जब युवा मित्र निश्चय कर चुके थे कि नकल पूर्णतया न्यायसंगत और धर्मसंगत है तो उन्हें पढ़ने के लिये उकसाने का तथा कोई महत्वपूर्ण अध्याय पढ़ा देने का अर्थ शेष नहीं रहा था। जब वर्ष भर कुछ नहीं पढ़ा तो अन्त के दो दिन पढ़ने की उत्पादकता से कहीं अधिक प्रभावी होती है, नकल की पर्ची बनाने में लगे श्रम की उत्पादकता। फिर भी एक बार कुछ पाठ्यक्रम समझाने का प्रयास किया पर आँखों में शून्य और ग्रहणीय-घट को उल्टा पाकर हमारा भी उत्साह थक चला और लगने लगा कि उनके लिये नकल ही एक मार्ग बचा है, वही उनकी मुक्ति का एकमेव उपाय है।
प्राचीन काल में जब शूरवीर युद्ध में जाते होंगे तो शत्रुपक्ष की संभावित रणनीतियों पर विशद चर्चा होती होगी। हर रणनीति का करारा उत्तर नियत किया जाता होगा और मन में विजय के अतिरिक्त कोई और भाव पनपता भी न होगा। परीक्षा के पहले संभावित प्रश्न और उसके उत्तर नकल की पुर्चियों में उतारने का कार्य प्राथमिक था। पुर्चियों की संख्या बहुत अधिक होने से परीक्षा के समय उनका स्थान याद रखने में और किसी उड़नदस्ते के आने पर उन्हें छिपाये रखने में बहुत कठिनाई होती है। यदि वीर के पास अधिक अस्त्र शस्त्र रहेंगे तो उससे गति बाधित होने की संभावना रहती है, इसी सिद्धांत के आधार पर अधिक पुर्चियों का विचार त्याग दिया गया।
कम पुर्चियों में अधिक सामग्री डालने का उपक्रम नकल को एक शोध का विषय बना देता है। पहले तो छाँट कर केवल महत्वपूर्ण विषयों को एकत्र किया जाता है, उसमें से जो याद किया जा सकता है उसे छोड़ देने के बाद शेष सामग्री को नियत पुर्चियों में इतना छोटा छोटा लिखना होता है कि गागर में सागर की कहावत भी तुच्छ सी लगने लगे। लगता तो यह भी है कि चावल के दाने पर हनुमान चालीसा लिखने का विचार और कुशलता ऐसे ही गाढ़े समय में विकसित हुयी होगी। परीक्षा का भय दूर करने के लिये हनुमान चालीसा का पाठ और आराध्य को कार्य की सफलता के पश्चात अपने युद्ध कौशल की कोई भेंट चढ़ाने के विचार ने भक्तों को चावल के दाने पर हनुमान चालीसा लिखने को प्रेरित किया होगा।
दिन के समय पुर्ची बनाने में किसी के द्वारा पकड़े जाने का भय था, पिताजी ने पकड़ लिया तो दो बार पिटाई निश्चित थी, एक तो परीक्षा के पहले और दूसरी परीक्षा के बाद। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिये रात का समय निश्चय किया गया, उस समय न केवल काम निर्विघ्न सम्पन्न हो जायेगा वरन सबको लगेगा कि बच्चे पढ़ाई में जी जान से लगे हैं। हमारा रात्रि जागरण तय था और युवा के पिता को भी लग रहा था कि हम उनके बच्चे को उत्तीर्ण कराने में अपना समुचित योगदान देकर अपने पड़ोसी धर्म का निर्वाह कर रहे हैं।
रात गहराती गयी, पुर्चियों की संख्या बढ़ती गयी। हमने भी पहले ही कह दिया था कि हम उत्तर आदि बता देंगे पर पुर्चियों को हाथ भी नहीं लगायेंगे। जिस मनोयोग से रात में पुर्चियाँ बनायी गयीं, उतना शोध और श्रम यदि चन्द्रमा में पहुँचने के लिये किया जाता तो हम १९४८ में ही वह सफलता अर्जित कर चुके होते। एक तकनीक जिसका पता चलने पर हमारा सर उनके सामने सम्मान से झुक गया, वह उस पूरे प्रकरण में दूरदर्शिता का उत्कृष्टतम उदाहरण था। एक नियम था कि नकल करते समय पकड़े जाने की स्थिति में यदि पुर्ची निरीक्षक के हाथ लग जाती है तो उसे उत्तरपुस्तिका के साथ नत्थी कर दिया जाता है और कॉपी छीन ली जाती है, तब फेल होना निश्चित है। उस स्थिति से भी पुर्ची फेंककर या निगल कर बचा जा सकता है। पुर्ची निगलने की स्थिति में कागज तो अधिक हानि नहीं करेगा पर स्याही अहित कर सकती थी। एक विशेष स्याही का प्रयोग किया गया था जो पूर्णतया प्राकृतिक थी, शरीर में घुलनशील और संभवतः पौष्टिक भी।
अब समस्या थी कि पुर्चियों को कहाँ छिपाया जाये, किस तरह के कपड़ों में अधिकाधिक पुर्चियाँ छिपायी जा सकती हैं, किन स्थानों पर हाथ डालने से निरीक्षक भी हिचकते हैं। यह एक गहन विषय था और इस पर बुद्धि से अधिक अनुभव को महत्व दिया जाता है। हमें सोने की जल्दी थी और इस विषय में हमारी योग्यता अत्यन्त सीमित थी अतः हम वहाँ से उठकर आने लगे पर एक रोचक तथ्य सुनकर रुक गये। बात चल रही थी कि किस तरह गर्मी में अधिक से अधिक कपड़े पहन कर जाया जाये, अधिक कपड़ों में पुर्चियाँ छिपाने में सुविधा रहती है। वर्षभर टीशर्ट और सैण्डल पहन कर जाने वाले जब पूरे बाँह की शर्ट और जूते मोजे पहन कर परीक्षा देने जाने लगें तो समझ लीजिये कि परीक्षा की तैयारी अत्यन्त गम्भीरता से चल रही है।
आने वाली सुबह निर्णय की सुबह थी, पर हमारे युवा मित्र भी पूरी तरह तैयार थे।
प्राचीन काल में जब शूरवीर युद्ध में जाते होंगे तो शत्रुपक्ष की संभावित रणनीतियों पर विशद चर्चा होती होगी। हर रणनीति का करारा उत्तर नियत किया जाता होगा और मन में विजय के अतिरिक्त कोई और भाव पनपता भी न होगा। परीक्षा के पहले संभावित प्रश्न और उसके उत्तर नकल की पुर्चियों में उतारने का कार्य प्राथमिक था। पुर्चियों की संख्या बहुत अधिक होने से परीक्षा के समय उनका स्थान याद रखने में और किसी उड़नदस्ते के आने पर उन्हें छिपाये रखने में बहुत कठिनाई होती है। यदि वीर के पास अधिक अस्त्र शस्त्र रहेंगे तो उससे गति बाधित होने की संभावना रहती है, इसी सिद्धांत के आधार पर अधिक पुर्चियों का विचार त्याग दिया गया।
कम पुर्चियों में अधिक सामग्री डालने का उपक्रम नकल को एक शोध का विषय बना देता है। पहले तो छाँट कर केवल महत्वपूर्ण विषयों को एकत्र किया जाता है, उसमें से जो याद किया जा सकता है उसे छोड़ देने के बाद शेष सामग्री को नियत पुर्चियों में इतना छोटा छोटा लिखना होता है कि गागर में सागर की कहावत भी तुच्छ सी लगने लगे। लगता तो यह भी है कि चावल के दाने पर हनुमान चालीसा लिखने का विचार और कुशलता ऐसे ही गाढ़े समय में विकसित हुयी होगी। परीक्षा का भय दूर करने के लिये हनुमान चालीसा का पाठ और आराध्य को कार्य की सफलता के पश्चात अपने युद्ध कौशल की कोई भेंट चढ़ाने के विचार ने भक्तों को चावल के दाने पर हनुमान चालीसा लिखने को प्रेरित किया होगा।
दिन के समय पुर्ची बनाने में किसी के द्वारा पकड़े जाने का भय था, पिताजी ने पकड़ लिया तो दो बार पिटाई निश्चित थी, एक तो परीक्षा के पहले और दूसरी परीक्षा के बाद। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिये रात का समय निश्चय किया गया, उस समय न केवल काम निर्विघ्न सम्पन्न हो जायेगा वरन सबको लगेगा कि बच्चे पढ़ाई में जी जान से लगे हैं। हमारा रात्रि जागरण तय था और युवा के पिता को भी लग रहा था कि हम उनके बच्चे को उत्तीर्ण कराने में अपना समुचित योगदान देकर अपने पड़ोसी धर्म का निर्वाह कर रहे हैं।
रात गहराती गयी, पुर्चियों की संख्या बढ़ती गयी। हमने भी पहले ही कह दिया था कि हम उत्तर आदि बता देंगे पर पुर्चियों को हाथ भी नहीं लगायेंगे। जिस मनोयोग से रात में पुर्चियाँ बनायी गयीं, उतना शोध और श्रम यदि चन्द्रमा में पहुँचने के लिये किया जाता तो हम १९४८ में ही वह सफलता अर्जित कर चुके होते। एक तकनीक जिसका पता चलने पर हमारा सर उनके सामने सम्मान से झुक गया, वह उस पूरे प्रकरण में दूरदर्शिता का उत्कृष्टतम उदाहरण था। एक नियम था कि नकल करते समय पकड़े जाने की स्थिति में यदि पुर्ची निरीक्षक के हाथ लग जाती है तो उसे उत्तरपुस्तिका के साथ नत्थी कर दिया जाता है और कॉपी छीन ली जाती है, तब फेल होना निश्चित है। उस स्थिति से भी पुर्ची फेंककर या निगल कर बचा जा सकता है। पुर्ची निगलने की स्थिति में कागज तो अधिक हानि नहीं करेगा पर स्याही अहित कर सकती थी। एक विशेष स्याही का प्रयोग किया गया था जो पूर्णतया प्राकृतिक थी, शरीर में घुलनशील और संभवतः पौष्टिक भी।
अब समस्या थी कि पुर्चियों को कहाँ छिपाया जाये, किस तरह के कपड़ों में अधिकाधिक पुर्चियाँ छिपायी जा सकती हैं, किन स्थानों पर हाथ डालने से निरीक्षक भी हिचकते हैं। यह एक गहन विषय था और इस पर बुद्धि से अधिक अनुभव को महत्व दिया जाता है। हमें सोने की जल्दी थी और इस विषय में हमारी योग्यता अत्यन्त सीमित थी अतः हम वहाँ से उठकर आने लगे पर एक रोचक तथ्य सुनकर रुक गये। बात चल रही थी कि किस तरह गर्मी में अधिक से अधिक कपड़े पहन कर जाया जाये, अधिक कपड़ों में पुर्चियाँ छिपाने में सुविधा रहती है। वर्षभर टीशर्ट और सैण्डल पहन कर जाने वाले जब पूरे बाँह की शर्ट और जूते मोजे पहन कर परीक्षा देने जाने लगें तो समझ लीजिये कि परीक्षा की तैयारी अत्यन्त गम्भीरता से चल रही है।
आने वाली सुबह निर्णय की सुबह थी, पर हमारे युवा मित्र भी पूरी तरह तैयार थे।