परीक्षा कक्ष से अधिक आंदोलित क्षेत्र मिलना बहुत कठिन है, मन और मस्तिष्क पूर्णतया आंदोलित रहते हैं उन तीन घंटों में। जितनी ऊष्मा भर जाती होगी, जिस व्यग्रता का साक्षी बनता होगा वह कक्ष, उतनी आतुरता संभवतः उस कक्ष में कभी न जगायी गयी होगी। परीक्षार्थियों पर एक विहंगम दृष्टि डालिये तो अति अव्यवस्थित से लेकर अध्यात्म अवस्थित, सभी प्रकार की भावभंगिमायें दिख जायेंगी। पूरे शरीर में आशीर्वादात्मक चिन्ह लिपटे हुये, टीका, अँगूठी, माला, भभूत। बहुतों के बाल बिखरे हुये, कई अपनी लकी शर्ट या पतलून चढ़ाये, कई नहा धो कर अति व्यवस्थित, सब के सब पिछले वर्ष की पढ़ाई को अंकों में बदलने को तैयार।
ऐसे गरमाये वातावरण में कुछ परमहंसीय मुखमंडल दिख जाते हैं, क्योंकि नकल की पुर्ची छिपी है अतः एक आत्मसंतोष सा झलकता है उनके चेहरे से, पर कहीं अति आत्मविश्वास से किसी को संशय न हो जाये अतः सहजता का आवरण ढकने का प्रयास करते हैं नकलपुर्चीधारी। जिस जिस अंग में पुर्ची की छुअन होती है, वहाँ एक शीतलता सी व्याप्त हो जाती है।
नकल संबधी पूरी तैयारी धरी की धरी रह जाती है यदि प्रश्नपत्र परम्परा से हटकर पूछ लिया जाता है। एक बार पूरा प्रश्नपत्र पढ़ने के बाद समझ आ जाता है कि कितना प्रतिशत पुर्चियों में छिपा हुआ है और वह कितनी देर में कर लिया जायेगा। परीक्षा में भी परीक्षा की घड़ी तब आती है जब नकल की पुर्ची अपने स्थान से निकाल कर उत्तरपुस्तिका के पन्नों के बीच रखनी होती है। निरीक्षक के टहलने का प्रारूप, उसके थोड़ा थककर बाहर जाने का अवसर या उसका आपकी ओर पीठ करने का समय, बस वही अन्तराल पर्याप्त होता है। यदि आपको सबसे पीछे की सीट मिल जाये तो नकल पर नियन्त्रण पूर्ण रहता है।
नियम कड़े होते हैं और बहुत स्थानों में पहले एक घंटे शंकाओं के निवारण हेतु बाहर जाने को नहीं मिलता है। बाथरूम ही सबसे सुरक्षित स्थान रहता है, उपयोग कर ली गयी पुर्चियों को फेंकने का और बहुत अन्दर तक छिपी पुर्चियों को सुविधाजनक स्थान में छिपाने का। वहाँ से वापस आकर उनके चेहरे का संतोष मापा नहीं जा सकता है।
जिनका स्थानीय परिवेश में अधिक अधिकार रहता है, वह नकल के पुर्चियों के कठिन प्रबंधन जैसे रास्ते को नहीं अपनाते हैं। इसमें बहुत श्रम है और निष्कर्ष भगवान भरोसे। उनका प्रथम प्रयास रहता है किसी प्रकार प्रश्नपत्र खिड़की के बाहर फेंक देना, बाहर उन पर जान छिड़कने वाला कोई मित्र उसे किसी तरह पूर्वनिश्चित हल करने वाले के पास ले जाता है, उसे घंटे भर में हल करवाता है और वापस आकर खिड़की से पुनः अन्दर पहुँचाता है। अब परीक्षार्थी का कार्य शेष समय में उसे उतार देने का रहता है। इस विधि में वाह्य परिस्थितियों पर बहुत कुछ निर्भर करता है और निष्कर्ष शेयर बाजारों की तरह बहुत ऊपर या बहुत नीचे आते हैं।
नकल के पूर्ण स्थानीय तरीके भी अपनाये जाते हैं यदि आपको विश्वास हो कि उस कक्ष में कोई इतना योग्य है जो नैया पार करा देगा। आगे पीछे वालों का सहयोग और आवश्यकता पड़ने पर लिखी जा चुकी उत्तरपुस्तिकायें भी याचकों का उद्धार करती हैं। इन छोटे संकर तरीकों से कुछ प्रतिशत ही अंक बढ़ाये जा सकते हैं, उत्तीर्ण होने जैसे महत कार्य के लिये प्रथम दो वर्णित विधियों पर पूरा विश्वास जताते रहे हैं भारत के परीक्षार्थी।
अंग्रेजों के आतंक से तो हमारे वीर क्रांतिकारियों ने हमें मुक्त कर दिया, अंग्रेजी का आतंक हमारे ऊपर अब तक व्याप्त है। जितनी नकलचर्या अंग्रेजी के प्रश्नपत्र में होती है उतनी शेष सभी विषयों में मिलाकर भी नहीं होती होगी, पास होने में अंग्रेजी एक महतबाधा रहती है। इसका प्रमुख कारण है कुछ भी समझ न आना। नकल के लिये कम से कम प्रश्न और उत्तर के बीच संबध स्थापित होना चाहिये। एक परीक्षार्थी महोदय जिन्हें अंग्रेजी का हल प्रश्नपत्र खिड़की से भेजा गया था, वे उसे उतार तक न पाये और अन्त में उत्तरपुस्तिका में ही लगा कर चले आये। एक और घटना में एक परीक्षार्थी की वह पुर्ची निरीक्षक के हाथ लग गयी जिसमें उन्होंने लिख रखा था कि किस विषय की नकलपुर्ची शरीर में कहाँ छिपा रखी है।
क्या अब भी पूछना शेष रहा कि नकल क्षेत्रे युयुत्सवः समवेता मम् बान्धवाः किम् अकुर्वत?
ऐसे गरमाये वातावरण में कुछ परमहंसीय मुखमंडल दिख जाते हैं, क्योंकि नकल की पुर्ची छिपी है अतः एक आत्मसंतोष सा झलकता है उनके चेहरे से, पर कहीं अति आत्मविश्वास से किसी को संशय न हो जाये अतः सहजता का आवरण ढकने का प्रयास करते हैं नकलपुर्चीधारी। जिस जिस अंग में पुर्ची की छुअन होती है, वहाँ एक शीतलता सी व्याप्त हो जाती है।
नकल संबधी पूरी तैयारी धरी की धरी रह जाती है यदि प्रश्नपत्र परम्परा से हटकर पूछ लिया जाता है। एक बार पूरा प्रश्नपत्र पढ़ने के बाद समझ आ जाता है कि कितना प्रतिशत पुर्चियों में छिपा हुआ है और वह कितनी देर में कर लिया जायेगा। परीक्षा में भी परीक्षा की घड़ी तब आती है जब नकल की पुर्ची अपने स्थान से निकाल कर उत्तरपुस्तिका के पन्नों के बीच रखनी होती है। निरीक्षक के टहलने का प्रारूप, उसके थोड़ा थककर बाहर जाने का अवसर या उसका आपकी ओर पीठ करने का समय, बस वही अन्तराल पर्याप्त होता है। यदि आपको सबसे पीछे की सीट मिल जाये तो नकल पर नियन्त्रण पूर्ण रहता है।
नियम कड़े होते हैं और बहुत स्थानों में पहले एक घंटे शंकाओं के निवारण हेतु बाहर जाने को नहीं मिलता है। बाथरूम ही सबसे सुरक्षित स्थान रहता है, उपयोग कर ली गयी पुर्चियों को फेंकने का और बहुत अन्दर तक छिपी पुर्चियों को सुविधाजनक स्थान में छिपाने का। वहाँ से वापस आकर उनके चेहरे का संतोष मापा नहीं जा सकता है।
जिनका स्थानीय परिवेश में अधिक अधिकार रहता है, वह नकल के पुर्चियों के कठिन प्रबंधन जैसे रास्ते को नहीं अपनाते हैं। इसमें बहुत श्रम है और निष्कर्ष भगवान भरोसे। उनका प्रथम प्रयास रहता है किसी प्रकार प्रश्नपत्र खिड़की के बाहर फेंक देना, बाहर उन पर जान छिड़कने वाला कोई मित्र उसे किसी तरह पूर्वनिश्चित हल करने वाले के पास ले जाता है, उसे घंटे भर में हल करवाता है और वापस आकर खिड़की से पुनः अन्दर पहुँचाता है। अब परीक्षार्थी का कार्य शेष समय में उसे उतार देने का रहता है। इस विधि में वाह्य परिस्थितियों पर बहुत कुछ निर्भर करता है और निष्कर्ष शेयर बाजारों की तरह बहुत ऊपर या बहुत नीचे आते हैं।
नकल के पूर्ण स्थानीय तरीके भी अपनाये जाते हैं यदि आपको विश्वास हो कि उस कक्ष में कोई इतना योग्य है जो नैया पार करा देगा। आगे पीछे वालों का सहयोग और आवश्यकता पड़ने पर लिखी जा चुकी उत्तरपुस्तिकायें भी याचकों का उद्धार करती हैं। इन छोटे संकर तरीकों से कुछ प्रतिशत ही अंक बढ़ाये जा सकते हैं, उत्तीर्ण होने जैसे महत कार्य के लिये प्रथम दो वर्णित विधियों पर पूरा विश्वास जताते रहे हैं भारत के परीक्षार्थी।
अंग्रेजों के आतंक से तो हमारे वीर क्रांतिकारियों ने हमें मुक्त कर दिया, अंग्रेजी का आतंक हमारे ऊपर अब तक व्याप्त है। जितनी नकलचर्या अंग्रेजी के प्रश्नपत्र में होती है उतनी शेष सभी विषयों में मिलाकर भी नहीं होती होगी, पास होने में अंग्रेजी एक महतबाधा रहती है। इसका प्रमुख कारण है कुछ भी समझ न आना। नकल के लिये कम से कम प्रश्न और उत्तर के बीच संबध स्थापित होना चाहिये। एक परीक्षार्थी महोदय जिन्हें अंग्रेजी का हल प्रश्नपत्र खिड़की से भेजा गया था, वे उसे उतार तक न पाये और अन्त में उत्तरपुस्तिका में ही लगा कर चले आये। एक और घटना में एक परीक्षार्थी की वह पुर्ची निरीक्षक के हाथ लग गयी जिसमें उन्होंने लिख रखा था कि किस विषय की नकलपुर्ची शरीर में कहाँ छिपा रखी है।
क्या अब भी पूछना शेष रहा कि नकल क्षेत्रे युयुत्सवः समवेता मम् बान्धवाः किम् अकुर्वत?
नक़ल के बारे में अब कुछ अवधारणाएँ बदल रही हैं.पूजा-पाठ करके या संकोच से,छुप-छुपा के नकल करने के दिन अब नहीं रहे.अधिकतर मामलों में वे इसे अपना अधिकार समझने लगे हैं,'सिस्टम' भी इसमें उनकी मदद करता है.
ReplyDeleteकब तक चलेगा यह नकल-पुराण ?
नकल करते हुए भी कभी न पकड़े जाने वाला निश्चय ही संतत्व प्राप्त कर लेता होगा?
ReplyDeleteनकल को नकल कहकर हम उस श्रम का अपमान करते हैं जिसे बड़ी ही संजीदगी से तैयार किया गया था, सेटिंग या जुगाड़ की बनिस्पत बाहर फेंका गया था, अपने इष्ट मित्रों के प्रेम की परख और आपसी समन्वय का एक बेहतरीन नमूना प्रस्तुत किया जाता है।
ReplyDeleteपर्ची हल करने की कवायद में जो कोआर्डिनेशन दिखाया जाता है वह दरअसल भावी-जीवन में होने वाले समस्त जुगाड़ों की परख-परीक्षा ही तो है :)
वैसे भी नकल आज के समाज में बढ़ते आत्मकेन्द्रित भाव, अंतर्मुखी होने की घातक प्रवृत्ति के विपरीत व्यक्तित्व में बहिर्मुखीपन क्रियेट करता है। खुद से पर्चा हल करने वाला बंदा केवल अपने बारे में सोचता है उसी में लीन रहता है जबकि नकल करने वाला सामाजिक दायित्व निभाते हुए अपने आसपास के लोगों की भी खैर-खबर रखता है - "बोल तेरे को चाहिये तो सातवें नंबर के सवाल वाली पर्ची है मेरे पास" :)
नकल करने वाले सिर्फ़ पासिंग मार्क्स के लिए ही नकल करते हैं। नकल से कभी श्रेणियां नहीं बनती। अच्छी पोस्ट
ReplyDeleteआपने तो पूरा प्रबध ही लिख दिया ... भाई सब उन्नति कर रहे है तो हम क्यू पीछे रहे ये कहकर नकलची आज कल technology भी उपयोगिता में ला रहे है .. मोबाइल, ब्लूटूथ इत्यादिका वापर छुपके से किया जाता है !
ReplyDeleteवाह वाह वाह ...लाजवाब तरीके नक़ल के .....
ReplyDeleteकाश की अभी हम पढ़ रहे होते ....
वैसे नाख़ून कुछ बढ़ा लिए जायें तो ज्यादा न लिख हो jaye .....?
बहुत ही रोचक लेखन शैली ,टीका भभूत का जबाब नहीं |
ReplyDeleteविषय पर आपका अधिकार चमत्कृत करता है ....:)
ReplyDeleteपर नकल में भी अकल तो लगती ही है।
ReplyDeleteइतनी मेहनत ...इतना ख़तरा ...और फिर भी कोई आश्वस्ति नहीं ...इससे तो अच्छा है आधा घंटा रोज पढ़ ही लें कम से कम पास तो हो ही जायेंगे ....
ReplyDeleteहमारा तो brain wash हो गाया ...कान पकडे नक़ल नहीं करना ......
आपकी ये पोस्ट विद्यार्थियों को ज़रूर पढ़ना चाहिए ....
हा हा , बढ़िया है जी . सारे क्रिया कलापों पर आपकी दृष्टि . कोई भी कोना अतरा नहीं छोड़ा .ना जाने कितने ऐसे दृश्य घूम गए आँखों के सामने , थोड़े धुंधले ही सही. हुबहू संजय वाली दृष्टि मिली है आपको .
ReplyDeleteअब परीक्षा देनी होती तो अव्वल आते हम भी...... अरविन्दजी की तरह मैं भी हैरान हूँ.... ऐसे विषय पर पोस्ट्स की यह श्रृंखला , कमाल लिखी है.....
ReplyDeleteएक भाई इधर भी हैं: http://www.bhaskar.com/article/HIM-OTH-this-unique-formula-to-copy-out-teachers-have-to-sweat-3055282.html
ReplyDeleteअब तो मुझे आप पर शक हो रहा है ...
ReplyDelete:-)
नकल के लिए भी अक्ल की जरूरत होती है
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रोचक आलेख ,सुंदर बेहतरीन पोस्ट,....
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: मै तेरा घर बसाने आई हूँ...
परीक्षा में भी परीक्षा की घड़ी तब आती है जब नकल की पुर्ची अपने स्थान से निकाल कर उत्तरपुस्तिका के पन्नों के बीच रखनी होती है.............aap ke lekhan mein jo maanviy bhavbhangimaein hain wo abhut hii kam padhne ko milti hain.....ek baar punah anurodh hai kii AchhiKhabar par koi lekh yogdaan karein.
ReplyDeleteachhikhabar@gmail.com
खोंजें होती जा रहीं, बने नक़ल नव-धाम ।
ReplyDeleteनक़ल विधा छूती गई, नए नए आयाम ।
नए नए आयाम, नक़ल ना फ़िल्मी गाना।
अति-जोखिम का काम, करे जो वही सयाना ।
झोंक सामने झूल, फूल सा खिलता मुखड़ा ।
अगर शख्त हो रूल, सुनाता घूमे दुखड़ा ।।
sir aapka lekhan abhibhut karta hai...एक और घटना में एक परीक्षार्थी की वह पुर्ची निरीक्षक के हाथ लग गयी जिसमें उन्होंने लिख रखा था कि किस विषय की नकलपुर्ची शरीर में कहाँ छिपा रखी है।...sab kuch yaad rakhna mushkil hai...
ReplyDeleteपरीक्षा कक्ष से अधिक आंदोलित क्षेत्र मिलना बहुत कठिन है, मन और मस्तिष्क पूर्णतया आंदोलित रहते हैं उन तीन घंटों में। जितनी ऊष्मा भर जाती होगी, जिस व्यग्रता का साक्षी बनता होगा वह कक्ष, उतनी आतुरता संभवतः उस कक्ष में कभी न जगायी गयी होगी। परीक्षार्थियों पर एक विहंगम दृष्टि डालिये तो अति अव्यवस्थित से लेकर अध्यात्म अवस्थित, सभी प्रकार की भावभंगिमायें दिख जायेंगी। पूरे शरीर में आशीर्वादात्मक चिन्ह लिपटे हुये, टीका, अँगूठी, माला, भभूत। बहुतों के बाल बिखरे हुये, कई अपनी लकी शर्ट या पतलून चढ़ाये, कई नहा धो कर अति व्यवस्थित, सब के सब पिछले वर्ष की पढ़ाई को अंकों में बदलने को तैयार।
ReplyDeleteपांडे जी 'प्रवीण 'बहु -आयामीय नक़ल पर आपने काव्यात्मक रोशनी डाली है .यहाँ हम आपको इसके दहशत पैदा करने वाले पक्ष से वाकिफ करवाते हैं .एक दौर आया जब स्थानीय कोलिज के प्राध्यापकों की डयूटी इनविजिलेटर के बतौर अपने शहर से बाहर के महाविद्यालयों में लगने लगी .परीक्षार्थी जहां के तहां यथा स्थान बने रहते थे .शहर था भिवानी हम आये थे नारनौल से सुपर्वाइज़र बनके .हमने देखा इस दरमियान सेंटर सुप्रिन -टेन-देंट भी किस्म किस्म के हैं वैसे ही उनकी छवि बन जाती रही है .कई खानदानी सुप्रिन -टेन -डे -एंट भी नजर आये .इन्हें शाम को शराब पहुँच जाती थी .परीक्षा के दौरान सेंटर में चिल्ल पों डाट डपट खूब होती थी लेकिन नक़ल केस किसी का नहीं बनता था .नक़ल का लाभांश सब तक पहुंचता था .समाज वाद था तो कहीं वह यहीं था .कोई भेद भाव नहीं .
दूसरे किस्म के वह होते थे जिनके बारे में कोई पूर्व वृत्तांत इस बाबत उपलब्ध नहीं था .उनकी परीक्षा की पूर्व संध्या को ही छात्र दादा पिटाई करवा देते थे .ताकि वह परीक्षा के दौरान भयभीत रहें .
पुलिस ?हाँ सिपाही तैनात होते थे सेंटर पर परन्तु उनकी हमदर्दी नक़ल- चियों के साथ रहती थी ,सहयोग भी करते थे पर्ची भी पहुंचाते थे ये लोग .पानी लाने वाला ग्लास के नीचे पर्ची लाता था .टॉयलेट सलाह मश्बिरा पर्ची आदान प्रदान केंद्र के रूप में मुखर रहते थे .यूं खाना पूर्ती को आउट साइड डयूटी स्टाफ होता था .लेकिन वह भी आखिर कहां तक नकलचियों के पीछे जाता .लड़कों का दबदबा रहता था .राजनीति की तरह नक़ल पर भी एक ख़ास वर्ग का प्रभुत्व रहता था .हरियाणा में 'लाल 'बहुत हें .अब लेदेकर 'सिंह 'आयें हैं .वरना राजनीति पर लालों का वर्चस्व रहा है .बाकी सब चीज़ें कैसे काम करेंगी इसके निर्देश ऊपर से यानी यहीं से आते रहें हैं .नक़ल इसका अपवाद कैसे हो सकती है .छात्र राजनीति और नक़ल के अंतर सम्बन्ध पुष्ट रहें हैं ,रहेंगें .एक आयाम यह भी है इस अनेक -आयामीय नक़ल तंत्र का .
प्रशाशन चाहे तो एक पत्ता न हिले .लेकिन शाशन की भी तो स्वीकृति होवे .
कुनबे के कुनबे शरीक रहें हैं इस नक़ल हवन यग्य में . रौनक के दिन होतें हैं शहर गाँव में परीक्षा के दिन .परीक्षा केन्द्रों के गिर्द जाके देख लो .हमने ३८ बरसों तक यह चहल पहल (नक़ल सैर ,नक़ल पर्यटन )देखी है .
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeletehttp://vangaydinesh.blogspot.in/2012/02/blog-post_25.html
http://dineshpareek19.blogspot.in/2012/03/blog-post_12.html
सामयिक , सार्थक पोस्ट.
ReplyDelete:) पूर्ण अवलोकन
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteनकल पुराण की जय हो :))))
ReplyDeleteNakal par shodh jari rahe
ReplyDeleteबहुत गहन अध्ययन नक़ल पर...
ReplyDeleteनकल जैसी चीज को बहुत रोचक ठंग से प्रस्तुत किया है....सार्थक पोस्ट.
ReplyDeleteइस समस्या का हल क्या है....
ReplyDeletekabhi ki nahi bas suna hi suna hai :)
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 05-04-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में ......सुनो मत छेड़ो सुख तान .
अचंभित करता आलेख..
ReplyDeleteपूरा उपन्यास तैयार हो रहा है नकल पर...बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteप्रवीण जी ,यदि लोग अपने अनुभव लिखें सुपर -वाइज़री के तो अच्छा खासा एक शोध -प्रबंध तैयार हो सकता है .बुनियादी विविध आयामीय ढांचा आपने खडा कर दिया है .इस श्रृंखला को ज़ारी रखिये .हम भी टिपण्णी ,अनु -टिपण्णी करते रहेंगें .शुक्रिया .
ReplyDeleteआपके द्रुत रेस्पोंस के लिए आभार .अब मैं निश्चिन्त भाव से येल्हंका(Yelhanka Station) से उद्यान एक्सप्रेस में चढ़ सकता हूँ गाडी संख्या 1653O/PNR NO.433-8603180 /19.04 .2012/UDYAN EXP BRD BANGALORE CY JN SCH DEP 19-04 20:10.
लगता है आप थीसिस लिख डालेंगे :).
ReplyDeleteरोचक.
अरविन्द जी ने क्या कह दिया!
ReplyDeleteआपकी पोस्ट कल 5/4/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें
http://charchamanch.blogspot.com
चर्चा - 840:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
यह नकल पुराण ज़बरदस्त है ... कितनी सूक्ष्मता से आपने अवलोकन किया होगा ... आप भी कहीं भागीदार तो नहीं रहे इसके :):)
ReplyDeleteसहमत हूँ. हिंदी पट्टी में अभी भी अंग्रेजी का आतंक है.
ReplyDeleteहम सब बहुत ही नकलची हो गए हैं।
ReplyDeleteसाधु साधु ... बेहद उम्दा और सजीव चित्रण है महाराज ... जय हो ... जय हो ! कुछ पुरानी यादें हमारी भी ताज़ा हो गयी ... ;-)
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - कब तक अस्तिनो में सांप पालते रहेंगे ?? - ब्लॉग बुलेटिन
कॉपी जाँचते समय सब समझ में आ जाता है -अकल है या कोरी नकल !
ReplyDeleteगज़ब है नक़ल का ज्ञान भी !
ReplyDeleteकॉलेज के ज़माने में मेरे एक मित्र ने बहुत सारी पर्चियाँ बनायीं। कुछ मोजों में कुछ आस्तीन और कुछ अंदर के पाकिटों की शोभा बनी। प्रश्न पत्र जब सामने आया तो वो फूला ना समाया क्यूँकि कई प्रश्न 'हिट' हो गए थे। पर उसकी खुशी तब मायूसी में बदल गई जब पता चला कि जिस पर्ची में ये INDEXING करी थी कि कौन पर्ची कहाँ छुपाई है वही कहीं गिर गई थी। :)
ReplyDeleteनक़ल पुराण .. जय हो
ReplyDeleteप्रवीण जी नमस्ते !
ReplyDeleteये पैतरे कभी अपनाए तो नहीं पर नकलचियों की विभिन्न युक्तियों भंगिमाओं का मजेदार चित्रण पढ़ कर आनंद आया ...
प्रदीप
बहुत ही रोचक और जबरदस्त !
ReplyDeleteइतनी सूक्ष्मता से लिखना सबके बस की बात नहीं है !
आभार !
ऐसे गरमाये वातावरण में कुछ परमहंसीय मुखमंडल दिख जाते हैं, क्योंकि नकल की पुर्ची छिपी है अतः एक आत्मसंतोष सा झलकता है उनके चेहरे से, पर कहीं अति आत्मविश्वास से किसी को संशय न हो जाये अतः सहजता का आवरण ढकने का प्रयास करते हैं नकलपुर्चीधारी। जिस जिस अंग में पुर्ची की छुअन होती है, वहाँ एक शीतलता सी व्याप्त हो जाती है।
ReplyDeleteअद्भुत चित्रण । आपका लेख अति नैसर्गिक व प्रवाहमय रहता है और पढ़कर मन आनंदित हो जाता है ।
वाह जी! क्या बात है!!!
ReplyDeleteइसे भी देखें-
‘घर का न घाट का’
उत्तम लेखन, बढिया पोस्ट - देहात की नारी का आगाज ब्लॉग जगत में। कभी हमारे ब्लाग पर भी आईए।
ReplyDeleteसर जी --नकलचियो और प्रवेक्षक के लिए उपयोगी सामग्री है !
ReplyDeleteएक और घटना में एक परीक्षार्थी की वह पुर्ची निरीक्षक के हाथ लग गयी जिसमें उन्होंने लिख रखा था कि किस विषय की नकलपुर्ची शरीर में कहाँ छिपा रखी है।.... :D ...
ReplyDeleteपूरा लेख तो पसंद आया ही ... मगर के पंक्ति कमाल की है ... :)
जो नक़ल के काम आ गया ,पुरखों का नाम करा गया .
ReplyDeleteबहुत ही रोचक ..नक़ल और पुर्चियों की अनूठी दास्तान....
ReplyDeleteअब नकलचीयो की खैर नही।इस आलेख को पढने के बाद निरीक्षक को नकलचीयो को पकडने मे बहुत मदद् मिलेगी ।सुन्दर आलेख।शत-शत नमन।
ReplyDeleteलघु शोध आलेख का आनन्द आया इस पोस्ट में।
ReplyDeleteसमूचे विद्यार्थी जीवन के, अपने एक मात्र अनुभव के आधार पर कह पा रहा हूँ - नकल करना, मूल पाठ याद करने से भी अधिक कठिन है।
यह नकल शृंखला भी शानदार रही।
ReplyDeleteवाह..........भाई बधाई हो.........आपने नक़ल प्रणाली पर अपने शोधकार्य को जिसतरह संसदीय भाषा का प्रयोग करते हुए व्यंग्य किया है.......वह सराहनीय एवं अनुकरणीय (मतलब नकल करने योग्य) है !!!!
ReplyDeletenakal ke tareeko ke bare mein itna achche se to aaj hi pata chala...varna exam mein to ye halat rahti thi ki ye bhi na pata chalta tha ki aage peeche, daye aur baye baitha kaun hai...:)
ReplyDeleteपुराने दिल याद दिला रहे हैं....अब क्यों बताएं कि हमने कैसे कैसे क्या किया
ReplyDeletethis Cheating Series is becoming more interesting with every post :)
ReplyDeleteऐसे गरमाये वातावरण में कुछ परमहंसीय मुखमंडल दिख जाते हैं, क्योंकि नकल की पुर्ची छिपी है अतः एक आत्मसंतोष सा झलकता है उनके चेहरे से । पता कैसे चलता है कि कौन से प्रश्न आयेंगे । आपने नकल पर पूरी सीरीज़ बना ली है क्या ?
ReplyDelete