रघुबीरजी के लिये कूड़े के ढेर का प्रकरण अन्ततः एक चिरकालिक शान्ति लाया, यद्यपि इसके लिये उन्हें नगर निगम के अधिकारी के साथ मिलकर सारा भ्रम दूर करना पड़ा। अपने प्रयासों से रघुबीरजी एक जागरूक नागरिक के रूप में पहचान बना चुके थे, लोगों को उन पर विश्वास बढ़ चला था और पर्यावरण संबंधी किसी भी नये विषय में पहल करने के लिये अधिकृत थे।
मानसून अतृप्त धरा को संतृप्त कर के चला गया, कृतज्ञ धरती ने भी फल फूल दिये, धनधान्य दिया। जीवजगत की जठराग्नि प्रचंड ठंड में अपने पूरे आयाम में रहती है, प्रकृति जब खाने को देती है तो भूख भी देती है। शरीर को जीवन रस मिलता रहता है, स्वास्थ्य बढ़ने लगता है, मन भी प्रसन्न हो जाता है। शरीर और प्रकृति का बसन्त साथ साथ ही आ जाता है। रघुबीरजी प्रकृति के इस चक्रीय कालखण्ड को सानन्द बिता रहे थे, अपने व्यक्तिगत और व्यावसायिक कार्य निपटा रहे थे, तभी पतझड़ आ पहुँचा।
प्राकृतिक परिवेश में प्रकृति के कार्य स्पष्ट रूप से दिखायी नहीं पड़ते हैं, स्वतः हो जाते हैं, पता ही नहीं चलते हैं। प्राकृतिक परिवेश की अनुपस्थिति हमें प्राकृतिक प्रक्रियायें समझने को विवश कर देती है। पतझड़ गावों में भी आता है, पेड़ों से पत्ते झड़ते हैं, धरती से पोषित पत्ते धीरे धीरे धरती में विलीन हो जाते हैं, खाद बनकर, आगामी पत्तों को पोषित करने के लिये। नगरों में यह संभव नहीं हो पाता है, एक तो पेड़ ही कम हो चले हैं। दूसरा जब पत्ते झड़कर कांक्रीट या रोड पर गिरते हैं तो अपना निर्वाण बाधित सा पाने लगते हैं। नगरीय जीवन का यह पक्ष एक नयी समस्या लाता है, पत्तों को समेटने की समस्या और यदि उन्हें तुरन्त न समेटा जाये तो वह कूड़े के रूप में नगर में बिखर जाते हैं, यत्र तत्र सर्वत्र।
नगरनिगम होता ही है, नगरीकरण से उत्पन्न समस्याओं का निवारण करने के लिये। एक तन्त्र ही है कोई मन्त्र नहीं कि सारे कार्य पलक झपकाते ही कर डाले। कहने को तो पतझड़ के समय पत्ते समेट कर ले जाने का कार्य नियमित रूप से होना चाहिये, नगरनिगम साप्ताहिक ही कर दे तब भी कृतज्ञ बने रहना चाहिये। नगरनिगम की उदासीनता ने रघुबीरजी के पड़ोसियों को एक नयी विधि अपनाने को विवश कर दिया। आसपास की सोसाइटियों के कुछ उत्साही युवकों ने सफाई कर्मचारियों द्वारा एकत्र इन पत्तों को आग लगा देने का उपाय निकाल लिया। दिन के समय सड़कों पर आवागमन बना रहता है अतः लोगों ने रात में सुलगाने का क्रम बना लिया।
आत्मिक उन्नति और प्राणों में आयाम बनाये रखने के लिये रघुबीरजी अपनी बालकनी में प्राणायाम करते हैं, सुबह सुबह की शुद्ध ऑक्सीजन पूरे शरीर को ऊर्जामय कर देती है। पिछले दो दिनों से प्राणायाम निष्प्रभावी हो रहा था, कारण था फेफड़ों में पहुँची धुँयें की पर्याप्त मात्रा। गन्ध और दृष्टि से समझने का प्रयास किया तो कारण स्पष्ट समझ में आ गया। लगभग सौ मीटर की दूरी पर पत्तों की आग रात भर से सुलग रही थी। धुयें का यह गुबार धीरे धीरे स्मृति में घनीभूत होने लगा। ऐसा नहीं कि यह पतझड़ की ही समस्या थी, धुयें के दो और स्रोत रघुबीरजी को याद आ गये।
जाड़ों के समय भी उसी ओर से सुबह सुबह कुछ सुलगने की गंध आती थी। यद्यपि उस समय बालकनी में प्राणायाम न करने से वह धुआँ रघुबीर जी को अधिक प्रभावित नहीं करता था, पर परिवेश में जले टायर और प्लास्टिक की गंध से वातावरण बुरी तरह से प्रदूषित हो जाता था। उसका कारण भी उन्हें समझ आ गया था, आसपास की सोसाइटियों और एटीएम के चौकीदारों को रात में तापने के लिये जो भी मिल जाये, उसे सुलगाने की आदत थी। अब जीवन किसे प्रिय नहीं होता पर जब विकल्प ठंड या प्रदूषण में से किसी एक से मरने का हो, तो सब प्रदूषण करने बैठ जायेंगे, इस पर कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिये।
यदि ६ ऋतुओं में केवल दो ही धूम्रदोष से ग्रसित होतीं तो भी एक संतोष किया जा सकता था, भाग्य का खेल मानकर भूला जा सकता था। एक और धुयें की गन्ध थी जो मानसून के महीनों को छोड़ वर्ष पर्यन्त आती थी, और वह भी रात में। धीरे धीरे उसका भी कारण खोजा रघुबीरजी ने। वह घर से निकले कूड़े को सफाई के ठेकेदारों के द्वारा वहीं पर एकत्र कर जला देने के कारण आती थी, यद्यपि नगरनिगम के ठेके में ठेकेदारों को धन उस कूड़े को नगर की सीमाओं से बाहर फेकने का मिलता होगा। लोभवश ठेकेदार स्थानीय निवासियों को सड़ा सा धुआँ पिला रहे थे, वह भी लगभग नियमित।
समस्यायें गम्भीर थीं, स्वयं के प्राणायाम के अतिरिक्त, प्रकृति के प्राणों की रक्षा का दायित्व था रघुबीरजी पर। जैसा कि अंदेशा था, कार्यकारिणी में यह समस्या रखते हुये ही उसे सुलझाने का उत्तरदायित्व रघुबीरजी को सौंप दिया गया। आसपड़ोस के पत्रकार और युवा भी रघुबीरजी के साथ संभावित सफलता में शामिल होने के लिये उत्साहित हो गये। वायु को शुद्ध रखना आवश्यक था, रघुबीरजी ने पुनः गहरी साँस भरी और मन को तैयार कर लिया, एक महत कार्य के लिये....
मानसून अतृप्त धरा को संतृप्त कर के चला गया, कृतज्ञ धरती ने भी फल फूल दिये, धनधान्य दिया। जीवजगत की जठराग्नि प्रचंड ठंड में अपने पूरे आयाम में रहती है, प्रकृति जब खाने को देती है तो भूख भी देती है। शरीर को जीवन रस मिलता रहता है, स्वास्थ्य बढ़ने लगता है, मन भी प्रसन्न हो जाता है। शरीर और प्रकृति का बसन्त साथ साथ ही आ जाता है। रघुबीरजी प्रकृति के इस चक्रीय कालखण्ड को सानन्द बिता रहे थे, अपने व्यक्तिगत और व्यावसायिक कार्य निपटा रहे थे, तभी पतझड़ आ पहुँचा।
प्राकृतिक परिवेश में प्रकृति के कार्य स्पष्ट रूप से दिखायी नहीं पड़ते हैं, स्वतः हो जाते हैं, पता ही नहीं चलते हैं। प्राकृतिक परिवेश की अनुपस्थिति हमें प्राकृतिक प्रक्रियायें समझने को विवश कर देती है। पतझड़ गावों में भी आता है, पेड़ों से पत्ते झड़ते हैं, धरती से पोषित पत्ते धीरे धीरे धरती में विलीन हो जाते हैं, खाद बनकर, आगामी पत्तों को पोषित करने के लिये। नगरों में यह संभव नहीं हो पाता है, एक तो पेड़ ही कम हो चले हैं। दूसरा जब पत्ते झड़कर कांक्रीट या रोड पर गिरते हैं तो अपना निर्वाण बाधित सा पाने लगते हैं। नगरीय जीवन का यह पक्ष एक नयी समस्या लाता है, पत्तों को समेटने की समस्या और यदि उन्हें तुरन्त न समेटा जाये तो वह कूड़े के रूप में नगर में बिखर जाते हैं, यत्र तत्र सर्वत्र।
नगरनिगम होता ही है, नगरीकरण से उत्पन्न समस्याओं का निवारण करने के लिये। एक तन्त्र ही है कोई मन्त्र नहीं कि सारे कार्य पलक झपकाते ही कर डाले। कहने को तो पतझड़ के समय पत्ते समेट कर ले जाने का कार्य नियमित रूप से होना चाहिये, नगरनिगम साप्ताहिक ही कर दे तब भी कृतज्ञ बने रहना चाहिये। नगरनिगम की उदासीनता ने रघुबीरजी के पड़ोसियों को एक नयी विधि अपनाने को विवश कर दिया। आसपास की सोसाइटियों के कुछ उत्साही युवकों ने सफाई कर्मचारियों द्वारा एकत्र इन पत्तों को आग लगा देने का उपाय निकाल लिया। दिन के समय सड़कों पर आवागमन बना रहता है अतः लोगों ने रात में सुलगाने का क्रम बना लिया।
जाड़ों के समय भी उसी ओर से सुबह सुबह कुछ सुलगने की गंध आती थी। यद्यपि उस समय बालकनी में प्राणायाम न करने से वह धुआँ रघुबीर जी को अधिक प्रभावित नहीं करता था, पर परिवेश में जले टायर और प्लास्टिक की गंध से वातावरण बुरी तरह से प्रदूषित हो जाता था। उसका कारण भी उन्हें समझ आ गया था, आसपास की सोसाइटियों और एटीएम के चौकीदारों को रात में तापने के लिये जो भी मिल जाये, उसे सुलगाने की आदत थी। अब जीवन किसे प्रिय नहीं होता पर जब विकल्प ठंड या प्रदूषण में से किसी एक से मरने का हो, तो सब प्रदूषण करने बैठ जायेंगे, इस पर कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिये।
यदि ६ ऋतुओं में केवल दो ही धूम्रदोष से ग्रसित होतीं तो भी एक संतोष किया जा सकता था, भाग्य का खेल मानकर भूला जा सकता था। एक और धुयें की गन्ध थी जो मानसून के महीनों को छोड़ वर्ष पर्यन्त आती थी, और वह भी रात में। धीरे धीरे उसका भी कारण खोजा रघुबीरजी ने। वह घर से निकले कूड़े को सफाई के ठेकेदारों के द्वारा वहीं पर एकत्र कर जला देने के कारण आती थी, यद्यपि नगरनिगम के ठेके में ठेकेदारों को धन उस कूड़े को नगर की सीमाओं से बाहर फेकने का मिलता होगा। लोभवश ठेकेदार स्थानीय निवासियों को सड़ा सा धुआँ पिला रहे थे, वह भी लगभग नियमित।
मानसून अतृप्त धरा को संतृप्त कर के चला गया, कृतज्ञ धरती ने भी फल फूल दिये, धनधान्य दिया। जीवजगत की जठराग्नि प्रचंड ठंड में अपने पूरे आयाम में रहती है, प्रकृति जब खाने को देती है तो भूख भी देती है। शरीर को जीवन रस मिलता रहता है, स्वास्थ्य बढ़ने लगता है, मन भी प्रसन्न हो जाता है। शरीर और प्रकृति का बसन्त साथ साथ ही आ जाता है। रघुबीरजी प्रकृति के इस चक्रीय कालखण्ड को सानन्द बिता रहे थे, अपने व्यक्तिगत और व्यावसायिक कार्य निपटा रहे थे, तभी पतझड़ आ पहुँचा।
ReplyDeleteसर बिलकुल ललित निबन्ध शैली में एक उम्दा पोस्ट |विचार और जागरूकता भी शामिल हैं |
me to gazab ki hindi padhkar hi khush ho gai hu...bahut acchi post sir....2,3 baar aur padhungi
Deleteप्रकृति है ही इतनी सुन्दर कि वर्णन करने में लालित्य आ जाता है।
Deleteपत्तियों को जला देने की बजाय गड्ढे में डाल देने से खाद बन सकती है , मगर कोलोनियों में यह सम्बह्व नहीं ...नगर निगम ऐसा करेगा नहीं ... रघुबीर जी कुछ हल निकाल पाए होंगे !!
ReplyDeleteसंभवतः रघुबीरजी कुछ ऐसा ही सोच रहे होंगे।
Deleteकुछ और विकल्प तो खोजना ही पड़ेगा जिससे कि पर्यावरण भी बचा रहे और ठण्ड से भी सुरक्षा मिल सके.
ReplyDeleteयह एक समस्या तो है ही, विकल्प भी ऐसा हो जो सबको स्वीकार्य हो..
Deleteविचारणीय......उम्दा आलेख.
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
Deleteप्रिय मित्र !रघुबीर जी की प्रतिछाया में सामाजिक सरोकार की चिंता सर्वग्राह्य व प्रतिष्ठित तो है ही , भाषा की स्निग्धता ,व लालित्य प्रयोग बहुत ही सुन्दर है , अनुपम जी / बहुत -२ बधाईयाँ और सम्मान /
ReplyDeleteरघुबीरजी के व्यक्तित्व में पर्यावरण एक अभिन्न अंग के समान जुड़ा हुआ है, उसे स्थापित करना उनकी सामाजिक क्रिया को आन्दोलित करता रहता है। सफल हों, यह शुभकामना मिलकर रघुबीरजी को दी जाये।
Deleteहमारे निकायों का न सफाई-प्रबंधन ठीक है और न ही कूड़ा-प्रबंधन !
ReplyDeleteबहुत दमघोंटू धुँवा होता है...पर शायद कुछ लोगों को फर्क नहीं पड़ता !
काश हर नगर में एक रघुबीरजी जाग जायें तो यह स्वर अपने गन्तव्य पा जायेगा।
Deleteरघुबीर जी सफल हों.
ReplyDeleteहमारी भी यही शुभकामनायें हैं..
Deleteवायु को शुद्ध रखना आवश्यक था, रघुबीरजी ने पुनः गहरी साँस भरी और मन को तैयार कर लिया, एक महत कार्य के लिये....
ReplyDeleteजन मानस में जागृति दिलाता हुआ ...ज्वलंत समस्या पर विचार करता हुआ ....सार्थक आलेख ...!!
इस समस्या को अपने मनसपटल व कार्यपटल पर बसा लेने के लिये पतझड़ से उपयुक्त कोई समय नहीं है।
Deleteइस धूम गंध से निपटान की कारगर नीति बने -रघुबीर जी के प्रयासों का अभिनंदन!
ReplyDeleteऐसा ही कोई सामाजिक सहयोग रघुबीरजी खड़ा कर पायें, यही आशा है।
Deleteआपके रघुवीर जी समाज को जागरूक बना कर अपने उत्तरदायित्व के प्रति सचेत कर रहे हैं.साधु !
ReplyDeleteरघुबीरजी अपनी समस्या को सफल हल निकाल एक उदाहरण भी प्रस्तुत कर सकें, ऐसी प्रभु से प्रार्थना है।
Deleteयह एक बड़ी समस्या है हमारे परिवेश की........ ज़रूरी है कुछ तो किया ही जाये ...रघुबीर की सोच अनुकरणीय है.....
ReplyDeleteकूड़ा जला देना सरलतम कार्य है, प्रदूषण से बचने के लिये कुछ तो कठिनाई होगी ही, वर्तमान से अधिक।
Deleteप्रकृति के गंभीर धुंए ही रह गए ...रघुवीर जी के माध्यम से ज्वलंत सोच
ReplyDeleteकाश, प्रकृति अपना कष्ट स्पष्ट रूप से कह पाती तो रघुबीरजी का कार्य अत्यन्त सरल हो जाता।
Deleteजागरूक करने वाली पोस्ट ... विचारणीय है.... शायद रघुबीर जी कुछ सार्थक हल निकाल सकें ....
ReplyDeleteहम सब मिलकर यही आशा करें..
Deletesaarthak samay ke anusaar bahut hee aavasyak
ReplyDeleteनगरीकरण की समस्या है, निराकरण तो करना ही होगा।
Deleteफिर से नेक कार्य का सारा भार रघुवीर जी के ही कन्धों पर डाल दिया :)
ReplyDeleteदेश के हर नगर में अन्ततः रघुबीरजी ही उठ खड़े होंगे..
Deleteachhi post..
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका..
Deleteजय जय रघुवीर जी .
ReplyDeleteधुँयें की लंका पर विजय प्राप्त करें, रघुबीरजी।
DeleteBahut badhiya post!
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
Deleteधीर वीर गम्भीर, भले नागरिक हैं बसे ।
ReplyDeleteजय जय जय रघुवीर, होवें सफल प्रयास शुभ ।।
कीचड़ महिना तीन, कचड़ा पूरे साल भर ।
मसला है संगीन, प्रर्यावरण बचाइये ।।
भरके गहरी सांस, एक बार फिर जोश से ।
दायित्विक अहसास, देने निकले मान्यवर ।।
दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
http://dineshkidillagi.blogspot.in
bade bhai ... कचड़ा prbandhan ... आज की तारीख में ... यह एक बड़ी समयसा है ... /
Deletenagar nigam se lekar... pura sarkaari tantr ... isme lagaa hai .. fir bhi..
safalta nahi mil rahi
bade bhai ... कचड़ा prbandhan ... आज की तारीख में ... यह एक बड़ी समयसा है ... /
Deletenagar nigam se lekar... pura sarkaari tantr ... isme lagaa hai .. fir bhi..
safalta nahi mil rahi
सुन्दर काव्यमय टिप्पणी...रघुबीरजी पढ़कर और उत्साहित हो जायेंगे।
Deletebhagvaan kare yese raghubeer ji har gali me hon to yeh samasya hi nahi aayegi vaise main bhi apne garden ke patton ko har teesre din jalvaati rahti hoon taki hava ke saath idhar udhar na uden.paryavarn ki raksha karna humara kartavya hai.apni post ke madhyam se bahut achchi seekh di hai praveen ji.
ReplyDeleteहमारी भी यही कामना है कि हर नगर के सोये रघुबीरजी जागें।
Deleteबहुत बढिया आलेख ।
ReplyDeleteबढिया आलेख
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
Deleteनगरों में यह संभव नहीं हो पाता है, एक तो पेड़ ही कम हो चले हैं। दूसरा जब पत्ते झड़कर कांक्रीट या रोड पर गिरते हैं तो अपना निर्वाण बाधित सा पाने लगते हैं। नगरीय जीवन का यह पक्ष एक नयी समस्या लाता है, पत्तों को समेटने की समस्या और यदि उन्हें तुरन्त न समेटा जाये तो वह कूड़े के रूप में नगर में बिखर जाते हैं, यत्र तत्रसर्वत्र.गंधाते नगरों की एक समस्या है शहरी कचरे का तुरता लचर चलताऊ समाधान जिस और रघुबीर्जी का ध्यान जाना ही चाहिए था .दुनिया भर की विषाक्त गैसें होतीं हैं इस धुयें में जो महानगरों में विंटर स्मोग बन पसरा रहता है .
ReplyDeleteयही सारा धुँआ हम सबके स्वास्थ्य को प्रभावित करता रहता है..
Deleteऐसे रघुबीर जी सरीखे व्यक्तित्व ही आशा जगाते हैं.. निराशा के धुओं को मिटाते हैं और प्रकृति को जीवंत करते हैं!!
ReplyDeleteकाश रघुबीरजी की आशाओं को निष्कर्ष मिले..
Deleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 01-03 -2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete..शहीद कब वतन से आदाब मांगता है .. नयी पुरानी हलचल में .
बहुत आभार आपका..
Deleteयहाँ सरकार सस्ते दाम पर हर घर को कम्पोस्ट बिन उपलब्ध कराती है. यह प्लास्टिक की बनी उलटी लम्बी टोकरी की तरह है जिसके सर पर ढ़कन भी लगा होता है. जो हिस्सा नीचे होता है उसमे खिसकने वाला एक दरवाजा जैसा भी होता है.अब जो भी रसोई की अन्पकी सब्जी फल के कतरन और पत्ते हो उसे उसमे डालते जाएँ और नीचे वह कम्पोस्ट में बदलता जायेगा. जिसे नीचे के दरवाजे से निकल कर फूल पौधों की क्यारी के लिए प्रयोग कर सकते हैं.
ReplyDeleteमैंने एक ऐसा ही अपने घर के पीछे के बगीचे में लगाया है.यह शायद इक अच्छा हल है.
नगरों की जीवनचर्या में संभवतः यह एक स्थायी हल हो सकता है।
Deleteहमने भी पहली बार बैंगलोर में ही देखा कि कूड़ा इकट्ठा करके सुलगा दिया जाता है, और उसमें से तरह तरह की गंध आती रहती है, यहाँ कूड़े के लिये ट्रंचिंग ग्राऊँड की कमी होगी शायद।
ReplyDeleteइतने बड़े शहर में कूड़े को बाहर निकालने के अतिरिक्त कोई विकल्प भी नहीं है। सब अपने घर में कचरा-प्रबन्धन करने लगें तो यह समस्या कम हो सकती है।
Deleteशब्द-चयन बहुत उत्कृष्ट कोटि का किया है ..... साधुवाद !
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका..
Deleteरघुबीर जी समाज के उत्प्रेरक है , धुआं और धुंध छटेगा
ReplyDeleteसमस्या और उपाय स्पष्ट हों और सबको स्वीकार्य भी..
Deleteरघुवीर तुम डटे रहो,
ReplyDeleteरघुवीर तुम अडे रहो,
सामने कचरा-अम्बार हो,
मलबा हो, झंखाड हो,
देर हो,हो सही,
लोग चेत जायेंगे,
होश में आ जायेंगे,
सांस सांस शुद्ध हो,
आस आस विशुद्ध हो,
हार कर थको नहीं,
रघुवीर तुम थमो नहीं |
रघुबीरजी सरलता से थकने वाले जीव नहीं है...कुछ न कुछ उपाय अवश्य निकलेगा...
Deletesamjh mein nahi aaya mujhe ki ek saadharan se dikhne wale blog mein itni asaadharan post kaise ho sakti hai... vicharniya lekh hai... aur sath hi blog bilkul saadgi bhari khubsurat hai...
ReplyDeleteअभिषेकजी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद। विषय पर ही ध्यान रहे अतः कुछ और नहीं लगाता हूँ ब्लॉग पर।
Deleteरोचक व प्रेरक रघुबीर कथाय....
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका..
Deleteraghuvir ji ke bare me bahut achchhi tarah se likha hai aapke likhne ki shaeli bahut hi uttam hai
ReplyDeleterachana
रघुबीरजी की उपस्थिति हर नगर में आवश्यक है..
Deleteरगुवीर जी नमन!
ReplyDeleteकुछ कर दिखायेंगे रघुबीरजी..
Deleteरघुवीर जी की जय- जिन्दाबाद!!
ReplyDeleteरघुबीरजी निश्चय ही कुछ सूत्र निकालेंगे..
Deleteशहरों का पतझड़ भी धुआं-धुआं.
ReplyDeleteइस धुँयें में स्वाहा होता नगरवासियों का स्वच्छ वातावरण..
Deletebahut hi umda lekh h
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका..
Deleteरोचकता लिए हुए बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका..
Deleteजय हो रघुवीर जी की,...रोचक....
ReplyDeleteफालोवर बन गया हूँ,...देर के लिए...क्षमा
बहुत आभार आपका...
Deleteलगता है रघुबीरजी पर पूरा उपन्यास ही लिखा जा रहा है।
ReplyDeleteलगता तो यही है कि रघुबीरजी ऐसे ही व्यस्त रहे तो उपन्यास बन जायेगा।
Deleteकुछ ही लोग होते हैं जो अपने लिए नहीं जीते। वे प्रणम्य होते हैं। ऐसे ही हैं रघुवीरजी।
ReplyDeleteउनकी चेतना सब में आशा का संचार करे..
Deleteयह एक बड़ी समस्या है हमारे परिवेश की...कोई हल तो निकाला ही जाना चाहिए विचारणीय मुद्दा है....हमारी और से आपको सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteपर्यावरण और वातावरण को बचाने का यही तरीका भी है..
Delete