जब भूगोल पढ़ना प्रारम्भ किया तब कहीं जाकर समझ में आया कि बचपन में जो भी पानी हमने पिया, वह यमुना का नहीं चम्बल का था। आगरा की यमुना में कुछ जल शेष ही नहीं रखा गया और उसी से बस ६० किमी दक्षिण में धौलपुर और मुरैना के मध्य चम्बल अपने पूरे स्वरूप में बहती है, आगे जाकर इटावा के पास दोनों मिल जाती हैं।
चम्बल अपने पानी से अधिक अपने बीहड़ों के लिये विख्यात है। बीहड़ बने कैसे, इस पर भूगोलविदों को मतभेद हो सकता है पर बीहड़ में कितने डकैतों को आश्रय मिला, उसमें कोई मतभेद नहीं है। बीहड़ों की बनावट ऐसी है कि इमामबाड़ा भी वहाँ आकर भ्रमित हो जाये। १५-२० मीटर ऊँचे अनगिनत टीले, उसमें मकड़ी के जाल की तरह बिछे रास्ते, चलते चलते कब कोई सामने प्रकट हो जाये कुछ पता नहीं। कितनी भी ऊँचाई से खड़े होकर देख ले, किस टीले के पीछे कौन छिपा है, पता ही नहीं चल सकता है। बचपन में भले ही कितनी लुकाछिपी खेली हो आपने, यहाँ आकर आप सब भूल जायेंगे, बागी दशकों से यही खेल पुलिसवालों के साथ खेल रहे हैं यहाँ पर।
कहते हैं कि यह बीहड़ तब बनने प्रारम्भ हुये जब वर्षा का पानी कई मार्गों से हो चम्बल में मिलने आया होगा। शताब्दियों का बहाव पृथ्वी की सतह में मुलायम मिट्टी को हर बार कुरेदता होगा, हर वर्ष थोड़ी थोड़ी खरोंच लगती होगी पृथ्वी को। यदि हर बार के दृश्यों को तेजी से चला कर देखा जाये तो यही लगेगा कि मदमाता पानी बहा जा रहा है, सरल पर्तों को उघाड़ता, अन्याय सा लगता है, कमजोर को अपनी जगह से हटाती शक्ति। बीहड़ों के बीच बने लहराते से रास्तों की गहराई जिस अन्याय को सहने का प्रतीक है, उसी अन्याय को सहने की शक्ति और स्थान प्रदान करता रहा है यह बीहड़।
तो क्या छिपने का उपयुक्त स्थान बागी बनाने में सहायक है? कुछ और गहरे कारण रहे होंगे कि विद्रोहीमना बीहड़ों में आश्रय लेने आये। सामाजिक व्यवस्था में बड़े बड़े छिद्र रहे होंगे जिससे समाज की ऊर्जा बीहड़ों में बहने को बाध्य हुयी होगी। भाई ने भाई को हिस्सा नहीं दिया होगा, किसी निर्बल को सताया गया होगा, प्रशासन की लोलुपता अंग्रेजों की बराबरी करने पर तुली होगी। हर बागी के साथ कोई न कोई नयी कहानी सुनने को मिल जायेगी। पीढ़ियो की वैमनस्यता का बदला आने वाली पीढ़ियों को चुकाना शेष होगा। कुछ न कुछ तो जटिलता रही होगी जो प्रशासन और समाज समय रहते समझ नहीं पाया होगा और विकास के स्थान पर यह स्थान बागियों के लिये विख्यात हो गया।
अन्याय के अध्याय तो भारत के अन्य भागों में भी लिखे गये हैं पर वहाँ पर इतने बागी नहीं हुये जितने चम्बलों के बीहड़ों ने पैदा किये। कुछ ने सह कर रहना सीख लिया, कुछ ने रह कर सहना सीख लिया, पर चम्बल के बीहड़ों ने न कभी अन्याय सहना सीखा, न कभी चैन से रहना सीखा। सहनशीलता का ज्वलनबिन्दु इतना शीघ्र भड़क जाने का कारण कुछ और पता चला।
झाँसी की पोस्टिंग के समय मुरैना और धौलपुर का क्षेत्र मंडल के अन्तर्गत ही था, लगभग उसी समय एक सहपाठी जिलाधिकारी मुरैना के पद पर था। कई बार मुरैना जाना हुआ, रेल से भी और सड़क से भी। चम्बल पुल के पास स्थित बीहड़ के अन्दर लगभग एक किमी जाने का अनुभव भी प्राप्त किया। हर दस कदम पर नया दृश्य दिख जाता था, लगा कहीं कोई बागी छिपा न बैठा हो। यद्यपि स्टेशन मास्टर ने उनकी संभावित अनुपस्थिति के बारे में आश्वस्त कर दिया था, पर जब तक वापस नहीं आ गये हृदय अव्यवस्थित सा धड़कता रहा।
कई बार जाने का अनुभव भी अपर्याप्त था, बीहड़ को समझने के लिये। सामाजिक समस्याओं की समझ भी कभी इतने गहरे निष्कर्ष गढ़ते नहीं देखी गयी। विकास के प्रति प्रशासन की उदासीनता भी विद्रोही प्रत्युत्तरों की ओर इंगित नहीं कर पायी। जब कभी स्मृति में मुरैना आया, कारण जानने का पर्याप्त चिन्तन किया, पर सफलता नहीं मिली। कुछ दिनों पहले एक परिचित पत्रकार से एक बागी(संभवतः मलखान सिंह) का स्वरचित और गाया हुआ ओजपूर्ण गीत सुना तब कहीं जाकर कारण स्पष्ट हुआ। इसी बीच पानसिंह तोमर फिल्म देखकर उस गीत को साझा करने की इच्छा भी बलवती होने लगी। साथ ही साथ यह तथ्य भी सताने लगा है कि जो पानी बीहड़ों में बागी निर्मित करता रहा है, वही पानी हम न जाने कितना पी गये हैं बचपन में, यमुना का समझ कर।
आप तो गीत सुनिये, बस। कहो, हओ...
कहते हैं कि यह बीहड़ तब बनने प्रारम्भ हुये जब वर्षा का पानी कई मार्गों से हो चम्बल में मिलने आया होगा। शताब्दियों का बहाव पृथ्वी की सतह में मुलायम मिट्टी को हर बार कुरेदता होगा, हर वर्ष थोड़ी थोड़ी खरोंच लगती होगी पृथ्वी को। यदि हर बार के दृश्यों को तेजी से चला कर देखा जाये तो यही लगेगा कि मदमाता पानी बहा जा रहा है, सरल पर्तों को उघाड़ता, अन्याय सा लगता है, कमजोर को अपनी जगह से हटाती शक्ति। बीहड़ों के बीच बने लहराते से रास्तों की गहराई जिस अन्याय को सहने का प्रतीक है, उसी अन्याय को सहने की शक्ति और स्थान प्रदान करता रहा है यह बीहड़।
अन्याय के अध्याय तो भारत के अन्य भागों में भी लिखे गये हैं पर वहाँ पर इतने बागी नहीं हुये जितने चम्बलों के बीहड़ों ने पैदा किये। कुछ ने सह कर रहना सीख लिया, कुछ ने रह कर सहना सीख लिया, पर चम्बल के बीहड़ों ने न कभी अन्याय सहना सीखा, न कभी चैन से रहना सीखा। सहनशीलता का ज्वलनबिन्दु इतना शीघ्र भड़क जाने का कारण कुछ और पता चला।
झाँसी की पोस्टिंग के समय मुरैना और धौलपुर का क्षेत्र मंडल के अन्तर्गत ही था, लगभग उसी समय एक सहपाठी जिलाधिकारी मुरैना के पद पर था। कई बार मुरैना जाना हुआ, रेल से भी और सड़क से भी। चम्बल पुल के पास स्थित बीहड़ के अन्दर लगभग एक किमी जाने का अनुभव भी प्राप्त किया। हर दस कदम पर नया दृश्य दिख जाता था, लगा कहीं कोई बागी छिपा न बैठा हो। यद्यपि स्टेशन मास्टर ने उनकी संभावित अनुपस्थिति के बारे में आश्वस्त कर दिया था, पर जब तक वापस नहीं आ गये हृदय अव्यवस्थित सा धड़कता रहा।
Bas ye chambal ka pani bagi bna deta hai,koi karm se bagi koi mn se
ReplyDeleteसब कहते हैं तो कुछ न कुछ तो होगा चम्बल के पानी में।
Deleteपानी का असर कभी सोच पर कभी कर्म पर कम-अधिक होता रहता है शायद. युद्ध में अपने भाई-बंधुओं का वध कर चर्मण्वती (चंबल) में रक्तरंजित अस्त्र धोने जैसी कहानी भी चलती है यहां.
ReplyDeleteचम्बल को प्रतीक मान अपने अपराधों का भार धोने स्वाभाविक ही है बागियों के लिये, चम्बल की घाटियों ने आश्रय दिया है, कृतज्ञता तो बनती है।
Deleteचलिए आप भी घूम आये बीहडों में. इनसे गुजरते समय आत्मा काँप जाती थी.
ReplyDeleteजब अन्दर गये थे तब मन सहज नहीं था, सहजता धीरे धीरे आयी..
Deleteसामाजिक व्यवस्था में बड़े बड़े छिद्र रहे होंगे जिससे समाज की ऊर्जा बीहड़ों में बहने को बाध्य हुयी होगी।
ReplyDeleteकुछ ने सह कर रहना सीख लिया, कुछ ने रह कर सहना सीख लिया, पर चम्बल के बीहड़ों ने न कभी अन्याय सहना सीखा, न कभी चैन से रहना सीखा।
आज ही देखी है फिल्म पान सिंह तोमर ..... और अब आपकी ये पोस्ट पढ़ी , सच में कितना कुछ है
इन बीहड़ों की बात करने को, विचारने को, कहने को......
समस्या सामाजिक है, भाई भाई में क्यों मनभेद रहे? मन के घाव गहरे होते है, बीहड़ उन घावों को अपने में छिपाये रहते हैं।
Deleteगीत वाकई ओजपूर्ण है|
ReplyDeleteबागी ने अपने मन को गाया है इसमें।
Deleteसच कहता गीत
ReplyDeleteअनुभवजन्य सत्य है, गानेवाले बागी का।
Deleteचम्बल का पानी पिए हुए हैं तो क्या डर है !
ReplyDeleteसत्ता खुद शामिल है इस खूनी होली में!
गज़ब गीत !
यह भी एक कटु सत्य है, बहुधा सत्ता भी इस होली में शामिल रही है।
Deleteप्रकृति ने सदैव न्याय किया है मनुष्य ने तो अपनी महत्वाकांक्षा में विवेक को भूल, स्वार्थ को ही प्रश्रय दिया है , बागी बनाने /बनने में किसका कितना हाथ होता है यह सर्व विदित है ,प्रकृति ने पनाह भी बना दिया है .... चम्बल का पानी मीठा है तो निश्चय ही प्रकृति का निर्देश निहित है ,आप की भ्रमण-शीलता जिज्ञासा प्रशंशनीय है / .......सुरुचिपूर्ण विचारनीय पोस्ट का सम्मान ,स्वागत /
ReplyDeleteचम्बल का पानी मीठा है पर सीधा नहीं, अच्छे बुरे का भेद तो समझता होगा, आश्रय जो देता है।
Deleteचम्बल व इसका पानी और आसपास का वर्णन काफ़ी जानकारी भरा रहा।
ReplyDeleteआप घूमने जाना चाहें तो किसी बागी से संपर्क साधा जाये।
Deleteभूल-चूक माफ़ ।
ReplyDeleteहा हा हा, यह तथ्य हमें भी बस कुछ दिन पहले ही पता चला।
Deleteनिजामुद्दीन से गोवा को जाने वाली गोवा एक्सप्रेस चम्बल से गुजरती है और ९० के दशक घर से कालेज आने जाने के क्रम में इस यात्रा के दौरान चम्बल को खूब उत्सुकता से देखता था, सच में एक बिलकुल अलग सा भू भाग.
ReplyDeleteअभी श्री नरेन्द्र कुमार की मृत्यु की खबर इसी क्षेत्र से आई है जो बहद दुखी और विचलीत करने वाली घटना है. सही क्या हुआ है अख़बारों के रिपोर्ट से तो पता नहीं लगेगा.
पान सिंह अबी देखि नहीं है.
आपके ब्लॉग का प्रशंशक होने के कई कारणों में एक इसकी तकनिकी कुशलता भी है - जो इस ब्लॉग में ऑडियो क्लिप के रूप में प्रभावित - इम्प्रेस करती है
धन्यवाद.
वर्तमान की घटना ने झकझोर कर रख दिया है..
Deleteचम्बल पुल के पास स्थित बीहड़ के अन्दर लगभग एक किमी जाने का अनुभव भी प्राप्त किया। हर दस कदम पर नया दृश्य दिख जाता था, लगा कहीं कोई बागी छिपा न बैठा हो।
ReplyDeleteएक अलग दृष्टिकोण जीवन का ....बहुत गहन है आज का आलेख ....हर बार कुछ नया अर्थ लिए हुए ....!
शिवपुरी ....मुरैना ....चम्बल ....उन बीहड़ों की याद ताज़ा हो रही है .....आभार .
कभी भय की ओर जाकर अजब अनुभूति होती है, सो हुई। वहाँ देखकर लगा कि बागियों को ढूढ़ पाना कितना कठिन होता होगा।
Deleteसचमुच,यदि गंगा भक्ति की ,यमुना प्रेम की और सरस्वती ज्ञान की सरिता है तो तो चंबल को कर्म(शौर्य) की माना जा सकता है!
ReplyDeleteआपका कथन इतिहास सिद्ध करता है।
Deleteचम्बल के बीहड़ों के प्रति बचपन से जिज्ञासा बनी हुई है....अब क्षेत्र कुछ शांत हुआ है,पर पानी वैसा ही है !
ReplyDeleteअभी तो शान्त है पर बीहड़ सदा ही छिपने का स्थान रहा है।
Deleteबचपन से ही चम्बल के प्रति एक अलग तरह का आकर्षण रहा है.अब भले ही यह क्षेत्र कुछ शांत हो गया हो,पर वहाँ का 'पानी' नहीं बदला !
ReplyDeleteपानी कहाँ बदलता है, वह तो आदमी को बदल देता है।
Deleteगीत वाकई अद्भुत है...सोच समझ के पीना ये चम्बल का पानी है...बोल भी बहुत सशक्त हैं. इसे शेयर करने के लिए बहुत शुक्रिया.
ReplyDeleteजितनी बार गीत सुनता हूँ, सामने बीहड़ लहरा जाता है।
Deleteplz सुनवाइए
Deleteप्रवीण जी,..पूर्वज भिंड में ही रहते थे,आज भी वहाँ मेरा आना जाना है वहाँ के बीहडो को मैंने नजदीक से देखा है
ReplyDeleteआपने उन बीहडो की याद ताजा करा दी,...आभार
MY RESENT POST ...काव्यान्जलि ...:बसंती रंग छा गया,...
बचपन में बागियों की कहानियाँ सुनते थे, बीहड़ों में जाकर वह सब याद हो आया।
Deleteहओ , सुन लिया. ग्वालियर से इटावा सड़क मार्ग में २-३ बार आना हुआ है . चम्बल नदी के आस पास वाले इलाके में पहुचाने के बाद भय मिश्रित माहौल रहता था .
ReplyDeleteसड़कें तो तब भी सुरक्षित हैं, भय तो बीहड़ में लगता है।
Deleteचंबल के बारे में अच्छी जानकारी ... चंबल का पानी है ...गीत बहुत अच्छा लगा ...
ReplyDeleteचंबल का पानी यहाँ के इतिहास की साक्षी है।
Deletepost se jyada aapko iis audio ke liye thanks kahunga...
ReplyDeletehar ke bas ki baat nahi hoti is tarah ki post ko itni khoobsurati se likhne ki...kuch din pahle hi paan singh tomar dekhi aur aaj aapki ye post..
mujhe to naya bahut kuch jaanne ko mila..bahut kuch janne ko mila!!
चम्बल का बीहड़ सदा ही रहस्य रहा है, मेरे लिये भी, उसी को समझने का प्रयास है यह।
Deleteवाकई में चम्बल के पानी में कुछ तो बात है, धाकड़ पोस्ट है ये !!! :) :) :)
ReplyDeleteतभी तो सोच समझ कर पीने की बात कही गयी है।
Deleteतभी सोचूँ ये बागी तेवर कैसे हैं ...हा हा ..
ReplyDeleteवैसे मैं भी आगरा रहा हूँ बचपन में शायद मुझमें भी चम्बल के पानी का कुछ कुछ असर है ...
पिछले दो साल से तो कावेरी का पानी पी रहे हैं।
Deleteगीत बड़ा अच्छा लगा। सोच समझकर पीना ये चम्बल का पानी है।
ReplyDeleteगीत स्पष्ट कहानी है, चम्बल की।
Deleteगीत स्पष्टता से सब कुछ कह जाता है...!
ReplyDeleteसच कह रही हैं आप, स्पष्टता से सब कहता है यह।
DeleteMy parents hail from Etawah.. very near to chambal region :)
ReplyDeleteI've had many chance of visiting that place.. it is indeed fascinating.
I also watched movie yday... very close portrayal of that area.
इस फिल्म में सब कुछ सरलता से दिखाया है, कोई निर्णय नहीं दिया गया है।
Deleteयह सच है कि पानी का असर होता है.. शायद इसीलिये मुहावरे बने कि घाट-घाट का पानी पिया है या फिर स्वास्थय के लिए पानी बदलने की ज़रूरत आदि!! चम्बल का पानी से अधिक बीहड़ आकर्षित करते रहे हैं!! गीत मधुर!!
ReplyDeleteपानी का प्रभाव पड़ता है, उसे समझना पड़ता है..
Deleteवाकई जो तथ्य आपने रखें हैं वही सच लग रहे हैं बहुत ही अच्छा लिखा है आपने.... तथ्यपूर्ण एवं विचारणीय आलेख...
ReplyDeleteबीहड़ों में छिपा सत्य निकाल कर लाना बहुत कठिन है, घेरदार घाटियाँ।
Deleteबीहड़ वाकई किसी बड़ी उथल पुथल के अवशेष है, यहाँ निश्चित ही नदियों ने अपना अनुशासन छोडा है, शायद पानी में यही बागीपन हो!! शानदार संस्मरण!! और जानकारी!!
ReplyDeleteचम्बल पहले उत्तर की ओर बढ़ती है, फिर पूर्व की ओर। प्रवाह तो अनुशासित है, वह दिशा बदली है।
Deleteलाख लिख लिया जाए और लाख बार पढ लिया जाए, बीहडों में घूमे बिना इनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। और जो एक बार देख ले, वह इन्हें बयान नहीं कर पाता।
ReplyDeleteसच कहा आपने, एक बार घूम आने से सारे रहस्य खुल जाते हैं।
Deletesach mein beehad ke bare mein kai kahaniya pahle bhi suni thi, aur aapse nai jankari ke baare mein pata laga,thanks
ReplyDeleteबचपन में सुनी कहानियों में बहुत कुछ सत्य था।
Deleteहर साल बीहड़ों में जाना होता है और चंबल का पानी पीते हैं और पिछले दस सालों से डायलाग सुन रहे हैं "चंबल का पानी पिया है, सोच समझ कर रहना" :)
ReplyDeleteबीहड़ों में जो नहीं सोचते हैं, वे बागी बन जाते हैं।
Deleteचंबल के बारे में अच्छी जानकारी .
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका..
Deleteहर साल बीहड़ों में जाना होता है और चंबल का पानी पीते हैं और पिछले दस सालों से डायलाग सुन रहे हैं "चंबल का पानी पिया है, सोच समझ कर रहना" :)
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
बहुत आभार आपका।
Deleteबीहड़ ऐसे रास्ते हैं जिनकी कोई मंजिल नहीं होती लेकिन जानेवाले के पास कोई विकल्प नहीं होता। जहां भी हाथ, मुंह और निवाले के बीच दूरी है वहां एक बीहड़ बनने लगता है, सुनसान, वीरान, अंधड़ और अंतहीन रास्तोंवाला बीहड़।
ReplyDeleteवहाँ तो भौतिक बीहड़ है, हमारे नगरों में न जाने कितने मानसिक बीहड़ नित्य निर्मित होते हैं।
Deleteदेखे हैं ये बीहड़ हमने भी लेकिन हम जैसे इसे पिकनिक समझते थे और यहाँ के निवासियों की जिन्दगी में कहीं और ज्यादा बीहड़ हैं।
ReplyDeleteयहाँ के आम निवासी तो हर तरफ से पीड़ित रहे हैं।
Deleteचंबल घाटी इस समय सुर्खियों में है... पान सिंह तोमर फिल्म और उसके बाद एक आई पी एस अफसर की हत्या के कारण....
ReplyDeleteमुरैना का ही निवासी होने के बावजूद बीहड़ों में घूमने का तो अनुभव नहीं लिया परंतु बीहड़ों के बीच या आसपास से गुजरती सड़कों पर बचपन में गुजरने हुए बड़ा रोमाँचक अनुभव रहता था...
करीब दस बारह साल पहले मुरैना से अम्बाह तहसील होते हुए चंबल पार कर आगरा की सीमा में जाना हुआ तब चंबल के प्राकृतिक सौंदर्य को जी भरकर देखा.. खूबसूरत रेतीला तट और साफ पानी... पर यही रेत चंबल के लिये अभिशाप बन चुका है खासकर मुरैना धौलपुर हाईवे पर राजघाट पुल के पास तो स्थितियाँ बेहद खराब हैं.. रेत उत्खनन से यहाँ पाये जाने वाले दुर्लभ जीवों का अस्तित्व खतरे में डाल दिया है... कहने को तो ये चंबल अभ्यारण है पर मानवीय गतिविधियाँ रोकने की इच्छाशक्ति प्रशासन, जंगल महकमे या खनन विभाग किसी में नहीं दिखती.. वैसे प्रशासन अक्सर रोज ही पिटता है.. चंबल के रेत पर गुर्जर समाज के लोगों का कब्जा है.. और रेत ही उनकी रोजी रोटी है..इसके अलावा अवैध रेत सबसे ज्यादा मुनाफ़े का सौदा है उनके लिये.... धौलपुर की ओर रेत और मुरैना से ग्वालियर की तरफ के इलाके में पत्थर का उत्खनन इन लोगों द्वारा किया जा रहा है... बड़ा वोट बैंक होने के कारण सभी पार्टियों में इनके नेता हैं....
बागियों की समस्या के बारे में यहाँ के सबसे वरिष्ठ अधिवक्ता श्री विद्याराम गुप्ता ने काफी शोध करके एक किताब भी लिखी है... इसमें इस समस्या के कारणों पर प्रकाश डाला गया है....
कभी मुलाक़ात होने पर इस विषय पर विस्तृत चर्चा संभव
श्री विद्यारामजी की पुस्तक पढ़ना चाहूँगा। रेत खनन ने चंबल के साथ बेतवा को भी छूँछा बना दिया है।
Deleteडर गए चम्बल के पानी से? यहाँ तो पतिदेव उसी पानी की उपज हैं और अब तो बहु भी वहीं से आ गयी है। हा हा हा हा। हम तो डटकर मुकाबला कर रहे हैं।
ReplyDeleteआपके पतिदेव से मिल चुका हूँ। आज यह पोस्ट पढ़कर जान पाया कि इतने सीधे-सादे इन्सान चंबल में भी पैदा हो सकते हैं। हा हा हा...
Deleteचम्बल का यह सीधा रूप पहली हार जाना, आपको अतिशय बधाईयाँ।
Delete...जैसा पानी वैसी वाणी ,होली , सो , होली ,अनजाने जो हुआ सो हुआ ...पानी तो चाहिए ही सभी को ..रहिमन पानी राखिये ,बिन पानी सब सून ,पानी गए न ऊबरे मोती मानस चून .
ReplyDeleteपानी का बड़ा मोल है, संस्कृति में, विकास में, व्यक्तित्व में।
Deletesarthak jankari mili aapke blog par. beehadon ke snnate, veeraniyan sdaev hi mujhe aakarshit karte rhen haen .par unmen aashray kene vale kitne akele or paadet haten haen is bat ne sda hi vyathit kiya hae ,
ReplyDeleteयदि बागी न हों वहाँ तो बीहड़ों से अधिक रमणीय स्थान नहीं होगा।
Deleteगत वर्ष चित्रकूट जाते हुये यहाँ से गुजरना हुआ था...
ReplyDeleteचम्बल अपने आप में एक रहस्य तो है...
“सोच समझ कर पीना यह चम्बल का पानी है” गीत उसी रहस्य को रेखांकित करता प्रतीत होता है....
सादर.
सच कहा आपने, रहस्य के अध्याय खोल जाता है चंबल का पानी।
Deleteराम प्रसाद विश्मिल जी की जीवन स्थली वरबई ,जिला मुरैना मध्य प्रदेश की चम्बल की पानी वाकई उतेजना पैदा करने वाली होगी.........अतयन्त रोचक आलेख,ऱोमान्चक
ReplyDeleteविस्मिलजी की वीरता चम्बल का वरदान रही हो उनके लिये।
Deleteपानी तो अपन भी चम्बल का ही पीकर बड़े हुए हैं। बचपन के पूरे आठ साल गुजारे हैं मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील में। हो सकता है मेरे लेखन और बात कहने के तरीके में जो अक्खड़पन है वह इसी की देन हो। आपकी पोस्ट तो हमेशा की तरह रोचक रही। पर गीत नहीं सुना जा सका।
ReplyDeleteजब स्रोत ज्ञात है तो स्वीकार कर लीजिये। कावेरी के पानी का प्रभाव संभवतः सम पड़े हम सबके ऊपर।
Deleteभाई साहब पानी तो सारे देश का 'चम्बलवाटर ' ही हो rhaa है .चम्बल एक नियम है अपवाद नहीं .देश की आबो hvaa ही इन '......जादों' ने खराब कर दी है पता ही नहीं चलता सरकार में माफिया है या माफिया- मय सरकार है .
ReplyDeleteताकत ने हर नगर, हर समाज में बीहड़ निर्मित कर दिये हैं।
Deletemain soch rahi hun jab chmbal ka pani pikar akkhadpan aa sakta hai to chnaab ka pani pikar pyaar karna kyon nahin aa sakta ....????
ReplyDeleteचम्बल में अक्खड़पन, चेनाब में अल्हड़पन।
Deleteहमारी तो पैदाईश से लेकर ९ साल तक चम्बल के तट पर बीता..गाँधीसागर, जवाहरसागर, राणा प्रताप सागर बाँध परियोजनाओं पर पिता जी इन्चार्ज होते थे और हम चम्बल के बाजू में बनी कालोनियों में रहते थे....खूब यादें जुड़ी हैं आज भी.
ReplyDeleteसुन्दर, और सार्थक पोस्ट, आभार.
Deleteतब तो आपने चम्बल का पानी जी भर कर पिया होगा।
Deleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ...
ReplyDeleteबहुत आभार आपका..
Deleteचम्बल के ही पानी की देंन थी पान सिंह तोमर. फिल्म भी मजेदार है
ReplyDeleteफिल्म में बीहड़ का सच बहुत ही सहज रूप में दिखाया है..
Deleteएक बार निकलना हुआ था उस तरफ से वाकई रूह सी कांप जाती है.आज ही पान सिंह तोमर देखने का प्लान है.
ReplyDeleteहमारा तो कई बार जाना हुआ, धड़कन धीरे धीरे संयत होने लगी।
Deleteपान सिंह तोमर...!!!
ReplyDeleteदो दिन में दो बार हॉल में जाकर देखा, बावजूद इसके कि वर्टिगो से कान का हाल बेहाल था..उसके प्रभाव से मुक्त होने के लिए लगता है इससे भी घनघोर कुछ देखना पड़ेगा..
बेटा जब ग्वालियर में था कई दफे उस रास्ते से आना जाना हुआ.ग्वालियर में चहुँ ओर अस्त्रों के दुकान ऐसे ही दिखे, जैसे यहाँ चिप्स कुरकुरे के दुकान दीखते हैं..तो हर बार मन में यही आया कि दमन और अस्त्र दोनों जहाँ चोली दमन की तरह हों, तो अस्त्र कितना और कबतक चुप रहे..
सच कहा आपने, यहाँ के हर घर में बंदूकें दिख जायेंगी।
Deleteचम्बल के घटी की हकीकत बयां करता हुआ अच्छा गीत.... चम्बल के बारे में इतना कुछ विस्तार से जानना अच्छा लगा. सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteपूरा अनुभव तो वहाँ के बीहड़ों में घूमकर ही मिलता है।
Deleteचम्बल के बीहड़ों कि बात चली तो एक गढ़ याद आ गया. गढ़कुडार. दूर से गढ़ दीखता है परन्तु नजदीक से नहीं. वृन्दावनलाल वर्मा जी का एक उपन्यास भी है. गीत गजब का है.
ReplyDeleteवृन्दावनलाल वर्मा झाँसी के ही थे, इस पूरे क्षेत्र का सुन्दर वर्णन मिल जाता है उनके उपन्यासों में।
Deleteसंयोग देखिये कि कल ही यहाँ मल्टीप्लेक्स में तिग्मांशु धूलिया की 'पान सिंह तोमर' देखी और आज आपका ब्लॉग. चम्बल का चित्र खींचती आपकी लेखनी गजब की है....... चम्बल साक्षात् देखने का अवसर तो नहीं मिल पाया किन्तु रेल से ही उधर से गुजरते हुए वे बीहड़ दिखाई देते हैं..... बागी के स्वर में कविता हकीकत बयां करती है. आभार !
ReplyDelete..... वैसे चम्बल के पानी और यमुना के पानी में जो फर्क माना जाता हैं वही फर्क हमारे यहाँ यमुना के पानी और गंगा के पानी के बीच भी है. देहरादून के पूर्वी छोर पर गंगा बहती है और पश्चिमी छोर पर यमुना.
हमने यमुना को चम्बल के पानी से प्लावित होते हुये जाना है, अब उन दोनों में कोई अन्तर नहीं दिखता है हमें।
Deleteइस इलाके में कभी नहीं गया इसलिए इस लेख व प्रतिक्रियाओं खासकर भुवनेश की से यहाँ की स्थिति व समस्याओं का कुछ अंदाज़ा हुआ।
ReplyDeleteअपने में एक अलग तरह का क्षेत्र है, पूर्णतया विशिष्ट..
Deleteचम्बल घाटी के बारे इतनी जानकारी नहीं थी हाँ सुना बहुत बार था पर आपके खूबसूरत अंदाज़ ने उससे बख्बी समझा दिया बहुत सुन्दर शुक्रिया |
ReplyDeleteबीहड़ों की सेर कर लीजिये, सब और भी स्पष्ट हो जायेगा।
Deleteकल 14/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं।
ReplyDeleteआपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
सार्थक ब्लॉगिंग की ओर ...
बहुत आभार आपका..
Deleteउत्तर भारत से मध्य भारत की ओर जाते हुए जब उस क्षेत्र से गाड़ी गुज़रती है, तो बड़ा भय लगता है, चाहे दिन ही क्यों न हो! लगता है फ़िल्मों ने अमिट छाप छोड़ी है मन पर।
ReplyDeleteबहुत स्तरीय फिल्म बनायी है, इस विषय पर।
Deleteबहुत सुन्दर गीत। बढिया पोस्ट।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
Deleteप्रकृति अच्छे- बुरे कानून से नहीं चलती है .बागी या सभ्य बराबर हैं..
ReplyDeleteप्रकृति अच्छे- बुरे कानून से नहीं चलती है .बागी या सभ्य बराबर हैं..
ReplyDeleteप्रकृति के लिये तो सब बराबर हैं पर बीहड़ का अधिक लाभ बागी लेते रहे हैं।
Deleteबहुत ही सशक्त, आलेख ....चम्बल हमेशा से ही कौतुहल का विषय रहा .....आपका लेख पढ़कर और बढ़ गया
ReplyDeleteचंबल का कौतुहल बिना वहाँ जाये कम होने वाला नहीं।
Deleteक्या सच मेँ यह खतरे वाला जगह है ,सुना है कि चारो तरफ पुलिस है यहाँ पर
ReplyDeleteक्या सच मेँ यह खतरे वाला जगह है ,सुना है कि चारो तरफ पुलिस है यहाँ पर
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