इंजन शक्ति का प्रतीक है, इंजन विकास की अभिव्यक्ति का प्रतीक है, इंजन गतिमयता का स्रोत है, इंजन विज्ञान के दंभ से ओतप्रोत है। इंजन को जब भी देखता हूँ तो अभिभूत हो जाता हूँ कि किस तरह पदार्थों में निहित ऊर्जा का संदोहन किया जाता है और किस प्रकार उसे गति में बदला जाता है। अभियान्त्रिकी का विद्यार्थी होने के कारण इंजनों से एक विशेष संबंध रहा है, रेलवे में आकर इंजनों के बारे में जानने के अवसर अनवरत मिलता रहा है और यह जिज्ञासा विधिवत पल्लवित होती रही है। जब कभी भी निरीक्षणार्थ कहीं जाना होता है, इंजन में बैठने का अवसर छोड़ता नहीं हूँ।
रेलवे में इंजन के प्रयोग के आयाम विस्तृत हैं। दो मानक हैं, शक्ति और गति, इन दोनों का गुणा क्षमता के रूप में जाना जाता है। शक्ति और गति के विभिन्न अनुपातों में अनेकों इंजनों का प्रारूप रचा जाता है। यात्री गाड़ियों में गति अधिक और मालगाड़ियों में शक्ति अधिक आवश्यक है। पहले ऊर्जा को स्रोत कोयला होता था और हम केवल भाप इंजन ही देखते थे, अब डीजल व बिजली के इंजन ही रेलवे के कार्यसंपादक हैं।
परीक्षा के समय में इस विषय पर कोई व्याख्यान देकर परीक्षार्थियों को भ्रमित करना मेरा उद्देश्य नहीं है और न ही इस विषय में मेरी कोई सिद्धहस्तता ही है। जितनी बार भी इंजन में चढ़ा हूँ, उसके व्यवहारिक पक्ष के बारे में कुछ न कुछ जाना ही है। सिद्धान्त और व्यवहार के बीच एक कितना बड़ा क्षेत्र है जो अभी शेष है जानने के लिये। हर यात्रा एक अनुभव है जो एक पुल का कार्य करती है, सिद्धान्त और व्यवहार के बीच। आप सोचिये कि इस बारे में रेल चालकों से अच्छा कौन बता सकता है, उनके पास एक अथाह अनुभव रहता है, कई हजार घंटों का, कई लाख किलोमीटर का, इंजन की आवाज सुनकर एक डॉक्टर की तरह उसकी सेहत जान जाते हैं रेलवे के चालक।
इंजन की आवाज पर हर बार बड़े ध्यान से सुनता हूँ, डीजल इंजन की आवाज थोड़ी अधिक होती है क्योंकि उसी इंजन में डीजल से विद्युत बनाने का संयन्त्र लगा होता है जब कि बिजली के इंजन को तारों के माध्यम से बनी बनायी बिजली मिलती रहती है। आवाज के एक सामान्य स्तर के ऊपर नीचे जाते ही इंजन के व्यवहार में अन्तर समझ में आने लगता है। खड़े इंजन की आवाज, ट्रेन प्रारम्भ करते समय की आवाज, अधिक भार खींचने की आवाज, अधिक गति में चलने की आवाज, ट्रेन रुकने के समय की आवाज, हर समय एक विशेष आवाज निकालता है इंजन।
ट्रेन चलने की परम्परागत आवाज से आपका परिचय कुछ छुक छुक या कुछ घड घड जैसा होगा। पहले के समय में पटरियाँ हर १३ मीटर पर जुड़ी रहती थी, घड घड की आवाज उसी से आती थी। अभियन्ताओं ने सुरक्षा को उन्नत बनाने के लिये पटरियों को स्टेशनों के बीच सतत जोड़कर उस आवाज का आनन्द हमसे छीन लिया। चलती ट्रेन में अब इंजन की आवाज स्पष्टता और प्रमुखता से सुनायी पड़ती है, कभी कभार आकस्मिक ब्रेक लगाने पर एक लम्बी सी चीईंईं की आवाज सुनायी पड़ती है, जो पहिये और पटरियों के बीच के घर्षण से उत्पन्न होती है।
यदि इंजन की आवाज न्यूनतम हो तो मान लीजिये कि इंजन अपनी नियत शक्ति और गति से चलने में व्यस्त है, उस स्थिति में पीछे चलने वाले डब्बों की आवाज अधिक होती है पर सब थक हार कर इंजन के पीछे चुपचाप चलते रहते हैं। यदि इंजन की आवाज सामान्य से बहुत अधिक हो तो समझ लीजिये कि इंजन अपनी क्षमता से बहुत अधिक या बहुत कम भार वहन कर रहा है। ट्रेन प्रारम्भ करते समय और चढ़ाई पर चढ़ते समय भी इंजन अधिक आवाज करता है। यदि किसी स्टेशन पर आँख बंद कर के भी जाती हुयी ट्रेन की आवाज सुनी जाय तो उपरिलिखित तथ्यों के आधार पर उस ट्रेन के बारे में सब कुछ बताया जा सकता है।
यदि यह सिद्धान्त इंजन तक ही सीमित होता तो संभवतः उतनी उत्सुकता व रोचकता न जगाता। मानव शरीर और मन भी इंजन की तरह ही व्यवहार करते हैं। अपने जीवन को ही देख लीजिये, जब भी जीवन अधिक कोलाहल के बिना चलता रहता है तो मान लीजिये कि जीवन अपनी शारीरिक और मानसिक सामर्थ्य के अनुसार चल रहा है। जब करने के लिये कुछ नहीं रहता है या बहुत अधिक रहता है तो दैनिक जीवन में कोलाहल बढ़ने लगता है। यही प्रयोग अपने कर्मचारियों से भी कर के देखा है, अधिक शोर मचाने वाले कर्मचारी के पास या तो सच में अधिक कार्य रहता है या कुछ भी कार्य नहीं रहता है, या तो उसका कार्य बढ़ा देने से या कुछ कम करने से वह आवाज न्यूनतम स्तर पर पहुँच जाती है। एक कर्मचारी जो अपने कार्य को अपनी नियत शक्ति, गति और क्षमता से करता है, उसकी आवाज सदा ही न्यूनतम रहती है, वह चुपचाप अपने कार्य में लगा रहता है।
एक कार्यरत इंजन से बस इतना ही सीख कर यदि जीवन में उतार लिया जाये तो सारा अस्तित्व गतिमय और ऊर्जस्वित हो जायेगा। जब भी आन्तरिक कोलाहल अधिक हो तो मान लीजिये कि आत्मचिंतन का समय आ गया है, या तो ऊर्जा अनावश्यक क्षय हो रही है या कम पड़ रही है। अपने क्रियाकलाप या तो कम कर लीजिये और क्षमता बढ़ाईये, या कुछ ऐसे कार्यों को करने में लग जाईये जो आपकी क्षमता के अनुरूप हों। मन का कोलाहल कार्यरत इंजन की आवाज जैसा ही है।
रेल चालक यह तथ्य भलीभाँति जानते हैं कि यदि इंजन अधिक आवाज करता रहा तो, या तो वह आगे जाकर ठप्प हो जायेगा या अपनी क्षमता व्यर्थ कर देगा।
आप भी तो अपने जीवन के चालक हैं।
परीक्षा के समय में इस विषय पर कोई व्याख्यान देकर परीक्षार्थियों को भ्रमित करना मेरा उद्देश्य नहीं है और न ही इस विषय में मेरी कोई सिद्धहस्तता ही है। जितनी बार भी इंजन में चढ़ा हूँ, उसके व्यवहारिक पक्ष के बारे में कुछ न कुछ जाना ही है। सिद्धान्त और व्यवहार के बीच एक कितना बड़ा क्षेत्र है जो अभी शेष है जानने के लिये। हर यात्रा एक अनुभव है जो एक पुल का कार्य करती है, सिद्धान्त और व्यवहार के बीच। आप सोचिये कि इस बारे में रेल चालकों से अच्छा कौन बता सकता है, उनके पास एक अथाह अनुभव रहता है, कई हजार घंटों का, कई लाख किलोमीटर का, इंजन की आवाज सुनकर एक डॉक्टर की तरह उसकी सेहत जान जाते हैं रेलवे के चालक।
इंजन की आवाज पर हर बार बड़े ध्यान से सुनता हूँ, डीजल इंजन की आवाज थोड़ी अधिक होती है क्योंकि उसी इंजन में डीजल से विद्युत बनाने का संयन्त्र लगा होता है जब कि बिजली के इंजन को तारों के माध्यम से बनी बनायी बिजली मिलती रहती है। आवाज के एक सामान्य स्तर के ऊपर नीचे जाते ही इंजन के व्यवहार में अन्तर समझ में आने लगता है। खड़े इंजन की आवाज, ट्रेन प्रारम्भ करते समय की आवाज, अधिक भार खींचने की आवाज, अधिक गति में चलने की आवाज, ट्रेन रुकने के समय की आवाज, हर समय एक विशेष आवाज निकालता है इंजन।
ट्रेन चलने की परम्परागत आवाज से आपका परिचय कुछ छुक छुक या कुछ घड घड जैसा होगा। पहले के समय में पटरियाँ हर १३ मीटर पर जुड़ी रहती थी, घड घड की आवाज उसी से आती थी। अभियन्ताओं ने सुरक्षा को उन्नत बनाने के लिये पटरियों को स्टेशनों के बीच सतत जोड़कर उस आवाज का आनन्द हमसे छीन लिया। चलती ट्रेन में अब इंजन की आवाज स्पष्टता और प्रमुखता से सुनायी पड़ती है, कभी कभार आकस्मिक ब्रेक लगाने पर एक लम्बी सी चीईंईं की आवाज सुनायी पड़ती है, जो पहिये और पटरियों के बीच के घर्षण से उत्पन्न होती है।
यदि इंजन की आवाज न्यूनतम हो तो मान लीजिये कि इंजन अपनी नियत शक्ति और गति से चलने में व्यस्त है, उस स्थिति में पीछे चलने वाले डब्बों की आवाज अधिक होती है पर सब थक हार कर इंजन के पीछे चुपचाप चलते रहते हैं। यदि इंजन की आवाज सामान्य से बहुत अधिक हो तो समझ लीजिये कि इंजन अपनी क्षमता से बहुत अधिक या बहुत कम भार वहन कर रहा है। ट्रेन प्रारम्भ करते समय और चढ़ाई पर चढ़ते समय भी इंजन अधिक आवाज करता है। यदि किसी स्टेशन पर आँख बंद कर के भी जाती हुयी ट्रेन की आवाज सुनी जाय तो उपरिलिखित तथ्यों के आधार पर उस ट्रेन के बारे में सब कुछ बताया जा सकता है।
यदि यह सिद्धान्त इंजन तक ही सीमित होता तो संभवतः उतनी उत्सुकता व रोचकता न जगाता। मानव शरीर और मन भी इंजन की तरह ही व्यवहार करते हैं। अपने जीवन को ही देख लीजिये, जब भी जीवन अधिक कोलाहल के बिना चलता रहता है तो मान लीजिये कि जीवन अपनी शारीरिक और मानसिक सामर्थ्य के अनुसार चल रहा है। जब करने के लिये कुछ नहीं रहता है या बहुत अधिक रहता है तो दैनिक जीवन में कोलाहल बढ़ने लगता है। यही प्रयोग अपने कर्मचारियों से भी कर के देखा है, अधिक शोर मचाने वाले कर्मचारी के पास या तो सच में अधिक कार्य रहता है या कुछ भी कार्य नहीं रहता है, या तो उसका कार्य बढ़ा देने से या कुछ कम करने से वह आवाज न्यूनतम स्तर पर पहुँच जाती है। एक कर्मचारी जो अपने कार्य को अपनी नियत शक्ति, गति और क्षमता से करता है, उसकी आवाज सदा ही न्यूनतम रहती है, वह चुपचाप अपने कार्य में लगा रहता है।
एक कार्यरत इंजन से बस इतना ही सीख कर यदि जीवन में उतार लिया जाये तो सारा अस्तित्व गतिमय और ऊर्जस्वित हो जायेगा। जब भी आन्तरिक कोलाहल अधिक हो तो मान लीजिये कि आत्मचिंतन का समय आ गया है, या तो ऊर्जा अनावश्यक क्षय हो रही है या कम पड़ रही है। अपने क्रियाकलाप या तो कम कर लीजिये और क्षमता बढ़ाईये, या कुछ ऐसे कार्यों को करने में लग जाईये जो आपकी क्षमता के अनुरूप हों। मन का कोलाहल कार्यरत इंजन की आवाज जैसा ही है।
रेल चालक यह तथ्य भलीभाँति जानते हैं कि यदि इंजन अधिक आवाज करता रहा तो, या तो वह आगे जाकर ठप्प हो जायेगा या अपनी क्षमता व्यर्थ कर देगा।
आप भी तो अपने जीवन के चालक हैं।
जब करने के लिये कुछ नहीं रहता है या बहुत अधिक रहता है तो दैनिक जीवन में कोलाहल बढ़ने लगता है।
ReplyDeleteसच है हम सब भी तो अपने अपने जीवन के चालक हैं , वैज्ञानिक सोच को गहन वैचारिकता से जीवन के साथ जोड़ा है । जीवन में कोलाहल होने लगे तो आत्मचिंतन आवश्यक हो ही जाता है ।
चलिए हामारे इंजन तो आपका ब्लॉग है बड़े भाई ॥ और हमारे शारीर का इंजन मेरा मन ... सुंदर और ज्ञानवर्धक पोस्ट
Deleteरेल कर्मियों की एक अलग जीवन शैली होती है ....हर बात रेल से ही जुडी होती है ....सोते बैठते उठते जागते खाते पीते ...बस रेल ही दिखती है .....आप ज़रूर मानेंगे मेरी बात ..... ..!!पर आप सभी की इतनी गहरी आस्था ,अपने काम के प्रति देख कर, हम रेल परिवार वालों को बहुत हर्ष होता है |
ReplyDeleteआपके आलेख की खासियत रहती है .....कुछ अपने विचार डाल कर भी पढ़ें ,अंततः बहुत सकारात्मक सोच लिए हुए ही निकलते है इस आलेख से ....
रेल चालक यह तथ्य भलीभाँति जानते हैं कि यदि इंजन अधिक आवाज करता रहा तो, या तो वह आगे जाकर ठप्प हो जायेगा या अपनी क्षमता व्यर्थ कर देगा।
आप भी तो अपने जीवन के चालक हैं।
कितना गहन जीवन दर्शन ....
बहुत बढ़िया आलेख ....शुभकामनायें ....
अनुपमा जी - बहुत ही गहरी सच्चाई को आप ने समझा है मुझे भी कभी - कभी अपने से चिढ आने लगती है क्यों की जहा देखो , वही रेलवे की बात शुरू ! आप ने हमें समझा ! बधाई मेरे तरफ से !
Deleteयह अच्छा व अछूता विषय है, हमारे विभिन्न इंजनों की तुलनात्मक शक्ति और विश्व की अन्य रेल गाड़ियों में हमारा स्थान आदि पढना दिलचस्प रहेगा !
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको
रेल के इंजन से जीवन के इंजन को बखूबी जोड़ा है आपने.अगर किसी भी इंजन के ऊपर क्षमता से अधिक भार होगा तो निश्चित ही वह बैठ जायेगा !
ReplyDeleteमेरा इंजन बहुत शोर करता है,उसका खामियाजा भी भुगत रहा हूँ !!
हर यात्रा एक अनुभव है जो एक पुल का कार्य करती है, सिद्धान्त और व्यवहार के बीच।
ReplyDeleteनिश्चित रूप से इस इसे सिद्धांत रूप में अपनाने की जरुरत है ....आपने एक नवीन विषय का प्रतिपादन जीवन के सन्दर्भ में किया है .......!
इंजन की यह साम्यता, जीवन की इंजील ।
ReplyDeleteकोलाहल अनुनाद की, सुनती देह अपील ।
सुनती देह अपील, तेज चलने की सोचे ।
घर्षण बाढ़े कील, ढील हो लगे खरोंचे ।
गति रहती सामान्य, बजे सरगम मन-रंजन ।
करते यही प्रवीण, सुनों जो कहता इंजन ।।
इस पोस्ट को पढ़ते वक़्त टुकड़ों-टुकड़ों में कुछ बातें मन में आती रहीं ... जैसे
ReplyDelete* गाड़ी बुला रही है .. सीटी बजा रही है .. गाना
* इंजन की आवाज वाले प्रसंग से चिड़ियाघर का घोटक का हंसना।
* हमारे शरीर का इंजन .. दिल .. और उसकी धड़कन।
* कोयला से लेकर बिजली तक का सफर और
* ब्रह्मपुरा रेलवे कॉलोनी!!
मुझे तो गाड़ी बुला रही है ही याद आया.
ReplyDeleteज्ञानवर्धक जानकारी |
ReplyDeleteसारे यंत्र जीवन की गतिविधियों से उपजे हैं। उन में जीवन की छाप होती है। फिर वे जीवन को परिभाषित और प्रभावित करने लगते हैं। यही प्रकृति की द्वंद्वात्मकता है।
ReplyDeleteहमने हमेशा देखा है रेलवेवालों के जीवन में रेल इस सीमा तक समाई रहती है कि उससे हट कर बात करना ही मुश्किल !
ReplyDeleteप्रवीण जी ,(रेल-परिवार बहुत ख़ुश) पर दुनिया में और भी जीवन-शैलियाँ हैं रेलवे के सिवा !
इंजन के बारे में जानकारी बढिया लगी।
ReplyDeleteरेल इंजिन और जीवन !- सरलता से सही मार्गदर्शन
ReplyDeleteप्रवीण जी ..इंजन के माध्यम से आप ने जीवन दर्शन पर गहन बात बता दी....बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख.. आभार..
ReplyDeleteजब भी आन्तरिक कोलाहल अधिक हो तो मान लीजिये कि आत्मचिंतन का समय आ गया है, या तो ऊर्जा अनावश्यक क्षय हो रही है या कम पड़ रही है। अपने क्रियाकलाप या तो कम कर लीजिये और क्षमता बढ़ाईये, या कुछ ऐसे कार्यों को करने में लग जाईये जो आपकी क्षमता के अनुरूप हों। मन का कोलाहल कार्यरत इंजन की आवाज जैसा ही है।
ReplyDeleteजीवन का एक नया दर्शन अध्याय खुला .... सार्थक लेख
अधिक शोर मचाने वाले कर्मचारी के पास या तो सच में अधिक कार्य रहता है या कुछ भी कार्य नहीं रहता है, या तो उसका कार्य बढ़ा देने से या कुछ कम करने से वह आवाज न्यूनतम स्तर पर पहुँच जाती है। एक कर्मचारी जो अपने कार्य को अपनी नियत शक्ति, गति और क्षमता से करता है, उसकी आवाज सदा ही न्यूनतम रहती है, वह चुपचाप अपने कार्य में लगा रहता है।
ReplyDeleteशत प्रतिशत सही है यह प्रेक्षण। मैंने भी इसे कई बार देखा है। थोथा चना बाजे घना।
मनुष्य का शरीर भी तो इंजन की तरह है,जीवन के उतार चढाव के मुताबिक़ ही चाल ढाल बदल जाती है जीवन के इंजन को बखूबी जोड़ा है,
ReplyDeleteRECENT POST...फुहार....: रूप तुम्हारा...
हमारा इंजिन भी कुछ इसी तरह से कार्य करता है, आवाजें और सोच बदलने लगती हैं।
ReplyDeleteइंजन और जीवन के इंजन को इस दृष्टि से देखना सचमुच एक नया तरीका है।
ReplyDeleteजब भी आन्तरिक कोलाहल अधिक हो तो मान लीजिये कि आत्मचिंतन का समय आ गया है, या तो ऊर्जा अनावश्यक क्षय हो रही है या कम पड़ रही है।
ReplyDeleteगहन भाव लिए उत्कृष्ट लेखन ... आभार
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteक्षमता से अधिभार या क्षमता का व्यर्थ बहाव दोनो ही इंजन हो या मानव दोनो के के लिए तनाव सर्जित करता है।
ReplyDelete:)kabhi kabhi lagta tha jab me choti thi tab aapka blog padhna chahiye tha kuch acchi acchi jankariyan mil jati kitabon me sar nahi phodna padta....relgadi relgadi chuk chuk chuk...engine bole.....
ReplyDeleteरेल इंजिन और जीवन ...बहुत अच्छी तुलना....विचारणीय भी..
ReplyDeleteआखिरी पंक्तियों में गज़ब का ज्ञान उड़ेल दिया है.बहुत काम की पोस्ट.
ReplyDeleteखूब ज्ञान मिला महाराज ... जय हो आपकी !
ReplyDeleteआपने रेल इंजन से मनुष्य जीवन को जोड़कर एक अच्छी तुलना की है ....इस लेख के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteRAIL INJAN AUR MANAV JIVAN MEIN SAMANTA HAI
ReplyDeleteकर्मचारियो के बारे में बात बिलकुल सही है आपका आकलन
ReplyDeleteदिलचस्प लेखन..
ReplyDeleteअत्यंत पठनीय पोस्ट्।
ReplyDeleteभाप, डीज़ल और बिजली, तीनों का अनुभव कर चुके हैं।
अब बुल्लेट ट्रेन का इन्तज़ार है।
क्या इस जीवन में भारत में इसे अनुभव कर सकूँगा?
जी विश्वनाथ
अत्यंत पठनीय पोस्ट्।
ReplyDeleteभाप, डीज़ल और बिजली, तीनों का अनुभव कर चुके हैं।
अब बुल्लेट ट्रेन का इन्तज़ार है।
क्या इस जीवन में भारत में इसे अनुभव कर सकूँगा?
जी विश्वनाथ
आजकल आपके ब्लॉग पर टिप्पणी करना एक पेचीदा मामला बन गया है। पता नहीं क्यों Wordpress मुझे दुश्मन समझने लगा है। पिछली बार हमें अपनी टिप्पणी आपको ईमेल द्वारा भेजनी पढी। इस बार गुमनाम बनकर भेज रहा हूँ। देखते हैं कितना सफ़ल होता हूँ। आजकल मेरा google account आपके ब्लॉग पर काम नहीं कर रहा है। पहले कोई परेशानी नहीं हुई थी।
वाह! क्या खूब इंजन और ज़िन्दगी का मेल किया है आपने..
ReplyDeleteइतनी सरल तरीके से गहरी बात बताने के लिए धन्यवाद! :)
सर जी आप को मैंने इंजन में आने के लिए आमंत्रित किया था ! किन्तु आप के लेख को पढ़ कर ऐसा लगा , जैसे आप हुबहू तस्वीर खींचते चले गए है और लोको में ट्रेवल कर रहे हो !सब कुछ बदला , मशीने बदली , किन्तु लोको पायलटो की मुश्किल नहीं बदली ! इंजिन की तरह ही पटरी पर दौड़ती है सांसें ! मै स्टीम इंजिन में भी कार्य किया हूँ , जो मजा उसमे था , वह अब नहीं !हम तो इसके आदी है , पर दूसरो के मुखार बिंदु से पूरी कहानी सुन कर बहुत ख़ुशी होती है ! ऐसे अनुभवी विरले ही होते है !
ReplyDelete'मन का कोलाहल कार्यरत इंजन की आवाज जैसा ही है।'
ReplyDeleteबड़ी सहजता से समझाया गया यह सिद्धांत...
संग्रहणीय पोस्ट!
मुझे अपने बचपन में इस दैत्य के मुंह में जा बैठने का हाहाकारी अनुभव् याद है अभी भी ..मेरे घर के पास बक्शा रेलवे स्टेशन के तत्कालीन स्टेशन मास्टर MERE बाबा जी के जान पहचानी थे -सो बैठा दिया गया था हुंकारते इंजन में -मैं जैसे ही अधमरा दिखा फ़ौरन वापस आ गया था मौत के मुंह से मानो ....
ReplyDeleteआपकी पोस्ट ने वह शैशवास्मृति कुरेद दिया !
इंजन और जिंदगी दोनों को बहुत अच्छे से परिभाषित किया है क्यूंकि दोनों को ही समीप से देखा है बहुत सार्थक सन्देश दिया है आलेख के माध्यम से बहुत अच्छा|
ReplyDeleteकमाल की शक्तिशाली पोस्ट!! अगर उसी भाषा में कहूँ तो WDM/WDG/WDP से लेकर WAM/WAP/WAG के एक साथ सारे जेनरेशन नज़र से गुज़र गए!!
ReplyDeleteप्रवीण जी सदैव ही दर्शन के बीज बो जातें हैं .ट्रेक बदलतें हैं जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल जातें हैं .बायो -डेसिबल लेविल भी और आखिर में सब कुछ शांत हो जाता जीवन चुक जाता है .इंजन की उम्र पूरी हो जाती है .वाह !प्रवीण जी तालाब में कंकरी फैंक कर सांवरे की तरह भाग जाते हो ,साथ में कपडे भी ले जाते हो .,ब्लोगियों के जो आप पर गोपी भाव से रीझती रहतीं हैं /रहतें हैं .आदाब !.
ReplyDeleteअपने काम से प्रेम करने वाले ही ऐसा लेखन कर सकते हैं !
ReplyDeleteरोचक !
इंजन और कर्मचारी की दक्षता के बारे में तुलना एकदम सही है. और आपका यह ऑब्जर्वेशन कि हल्ला करने वाला कर्मचारी या तो बोझ से लदा होगा या खाली होगा भी सटीक है.
ReplyDeleteसर्च इंजनों के इस दौर में सारा जोर स्पीड पर है ट्रेफिक कितना बढ़ गया ,नए सर्च इंजन लाओ -गूगल जी गए तो क्या हो ?
ReplyDeleteइंजन के जरिये मनोविज्ञान
ReplyDeleteकही और लिखने वाला कमेन्ट गलती से यहाँ हो गया था क्षमअ प्रार्थी हूँ. . इंजन की शक्ति और चाल को मनुष्य के जीवन से जोडती हुई बढ़िया चिन्तन .
ReplyDeleteawesome analogy of life and life's engine.. similar in so many ways !!!
ReplyDeleteइंजन की गति, शक्ति और शोर के साथ जीवन का ऐसा गहरा रिश्ता.
ReplyDeleteअद्भुत दर्शन.
इंजन की गति, शक्ति और शोर के साथ जीवन का ऐसा गहरा रिश्ता.
ReplyDeleteअद्भुत दर्शन.
आदमी तो खुद इस सफर की सवारी है .हांका गया है इस दौर में आदमी .काश वह अपना सर्च इंजन बन पाता .
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteआज शुक्रवार
ReplyDeleteचर्चा मंच पर
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति ||
charchamanch.blogspot.com
इंजिनों को देखातो अनगिनत बार किन्तु उनके बारे में इतना सारा जाना पहली बार। यात्री गाडियों और माल गाडियों के इंजिनों में चरित्रगत और आधारभूत अन्तर भी होता है - यह पता नहीं था।
ReplyDeleteBhayi maine to aaj tak itna nahi soncha tha... bachpan se dekhta aa raha hun par aapne jo jaankaari di wo kamaal ki hai...
ReplyDeleteबस हमारी जीवन की तरह..
ReplyDeleteहमारी सोच को एक नया आयाम देती, रोचक जानकारी....
ReplyDeleteवाह! जी वाह! बहुत ख़ूब
ReplyDeleteकृपया इसे भी देखें-
उल्फ़त का असर देखेंगे!
जिस इंजन पर आदमी,करता आज गुमान
ReplyDeleteवह खुद भी इंजन बना,कुदरत भी हैरान
अति प्रभावशाली लेख । आपने बिल्कुल ठीक कहा, किसी उपरकण की आवाज ही एक कुशल इंजिनियर द्वारा उसका स्वास्थ्य व कार्यक्षमता स्थिति जानने हेतु पर्याप्त होती है, वह चाहे एक छोटा सा उपरकण जैसे एक ट्यूबलाइय का छोटा सा चोक हो, या एक साधारण क्षमता का इन्वर्टर अथवा बड़े से बड़े उपकरण जैसे ब्वायलर, टर्बाइन,उच्च क्षमता के कम्प्रेसर , बिजली के विशाल ट्रांसफॉर्मर या आपके लेख में दिये उदाहरण के अनुसार रेल के विशाल क्षमता इंजिन सभी का स्वास्थ्य उनकी आवाज की गुणवत्ता से तुरत समझ में आ जाता है । पुनः इतने सुंदर लेख के लिये बधाई ।
ReplyDeleteमजेदार था यह, और शिक्षाप्रद भी!
ReplyDelete