31.3.12

नकल की तैयारी

जब युवा मित्र निश्चय कर चुके थे कि नकल पूर्णतया न्यायसंगत और धर्मसंगत है तो उन्हें पढ़ने के लिये उकसाने का तथा कोई महत्वपूर्ण अध्याय पढ़ा देने का अर्थ शेष नहीं रहा था। जब वर्ष भर कुछ नहीं पढ़ा तो अन्त के दो दिन पढ़ने की उत्पादकता से कहीं अधिक प्रभावी होती है, नकल की पर्ची बनाने में लगे श्रम की उत्पादकता। फिर भी एक बार कुछ पाठ्यक्रम समझाने का प्रयास किया पर आँखों में शून्य और ग्रहणीय-घट को उल्टा पाकर हमारा भी उत्साह थक चला और लगने लगा कि उनके लिये नकल ही एक मार्ग बचा है, वही उनकी मुक्ति का एकमेव उपाय है।

प्राचीन काल में जब शूरवीर युद्ध में जाते होंगे तो शत्रुपक्ष की संभावित रणनीतियों पर विशद चर्चा होती होगी। हर रणनीति का करारा उत्तर नियत किया जाता होगा और मन में विजय के अतिरिक्त कोई और भाव पनपता भी न होगा। परीक्षा के पहले संभावित प्रश्न और उसके उत्तर नकल की पुर्चियों में उतारने का कार्य प्राथमिक था। पुर्चियों की संख्या बहुत अधिक होने से परीक्षा के समय उनका स्थान याद रखने में और किसी उड़नदस्ते के आने पर उन्हें छिपाये रखने में बहुत कठिनाई होती है। यदि वीर के पास अधिक अस्त्र शस्त्र रहेंगे तो उससे गति बाधित होने की संभावना रहती है, इसी सिद्धांत के आधार पर अधिक पुर्चियों का विचार त्याग दिया गया।

कम पुर्चियों में अधिक सामग्री डालने का उपक्रम नकल को एक शोध का विषय बना देता है। पहले तो छाँट कर केवल महत्वपूर्ण विषयों को एकत्र किया जाता है, उसमें से जो याद किया जा सकता है उसे छोड़ देने के बाद शेष सामग्री को नियत पुर्चियों में इतना छोटा छोटा लिखना होता है कि गागर में सागर की कहावत भी तुच्छ सी लगने लगे। लगता तो यह भी है कि चावल के दाने पर हनुमान चालीसा लिखने का विचार और कुशलता ऐसे ही गाढ़े समय में विकसित हुयी होगी। परीक्षा का भय दूर करने के लिये हनुमान चालीसा का पाठ और आराध्य को कार्य की सफलता के पश्चात अपने युद्ध कौशल की कोई भेंट चढ़ाने के विचार ने भक्तों को चावल के दाने पर हनुमान चालीसा लिखने को प्रेरित किया होगा।

दिन के समय पुर्ची बनाने में किसी के द्वारा पकड़े जाने का भय था, पिताजी ने पकड़ लिया तो दो बार पिटाई निश्चित थी, एक तो परीक्षा के पहले और दूसरी परीक्षा के बाद। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिये रात का समय निश्चय किया गया, उस समय न केवल काम निर्विघ्न सम्पन्न हो जायेगा वरन सबको लगेगा कि बच्चे पढ़ाई में जी जान से लगे हैं। हमारा रात्रि जागरण तय था और युवा के पिता को भी लग रहा था कि हम उनके बच्चे को उत्तीर्ण कराने में अपना समुचित योगदान देकर अपने पड़ोसी धर्म का निर्वाह कर रहे हैं।

रात गहराती गयी, पुर्चियों की संख्या बढ़ती गयी। हमने भी पहले ही कह दिया था कि हम उत्तर आदि बता देंगे पर पुर्चियों को हाथ भी नहीं लगायेंगे। जिस मनोयोग से रात में पुर्चियाँ बनायी गयीं, उतना शोध और श्रम यदि चन्द्रमा में पहुँचने के लिये किया जाता तो हम १९४८ में ही वह सफलता अर्जित कर चुके होते। एक तकनीक जिसका पता चलने पर हमारा सर उनके सामने सम्मान से झुक गया, वह उस पूरे प्रकरण में दूरदर्शिता का उत्कृष्टतम उदाहरण था। एक नियम था कि नकल करते समय पकड़े जाने की स्थिति में यदि पुर्ची निरीक्षक के हाथ लग जाती है तो उसे उत्तरपुस्तिका के साथ नत्थी कर दिया जाता है और कॉपी छीन ली जाती है, तब फेल होना निश्चित है। उस स्थिति से भी पुर्ची फेंककर या निगल कर बचा जा सकता है। पुर्ची निगलने की स्थिति में कागज तो अधिक हानि नहीं करेगा पर स्याही अहित कर सकती थी। एक विशेष स्याही का प्रयोग किया गया था जो पूर्णतया प्राकृतिक थी, शरीर में घुलनशील और संभवतः पौष्टिक भी।

अब समस्या थी कि पुर्चियों को कहाँ छिपाया जाये, किस तरह के कपड़ों में अधिकाधिक पुर्चियाँ छिपायी जा सकती हैं, किन स्थानों पर हाथ डालने से निरीक्षक भी हिचकते हैं। यह एक गहन विषय था और इस पर बुद्धि से अधिक अनुभव को महत्व दिया जाता है। हमें सोने की जल्दी थी और इस विषय में हमारी योग्यता अत्यन्त सीमित थी अतः हम वहाँ से उठकर आने लगे पर एक रोचक तथ्य सुनकर रुक गये। बात चल रही थी कि किस तरह गर्मी में अधिक से अधिक कपड़े पहन कर जाया जाये, अधिक कपड़ों में पुर्चियाँ छिपाने में सुविधा रहती है। वर्षभर टीशर्ट और सैण्डल पहन कर जाने वाले जब पूरे बाँह की शर्ट और जूते मोजे पहन कर परीक्षा देने जाने लगें तो समझ लीजिये कि परीक्षा की तैयारी अत्यन्त गम्भीरता से चल रही है।

आने वाली सुबह निर्णय की सुबह थी, पर हमारे युवा मित्र भी पूरी तरह तैयार थे।

28.3.12

नकल का अधिकार

'भैया, पास न भयेन तो बप्पा बहुतै मारी' अर्थ था कि भैया, यदि परीक्षा में पास न हो पाये तो पिताजी बहुत पिटायी करेंगे। १८ साल का युवा, कक्षा १२, मार्च का महीना और आँखों का भय शत प्रतिशत प्राकृतिक। नाम का अधिक महत्व नहीं है क्योंकि आप मस्तिष्क पर थोड़ा सा भी जोर डालेंगे तो पड़ोस के किसी न किसी युवा का नाम आपके मन में कौंध जायेगा। पिता क्यों पीटेगें, क्योंकि उनका यह दृढ़ विश्वास है कि विद्यालय जाने के नाम पर लड़के मटरगस्ती करते रहते हैं क्योंकि पढ़ाई और अनुशासन रहा ही नहीं, कितना अच्छा होता कि लड़का घर में खेती आदि में पिताजी का हाथ बटाता।

लड़का भी क्या करे, परिश्रम तो बहुत किया है उसने। अब कुछ विषय ऐसे हैं जो समझ में आते ही नहीं हैं। अध्यापक ने वर्षभर कुछ पढ़ाया ही नहीं है, जब स्थानीय परीक्षा होती थी तो जुगत लगाकर पास कर दिया जाता था, बोर्ड की परीक्षाओं में पेपर बाहर वाले ही बनाते हैं और जाँचते भी बाहर ही हैं। यदि जो आता है, वह लिख दिया तो फेल होना तय है। फेल हो गये तो पिताजी को अपनी बात सिद्ध करने का अवसर मिल जायेगा और अगले साल से खेती करनी पड़ेगी।

किसी रोमांचक फिल्म से कम नहीं है, उस युवा की व्यथा कथा। जिन्हें हिन्दी फिल्में देखने का समुचित अनुभव है, उन्हें सुखान्त की आशा अन्त तक बँधी रहती है और बस एक बार दर्शक के मन में यह घर कर जाये कि पात्र निर्दोष है तो सुखान्त के लिये पात्र कुछ भी कर डाले, वह क्षम्य होता है।

अब एक ओर जीवन भर खेतों में खटना, वहीं दूसरी ओर थोड़ी बहुत नकल कर पास हो जाना और कालेज इत्यादि में नगरीय जीवन का आनन्द उठाना, युवा को निर्णय लेने में कोई कठिनाई नहीं हो रही थी। ऐसे निर्णयों को सहारा देने के लिये मन दौड़ा दौड़ा आता है, पूरी की पूरी तर्क श्रंखला के साथ।

अब देखिये कुछ दिन पहले तक स्वकेन्द्र परीक्षा होती थी अर्थात अपने ही विद्यालयों में बोर्ड की परीक्षा। जहाँ पूरे विद्यालय की प्रतिष्ठा दाँव पर लगी हो वहाँ पर छात्रों को येन केन प्रकारेण उत्तीर्ण कराना तो बनता है। कैसे भी हो बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के सभी छात्र उत्तीर्ण हो जाते थे, ससम्मान की आस किसी को नहीं रहती थी क्योंकि सम्मान तो पहले ही गिरवी रखा जा चुका होता था। पता नहीं किस अधिकारी का निर्णय था कि परकेन्द्र परीक्षा ली जाये। किसी प्रतिद्वन्दी विद्यालय में जाकर सुविधानुसार प्रश्नपत्र हल करना तो दूर, सर हिलाना भी संभव नहीं रहता था। जहाँ कमरे में एक निरीक्षक होता था, वहाँ दो दो लग जाते थे। पता नहीं बिना पढ़े बच्चों को इस तरह से सताने में ईश्वर उन अध्यापकों को क्या आनन्द देता होगा।

स्वकेन्द्र हो या परकेन्द्र, नकल तो करनी आवश्यक ही थी। जब नकल न कर के पास होना सर्वथा असम्भव हो, तो नकल कर के पास होने का प्रयास तो किया ही जा सकता था। पकड़े जाने पर अनुत्तीर्ण कर दिये जाते हैं, पर बचने पर उत्तीर्ण होने की संभावना थी। प्रायिकता के इस सिद्धान्त पर और प्रयास सफल न होने पर भी अनुत्तीर्ण ही होने के निष्कर्षों ने नकल को दशकों तक छात्रों के बीच जीवन्त और लोकप्रिय बनाये रखा।

इस सर्वजनहिताय सिद्धान्त को तो तब झटका लगा था जब किसी मंत्री को छात्रों का यह सुख देखा नहीं गया। जो कार्य वर्ष भर की पढ़ाई करने में अक्षम थी, वह वर्षान्त की नकल करा देती थी। एक नकल अध्यादेश लाया गया जिसमें नकल करते छात्रों को सीधे जेल भेजे जाने का प्रावधान था। कितना बड़ा अन्याय, जिस अपराध के लिये पूरे शिक्षा तन्त्र को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिये, उसके लिये एक निरीह से छात्र को दण्ड देने के प्रावधान रखा गया। एक दो वर्ष पूरी युवाशक्ति सहमी सहमी रही, उत्तीर्ण छात्रों का प्रतिशत ३० के भी नीचे चला गया, घोर कलियुग, दो तिहाई युवाशक्ति नकारा। प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी, नयी सरकार आयीं, छात्रों को उनका मौलिक अधिकार ससम्मान वापस कर दिया गया।

हमारे होनहार पात्र के लिये अब प्रश्न यह नहीं था कि नकल करना उचित है कि अनुचित या नकल करने का अवसर मिलेगा कि नहीं, प्रश्न इस बात का था कि नकल की किन विधियों को प्रयोग में लाकर उत्तीर्ण हुआ जा सकता था और वह भी, कम से कम प्रयास में, श्रम को भी सोच समझ कर बहाने का दायित्व जो था उन पर। या कहें कि क्या जुगत लगाने से नकल के लिये बनायी जाने वाली पुर्चियों की संख्या न्यूनतम हो और उसमें किस तरह अधिकतम सामग्री डाली जा सके।

अब कहीं जाकर हमको समझ में आया कि हमसे किस प्रकार की सहायता की अपेक्षा की जा रही थी।

24.3.12

उपलब्धि रही यह जीवन की

रातें लम्बी, दिन छोटे हैं, हम व्यथा बनाये ढोते हैं,
रातों की काली स्याही में, हम उजले दिन भी खोते हैं।
जब आशा बन उद्गार जगी, तब रोक वृत्ति चिन्तित मन की,
अपने ऊपर कुछ देर हँसा, उपलब्धि रही यह जीवन की ।।१।।

आदर्श-लता हम बोते हैं, श्रम, समय तिरोहित होते हैं,
पूर्णाहुति में सब कुछ अर्पित, लखते अतीत को, रोते हैं।
जब सुनकर चीखें पीर भरी, तब त्याग क्षुधा दावानल सी,
आदर्शों ने उपवास रखा, उपलब्धि रही यह जीवन की ।।२।।

अति उत्साहित चिन्तन मन का, जीवट था, गर्व उमड़ता था,
पा कोई समस्या कैसी भी, बन प्रबल विरोधी भिड़ता था।
जब लड़ने की इच्छा थकती, तब छोड़ पिपासा दंभ भरी,
उद्वेगों को चुपचाप सहा, उपलब्धि रही यह जीवन की ।।३।।

हम चढ़कर ऊँचे पर्वत पर, निश्चय पायें सम्मान प्रखर,
यश-सिन्धु, बिन्दु बन मिल जाते, जीवन आहुतियाँ दे देकर।
तन, मन, समर्थ हो जितना भी, हो जीवन श्रम, क्रम उतना ही,
मैं अपनी क्षमता जान सका, उपलब्धि रही यह जीवन की ।।४।।

21.3.12

होली के उन्माद में नाचना

नृत्य और संगीत, कहते हैं कि स्वर्ग की एक भेंट है, हम पृथ्वीवासियों के लिये। स्वर्ग में हर पग नृत्य है और हर बोल संगीत। कई विधायें हैं, संस्कृतियों के प्रभाव हैं, शास्त्रीय, आधुनिक, स्थानीय लोकगीत व लोकनृत्य। हर व्यक्ति किसी न किसी तरह से नृत्य और गीत से जुड़ा हुआ है। गाना अधिक व्यापक है, घर में, स्नान करते समय, टहलते हुये, पूजा करने में, खाना बनाते बनाते, हम सब कुछ न कुछ गा लेते हैं, गुनगुना लेते हैं। नाचना थोड़ा कम हो पाता है, अब आप राह चलते नाच तो नहीं सकते हैं।

जिनके पास समय है, साथ है और धन भी है, वे डिस्को आदि में जाकर अपना नृत्य-कौशल दिखा आते हैं। हम जैसे सामान्य जीवनशैली धारकों के लिये केवल दो ही अवसर आते हैं, नाचने के। एक तो किसी निकटस्थ के विवाह में या होली में। होली वर्ष में एक बार ही आती है और सारे निकटस्थों के विवाह धीरे धीरे होते रहने से नाच पाने का अवसर कम ही मिल पाता है। जहाँ पर लोक संस्कृतियाँ अभी भी जीवित हैं और किसी न किसी नृत्य शैली से संबद्ध हैं, वहाँ पर नाचने को समुचित अवसर मिलता रहता है।

प्रेम के विशेषज्ञों की माने तो, नृत्य हमारे गुणसूत्रों में आदिमकाल से विद्यमान है, एक मानसिक उथलपुथल के रूप में। वह उथलपुथल रह रहकर अपना निरूपण ढूढ़ती है, आन्तरिक विश्रंखलता नृत्य को सर्वश्रेष्ठ माध्यम मानती है। किसी को विवाह में नाचते हुये ध्यान से देखिये, ऐसा लगता है कि ऊर्जा का अस्त व्यस्त उफान एक एक कर सभी अंगों से बाहर आने का प्रयास कर रहा हो। आप अपना वीडियो स्वयं देखिये, लगेगा कोई और व्यक्ति है। नीत्ज़े कहते हैं कि आपको यदि नृत्य में बहुत अच्छा करना है तो मन की उथलपुथल का सहारा लीजिये। हिरोमू आराकावा कहते हैं कि इस अव्यवस्थित और उथलपुथल भरे विश्व में सौन्दर्य बिखरा पड़ा है। संभवतः नृत्य उसका प्राकृतिक निरूपण है।

किसी के नृत्य करने का ढंग उसके व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ कह जाता है। संगीत की बीट के अनुसार पैर थिरकने चाहिये, वह तो आवश्यक ही है और सबके होते भी हैं, पर बाकी शरीर को किस तरह से संगीत में लहराया जाता है, वह हर एक के लिये अलग अलग होता है। कुछ लोगों को प्रेमासित मध्यम नृत्य भाता है, धीरे धीरे, अपने प्रेमी के साथ, लगता है मन के श्रंगार को सुगढ़ दिशा देने का कोमल प्रयास चल रहा है, ऊर्जा से अधिक स्पर्श को प्राथमिकता देता हुआ, अपने और अपनों में खोया हुआ। कई लोगों को लयात्मक नृत्य भाता है, अंगों को भाव प्रधान संवाद करते हुये, लगता है कोई सोचा हुआ संदेश प्रसारित हो रहा हो। मुझे जब भी नाचने का अवसर मिलता है, मेरे लिये वह एक ऊर्जायुक्त घटना होती है। मुझ जैसे बहुतों के लिये नाचने के लिये जब कम समय मिलता हो, तो उसमें मन की उथलपुथल ही निकलना स्वाभाविक है।

नृत्य दैनिक जीवन का हिस्सा नहीं है, होली जैसे उत्सवों में इस तरह के आनन्ददायक क्षण मिलते हैं, उन्मादित हो नृत्य करने के लिये। रंगों के पीछे हमारी कृत्रिमता छिप जाती है, या कहें कि हमारा आदिम स्वरूप बाहर आ जाता है, उपाधियों के आवरण से परे, अपने मूल स्वरूप में सराबोर, होली के उन्माद में। मित्रों का साथ, बच्चों का उत्साह, ऊर्जा से अभिभूत वातावरण, यदि आप नाच न उठें तो आपको स्वयं से कुछ गहन प्रश्न करने पड़ेंगे। कोई होली ऐसी न बीती होगी, जब जी भर कर नाचे न हों, थककर चूर न हो गये हों, दोपहर में निढाल होकर सोये न हों, शाम के मित्रों के गाना न गाया हो।

जब तक पढ़ते थे, होली का आनन्द परीक्षाओं के पहले मन का गुबार निकालने का साधन रहता था, अब नौकरी में मार्च महीने में लक्ष्य प्राप्ति की सघनता होली में गुबार निकालने का कारण बनती है। आनन्द बटोरने की व्यग्रता होली को उसका स्वच्छंद स्वरूप दे देती है। होली को सदियों से आनन्द का आशीर्वाद मिला है, होली को हमारे आदिम भाव उभारने का आशीर्वाद मिला है, होली को आनन्द में छोटे छोटे मतभेद स्वाहा कर देने का आशीर्वाद मिला हुआ है। यदि आपने जी भर कर होली के आशीर्वाद का लाभ नहीं उठाया तो अगले वर्ष तक पुनः प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

हम तो जी भर कर नाचे, सबके साथ। यदि आप इस वर्ष संकोच में रहे हों तो अगली बार हमारे घर में आकर होली खेलें, जी भर कर नाचेंगे, और चीख कर कहेंगे, होली है।

17.3.12

आज जी भर देख लेते

हम हृदय का उमड़ता आवेग कुछ पल रोक लेते,
समय यदि कुछ ठहर जाता, आज जी भर देख लेते।

तुम न ऐसे मुस्कराती, सकपका पलकें झपाती,
ना फुलाकर गाल अपने, सलोनी सूरत बनाती।
थे गये रम,
क्या करें हम,
यूँ ही गुपचुप बह गये थे,
आज जी भर देख लेते।१।

छिपा हाथों बीच आँखें, ना मुझे यूँ देख जाती,
सर झुकाकर तुम न केशों के किनारे मुँह छिपाती।
तुम हृदय में,
इसी लय में,
और कितना सह गये थे,
आज जी भर देख लेते।२।

तुम न ऐसे खिलखिलाती, ना मेरे मन को लुभाती,
कुछ बताना चाहकर भी, तुम न यूँ मन को छिपाती।
नहीं हाँ की,
बात मन की,
बिन कहे ही कह गये थे,
आज जी भर देख लेते।३।

ना एकाकी इस हृदय में, याद अपनी छोड़ जाती,
बढ़ी जाती जीवनी यूँ, बीच पथ न मोड़ जाती।
जो था कहना,
और कितना,
बोलने से रह गये थे,
आज जी भर देख लेते।४।

(काश, कुछ यात्रायें थोड़ी और लम्बी होतीं। १४ घंटे की रेलयात्रा, बीच में ढेरों अशाब्दिक संवाद और निष्कर्ष ये उद्गार। बस अभिषेक की पीड़ासित रेलयात्राओं से सहमत न हुआ, तो यह बताना पड़ा। विवाह के पहले की कविता है। तब बस मन को लिखना आता था, कहना तो अभी तक नहीं सीख पाये।)

14.3.12

अपूर्ण एक पूर्ण शब्द है

बचपन और युवावस्था में एक बीमारी बहुधा सबको ही होती है कि बड़ा खाली खाली सा लगता है। एक के बाद एक कोई न कोई कार्य मिलते रहना चाहिये, व्यस्तता बनी रहनी चाहिये, नहीं तो एक अजीब सी उलझन होने लगती है। कुछ अपूर्ण सा लगता है, उसे भर देने को मन उद्धत होने लगता है। हर कर्म का प्रयास परिस्थितियों को अपूर्णता से पूर्णता की ओर ले जाने के लिये होने लगता है। जितनी अधिक ऊर्जा पास रहती है उतनी अधिक अपूर्णता दिखने लगती है जगत में। हर समय कितना कुछ करने के लिये रहता है जीवन में, समय और ऊर्जा के आभाव में कई कार्य ऐसे होते हैं जिन्हे हम करना चाह कर भी नहीं कर पाते हैं। जैसे जैसे जीवन बढ़ता है, ऊर्जा कम होने लगती है, कई नियमित कार्य बढ़ जाते हैं। व्यस्त जीवन का प्रथम प्रभाव यह पड़ता है कि जगत उतना अपूर्ण नहीं दिखता है जितना कुछ वर्ष पहले तक दिखता था।

अपूर्णता एक नियत सत्य है, कोई भी ऐसा तत्व नहीं दिखायी पड़ता है जो पूर्ण हो। जब हर वस्तु में अपूर्णता हो तो वह पूर्ण से अधिक पूर्ण हो गयी। हमारे सारे प्रयास उसी दिशा में होते हैं जिस दिशा में हमें संभावना दिखती है। जब तक प्रयास उस संभावना घट को पूर्ण कर पाते हैं, तब तक संभावनाओं के नये नये घट बन चुके होते हैं, पुनः प्रयास, पुनः संभावनायें। एक सतत कर्म है यह। किसी भी क्षेत्र में यदि कभी प्रयास ठहरे हुये नहीं दिखते हैं, तो किसी भी क्षेत्र को पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। इस दृष्टि से देखा जाये तो अपूर्णता अपने आप में शाश्वत है, अपने आप में पूर्ण है।

यदि तर्क व दर्शन की दृष्टि से न भी देखा जाये तो भी पूर्णता कहीं नहीं दिखती है, संभावना समझ के साथ साथ बढ़ती रहती है, अपूर्णता संभावना के साथ बढ़ती रहती है, जो आज पूर्णता लिये सी दिख रही है कल वह अपूर्णता लिये हुये सी दिखने लगती है। पूर्णता पाने के लिये किया गया हमारा प्रयास हमें उस दिशा में ले जाता है, जहाँ हमें अपूर्णता और अधिक स्पष्ट रूप से दिखने लगती है।

इस विचार का उद्भव व आरोहण न हुआ होता यदि मैं अपने एक चित्रकार मित्र आलोक से मिलने न पहुँचा होता। दोनों बच्चे चित्रकला से सम्पन्न वातावरण में पहुँच ऊर्जस्वित थे, उनके हाथों में काग़ज़ और पेंसिल थी, उन्हें रेखाओं को खींचने में रस आ रहा था। उस समय कला के लिये साथ में सब कुछ था पर हाथ में समय नहीं था, ट्रेन का समय बढ़ाया नहीं जा सकता था। जितना समय मिला और कला के बारे में बच्चों ने जितना समझा और जाना था, उसके लिये कुछ घंटे पर्याप्त नहीं थे। एक बड़े चित्रकार के सामने चित्र बनाने का अवसर था जिसे बच्चे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास दे स्वयं को सिद्ध करना चाहते थे। जैसा संभावित था, चित्र पूरे नहीं बन सके। बच्चों ने आलोक को चित्र दिखाये और कहा कि समय नहीं था अतः पूरे नहीं बन पाये।

जब आलोक ने कहा कि मेरे लिये यही पूरा है। बच्चों को बड़ा आश्चर्य हुआ, कहा कि आपको क्यों नहीं लगता कि यह चित्र अधूरा है? आलोक का उत्तर बच्चों के लिये समझ का एक नया अध्याय बनने जा रहा था और मेरे लिये अपूर्णता की पूर्णता। आलोक ने कहा कि मुझे क्या ज्ञात कि तुम्हारी कल्पना में क्या क्या था और तुम क्या क्या बनाना चाहते थे? जो कुछ भी तुमने बनाया वह तो मेरी दृष्टि में पूर्ण है। तुम्हारे द्वारा आधा बना हुआ घर भी पूरा संदेश संप्रेषित करता है। बच्चों के चेहरे खिल गये क्योंकि अभी तक किसी भी अध्यापक ने उन्हें यह ज्ञान नहीं दिया था। उनका प्रयास सदा ही शून्य या पूर्ण के बीच मापा गया था। तथाकथित अपूर्ण कृति में किसी के द्वारा प्रयास की पूर्णता देख पाना उनके लिये सर्वथा नया अनुभव था।

मेरे मन में बहुत दिनों से यह विचार घुमड़ रहा था कि पूर्णता की खोज में हम उन तथ्यों को क्यों नकार देते हैं जिन्हें हम पूर्ण नहीं समझते हैं। आलोक का यह कहना एक आँधी की तरह ज्ञान के सारे कपाट खोल गया। क्या नहीं बना है, उसका चिन्तन कर जो बना हुआ है, उसकी अवहेलना करना कृति के साथ घोर अन्याय है। जीवन में जो नहीं मिल पाया पूर्ण होने के लिये, उसकी व्यग्रता में जो लब्ध है उसे क्यों व्यर्थ करना?

बात सच ही है, अपूर्णता एक भार की तरह आती है, कुछ रिक्त सा लगता है, पूर्णता की ललक हमें सहज नहीं होने देती है। युवावस्था में जो बीमारी ऊर्जा की अधिकता के कारण होती थी, वही बीमारी हमारी ऊर्जा की कमी को अपूर्णता के नैराश्य से जोड़ने लगती है। अनमनापन सा छाने लगता है व्यक्तित्व में, जीवन लगता है, अकारण ही निकला जा रहा है। आलोक की समझ न केवल बच्चों को समझानी होगी वरन हमें भी समझनी होगी, हमारी कर्मशीलता का खण्ड खण्ड अध्याय तभी सतत हो पायेगा तभी पूर्ण हो पायेगा। बिना अपूर्णता को समझे और स्वीकार किये, न तो हम पूर्ण हो पायेंगे और न ही प्रसन्न रह पायेंगे।

औरों के प्रयास इस अपूर्णता के लेकर भले ही व्यग्र रहें पर मेरे लिये अपूर्ण एक पूर्ण शब्द है।

10.3.12

सोझ समझ कर पीना, यह चम्बल का पानी है

जब भूगोल पढ़ना प्रारम्भ किया तब कहीं जाकर समझ में आया कि बचपन में जो भी पानी हमने पिया, वह यमुना का नहीं चम्बल का था। आगरा की यमुना में कुछ जल शेष ही नहीं रखा गया और उसी से बस ६० किमी दक्षिण में धौलपुर और मुरैना के मध्य चम्बल अपने पूरे स्वरूप में बहती है, आगे जाकर इटावा के पास दोनों मिल जाती हैं।

चम्बल अपने पानी से अधिक अपने बीहड़ों के लिये विख्यात है। बीहड़ बने कैसे, इस पर भूगोलविदों को मतभेद हो सकता है पर बीहड़ में कितने डकैतों को आश्रय मिला, उसमें कोई मतभेद नहीं है। बीहड़ों की बनावट ऐसी है कि इमामबाड़ा भी वहाँ आकर भ्रमित हो जाये। १५-२० मीटर ऊँचे अनगिनत टीले, उसमें मकड़ी के जाल की तरह बिछे रास्ते, चलते चलते कब कोई सामने प्रकट हो जाये कुछ पता नहीं। कितनी भी ऊँचाई से खड़े होकर देख ले, किस टीले के पीछे कौन छिपा है, पता ही नहीं चल सकता है। बचपन में भले ही कितनी लुकाछिपी खेली हो आपने, यहाँ आकर आप सब भूल जायेंगे, बागी दशकों से यही खेल पुलिसवालों के साथ खेल रहे हैं यहाँ पर।

कहते हैं कि यह बीहड़ तब बनने प्रारम्भ हुये जब वर्षा का पानी कई मार्गों से हो चम्बल में मिलने आया होगा। शताब्दियों का बहाव पृथ्वी की सतह में मुलायम मिट्टी को हर बार कुरेदता होगा, हर वर्ष थोड़ी थोड़ी खरोंच लगती होगी पृथ्वी को। यदि हर बार के दृश्यों को तेजी से चला कर देखा जाये तो यही लगेगा कि मदमाता पानी बहा जा रहा है, सरल पर्तों को उघाड़ता, अन्याय सा लगता है, कमजोर को अपनी जगह से हटाती शक्ति। बीहड़ों के बीच बने लहराते से रास्तों की गहराई जिस अन्याय को सहने का प्रतीक है, उसी अन्याय को सहने की शक्ति और स्थान प्रदान करता रहा है यह बीहड़।

तो क्या छिपने का उपयुक्त स्थान बागी बनाने में सहायक है? कुछ और गहरे कारण रहे होंगे कि विद्रोहीमना बीहड़ों में आश्रय लेने आये। सामाजिक व्यवस्था में बड़े बड़े छिद्र रहे होंगे जिससे समाज की ऊर्जा बीहड़ों में बहने को बाध्य हुयी होगी। भाई ने भाई को हिस्सा नहीं दिया होगा, किसी निर्बल को सताया गया होगा, प्रशासन की लोलुपता अंग्रेजों की बराबरी करने पर तुली होगी। हर बागी के साथ कोई न कोई नयी कहानी सुनने को मिल जायेगी। पीढ़ियो की वैमनस्यता का बदला आने वाली पीढ़ियों को चुकाना शेष होगा। कुछ न कुछ तो जटिलता रही होगी जो प्रशासन और समाज समय रहते समझ नहीं पाया होगा और विकास के स्थान पर यह स्थान बागियों के लिये विख्यात हो गया।

अन्याय के अध्याय तो भारत के अन्य भागों में भी लिखे गये हैं पर वहाँ पर इतने बागी नहीं हुये जितने चम्बलों के बीहड़ों ने पैदा किये। कुछ ने सह कर रहना सीख लिया, कुछ ने रह कर सहना सीख लिया, पर चम्बल के बीहड़ों ने न कभी अन्याय सहना सीखा, न कभी चैन से रहना सीखा। सहनशीलता का ज्वलनबिन्दु इतना शीघ्र भड़क जाने का कारण कुछ और पता चला।

झाँसी की पोस्टिंग के समय मुरैना और धौलपुर का क्षेत्र मंडल के अन्तर्गत ही था, लगभग उसी समय एक सहपाठी जिलाधिकारी मुरैना के पद पर था। कई बार मुरैना जाना हुआ, रेल से भी और सड़क से भी। चम्बल पुल के पास स्थित बीहड़ के अन्दर लगभग एक किमी जाने का अनुभव भी प्राप्त किया। हर दस कदम पर नया दृश्य दिख जाता था, लगा कहीं कोई बागी छिपा न बैठा हो। यद्यपि स्टेशन मास्टर ने उनकी संभावित अनुपस्थिति के बारे में आश्वस्त कर दिया था, पर जब तक वापस नहीं आ गये हृदय अव्यवस्थित सा धड़कता रहा।

कई बार जाने का अनुभव भी अपर्याप्त था, बीहड़ को समझने के लिये। सामाजिक समस्याओं की समझ भी कभी इतने गहरे निष्कर्ष गढ़ते नहीं देखी गयी। विकास के प्रति प्रशासन की उदासीनता भी विद्रोही प्रत्युत्तरों की ओर इंगित नहीं कर पायी। जब कभी स्मृति में मुरैना आया, कारण जानने का पर्याप्त चिन्तन किया, पर सफलता नहीं मिली। कुछ दिनों पहले एक परिचित पत्रकार से एक बागी(संभवतः मलखान सिंह) का स्वरचित और गाया हुआ ओजपूर्ण गीत सुना तब कहीं जाकर कारण स्पष्ट हुआ। इसी बीच पानसिंह तोमर फिल्म देखकर उस गीत को साझा करने की इच्छा भी बलवती होने लगी। साथ ही साथ यह तथ्य भी सताने लगा है कि जो पानी बीहड़ों में बागी निर्मित करता रहा है, वही पानी हम न जाने कितना पी गये हैं बचपन में, यमुना का समझ कर।

आप तो गीत सुनिये, बस। कहो, हओ...

7.3.12

अम्मा, गूगल और वेलु का पंजाबी ढाबा

रेलवे में निरीक्षण का कार्य अत्यन्त गहन होता है। आवश्यक भी है, यदि आपके संसाधन विस्तृत क्षेत्र में फैले हों। ट्रैक पर लगी एक एक क्लिप पर दैनिक रूप से दृष्टि बनाये रखनी पड़ती है, कई माध्यमों से। दूर स्थित स्टेशनों की कार्य-प्रणाली के बारे में आश्वस्त होने के लिये वहाँ जाकर निरीक्षण करना होता है। चालक और गार्ड, चलती ट्रेन से ही किसी भी असामान्य सी दिखने वाली वस्तुओं पर सतत दृष्टि बनाये रखते हैं और नियन्त्रण कक्ष को सूचित करते रहते हैं। परिचालन संबंधी प्रत्येक सूचना अपने अन्तराल में नियम से प्रेषित होती रहती हैं। आपकी एक यात्रा के पीछे हजारों कर्मचारियों का योगदान होता है।

जब तक मोबाइल जनसामान्य की वस्तु नहीं बना था, निरीक्षण रिपोर्टें विस्तृत होती थीं, कुछ बिन्दु तथ्यात्मक होते थे, कुछ सुधारात्मक। हर एक बिन्दु को गम्भीरता से लेकर उनका निपटान करना रेलवे प्रणाली का आवश्यक विधान है। अब कई कार्य मोबाइल से यथास्थान होने लगे हैं। निरीक्षण रिपोर्टें भले ही विस्तृत न रह गयी हों पर निरीक्षण प्रक्रिया यथावत है।

इसी क्रम में एक ऐसे रेलखण्ड में जाना हुआ जिसमें तीन राज्य कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश और तमिलनाडु पड़ते हैं। निश्चय किया गया कि एक ओर से ट्रेन के इंजन से पूरे ट्रैक का निरीक्षण और वापस आते समय सड़क मार्ग से हर स्टेशन का विस्तृत निरीक्षण किया जायेगा। पटरियों के दोनो ओर प्राकृतिक सौन्दर्य का जो खजाना छिपा है, उसका साक्षात दर्शन रेलवे के चालकों से अच्छा किसी को नहीं होता है। दोनो ओर पहाड़, झील, खेत, जंगल, गाँव, मवेशी, हरियाली, बादल, सूर्योदय और सूर्यास्त, सब के सब अपनी भव्यता में प्रकट होते जाते हैं, आपकी ओर दौड़ लगाते से, पूरी गति से। एक रोचक फिल्म से कम नहीं है, इंजन में चलना।

वापस आते समय सड़क मार्ग मुख्यतः तमिलनाडु में पड़ता है। हर स्टेशन तक सड़क से पहुँचने के लिये लगभग हर प्रकार की सड़क से होकर जाना पड़ता है। सड़क की स्थिति को लेकर मन सदा ही सशंकित रहता है, साथ में उत्तर भारत का अनुभव हो तो संशय बड़ा गहरा होता है। यद्यपि निरीक्षकों को सड़क मार्ग के बारे में समुचित ज्ञान रहता है पर बीच खण्ड में कहीं पहुँच पाने के लिये कई बार भटकना हो जाता है।

एक सुखद आश्चर्य हुआ जब गाँव तक की सड़कों को हाईवे के समस्तरीय पाया। कहा जा सकता है कि यहाँ इतना यातायात नहीं होता होगा और हर वर्ष वर्षा में सड़कें टूटती नहीं होंगी। कुछ भी कारण हो, सड़कों को इस स्तर पर बनाये रखने के लिये उनका प्रारम्भ में ही उच्चतम कोटि की गुणवत्ता से बनना आवश्यक है, ऐसा होने पर संरक्षण स्वतः सरल हो जाता है। स्थानीय निरीक्षक ने बताया कि पूरे तमिलमाडु में स्तरीय सड़कों का बनना, उनका रखरखाव और उनका हर गाँव तक विस्तार मुख्यतः अम्मा की देन है। अम्मा, यह सुश्री जयललिताजी के लिये सम्बोधन है। तमिलनाडु में, स्थानीय निरीक्षक बताते हैं, राजनीति कभी विकास के आड़े नहीं आती है और कोई भी सरकार हो, पिछली सरकार के सारे कार्य पूरे होते हैं। श्री करुणानिधिजी को सभी बड़े नगरों में फ्लाईओवर बनाने का श्रेय जाता है। प्रख्यात मुख्यमंत्री श्री एमजीआरजी को हर गाँव में बिजली पहुँचाने का उत्प्रेरक माना जाता है।

सारी सड़कें एक स्तर की होने के कारण भटकना स्वाभाविक था। राहगीरों से पूछने से जब समुचित राह नहीं मिली तब गूगल मैप से सहायता लेने की विवशता आन पड़ी। गूगल मैप की कागज के मानचित्रों पर एक बढ़त है, गूगल मैप आपकी वर्तमान स्थिति बता देता है जब कि कागज के मानचित्रों में आपको अपनी स्थिति ढूढ़नी पड़ती है। राजमार्गों में जहाँ गूगल मैप की आवश्यकता नहीं होती है वहाँ तो इण्टरनेट मिलता रहता है, पर गावों की तरफ नेटवर्क की डंडियाँ गोल हो जाती हैं। आईफोन पर देखा तो न केवल इण्टरनेट चमक रहा था वरन अपने पूरे तेज में था। यह पहला अनुभव था जब मैं अपने ड्राइवर महोदय को एक एक मोड़ पर निर्देशित कर रहा था। शेष निरीक्षण बिना व्यवधान के शीघ्र सम्पन्न हुआ, सड़कें अच्छी थी, सायं होते होते हम अपने घर में थे, यह बात अलग है कि बंगलोर के यातायात ने एक घंटा स्वाहा कर डाला।

यात्रा हो और ढाबों की बात न हो। यातायात की संभावना अच्छी सड़कों की उपस्थिति में फलने फूलने लगती है। देश के हर राज्य के ड्राइवर यहाँ की सड़कों में ट्रकों से माल ढोते दिख जाते हैं। संभवतः यही कारण होगा कि हमें 'वेलु का पंजाबी ढाबा' दिखायी दे गया। इच्छा तो हुयी कि वेलुजी के ढाबे में बैठकर दाल तड़का और तंदूरी रोटी खायी जाये। पर व्यस्तता अधिक होने के कारण और पेट को प्रयोगों से मुक्त रखते हुये गाड़ी में ही 'दही भात' से संतोष किया। देश में ट्रक ऐसे ही फैले तो पंजाब में 'मन्जीता डोसा सेन्टर' जल्दी ही खुलेगा।

दिन में कितना कुछ, कितनों के रचित विश्व के साथ साक्षात्कार, गतिमय विश्व की सामूहिक उपासना। रात कितनी अकेली, मैं, पूर्ण थकान और गाढ़ी नींद।

3.3.12

परीक्षा की विधियाँ

कुछ लोग होते हैं जिन्हें परीक्षा का तनिक भी भय नहीं होता है, अंक भले ही कितने आयें। मार्च-अप्रैल की नीरवता में डूबी गर्म दुपहरियों में यही लोग रोचकता बनाये रखते हैं। हमारे एक चचेरे भाई को बड़ी संवेदना रहती थी हम सबसे, पहले तो ये बताते थे कि कौन सा प्रश्न फँस रहा है, जब उससे भी संतोष न होता तो एक पूरा का पूरा संभावित प्रश्नपत्र बनाते और पकड़ा देते। उनका दावा रहता था कि कम से कम ८० प्रतिशत उससे ही फँसेगा। कौन से प्रश्न फँसने वाले हैं उसके लिये पिछले प्रश्नपत्रों की विवेचना और अध्यापक की मनःस्थिति, इन दोनों का सहारा विद्यार्थी कई दशकों से ले रहे हैं। कई दयालु अध्यापक पाठ्यपुस्तक के ही प्रश्न उतार देते हैं, कई अतिदयालु अध्यापक उदाहरणों को ही प्रश्न बना देते हैं और कई महादयालु अध्यापक पिछले प्रश्नपत्र में से ही अधिकतर प्रश्न उतार देते थे। अध्यापक और छात्र के संबंध में दया आना स्वाभाविक है, दयालु संस्कृति बनाये जो रखनी है।

अपनी इसी रुचि के कारण हमारे चचेरे भाई तो बहुत बड़े प्रोफेसर हो गये, उन्हें विद्यार्थियों के ये हथकण्डे भलीभाँति ज्ञात होंगे और निश्चय ही वह अपना प्रश्नपत्र थोड़ा हटकर बनाते होंगे। अध्यापकों को यह तथ्य ज्ञात है कि विद्यार्थी पाठ्यक्रम विमर्श से अधिक प्रश्नपत्र विमर्श करते हैं, जितना समय सीखने में लगना चाहिये उससे कहीं अधिक यह सिद्ध करने में लगता है कि कितना सीखा। अध्यापक सहज चिंतक होते हैं, चिंतक प्रयोगधर्मी होते हैं, यह बात अलग है कि विद्यालयों में उन्हें इन प्रयोगों की छूट नहीं मिलती है। बड़े संस्थानों में स्थिति थोड़ी बेहतर हैं और अध्यापकों को परीक्षा की विधियाँ निश्चित करने की स्वतन्त्रता रहती है। उनके लिये भी यही दो प्रश्न मन में रहते होंगे कि परीक्षा की विधि ऐसी हो जिससे विद्यार्थी सारा पाठ्यक्रम पढ़ने को बाध्य हो, और इस तरह पढ़ें जिससे विषय स्पष्ट रूप से उन्हें समझ आये और अन्ततः लम्बे समय तक मस्तिष्क में बना रहे।

पढ़ाई में नियमितता से अधिक अचूक अस्त्र कुछ भी नहीं है। यदि नियमतता है तो बड़ा और कठिन पाठ्यक्रम भी ग्राह्य हो जाता है। औचक परीक्षा एक ऐसी विधि है जो विद्यार्थी को नियमित रहने को बाध्य कर देती है, नित्य कक्षा में आना, विषय को समझना और गृहकार्य ढंग से करना। कक्षा में अन्तिम २० मिनट में वर्तमान विषय से संबंधित एक प्रश्न ही पर्याप्त होता है, इसके लिये। आईआईटी में जिन विषयों में औचक परीक्षा की विधि अपनायी गयी थी, वे विषय अभी भी स्पष्ट हैं मनसपटल पर। प्रबन्धन संस्थानों में नियमितता बनाये रखने के लिये केस स्टडी का सहारा लिया जाता है। वास्तविक जीवन की एक घटना को पढ़ने, समझने और पढ़े हुये सिद्धान्त प्रयुक्त करने को कहा जाता है, उस पर चर्चा होती है और अंक निर्धारित किये जाते हैं।

विषय का गहन ज्ञान परखने के लिये कई प्रोफेसर एक एक प्रश्न सभी विद्यार्थियों को पकड़ा देते हैं, साथ में देते हैं एक दिन या एक सप्ताह का समय। ये प्रश्न बहुधा शोध की विषय से संबद्ध होते हैं और इनका कोई एक उत्तर नहीं होता है। विषय की समझ जितनी अधिक होती है, आप उतना ही अधिक दूर तक उस प्रश्न को सुलझा सकते हैं। इसके लिये विद्यार्थियों की संख्या कम होनी चाहिये क्योंकि एक छोटे विषय से संबद्ध शोधगत प्रश्न बहुत अधिक नहीं होते हैं। दूसरी विधि बड़े प्रोजेक्ट की है जिसमें विद्यार्थी को कई पुस्तकों से पढ़कर शोध करना पड़ता है। जब कई पुस्तकों से पढ़कर लिखना होता है तो विषय अपने आप मस्तिष्क में उतरता जाता है। इन दो विधियों में परीक्षा की व्यग्रता के स्थान पर ज्ञान का विस्तार होता है, जो शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य भी है।

जहाँ पर परीक्षा लेना आवश्यक है, वहाँ भी प्रोफेसर सार्थक प्रयोग करते दिख जाते हैं। परीक्षा कक्षों में किताब ले जाने की छूट इसका एक उदाहरण है। जब वास्तविक जीवन में पुस्तकों और संदर्भों से सहायता लेने की छूट रहती है तो परीक्षा के समय उस सुविधा से क्यों वंचित रहा जाये। पुस्तकों को ले जाने की छूट से तैयारी करते समय विषय के मौलिक सिद्धान्तों को ढंग से समझने का समय मिलता है क्योंकि केवल याद रखने वाली चीजें तो कभी भी पुस्तक से देखी जा सकती हैं। आवश्यक पर पूरा ध्यान और अनावश्यक से पूरी मुक्ति इस विधि की विशेषता है। एक दूसरी विधि में प्रोफेसर ने अन्तिम के ५ मिनट एक दूसरे से बात करने की पूरी छूट दे दी थी। इस समय में एक दूसरे से बात करके छोटी भूलों को सुधारने का पूरा समय मिल जाता है पर पूरा उत्तर पुनः लिखने का समय नहीं मिलता है। यह छूट कई अवसरों पर बहुत काम की सिद्ध होती है।

एक विधि, जिसने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया और जिसमें विद्यार्थी और अध्यापक के उद्देश्यों को पूर्ण निष्कर्ष मिलते हैं। अध्यापक का उद्देश्य होता है कि विद्यार्थी पूरा विषय ढंग से पढ़े, विद्यार्थी का उद्देश्य होता है कि उसे अधिकतम अंक मिलें। अध्यापक ने निश्चय किया कि वह आपसे बस १० मिनट के लिये बात करेंगे, ३ प्रश्न पूछेंगे, उन अध्यायों पर जिन पर आप स्वयं को सहज अनुभव करते हों। लिखित से अधिक प्रभावी होती है मौखिक परीक्षा। १० मिनट के साक्षात्कार के बाद आपको आपके ग्रेड बता दिये जायेंगे। यदि आप संतुष्ट न हों तो आपको थोड़ी और तैयारी के बाद पुनः आने को कहा जायेगा और पुनः वही प्रक्रिया, और यह तब तक होता रहेगा जब तक विद्यार्थी अपने ग्रेड से संतुष्ट न हो जाये। लगभग एक तिहाई ने एक बार में ही 'ए' ग्रेड प्राप्त किया, शेष दो तिहाई को दो या अधिक बार यह प्रक्रिया अपनानी पड़ी। एक विद्यार्थी ने ५ बार साक्षात्कार दिया और अन्ततः 'ए' लाया। सबको 'ए' मिला और सबने उसके लिये यथोचित श्रम लगाया। यद्यपि प्रशासन को यह रास नहीं आया पर उसके पास भी किसी का भी 'ए' ग्रेड नकारने का कारण भी नहीं था, सबको वह विषय ढंग से आता था।

छोटी कक्षाओं के लिये अंक के स्थान पर ग्रेड देना, परीक्षा की व्यग्रता घटाने का एक अच्छा प्रयास है। विद्यालयों में कक्षाओं के अतिरिक्त वास्तविक जीवन से भी सीखने पर यथोचित बल दिया जा रहा है। बाहर घूमने ले जाना, खिलौने के माध्यम से समझाना और अन्य रोचक विधियों से सिखाना, ये सब प्रयोगधर्मिता के सशक्त उदाहरण हैं। इसी रोचकता के बीच बच्चे का स्तर परख लिया जाये और उसे आगे बढ़ने दिया जाये। जब परीक्षा का बोझ कम होगा और मस्तिष्क में कुछ स्थान खाली रहेगा, तभी सृजनता और नवीनता व्यक्तित्व का निर्माण कर पायेंगी।

परीक्षायें भार न लगें, ज्ञान का उपहार लगें।