ऐसा नहीं है कि इस विश्व में कुछ नया नहीं हो रहा है, नित हो रहा है, नये आविष्कार, नयी खोजें, पुरानी चीजों को करने के नये ढंग, उन्नत तकनीक, विश्लेषणात्मक शोध और न जाने कितना कुछ। एक शोध का पूर्ण उपभोग, सम्मिलित उपभोग, बाजार आधारित अर्थव्यवस्था से प्रेरित। उस शोध से जिसको आर्थिक लाभ हुआ, वह किसी दूसरे के शोध से उत्पादित वस्तु का प्रयोग कर रहा है। अन्ततः तो सब प्रकृति का ही उपभोग कर रहे हैं, यत् किञ्चित जगत्यांजगत। वैश्विक अर्थव्यवस्था, साम्यवाद हो या असाम्यवाद हो, सदा ही नकल पर आधारित रही है। दूसरे के शोध का लाभ विश्व ने सम्मिलित उठाया है। तनिक सृजन शेष उपभोग, एक सृष्टा शेष भोक्ता।
कहीं विकास होता है तो लोग उसे देखने लिये विदेश यात्रायें कर डालते हैं, देख कर और सीखकर आते हैं, अपने यहाँ पर उसे लागू भी करते हैं। कोई नया प्रयोग एक अनुकरणीय उदाहरण बन जाता है, सब उसकी नकल करना प्रारम्भ कर देते हैं। सार्वजनिक हित में इसे बुरा नहीं माना जाता है, विकास के लिये इसे बुरा नहीं माना जाता है। दूसरों की अच्छाईयों को समाज के व्यापक हित में अपनाना एक गर्व का विषय समझा जाता है।
विद्यालय या आईआईटी में जो भी गृहकार्य दिया जाता था, वह बहुत कुछ कहीं न कहीं से देखकर ही पूरा होता था, संभवतः उसका प्रायोजन ही वही रहता होगा, नकल से ही सही पर उसे समझना ही सबका सम्मिलित ध्येय रहता होगा। नकल करके भी जो समझना नहीं चाहते हैं, ज्ञान का न होना उनका दुखद पक्ष होता है। जो नकल करके समझ भी लेते हैं, वहाँ ध्येय मार्ग को पवित्र कर देता है।
जगत में फैले नकल संबंधी उदाहरणों पर विहंगम दृष्टि डालने में मेरा उद्देश्य अपने युवा मित्र को कोई सैद्धांतिक समर्थन देना नहीं है, वरन यह समझने का प्रयास है कि नकल किस बिन्दु तक पहुँचते पहुँचते पवित्र से अपवित्र हो जाती है। यद्यपि मेरे युवा मित्र अपने व्यक्तिगत पक्ष को प्रधान मानकर नकल को न्यायसंगत ठहरा रहे हैं, पर मेरे लिये तो नकल उतनी ही प्राकृतिक है जितना कि हमारा अस्तित्व। नकल से होने वाले हानि लाभ को इन उदाहरणों के परिप्रेक्ष्य में समझना आवश्यक हो जाता है।
व्यक्तिगत विकास, परम्परा निर्वाह, सार्वजनिक हित, सामाजिक विकास, बौद्धिक उत्थान आदि में नकल न केवल बड़ी गुणकारी मानी जाती है वरन अत्यन्त आवश्यक भी है। व्यक्तिगत हित, आर्थिक लाभ, प्रतियोगिता आदि में नकल का नाम लेते ही आदर्शवादियों की भृकुटियाँ तन जाती हैं, ऐसा लगता है कि कोई पापकर्म किया जा रहा हो। वैसे भी अब वो दिन रहे नहीं जब बोर्ड की परीक्षा में अच्छे अंक लाने से कोई ठीक ठाक नौकरी मिल जाती थी, आजकल तो चपरासी की नौकरी के लिये भी स्नातकोत्तर योग्य ज्ञान की प्रतियोगी परीक्षायें देनी पड़ती हैं।
हमारे युवामित्र परीक्षा देकर आ गये हैं, नकल की पुर्चियाँ काम आयी हैं, उत्तीर्ण होने की पूरी संभावना है। इस तथाकथित दुष्कर्म का प्रतियोगिता में या कोई आर्थिक लाभ तो वैसे भी नहीं मिलना था उनके लिये, दो व्यक्तिगत लाभ अवश्य हुये उनको। पहला, उन्हें अब खेती में नहीं खटना होगा। दूसरा, बारहवीं पास होने के कारण पढ़े लिखे का ठप्पा लग जायेगा और पिताजी के प्रयासों से किसी सुन्दर कन्या के साथ गृहस्थी बस जायेगी। इन्जीनियर या डॉक्टर के स्वप्न तो पहले भी नहीं देखे थे, व्यक्तिगत श्रम आधारित छोटा मोटा व्यवसाय ही उनके जीवन का आर्थिक आधार बनेगा।
हमारे युवा मित्र की कहानी तो सुखान्त की ओर बढ़ चली है, नकल की घटना उनके लिये एक विशेष अनुभव रही है। जीवन में कभी चिन्तनशीलता जागी तो वह भी नकल, परीक्षा और शिक्षा के ऊपर अनुभवजन्य दार्शनिक आलेख अवश्य लिखेंगे।
नक़ल के बारे में सकारात्मक और यथार्थवादी सोच !
ReplyDeleteरोचक है यह नकालाख्यान ..
ReplyDeleteआखिर फिर नक़ल को मान्यता (परीक्षाओं में) क्यों नहीं दे दी जाती.
नक़ल की सार्वभौमिकता उसके गुण -दोषों पर ही स्वीकार्य होती है ,तथ्यतः नियम -उपनियम ,खोज अविष्कार ,सतत जीव की प्रवृत्तियां हैं अनुकूलन में नक़ल अवश्यम्भावी हो जाता है , हर सीमा को तोड़ हम आत्मसात करते हैं / हाँ नक़ल के लिए भी अक्ल की आवश्यकता है .जी ........बहुत सुन्दर अख्यांश,चिंतन ,शुभकामनायें ...../
ReplyDeleteनक़ल का स्वागत मगर नक्कालों से सावधान
ReplyDeleteरोचक है।
ReplyDeleteजहाँ सीखना होता है, नक़ल बुरी नहीं।
बचपन से करता नक़ल, मातु-पिता की बाल ।
Deleteचाल-ढाल घर बोल से, चले मिला के ताल ।
चले मिला के ताल, बड़े हीरो पर मरते ।
जैसा हो परिदृश्य, मिमिक्री करते करते ।
असली आदत पड़त,नक़ल करता लाता है ।
नक्काली नकलेल, तुड़ा फिर ना पाता है ।।
नक़ल की समझदारी आगे के मार्ग खोलती है ...
ReplyDeleteव्यक्तिगत विकास, परम्परा निर्वाह, सार्वजनिक हित, सामाजिक विकास, बौद्धिक उत्थान आदि में नकल न केवल बड़ी गुणकारी मानी जाती है वरन अत्यन्त आवश्यक भी है।
ReplyDeleteनकल सिद्धान्त काफी विस्तार लिए हुये .... आभार
cheating exists in various forms..
ReplyDeletewe copy assignments, but not from single place rather from multiple sources..
n that way we no longer call it copied, we give it a name of research :P
सीखकर आत्मसात करने के लिए किये गए नक़ल को नक़ल नहीं बोलते . सत्य वचन .
ReplyDeleteरोचक आलेख ....!यहाँ आप नक़ल का सकारात्मक पहलु बता रहे हैं ,तो हम सहमत हैं ...सीखने के लिए नक़ल बुरी नहीं है |बल्कि ये नक़ल तो हर कोई ही करता है |पुर्ची वाली बात हमारी समझ में नहीं आई |परीक्षा लेते समय हमने किसी तरह की नक़ल होने नहीं दी ...!
ReplyDeleteरोचक आलेख,अच्छी प्रस्तुति........
ReplyDeleteMY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: यदि मै तुमसे कहूँ.....
सकारात्मक कार्य के लिए या कुछ सीखने के लिए नकल गलत भी नहीं है.....प्रवीण जी आप ने बहुत ही रोचक ठंग से नकल पर पूरा का पूरा पुराण ही लिख डाला..बहुत सार्थक प्रस्तुति...
ReplyDeleteसीखना हो तो नक़ल में बुराई नहीं.
ReplyDeleteबढ़िया आलेख.
नकल के इतने आयाम! कभी नहीं सोचा था। लगता है, शब्द-ब्रह्म, नाम-ब्रह्म की श्रृंखला में नकल-ब्रह्म को स्थापित करके ही मानेंगे।
ReplyDeleteसत्य है.. बिना नक़ल कुछ भी सीखना असंभव है....परन्तु उसमें अपना सृजन भी झलकना चाहिए - चाहे कम 'स्तर' का ही क्यों न हो.
ReplyDeleteसुन्दर विवेचना... आभार.
नेचर और नर्चर नहीं नेचर एंड नर्चर मिलकर ही तय करतें हैं शख्शियत को .नेचर माने जीवन खंड ,जीवन इकाइयां और नर्चर माने परवरिश अर्जित ज्ञान .यानी नक़ल और अकल अब देखो एक ही हेयर स्टाइल कितने ओढ़े फिरतें हैं .कोई अपने अन्दर किंग खान को ढूंढता है कोई प्रीती जिंटा को ....नक़ल का लोकलुभाऊ संसार सर्वव्यापी है .
ReplyDeleteअनुकरण सि्द्धांत पर सुंदर चितन व उच्चकोटि की प्रस्तुति । भाषा का प्रवाहमयी संतुलन अद्भुत है। ज्ञान तो अनंतसागर है और मानव ग्रहण क्षमता अति अल्प, सीमित, अतः स्वाभाविक है कि हमें दूसरे के अनुकरण व अनुभव से जीवन में अधिकांशतः सीखने का लाभ मिल जाता है, और यह भी एक तरह से प्राकृतिक वरदान ही तो है । किंतु हम जो भी कर्म जीवन में अपनाते हैं, स्वाभाविक हे कि वह सामाजिक नियमाचार व संविधान के अनुरूप होना चाहिये, अतः नकल द्वारा परीक्षा पास करने की व्याप्त कुपरम्परा निश्चय ही निंदनीय व चिंताजनक है । सुंदर प्रस्तुति । बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteयह समझने का प्रयास है कि नकल किस बिन्दु तक पहुँचते पहुँचते पवित्र से अपवित्र हो जाती है
ReplyDeleteकमाल लिखते हैं आप...आपकी लेखनी को मैं सदा नमन करता हूँ...बेजोड़...
नीरज
दो-तीन दिनों तक नेट से बाहर रहा! एक मित्र के घर जाकर मेल चेक किये और एक-दो पुरानी रचनाओं को पोस्ट कर दिया। लेकिन मंगलवार को फिर देहरादून जाना है। इसलिए अभी सभी के यहाँ जाकर कमेंट करना सम्भव नहीं होगा। आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
ReplyDeleteनक़ल में भी अकल की जरूरत तो होती ही है...केवल नक़ल..एक सीमा तक ही काम आती है.
ReplyDeleteइस विषय को जीवन से जोड़ते हुए बड़ा सटीक विवेचन प्रस्तुत किया है...... प्रभावित करते हैं आपके विचार
ReplyDeleteसीखना भी क्या नकल है,और तदनुरूप आचरण भी?पेड़ के सारे पत्ते नकल हैं, पेड़ भी- तो मौलिक क्या है ?
ReplyDeleteराम-राम श्रीमान प्रवीण जी!
ReplyDeleteमैँ कुछ देर पहले जी.के. अवधिया जी के ब्लॉग पर था। वहाँ पर आप सेँ भेँट हुई, तो मैँ यहाँ आपके ब्लॉग पर युहिँ टटोलने चला आया। यहाँ आकर पता चला कि जैसा मैँ पढ़ना चाहता हूँ उससेँ कहीँ अच्छी सामग्री का भण्डार यहाँ पर मोजूद है। यह कहते हुए मैँ अतिशयोक्ती बिल्कुल नहीँ करूंगा कि जैसे किसी भूखे व्यक्ति को असली देशी घी से बना स्वादिष्ट व पोष्टिक भोजन मिलने पर जो आनन्द मिलता, वही आनन्द मुझे आपके चिट्ठे को चख कर मिला। चखना इसलिए लिखा क्योँ कि अभी पूरा पढ़ा नहीँ है, केवल थोड़ा-थोड़ा चखा(पढ़ा) है। अब आराम सेँ पढ़ता रहूंगा। बहुत बहुत धन्यवाद आपका।
श्रीमानजी कुछ दिनो पहले मैँ ब्लॉग सेँ अंजान था, क्योँकि नेट सुविधा नहीँ थी। मुझे पढ़ने का शोक है अतः इधर-उधर सेँ पेपर, पुस्तकेँ इत्यादि जुटा कर पढ़ा करता था, पर हमेँशा परेशानी होती थी।
लेकिन भला हो इन्टरनेट का और हिन्दी ब्लॉग का एवं उन्हे लिखने वालोँ का कि उन्होँने रोचक, मनोरंजक एवं ज्ञानवर्धक आदि गुणो सेँ परिपूर्ण सामग्री उपलब्ध कराई।
नेट की इस दुनियाँ मे नया हुँ, समझिये अनपढ़ हुँ अतः कोई गलती हो तो क्षमा करेँ।
एक बार फिर आपका धन्यवाद!
रोचक नकल व्याख्यानमाला.... :)
ReplyDelete'दसवीं पास हो जाए तो अच्छी बहु अच्छा दहेज़ मिले 'यही फलसफा था सहरावत साहब का .हमने कहा भाई साहब जब इस लड़के का दिमाग पढ़ाई के आलवा मशीन पे ज्यादा चल रहा है तो सीखने दीजिए इसे आप यह काम कहने लगे शर्मा साहब दसवीं पास करना ज़रूरी है नक़ल करादेंगे .वैसे तो पढ़े लिखे ko कोई नहीं पूछता पर छोरी सुथरी मिल जायेगी दहेज़ भी .
ReplyDeleteप्रवीण भाई साहब .कृपयाबतलाएं : पी एन आर नंबर :433-8603180 ,TRAIN NO.16530/UDYAN EXP/१९.०४.2012 बोर्डिंग बंगलौर सिटी जंक्शन SCH DEP 19.04 20:10 BANGALORE CY JN MUMBAI CST क्या अब याल्हंका से बोर्ड कर सकता है .?आप की ब्लॉग पे मीठी आहट रोज़ है वहीँ लिख दें .इस उम्र में छोटी छोटी बातें औत्सुक्य और बे -चैनी बढ़ा देतीं हैं .प्रवृत्ति ऐसी बन गई है शायद दोष उम्र का नहीं रुझान का है .उम्र तो बस ६५ साल ही है .अभी तो कमसे कम दस साल का ब्योंत तो है ही .
कल 09/04/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
अँधा अँधा ठेलिया..सब कूप पड़ंत..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर नक़ल पुराण.....
ReplyDeleteकहते हैं हिंदुस्तान नक़ल से ही आगे बढ़ा है .....बहुत ही सुन्दर और विचारात्मक लेख पाण्डेय जी .....सादर बधाई.
ReplyDeleteहमारा मानना है ,नक़ल के अवसर सिर्फ दबंगों को ही नहीं शर्मिलों और अदबियात वाले छात्रों को भी मिलें पुस्तकें लेजाने की छूट हो .सवाल असली यह है आप की सन्दर्भ सामिग्री और चयन क्या है ,उसकी गुणवता क्या है और जो कुछ करना है एक निर्धारित समय सीमा के अन्दर करना हैं आप कैसे भी करें ,रट कर वक्त बचाकर या समझ कर परीक्षा में ही कैप्स्यूल निकाल कर .सवाल आपके प्रदर्शन का है .
ReplyDeleteनक़ल के लिए देखना / निरीक्षण करना बेसिक ज़रूरत है.
ReplyDeleteब्रह्मा जी की मजबूरी थी कि उन्हें नक़ल करने को रेडीमेड कुछ मिला नहीं;
वरना वे पक्के नकलची सिद्ध होते -
उन्हें चार सिर चारों दिशाओं के निरापद निरीक्षण के लिए ही तो बख्शे गए थे!
क्या खूब लिखा करते हैं आप कि अपन को भी गप्प बनाने का मन हो आता है.
नक़ल की रोचक व्याख्या. इससे जुड़ा हर पहलू आप उद्घाटित कर चुके हैं.
ReplyDeleteनकल ने आज दुनिया चला रखी है
ReplyDeletemujhe shaq tha ki aapne is vishay mein Phd kar rakhi hai, ab wo shaq yakeen mein badal gaya hai :) :)
ReplyDeleteबहुत खूब !
ReplyDeleteनकल में भी अकल हो तो काम चल जाता है। अच्छा आलेख।
ReplyDeleteशानदार...
ReplyDeleteनक़ल की रोचक व्याख्या...
नक़ल में कितना कुछ अहि जो मालुम नहीं था आज से पहले ...
ReplyDeleteबहुतायामी पोस्ट कर दी है आपने ...
सुन्दर रचना..
ReplyDelete-----आदितम ब्रह्मा के मस्तिष्क में भी सरस्वती जी ने ग्यान की झन्कार रूपी नकल डाली थी तब श्रिष्टि बनाने की अकल आई ब्रह्मा को भी.....आगे सारे ब्रह्मा हर कल्प में ...यथापूर्वमकल्पयत....अर्थात विष्णु के याद दिलाने पर पुरा की नकल की भांति ही श्रिष्टि बनाते हैं....अतः आपका यह नकल-पुराण--आदि पुराण -संपूर्ण-पुराण ही माना जाना चाहिये...
Lagta hai aap nakal pe PHd kar rahe hain :)
ReplyDeleteब्रह्मा को छोड़ दिया जाये तो सबको ज्ञान नकल के माध्यम से ही देने का विधान रखा गया है
ReplyDeleteविस्तृत जानकारी प्रस्तुत की है आपने ..आभार ।
नकल का इतना समर्थन और उन्मूल्यन पहली बार पढा । सृष्टि में नकल कंट्रोल सी कंट्रोल व्ही से नही होती बीज में ही सब जानकारी ठूंस ठूंस कर भर दी जाती है किस कोशिका को विभाजित होकर किस प्रकार के अंग बनाना है । तो मौलिकता तो है ही और तो और एक कोशिका में भी पूरा पेड या जंतु बनाने की पूरी जानकारी होती है जैसे कि नकल या क्लोनिंग में होता है । एक बात तो स्पष्ट है कि आप के लिये विषयों की कमी नही है ।
ReplyDeleteलो अब भारत की सिलिकोन वेली में परीक्षार्थियों पर NIGRAANI के लिए सी. सी. कैमरे/क्लोज़ सर्किट टी वी / भी आ गए .क फर्क कीजिये क -साब और परीक्षार्थी में कुछ तो फर्क कीजिएगा .कोई क्रूरता सी क्रूरता है .
ReplyDeleteप्रवीण जी आप जो भी विषय लेते हैं उसे बडी सूक्ष्मता से प्रस्तुत करते हैं । नकल पर इतना गहन विश्लेषण कहीं नहीं पढा ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा www.gyanipandit.com की और से शुभकामनाये !
ReplyDeleteजी बहुत ही उत्तम ब्लॉग पोस्ट Indihealth की और से आपको ढेर सारी शुभकामनायें
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