'भैया, पास न भयेन तो बप्पा बहुतै मारी' अर्थ था कि भैया, यदि परीक्षा में पास न हो पाये तो पिताजी बहुत पिटायी करेंगे। १८ साल का युवा, कक्षा १२, मार्च का महीना और आँखों का भय शत प्रतिशत प्राकृतिक। नाम का अधिक महत्व नहीं है क्योंकि आप मस्तिष्क पर थोड़ा सा भी जोर डालेंगे तो पड़ोस के किसी न किसी युवा का नाम आपके मन में कौंध जायेगा। पिता क्यों पीटेगें, क्योंकि उनका यह दृढ़ विश्वास है कि विद्यालय जाने के नाम पर लड़के मटरगस्ती करते रहते हैं क्योंकि पढ़ाई और अनुशासन रहा ही नहीं, कितना अच्छा होता कि लड़का घर में खेती आदि में पिताजी का हाथ बटाता।
लड़का भी क्या करे, परिश्रम तो बहुत किया है उसने। अब कुछ विषय ऐसे हैं जो समझ में आते ही नहीं हैं। अध्यापक ने वर्षभर कुछ पढ़ाया ही नहीं है, जब स्थानीय परीक्षा होती थी तो जुगत लगाकर पास कर दिया जाता था, बोर्ड की परीक्षाओं में पेपर बाहर वाले ही बनाते हैं और जाँचते भी बाहर ही हैं। यदि जो आता है, वह लिख दिया तो फेल होना तय है। फेल हो गये तो पिताजी को अपनी बात सिद्ध करने का अवसर मिल जायेगा और अगले साल से खेती करनी पड़ेगी।
किसी रोमांचक फिल्म से कम नहीं है, उस युवा की व्यथा कथा। जिन्हें हिन्दी फिल्में देखने का समुचित अनुभव है, उन्हें सुखान्त की आशा अन्त तक बँधी रहती है और बस एक बार दर्शक के मन में यह घर कर जाये कि पात्र निर्दोष है तो सुखान्त के लिये पात्र कुछ भी कर डाले, वह क्षम्य होता है।
अब एक ओर जीवन भर खेतों में खटना, वहीं दूसरी ओर थोड़ी बहुत नकल कर पास हो जाना और कालेज इत्यादि में नगरीय जीवन का आनन्द उठाना, युवा को निर्णय लेने में कोई कठिनाई नहीं हो रही थी। ऐसे निर्णयों को सहारा देने के लिये मन दौड़ा दौड़ा आता है, पूरी की पूरी तर्क श्रंखला के साथ।
अब देखिये कुछ दिन पहले तक स्वकेन्द्र परीक्षा होती थी अर्थात अपने ही विद्यालयों में बोर्ड की परीक्षा। जहाँ पूरे विद्यालय की प्रतिष्ठा दाँव पर लगी हो वहाँ पर छात्रों को येन केन प्रकारेण उत्तीर्ण कराना तो बनता है। कैसे भी हो बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के सभी छात्र उत्तीर्ण हो जाते थे, ससम्मान की आस किसी को नहीं रहती थी क्योंकि सम्मान तो पहले ही गिरवी रखा जा चुका होता था। पता नहीं किस अधिकारी का निर्णय था कि परकेन्द्र परीक्षा ली जाये। किसी प्रतिद्वन्दी विद्यालय में जाकर सुविधानुसार प्रश्नपत्र हल करना तो दूर, सर हिलाना भी संभव नहीं रहता था। जहाँ कमरे में एक निरीक्षक होता था, वहाँ दो दो लग जाते थे। पता नहीं बिना पढ़े बच्चों को इस तरह से सताने में ईश्वर उन अध्यापकों को क्या आनन्द देता होगा।
स्वकेन्द्र हो या परकेन्द्र, नकल तो करनी आवश्यक ही थी। जब नकल न कर के पास होना सर्वथा असम्भव हो, तो नकल कर के पास होने का प्रयास तो किया ही जा सकता था। पकड़े जाने पर अनुत्तीर्ण कर दिये जाते हैं, पर बचने पर उत्तीर्ण होने की संभावना थी। प्रायिकता के इस सिद्धान्त पर और प्रयास सफल न होने पर भी अनुत्तीर्ण ही होने के निष्कर्षों ने नकल को दशकों तक छात्रों के बीच जीवन्त और लोकप्रिय बनाये रखा।
इस सर्वजनहिताय सिद्धान्त को तो तब झटका लगा था जब किसी मंत्री को छात्रों का यह सुख देखा नहीं गया। जो कार्य वर्ष भर की पढ़ाई करने में अक्षम थी, वह वर्षान्त की नकल करा देती थी। एक नकल अध्यादेश लाया गया जिसमें नकल करते छात्रों को सीधे जेल भेजे जाने का प्रावधान था। कितना बड़ा अन्याय, जिस अपराध के लिये पूरे शिक्षा तन्त्र को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिये, उसके लिये एक निरीह से छात्र को दण्ड देने के प्रावधान रखा गया। एक दो वर्ष पूरी युवाशक्ति सहमी सहमी रही, उत्तीर्ण छात्रों का प्रतिशत ३० के भी नीचे चला गया, घोर कलियुग, दो तिहाई युवाशक्ति नकारा। प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी, नयी सरकार आयीं, छात्रों को उनका मौलिक अधिकार ससम्मान वापस कर दिया गया।
हमारे होनहार पात्र के लिये अब प्रश्न यह नहीं था कि नकल करना उचित है कि अनुचित या नकल करने का अवसर मिलेगा कि नहीं, प्रश्न इस बात का था कि नकल की किन विधियों को प्रयोग में लाकर उत्तीर्ण हुआ जा सकता था और वह भी, कम से कम प्रयास में, श्रम को भी सोच समझ कर बहाने का दायित्व जो था उन पर। या कहें कि क्या जुगत लगाने से नकल के लिये बनायी जाने वाली पुर्चियों की संख्या न्यूनतम हो और उसमें किस तरह अधिकतम सामग्री डाली जा सके।
अब कहीं जाकर हमको समझ में आया कि हमसे किस प्रकार की सहायता की अपेक्षा की जा रही थी।
लड़का भी क्या करे, परिश्रम तो बहुत किया है उसने। अब कुछ विषय ऐसे हैं जो समझ में आते ही नहीं हैं। अध्यापक ने वर्षभर कुछ पढ़ाया ही नहीं है, जब स्थानीय परीक्षा होती थी तो जुगत लगाकर पास कर दिया जाता था, बोर्ड की परीक्षाओं में पेपर बाहर वाले ही बनाते हैं और जाँचते भी बाहर ही हैं। यदि जो आता है, वह लिख दिया तो फेल होना तय है। फेल हो गये तो पिताजी को अपनी बात सिद्ध करने का अवसर मिल जायेगा और अगले साल से खेती करनी पड़ेगी।
किसी रोमांचक फिल्म से कम नहीं है, उस युवा की व्यथा कथा। जिन्हें हिन्दी फिल्में देखने का समुचित अनुभव है, उन्हें सुखान्त की आशा अन्त तक बँधी रहती है और बस एक बार दर्शक के मन में यह घर कर जाये कि पात्र निर्दोष है तो सुखान्त के लिये पात्र कुछ भी कर डाले, वह क्षम्य होता है।
अब एक ओर जीवन भर खेतों में खटना, वहीं दूसरी ओर थोड़ी बहुत नकल कर पास हो जाना और कालेज इत्यादि में नगरीय जीवन का आनन्द उठाना, युवा को निर्णय लेने में कोई कठिनाई नहीं हो रही थी। ऐसे निर्णयों को सहारा देने के लिये मन दौड़ा दौड़ा आता है, पूरी की पूरी तर्क श्रंखला के साथ।
अब देखिये कुछ दिन पहले तक स्वकेन्द्र परीक्षा होती थी अर्थात अपने ही विद्यालयों में बोर्ड की परीक्षा। जहाँ पूरे विद्यालय की प्रतिष्ठा दाँव पर लगी हो वहाँ पर छात्रों को येन केन प्रकारेण उत्तीर्ण कराना तो बनता है। कैसे भी हो बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के सभी छात्र उत्तीर्ण हो जाते थे, ससम्मान की आस किसी को नहीं रहती थी क्योंकि सम्मान तो पहले ही गिरवी रखा जा चुका होता था। पता नहीं किस अधिकारी का निर्णय था कि परकेन्द्र परीक्षा ली जाये। किसी प्रतिद्वन्दी विद्यालय में जाकर सुविधानुसार प्रश्नपत्र हल करना तो दूर, सर हिलाना भी संभव नहीं रहता था। जहाँ कमरे में एक निरीक्षक होता था, वहाँ दो दो लग जाते थे। पता नहीं बिना पढ़े बच्चों को इस तरह से सताने में ईश्वर उन अध्यापकों को क्या आनन्द देता होगा।
स्वकेन्द्र हो या परकेन्द्र, नकल तो करनी आवश्यक ही थी। जब नकल न कर के पास होना सर्वथा असम्भव हो, तो नकल कर के पास होने का प्रयास तो किया ही जा सकता था। पकड़े जाने पर अनुत्तीर्ण कर दिये जाते हैं, पर बचने पर उत्तीर्ण होने की संभावना थी। प्रायिकता के इस सिद्धान्त पर और प्रयास सफल न होने पर भी अनुत्तीर्ण ही होने के निष्कर्षों ने नकल को दशकों तक छात्रों के बीच जीवन्त और लोकप्रिय बनाये रखा।
इस सर्वजनहिताय सिद्धान्त को तो तब झटका लगा था जब किसी मंत्री को छात्रों का यह सुख देखा नहीं गया। जो कार्य वर्ष भर की पढ़ाई करने में अक्षम थी, वह वर्षान्त की नकल करा देती थी। एक नकल अध्यादेश लाया गया जिसमें नकल करते छात्रों को सीधे जेल भेजे जाने का प्रावधान था। कितना बड़ा अन्याय, जिस अपराध के लिये पूरे शिक्षा तन्त्र को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिये, उसके लिये एक निरीह से छात्र को दण्ड देने के प्रावधान रखा गया। एक दो वर्ष पूरी युवाशक्ति सहमी सहमी रही, उत्तीर्ण छात्रों का प्रतिशत ३० के भी नीचे चला गया, घोर कलियुग, दो तिहाई युवाशक्ति नकारा। प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी, नयी सरकार आयीं, छात्रों को उनका मौलिक अधिकार ससम्मान वापस कर दिया गया।
हमारे होनहार पात्र के लिये अब प्रश्न यह नहीं था कि नकल करना उचित है कि अनुचित या नकल करने का अवसर मिलेगा कि नहीं, प्रश्न इस बात का था कि नकल की किन विधियों को प्रयोग में लाकर उत्तीर्ण हुआ जा सकता था और वह भी, कम से कम प्रयास में, श्रम को भी सोच समझ कर बहाने का दायित्व जो था उन पर। या कहें कि क्या जुगत लगाने से नकल के लिये बनायी जाने वाली पुर्चियों की संख्या न्यूनतम हो और उसमें किस तरह अधिकतम सामग्री डाली जा सके।
अब कहीं जाकर हमको समझ में आया कि हमसे किस प्रकार की सहायता की अपेक्षा की जा रही थी।
प्रभावशाली पंक्तियाँ प्रवीण भाई ||
ReplyDeleteपेन में स्याही जबरदस्त, झल्ला जेहन स्याह ।
चुटका चुटकी में छपे, मेधा रही कराह ।।
मोबाइल नेट दोस्ती, रेस्टोरेंट जहीन ।
इम्तिहान बेहद खले, भूला मोट-महीन ।।
मुर्ग-मुसल्लम नोचता, आज नोचता बाल ।
शुतुरमुर्ग बन ताकता, किन्तु गले न दाल ।
पानी पी पी कोसता, प्रश्न-पत्र को घूर ।
थोड़ी भी ना नम्रता, शिक्षक सारे क्रूर ।
नक़ल करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हैं व्यंग्य के माध्यम से सटीक बात .आभार
ReplyDeleteनक़ल अर्थतः खोखलापन व्यक्तित्व व समाज दोनों का /,अभिव्यकि व अभिव्यंजना की मुखरता सराहनीय .....कौन जिम्मेदार ! लेनी होगी जिम्मेदारी ...चिंतनीय /
ReplyDeleteआपसे हुई बातचीत का वृत्तांत सजीव हो उठा, और भी बहुत सारी पुरानी परकेन्द्र और स्वकेन्द्र की बातें याद हो आयीं, अनायास ही मुख पर स्मित मुस्कान लहरा उठी।
ReplyDeleteनकल करना छात्रों का विशेषाधिकार होना चाहिये, नकल किसलिये करना पड़ रही है, उसके गर्भ में कोई नहीं जाना चाहता, शिक्षा तंत्र को इसका विश्लेषण करना चाहिये। सामयिक यक्ष प्रश्न है शिक्षा तंत्र के सामने -
ये पोस्ट पढ़ कर मेरी भी पहली प्रतिक्रिया कुछ ऐसी ही थी...सच में चेहरे पे एक मुस्कान आ गयी...
Deleteआपको कुछ और बातें बताऊंगा इसी से सम्बंधित जब अगली बार मिलना होगा :)
नक़ल का नया-नया मॉडल बिहार से सीखा जा सकता है .. सरकार के सहयोगपूर्ण नीतियों के साथ..
ReplyDeleteनकल कर कर के ही तो बच्चा सीखता है, बड़ा होता है। पता नहीं क्यों लोग उस पर पाबंदी लगा देते हैं? और परीक्षा क्या है? फिजूल का गोरखधंधा। क्यो नहीं सीधे ही प्रमाणपत्र दे देते कि ये दस, बारह, पन्द्रह कक्षा पढ़ लिया। पता नहीं क्यों उत्तीर्ण का प्रमाण पत्र देते हैं।
ReplyDeleteपरीक्षा तो असली पानीपत या हल्दीघाटी में होती है।
मैं पंजाब में था तो एक आठवीं के छात्र(एक निजी स्कूल के) ने बोर्ड की परीक्षा को इस तरह परिभाषित किया था, "जिस पेपर को सरजी बोर्ड पर सोल्व करवाते हैं, वो बोर्ड परीक्षा होती है।"
ReplyDelete:) आज का युग धर्म है नक़ल :) यह रामराज्य की दस्तक भी! कारण तो आप विवेचित कर ही भये :)
ReplyDeleteइसी लिए तो दसवीं में अपने कपिल चचा ने अब यह बोर्ड परिक्षा का झंझट ही करा दिया कि अपने ही स्कूल में रहकर जमकर नक़ल करो और ढेर सारी अक्ल पाओ !
ReplyDelete...वहाँ का क्या करे जहां अध्यापक तो पढाना चाहें पर बच्चे कक्षा से गोल रहें,अगर रहें भी तो मोबाइल के साथ और बगैर किसी अनुशासन के.सिगरेट और अन्य नशों का सेवन करते हुए अध्यापक देखें पर डाट न सकें !
ReplyDeleteदोनों तरह की दशा में छात्रों से अधिक दोष हमारी व्यवस्था का है !
आखिरकार नक़ल करने में भी तो जुगत लगनी ही पड़ती है ...!!जितनी जुगत नक़ल करने में लगायी उतनी पढ़ने में लगाते तो नैया पार हो जाती .....
ReplyDeleteसमय पर की गयी थोड़ी सी मेहनत से दूर भागता है इंसान .....परेशान होता है ....
सार्थक आलेख ...
नकल में अक्ल की जरूरत होती ही,
ReplyDeleteMY RESENT POST...काव्यान्जलि ...: तुम्हारा चेहरा,
आजकल तो शिक्षक ही नहीं जानते विषय को तो किसी को नम्बर किसी को जीरो
ReplyDeleteमैं तो Open Book Examination को हमेशा से सपोर्ट करता रहा हूँ. किताबों की खुली छूट देकर सवाल Analytical पूछें जाए, जिसका कोई भी जवाब सीधे किताबों में ना मिल पाए. अधिक से अधिक वे उन किताबों का reference ही ले सकें.
ReplyDeleteसाथ ही मन में ये भी आता है की ऐसे सवाल बनाने के लिए और उत्तर-पुस्तिका जांचने के लिए भी जो न्यूनतम ज्ञान होना चाहिए वह कहाँ से हम लायेंगे? :)
हमें तो बोर्ड का इतना ही अर्थ मालूम है कि जो हमें पढाया गया था और हमने रट्टा लगाया था, उस सबसे बाहर के प्रश्न होते थे प्रश्नपत्र में। तो फिर नकल करने का अधिकार तो बनता है ना :)
ReplyDeleteऔर उस पर जुल्म ये कि "नकल कैसे करें" जैसे जरुरी विषय को हमसे दूर रखा जाता था। तो सबसे सरल हमें फेल होना ही लगता है, आज भी :)
प्रणाम स्वीकार करें
कहते हैं कि अगर जड़ कमज़ोर हो सम्पूर्ण वृक्ष ही कमज़ोर और फलविहीन होता है..हमारे शिक्षा तंत्र (विशेषतः यूपी) में उल्टा है, यहाँ तंत्र कि जड़ ऊपर है जो हमेशा से ही कुशल नेतृत्व के अभाव में सम्पूर्ण तंत्र और जनता के भविष्य की अनदेखी करती रही है..वो करे भी क्यों ना, ना तो वो कुशल लीडर हैं और न आदर्श मनुष्य..
ReplyDeleteएक आदर्श परीक्षा मोडल की अदद ज़रुरत हैं आज के समय में जो लोगो की नक़ल वाली सोच को बदल सके..ऐसा तभी संभव है जब छात्रों को एक बार की परीक्षा के बजाय पूरे साल के उनके क्रिया कलापों और प्रदर्शन के आधार पर ग्रेड्स दिए जाएँ..ना कि अंक !!
नक़ल के लिए अक्ल की आवश्यकता पड़ती है.
ReplyDeleteये व्यवस्था का दोष है ... शिक्षा पद्धति का दोष है ...
ReplyDeleteनक़ल के लिए भी अक्ल चाहिए :).बड़ा स्किल वाला काम है ये भी.
ReplyDelete@जिस अपराध के लिये पूरे शिक्षा तन्त्र को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिये, उसके लिये एक निरीह से छात्र को दण्ड देने के प्रावधान रखा गया।
सोलह आने सच्ची बात .
नक़ल करने से भला तो फ़ैल हो जाना ही हैं ...पर नक़ल कर के पास होने का सुख तो नक़ल करने वाले ही जाने :-) अच्छी पोस्ट नक़ल के लिए भी अक्ल चाहिए :).बड़ा स्किल वाला काम है ये भी. ye bhi bahut sahi kaha Sikha ji ne :-)
ReplyDeleteअपनी ग्रामीण शाखा में पोस्टिंग के दौराँ देखे गए दृश्य नज़र से गुज़र गए!!
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पढ कर अपने स्कूली दिन याद आ गए। याद आ गया वह सहपाठी जिसने एक पर्ची में सूची बना रखी थी कि कस ऑपिक की पर्ची, कहॉं छुपा रखी है। निरीक्षक ने वही पर्ची पकड ली।
ReplyDeletesarthak post hae aapki mja bhi aaya pr jankari bhi mili.aabhar.
ReplyDeleteमजा आ गया पढ़कर, और अपने स्कूल व कॉलेज के दिनों के कुछ अद्भुत नकल-महारथियों की याद सायाश ताजा हो गयी । इतनी तथ्यपूर्ण बात का इतना चुटीला व प्रभावकारी विश्लेषण यह तो प्रवीण जी की प्रवीणता से ही संभव है। सुंदर व प्रभावकारी लेख।
ReplyDeleteकुछ समय शिक्षण के क्षेत्र में रहा... अनेक वाकये याद आ गए....
ReplyDeleteसादर।
सर जी हमारे समय में नक़ल जरा कम था ! आज आधुनिक हो गया है !
ReplyDeletebahut badiya prastuti..
ReplyDeleteNakal ke liye bahut akal aur himmat chahiye hoti hai... hamein to nakal ke naam se hi pasina aa jaata hai..
हर व्यक्ति को शार्टकट चाहिए ....
ReplyDeleteटीपू सुल्तान के वंशजों की मनोहर कहानी . हमने भी देखा है २-४ ऐसे पराक्रमी
ReplyDeleteनक़ल करने वाले तो हर समय रहे हैं, पर पहले इनकी संख्या नाम मात्र की होती थी..वैसे जितना नक़ल की जुगाड में समय लगता है, उतने में पढ़ाई भी हो सकती है...बहुत रोचक आलेख
ReplyDeleteनक़ल करने वाले संसाधनों के जुगाड में अक्ल इस्तेमाल कर लेते हैं और सफल भी हो जाते हैं.
ReplyDeleteसटीक व्यंग्य
खुलेआम किताबें ले जाने को कह दिया जाय -जिसने पढ़ी नहीं होंगी और मैटर पता नहीं होगा उत्तर छाँट भी नहीं पायेगा .
ReplyDeleteमेरे प्राध्यापक मित्र (अब सेवा निवृत्त )डॉ .वागीश मेहता अपने एक और साथ के साथ सैर पे निकले थे .रास्ते में उन्हें एक पूर्व छात्र मिला .मेहता जी ने पूछा भाई क्या करते हो आजकल ."क्या करता स्कूल चलाता हूँ ,उसी का प्रिंसिपल बन गया "आपने तो मेरा केस बाँध दिया था (नकल करते पकडे जाने पर हरियाणा का छात्र आज भी यही कहता है सर केस मत बांधों ).तो भाई साहब नकलची को मत पकड़ो वह आगे चलके प्राचार्य बन जाएगा .पूरे शिक्षा तंत्र का बड़ा गर्क कर रहें हैं ये कायदे पे चलने वाले इन्विज्लेटर .जरा सोचिये जिस शिक्षा तंत्र ने आज स्कूल के अध्यापक से क्लास रूम की कुर्सी छीनकर उसे एक ऐसा रोबोट बना डाला है जो खड़े खड़े ६-७ घंटा लगातार पढाता ,वह कैसे छात्र पैदा करता होगा ?ये कपिल सिब्बलीय तंत्र है उकील साहब संसद को भी कचेरी समझे बैठे हैं .विषय -अंतरण के लिए माफ़ करें .यह तंत्र नकलची ही पैदा करेगा अक्लमंद अकलची नहीं .
ReplyDeleteToday is a lot of pressure on children to perform!
ReplyDeleteनकल के लिए अकल की जरूरत होती है .... जो विद्यार्थी पढ़ने में अकल नहीं लगाते वो नकल में खूब लगाते हैं ...
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 29-०३ -2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... नयी पुरानी हलचल में ........सब नया नया है
हमने को खूब पकड़ी हैं -कहाँ-कहां छिपी हुई पर्चियाँ !
ReplyDeleteये भी एक कला ही है कि नकल की पुर्चियाँ कैसे बनाना और छिपाना है- इसमें निपुण होना भी तो सबके बस की बात नहीं है महाराज. कम से कम आपके और हमारे जैसों के लिए तो नहीं.
ReplyDeleteयक़ीनन दोष तो पूरी व्यवस्था का ही है..... पर शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर भी विचार ही कहाँ किया जा रहा है..... न प्रशासन प्रशासनिक स्तर पर और न ही हमारे परिवारों में .....
ReplyDeletejab parchi banane me time lagaate hain utni der me lessons yaad kyun nahi kar lete...aaj kal to parchiyan bhi nahi kanhi kanhi to poori book hi saamne rakh kar exam dete hain adhiktar yeh gaon me hota hai.bahut achche prasang par aalekh likha hai badhaai.
ReplyDeleteआज की शिक्षा गुणात्मक से जादा मात्रात्मक बन गयी है ! शिक्षा का कही पे बहुत बोझा है कही पे वो नाम मात्र है ... दोनों जगह नक़ल के लिए रास्ता बनाती है!
ReplyDeleteआज की शिक्षा गुणात्मक से जादा मात्रात्मक बन गयी है ! शिक्षा का कही पे बहुत बोझा है कही पे वो नाम मात्र है ... दोनों जगह नक़ल के लिए रास्ता बनाती है!
ReplyDeleteसंगीता जी ने सही कहा ,जो पढने में अक्ल नहीं लगते वो नकल में खूब अक्ल लगाते है ,बढिया पोस्ट
ReplyDeleteसमय अनुरूप पोस्ट
ReplyDeleteबहुत सही कहा है आपने ... सार्थकता लिए हुए सटीक प्रस्तुति ।
ReplyDeleteजो परीक्षा देने आगया वह पास होना चाहिए .परीक्षा भवन में किताबें रखने की छूट दी जायेगी तभी गुणवत्ता बढ़ेगी असल बात होगी सामग्री का चयन ,संदर्भ सामिग्री की अपनी गुणवत्ता और निर्धारित समय में गुणात्मक प्रदर्शन आधारित मूल्यांकन .अभी तो सब धान सत्ताईस सेरी है .मूल्यांकन कैसे होता है उत्तर पुतिकाओं का स्पोट इवेल्युएशन ने उसे 'नकद ;भुगतान नकदी फसल की तरह लाभ का सौदा बना दिया है .अब समय बेचा मास्साब ट्यूशन से इत्ता कमा लेतें हैं मूल्यांकन (उत्तर पुस्तिकाओं के )को राजी ही नहीं होते .यहाँ नक़ल करना न करना अपनी प्रासंगिकता खो चुका है .'ये देखो कुदरत का खेल, पढ़े फ़ारसी बेचे तेल .'लूंगी खोर सेना -नायकों पर इलज़ाम लगा रहें हैं .
ReplyDeleteचलिए छात्रों को उनका जन्मसिद्ध अधिकार वापिस मिल गया बधाई.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
आज के हिन्दुस्तान समाचार पत्र (दिल्ली संस्करण) में आपकी यह पोस्ट प्रकाशित हुयी है
ReplyDelete...... हार्दिक बधाई
कापी करना है मेरा जन्म सिद्ध अधिकार
ReplyDeleteदेते घूमें युवा अब गली गली ललकार
गली गली ललकार जमाना बदल गया है
ताज-तख्त अब सारा लश्कर बदल गया है
पढ़ना लिखना छोड़ पुर्चियां खूब बनाओ
कापी कर के खूब डिवीजन फर्स्ट ले आओ.
नक़ल करनेवालों की पोल देर सबेर खुलती ही है.
ReplyDeleteअच्छी और सामयिक पोस्ट |
ReplyDeleteNo doubt system is to be blame... but the parents and student himself deserves a partial blame too !!
ReplyDeleteनक़ल करना हमारा अधिकार हैं सटीक व्यंग्य
ReplyDeleteनकल करना भी सब की बस की बात नही....सटीक लेख...
ReplyDeleteसटीक व सार्थक प्रसंग ... आभार.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति!
ReplyDeleteघूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच ।
लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
नकल में भी साहस चाहिए।
ReplyDelete'purjification' is the best preparation ,either distinction or rustication.
ReplyDeleteबहुत पहले कभी सुना था |
अनुसरण करने योग्य ..
ReplyDelete२९ मार्च के हिंदुस्तान अखबार में ये पृष्ठ देखा था..बड़ी खुशी हुई.उस वक्त हमारे मोडेम में कुछ दिक्कत थी इसलिए देर से टिप्पणी कर रहे हैं..
ReplyDeleteयह भी एक कला है जो सबके बस की बात नहीं...
ReplyDeleteपकडे ना गये तो पास तो शायद हो जायें पर फर्स्ट डिविजन नही...........।
ReplyDelete