नकारात्मकता से सदा ही बचना चाहता हूँ, बहुत प्रयास करता हूँ कि किसे ऐसे विषय पर न लिखूँ जिसमें पक्ष और विपक्ष के कई पाले बना कर विवाद हो, विवाद में ऊर्जा व्यर्थ हो, ऊर्जा जो कहीं और लगायी जा सकती थी, सकारात्मक दिशा में। जीवन में प्रयोगों का महत्व है, प्रयोगों से ही कुछ नया संभव भी है, प्रयोगों में प्राप्त अनुभव और भी महत्वपूर्ण होते हैं और विषयवस्तु की उपादेयता के बारे में औरों को आगाह करने में सहायक भी।
ऐसा ही एक प्रयोग फेसबुक के साथ किया था, कुछ माह पहले, सम्पर्क लगभग २५० के साथ, कई पुराने मित्र और परिवार के सदस्य, उपयोग मूलतः अपने पोस्ट का लिंक देने के लिये, साथ ही साथ कुछ रोचक पढ़ लेने का उपक्रम। बस इसी भाव से फेसबुक में गया था, वह भी किसी के यह कहने पर कि फेसबुक में साहित्य का भविष्य है। अनुभव यदि कटु नहीं रहा तो उत्साहजनक भी नहीं रहा, कुछ दिनों पहले अपना खाता बन्द कर दिया है, पूरा विचार किया, अपनी न्यूनतम और अनिवार्य की श्रेणी में उसे बैठा नहीं पाया। इसके पहले दो माह का साथ ट्विटर के साथ भी था पर वह चूँ चूँ भी निरर्थक ही लगी। अब रही सही उपस्थिति अपने ब्लॉग के साथ ही बची है, वह चलती रहेगी।
हर निर्णय का आधार होता है, आधार स्पष्ट हो तो व्यक्त भी किया जा सकता है। आधार के तीन सम्पर्क बिन्दु थे, समय, साहित्य और सामाजिकता। इन तीनों बिन्दुओं पर कितना कुछ रिस रहा था और कितना रस मिल रहा था, यह अनुभव हर व्यक्ति के लिये भिन्न हो सकता है, पर विश्लेषण हेतु विषय का उठना आवश्यक है।
पहला है सामाजिकता। यह फेसबुक का सुदृढ़ पक्ष है। अपने कई परिचितों के बारे में जाना, वे कहाँ रह रहे हैं, क्या कर रहे हैं, कुछ चित्र उनके परिवारों के, कुछ घूमने के, कुछ त्योहार के, कुछ मित्रों के साथ, जन्मदिन और वैवाहिक वर्षगाँठ की शुभकामनायें। वैसे तो जिन मित्रों और संबंधियों को जानना आवश्यक था, वे तो फेसबुक से पहले भी सम्पर्क में थे। फेसबुक के माध्यम से उनके बारे में कुछ और जान गये। कुछ और लोगों से भी परिचय बढ़ा पर उसका आधार साहित्यिक न हो विशुद्ध जान पहचान का ही रहा, वह भी किसी तीसरे पक्ष के माध्यम से। संबंधों को महत्व देने वालों के लिये, संबंधों की संख्या से कहीं अधिक, उनकी गुणवत्ता पर विश्वास होता है। फेसबुक में संबंधों का प्रवाहमयी संसार तो मिला पर जब उसकी अभिव्यक्ति में गाढ़ेपन की गहराई ढूढ़ी तो छिछलेपन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं पाया।
दोष वातावरण का है, जहाँ स्वयं को व्यक्त करने की होड़ लगी हो, सम्पर्कों की संख्या चर्चित होने के मानक हों, औरों की अभिव्यक्ति का अवमूल्यन केवल लाइक बटन दबा कर हो जाता हो, वहाँ संबंधों के प्रगाढ़ होने की अपेक्षा करना बेईमानी है। संबंधों को पल्लवित करने के लिये समय देना पड़ता है, लगभग बराबर का, स्वयं की अभिव्यक्ति में दिया समय औरों द्वारा अभिव्यक्त को पढ़ने में दिये समय से कम ही रहे। इस वातावरण में ऊपर ऊपर तैरने को आनन्द तो बना रहा पर गहरे उतर कुछ संतुष्टि जैसा कुछ भी अर्जित नहीं हुआ।
दूसरा है समय। जहाँ पर गतिविधियों की झड़ी लगी हो, वहाँ कितना समय सर्र से निकल जाता है, पता ही नहीं चलता है। कई लोगों को जानता हूँ जो सुबह उठकर मुँह धोने के पहले फेसबुक देखते हैं। दिन में कई बार फेसबुक में कुछ न कुछ देखने में समय स्वाहा करने की लत लग जाती है सबको। संभवतः यही कारण है कई संस्थानों में फेसबुक पर रोक लगा दी गयी है। एकाग्रता नहीं रह पाती है, जब भी कुछ सोचने का समय आता है, मन में फेसबुक की घटनायें घूम जाती हैं। भरी भीड़ में परिवेश से त्यक्त युवा बहुधा फेसबुक में विचरते पाये जाते हैं। मेरा भी पर्याप्त समय फेसबुक चुराता रहा, जो पिछले कई दिनों से मुझे पूरी तरह से मिल रहा है।
तीसरा है साहित्य। साहित्य की दृष्टि से अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम ब्लॉग ही है। ट्विटर के १५० अक्षरों में केवल चूँ चूँ ही की जा सकती है। आप अपने होने, न होने, खोने, पाने की सूचना तो दे सकते हैं पर साहित्य सा कुछ लिख नहीं सकते हैं। फेसबुक में भी जहाँ सामाजिकता प्रधान वातावरण हो, वहाँ साहित्य गौड़ हो जाता है। वैसे तो ब्लॉग भी साहित्य का गहरा प्रारूप नहीं है, पाँच छै पैराग्राफ में बड़ी कठिनता से एक विषय समेटा जा सकता है, पर वर्तमान में यही साहित्य की न्यूनतम अभिव्यक्ति और ग्रहण करने की ईकाई है। जहाँ लाखों उदीयमान साहित्यकारों के योगदान से साहित्य सृजन के स्वप्न देखे जा रहे हों, वहाँ अभिव्यक्ति के लिये ब्लॉग से छोटी ईकाईयों का स्थान नहीं है।
पाठक ढूढ़ने का श्रम लेखक को करना होता है, उसी तरह अच्छे लेखक को ढूढ़ने का श्रम पाठक को भी करना पड़ता है। माध्यमों की अधिकता ध्यान बाटती है, अभिव्यक्ति का कूड़ा एकत्र करती है। छोटी चीजें से कुछ बड़ा बन पाने में संशय है, रेत से पिरामिड नहीं बनते, उनके लिये बड़े पत्थरों की आवश्यकता होती है। महाग्रन्थों का युग नहीं रहा पर कम से कम ब्लॉग की ईकाई से सबका योगदान बनाये रखा जा सकता है। साहित्य संवर्धन तो तभी होगा, जब अधिक लोग लिखें, अधिक लोग पढ़ें, लोग अच्छा लिखें, लोग अच्छा पढ़ें, अधिक समय तक रुचि बनी रहे, जब समय मिले तब साहित्य ही पढ़ें, बस में, ट्रेन में, हर जगह। फेसबुक सामाजिकता संवर्धित कर सकता है, साहित्य नहीं।
फेसबुक, आपको भी धन्यवाद और विदा।
हर निर्णय का आधार होता है, आधार स्पष्ट हो तो व्यक्त भी किया जा सकता है। आधार के तीन सम्पर्क बिन्दु थे, समय, साहित्य और सामाजिकता। इन तीनों बिन्दुओं पर कितना कुछ रिस रहा था और कितना रस मिल रहा था, यह अनुभव हर व्यक्ति के लिये भिन्न हो सकता है, पर विश्लेषण हेतु विषय का उठना आवश्यक है।
पहला है सामाजिकता। यह फेसबुक का सुदृढ़ पक्ष है। अपने कई परिचितों के बारे में जाना, वे कहाँ रह रहे हैं, क्या कर रहे हैं, कुछ चित्र उनके परिवारों के, कुछ घूमने के, कुछ त्योहार के, कुछ मित्रों के साथ, जन्मदिन और वैवाहिक वर्षगाँठ की शुभकामनायें। वैसे तो जिन मित्रों और संबंधियों को जानना आवश्यक था, वे तो फेसबुक से पहले भी सम्पर्क में थे। फेसबुक के माध्यम से उनके बारे में कुछ और जान गये। कुछ और लोगों से भी परिचय बढ़ा पर उसका आधार साहित्यिक न हो विशुद्ध जान पहचान का ही रहा, वह भी किसी तीसरे पक्ष के माध्यम से। संबंधों को महत्व देने वालों के लिये, संबंधों की संख्या से कहीं अधिक, उनकी गुणवत्ता पर विश्वास होता है। फेसबुक में संबंधों का प्रवाहमयी संसार तो मिला पर जब उसकी अभिव्यक्ति में गाढ़ेपन की गहराई ढूढ़ी तो छिछलेपन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं पाया।
दोष वातावरण का है, जहाँ स्वयं को व्यक्त करने की होड़ लगी हो, सम्पर्कों की संख्या चर्चित होने के मानक हों, औरों की अभिव्यक्ति का अवमूल्यन केवल लाइक बटन दबा कर हो जाता हो, वहाँ संबंधों के प्रगाढ़ होने की अपेक्षा करना बेईमानी है। संबंधों को पल्लवित करने के लिये समय देना पड़ता है, लगभग बराबर का, स्वयं की अभिव्यक्ति में दिया समय औरों द्वारा अभिव्यक्त को पढ़ने में दिये समय से कम ही रहे। इस वातावरण में ऊपर ऊपर तैरने को आनन्द तो बना रहा पर गहरे उतर कुछ संतुष्टि जैसा कुछ भी अर्जित नहीं हुआ।
दूसरा है समय। जहाँ पर गतिविधियों की झड़ी लगी हो, वहाँ कितना समय सर्र से निकल जाता है, पता ही नहीं चलता है। कई लोगों को जानता हूँ जो सुबह उठकर मुँह धोने के पहले फेसबुक देखते हैं। दिन में कई बार फेसबुक में कुछ न कुछ देखने में समय स्वाहा करने की लत लग जाती है सबको। संभवतः यही कारण है कई संस्थानों में फेसबुक पर रोक लगा दी गयी है। एकाग्रता नहीं रह पाती है, जब भी कुछ सोचने का समय आता है, मन में फेसबुक की घटनायें घूम जाती हैं। भरी भीड़ में परिवेश से त्यक्त युवा बहुधा फेसबुक में विचरते पाये जाते हैं। मेरा भी पर्याप्त समय फेसबुक चुराता रहा, जो पिछले कई दिनों से मुझे पूरी तरह से मिल रहा है।
पाठक ढूढ़ने का श्रम लेखक को करना होता है, उसी तरह अच्छे लेखक को ढूढ़ने का श्रम पाठक को भी करना पड़ता है। माध्यमों की अधिकता ध्यान बाटती है, अभिव्यक्ति का कूड़ा एकत्र करती है। छोटी चीजें से कुछ बड़ा बन पाने में संशय है, रेत से पिरामिड नहीं बनते, उनके लिये बड़े पत्थरों की आवश्यकता होती है। महाग्रन्थों का युग नहीं रहा पर कम से कम ब्लॉग की ईकाई से सबका योगदान बनाये रखा जा सकता है। साहित्य संवर्धन तो तभी होगा, जब अधिक लोग लिखें, अधिक लोग पढ़ें, लोग अच्छा लिखें, लोग अच्छा पढ़ें, अधिक समय तक रुचि बनी रहे, जब समय मिले तब साहित्य ही पढ़ें, बस में, ट्रेन में, हर जगह। फेसबुक सामाजिकता संवर्धित कर सकता है, साहित्य नहीं।
फेसबुक, आपको भी धन्यवाद और विदा।
अकाउंट बंद कर देना शायद सही नही है, आप उसपर कितना समय देते है वह महत्वपूर्ण है।
ReplyDeleteमै फेसबुक पर हूं लेकिन सुबह या शाम एक बार ही लगभग १० मिनट देता हूं। (१० मिनट कम नही, काफी है!) फ़ेसबुक पर उपस्थिति केवल इसलिये है कि अधिकतर मित्रगण उसी पर है और उनके संपर्क मे रहने का वह एक बेहतर साधन है। लेकिन अपने विचारो को व्यक्त करने या पोष्ट लिखने के लिये उसका प्रयोग नही करता हूं।
फेसबुक में रहकर १० मिनट ही देना किसी तपस्या से कम नहीं है, आपको साइबर-संत की उपाधि मिलनी चाहिये। हमारे तो १० मिनट के कई दौर हो जाते थे।
DeleteVaise 10 minute dena vakai mushkil nahi hai. :D fir toh main bhi cyber sadhvi ban sakti hu. :D
DeleteLOL
और हम सब साइबर-दास..
Deleteदस मिनट ट कहने के होते है .....जहाँ एक बार चलती है ........तो शाम हो जाती है ओर नतीजा सिफर ....सर में दर्द अलग होता है लेकिन .........कई सालो से फेसबुक पर हूँ........सिर्फ ब्लॉग पर लोग जुटाने के लिए
Deleteफेस बुक भी अपने विचारों के सम्प्रेषण का एक माध्यम है।
ReplyDeleteआज आपकी पोस्ट का लिंक चर्चा मंच पर भी है!
आभार, फेसबुक में विचारों का संप्रेषण तो हो रहा था पर निष्कर्ष नहीं निकल रहा था।
Deleteकभी-२ तो ब्लॉग में लाईक बटन की कमी खलती है
Deleteफेस बुक भी अपने विचारों के सम्प्रेषण का एक माध्यम है।
Deleteआज आपकी पोस्ट का लिंक फेसबुक पर भी है!
दोनों का एक दूसरे में उपस्थित होना सहजीविता है या प्रतियोगिता।
Deleteहम भी बस दूरी बनाना ही चाहते हैं, बनाना शुरू कर दिया है, फ़ेसबुक को समय देना धीरे धीरे अन्य गतिविधियों को प्रभावित करने लगा है।
ReplyDeleteहम भी बस दूरी बनाना ही चाहते हैं, बनाना शुरू कर दिया है, फ़ेसबुक को समय देना धीरे धीरे अन्य गतिविधियों को प्रभावित करने लगा है।
ReplyDeleteचलिये, अपने अनुभव का लाभ हमें भी बताईयेगा।
Deleteसर आपका आलेख और आकलन दोनों ही सही हैं |
ReplyDeleteआपके रूप में एक हमराही मिला..
Deleteहर पहलू की अपनी अच्छाई और बुराई दोनों होती हैं ....क्यों न हम जो अच्छा है उसीकी अपनाएं ...कमियों को नज़रंदाज़ कर दें ..उन्हें जाने दें .क्यों, ठीक हैं न
ReplyDeleteअच्छाई के रूप में सारे सम्पर्क रख लिये हैं, शेष त्याग दिया है।
Deleteफेसबुक का इस्तेमाल हम भी सिर्फ लोगों से संपर्क बनाये रखने के लिए ही करते है !
ReplyDeleteसम्पर्क बनाने में तो यह माध्यम उत्कृष्ट है।
Deleteफेसबुक के चिट-चैट का अपना रस है, पर वह सबको नहीं सुहाता (बेशक मैं भी वहां स्वयं को बेगाना-सा महसूस करता हूं.)
ReplyDeleteअधिक रस में डायबटीज़ का खतरा है, कभी रम नहीं पाया फेसबुक में, ब्लॉग में पहले दिन से ही संतुष्टि हो रही है।
Deleteअधिकतर ब्लॉगर ही है मेरे अकाउंट में | फेस बुक को ब्लॉग-एग्रीगेटर की तरह प्रयोग में लाता हूँ बस | सारे लिंक्स प्रायः एकसाथ मिल जाते है पढने को | अब आपने विदा कर दिया तो कोई बात नहीं | दुःख तो मिटटी का घरौंदा भी तोड़ने में होता है | आपने तो परिचित अपरिचित लोगों से स्वयम को अलग कर उन्हें दुःख अवश्य दिया होगा |
ReplyDeleteब्लॉग तो गूगल रीडर के माध्यम से आ जाते हैं, परिचितों से सम्पर्क नहीं टूटा है, बस फेसबुकीय अधिकता नहीं रही।
Deleteहमने तो अकाउंट ही नहीं खोला था फेसबुक पर .
ReplyDeleteआप तो पूर्वसिद्ध निकले..
Deleteमेरी छठी,सातवी ..इन्द्रियां पहले ही भांप लेती है..रेत में तेल ..न ..न..
ReplyDeleteकाश, आपने पहले आगाह कर दिया होता...
Deleteफेसबुक और ट्विट्टर के मोहपाश में कभी पड़ी ही नहीं...... हाँ अकाउंट ज़रूर है पर उपस्थिति न के बराबर.....
ReplyDeleteफेसबुक जैसे सोशल नेटवर्किंग साइट्स के बारे में आपका अवलोकन और विचार दोनों एकदम सटीक हैं ... पूर्ण सहमति है आपसे...... सच कहूँ तो मुझे तो लगता है की साहित्य तो दूर फेसबुक जैसे प्लेटफोर्म सामाजिकता को भी शायद एक अजब ही रंग दे रहे हैं..... शुरू में सब ठीक लगता है पर आगे चलकर सभी के अपडेट्स बस कुछ चित्रों तक ही सिमट जाते है , जो कुछ भी जीवन में चल रहा है उसे दुनिया को दिखाना है ...यही सोच रह जाती है.... मुझे तो यह अकेलेपन वाली सामाजिकता ज्यादा लगती है क्योंकि फेसबुक पर ५०० दोस्तों की फेहरिस्त और अपना पड़ौसी कौन है पता नहीं.....
जीवन के मौलिक सुखों का आगमन निकटस्थ परिवेश से ही होता है, न कि साइबर परिवेश से।
Deleteकाफी अधिक समय ले लेती है फेसबुक,वह भी तब जब कि आपके मित्र बहुत अधिक हों. ऑरकुट मुझे कहीं अधिक ठीक लगा था. लेकिन लिखने के लिये ब्लॉग से अच्छा कुछ नहीं.
ReplyDeleteसाहित्य संवर्धन ब्लॉग से ही होता है...बाकी जमा नहीं...
Deleteबहुत परेशान होकर कुछ समय पहले फेसबुक से तौबा कर ली थी,पर नेटवर्किंग के लिहाज़ से या कहिये 'टाइम-पास' की वज़ह से, काफ़ी कुछ बदले रूप में वापस लौट आया और अब सीमित और हल्की-फुलकी,थोड़ी साहित्यिक भी,दखलंदाजी होती है.कई लोगों की पोस्ट का पता भी देता है फेसबुक.
ReplyDeleteहाँ,यदि थोड़ा अनुशासन रखें तो यह ज़्यादा बुरा नहीं है.कभी छोटी-सी बात, जो गहरा प्रभाव रखती है,वह साझा की जाती है ,जो ब्लोगिंग में संभव नहीं.
कुछ लिहाज से मैं ट्विटर के १४० अक्षरों वाले टूल को फेसबुक से ज़्यादा उपयोगी मानता हूँ.
कुल मिलाकर फेसबुक और ट्विटर 'इन्स्टैंट फ़ूड'(नाश्ता) और ब्लॉगिंग 'लंच' या 'डिनर'की तरह हैं.
आप को बधाई कि आप फेसबुक और ट्विटर के मोहपाश से छूट गए !
दिनभर इन्स्टैन्ट फूड खा कर फूलते जा रहे थे हम..अब डाइटिंग पर हैं।
Deleteहम अभी इससे 'फाइटिंग' कर रहे हैं !
Deleteएकदिन आप ही जीतेंगे, फेस बुकनहीं..
Deleteठीक किया, मगर कहीं सकारात्मकता दिखे तो हमें भी बताना सर जी, अपुन को बहुत जरुरत है उसकी :) !
ReplyDeleteहम भी ढूढ़ने में लगे हैं, आपको आपका ही पता मिल जाये तो पहुँच पायेंगे?
Deletehmmm, facebook use karti hu, lekin 3-4 din mein ek-aadh bar, kuch friends, school-college ke jinke sath koi sampark nahi raha tha fir se ban gaya, isliye kabhi account deactivate nahi kiya. Rahi Twitter ki baat, to twitter par bhi hu, lekin kabhi kisi ko nahi bataya account konsa hai, na hi tweets likhti hu, bas kuch logon ko follow karne ke liye hi account banaya tha, aur vahi kar rahi hu.
ReplyDeleteसौम्य, शान्त, स्थितप्रज्ञ उपस्थिति...सच में सीखने योग्य...
Deleteक्षण भर चेहरे देख के, करें जरूरी काम |
Deleteबड़ा मुखौटा काम का, छूटे नशे तमाम |
छूटे नशे तमाम, नशे का बनता राजा |
छोड़ जरुरी काम, बुलाये आजा आजा |
कह रविकर रख होश, मुखौटा खोटे लागै |
रखकर सर पर पैर, सयाने सरपट भागै ||
दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
dineshkidillagi.blogspot.com
विषय पर अत्यन्त सारगर्भित अभिव्यक्ति..
Deleteफेसबुक पर अकाउंट ज़रूर है ..अपनी लिंक्स भेजने का चाव तो है ही ...और साथ ही ... सबको जन्मदिन विश करने के शौक तक ही इस्तेमाल है या कुछ फोटो शेयर हो जाती हैं ....कई कई दिन अकाउंट खुलता ही नहीं ...बस कम से कम इस्तेमाल तक ही अपने आप को सीमित कर रखा है ....ज्यादा लिप्त होना समय की बर्बादी ही है ...!!
ReplyDeleteफेसबुक में जो कार्य हो पा रहा था, उसके बिना भी उतने सुचारु रूप से चल रहा है। एक बार लिप्त होने के बाद कुछ होश ही नहीं रहता था समय का।
Deleteसंबंधों को पल्लवित करने के लिये समय देना पड़ता है ... बहुत ही सही कहा है आपने ...
ReplyDeleteहमेशा की तरह सार्थक व सटीक लेखन .... आभार
गहरेपन का आभास छिछली सामाजिकता में हो भी नहीं सकता है।
Deleteफेस बुक से सांजीक दारा ज़रूर बढ़ता है ... मुझे भी ब्लोग्स पर रहना ही ज्यादा पसंद है ... बाकी जगह जाना बहुत कम होता है ...
ReplyDeleteसामाजिक दायरा पढ़ा जाये
Deleteसाहित्य की दृष्टि से तो ब्लॉग ही सशक्त माध्यम है..
Deleteसाहित्य का माध्यम तो ब्लाग ही है।
ReplyDeleteसहमत हैं, न्यूनतम ईकाई तो ब्लॉग ही है।
Deleteमैं तो जियोसिटीज के जमाने से, और तब से जब एसटीडी फोनलाइन के जरिए इंटरनेट डायलअप 56 केबीपीएस मिलता था, तब से इंटरनेट के अनुप्रयोगों का इस्तेमाल कर रहा हूं.
ReplyDeleteमैंने ऐेसे तमाम अनुप्रयोगों को ठोंक बजाकर जांचा परखा भी है, और एक सृजनधर्मी व्यक्ति के लिए 'ब्लॉग' ही सर्वोत्तम है. बाकी सब के सब टाइम-पास और टाइम-वेस्ट.
इसलिए, आपका निर्णय सही है.
सृजनशीलता की कसौटी पर श्रेष्ठ माध्यम ही रहे...
Deleteजहाँ अधिक रुके ऐसी जगहों पर कि यही होना है ...
ReplyDeleteजब कहीं रुकना नशा होने लगे और उसका निष्कर्ष कुछ न निकले तो समझना कठिन हो जाता है।
DeletePasnd apnee apnee khayaal apna apna ......
ReplyDeletejai baba banaras....
अपनी अपनी प्रकृति है, अपना अपना चाव..
Deleteमहत्वपूर्ण निर्णय!!
ReplyDeleteहल्केपन की दिशा में...
Deleteफेसबुक बुरा नहीं है लेकिन उसे इतना जीवंत बना दिया गया है .......कि कभी कभी तो सपने में ख्याल आता है कि कहीं कोई कमेन्ट कोई लाइक तो नहीं हुआ ................जिसकी वजह जिंदगी प्रभावित हो रही है !निर्णय लेने में फेसबुक समय नहीं देता कि दूसरा अपनी बात कह देता है ...............वहाँ बातों का विस्तार नहीं कर सकते ...........इसके आपसी रिश्ते तो बिगडते ही है
ReplyDeleteजब लाइक बटन से काम चल जाता हो तो बड़ी बड़ी बातें भी हल्के में निकल जाती हैं..
Deleteअपने अपने अनुभव है प्रवीण जी………फ़ेसबुक पर भी आपको साहित्य मिलेगा मगर ये बात पक्की है थोडा वक्त देना होगा …………अब हमें तो वहाँ भी काफ़ी अच्छा साहित्य और विमर्श मिल जाता है मगर रोज रोज नही……………इसी तरह ब्लोग का है जैसे यहाँ रोज बढिया पढने को मिले ही मिले जरूरी नही है वैसे ही वहाँ भी है…………अब हमारी किताब जो " स्त्री होकर सवाल करती है " फ़ेसबुक की ही देन है और इसमे एक से बढकर एक कवितायें ये बताती हैं कि कितनी सृजनशीलता है बस उसे ढूँढना पडता है…………बस अनुभव सबके अलग होते हैं । ब्लोग का तो अपना एक स्थान बन ही चुका है जिसे कोई नकार ही नही सकता मगर फ़ेसबुक भी अपना स्थान बना रहा हैबेशक वक्त लग रहा है।
ReplyDeleteसब ब्लॉगरों के ब्लॉग गूगल फीड के माध्यम से मिल जाते हैं, तब फेसबुक के माध्यम से उन्हें पढ़ने का कोई औचित्य नहीं। नया सृजन या चर्चा तो न के बराबर ही मिली वहाँ पर...
Deleteफेसबुक की लत नहीं है , ज्यादा ब्लॉगर्स के लिंक देखने के काम आता है या विश करने की सामाजिकता निभाने जितना ही !
ReplyDeleteब्लॉग का मुकाबला नहीं है !
जब ब्लॉग की फीड से काम चल रहा हो तो एक अतिरिक्त माध्यम की क्या आवश्यकता..
Deleteमैं आपकी बात से पूरी तरह से सहमत हूँ पर झूठ नहीं कहूँगी मैं फेसबुक को काफी समय देती हूँ वही रहकर लिखती हूँ लोगो से विचार आदान - प्रदान करती हूँ पर इस बात से भी इंकार नहीं कि हाँ वहाँ रहकर समय बर्बाद जरुर होता है कभी - २ सोचती हूँ , इससे अच्छा तो हम बैठकर कुछ अच्छी किताब ही पढ़ ले और ये भी बिल्कुल सच है कि अगर आगे बढ़ना है और अच्छा लिखना है तो हमें उसका साथ कम करना ही होगा | आपकी बात से पूरी तरह से सहमत बहुत - २ शुक्रिया |
ReplyDeleteआपका कहना सही है, अब बचा समय कुछ नये विषयों को पढ़ने में लगाना है..
Deleteसंबंधों को पल्लवित करने के लिये समय देना पड़ता है, लगभग बराबर का, स्वयं की अभिव्यक्ति में दिया समय औरों द्वारा अभिव्यक्त को पढ़ने में दिये समय से कम ही रहे। इस वातावरण में ऊपर ऊपर तैरने को आनन्द तो बना रहा पर गहरे उतर कुछ संतुष्टि जैसा कुछ भी अर्जित नहीं हुआ।
ReplyDeleteफेसबुक तांक झाँक की जगह बन रहा है सामाजिकता तक सीमित कहाँ रहा है .जिसकी मर्जी जो जहां तहां लिख जाए ,किसी का कुछ न जाए ,कुछ भी गज़ब हो जाए अपकर्म हो जाए .बहर -सूरत अपने कहाँ पिकनिक रत हैं कहाँ घूम घाम रहें हैं आप जान सकतें हैं देख सकतें हैं .
कुछ भटका भटका सा लगता है फेसबुक, दिशाहीनता का उन्मादी गुबार..
Deleteआपकी इस बात से पूर्णतः सहमत हूँ कि सोशल नेटवर्क्स की तुलना में ब्लॉग अभिव्यक्ति का ज्यादा सशक्त माध्यम है। इसीलिए जो लोग फेसबुक और ट्विटर की बढ़ती लोकप्रियता को ब्लॉगों के लिए घोर संकट बताते रहे हैं वो मुझे सही नहीं लगता है। जो अपने कथन के बारे में गंभीर हैं वो हमेशा ब्लॉग जैसे माध्यमों को ही अपनाएँगे।
ReplyDelete"जहाँ स्वयं को व्यक्त करने की होड़ लगी हो, सम्पर्कों की संख्या चर्चित होने के मानक हों, औरों की अभिव्यक्ति का अवमूल्यन केवल लाइक बटन दबा कर हो जाता हो, वहाँ संबंधों के प्रगाढ़ होने की अपेक्षा करना बेईमानी है।"
सही कहा पर हिंदी ब्लॉग भी इस बीमारी से पूर्णतः मुक्त हैं ऐसा मैं नहीं मानता। यहाँ भी खेल नेटवर्किंग का ही है। लाइक बटन दबाना या टिप्पणी के रूप कुछ जाने पहचाने शब्द ठेल देने की प्रथा में मुझे तो ज्यादा फर्क नही लगता।
रही संबंधों की प्रगाढ़ता की बात तो वो दो व्यक्तियों के मन के मिलने से होती है ना कि इस बात से कि वो व्यक्ति मुझे फेसबुक पर मिला या ब्लॉग पर। ये अवश्य है कि एक नियमित ब्लॉगर का लेखन उसके व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं को समझने में सहायक रहता है जबकि फेसबुक मित्र के बारे में ये सहूलियत नहीं है।
फेसबुक संपर्क सूत्र का बेहतरीन माध्यम है। जहाँ तक अपने अनुभवों की बात करूँ संगीत के क्षेत्र में जानी मानी अनेक विभूतियों से मेरा संपर्क इसी माध्यम से हुआ। कितने ऐसे मित्र मिले जिनकी संगीत की समझ से बहुत कुछ सीखने को मिला। यही नहीं फेसबुक आपकों उन पाठकों तक पहुँचने में मदद करता है जो ब्लॉगों की दुनिया से इतर रहते हुए भी आपके लिखे विषयों में रुचि रखते हैं।
पाठकों तक पहुँचने में जितना श्रम लेखक करता है, उतना ही श्रम पाठक भी अच्छे लेखक तक पहुँचने में करता है। जब फेसबुक नहीं था तो भी स्तरीय ब्लॉग को पढ़ लेते थे, लोगों की पसन्द से बहुत सूत्र निकल आते हैं। आपके ब्लॉग से ही कितना अच्छा संगीत सुनने को मिला।
Deleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 23-02-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete..भावनाओं के पंख लगा ... तोड़ लाना चाँद नयी पुरानी हलचल में .
बहुत आभार आपका...
Deleteसामाजिक संबंधों की नजर से फेस बुक ने बेशक महत्वपूर्ण काम किया है,कई बचपन के बिछड़े मित्र उसकी वजह से संपर्क में आ गए परन्तु- साहित्य की दृष्टि से अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम ब्लॉग ही है।आपसे १००% सहमत.
ReplyDeleteमित्र मिलाने के कार्य के बाद, उनको जानने के कार्य में इतना समय होने लगता है, गाढ़ापन तो आ ही नहीं पाता है..
Deleteआपके निष्कर्ष महत्वपूर्ण है।
ReplyDeleteसमय मिल पा रहा है, यही निष्कर्ष का प्रतिफल है...
Deleteमुझे कुछ बेहतर आत्मायें ट्विटर पर मिलीं। ब्लॉग पर जो हैं, उनसे कहीं बेहतर! और अभिव्यक्ति के लिये 140 की सीमा में खेलना भी एम्यूजिंग लगा!
ReplyDelete१४० की सीमा में सार्थक कहने की सामर्थ्य कबीर, रहीम जैसों को ही थी। दोहा, सुभाषित, शेर पहुँची हुयी आत्माओं के ही बस की बात है।
Deleteये कमेन्ट था या कम्प्लीमेंट?
Delete:-)
कम शब्दों में गहरी बात कहना तो प्रशंसा ही हुयी प्रशान्त बाबू..
Deleteजी बिलकुल, कम्प्लीमेंट ही हुई. मगर आत्मीय व्यक्तियों से चुहल में टांग खिंचाई भी ऐसे ही की जाती है, सो पूछ लिया. :-)
Deleteआप भी तो...देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर...
Deleteदोष वातावरण का है, जहाँ स्वयं को व्यक्त करने की होड़ लगी हो, सम्पर्कों की संख्या चर्चित होने के मानक हों, औरों की अभिव्यक्ति का अवमूल्यन केवल लाइक बटन दबा कर हो जाता हो, वहाँ संबंधों के प्रगाढ़ होने की अपेक्षा करना बेईमानी है
ReplyDeleteआपकी बात से पूर्णतः सहमत...फेसबुक पर हम हैं जरूर लेकिन नहीं जैसे...बस अपनी टांग फंसा रखी है यूँ समझें.:-) क्यूँ फंसा रखी है ये हम भी नहीं समझे...:-)
नीरज
पता नहीं, हमने भी पहले टाँग ही फंसायी थी, सर तक चढ़ आया था, अब तो ऊंगली भी नहीं पकड़ानी है।
Deleteब्लोगिंग को पारिवारिक सम्मेलनों से अलग रखें तो सही होगा ...
ReplyDeleteमैं फेस बुक पर हूँ मगर केवल परिवार के साथ और पारिवारिक सूचनाओं के लिए ही इसका उपयोग करता हूँ ! ब्लोगर मित्रों से वहां कोई संपर्क नहीं रखा है अतः आराम है !
मेरा सुझाव है कि फेसबुक को व्यक्तिगत और पारिवारिक रखें न कि उसे बंद कर दें !
शुभकामनायें आपको !
परिवार के लिये सम्पर्क के माध्यम और ब्लॉगिंग के माध्यम को अलग अलग रखना आवश्यक है। श्रीमतीजी के फेसबुक में परिवारजनों की गतिविधियों की जानकारी रहती है।
Deleteरेत से घरोंदे तो बनते ही हैं और हम ब्लाग पर यही प्रयास कर रहे हैं। फ़ेस बुक तो यदा कदा ही जाते थे।
ReplyDeleteभव्यता तो बड़े पत्थरों से आती है, न्यूनतम ईकाई तो होनी ही चाहिये अभिव्यक्ति की..
Deleteफेसबुक यानि समय की बर्वादी
ReplyDeleteसहमत...पूर्णतया
Deleteलोग अच्छा लिखें, लोग अच्छा पढ़ें, अधिक समय तक रुचि बनी रहे...
ReplyDeleteसूत्र वाक्य यही है... यही होना चाहिए... तभी संवर्धन की सम्भावना बनी रहेगी व्यापक अर्थों में!
ब्लॉग संभवतः वह कार्य सर्वोत्तम ढंग से कर रहा है।
Deleteबिलकुल!
Delete'रेत से पिरामिड नहीं बनते, उनके लिये बड़े पत्थरों की आवश्यकता होती है' - उत्तम विश्लेषण. पर 'फेस बुक' का भी अपना स्थान है. 'पत्थर' की इकाई भी 'रेत' ही होती है, जोड़ने वाला पदार्थ 'सशक्त' होना चाहिए.
ReplyDeleteकाश रेत भी जुड़कर सशक्त पत्थर बन सके, फेसबुक को साहित्यिक शुभकामनायें..
Deleteमैं भी फेसबुक से दूर ही हूँ। कारण समय का अभाव। दो घंटा मिला तो कहां-कहां दें..अपना लिखें, दूसरों का पढ़े किताबें पढ़ें, टीवी देखें बड़ी समस्या है। जिसके पास ढेर सारा समय हो वही हर जगह दौड़ लगा सकता है। एकदम सही निर्णय है आपका।
ReplyDeleteसमय बस बहा चला जाता था इसमें...एकदम नशे सा...कुछ दिन से अब आराम है।
Deleteआपके विचार से प्रभावित हूँ...
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपको..
Deleteआप वाकई साहसी हैं...
ReplyDelete:-)
किसी नशे से मुक्ति पाना आसान नहीं....
आपको नमन..
शुभकामनाएँ..
छोड़ने के पहले कई बार विचारों ने भरमाया अवश्य था।
Deletepraveen ji aapne likhne ke liye itna achcha vishay liya hai yahan tippani karne vaale bhi is sankramit rog se grasit honge.kam se kam main to hoon hi sahi likha hai aapne face book par samajik dayra to badhta rahta hai kuch log apne publicity karne me lage hain kai nai cheejen bhi dekhne ko milti hain,vaise isko time killing sight bhi kah sakte hain.vivaah bhi hue hain is face book ke jariye aur divorce bhi.mili juli pratikriya.
ReplyDeleteहम यहाँ साहित्यिक रस ढूढ़ने आये थे, जो मिला नहीं...उसमें तो ब्लॉग ही सर्वश्रेष्ठ लगा।
DeletePraveen Babu,
ReplyDeleteFB par main gaya kaee baar, par tik nahin paaya. Maine mehsoos kiya ke FB ko aap control nahin kar paate.....
Blogging ka safar jaari rahe!
Ashish
बिल्कुल आप जैसा अनुभव मुझे भी हुआ...ध्यान छोटी छोटी चीजों से भटकने लगता है।
DeleteFacebook is just about show off. Twitter has dearth of words. Blogging is where my heart is!
ReplyDeleteआपने पूरी पोस्ट को तीन वाक्यों में समेटकर रख दिया है।
DeleteFB pe gaya tha main bhi, wapis aa gaya.... FB tends to control you unlike Blogger where you are the boss! Aisa mujhe laga Praveen Babu...
ReplyDeleteAapki blogiri jaari rahe....
Ashish
आप निश्चिन्त रहें...हम जमे रहेंगे..
Deleteदिन में कई बार फेसबुक में कुछ न कुछ देखने में समय स्वाहा करने की लत लग जाती है सबको...
ReplyDeleteसत्य वचन,प्रवीण जी।
अब हमारा समय बच रहा है, थोक में..
Deleteएक साल पहले एक दोस्त के कहने पर फ़ेसबुक पर अपना खाता खोला था।
ReplyDeleteएक सप्ताह में ही हम समझ गए कि यह माध्यम हमारे लिए ठीक नहीं। हमने अपना खाता बन्द कर दिया।
आजकल करीब दो दर्जन ब्लॉग पढता हूँ और सात याहू ग्रूपों में सद्स्य बना हूँ। मेरा पेट बस इतने से भर जाता है।
ट्विट्टर को हमने आजमाया ही नहीं।
मुझे 144 अक्षरों का rationing स्वीकार नहीं।
शुभकामनां
जी विश्वनाथ
आप साल भर पहले ही सलाह दे देते तो कुछ माह हमारे भी व्यर्थ नहीं जाते...
Deleteआपका आकलन..... सही हैं |
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
Deleteप्रवीण जी,....
ReplyDeleteफेस बुक और ट्विट्रर मुझे दोनों नापसंद है,जो आनंद ब्लोगिग में है किसी में नही,आपने अच्छा निर्णय लिया,.
बहुत बढ़िया,अच्छी प्रस्तुति,.....
MY NEW POST...काव्यान्जलि...आज के नेता...
आपके आनन्द में हम सहभागी हैं..
Deleteइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - आंखों पर हावी न होने पाए ब्लोगिंग - ब्लॉग बुलेटिन
ReplyDeleteबहुत आभार आपका...
DeleteI loved SEPO's comment!
ReplyDeleteActually that would be a brilliant tweet!
GV
सच कहा आपने, बहुत ही सटीक ढंग से कहा गया सारांश..
Deleteआपने मेरे मन की ही बात लिख दी,जो मैं हिम्मत नहीं जुटा पाया।
ReplyDeleteआप तो हर जगह विद्यमान रहते हैं, समय का सदुपयोग करना तो आप से ही सीख रहा हूँ..
Deleteजिन लोगों के पास काफी वक़्त है..वही ज्यादा सक्रिय हो सकते हैं फेसबुक पर. क्रिएटिव अर्ज की संतुष्टि तो वहाँ नहीं ही मिलती.
ReplyDeleteसच कहा आपने, यदि हाथ में पर्याप्त समय हो तभी उस ओर रुख करना चाहिये..
Deleteआपका सा हाल है।
ReplyDeleteकभी फेसबुक पर दिन में कई घंटे बीत जाते थे। रात में तो नौ बजे के आसपास फेसबुक आन होता था तो दौर देर रात के तीन बजे या इससे अधिक समय तक चलता था पर अब इसे महज अपने लोगों का हालचाल जानने के लिए उपयोग कर रहा हूं। कम्प्यूटर में दिगर कामों के दौरान कुछ देर(बमुश्किल दस-पंद्रह मिनट) फेसबुक को देखा बस।
लगता है ये भी बंद कर दूं। देखते हैं आगे क्या होता है....।
जब समय आपके हाथों में ही न रहे तो एक बार तो सोचना बनता है...साहित्य पढ़ने और लिखने के लिये भी तो समय चाहिये।
Deleteफेसबुक पर विचारधारा विशेष के लिए समर्पित लोगो का समूह ढूंढ़ पाना मुश्किल है मगर आसानी से संपर्क को तलाशने की संभावनाएं फेसबुक पर ज्यादा हैं..
ReplyDeleteखैर...शहद जीने का मिला करता है थोडा थोडा,जाने वालों के लिए दिल नहीं थोडा करते..
फेसबुक नहीं ब्लाग तो अपना सदाबहार है..
थोड़ी भीड़ लगती है फेसबुक पर, ब्लॉग पर आपकी पहचान बनी रहती है..
Deleteमेरे पास वक़्त की ही कमी है अब... ले दे कर... तीन चार ब्लोग्स पर ही जाना हो पाता है कभी कभी ... और एक दो अच्छे लोगो को अपना अगर कुछ लिखा तो लिंक मेल कर देता हूँ... बस इतना ही... रहा फेसबुक तो सुबह दस मिनट ही दे पाता हूँ... और शाम को दस/पन्द्रह मिनट ..
ReplyDeleteब्लॉग और फेसबुक पर वाकई में टाइम वेस्टेज ही लगता है अब .. लेकिन लिखने से बहुत कुछ निकल जाता है.. रही बात अभिव्यक्ति की ... तो मैं थोड़े शब्दों में सिर्फ पलकें ही झपका पाता हूँ... साहित्य या और कुछ अभिव्यक्त करने के लिए ... मुझे लम्बा एक्सप्रेशन ही अच्छा लगता है.... अब तो मुझे भी संबंधों की संख्या से कहीं अधिक, उनकी गुणवत्ता पर विश्वास होने लग गया है... क्यूंकि अब मैंने भी इन्सान की परख करना सीख लिया है..
कुल मिला कर ... जिस्ट यह है कि मैं कहना बहुत कुछ चाहता हूँ... लेकिन फ़िर मेरे पास वक़्त की कमी है... और कमेन्ट के रूप में पोस्ट लिखने की इच्छा नहीं... हाँ! यह है कि आप उन लोगों में से हैं.. जिनकी पोस्ट मैं वर्ड टू वर्ड पढ़ता हूँ... उन लोगों में से भी नहीं ... सिर्फ आप ही हैं जिसकी पोस्ट मैं जब भी पढ़ता हूँ तो वर्ड टू वर्ड पढ़ता हूँ.
फिलहाल गुड नाईट... गौट टू गो... हैव टू गो जिम अरली इन द मोर्निंग... सो... हैव अ स्वीट ड्रीम्ज़...
टाइम की इतनी कमी... और इत्ता लंबा कमेन्ट... :)
Deleteसही है ....अभिव्यक्ति अपना रास्ता खोज ही लेती है
सुबह उठ कर जिम जाने के लिये तो फेसबुक है ही नहीं क्योंकि फेसबुक के दीवाने मुँह धोने के पहले अपना स्टेटस टटोलते हैं, साइबर आकाश में...आप शब्दशः पढ़ेगें तो हमें और सजग होकर लिखना पड़ेगा..
Deleteपद्म तुम... यहाँ भी बाज़ नहीं आओगे.... इसका एहसास मुझे वाकई में नहीं.... था..
Delete:)
पद्म तुम... यहाँ भी बाज़ नहीं आओगे.... इसका एहसास मुझे वाकई में नहीं.... था..
Deleteबाबा रे इतनी सारी टिप्पणियाँ अब मेरे कहने के लिए तो कुछ शेष रहा ही नहीं :) बरहाल आपकी लिखी बातों से सहमत हूँ।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका..
DeleteDeleted Orkut recently, now you are saying FB..n Twitter..One day.......
ReplyDeleteJust kidding ..FB n Twitter made us very ugly on deep relation front..
ब्लॉग व ईमेल ही इण्टरनेटीय उपस्थिति बनाये हुये हैं मेरे लिये..
Deleteपोस्ट पढ़ना और फिर इत्ते सारे कमेन्ट पढ़ते पढ़ते फेसबुक की दस पंद्रह अपडेट मिस हो गईं :p
ReplyDeleteमै ये तो नहीं कहूँगा आपने बहुत अच्छा किया... क्योंकि अपनों से किसी भी मोड़ पर बिछड़ना किसे अच्छा लगेगा। मुझे लगता है साहित्यिक गरिष्ठता और छाव छोप से इतर समाज के वास्तविक चेहरे पर नज़र रखने के लिए फेसबुक पर जाना बुरा नहीं है। पर अति सर्वत्र वर्जयेत की सूक्ति यहाँ भी काम करती है।
दिन भर चिपक के बैठे वेवजह बिना तुक
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक
दिन भर लिखे दीवार पे गन्दा किया करे
अलसाये पड़े काम न धंधा किया करे
अपनी अमोल आँखों को अंधा किया करे
प्रोफ़ाइलें निहारीं किसी की किसी का लुक
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक
हर ग्रुप किसी विचार का धड़ा खड़ा करे
रगड़ा खड़ा करे कभी झगड़ा खड़ा करे
मुद्दा कोई हल्का कोई तगड़ा खड़ा करे
कुछ हल न मिला ज्ञान की मुर्गी हुई कुडु़क
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक
किस बात को बिछाएं क्या बात तह करें
कितना विचार लाएं कितनी जिरह करें
किस बात को किस बात से कैसे जिबह करें
तब तक मगज निचोड़ा जब तक न गया चुक
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक
स्क्रीन पे नज़रें गड़ाए जागते रहे
छोड़ी पढाई और ज्ञान बाँटते रहे
पुचकारते रहे किसी को डाँटते रहे
जब इम्तहान आया दिल बोल उठा ‘धुक’
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक
लाइक करूँ कि टैग करूँ या शेयर करूँ
चैटिंग से किसी की भला कितनी केयर करूं
जब तक दिमाग की चली मै भागता रहा
अब दिल ये कह रहा है बहुत भाग लिया रुक
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक
……पद्म सिंह
आपकी कविता तो फेसबुक को बहुत अधिक झन्नाटा देने वाली है, सच में हाल यही हो जाता है, औरों पर नज़र रखते रखते नजरबन्द हो जाते हैं इसी में..
Delete☺
ReplyDeleteआप भी मन्द मन्द मुस्करा रहें हैं,
Deleteपर मुस्कराने का मंतव्य नहीं बता रहे हैं।
औषधि की निश्चित मात्रा जीवन दायिनी होती है, किन्तु अनिश्चित बाहुल्य मृत्युदाता हो सकता. अब इच्छा अपनी है कि कितनी मात्रा ली जाए...☺
Deleteऔषधि की निश्चित मात्रा जीवन दायिनी होती है, किन्तु अनिश्चित बाहुल्य मृत्युदाता हो सकता. अब इच्छा अपनी है कि कितनी मात्रा ली जाए...☺
Deleteहमें क्या ज्ञात था कि औषधि में नशा है, लेते ही नित चढ़ने लगता है।
Deleteफेसबुक ने संपर्क का दायरा अवश्य बढ़ाया लेकिन साहित्य सृजन, पठन पाठन का सार्थक माध्यम सचमुच ब्लॉग ही महसूस होता है..
ReplyDeleteसादर..
आपसे पूर्णतया सहमत..
Deleteहिन्दी ब्लागों की संक्रांति दशा शुरू हो चुकी है यह देखकर तो यही दहशत है कि यह रहे या न रहे फेसबुक बना रहेगा.
ReplyDeleteआत्म श्लाघा तो ब्लॉग पर भी है -यहाँ भी आत्म प्रमोचन खूब चलता रहा है और अभी भी गुह्य ,प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष जारी है,फेसबुक जितना यूजर फ्रेंडली बनता जा रहा है ब्लॉग नहीं हैं ...आप फेसबुक पर दनादन जो चाहें कर सकते हैं अगर आप डिजिटली गंवार भी हैं तब भी ....जबकि ब्लॉग के लिए कुछ डिजटल साक्षरता अवश्य चाहिए! मुझे लगता है आपको अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए! रही बात गन्दगी की तो वह हमारे समाज का ही हिस्सा है और हर जगहं है ...यह आप पर है कि उससे कैसे निपटते हैं ..... शुभकामनाएं!
facebook se kahi jyada sashakt madhyam saahity ke liye blog hi hai....facebook ki lokpriyta students ke bich jyada hai....mai vidya ji se sahmat hu ki apne is nashe se mukti lekar wakai me sahsik kaary kiya hai....upyogi post...abhar...
Deleteसंक्रांति है, पर ब्लॉग का सूर्य अब उत्तरायण को है। दोष तो बने रहेंगे पर साहित्य का विस्तार ब्लॉग में पूर्ण संभावित है। जब प्रचुर उत्कण्ठा होगी तभी पुनर्विचार किया जायेगा।
Deleteआप फेस बुक की बात कर रहे हैं? मुझे तो मेरे गुरु श्री रवि रतलामी ने ब्लॉग जगत में प्रवेश करने से पहले ही हिदायत दी थी कि मैं ब्लॉग को अपने लिए प्रयुक्त करूँ, खुद को ब्लॉग के लिए नहीं छोड दूँ वर्ना सचमुच में 'बैरागी' बन जाऊँगा। वही कर रहा हूँ।
ReplyDeleteचीजें तभी तक अच्छी हैं जब तक कि वे हमारे लिए हैं। जिस दिन हम चीजों के लिए हो गए, उस दिन से ही बण्टाढार समझिए।
मैं फेस बुक पर हूँ और बना रहूँगा। मुझे इससे व्यावसायिक लाभ मिल रहा है। या कहिए कि यह मेरे लिए बीमा व्यवसाय प्राप्त करने का औजार है। जिस दिन यह 'स्वार्थ' समाप्त होगा उसी दिन (दिन नहीं 'क्षण') से फेस बुक को नमस्कार।
रही ब्लॉग की बात? उसका क्या कहना! उसका आनन्द तो वर्णनातीत है। कोई मुझ पर एक कृपा करे - बताऍं कि अधिकाधिक ब्लॉग कैसे पढे जा सकते हैं। अभी वे ही ब्लॉग पढ पा रहा हूँ जो मुझे ई-मेल से मिल रहे हैं।
चीजें तभी तक अच्छी हैं जब तक कि वे हमारे लिए हैं।
Deleteसामाजिकता का मर्म बस यही है।
कुछ हद तक आपकी बातों से मैं भी सहमत हूं लेकिन इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स के माध्यम से बहुत लोगों से सालों बाद संपर्क हुआ, इसमें उनका योगदान हम भूल नहीं सकते। बाकी लत तो किसी भी चीज की बुरी होती है..
ReplyDeleteसम्पर्क और साहित्य को अलग अलग रख कर देखना होगा। सामाजिकता के लिये एक सशक्त माध्यम होने के बाद भी साहित्य की न्यूनतम ईकाई नहीं है फेसबुक।
Deleteअंकल जी, मुझे भी ब्लॉग पर ज्यादा मजा आता है. मेरा फेसबुक अकाउंट तो कई बार महीनों तक नहीं खुलता है.
ReplyDeleteआपके ब्लॉग में हम कितना कुछ जान लेते हैं, फेसबुक में कहाँ पता लग पाता है?
DeleteMaine to isi liye Facebook pe khata hi nahi khola ... Tweeter par Hun par istemal nahi karta ... Blog hi Bahut hai gam bhulaane ko ...
ReplyDeleteहम भी आपकी अभिव्यक्ति की प्रतीक्षा में रहते हैं, ब्लॉग पर।
Deleteये लिजीये, डेढ़ सैकड़ा के आसपास टिप्पणीयाँ ,फिर भी ब्लागींग सक्रमण के दौर मे कैसे ?
ReplyDeleteफेसबुक से अधिक चर्चा हो रही है ब्लॉग में, वह भी फेसबुक के बारे में।
Deleteयह एक नेक कार्य किया है प्रवीण जी क्योंकि आपकी जरूरत अलग है. फेसबुक एक नयी शुरुआत थी और युवाओं में अभी भी बहुत प्रेम है इसके प्रति. सामाजिकता के लिये अभी भी यह एक सशक्त माध्यम है.
ReplyDeleteसच कहा आपने, साहित्य के हेतु संभवतः फेसबुक मेरी आवश्यकता नहीं थी।
DeleteFACEBOOK PAR STATUS UPDATE KARNE ME SIRF AUR SIRF MANORANJAN HAI AUR TIME PASS BHI
ReplyDeleteJABKI
BLOG LIKHANA KHOPARIBHANJAN HAI AUR USE PADHNA INFOTAINMENT HAI.....
"MUNDE MUNDE MATI BHINNA...."
फेसबुक का प्रारूप बड़ा हल्का फुल्का है, साहित्य के गाम्भीर्य के समेटने में अक्षम।
Deleteआपके ब्लॉग लेखन से बहुत अच्छी जानकारियाँ मिलती हैं.
ReplyDeleteफेस बुक में वह बात कहाँ.वैसे मुझे बहुत कम जानकारी है
फेस बुक की.
ब्लॉग की एक पोस्ट में एक विषय समेटा जा सकता है, पर फेसबुक या ट्विटर में वह धैर्य ही नहीं जो इतने को भी सम्हाल सके।
Deleteआपने तो जैसे मेरे मन की बात कह दी। मैं भी हूं फेसबुक पर । पर बस पन्द्रह दिन में एकाध बार खोल लेता हूं। सचमुच बहुत समय खाऊ है। फेसबुक में फेथ नहीं बन पा रहा है,वह फेकबुक ज्यादा लगता है। अपनी भी सब को यही सलाह है कि इससे बचकर ही रहें तो बेहतर है। आप निकल आए इसके फंदे से,मुबारक हो।
ReplyDeleteबहुतों के लगभग आप जैसे ही भाव हैं फेसबुक के बारे में, शीघ्र निकल लेना ही ठीक है।
Deleteमेरा फेसबुक से लेना देना बहुत पुराना रहा है ...और एक बहुत बड़ा संसार है वहाँ ... मेरे साहित्यिक मित्रों का वह काफी बड़ा जमावड़ा है ..जो साहित्यिक गतिविधियों पर ही कार्य करते है .. मतलब साहित्य और रचनाएं , आलोचना समीक्षा, मिलन समारोह, सम्मान समारोह, प्रकाशित पुस्तकों का प्रचार आदि आदि .. बहुत कुछ जानने और समझने को मिलता है| मित्रों की मंडलियां भी हैं ... पूरे रिश्ते जिन्हें हमने दूरियों की वजह से नहीं जाना वह भी मिल गए ..पुराने खोये साथी भी मिले.... लेकिन सच तो यह है कि फेसबुक जैसे समय को खा जाने वाला कोई यंत्र हो .. और वहाँ कुछ लोग बहुत नकली प्रोफाइल वाले होते है .. पारखी नजर की जरूरत होती है .. और नेटवर्किंग में तो कुछ पता नहीं ..अच्छे अच्छे शब्दों को लिखने वाले लोग वाकई में अच्छे भी होते है या सिर्फ एक दिखावा ... मेरा मोह भंग हो गया फेसबुक से ..आपकी तरह :)
ReplyDeletevery good!
Deleteसामाजिकता और साहित्य का गडमगड्ड हो जाता है, फेसबुक में। मेरा तो कभी मोह हो ही महीं पाया इससे।
Deleteवैसे अपने फ़ेस को भी क्या देखना...........यह सब आभासी दुनिया है...व्यर्थ ही.... बस ब्लोग ही अपना स्वयं की रचना है...
ReplyDeleteआपके ब्लॉग की सृजनधर्मिता अनुकरणीय है।
Deleteअच्छा किया..हमने तो ये रोग पाला ही नहीं..
ReplyDeleteprevention is better than cure..
:-)
regards.
अच्छा किया, आपका ढेरों समय बचा रहा।
Deleteआप महान हैं!!!!हमें तो पहले ऑरकुट ने बर्बाद कर दिया और अब फेसबुक बर्बाद कर रहा है!! :P
ReplyDeleteआप तो बहुत चर्चित हैं, लोग आपकी प्रतीक्षा में रहते हैं फेसबुक में।
Deleteब्लॉगिंग, फ़ेसबुक और ट्विटर पर हमारे विचार इधर हैं जी!
ReplyDeletehttp://hindini.com/fursatiya/archives/2460
aapne facebook chor diya jaankar dukh hua.....par aapke tark apni jagah sahi hai sir....aur me janti hu un logo ko bhi bahut dukh hua hoga jo aapki frndlist me the
Deleteआपके विचारों ने सदा ही प्रभावित किया है, विषय की गहरी विवेचना की है आपने।
Deleteकनुजी, मित्रों से सम्पर्क नहीं छोड़ा है, बस माध्यम छोड़ा है।
Deleteफेसबुक और ट्विट्टर पर दोनों में अकाऊंट बनाये हैं किन्तु कभी कभार ही नजर डालते हैं . यहाँ भ्रमण करने से दो बातें सामने आती हैं १ ब्लॉग पर साहित्यिक के अलावा सामाजिक, राजनैतिक , आदि विभिन्न पहलुओं पर विश्लेषण मिलता रहता है समय देने की आवश्यकता है २. फेसबुक और ट्विट्टर पर ९० % लोग सिर्फ समय का दुरूपयोग एक दूसरे को वेवकूफ बनाने पर लगे हैं दूसरे शब्दों में कहें तो फंटूशबाज़ी करने पर लगे हैं . सीखने के नाम पर = शून्य+ शून्य =शून्य
ReplyDeleteआपके अनुभव व विचारों से पूर्णतया सहमत।
DeleteApke tyag ko mai naman karta hu Sir.....Face Book sayad style ban chuka hai.Blog se hame bahut kuch sikhne ko milega.
ReplyDeleteApke tyag ko mai naman karta hu...Face Book sayad style ban chuka hai. Blog se hame bahut kuch sikhne ko milega
ReplyDeleteऔरों के लिये फेसबुक की उपयोगिता हो सकती है। स्वयं के लिये जो श्रेष्ठ हो, वही स्वीकार हो।
Deleteteenon men ... sampoorntaa kaa abhaav hai ... kaheen kam, to kaheen jyaadaa ...
ReplyDeleteसम्पूर्णता तो पुस्तक पढ़ने में आती है, पर उसकी पहुँच सीमित और आवृत्ति कम है।
Deleteआपसे सहमत. हम तो केवल कभी कभार कुछ लिंक्स के कारण चले जाते हैं.
ReplyDeleteजब से फेसबुक त्यागा है, बहुत समय मिल रहा है स्वयं के लिये।
Deleteफेसबुक सामाजिकता संवर्धित कर सकता है, साहित्य नहीं।
ReplyDeleteabsolutely correct
बहुत धन्यवाद आपका..
Deleteनिश्चित ही साहित्य की दृष्टि से ब्लॉग भी अभिव्यिक्त के सशक्त माध्यम हैं।
ReplyDeleteब्लॉग में कम से कम एक विषय पूरा उठाने का प्रारूप उपस्थित है।
Delete"पाठक ढूढ़ने का श्रम लेखक को करना होता है, उसी तरह अच्छे लेखक को ढूढ़ने का श्रम पाठक को भी करना पड़ता है। माध्यमों की अधिकता ध्यान बाटती है, अभिव्यक्ति का कूड़ा एकत्र करती है। छोटी चीजें से कुछ बड़ा बन पाने में संशय है, रेत से पिरामिड नहीं बनते, उनके लिये बड़े पत्थरों की आवश्यकता होती है। महाग्रन्थों का युग नहीं रहा पर कम से कम ब्लॉग की ईकाई से सबका योगदान बनाये रखा जा सकता है। साहित्य संवर्धन तो तभी होगा, जब अधिक लोग लिखें, अधिक लोग पढ़ें, लोग अच्छा लिखें, लोग अच्छा पढ़ें, अधिक समय तक रुचि बनी रहे, जब समय मिले तब साहित्य ही पढ़ें, बस में, ट्रेन में, हर जगह। फेसबुक सामाजिकता संवर्धित कर सकता है, साहित्य नहीं।"
ReplyDeleteLekin samaaj mein parivertan ki samvahan dhaaraayein Sahitya se aati hain.
"पाठक ढूढ़ने का श्रम लेखक को करना होता है, उसी तरह अच्छे लेखक को ढूढ़ने का श्रम पाठक को भी करना पड़ता है। माध्यमों की अधिकता ध्यान बाटती है, अभिव्यक्ति का कूड़ा एकत्र करती है। छोटी चीजें से कुछ बड़ा बन पाने में संशय है, रेत से पिरामिड नहीं बनते, उनके लिये बड़े पत्थरों की आवश्यकता होती है। महाग्रन्थों का युग नहीं रहा पर कम से कम ब्लॉग की ईकाई से सबका योगदान बनाये रखा जा सकता है। साहित्य संवर्धन तो तभी होगा, जब अधिक लोग लिखें, अधिक लोग पढ़ें, लोग अच्छा लिखें, लोग अच्छा पढ़ें, अधिक समय तक रुचि बनी रहे, जब समय मिले तब साहित्य ही पढ़ें, बस में, ट्रेन में, हर जगह। फेसबुक सामाजिकता संवर्धित कर सकता है, साहित्य नहीं।"
ReplyDeletelekin samaaj mein parivertan ki samvahan dhaaraayein sahitya hi paidaa karta hai.
अच्छा साहित्य जनमानस को प्रभावित करता है, सोचने को उद्वेलित करता है।
Deleteफेसबुक सामाजिकता तो निर्मित करती है किन्तु ज्यादा से ज्यादा ओपचारिकता का निर्माण करती है. शुरुआत कुछ समय से होती है फिर आदत बन जाती है. धीरे धीरे एक मानसिक रोग बन जाता है, फिर भी संपर्क खड़ा करने का अच्छा साधन है. आज कि व्यस्तता में आप अपने मित्रों, परचितों से रोज रोज तो छोडिये महीनो नहीं मिल पाते किन्तु फेस बुक से संबंधो-संपर्को कि निरंतरता बनी रहती है यानी 'उसी से ठंडा उसी से गर्म' तो फेसबुक बुरी नहीं है आदत बुरी है. जहाँ तक साहित्य का प्रश्न है इसके लिए एक अलग मंच बनना चाहिए जो सभी ब्लाग्स को आपस में उसी तरह जोड़ दे जैसे फेसबुक अथवा ट्विटर है. इस प्रकार के व्यक्तिगत ब्लोग्स के इंटरनेट के महासमुद्र में ढूढना भुस के ढेर में सुई ढूढने जैसा है.
ReplyDeleteसच कहा साहित्य की ईकाई तो ब्लॉग है, उन्हें जोड़ने का माध्यम ढूढ़ना पड़ेगा
Delete