परीक्षा श्रेष्ठता सिद्ध करने की विधि है, श्रेष्ठ होने की अनिवार्यता नहीं है। यह दर्शन का वाक्य नहीं, हम सबके दैनिक अनुभव की विषयवस्तु है। उदाहरणों की बहुतायत है, जो जीवन में श्रेष्ठ रहे और जो परीक्षा में श्रेष्ठ घोषित किये गये, उनके बीच कभी किसी प्रकार का तार्किक संबंध रहा ही नहीं है। कारण दो ही हो सकते हैं, या तो जिस पाठ्यक्रम पर परीक्षा होती है, वह बड़ा छिछला है, या तो परीक्षा की विधि में दोष है। तुरन्त ही निष्कर्ष पर पहुँच कर कुछ असिद्ध करने की व्यग्रता में नहीं हूँ, क्योंकि स्वयं भी परीक्षा की पद्धति का प्रतिफल हूँ।
क्या परीक्षा आवश्यक है? हाँ और नहीं भी। जब संसाधनों की माँग अधिक हो और आपूर्ति कम तो वह संसाधन किसे मिले, उसके लिये प्रतियोगिता होती है। प्रतियोगिता बहुधा धन की होती है, जिसके पास अधिक धन, उसके पास अधिक संसाधन। इसी प्रकार जब किसी नौकरी के लिये अधिक लोग आवेदन करते हैं तो सुयोग्य पात्र का निर्धारण करने के लिये भी प्रतियोगिता होती है, जो धन के स्थान पर ज्ञान पर आधारित होती है। यही प्रतियोगिता परीक्षा का उद्गम बिन्दु है। यह एक अलग विषय है कि परीक्षा में परखे गये ज्ञान में और नौकरी में काम आने वाले ज्ञान में जमीन आसमान का अन्तर होता है। जब संसाधन अधिकता में होते हैं, तब प्रतियोगिता होती ही नहीं है, परीक्षा की कोई आवश्यकता नहीं।
निर्धन समाज में संसाधन कम होते हैं, उनके लिये प्रतियोगिता अधिक होती है, परीक्षा एक के बाद आती रहती है, संघर्ष में बीतता है जीवन। हर छोटी छोटी चीज के लिये जूझना जब नियति हो, तब परीक्षा जीवन का अनिवार्य अंग बन कर हम सबसे चिपक जाता है। अरब के देशों के लिये परीक्षा का कोई महत्व नहीं, पश्चिमी धनाड्य देशों में भी परीक्षा होती हैं पर उनका स्वरूप इतना संघर्षमय तो नहीं ही रहता होगा जैसा अपने देश में है।
यह मानसिकता बहुत गहरे उतरी है, हमारी शिक्षा पद्धति में। यदि हम कल्पना करें कि विद्यालय में कोई परीक्षा न हो, सबको उत्तीर्ण कर दिया जाये, सबको अपने योग्य नौकरी चुनने का अधिकार हो, कोई प्रतियोगिता नहीं, सब अपना जीवन जियें, अपनी रुचि के अनुसार, आनन्द में। बहुत लोग यह बात पचा नहीं पायेंगे। मान मिले न मिले पर यह स्वप्न रह रह कर आता ही रहेगा, क्योंकि यही मेरे लिये किसी सभ्य और सुसंस्कृत समाज की आदर्श स्थिति है। आप कह सकते हैं कि यदि प्रतियोगिता नहीं रहेगी तो लोग पढ़ेगे नहीं, विज्ञान, साहित्य, तकनीकी आदि विकसित ही नहीं होंगी, हम असभ्य के असभ्य रह जायेंगे। आपके इस तर्क से मैं तुरन्त सहमत हो जाऊँगा, पर पाठ्यक्रम और परीक्षा की विधि का विश्लेषण करने के बाद।
हमारी ७० प्रतिशत बौद्धिक क्षमता समाज से प्राप्त अनौपचारिक शिक्षा से विकसित होती है, शेष ३० प्रतिशत औपचारिक शिक्षा में भी दो तिहाई क्षमता हमारी जिज्ञासा से आती है। मात्र १० प्रतिशत क्षमता नियमित अध्यापन से आती है। इसी १० प्रतिशत को विकसित करने के लिये हमारी शिक्षा पद्धति कटिबद्ध है। पूरी पठनीय सामग्री को एक वर्षीय १०-१२ पाठ्यक्रमों में बाटना, हर वर्ष परीक्षा, सब विषयों का प्रारम्भिक ज्ञान, हर बार कुछ और नया। जितना पढ़ना पड़ता है उसका केवल १० प्रतिशत ही स्मृति में रह पाता है, स्मृति में उपस्थित आधा ज्ञान ही किसी काम का होता है। कुल मिला कर जितना ज्ञान आवश्यक है उसका २० गुना हमें हजम करना पड़ता है औपचारिक शिक्षा के माध्यम से। हर पीढियों में यह मात्रा बढ़ती जाती है, क्योंकि हर विषय के पुरोधा अपने विषय के प्रति छात्रों को आकर्षित करने के लिये विषय से संबंधित तकनीकियाँ और विशिष्ट ज्ञान पाठ्यक्रम में ठूस देना चाहते हैं। गणित के जो सवाल हम कक्षा १२ में करते थे, उसे कक्षा ९ में देखकर हमारे होश उड़ गये। आने वाले समय में आवश्यक औपचारिक ज्ञान से ३० गुना बच्चे को घोटना पड़े, और वह भी मात्र १० प्रतिशत कुल बौद्धिक क्षमता विकसित करने के लिये, तो कोई आश्चर्य नहीं है, अपने बच्चों को सुपरमैन की उपाधि देना तब आपके लिये अधिक सरल होगा।
जब पाठ्यक्रम की मात्रा अधिक होगी, तो परीक्षा का भार भी उतना ही होगा। अब आयें परीक्षा की विधि पर। क्या परीक्षा यह निश्चित कर पाती है कि सब पाठ्यक्रम पढ़ डाला गया है और ढंग से समझ में आ गया है? क्या परीक्षा के प्रश्नपत्र का प्रारूप यह जानने के लिये होता है कि आपको क्या आता है या क्या नहीं आता है? परीक्षा हो जाने के बाद कितना रह पाता है दिमाग में? इन तीनों प्रश्नों का उत्तर ढूढ़ने में हमें वे राहें मिल जायेंगी, जिन पर हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को चलते देखना चाहते हैं। अपने शैक्षणिक जीवन में परीक्षा की कई विधियों से साक्षात्कार हुआ, जिसके विषय में एक अलग पोस्ट में लिखूँगा। कोई तो कारण होगा कि परीक्षा का नाम सुन जितना पसीना और कँपकपी लोगों को आती है, उतना जून की गर्मी व दिसम्बर की सर्दी में भी नहीं आती होगी।
यदि प्रतियोगी परीक्षाओं को भी देखें तो उनमें नियत ज्ञान का स्तर, उस नौकरी में वांछित ज्ञान के स्तर से बहुत अधिक होता है। रेलवे में परास्नातकों को पत्थर ढोते हुये देखता हूँ तो देश के भविष्य के बारे कुछ बोल पाना कठिन सा लगने लगता है। हर क्षेत्र में यही स्थिति है, पढ़े अधिक हैं पर उनका महत्व नहीं है। संभवतः परीक्षा पद्धति को सही स्वरूप में देख पाना और उसे ज्ञान और उपयोगिता के अनुसार प्रयोग में ला पाना हमारे भविष्य को तय करेगा।
परीक्षा पद्धति हमारी शिक्षा व्यवस्था के लिये परीक्षा की घड़ी है।
निर्धन समाज में संसाधन कम होते हैं, उनके लिये प्रतियोगिता अधिक होती है, परीक्षा एक के बाद आती रहती है, संघर्ष में बीतता है जीवन। हर छोटी छोटी चीज के लिये जूझना जब नियति हो, तब परीक्षा जीवन का अनिवार्य अंग बन कर हम सबसे चिपक जाता है। अरब के देशों के लिये परीक्षा का कोई महत्व नहीं, पश्चिमी धनाड्य देशों में भी परीक्षा होती हैं पर उनका स्वरूप इतना संघर्षमय तो नहीं ही रहता होगा जैसा अपने देश में है।
यह मानसिकता बहुत गहरे उतरी है, हमारी शिक्षा पद्धति में। यदि हम कल्पना करें कि विद्यालय में कोई परीक्षा न हो, सबको उत्तीर्ण कर दिया जाये, सबको अपने योग्य नौकरी चुनने का अधिकार हो, कोई प्रतियोगिता नहीं, सब अपना जीवन जियें, अपनी रुचि के अनुसार, आनन्द में। बहुत लोग यह बात पचा नहीं पायेंगे। मान मिले न मिले पर यह स्वप्न रह रह कर आता ही रहेगा, क्योंकि यही मेरे लिये किसी सभ्य और सुसंस्कृत समाज की आदर्श स्थिति है। आप कह सकते हैं कि यदि प्रतियोगिता नहीं रहेगी तो लोग पढ़ेगे नहीं, विज्ञान, साहित्य, तकनीकी आदि विकसित ही नहीं होंगी, हम असभ्य के असभ्य रह जायेंगे। आपके इस तर्क से मैं तुरन्त सहमत हो जाऊँगा, पर पाठ्यक्रम और परीक्षा की विधि का विश्लेषण करने के बाद।
हमारी ७० प्रतिशत बौद्धिक क्षमता समाज से प्राप्त अनौपचारिक शिक्षा से विकसित होती है, शेष ३० प्रतिशत औपचारिक शिक्षा में भी दो तिहाई क्षमता हमारी जिज्ञासा से आती है। मात्र १० प्रतिशत क्षमता नियमित अध्यापन से आती है। इसी १० प्रतिशत को विकसित करने के लिये हमारी शिक्षा पद्धति कटिबद्ध है। पूरी पठनीय सामग्री को एक वर्षीय १०-१२ पाठ्यक्रमों में बाटना, हर वर्ष परीक्षा, सब विषयों का प्रारम्भिक ज्ञान, हर बार कुछ और नया। जितना पढ़ना पड़ता है उसका केवल १० प्रतिशत ही स्मृति में रह पाता है, स्मृति में उपस्थित आधा ज्ञान ही किसी काम का होता है। कुल मिला कर जितना ज्ञान आवश्यक है उसका २० गुना हमें हजम करना पड़ता है औपचारिक शिक्षा के माध्यम से। हर पीढियों में यह मात्रा बढ़ती जाती है, क्योंकि हर विषय के पुरोधा अपने विषय के प्रति छात्रों को आकर्षित करने के लिये विषय से संबंधित तकनीकियाँ और विशिष्ट ज्ञान पाठ्यक्रम में ठूस देना चाहते हैं। गणित के जो सवाल हम कक्षा १२ में करते थे, उसे कक्षा ९ में देखकर हमारे होश उड़ गये। आने वाले समय में आवश्यक औपचारिक ज्ञान से ३० गुना बच्चे को घोटना पड़े, और वह भी मात्र १० प्रतिशत कुल बौद्धिक क्षमता विकसित करने के लिये, तो कोई आश्चर्य नहीं है, अपने बच्चों को सुपरमैन की उपाधि देना तब आपके लिये अधिक सरल होगा।
यदि प्रतियोगी परीक्षाओं को भी देखें तो उनमें नियत ज्ञान का स्तर, उस नौकरी में वांछित ज्ञान के स्तर से बहुत अधिक होता है। रेलवे में परास्नातकों को पत्थर ढोते हुये देखता हूँ तो देश के भविष्य के बारे कुछ बोल पाना कठिन सा लगने लगता है। हर क्षेत्र में यही स्थिति है, पढ़े अधिक हैं पर उनका महत्व नहीं है। संभवतः परीक्षा पद्धति को सही स्वरूप में देख पाना और उसे ज्ञान और उपयोगिता के अनुसार प्रयोग में ला पाना हमारे भविष्य को तय करेगा।
परीक्षा पद्धति हमारी शिक्षा व्यवस्था के लिये परीक्षा की घड़ी है।
25/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
परीक्षा पद्धति हमारी शिक्षा व्यवस्था के लिये परीक्षा की घड़ी है।
आज के हालत में एक revolution की ज़रुरत है ...सार्थक आलेख ..
परीक्षा श्रेष्ठ को चुने और श्रेष्ठ बनने में सहायक हो, अब इतनी ही आशा है परीक्षा पद्धति से।
Deleteपरिक्षा पद्धति पर अच्छा लिखा है |सच् बयां करता लेख |
ReplyDeleteआशा
परीक्षा सबके अनुभव का विषय रहा है और सबका अनुभव लगभग यही रहा है।
Deleteपरीक्षा में सफलता, बेहतर करने के लिए परीक्षा नामक खेल के नियम का पालन जरूरी होता है.
ReplyDeleteखेल ही करना हो तो रोचक तो किया जा सकता है, कई अध्यापक यह प्रयास करते रहते हैं।
Deleteआज 'परीक्षा' के बजाय इसकी पद्धति पर प्रश्नचिह्न ज़्यादा हैं.किसी के भी ज्ञान को किसी एक माध्यम से जान पाना कभी संभव नहीं हो सक्ता.यह भी उतना ही सत्य है कि विद्यालयी-परीक्षा ,जिसमें एक निश्चित दायरा होता है और प्रतियोगिता-परीक्षा में फर्क होता है.
ReplyDeleteयह बात भी कई बार देखी गई है कि ऐसी परीक्षाओं से पास हुए लोग उनसे कमतर क्षमतावान होते हैं जो इनमें तकनीकी-रूप से उत्तीर्ण नहीं हो पाते !
..फिर भी परीक्षाओं की अनिवार्यता बनी रहेगी !
यदि अनिवार्यता बनी रहनी है, तो कम से कम विधि में सुधार ही हो जाये।
Delete...स्मृति में उपस्थित आधा ज्ञान ही किसी काम का होता है। कुल मिला कर जितना ज्ञान आवश्यक है उसका २० गुना हमें हजम करना पड़ता है|
ReplyDeleteइससे सहमत होना बहुत मुश्किल है।
संभवतः आप जिस ज्ञान की चर्चा कर रहे हैं वह दैनिक जीवन या नौकरी को चलाने के लिए आवश्यक तकनीकी और व्यावहारिक जानकारी से संबंधित है। ऐसा ज्ञान जो किसी अन्य उद्देश्य की प्राप्ति का साधन मात्र है।
मेरा मानना है कि ज्ञान अपनेआप में एक साध्य भी है। व्यक्तित्व का एक आभूषण है। जरूरी नहीं कि इसका प्रयोग कुछ पाने के लिए किया ही जाय। इसकी प्राप्ति स्वयं एक उपलब्धि है। इस भौतिक संसार में ऐसा बहुत कुछ है जिसके बारे में जान भर लेना बहुत सुख देता है। ज्ञान का सागर अनंत है असंख्य रत्नों से भरा हुआ। चाहे जितनी डुबकी लगाइए इससे पार नहीं पा सकते। अपनी क्षमता भर मोती इकठ्ठा कर लीजिए और प्रसन्न रहिए।
फाँसी पर चढ़ने से ठीक पहले किताब पूरी कर लेने की भगत सिंह की ललक क्या संदेश देती है?
जैसे नियमित व्यायाम से शरीर स्वस्थ रहता है उसी प्रकार कठिन प्रश्न हल करने से दिमाग की कसरत होती है। इस कसरत से जब दिमाग मजबूत हो जाता है तो वह नयी चुनौतियों का सामना आसानी से करता है। जिसका दिमाग जितना अधिक कसरत करेगा वह उतना ही अधिक मजबूत होगा और उसे उतनी ही बड़ी जिम्मेदारी (नौकरी) मिलेगी और उसी अनुपात में वेतन और सुविधाएँ। स्कूली पाठ्यक्रम तो इस कसरत की बानगी भर हैं जो शायद जरूरी भी हैं।
पाठ्यक्रम में जितना पढ़ाया जाता है उसका १/२० हिस्सा भी हमारे काम आ पाता है, यह उनके लिये जिन्हें मानसिक कसरत करते रहने का अभ्यास है। बहुतों के लिये औपचारिक शिक्षा का लाभ केवल पढ़ लेने या गुणा भाग करने में आता है पर उसके लिये १२ वर्षों का सश्रम अभ्यास!
Deleteस्वध्याय तो निश्चय ही अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
परीक्षाएं तो सभी लेते हैं, उसे पास-फेल, सफल-असफल तो सभी ठहराते ......... पर शिक्षा की, शिक्षा की व्यवस्था की परीक्षा कौन लेता है, शिक्षा व्यवस्था की सफलता-असफलता की जांच-परख कौन करता है, शिक्षा व्यवस्था के गुण-दोषों का निर्णय कौन लेता है?
ReplyDeleteसंभवतः अब इसका समय आ गया है कि परीक्षा पद्धति की परीक्षा हो।
Deleteपरीक्षा और परीक्षा पद्धति दोनों पर ही विचार करना आवश्यक है...... कभी लगता है की आवश्यकता से कहीं ज्यादा ज्ञान बटोर लिया जा रहा है और कभी लगता है की पढ़ लिखकर भी कुछ नहीं सीखा, हर तरह के उदहारण मौजूद हैं ......सारगर्भित लेख
ReplyDeleteअनावश्यक और बहुत अधिक ज्ञान हमारे मस्तिष्कों में ठूँस दिया जाता है, इतना कि सृजनशीलता के लिये स्थान ही नहीं बचता है।
DeleteBahut he accha topic hai yeh discussion aur behaas ke liye. Kabhi lgta hai ki exam zaroori hai, performance measurement ke liye and for seriousness towards the education system. But sometimes it just seems to be a heavy burden on poor students.
ReplyDeleteकौन किसके योग्य है, बस इसका सफल निर्धारण कर दे, परीक्षा पद्धति। सबको सब पढ़ा डालना और कुछ काम न आना शिक्षा पद्धति की पहचान बन चुकी है।
Deleteसबसे बड़ी परीक्षा जीवन की, जो इसमें पास वह सबमें पास. एक अच्छे लेख के लिये धन्यवाद.
ReplyDeleteअन्ततः जीवन की जीवन्त परीक्षायें ही हमें बड़े बड़े अनुभव दे जाती हैं।
Deleteमैट्रिक्स और ३-डी त्रिकोणमिति अब शायद इंटरमीडिएट में पढाये जाने लगे हैं जो कभी बीएससी में पढाये जाते थे..
ReplyDeleteअच्छा हुआ, पहले ही पढ़ लिया नहीं तो ३० गुना पढ़ना पड़ता।
Delete"सबको अपने योग्य नौकरी चुनने का अधिकार हो, कोई प्रतियोगिता नहीं, सब अपना जीवन जियें, अपनी रुचि के अनुसार, आनन्द में। ... मान मिले न मिले पर यह स्वप्न रह रह कर आता ही रहेगा, क्योंकि यही मेरे लिये किसी सभ्य और सुसंस्कृत समाज की आदर्श स्थिति है।"
ReplyDeleteयही रामराज्य है !
परीक्षा पद्धति एक सहज बौद्धिक विकास के मार्ग में एक बड़ी बाधा है ....बहुत से अन्यथा अप्रतिम मेधा के व्यक्ति सारा जीवन पताका क ख ग में बिता डालते हैं ....जीवन के छोटे छोटे सुखों को बटोरने /हलोरने में लगे रहते हैं ..जीवन के सही पुरुषार्थों से वंचित रह एक दिन विदा ले लेते हैं और उससे भी ज्यादा विगलित संकार छोड़ जाते हैं ...आप गौर करेगें तो पायेगें कि विश्व की अप्रतिम मेधायें परीक्षा प्रणाली की देंन नहीं रहीं बल्कि वहां से निस्काषित होकर अपने प्रतिभा का विस्तार पायीं -भारतीय शिक्षा प्रणाली तो और भी दोषपूर्ण है -यह केवल तोता रटन्तों को राजपद देती है ... विचारोत्तेजक !
आप गौर करेगें तो पायेगें कि विश्व की अप्रतिम मेधायें परीक्षा प्रणाली की देंन नहीं रहीं...
Deleteपता नहीं यह तथ्य शिक्षाविदों को क्यों नहीं दिखायी पड़ता है?
परीक्षा और इन्सान का जीवन एक दूसरे के पूरक है विरोधी नहीं !
ReplyDeleteतभी तो परीक्षाओं को इन्सान के विकास में और प्रेरक बनाने के लिये, उनकी पद्धति में बदलाव की आवश्यकता है।
Deleteहमारी शिक्षा पद्धति बहुसंख्या की पक्षपाती है जिसमें समझ पर उतना ज़ोर नहीं है जितना सूचनायें इकट्ठी करने पर.
ReplyDeleteजब परीक्षाओं में याद कर के उगलने की बाध्यता हो तो समझ कहाँ से विकसित होगी।
Deleteआपकी बात से शत प्रति
ReplyDeleteशत सहमत।
बहुत आभार आपका..
Deleteज्ञानी होने का भ्रम और सूचना का भंडारण!!
ReplyDeleteपरीक्षा = एक महीने का रटंत श्रम + बीस संभावित प्रश्नों पर केंद्रित अध्ययन. परिणाम = सफलता.
शोचनीय!!
आपके परीक्षा-सूत्र परीक्षा पद्धति को असिद्ध करने के लिये पर्याप्त हैं।
Deleteपरीक्षा ज़रूरी है ... पर नम्बर सही आकलन नहीं , वाकई इसकी कई कड़ियाँ गलत हैं
ReplyDeleteतभी तो पाठ्यक्रम और विधि, दोनों में बदलाव आवश्यक है।
Deleteआपकी बात से पूर्णत: सहमत ... सार्थक व सटीक लिखा है आपने ...आभार ।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका..
Deletepariksha ki saflta kisi ke paripakw hone na udaharan nahi,aisa kabhi nahi hota ki jis claas ke exam ko student pass karta hai wo uska gyata ya achchha jankar siddh ho gaya,ye saflta to bus dikhawe ka madle hai jo aapko logo k bich sajaye rakhta hai,practically aap kitne behtar hain ye to bilkul alag si chij hai jo ek unsuccess student me bhi rah sakta hai,sahi sikha jaruri hai aur pariksha...
ReplyDeleteजीवन में सीखना और ज्ञान प्राप्त करना, दोनों ही परीक्षा में अच्छा करने से तार्किक संबंध महीं रखते हैं।
Deleteशिक्षा पद्धति पर सार्थक विश्लेषण .... जो कुछ इन संस्थानों मेन सीखते हैं वो कम ही काम आता है जीवन में ... फिर भी जानने और समझने की क्षमता बढ़ती है ... विचारणीय पोस्ट
ReplyDeleteकुल औपचारिक ज्ञान में दो तिहाई तो जिज्ञासा के ही माध्यम से आता है।
Deleteपरीक्षा पद्धयती में बहुत सुधार अपेक्षित है | मूल रूप से विषय का ज्ञान कितना हुआ और व्यवहारिकता में उस ज्ञान का उपयोग ,ये दोनों ही अनिवार्य रूप से उसमें प्रतिध्वनित होने चाहिए ....
ReplyDeleteमूल रूप से विषय का ज्ञान कितना हुआ और व्यवहारिकता में उस ज्ञान का उपयोग ,ये दोनों ही अनिवार्य रूप से उसमें प्रतिध्वनित होने चाहिए ....
Deleteबस यही दो मानक हों पाठ्यक्रम और परीक्षा की विधि निर्धारित करने के।
EMANDARI SE SABSE BEST CHUNANE KA SABSE BEST MADHYAM PARIKSHA HI HO SAKTA HAI....
ReplyDeletePOST GRADUATE YADI RAILWAY ME GANGMAN KA KAM KAR RAHE HAI TO WO PARIKSHA HI HAI JO JARURAT SE JYADA YOGYA KO CHUN RAHA HAI..
प्रतियोगी परीक्षाओं में आँकी योग्यता, कार्य में प्रयुक्त योग्यता से बहुत अधिक होती है। ऐसे में तो अधिक पढ़ा व्यर्थ ही चला गया।
DeleteSAMAY AUR SHIKSHAK DONO PARIKSHA LETA HAI...
ReplyDeleteSHIKSHAK SAITHANTIK BAAT SIKHAKAR PARIKSHA LETA HAI
AUR
SAMAY PARIKSHA LEKAR SAANSARIK BAAT SIKHATA HAI..
बड़ा ही सटीक कथन..
Deletedhanyavad sir..
Delete"विश्व की अप्रतिम मेधायें परीक्षा प्रणाली की देंन नहीं रहीं" यही सत्य है.
ReplyDeleteबस यही तथ्य सदैव इस पद्धति को कचोटता है।
Deleteसक्सेस नहीं एक्सलेंस के पीछे भागना चाहिए...सक्सेस अपने आप पीछे आएगी...
ReplyDelete
जय हिंद...
गुणवत्ता तो तब आयेगी जब रटने से फुरसत मिले..
Deleteसिलेबस की अधिकता,अनावश्यक ज्ञान और फिर उस ज्ञान का कोई महत्व नहीं..जरुरी है कि शिक्षा पद्धती की परीक्षा की जाये.
ReplyDeleteसार्थक विषय पर अच्छा आलेख.
तभी तो पूरी पढ़ाई के बाद खच्चर से बोझ को उतार कर खड़े हुये, तब हवा में उड़ने जैसा अनुभव हुआ।
Deleteपरीक्षा श्रेष्ठता सिद्ध नहीं करती है..फिर भी परीक्षा ज़रूरी है...आपने खुद ही सवाल किए और खुद ही उसका जवाब भी दे दिया। अंततः बस यही कहूँगी विचारणीय आलेख
ReplyDeleteपरीक्षा हों पर अपने वर्तमान रूप में नहीं...
Deleteसच् बयां करता लेख |शिक्षा पद्धति पर सार्थक विश्लेषण ..
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका..
Deleteबहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
बहुत आभार आपका..
Deleteपरीक्षा श्रेष्ठता सिद्ध करने की विधि है, श्रेष्ठ होने की अनिवार्यता नहीं है।
ReplyDeleteश्रेष्ठ होने का मानक भी नहीं है .फिर जितना मर्जी पढ़ लो ,माहिर बन जाओ किसी विषय के उसके बाद फिर 'MBA' भी करो .टाइम मेनेजमेंट सीखो .टीम से काम लेना सीखो .क्षमता का अधिकतम दोहन करना सीखो .
भाई साहब कई दिनों से आपको याद कर रहा हूँ .बेंगलुरु मेरे अज़ीम तर दोश्त रहतें हैं शेखर जेमिनी उनसे मिलने आ रहा हूँ .मार्च २८,२०१२ से अप्रेल १९ ,२०१२ उन्हीं के पास होवूंगा .यहाँ मुंबई से २७ मार्च को उद्यान एक्सप्रेस से निकल रहा हूँ क्षत्रपति शिवाजी मुंबई स्टेशन से प्रात :८:३०पर .
मेरा दूर ध्वनी :093 50 98 66 85 /0961 902 2914 है .इच्छा रहेगी इस समय अंतराल में कभी आपसे भेंट हो सके आपके अपने अनुकूल समय अंतराल में .अपने अनुकूल स्पेस में .इति आदर एवं नेहा से -वीरुभाई .
आपके स्वास्थ्य संबंधी सुझावों को समझने की उत्कण्ठा रहेगी।
Delete"परीक्षा पद्धति को सही स्वरूप में देख पाना और उसे ज्ञान और उपयोगिता के अनुसार प्रयोग में ला पाना हमारे भविष्य को तय करेगा"
ReplyDeleteसार्थक व सटीक आलेख.
भविष्य के मुखर स्वागत के लिये प्रतिभाओं का निखारा जाना आवश्यक है।
Deleteसभी आवश्यक मानकों पर विचार करता हुआ सार्थक आलेख...!
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका..
Deleteबहुत उम्दा लिखा है भैया, इसे पढ़ के आपके घर में हुई वो बातचीत याद आ गयी, जहाँ आप अपने प्रोफ़ेसर के बारे में बता रहे थे, उस बात को भी कभी विस्तार से लिखिए...मैं अपने एक दोस्त को वही बातें कुछ दिन पहले बता रहा था..
ReplyDeleteपरीक्षा की प्रचलित विधियों पर भी लिखना शेष है।
Deleteलेकिन वर्तमान सन्दर्भ में राष्ट्रीय संस्थान जैसे आई.आई.टी, एम.बी.बी.एस जैसी परीक्षाओं में 'आरक्षण' आ जाने के कारण अब ये मुझे श्रेष्ठता का मापदंड नहीं लगता है, बल्कि किसके पास किस जाती का सर्टिफिकेट है, उसका मापदंड लगता है.
ReplyDeleteजब राजनीति श्रेष्ठता के मानकों को प्रभावित करने लगे तो प्रश्नचिन्ह और भी बड़े हो जाते हैं..
Deleteमेरे अपने विद्यार्थी जीवन में सबसे अधिक प्रेसर मैंने MCA में झेला है. तीन साल के कोर्स में B.Tech के चार साल और M.Tech के एक साल का पाठ्यक्रम था. नौकरी में आने के बाद भी तीन महीने के ट्रेनिंग में बहुत कुछ सिखाया गया.
ReplyDeleteमगर जो कुछ भी सिखा अभी तक उसका सीधा प्रयोग करने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ है, और ना ही आगे कोई संभावना दिख रही है. मगर साथ ही ये भी जरूर है की जो भी सिखा उसी में कुछ जरूरी बदलाव लाकर काम चल रहा है और बढ़िया चल रहा है.
तो कहीं ना कहीं से यह शिक्षा पद्धति जरूरी भी लगता है और कहीं ना कहीं से उसकी आवश्यकता भी नहीं दिखती है. समझ नहीं पा रहा हूँ की क्या सही है और क्या गलत?
प्रश्न उठाकर सुलझाव की दिशा में चलने की सोचना ही प्रारम्भ है इस प्रक्रिया का..
Deleteहर छोटी छोटी चीज के लिये जूझना जब नियति हो, तब परीक्षा जीवन का अनिवार्य अंग बन कर हम सबसे चिपक जाता है। सार्थक व सटीक......आभार ।
ReplyDeleteहर छोटी छोटी चीज के लिये जूझना जब नियति हो, तब परीक्षा जीवन का अनिवार्य अंग बन कर हम सबसे चिपक जाता है। सार्थक व सटीक......आभार ।
ReplyDeleteयही कारण है कि बचपन से कुछ भी पाने के लिये परीक्षा को अनिवार्य पाया हमने।
Deleteसार्थक आलेख...! Really nice.
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका..
Deleteनिश्चित ही इस विश्लेषण की आवश्यक्ता वृहद स्तर पर...बहुत उम्दा आलेख एवं चिंतन.
ReplyDeleteकई अध्यापक अपने एकल प्रयासों में लगे रहते हैं...
Deleteभाई साहब 'परीक्षा 'का मतलब ही है' पर इच्छा' जिस पर आपका कोई नियंत्रण नहीं होता है .कभी काल करें ताकि आपका संपर्क सूत्र में सेव कर लूं .
ReplyDeleteCall at 09350986685/0961 9022 914/02222 1761 43 /C-4,Anuradha ,NOFRA,Colaba,Mumbai,400-005.
संभवतः इसीलिये सदा ही भय जगाती है परीक्षा..
DeleteSAHI SAMAY PR SAHI AUR BEHAD SARTHAK LEKH ....BADHAI PANDEY JI.
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका..
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तुति । Welcome to my New Post.
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका..
Delete"परीक्षा श्रेष्ठता सिद्ध करने की विधि है, श्रेष्ठ होने की अनिवार्यता नहीं है।"
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने ........... परीक्षा एक माध्यम तो हो सकता है अभीष्ट कदापि नहीं...... !रचना पठनीय तो है ही विचारोत्तेजक भी......!
काश श्रेष्ठता परखने की कोई पद्धति निकले...
Deleteचिंतन - मनन को कार्यान्वित करने की आवश्यकता आन पड़ी है..
ReplyDeleteहम सब भी उसी पद्धति के परिणाम हैं, अन्य पद्धति के गुण लाभ कौन परखेगा..
Delete"परीक्षा श्रेष्ठ को चुने और श्रेष्ठ बनने में सहायक हो, अब इतनी ही आशा है परीक्षा पद्धति से।"आपका यह कथन अति सार्थक व महत्वपूर्ण है। वस्तुतः परीक्षा का गुणवत्तापूर्ण ज्ञानार्जन हेतु होना अनिवार्य है, किंतु हमारी अभाव भरी प्रणालि में प्रतियोगी परीक्षा का उद्देश्य प्रतिभोन्मुखी विकाश करने के बजाय कमोवेस प्रतियोगियों का भीड़ का उन्मूलन ज्यादा है।
ReplyDeleteपरीक्षा को स्तर इतना अधिक संभवतः अधिक प्रतियोगियों के कारण होता जा रहा है..
Deleteबहुत ही उम्दा वैचारिक पोस्ट |
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका...
Deleteयोग्यता का परीक्षण तो होना ही चाहिये - शिक्षा की पद्धति और परीक्षा की विधि पर समुचित विचार की आवश्यकता है .
ReplyDeleteपरीक्षा तो होनी ही है, पाठ्यक्रम और विधि पर विचार अवश्य हो..
Deleteशिक्षा पद्धति का पुनुरुद्धार की नितांत आवश्यकता है
ReplyDeleteअधिकांश विचारशील व्यक्तियों की यही राय है..
Deleteयह भी है कि शिक्षा लोगों को शिक्षित नहीं कर रही। :-(
ReplyDeleteजब अंग दोषपूर्ण हो जायें तब निष्कर्ष कहाँ से समुचित हो पायेंगे...
Deleteसर जी ..आप से सहमत हूँ ! इस भाग दौड़ की दुनिया में परीक्ष में ज्यादातर वही देने की संभावना रहती है , जिसे कम से कम लोग लिख सके ! जो लिखा वही सिकंदर !वास्तव में शिक्षा की परीक्षा नहीं होती है !
ReplyDelete..धीरे धीरे भीड़ कम करने का तरीका बनती जा रही है परीक्षा..
Deleteमै बच्चों को पढ़ाने में प्रायः एक प्रयोग यह करता था कि किसी विषय अथवा पाठ को पढने -पढ़ाने के बाद उनको यह अवसर देता था कि वे स्वयं कुछ प्रश्न बनाए जो रोचक भी हो और कठिन भी |यह प्रयोग कक्षा १२ तक अत्यंत कारगर रहा | प्रोफेशनल कोर्सेस में भी ऐसे प्रयोग किये जाने चाहिए | अपने अर्जित ज्ञान के सम्बन्ध में ही प्रश्न बनाने से अनेक भेद खुद ब खुद खुल जाते थे | बड़ा सफल प्रयोग रहा ये | निश्चित तौर पर वर्तमान शिक्षा पद्धति में बदलाव की आवश्यकता है | मूल्यांकन का मापदंड केवल उत्तर पुस्तिका नहीं होनी चाहिए | शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच भय रहित संवाद और सम्बन्ध होना अत्यंत आवश्यक है |
ReplyDeleteआपकी विधि बहुत कारगर है, अगली पोस्ट पर परीक्षा की विधि पर किये गये प्रयोगों में सम्मिलित करना चाहूँगा..
Deleteआज ' हिन्दुस्तान ' में आपका यह लेख छपा मिला | आपको बधाई |
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद, कुछ देर पहले ही ज्ञात हुआ..
Deleteबहुत गहरा प्रश्न है ... क्या पद्धति होनी चाहिए शिक्षा की ...
ReplyDeleteकाश कोई हल निकल आये..
Deleteवाकई एक बेहतरीन सोचनिय लेख!
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका..
Deleteसार्थक दृष्टिकोण से निकले हुए निष्कर्ष!!
ReplyDeleteसंशोधन की महती आवश्यकता!!
संशोधन की मात्रा देश का भविष्य निश्चय करेगी..
Deleteहमारी शिक्षा व्यवस्था का बहुत सारगर्भित विश्लेषण..
ReplyDeleteआज की शिक्षा भविष्य का विकास है..
DeleteSIR..aapki es post ka kuch ansh aaj HINDUSTAAN ke sampadkiy prishth pr padhne ko mila..yakinan es post ke madhyam se aap jo kahana chah rahe hai wah adhik janmans tk pahuncha hoga...saadar
ReplyDeleteहिन्दुस्तान को आभार, परीक्षा अपने अभीष्ट में सफल रहे, व्यर्थ के श्रम को कम करे..
Deleteवर्तमान शिक्षा पद्धति सिर्फ 'इम्तिहानी लाल 'पैदा कर रही है परीक्षार्थी को सूचना वान,सूचना का वाहक तो बनाती है ज्ञानवान नहीं .गुणी व्यक्ति और साक्षर सूचना (शिरो )मणि में अंतर होता है .कहा भी गया है 'रटंत विद्या फलंत नाहीं '.अच्छा विमर्श चल रहा है .और की गुंजाइश बनी रहगी .
ReplyDeleteपरीक्षा देते देते विद्यार्थी पक जाता है....शीर्ष तक जाने के लिये परीक्षाओं की श्रंखला और निष्कर्ष श्रम की तुलना में बहुत कम..
Deleteआजकल सलेक्शन नहीं एलिमिनेशन का दौर है!
ReplyDeleteऔर परीक्षा पद्धति के द्वारा बाहर छोड़ दिये युवाओं की मनोदशा के बारे में ते सोचिये...वे भी जीवित मानुष हैं..
Deleteआपके साथ हुई बातचीत के बहुत सारे अंश याद हो आये, और परीक्षा तो हमेशा भय साथ लाती है क्योंकि हमारे भारतीय समाज में परीक्षा मानक की कसौटी है।
ReplyDeleteउस चर्चा के रोचक अंश आने अभी शेष हैं..
Deleteपरीक्षा - पराक्रम के परीक्षा की घडी आ गई है . परिवर्तन की अपेक्षा है .
ReplyDeleteपरीक्षा को अपनी उपादेयता सिद्ध करनी है, शिक्षा के उद्देश्यों की दिशा में।
Deleteवाह प्रवीण जी क्या विषय लिया है और उसका बहुत ही खूबसूरती से उल्लेख किया है धन्यवाद.
ReplyDeleteयह माह तो वैसे भी परीक्षा का माह है..
Deleteवर्ष भर की पढाई पर परीक्षा के तीन घण्टे भारी पड जाते हैं जबकि जीवन की परीक्षा तो प्रति पल चलती रहती है।
ReplyDeleteसाल भर पर भारी केवल वह ३ घंटे..
Delete