नास्तिकों का एक बड़ा तर्क है, यदि ईश्वर है तो यह अन्याय और अव्यवस्था क्यों? यदि वह ईश है और दयालु है तो किसी को कोई दुख होना ही नहीं चाहिये। तर्क श्रंखला बढ़ती जाती है और अन्ततः जगत में व्याप्त समस्त दोषों और दुखों के लिये ईश्वर को उत्तरदायी मान लिया जाता है, दोषी मानकर अपराधी घोषित कर दिया जाता है, जीवन के प्रमुखतम तत्वों से निष्कासित कर दिया जाता है। आस्तिकों को सबको सुख न दे पाने वाले का अनुसरण करने के कारण हीन और मूर्ख मान लिया जाता है, अधिक उछलने के लिये प्रतिबंधित कर दिया जाता है।
अव्यवस्था और तज्जनित अन्याय तो फिर भी बना रहता है। अगला दोषी कौन, संस्कृति और उसके संस्कार। व्याप्त दुखों ने फिर दोष सिद्ध किया, संस्कृति और उसके उपासक भी निष्कासित। अगला दोषी कौन, सरकार और उसकी व्यवस्था, दुख हैं तो वह भी अकर्मण्य और अक्षम। व्यवस्था के हर स्तम्भ को ढहाते हैं और बढ़ते जाते हैं, उन्हीं तर्कों से, और अन्ततः पहुँच जाते हैं पूर्ण अव्यवस्था की स्थिति में। कोई व्यवस्था नहीं, सबके अपने अपने विश्व, कोई नियम नहीं, सबके स्वार्थों से संचालित और प्रभावित जीवनक्रम।
जब तर्क सुख और कल्याण के अपेक्षित ध्येय तथा अव्यवस्था की नकारात्मकता पर आधारित हों और स्वयं ही पूर्ण अव्यवस्था की ओर अग्रसर हों तो ऐसे तर्कों को भस्मासुर ही कहा जा सकता है, जिस पर हाथ रखे वही भस्म हो जाये। ऐसे तर्कों से बस यही आग्रह है कि अपने सर पर हाथ रख कर अपना ही विनाश कर लें।
ऐसे भस्मासुरी तर्क रहें न रहें, ईश्वर का अस्तित्व स्थापित हो पाये या न हो पाये, पर पूरे क्रम में एक बात उभर कर सामने आती है और वह है मनुष्य की स्वतन्त्रता। यह मानते हुये कि प्रकृति का सर्वाधिक विकसित मस्तिष्क मनुष्य के पास है, तो जो भी व्यवस्था और अव्यवस्था इस संसार में व्याप्त है, उसके लिये मनुष्य ही उत्तरदायी है।
ऐसा नहीं है कि मनुष्य अव्यवस्थित रहना चाहता है, यदि ऐसा होता तो परिवार, समाज, देश आदि जैसी संस्थायें अस्तित्व में नहीं आतीं। उत्साह इतना अधिक रहा कि जीवन के जिन पक्षों को बाँधने का प्रयास नहीं होना चाहिये था, वह भी होने लगा। चिन्तन और अपना अच्छा बुरा स्वयं समझने का प्राकृतिक अधिकार व्यक्ति के पास होता था, उसे भी बाँधा जाने लगा। अतिव्यवस्था का दंश तो फिर भी सहा जा सकता था पर दूसरों की व्यवस्थाओं में अपनी व्यवस्था का अधिरोपण दुखों की बाढ़ ले आया। युद्धों और सामाजिक समस्याओं का इतिहास अतिव्यवस्था और व्यवस्था अधिरोपण के शब्दों को बार बार अनुनादित करता रहा है।
व्याप्त अव्यवस्था और मनुष्य को मिली स्वतन्त्रता के बीच एक सहज संबंध है, पशुओं को आप नियत व्यवस्था तोड़ते कभी नहीं देखेंगे, एक सधे क्रम में बीतता है उनका जीवन। जब अव्यवस्था हमारे नियन्त्रणमना स्वभाव की उपज है तो उसका दोष ईश्वर को क्यों देना? हमारे तर्क भस्मासुरी न होकर विश्वकर्मा जैसे सृजनात्मक क्यों न हों? अपने दोषों को ईश्वर पर क्यों मढ़ना? यदि हमारा जीवन भी पशुओं जैसा अति नियन्त्रित सा होता तब भी हम दोष ईश्वर को देते, और जब हमें स्वतन्त्रता मिली तो उससे उत्पन्न अव्यवस्था का दोष भी हम ईश्वर पर मढ़ बैठे।
तार्किक दृष्टि से यदि ईश्वर को स्वीकार करते हैं तो उसके द्वारा निर्मित मनुष्य को और उसे प्रदत्त स्वतन्त्रता को भी स्वीकार करना होगा। उस स्थिति में प्रकृति की वृहद व्यवस्था और उसमें उपस्थित मानवकृत अव्यवस्थाओं के समुच्चय को भी स्वीकार करना होगा। धीरे धीरे अव्यवस्थाओं और उनके प्रभावों को सीमित कर के रखने का प्रयास हम सब कर सकते हैं, उन्हें समूल नष्ट करना एक स्वप्न ही होगा।
जिस तर्क श्रंखला का आधार व्यवस्था हो उसके निष्कर्ष भस्मासुरी नहीं हो सकते हैं। व्यवस्था का आधार हो तो अव्यवस्था उपस्थित भले ही रहे पर वह अनियन्त्रित बढ़ नहीं सकती।
ईश्वर बना रहे, मनुष्य बना रहे, बनी रहे मनुष्य की स्वतन्त्रता, बना रहे प्रकृति का व्यवस्थित सृष्टिक्रम और बनी रहे उसमें उपस्थित मानवकृत अव्यवस्था, बने रहें हमारे प्रयास उस अव्यवस्था को सीमित रखने के और बनी रहे विश्व की गति, बस भस्मासुरी तर्कों और उसके उपासकों के हृदय को तनिक शान्ति मिले, यही आस्तिकीय प्रार्थना ईश्वर से है।
जब तर्क सुख और कल्याण के अपेक्षित ध्येय तथा अव्यवस्था की नकारात्मकता पर आधारित हों और स्वयं ही पूर्ण अव्यवस्था की ओर अग्रसर हों तो ऐसे तर्कों को भस्मासुर ही कहा जा सकता है, जिस पर हाथ रखे वही भस्म हो जाये। ऐसे तर्कों से बस यही आग्रह है कि अपने सर पर हाथ रख कर अपना ही विनाश कर लें।
ऐसे भस्मासुरी तर्क रहें न रहें, ईश्वर का अस्तित्व स्थापित हो पाये या न हो पाये, पर पूरे क्रम में एक बात उभर कर सामने आती है और वह है मनुष्य की स्वतन्त्रता। यह मानते हुये कि प्रकृति का सर्वाधिक विकसित मस्तिष्क मनुष्य के पास है, तो जो भी व्यवस्था और अव्यवस्था इस संसार में व्याप्त है, उसके लिये मनुष्य ही उत्तरदायी है।
ऐसा नहीं है कि मनुष्य अव्यवस्थित रहना चाहता है, यदि ऐसा होता तो परिवार, समाज, देश आदि जैसी संस्थायें अस्तित्व में नहीं आतीं। उत्साह इतना अधिक रहा कि जीवन के जिन पक्षों को बाँधने का प्रयास नहीं होना चाहिये था, वह भी होने लगा। चिन्तन और अपना अच्छा बुरा स्वयं समझने का प्राकृतिक अधिकार व्यक्ति के पास होता था, उसे भी बाँधा जाने लगा। अतिव्यवस्था का दंश तो फिर भी सहा जा सकता था पर दूसरों की व्यवस्थाओं में अपनी व्यवस्था का अधिरोपण दुखों की बाढ़ ले आया। युद्धों और सामाजिक समस्याओं का इतिहास अतिव्यवस्था और व्यवस्था अधिरोपण के शब्दों को बार बार अनुनादित करता रहा है।
व्याप्त अव्यवस्था और मनुष्य को मिली स्वतन्त्रता के बीच एक सहज संबंध है, पशुओं को आप नियत व्यवस्था तोड़ते कभी नहीं देखेंगे, एक सधे क्रम में बीतता है उनका जीवन। जब अव्यवस्था हमारे नियन्त्रणमना स्वभाव की उपज है तो उसका दोष ईश्वर को क्यों देना? हमारे तर्क भस्मासुरी न होकर विश्वकर्मा जैसे सृजनात्मक क्यों न हों? अपने दोषों को ईश्वर पर क्यों मढ़ना? यदि हमारा जीवन भी पशुओं जैसा अति नियन्त्रित सा होता तब भी हम दोष ईश्वर को देते, और जब हमें स्वतन्त्रता मिली तो उससे उत्पन्न अव्यवस्था का दोष भी हम ईश्वर पर मढ़ बैठे।
जिस तर्क श्रंखला का आधार व्यवस्था हो उसके निष्कर्ष भस्मासुरी नहीं हो सकते हैं। व्यवस्था का आधार हो तो अव्यवस्था उपस्थित भले ही रहे पर वह अनियन्त्रित बढ़ नहीं सकती।
ईश्वर बना रहे, मनुष्य बना रहे, बनी रहे मनुष्य की स्वतन्त्रता, बना रहे प्रकृति का व्यवस्थित सृष्टिक्रम और बनी रहे उसमें उपस्थित मानवकृत अव्यवस्था, बने रहें हमारे प्रयास उस अव्यवस्था को सीमित रखने के और बनी रहे विश्व की गति, बस भस्मासुरी तर्कों और उसके उपासकों के हृदय को तनिक शान्ति मिले, यही आस्तिकीय प्रार्थना ईश्वर से है।
बेहतरीन शैली में लिखी गयी एक अच्छी पोस्ट |
ReplyDeleteOwing to his lack of knowledge, the ordinary man cannot attempt to resolve conflicting theories of conflicting advice into a single organized structure. He is likely to assume the information available to him is ... a few pieces of an enormous jigsaw puzzle. If a given piece fails to fit, it is ... likely the contradictions and inconsistencies within his information are due to ... the fact that he possesses only a few pieces of the puzzle. Differing statements about the nature of things ... are to be collected eagerly and be made a part of the individual's collection of puzzle pieces. Ultimately, after many lifetimes, the pieces will fit together and the individual will attain clear and certain knowledge. — Alan R. Beals
ReplyDeleteagree!
Deleteजिस तरह देश को चलाने के संविधान है ... उसी तरह धर्म को bhi देखा जाना चाहिए .... एक तार्किक पोस्ट बहुत सुंदर .... सादर
ReplyDeleteजिस तरह देश को चलाने के संविधान है ... उसी तरह धर्म को bhi देखा जाना चाहिए .... एक तार्किक पोस्ट बहुत सुंदर .... सादर
ReplyDeleteप्रकृति प्रपंच गुण अवगुण साना -यह सृजन और भास्मासुरी दोनों वृत्तियों की जनक है ...यह द्वंद्व या द्वैध तो मूलस्थ भाव ही है ..
ReplyDeleteलेख प्रवाहमान विचारयुक्त!
प्रार्थनामय आलेख ....,
ReplyDeleteगहन जीवन दर्शन .......सच बात है ...भस्मासुरी तर्क थोड़े भी कम हो तो उसका repercussion उतना ही अधिक होगा ....
भस्मासुरी तर्क inversely proportional to a happy and healthy mind and eventually ...society .....!!
thoughtfull article ....
बहुत बढ़िया|
Deleteईश्वर को माने या न माने पर, एक ऋत नियम इस सृष्टि का संचालन करता है इसे स्वीकारे.चेतना के निरंतर विकसित होते क्रम मैं ,अब तक संसार में मानव सर्वोच्च श्रेणी में है ,इसलिये उसका कर्तव्य बनता है कि केवल अपने स्वार्थ हेतु नहीं सबके कल्याण को दृष्टि में रख सबकी सुख-शान्ति हित अपनी सामर्थ्य का उपयोग करे .ऐसा न करने पर वह उच्चतर चेतना की ओर बढ़ने के बजाय नीचे लुढ़कने लगेगा .और इससे दुख ,अशान्ति एवं विषमताओँ का चक्रिल क्रम चल पड़ेगा .
ReplyDeleteदुखद तो यह है कि ईश्वर को हमने स्वार्थ के लिए माना है,उसे केवल दुःख दूर करने का साधन मानते हैं.यदि ईश्वर में आस्था होती है तो वह 'conditions apply' के बगैर होती है और सच्चा पुजारी वही है जो उसी की बनाई कृति से घृणा नहीं करता .
ReplyDeleteअति सर्वत्र वर्जयते ...
ReplyDeleteसमाज व्यवस्थापकों को इसका ध्यान रखना होगा ...
शुभ प्रभात प्रवीण भाई !
जो भी व्यवस्था और अव्यवस्था इस संसार में व्याप्त है, उसके लिये मनुष्य ही उत्तरदायी है।
ReplyDeleteनिश्चित ही ...
"जिस तर्क श्रंखला का आधार व्यवस्था हो उसके निष्कर्ष भस्मासुरी नहीं हो सकते हैं। व्यवस्था का आधार हो तो अव्यवस्था उपस्थित भले ही रहे पर वह अनियन्त्रित बढ़ नहीं सकती।"
ReplyDeleteअच्छा और सही निष्कर्ष है. लेकिन हम भारतीय तो हर व्यवस्था को अपने हिसाब से अनुकूलित कर लेते हैं.
वैचारिक आलेख..... एक समस्या यह भी है हम जो भी अव्यवस्था फैलाते हैं उसके जिम्मेदारी भी नहीं लेना चाहते .....
ReplyDeleteप्रकृति अव्यवस्थित नहीं है। वह सर्वत्र नियमों से संचालित होती है। मनुष्य ने उन में से बहुत नियमों को खोजा है बहुत खोजने शेष हैं। मनुष्य प्रयत्नशील है। प्रकृति अव्यवस्थित दिखाई देती है। लेकिन एक वैज्ञानिक उस में व्यवस्था को खोज ही लेता है।
ReplyDeleteईश्वर के अस्तित्व को बहुत लोग स्वीकार करते हैं। लेकिन उस की धारणा तो काल्पनिक ही है। आस्तिक भर्तृहरि उसे 'चिन्मात्र मूर्तये'कहते हैं, तो वह काल्पनिक ही है।
पशु प्रकृति की व्यवस्था का अनुसरण करते हैं, मनुष्य नहीं करता। अर्थात प्रकृति की व्यवस्था को मनुष्य ने तोड़ा है। फिर इस में ईश्वर को बीच में लाने की आवश्यकता नहीं है। उसे मनुष्य को ही ठीक करना होगा। मनुष्य को ही व्यवस्था बनानी होगी। जो भी इस में ईश्वर को बीच में लाते हैं निश्चय ही एक सुव्यवस्था बनाने की अपनी जिम्मेदारी से मुहँ मोड़ रहे हैं। नास्तिक के पास तो ईश्वर है ही नहीं। वह तो इस से मुहँ मोड़ ही नहीं सकता।
मंथन युक्त व्यवहारिक चिंतन प्रस्फुटित हुआ है।
ReplyDeleteप्रकृति के शीर्ष सिंहासन पर बैठा होने के कारण मनुष्य अहंकारी हो गया है। अनियंत्रित भोग-उपभोग उसका लक्ष्य है। ईश्वर को उसने गलतियां आरोपित करने का एक पात्र बना रखा है, अन्दर से तो अभिमान पूर्वक स्वयं को ईश्वर का भी ईश्वर मान मान बैठा है।
सृष्टि की सर्वोच्च चोटी पर बिराजमान होने के कारण आत्मनियंत्रण (संयम) उसका कर्तव्य था। पर वह प्रभुसत्ता में मदमस्त पर-नियंत्रण में व्यस्त हो गया। और सृष्टि के दूसरे सभी अंगो का शोषण अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने लगा और उसे ही विकास कहने लगा। ईश्वर नें शायद ट्रस्टी बनाकर भेजा था, मनुष्य समग्र सृष्टि की सामग्री हड़प कर स्वामी बन बैठा।
" जो भी व्यवस्था और अव्यवस्था इस संसार में व्याप्त है, उसके लिये मनुष्य ही उत्तरदायी है”--सुन्दर निष्कर्श..
ReplyDelete----जिसका सामाधान है....सदाचरित मानव ...इसीलिये मानव द्वारा ईश्वर की कल्पना/स्थापना की गयी....अपनी अपूर्णता को एक पूर्ण आयाम देने हेतु...
" ओम पूर्णमदम पूर्णमिदम,पूर्णात पूर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णामेवावशिष्यते"------
व्यवस्था का आधार हो तो अव्यवस्था उपस्थित भले ही रहे पर वह अनियन्त्रित बढ़ नहीं सकती,..बेहतरीन पोस्ट
ReplyDelete.
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: आँसुओं की कीमत,....
भष्मासुरी तर्क--
ReplyDeleteअंतत: तत्वत: खुद निर्दोष |
प्रभु सत्ता और संस्कृति पर लगे दोष |
Some people may not belive in god but they do believe that there is some high ultimate source of power in the world..
ReplyDeleteएक तार्किक आलेख. आपकी लेखन शैली गज़ब की प्रभावशाली है.
ReplyDeleteबेहद तर्कपूर्ण विश्लेषण...
ReplyDeleteस्वतंत्रता और व्यवस्था के साथ उत्तरदायित्व निभाना भी आ जाए तो भस्मासुरी हठ को निश्चित विराम मिलेगा!
विधि के विधान में कोई घुसपैठ न हो - यही प्रार्थना है
ReplyDeleteहमारे अस्तित्व के होने से व्यवस्था के होने या न होने का भान होता है। इसलिए यह सही है कि मनुष्य ही स्वयं ही जिम्मेदार है। द्विवेदी जी का यह तर्क बहुत ताकतवर है कि आस्तिक के पास तो ईश्वर है ही नहीं, फिर भला वह कैसे अपनी जिम्मेदारी से भाग सकता है।
ReplyDeleteतार्किक विवेचन . विधि -व्यवस्था के अनुरूप चलते रहे और उसमे चुस्ती लाने का प्रयास होने चहिये . भस्मासुर को अपना हाथ अपने सर पर रखना ही पड़ता है .
ReplyDeleteVidhi ka vidhaan hii sarvocch hai.
ReplyDeleteजिस तर्क श्रंखला का आधार व्यवस्था हो उसके निष्कर्ष भस्मासुरी नहीं हो सकते हैं। व्यवस्था का आधार हो तो अव्यवस्था उपस्थित भले ही रहे पर वह अनियन्त्रित बढ़ नहीं सकती।
ReplyDeleteइंसान अपनी घुस पैठ हर जगह करता है और दुख पाता है ... दुख के कारण स्वयं के कर्म हैं ...
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
ReplyDeleteसूचनार्थ!
--
संविधान निर्माता बाबा सहिब भीमराव अम्बेदकर के जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
आपका-
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
रुकना (अपवाद), व्यवस्था के चलते रहने की ही एक स्थिति होती है.
ReplyDeleteजहाँ सहिष्णुता है, विश्वास है, प्रेम है, सदाशयता है, वहाँ पर स्वाभाविक रुप से ईश्वर के प्रति आस्था,प्रकृति के प्रति निष्ठा व मनुष्य मात्र के प्रति प्रेम एवं सद्भावना होगी ही । अति सुंदर व सार्थक लेख हेतु हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteसच...मनुष्य ही उत्तरदायी है.
ReplyDeleteभगवन को तो उसने अपनी ज़िम्मेदारी जिम्मे डालने के लिए इन्वेंट किया हुआ है.
मनुष्य को सर्वोपरि मानकर क्यों नहीं हम भले आदमी की तरह रह सकते?
हमेशा की तरह बढ़िया लेख. अपने अपने तर्क से आपके तर्क को जांचने की स्वतंत्रता तो है ही...
ReplyDeleteशीघ्र अपने देश लौटने वाला हूँ....
व्यस्तता के कारण इतने दिनों ब्लॉग से दूर रहा.
नयी रचना समर्पित करता हूँ. उम्मीद है पुनः स्नेह से पूरित करेंगे.
राजेश नचिकेता.
http://swarnakshar.blogspot.ca/
बहुत बढ़िया लेख आपकी लिखने की शैली बहुत ही गज़ब की है प्रवीण जी
ReplyDeleteदोषारोपण की प्रवृत्ति स्वयं के लिए भी घातक है और समाज के लिए भी।
ReplyDeleteआस्तिक नास्तिक यह तो चर्चा का विषय हमेशा रहा है ! प्राकृतिक नियम और उसकी सम्पदा इन बातो नजर रखके चले तो बहुत से सवाल अपने आप हल हो जाते है !
ReplyDeleteआस्तिकता और नास्तिकता को प्रभावों से दूर भी जिंदगी की व्यवस्थाएं सुचारू चलनी चाहिये.
ReplyDeleteपशुओं को आप नियत व्यवस्था तोड़ते कभी नहीं देखेंगे, एक सधे क्रम में बीतता है उनका जीवन। जब अव्यवस्था हमारे नियन्त्रणमना स्वभाव की उपज है तो उसका दोष ईश्वर को क्यों देना? हमारे तर्क भस्मासुरी न होकर विश्वकर्मा जैसे सृजनात्मक क्यों न हों? अपने दोषों को ईश्वर पर क्यों मढ़ना?
ReplyDeleteअपने दोषों अकर्मण्यता को ईश्वर पर मढना भाग्य वादी दर्शन चिंतन का अभिषेक करना है .यदि सब कुछ ईश्वर ही करता है तब तो कर्म की स्वतंत्रता ही नहीं रहेगी अर्जित कर्म व्यर्थ हो जाएगा .भाग्य फल ऊपर तारी हो जाएगा सब कुछ के .कुछ लोग टा -उम्र रोना रोते रहतें हैं हमारी तो किस्मत में ही ये सब लिखा था .भगवान् भी कितना निर्दयी है
एक बेहतरीन आलेख जहाँ केवल ईश्वर ही दिख रहा है.
ReplyDeleteयही आस्तिकीय प्रार्थना हर ह्रदय से उठती ही है ..
ReplyDeleteईश्वर मेरे लिए सिर्फ़ मन का विश्वास है...जो मुझे गलत रास्ते पर जाने से रोके रखता है...
ReplyDelete
जय हिंद...
ये तो सच ही की दोष देने वाला कम से कम टेंशन में तो नहीं रहता ... किसी न किसी को ढूंढ ही लेता है दोष देने के लिए फिर आराम से बंसी बजाता है ...
ReplyDeleteकाश हम सब समझे असली सत्य को
ReplyDeleteयह लेख पिछले साल वाला मुर्दा उखाड़ने की कोशिश साबित न हो जाय... :)
ReplyDeleteकृपया इसका अवलोकन करें vijay9: आधे अधूरे सच के साथ .....
ReplyDelete.यदि ईश्वर है तो वह भी कार्य कारन सम्बन्ध से मुक्त नहीं है .वह भी इसी सृष्टि का हिस्सा है .इससे अलग आइसोलेटिद बॉडी नहीं है .
ReplyDeleteतर्क बहुत ही आसानी से जुटाए जा सकते हैं और तर्कों से हम वहीं पहुँचते हैं जहॉं पहुँचना चाहते हैं।
ReplyDeletebadia post..
ReplyDeleteव्यवस्था का आधार हो तो अव्यवस्था उपस्थित भले ही रहे पर वह अनियन्त्रित बढ़ नहीं सकती।
ReplyDeletesach kaha praveen ji
नितांत एक सुन्दर आलेख. शुरू से अंत तक रोचकता बनी रही !
ReplyDeleteविचारणीय एवं तार्किक आलेख...किसी पर भी दोषारोपण करना बहुत आसान है किन्तु विकट परिस्थित में भी आस्था और विश्वास बनाए रखना उतना ही मुश्किल....
ReplyDeleteहमेशा की तरह एक और बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteआपके पहले पैराग्राफ में लिखे गए इस वाक्य से मेरी सहमति बिलकुल भी नहीं है : "आस्तिकों को सबको सुख न दे पाने वाले का अनुसरण करने के कारण हीन और मूर्ख मान लिया जाता है, अधिक उछलने के लिये प्रतिबंधित कर दिया जाता है।"
ReplyDeleteउल्टा मैंने देखा है की नास्तिकों के साथ ही अक्सर ऐसा होता है ना की आस्तिको के साथ. नास्तिकों को ही अक्सर मूर्ख-हीन करार देकर अनकहे तौर पर प्रतिबंधित किया जाता है. आखिरकार वे ही तो अल्पसंख्यक हैं !!
अव्यवस्था का भी अक्सर एक निश्चित पैटर्न होता है ,
ReplyDeleteअतः व्यवस्थित अव्यवस्था भी प्रकृति की प्रकृति ही है ,
प्रकृति ही ईश्वर है |
तर्क की अपनी सीमा है. सच तो यह है कि जहाँ तर्क की सीमा समाप्त हो जाती है वही से सत्य शुरू होता है.
ReplyDeletepuurv kii bhaati sundar lekhan shaelii ke saath vichaarniy aalekh,
ReplyDeleteek najar mere blaag par bhii
satya aur shiv ki tarah likha gaya alekh
ReplyDeleteईश्वर के अस्तित्व का सबसे बड़ा आधार, उसके प्रति हमारे मन काविश्वास, कृपया अवलोकन करे ,मेरी नई पोस्ट ''अरे तू भी बोल्ड हो गई,और मै भी''
ReplyDeleteरोचक लेख !अगर ईश्वर कहीं है तो सबसे बड़ा अपराधी मनुष्य होना चाहिए उसकी नज़रों में .प्राकृतिक नियमों का लगातार उल्लंघन करने वाले को जीने का अधिकार कैसे हो ?अव्यवस्था मैं समझती हूँ ,अनिवार्य है एक हद तक,वरना नयी सोच कैसे जन्म लेगी?
ReplyDelete''ईश्वर बना रहे, मनुष्य बना रहे,'',सही कहा और चलता रहे प्रकृति का यह अद्भुत खेल ,एक अनबूझ पहेली की तरह........
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