जब युवा मित्र निश्चय कर चुके थे कि नकल पूर्णतया न्यायसंगत और धर्मसंगत है तो उन्हें पढ़ने के लिये उकसाने का तथा कोई महत्वपूर्ण अध्याय पढ़ा देने का अर्थ शेष नहीं रहा था। जब वर्ष भर कुछ नहीं पढ़ा तो अन्त के दो दिन पढ़ने की उत्पादकता से कहीं अधिक प्रभावी होती है, नकल की पर्ची बनाने में लगे श्रम की उत्पादकता। फिर भी एक बार कुछ पाठ्यक्रम समझाने का प्रयास किया पर आँखों में शून्य और ग्रहणीय-घट को उल्टा पाकर हमारा भी उत्साह थक चला और लगने लगा कि उनके लिये नकल ही एक मार्ग बचा है, वही उनकी मुक्ति का एकमेव उपाय है।
प्राचीन काल में जब शूरवीर युद्ध में जाते होंगे तो शत्रुपक्ष की संभावित रणनीतियों पर विशद चर्चा होती होगी। हर रणनीति का करारा उत्तर नियत किया जाता होगा और मन में विजय के अतिरिक्त कोई और भाव पनपता भी न होगा। परीक्षा के पहले संभावित प्रश्न और उसके उत्तर नकल की पुर्चियों में उतारने का कार्य प्राथमिक था। पुर्चियों की संख्या बहुत अधिक होने से परीक्षा के समय उनका स्थान याद रखने में और किसी उड़नदस्ते के आने पर उन्हें छिपाये रखने में बहुत कठिनाई होती है। यदि वीर के पास अधिक अस्त्र शस्त्र रहेंगे तो उससे गति बाधित होने की संभावना रहती है, इसी सिद्धांत के आधार पर अधिक पुर्चियों का विचार त्याग दिया गया।
कम पुर्चियों में अधिक सामग्री डालने का उपक्रम नकल को एक शोध का विषय बना देता है। पहले तो छाँट कर केवल महत्वपूर्ण विषयों को एकत्र किया जाता है, उसमें से जो याद किया जा सकता है उसे छोड़ देने के बाद शेष सामग्री को नियत पुर्चियों में इतना छोटा छोटा लिखना होता है कि गागर में सागर की कहावत भी तुच्छ सी लगने लगे। लगता तो यह भी है कि चावल के दाने पर हनुमान चालीसा लिखने का विचार और कुशलता ऐसे ही गाढ़े समय में विकसित हुयी होगी। परीक्षा का भय दूर करने के लिये हनुमान चालीसा का पाठ और आराध्य को कार्य की सफलता के पश्चात अपने युद्ध कौशल की कोई भेंट चढ़ाने के विचार ने भक्तों को चावल के दाने पर हनुमान चालीसा लिखने को प्रेरित किया होगा।
दिन के समय पुर्ची बनाने में किसी के द्वारा पकड़े जाने का भय था, पिताजी ने पकड़ लिया तो दो बार पिटाई निश्चित थी, एक तो परीक्षा के पहले और दूसरी परीक्षा के बाद। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिये रात का समय निश्चय किया गया, उस समय न केवल काम निर्विघ्न सम्पन्न हो जायेगा वरन सबको लगेगा कि बच्चे पढ़ाई में जी जान से लगे हैं। हमारा रात्रि जागरण तय था और युवा के पिता को भी लग रहा था कि हम उनके बच्चे को उत्तीर्ण कराने में अपना समुचित योगदान देकर अपने पड़ोसी धर्म का निर्वाह कर रहे हैं।
रात गहराती गयी, पुर्चियों की संख्या बढ़ती गयी। हमने भी पहले ही कह दिया था कि हम उत्तर आदि बता देंगे पर पुर्चियों को हाथ भी नहीं लगायेंगे। जिस मनोयोग से रात में पुर्चियाँ बनायी गयीं, उतना शोध और श्रम यदि चन्द्रमा में पहुँचने के लिये किया जाता तो हम १९४८ में ही वह सफलता अर्जित कर चुके होते। एक तकनीक जिसका पता चलने पर हमारा सर उनके सामने सम्मान से झुक गया, वह उस पूरे प्रकरण में दूरदर्शिता का उत्कृष्टतम उदाहरण था। एक नियम था कि नकल करते समय पकड़े जाने की स्थिति में यदि पुर्ची निरीक्षक के हाथ लग जाती है तो उसे उत्तरपुस्तिका के साथ नत्थी कर दिया जाता है और कॉपी छीन ली जाती है, तब फेल होना निश्चित है। उस स्थिति से भी पुर्ची फेंककर या निगल कर बचा जा सकता है। पुर्ची निगलने की स्थिति में कागज तो अधिक हानि नहीं करेगा पर स्याही अहित कर सकती थी। एक विशेष स्याही का प्रयोग किया गया था जो पूर्णतया प्राकृतिक थी, शरीर में घुलनशील और संभवतः पौष्टिक भी।
अब समस्या थी कि पुर्चियों को कहाँ छिपाया जाये, किस तरह के कपड़ों में अधिकाधिक पुर्चियाँ छिपायी जा सकती हैं, किन स्थानों पर हाथ डालने से निरीक्षक भी हिचकते हैं। यह एक गहन विषय था और इस पर बुद्धि से अधिक अनुभव को महत्व दिया जाता है। हमें सोने की जल्दी थी और इस विषय में हमारी योग्यता अत्यन्त सीमित थी अतः हम वहाँ से उठकर आने लगे पर एक रोचक तथ्य सुनकर रुक गये। बात चल रही थी कि किस तरह गर्मी में अधिक से अधिक कपड़े पहन कर जाया जाये, अधिक कपड़ों में पुर्चियाँ छिपाने में सुविधा रहती है। वर्षभर टीशर्ट और सैण्डल पहन कर जाने वाले जब पूरे बाँह की शर्ट और जूते मोजे पहन कर परीक्षा देने जाने लगें तो समझ लीजिये कि परीक्षा की तैयारी अत्यन्त गम्भीरता से चल रही है।
आने वाली सुबह निर्णय की सुबह थी, पर हमारे युवा मित्र भी पूरी तरह तैयार थे।
प्राचीन काल में जब शूरवीर युद्ध में जाते होंगे तो शत्रुपक्ष की संभावित रणनीतियों पर विशद चर्चा होती होगी। हर रणनीति का करारा उत्तर नियत किया जाता होगा और मन में विजय के अतिरिक्त कोई और भाव पनपता भी न होगा। परीक्षा के पहले संभावित प्रश्न और उसके उत्तर नकल की पुर्चियों में उतारने का कार्य प्राथमिक था। पुर्चियों की संख्या बहुत अधिक होने से परीक्षा के समय उनका स्थान याद रखने में और किसी उड़नदस्ते के आने पर उन्हें छिपाये रखने में बहुत कठिनाई होती है। यदि वीर के पास अधिक अस्त्र शस्त्र रहेंगे तो उससे गति बाधित होने की संभावना रहती है, इसी सिद्धांत के आधार पर अधिक पुर्चियों का विचार त्याग दिया गया।
कम पुर्चियों में अधिक सामग्री डालने का उपक्रम नकल को एक शोध का विषय बना देता है। पहले तो छाँट कर केवल महत्वपूर्ण विषयों को एकत्र किया जाता है, उसमें से जो याद किया जा सकता है उसे छोड़ देने के बाद शेष सामग्री को नियत पुर्चियों में इतना छोटा छोटा लिखना होता है कि गागर में सागर की कहावत भी तुच्छ सी लगने लगे। लगता तो यह भी है कि चावल के दाने पर हनुमान चालीसा लिखने का विचार और कुशलता ऐसे ही गाढ़े समय में विकसित हुयी होगी। परीक्षा का भय दूर करने के लिये हनुमान चालीसा का पाठ और आराध्य को कार्य की सफलता के पश्चात अपने युद्ध कौशल की कोई भेंट चढ़ाने के विचार ने भक्तों को चावल के दाने पर हनुमान चालीसा लिखने को प्रेरित किया होगा।
दिन के समय पुर्ची बनाने में किसी के द्वारा पकड़े जाने का भय था, पिताजी ने पकड़ लिया तो दो बार पिटाई निश्चित थी, एक तो परीक्षा के पहले और दूसरी परीक्षा के बाद। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिये रात का समय निश्चय किया गया, उस समय न केवल काम निर्विघ्न सम्पन्न हो जायेगा वरन सबको लगेगा कि बच्चे पढ़ाई में जी जान से लगे हैं। हमारा रात्रि जागरण तय था और युवा के पिता को भी लग रहा था कि हम उनके बच्चे को उत्तीर्ण कराने में अपना समुचित योगदान देकर अपने पड़ोसी धर्म का निर्वाह कर रहे हैं।
रात गहराती गयी, पुर्चियों की संख्या बढ़ती गयी। हमने भी पहले ही कह दिया था कि हम उत्तर आदि बता देंगे पर पुर्चियों को हाथ भी नहीं लगायेंगे। जिस मनोयोग से रात में पुर्चियाँ बनायी गयीं, उतना शोध और श्रम यदि चन्द्रमा में पहुँचने के लिये किया जाता तो हम १९४८ में ही वह सफलता अर्जित कर चुके होते। एक तकनीक जिसका पता चलने पर हमारा सर उनके सामने सम्मान से झुक गया, वह उस पूरे प्रकरण में दूरदर्शिता का उत्कृष्टतम उदाहरण था। एक नियम था कि नकल करते समय पकड़े जाने की स्थिति में यदि पुर्ची निरीक्षक के हाथ लग जाती है तो उसे उत्तरपुस्तिका के साथ नत्थी कर दिया जाता है और कॉपी छीन ली जाती है, तब फेल होना निश्चित है। उस स्थिति से भी पुर्ची फेंककर या निगल कर बचा जा सकता है। पुर्ची निगलने की स्थिति में कागज तो अधिक हानि नहीं करेगा पर स्याही अहित कर सकती थी। एक विशेष स्याही का प्रयोग किया गया था जो पूर्णतया प्राकृतिक थी, शरीर में घुलनशील और संभवतः पौष्टिक भी।
अब समस्या थी कि पुर्चियों को कहाँ छिपाया जाये, किस तरह के कपड़ों में अधिकाधिक पुर्चियाँ छिपायी जा सकती हैं, किन स्थानों पर हाथ डालने से निरीक्षक भी हिचकते हैं। यह एक गहन विषय था और इस पर बुद्धि से अधिक अनुभव को महत्व दिया जाता है। हमें सोने की जल्दी थी और इस विषय में हमारी योग्यता अत्यन्त सीमित थी अतः हम वहाँ से उठकर आने लगे पर एक रोचक तथ्य सुनकर रुक गये। बात चल रही थी कि किस तरह गर्मी में अधिक से अधिक कपड़े पहन कर जाया जाये, अधिक कपड़ों में पुर्चियाँ छिपाने में सुविधा रहती है। वर्षभर टीशर्ट और सैण्डल पहन कर जाने वाले जब पूरे बाँह की शर्ट और जूते मोजे पहन कर परीक्षा देने जाने लगें तो समझ लीजिये कि परीक्षा की तैयारी अत्यन्त गम्भीरता से चल रही है।
आने वाली सुबह निर्णय की सुबह थी, पर हमारे युवा मित्र भी पूरी तरह तैयार थे।
जिस मनोयोग से रात में पुर्चियाँ बनायी गयीं, उतना शोध और श्रम यदि चन्द्रमा में पहुँचने के लिये किया जाता तो हम १९४८ में ही वह सफलता अर्जित कर चुके होते।
ReplyDeleteओह,क्या खूब नक़ल की तैयारी .....बड़ा श्रमसाध्य काम है ये तो.....
शिक्षाप्रद ,सामयिक व्यंग्य लेख |आभार
ReplyDeleteगजब का लेख? नकलचियों के लिये बहुत काम का, यह भी सच है कि लगभग हर किसी ने जीवन में एक या अधिक बार नकल जरुर की होगी, चाहे किसी भी चीज की की हो।
ReplyDeleteनकल कला विकास का इतिहास लिखा जाना चाहिेए।
ReplyDeleteहाहाहा ..बहुत ही हास्यस्पद ... आपने सही कहा ...लेकिन जनाब नक़ल के लिए भी अकल चाहिए ...आज के दौर में नक़ल करना और करवाने में अक्ल की दौड देखी जा रही है...तकनिकी विकास बहुत तेजी से हो रहा है...में तो मेडिकल के अंतिम वर्ष में इम्तिहान के बाद हतप्रभ रह गयी जब मैंने सुना की हमारे साथ लड़के उच्च दर्जे की नक़ल ..जिसमे जूनियर बीच के लड़के पर्ची मुहैया करवाते थे ...पानी वाला पर्ची बांटता था ...और सीनियर जुनियर मिल कर तुरंत परीक्षा पेपर बटने के २० मिनट में प्रिंटिग कर उन प्रश्नों के उत्तर थोक में वितरित कर देते थे...ओह ...काश की हमें पहले पता चलता ...:)))
ReplyDeleteयह प्रेक्षण सचमुच मौलिक और रोचक है कि सूक्ष्म लेखन (जैसे चावल के दाने पर ) नक़ल प्रवृत्ति से ही निःसृत है ...
ReplyDeleteबाकी आगे क्या हुआ ?
और हाँ एक बार एक नकलची के मोज़े में मीराबाई और लंगोट में कबीरदास मिले थे .... :)
और पुर्ची या पुर्जी ?
कष्टप्रद ...दुनिया में रह कर दुनियादारी निभाना ....
ReplyDeleteबहुत आसान भी नहीं ....
हा हा :) और वो गर्दन घुमा कर दूसरे की उत्तरपुस्तिका में देखते हुए बिलकुल वैसा ही छाप कर लिखने वाली कला? :P
ReplyDeleteपढ़कर लगा मानो नक़ल की तैय्यारी एक युद्ध की तैय्यारी हो
Delete...कहते भी हैं कि नक़ल में अकल की ज़रूरत होती है.के बार तो अच्छे बच्चे उनकी इस अक्ल पर जलने भी लगते हैं !
ReplyDeleteजय हो नक़ल-महिमा !
प्रश्न पत्र के उत्तर अब तो
ReplyDeleteब्लैकबोर्ड बतला देते हैं
नहीं नकल होता अब चिट से
गुरू बोल समझा देते हैं।
एकलव्य और गुरू द्रोण की
वर्तमान में यही समीक्षा।
अब इस कला में व्यापक सुधार हो चुका है, स्कूल के मालिक और प्रबन्धक इस सिरदर्द को खुद ही ओढ़ लेते हैं.
ReplyDeleteपेन की बाडी पर आलपिन से लिखना-अहा क्या ही आनन्द था.
एक ही बार पुर्ची बनाई थी-ग्यारहवें में त्रिकोणमिति के एक उदाहरण की, क्योंकि वैसा एक सवाल जरूर आता था, लेकिन दुर्भाग्य कि वही उदाहरण प्रश्नपत्र में आ गया और सुपर दुर्भाग्य कि निरीक्षक की निगाह में वह पुर्ची आ गयी. :(
इस श्रम साध्य प्रयास में विषय का ज्ञान भी बढ़ ही जाता होगा.
ReplyDeleteबहुत सुंदर । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteअब तो एस -एमएस -इंग भी दूर नक़ल -संचार को प्राप्य बना रही है .मोबाइल और एस एम् एस लेखन अपना अप्रतिम स्थान इस प्रणाली को संपुष्ट करने में बनाए हुए हैं .हमने तो मेडिकल कोलिज रोहतक की एम् बी बी एस परीक्षा में परीक्षार्थियों को चिकित्सा महा गर्न्थों को कुतरते देखा है जिनकी कीमत एक औसत छात्र कीउनके लिये नकल ही एक मार्ग बचा है, वही उनकी मुक्ति का एकमेव उपाय है।
ReplyDeleteहैसियत से बाहर बनी रहती है .मोबाइल का बड़ा उपकार है उसने इस नुकसानी को थोड़ा कम किया है .
रोचक आलेख है प्रवीण भाई आपका .नक़ल के विविध आयाम और अनेक वेश धारी नकलची .
उनके लिये नकल ही एक मार्ग बचा है, वही उनकी मुक्ति का एकमेव उपाय है।
वाह ! ! ! ! ! बहुत खूब प्रवीण जी,..
ReplyDeleteनकल करने में अक्ल की जरूरत पडती है,...और ये कला सबके पास नही होती,..
MY RECENT POST ...फुहार....: बस! काम इतना करें....
Bahut achcha varnan...nakal karte waqt pakdne waalw experts bhi yaad aa gaye.
ReplyDeleteरिसर्च का विषय बढ़िया चुना है ,प्रवीण जी!
ReplyDeleteबहुत ही बढि़या सार्थकता लिए हुए उत्कृष्ट प्रस्तुति।
ReplyDeleteVery realistic post :-)
ReplyDeleteनाख़ून को भी नहीं बक्शा ! :)
ReplyDeleteनक़ल करने में हमारी कक्षा की सखिया भी जबरदस्त थी सलवार के उपरी भाग पर पूरे उत्तर लिख कर नक़ल करती पकड़ी गई सलवार उत्तर पुस्तिका के साथ नत्थी ..और महोदया गृहविज्ञान कक्षा से पेटीकोट उधार मांग कर उसी वेशभूषा में घर गई ....
ReplyDeleteलगता है शीघ्र ही हम "न दैन्यम,न पलायनम" को डॉ. प्रवीण पाण्डेय के ब्लॉग के रूप में जानने लगेंगे!!
ReplyDeleteसच है, नकल का इंतजाम करना भी आसान नहीं..
ReplyDeleteचित्र बहुत ही आकर्षक हैं।
बहुत बढिया
चावल के दाने पर हनुमान चालीसा लिखने के लिए प्रेरित होना ... परचियाँ बनाना निश्चय ही श्रम साध्य काम होगा ... आज कल तो मोबाइल से लोग पूरा पेपर लिख डालते हैं ...
ReplyDeleteनाखून वाला मस्त है :) एक और देखा था एक बार. कलाई घडी के फीते के पिछले हिस्से पर.
ReplyDeleteचित्र बहुत ही आकर्षक हैं बहुत खूब प्रवीण जी,
ReplyDeleteनक़ल और हमारी शिक्षा व्यवस्था पर करार व्यंग्य. दुर्भाग्य है हमारा ऐसी व्यवस्था में हम जी रहे हैं.....बहरहाल बेहतरीन आलेख.... दाद क़ुबूल फरमाएं !
ReplyDeleteशिवम् मेरे भाई..... इस सफलता पर बहुत बहुत बधाई. सार्थक लेखन करते रहिये इन्ही शुभकामनाओं के साथ
ReplyDeleteविश्वनाथजी की ईमेल से प्राप्त टिप्पणी..
ReplyDeleteहा! हा! हा!
मज़ेदार!
नकल करने की कला पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है
हर युग में तरीके बदलते हैं और आज शायद मोबाइल फ़ोन पर पूरा सिल्लबस रखा जा सकता है यदि हॉल मे फ़ोन ले जाने की अनुमति हो तो।
ब्लू टूथ के सहारे कुछ भी असंभव नहीं।
हमारे स्कूल के दिनों में, मुझे याद है मेरे एक दोस्त ने क्या किया था
उन दिनों हम स्याही के पेन से लिखते थे, बॉल पेन से नहीं
परीक्षा के समय एक एक्स्ट्रा पेन रखना आम बात थी
दोस्त के दूसरे पेन में स्याही नहीं थी, अन्दर से शुष्क था।
घणित की परीक्षा थी।
कुछ फ़ोर्मुले एक पतली सी कागज पर लिख कर, उसे सिगरेट की तरह लपेटकर, पेन के अन्दर छुपा रखा था
तरकीब कामयाब रही!
एक और नें अपनी कलाई पर घडी की पट्टी पर कुछ लिख रखा था।
माना कि ज्यादा कुछ लिख नहीं सकते पर घणित के लिए इतना काफ़ी हुआ करता था
जो फ़ोर्मुला रटे नहीं जा सकते थे वे इस तरह लिखे हुए होते थे।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
अब समस्या थी कि पुर्चियों को कहाँ छिपाया जाये, किस तरह के कपड़ों में अधिकाधिक पुर्चियाँ छिपायी जा सकती हैं, किन स्थानों पर हाथ डालने से निरीक्षक भी हिचकते हैं।
ReplyDeleteअद्भुत हास्य-व्यंग के मिश्रण के साथ नकल जगत की सच्चाई व रणनीति कौशल का चित्रण व जीवंत विवरण । अद्भुत व बधाईयोग्य सुंदर लेख।
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
--
अन्तर्राष्ट्रीय मूर्खता दिवस की अग्रिम बधायी स्वीकार करें!
ब्लॉग बुलेटिन पर जानिये ब्लॉगर पर गायब होती टिप्पणियों का राज़ और साथ ही साथ आपकी इस पोस्ट को भी शामिल किया गया है आज के बुलेटिन में.
ReplyDeleteनक़ल भी एक हुनर है... बढ़िया आलेख.. मन एक दशक पीछे चला गया...
ReplyDeleteबहुत खूब प्रवीण जी,नकल करना भी उतना आसान नही..मेहनत तो करनी पड़ती है..
ReplyDeleteकई नये फ़ार्मूलों की भी जानकारी मिली, आभार :)
ReplyDeleteवर्षभर टीशर्ट और सैण्डल पहन कर जाने वाले जब पूरे बाँह की शर्ट और जूते मोजे पहन कर परीक्षा देने जाने लगें तो समझ लीजिये कि परीक्षा की तैयारी अत्यन्त गम्भीरता से चल रही है।
ReplyDeleteहा-हा-हा ... भूली (भुला दी गई), बिसरी (बिसरा दी गई) बातें याद आ गईं।
यकीन मानिए प्रवीण भाई नक़ल सब कलाओं का मूल है .लेकिन नक़ल की प्रस्तुति मौलिक दिखनी चाहिए .आल आर्ट इज इम्मिटेशन बट डेट इम्मिटेशन शुड लुक ओरिजिनल . नकलची कलाओं को बढ़ावा दे रहें हैं .सब उन्नति को मूल नक़ल ही है .
ReplyDeleteC% Shekhar Gemini ,www.shekhargemini.com
१४४ ,5th Cross ,BHEL Layout ,Amba Bhavani Rd.,(Near Sambhram Institute of Technology,Vidyaranyapura Post ,Bangalore -560-097
इतना ज्ञान प्रवीण भाई ??
ReplyDeleteआज सबसे अधिक हिट आयेंगे ब्लॉग पर !
:-)))
बड़े हिट नुस्खे समझाएं हैं प्रवीण जी.
ReplyDeleteआजकल भाई साहब प्रमुख शिक्षा केन्द्रों पर नक़ल का ठेका भी उठता है .प्रोफेशनल नकलची न सिर्फ नक़ल कराते हैं नक़ल पे छूट भी देते हैं .
ReplyDeleteमेहना ट तो इसमें भी है ... अब समझ आ गया ... आने वाले बच्चों के लिए उपयोगी पोस्ट ...
ReplyDeletechahe parchi bana kar pass ho ya padhkar
ReplyDeletebina mehnat ke kuch nahi milta hain
Cheating is an art :P
ReplyDeletenot everyone can gather that much courage and creativity !!
वाह सर जी ..नकलचियो की तजुर्बा कामयाब है !
ReplyDeleteनकल के लिए तो जो भी नया तरीका सामने आए वो कम ही है।
ReplyDeleteकितनी मेहनत करनी पड़ती है बेचारों को ... मेहनतकश नौजवान .. :))
ReplyDeleteनक़ल से आप पास तो हो जाओगे लेकिन जिंदगी में फेल हो जाओगे.
ReplyDeleteगहन शोध... रोचक चर्चा...
ReplyDeleteसादर।
जबरदस्त शोधपरक...:)
ReplyDeleteरोचक...चर्चा....काश की हमें पहले पता चलता...आने वाले बच्चों के लिए उपयोगी है! रोचक बढ़िया आलेख!
ReplyDeleteरोचक...चर्चा....काश की हमें पहले पता चलता...आने वाले बच्चों के लिए उपयोगी है! रोचक बढ़िया आलेख!
ReplyDeleteनक़ल पर आपने तो अच्छा खासा शोध किया हुआ है. रोचक
ReplyDeleteयह तो बडी गडबड हो गई। बादवाली पोस्ट पहले पढ ली और पहलेवाली यह पोस्ट बाद में, अब पढी। आनन्द नष्ट हो गया। अब इसकी मरम्मत भी तो नहीं हो सकती!
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