क माँ से सुन लड़का स्तब्ध रह जाता है, कोई विरोध नहीं कर पाता है, विवशता १५ साल और खिंच जाती है। नौकरी, विवाह और परिवार के भरण पोषण का दायित्व समयचक्र गतिशीलता से घुमाने लगता है, पता ही नहीं चलता कि १५ वर्ष कब निकल गये।
सेवानिवृत्ति का समय, माँ से पुनः साथ चलने का आग्रह, पर छोटे भाई के विवाह आदि के उत्तरदायित्व में फँसी माँ की विवशता, दो वर्ष और निकल जाते हैं। पुनः आग्रह, पर माँ को अपना घर छोड़कर और कहीं रहने की इच्छा ही नहीं रही है, उस घर में स्मृतियों के न जाने कितने सुखद क्षण बसे हुये हैं, उस घर में एक आधी सदी बसी हुयी है। जीवन का उत्तरार्ध उस घर से कहीं दूर न बिताने का मन बना चुकी है उस लड़के की माँ।
उस लड़के की व्यग्रता उफान पर आने लगती है, एक पीढ़ी का चक्र पूरा होने को है। जिस उम्र में उसका दृढ़निश्चय हृदय में स्थापित हुआ था, उस उम्र के उसके अपने बच्चे हैं। स्वयं को दोनों के स्थान पर रख वह अपने बचपन का चीत्कार भलीभाँति समझ सकता है, पर वह अब भी क्यों वंचितमना है, इसका उत्तर उसके पास नहीं है। जीवन भागा जा रहा है, ईश्वर निष्ठुर खड़ा न जाने कौन से चक्रव्यूह रचने में व्यस्त है अब तक। ईश्वर संभवतः इस हठ पर अड़ा है कि उस लड़के ने अधिक कैसे माँग लिया, कैसे इतना बड़ा दृढ़संकल्प इतनी छोटी अवस्था में ले लिया। कहाँ तो सागर की अथाह जलराशि में उतराने का स्वप्न था, और कहाँ एक मरुथल में पानी की बूँद बूँद के लिये तरस रहा है उस लड़के का अस्तित्व।
वर्ष में एक माह के लिये माँ पिता उसके घर आते हैं, साथ रहने के लिये। उस लड़के को भी वर्ष में दस दिन का समय मिल पाता है, जब वह सारा काम छोड़ अपने पैतृक घर में अपने माँ पिता के साथ रहने चला जाता है। लड़का और अधिक कर भी क्या सकता है, ईश्वर यदि एक बालमन के दृढ़निश्चय के यही निष्कर्ष देने पर तुला हुआ है तो इसे उस लड़के की व्यथा ही कही जायेगी।
माँ के जिस समय पर उसका अधिकार था, उसको किसी नौकरी में लगता देखता तो उसे लगता कि उसका विश्व कोई छीने ले रहा है। माँ की नौकरी से एक अजब सी स्पर्धा हो गयी थी, उसे पछाड़ने का विचार हर दिन उसे कचोटता। बचपन के अनुभवों से उत्पन्न दृढ़निश्चय बड़ा ही गाढ़ा होता है जो समय के कठिन प्रवाह में भी अपनी सांध्रता नहीं खोता है। निश्चय मन में घर कर गया कि जब वह नौकरी करने लगेगा तो माँ को नौकरी नहीं करने देगा।
समय आगे बढ़ता है, परिवार के जिस भविष्य के लिये माँ ने नौकरी की, उन्हीं उद्देश्यों के लिये उस लड़के को बाहर पढ़ने जाना पड़ता है, छात्रावास में रहना, छठवीं कक्षा से ही। भाग्य न जाने कौन सी परीक्षा लेने पर तुला हुआ था। कहाँ तो उसे दिन में माँ का आठ-दस घंटे नौकरी पर रहना क्षुब्ध करता था, कहाँ महीनों तक घर न जा पाने की असहनीय स्थिति। पहले भाग्य को जिसके लिये कोसता था, वही स्थिति अब घनीभूत होकर उपहार में मिली। दृढ़निश्चय और गहराया और बालमन यह निश्चय कर बैठा कि वह माँ को नौकरी न कर देने के अतिरिक्त उन्हें अपने साथ रख बचपन के अभाव की पूर्ति भी करेगा।
समय और आगे बढ़ता है, उस लड़के की नौकरी लग जाती है। बचपन से ही समय और भाग्य के साथ मची स्पर्धा में लड़के को पहली बार विजय निकट दीखती है, लगता है कि उन दो दृढ़निश्चयों को पूरा करने का समय आ गया है। माँ की १५ वर्ष की नौकरी तब भी शेष होती है। लड़का अपनी माँ से साधिकार कहता है कि अब आप नौकरी छोड़ दीजिये, साथ में रहिये, अब शेष उत्तरदायित्व उसका। शारीरिक सक्षमता और कर्मनिरत रहने का तर्क माँ से सुन लड़का स्तब्ध रह जाता है, कोई विरोध नहीं कर पाता है, विवशता १५ साल और खिंच जाती है। नौकरी, विवाह और परिवार के भरण पोषण का दायित्व समयचक्र गतिशीलता से घुमाने लगता है, पता ही नहीं चलता कि १५ वर्ष कब निकल गये।
सेवानिवृत्ति का समय, माँ से पुनः साथ चलने का आग्रह, पर छोटे भाई के विवाह आदि के उत्तरदायित्व में फँसी माँ की विवशता, दो वर्ष और निकल जाते हैं। पुनः आग्रह, पर माँ को अपना घर छोड़कर और कहीं रहने की इच्छा ही नहीं रही है, उस घर में स्मृतियों के न जाने कितने सुखद क्षण बसे हुये हैं, उस घर में एक आधी सदी बसी हुयी है। जीवन का उत्तरार्ध उस घर से कहीं दूर न बिताने का मन बना चुकी है उस लड़के की माँ।
वर्ष में एक माह के लिये माँ पिता उसके घर आते हैं, साथ रहने के लिये। उस लड़के को भी वर्ष में दस दिन का समय मिल पाता है, जब वह सारा काम छोड़ अपने पैतृक घर में अपने माँ पिता के साथ रहने चला जाता है। लड़का और अधिक कर भी क्या सकता है, ईश्वर यदि एक बालमन के दृढ़निश्चय के यही निष्कर्ष देने पर तुला हुआ है तो इसे उस लड़के की व्यथा ही कही जायेगी।
"बचपन के अनुभवों से उत्पन्न दृढ़निश्चय बड़ा ही गाढ़ा होता है जो समय के कठिन प्रवाह में भी अपनी सांध्रता नहीं खोता है।"
ReplyDeleteयही सूत्र-वाक्य सहेज कर ले जा रहा हूँ!
जीवन विसंगतियों का समुद्र है किसको क्या मिलता है समुद्र मंथन के बाद यह भाग्य का खेल है |यह कहानी बहुत से बच्चों की कहानी है |बहुत ही गहन मनोविश्लेषण के साथ लिखी एक बेहतरीन पोस्ट |आभार |
ReplyDeleteकिसी कवि का एक दोहा है -
जीवन जीना कठिन है ,विष पीना आसान
इंसा बनकर देख लो हे शंकर भगवान |
एक बालमन के दृढ़निश्चय के यही निष्कर्ष देने पर तुला हुआ है मेरे ख्याल से तो इसे उस लड़के की व्यथा ही कही जायेगी।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति,
MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: कवि,...
काशः कि माँ सिर्फ माँ होती!
ReplyDeleteबच्चे की निर्मल अभिलाषा पर दुनियादारी और व्यावहारिकता ने कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ाया , ये क्या कम है ...वरना माता पिता को साथ रखकर उनकी दुर्गति करने वालों से ही यह संसार भरा पड़ा है !
ReplyDeleteनौकरीपेशा खानाबदोशों की व्यथा कथा। यही कहानी है हर तरफ़!
ReplyDeleteमाँ की विवशता समझ लेगा जिस दिन, मन भले ही व्यग्र हो कृतज्ञता का अनुभव करेगा !
ReplyDeleteपढ़ते पढ़ते मन कहीं और ही घूम आया, लड़के को लगता होगा कि उस जगह में ऐसा क्या है, परंतु लड़का जब उस उम्र में पहुँचेगा तभी उस बात को समझ पायेगा। यह भी प्रकृति प्रदत्त है, हर बात उम्र के साथ ही समझ आती है। बस ऐसा लगता है कि वे दस दिन ही वर्ष के सबसे अच्छे दिन होते हैं, और इतनी ये दिन ही पंख लगाकर उड़ जाते हैं।
ReplyDeleteउस लड़के की कहानी अपनी जैसी प्रतीत हुई . अपनी व्यथा से ज्यादा मां की कर्मठता पर अभिमान भी .
ReplyDeleteजीवन चक्र ऐसा ही है.... माँ पास रहने आ भी जाए तो व्यस्क हो गए उस बच्चे के पास कहाँ अब यथेष्ट समय है कि सारा दिन वो माँ के साथ बिता सके ....जीवन के उत्तरार्द्ध में कोई बुजुर्ग अपनी जगह छोड़ कहीं और नहीं जाना चाहते..हर घर की यही कहानी है..
ReplyDeleteलायिक मदर लायिक बेटा ..दोनों कृत निश्चयी ,संकल्पी और कर्मयोद्धा -बहुत शुभकामनायें!
ReplyDeletemaa .............bechari ko vishram kahan
ReplyDeletewell written
ReplyDeleteअब यही त्रासद समय है कि जिस संतान को लेकर माँ-बाप भविष्य के सपने बुनते हैं,वे ज़रूरत के समय उनके पास नहीं होते.इसमें हमारी जीवन-शैली और इस दुनिया का दस्तूर शामिल है.हम चाहकर भी अपने माता-पिता के पास नहीं रह पाते,अपने बच्चों के भविष्य को देखकर और जिन्हें हमारे साथ भी नहीं रहना है ?
ReplyDeleteबच्चे हों या बड़े .... किस बात को वे कैसे लेते हैं इसे समझना या समझाना मुश्किल है ! सबकी अपनी व्यथा
ReplyDeleteबहुत कुछ कहती है ये कहानी.....एक माँ के बारे में और एक बेटे के बारे में.....ज्यादा तर्क-वितर्क करना बुद्धिजीवियों का काम है...यहाँ एक परिवार की जरूरतें,उनसे जुड़ी समस्याएँ और साथ साथ भावनाएं ही दिखाई देती हैं....चाहे वो माँ हो या बेटा....!
ReplyDeleteलेकिन गज़ब है ये कहानी भी....पिता का जिक्र कहीं नहीं है...शायद माँ-बेटे के बीच किसी की ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई...:)
बढ़िया कहानी.....!!
समझो तो बहुत कुछ...न समझो तो कुछ भी नहीं !
भावनात्मक सोच के साथ लिखा गया एक बेहतरीन व्यवहारिक एवं वैचारिक लेख ..
ReplyDeleteअपने परिवेश का देखा जिया सा सच लगता है .....
कोई व्यथा नहीं है . यह जगत की रीति है . सिर्फ भावनाओं पर जिंदगी नहीं गुजारी जा सकती . इस प्रतिस्पर्धात्मक युग में फिटेस्ट ही सर्वाइव कर सकता है . सौ बरस की जिंदगी से अच्छे हैं प्यार के दो चार दिन -- आखिरी पंक्तियों में यही साबित हो रहा है और सही भी है .
ReplyDeleteकहानी में कहीं कुछ अपनापन सा लग रहा है .
क्या कहें ... यही जीवन है !
ReplyDeleteभावमय करती हुई पोस्ट ...
ReplyDeleteज़रूरी नहीं कि माओं के साथ रहकर बहुत मज़े मे ही रहें लोग
ReplyDeleteBas yabhi to jindagi hai.....
ReplyDeletethat's life
ReplyDeleteye jeevan hain
bachpan mein to kai sapne dekhte hain
par bade hone par usaki sachai samne aa jati hain
aaj ki bhagti daudti jindagi ka sach yahi hain
बचपन के अनुभवों से उत्पन्न दृढ़निश्चय बड़ा ही गाढ़ा होता है जो समय के कठिन प्रवाह में भी अपनी सांध्रता नहीं खोता है। निश्चय मन में घर कर गया कि जब वह नौकरी करने लगेगा तो माँ को नौकरी नहीं करने देगा।
ReplyDeleteजीवन के भाव पक्ष रागात्मकता और कर्तव्य बोध से रु -बा -रु पोस्ट .कृपया इन शब्दों को शुद्ध करें -'आभाव ',
सघनता /सांद्रता /सान्ध्रता में कौन सा शब्द प्रयोग सटीक है ?
मैं भी इसे व्यथा ही कहूँगा प्रवीण जी। वह लड़का और उस से अन्य लड़के संकल्पित रहें किसी भी परिस्थिति में, यही कामना करूँगा।
ReplyDeleteरचयिता जानता है कि सबके निश्चय का सम्मान उसका दायित्व है.. उसके अपने तरीके हैं!!
ReplyDeletebhut hi sundar or mansik uljhan ko chitrit karta aalekh hae .
ReplyDeleteप्रत्येक योग संयोग को अनुकूल बना पाना असम्भव है। इन्ही दुविधाओं से बने है विधि के हाथ।
ReplyDeleteयही ज़िंदगी है...अपना चाहा कब होता है ...बहुत सुन्दर आलेख..
ReplyDeleteमुझे जोशी जी ही याद आते हैं- ''कितना हास्यास्पद है यह त्रास और कितना त्रासद है यह हास्य'' कहने वाले.
ReplyDeleteदिल को छू लिया इस लेख ने।
ReplyDeleteहम भी यही अनुभव कर रहे हैं।
बहुत चाहने पर भी मेरे माँ बाप मेरे साथ अधिक समय नहीं बिता सके।
और आजकल अमरीका में बसी मेरी बेटी को खेद है कि हम उसके साथ ज्यादा समय नहीं बिता रहे हैं।
किसी को दोष नहीं दे सकते।
कारण हैं पारिवारिक परिस्थितियाँ और मजबूरियाँ।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
यही है जीवन की त्रासदी……जब जो चाहो तब वो नही मिलता और अंत मे समझौतों के सहारे ही जीवन गुजरता है।
ReplyDeleteman proposes God disposes.
ReplyDeleteकारण और परिस्थितियाँ जीवन को ढाल देते हैं .... बाल मन की व्यथा तो है लेकिन उसके मन के भाव ने मन जीत लिया
ReplyDeleteMaan agar maan rahe to fir maan hi hai..... par agli peedi is maanpane ko nibha paegi sandeh hai.... fir bhim bhavotprerak rachna hetu shubhkamnaen evm saadhuwad
Delete'एक लडके की व्यथा' में प्रवीण जी आपका मेरा उसका इसका सब का अंश है .प्रेम से आप्लावित मन ता-उम्र उतावला रहता है कुछ करने कर्ज़ उतारने को तब यह व्याकुलता और बढ़ जाती है जब परिस्तिथियाँ अपना रुख लेतीं हैं .माँ के प्रति पुत्र का प्रेम से भरे रहना सहज स्वाभाविक है ता -उम्र वह पत्नी में भी माँ का अंश (अन्न -पूर्णा ,ममता दुलार )तलाशता है .वक्ष स्थल पर सर रख सो जाता है .'और वक्ष के कुसुम कुञ्ज सुरभित विश्राम भवन ये ,जहां मृत्यु के पथिक ठहर कर श्रान्ति दूर करतें हैं (दिनकर जी ).बढ़िया भाव विरेचन करवा जाती है यह पोस्ट जब भी पढो .
ReplyDeleteयाद है वो आलेख जो आपने माँ की नौकरी से सेवानिवृत्ति पर लिखा था।
ReplyDeleteफ़िर से स्वस्थ और सुखद कर्मशील जीवन की कामना करता हूँ।
माँ का बटना कभी अच्छा नहीं लगता ...
ReplyDeleteऔर माँ भी कहाँ चाहेगी यह ...
शुभकामनायें !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteलिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
आपकी प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
अपने मन की हो न सकी तो, 'उसके' मन पर छोड दी।
ReplyDeleteनाव किनारा पा न सकी तो, तूफानों पर छोड दी।।
BAHUT HI BHAVUK KARNE WALI RACHNA.....
ReplyDeleteकभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता.
ReplyDeleteयही है जिंदगी.........
अभी शेष है, माँ के प्रेम में बंधकर बेटे के पास आना अपना सारा समय और प्यार बेटे को देना..
ReplyDeleteकाश कि यह सच होता, और हर लड़के की माँ उसके पास होती !!
जीवन की यही रीत है।
ReplyDelete:( kya kahun...aisa kitno ke saath hota hai!!
ReplyDeleteहम सबकी यही व्यथा कथा है...क्यूँ मन छोटा करते हैं...जीवन चक्र ऐसे ही चलता है...
ReplyDeleteकाश कि बच्चे की इच्छा पूरी हो. कम से कम साल में एक-दो माह के लिए ही हो जाया करे.
ReplyDeleteजिंदगी की यही रीत है हार के बाद ही जीत है.....
ReplyDeleteयही व्यथा तो जीवन की रीत बनी हुई है हर ओर... समय ठहरता नहीं, और हम ठहर नहीं पाते...!
ReplyDeleteजीवन की है यही कहानी,कहीं है सब कुछ तो कहीं कुछ कम है...
ReplyDeleteगया वक्त दुबारा वापस नहीं आता। जिस समय बच्चे को प्यार करना है उसी समय करना चाहिए। समय बीतने के बाद माता पिता चाहकर भी वह प्यार नहीं कर सकते। बच्चा चाह कर भी वह प्यार नहीं पा सकता। आधुनिक जीवन शैली ने घर के प्यार को छीना ही है। भाभी साली जैसे रिश्ते भी कहीं खत्म हो जायेंगे, एक लड़का.. एक लड़की.. बस दो के परिवार में।
ReplyDeleteइस लड़के की तरह मेरे अन्दर भी एक माँ रहती है कैसे भूलूँ एक लड़के की व्यथा कथा .कुछ मेरी है कुछ तेरी है .
ReplyDeleteसाथ रहकर भी कोई दूर हो सकता है और दूर रहकर भी कोई पास हो सकता है...पुत्र के मन का स्नेह माँ के पास पहुँच ही रहा है.
ReplyDeleteलगा कि आपबीती पढ रही हूँ । पर अब साल में छै महीने बच्चों के पास रह कर कसर पूरी कर रहे हैं ।
ReplyDeleteबे-तार ,कार्डलेस, वाई-फाई ,ब्लूटूथ, इन्फ्रा-रेड,रिमोट कंट्रोल, ये सब तकनीक आज की हैं पर "माएँ" जब से सृष्टि बनी है ,अपने बच्चों का ध्यान ,प्यार ,स्नेह,परवरिश बहुत दूर से ही मन से ही कर लेती हैं और उन पर आने वाला हर संकट हर लेती हैं | आपकी माँ के मन में आपके प्रति जिस क्षण स्नेह ,दुलार उत्पन्न हुआ होगा ,निश्चित तौर पर उसी पल आपको उनको याद कर उनके विषय में लिखने का ख्याल आ गया होगा |
ReplyDeleteआपकी ख़ुशबू से स्पष्ट पता चलता है आप किस पौधे के फूल हैं | ऐसे परिवार के विषय में जानकार अपार हर्ष भी होता है और आँखें भी नम हो ही जाती हैं |
हर मन की व्यथा लग रही है।
ReplyDeleteइस कहानी ने इन पंक्तियों की याद दिला दी.
ReplyDeleteगम का खजाना तेरा भी है मेरा भी.
यह अफसाना तेरा भी है मेरा भी.
हर किसी को माँ का स्नेह चाहिए होता है... इसलिए अधिकतर समाजों में पुरुष के काम करने की व्यवस्था है और स्त्री के कंधे पर परिवार की जिम्मेदारी....
ReplyDeleteदुविधाग्रस्त दारूण स्थिति
ReplyDeleteप्रवीण जी बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी है हर किसी से कही न कही जुडी है कहानी के पात्रों में हर कोई अपने को जांच रहा होगा बस इतना कहूँगी की बच्चे का मन बहुत कोमल होता है उसके हर्दय में बचपन में पड़ी दरार को कोई कभी नहीं भर सकता अतः वो टीस ताउम्र उसके साथ चलती है कामकाजी महिलाएं भी जीवन में ये प्यारे पल खो देती है |
ReplyDeletewe never know how current events will morph n twist our future..
ReplyDeletedesires, and realities... there exist a gap b/w them which is a result of responsibilities.. !!
awesome read..
प्रवीन जी ,
ReplyDeleteयह मेरा सौभाग्य है कि " इस लड़के " को मै व्यक्तिगत रूप से जनता हूँ , जो लोग आपके ब्लॉग को 2010 से पढ़ रहे हैं उन्हें भी "इस लड़के " के बारे में पता होगा , संभवतः आपका दूसरा ब्लॉग था जिसमे आपने इस माँ की जीवन यात्रा के कुछ पन्ने उकेरे थे , हमारे समाज कि सुदृढ़ संरचना की आधार "इस माँ " को मेरा शत शत नमन......... ईश्वर से प्रार्थना है माँ का आशीर्वाद , चिरंतन काल तक हमें मिलता रहे
बड़ी सोच और गहरे भाव में मैं भला क्या कह सकता हूँ.. बस एक अनुभव से परिचय हो गया.
ReplyDeleteसच में आज हर परिवार में यह हो रहा है |बच्चे इतनी दूर चले जाते हैं किमिलने को भी तरस जाते हैं |आपने यथार्थ चित्रण कर दिया |बधाई |
ReplyDeleteआशा
सर जी यह तो दिल की बातें हो गयी ! मै भी कामो बेश ऐसी परिस्थितियों से गुजर चूका हूँ ! दिल को सागर बनाने पड़ते है !
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण लेख, आँखें भर आयीं । हम सबके मन की अंतर्व्यथा व अंतर्द्वंद्व को व्यक्त करता लेख ।
ReplyDeleteयथार्थ का चित्रण है ... लगता है जैसे हर कोई इस सच कों झेल रहा है आज ...
ReplyDeleteये हर परिवार की कहानी है ...
ReplyDeleteपूरी कहानी पड़ी और सबके कमेन्ट भी पढे सब से सही और सटीक उत्तर प्रतिभा सक्सेना जी का लगा उनकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ।
ReplyDeleteसबकी अपनी-अपनी कर्म भूमि..वही योद्धा भी .. व्यथा तो सबके हिस्से...
ReplyDeletekya kahun..bas maan ke bete ke man ke bhav padhkar uske prati samman badh gaya...
ReplyDeleteमाँ से अपनी बात शेयर करने का सुख तो कई प्रकार से लिया जा सकता है।
ReplyDeleteअत्यंत भावुक आलेख ।महसुस करने पर हम सब मे वही लडका दिखता है ।बहुत सु्न्दर।आपको कोटि-कोटि नमन।
ReplyDeleteअलग हटके जीवन के महत्वपूर्ण पहलू पर आपकी दृष्टिपात
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, दर्दीला परन्तु आत्मा तक पहुचने वाली
ऐसी रचना के इंतजार में धन्यवाद एवं बधाई
मैं Nirbhay kumar pandey जी से सहमत हूँ.. अपने आप में महसूस करने पर वही दिखता है ...good धन्यवाद
ReplyDeleteNice Bhai good content please help me my site visit me Business idea.healtyfood.hindi story.Funny jokes.motivational quotes in Hindi
ReplyDelete