कहते हैं कि आप जिस चीज से भागना चाहते हैं, वह जीवन भर आपका पीछा करती है, मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। बचपन में पिताजी सब्जी खरीदने जाते थे, सप्ताह में दो दिन हाट लगती थी गृहनगर में, बहुत भीड़ रहती थी मानो पूरा शहर उमड़ आता हो वहाँ। पता नहीं भविष्य में गृहस्थी का क्या स्वरूप रहेगा, पता नहीं भविष्य में पति पत्नी की भूमिकायें क्या हो जायेंगी, संभवतः यही सोचकर पिताजी मुझे भी साथ ले जाते थे। सोचते होंगे, चलो कुछ तो सीख लेगा, यदि बाहर रहकर पढ़ना पड़े तो कम से कम खाना बनाकर पेट तो भर लेगा। बाहर रहकर पढ़ने के लिये यह सब जानना तो अत्यन्त आवश्यक था, पिताजी ने किया था, छोटे भाई ने भी बाद में किया, अब स्थिति यह है कि घर में मुझे छोड़कर सब खाना बना लेते हैं, बहुत अच्छा।
हाथ में एक छोटा झोला उठाये, भीड़ की रोचकता में गर्दन मटकाते हुये पिताजी के पीछे लगा रहता था। गेहूँ, चावल, दाल के दानों में जाने क्या देखकर खरीदते थे, समझ नहीं आता था। आलू, टमाटर, प्याज, एक एक को चारों ओर से देख कर क्या निश्चित करते होंगे, समझ नहीं आता था। पालक, मेथी, धनिया, पुदीना, ताजा और बासी में कैसे अन्तर करते थे, समझ नहीं आता था। हल्दी, जीरा, मसाला की महक कैसे परखते थे, समझ नहीं आता था। बस एक सहायक की तरह पीछे लगा रहता था, बस इस आस में कि किसी तरह अन्त में गन्ने का रस या बरफ के लच्छे खाने को मिल जाये, पर उसके लिये धूल भरे वातावरण में इतना श्रम करना खलता था। भगवान ने सुन ली, छात्रवास रहने आ गया, इस साप्ताहिक श्रम से छूट मिल गयी, उसके बाद पिताजी छोटे भाई को अपने साथ बाजार ले जाने लगे।
शेष पढ़ाई छात्रावास में, प्रशिक्षण और रेलवे में नौकरी, हर जगह बना बनाया खाना मिलता रहा। विवाह के बाद भी घर में रसोईया लगा रहा, सब्जी, राशन आदि आता रहा, हम अपने भय से मुक्त बने रहे, जो मिलता रहा, वह खाते रहे। कभी किसी व्यंजन विशेष के लिये आग्रह नहीं किया, कभी किसी खाने में कमी इंगित नहीं की। ऐसा लगने लगा कि पिता जी ने जो समय मुझे खरीददारी सिखाने में निवेश किया था उसका कोई प्रतिफल आ ही नहीं रहा है। जहाँ तक हो सका मैं खरीददारी से भागता रहा। अवसर भी अपनी प्रतीक्षा में था और बचपन में सीखी हुयी चीजें व्यर्थ नहीं जानी थीं, इन दोनों का सुयोग बंगलुरु में बनने लगा।
वस्तुतः तीन कारण रहे, पहला कारण हमारे रसोईयेजी का व्यक्तिगत कारणों से कई बार अपने गाँव जाना रहा। श्रीमतीजी को रसोई का पूरा कार्य करने के बाद यह सम्भव नहीं रहता था कि खरीददारी कर सकें, अतः हमको ही उस उत्तरदायित्व का निर्वाह करना पड़ा। दूसरा कारण खानपान के क्षेत्र में बच्चों की वैश्विक मानसिकता का रहा। अपने विद्यालय में पिछले दिन आये टिफिनबाक्सों के आधार पर अगले दिन की माँग रखे जाने के कारण, हर बार हम ही को प्रस्तुत होना पड़ा, या तो बाहर जाकर खिलाने के लिये या घर में बनाने हेतु आवश्यक सामग्री लाने के लिये। इटली, थाईलैण्ड, चीन, मेक्सिको, अमेरिका के व्यंजनों के साथ साथ ठेठ दक्षिण भारतीय भोजन के लिये साधन जुटाने का भार हमको ही सौंप दिया गया। तीसरा कारण मॉल में स्वयं चुनने की सुविधा व स्वच्छ और वातानुकूलित परिवेश रहा।
पिताजी का सिखाया व्यर्थ नहीं गया, घर के लिये राशन, सब्जी आदि खरीदने से अधिक आत्मीय पारिवारिक अवसर सरलता से मिलता भी नहीं हैं। अगली बार से पृथु को भी ले जाऊँगा, भविष्य का क्या भरोसा, सुना है कई पतियों को घर में खाना बनाने का कार्य अधिक रुचिकर लगने लगा है।
स्वाद का आनंद तो खरीदी के साथ ही आरंभ होता है. मटर के मीठे दाने की/में फली(भूत).
ReplyDeleteशनिवार की सुबह, मॉल में जाने का सही समय। :)
ReplyDeleteअपन तो कालोनी के पास लगने वाली साप्ताहिक हॉट से ही खरीद लेते हैं, एकदम ताजी सब्जियां, वो भी कम से कम दाम में।
जब भी कभी सब्ज़ी आदि लेने जाने का मौक़ा मिलता है तो हरी-हरी ताज़ा कोमल फल सब्ज़ियों छूकर बहुत अच्छा लगता है...
ReplyDeleteकुछ दिन बाहर रहने के कारण खाना तो बनाना सीख गया पर खरीदारी करना शायद नहीं.ज्यादा छांटना-छून्टना अपने वश का नहीं रहा, इसलिए घरैतिन ने यह काम भी अपन के हाथ से ले लिया .
ReplyDeleteअब आराम से लिखा-पढ़ी होती है, दो-चार बातें ज़रूर सुन लेता हूँ .
आप का प्रशिक्षण काम आ रहा है, लगे रहिये !
जीवन में सीखा गया हर काम हमें कहीं न कहीं लाभ दे जाता है ..बेशक हम उसे कर न सके , लेकिन सलाह तो दी ही जा सकती है .
ReplyDeleteसीखा हुआ कभी न कभी काम आ ही जाता है ...
ReplyDeleteमैं तो भाई साहब सिर्फ सहानुभूति ही व्यक्त कर सकता हूँ :)
ReplyDeleteहमारा भी हर रविवार को फेरा तो लगता ही है, खिदिरपुर सब्जी बाज़ार का। बच्चे भी साथ होते हैं ... झोला उठाने के लिए।
ReplyDeleteबस परिवार का यही महत्व है कि हम सब एकदूसरे से सहजता से सीख जाते हैं।
ReplyDeleteसब्जी खरीदना एक कला है...
ReplyDeleteमटर छीलने का अपना ही आनंद है... और उसमे से मीठे दाने खाने का भी...
गांव में तो खेत से आ जाती थी.. उन दिनों में भी अलग मजा था..
सच है यूँ ही चीज़ें जानी सीखी जाती हैं..... और जीवन में काम भी आती है.....
ReplyDeleteवाह,छंटी-छँटाई मटर की फलियाँ !
ReplyDeleteसुपाच्य आलेख. मालों ने जीवन शैली बदल दी है.
ReplyDeletejab pati bazaar se sabji lata hai to patni ko bhi banane me jyada hi maja aata hai.ye choti choti baaton me ek doosre ka sahyog karna hi jeevan roopi gadi ko safalta se chalata hai.bahut achcha aalekh likha parivarik lekh kahungi.
ReplyDeleteहम तो रोज सुबह घुमने के बाद कंपनी बाग चौराहे की सब्जी मंडी से , गंगा कटरी वाली हरी सब्जियां भर लाते है . बचपन में पिताजी के साथ सब्जी की खरीदारी का हमारा बृहद अनुभव है .
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति।
ReplyDeleteपिताजी का सिखाया व्यर्थ नहीं गया, घर के लिये राशन, सब्जी आदि खरीदने से अधिक आत्मीय पारिवारिक अवसर सरलता से मिलता भी नहीं हैं।
ReplyDeleteकुछ भी सीखा व्यर्थ नहीं जाता ...रोचक अंदाज़ ...
घर से बलात भेजे गये मानुष को जब स्वतन्त्र देवता जैसा सम्मान मिलता है, तो सब्जी खरीदने जैसा कर्म भी अत्यन्त रोचक हो जाता है।
ReplyDeleteअब आप तो व्यंग्यकार भी हो गए! और वह भी धांसू.
शनिवार.. साप्ताहिक हाट... हम दोनों!!
ReplyDeleteबहुत ही बढि़या प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबड़ों के अनुभव और बचपन में सीखा कभी व्यर्थ नहीं जाता.कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में काम आ ही जाता है.अतीत को वर्तमान से जोड़ती सुन्दर पोस्ट.
ReplyDeleteबिल्कुल सही कह रहे हैं सीखा हुआ कभी व्यर्थ नही जाता और ऐसी आदतें हमे अपने बच्चों मे बचपन से ही डालनी चाहियें।
ReplyDeleteघर से बलात भेजे गये मानुष को जब स्वतन्त्र देवता जैसा सम्मान मिलता है, तो सब्जी खरीदने जैसा कर्म भी अत्यन्त रोचक हो जाता है।
ReplyDeleteसीखा हुआ कभी भी व्यर्थ नहीं जाता भाई साहब .पिता जी हमें भी याद आगये .मौसमी फल और सलाद जितना हमने खाया काम आया उन्हें खाते देखा हम सीख लिए .हमारे पोते भी ज़मके खाते हैं इंद्र धनुषी सतरंगी सलाद .
पृथु को ज़रूर ले जाइएगा...
ReplyDeleteAaj nahi to kal seekh kaam aayi jaati hai...:)
ReplyDeleteइतना चुन-चुन का मटर तो हमने भी आज तक नहीं ख़रीदा...:(:(
ReplyDeleteवाह....मटर की फलियाँ !सुन्दर पोस्ट
ReplyDeleteकई महत्त्वपूर्ण 'तकनिकी जानकारियों' सहेजे आज के ब्लॉग बुलेटिन पर आपकी इस पोस्ट को भी लिंक किया गया है, आपसे अनुरोध है कि आप ब्लॉग बुलेटिन पर आए और ब्लॉग जगत पर हमारे प्रयास का विश्लेषण करें...
ReplyDeleteआज के दौर में जानकारी ही बचाव है - ब्लॉग बुलेटिन
घर से बलात भेजे गये मानुष को जब स्वतन्त्र देवता जैसा सम्मान मिलता है, तो सब्जी खरीदने जैसा कर्म भी अत्यन्त रोचक हो जाता है।
ReplyDelete:)
सुना है कई पतियों को घर में खाना बनाने का कार्य अधिक रुचिकर लगने लगा है- अगर देखने का भी दिल हो तो यहाँ चले आईये...रुचिकर लगे न लगे...रुचि जगानी पड़ती है. :)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
कल शाम से नेट की समस्या से जूझ रहा था। इसलिए कहीं कमेंट करने भी नहीं जा सका। अब नेट चला है तो आपके ब्लॉग पर पहुँचा हूँ!
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
पति रसोयियें से बेहतर भला कौन ? बाजी :)
ReplyDeleteI was very afraid of going to HAAT in my village..I was very shy that time...Now I too have the same routine..Saturday or SUnday is fixed for Sabji Bhaji :-)...
ReplyDeleteकितना बदल गया है शॉपिंग का इश्टाइल :)
ReplyDeleteअच्छा है।
ReplyDeleteमुझे बहुत रुचता है सब्जियां चुन कर खरीदना और खाना बनाना।
सच है कि पिताजी का कुछ भी सिखाया कभी व्यर्थ नहीं जाता।
ईश्वर कितना बड़ा रसोइया है | एक से बढ़कर एक हरी मनोहारी शाक-सब्जियां |
ReplyDeleteहरे रंग के भी सैकड़ों प्रकार बनाए है उसने ,सब्जियों के रूप में | मेरा तो हरी सब्जियों को बहुतायत में देखने मात्र से ही हिमोग्लोबिन बढ़ जाता है |
आहा.... क्या दिन याद दिलाये आपने ! बहुत बढ़िया लेख !
ReplyDeleteप्रवीण जी मेरे वैवाहिक जीवन को फिलहाल एक ही वर्ष पूर्ण हुआ है अभी तक तो इस काम से मुक्ति मिली हुई है पर बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी वाली स्थिति लग रही है आपकी पोस्ट पढ़कर... वैसे एक उपाय है अगर आप इससे बचना चाहें तो। मुझे जब भी मां सब्जी लेने भेजती थी तो मैं जानबूझकर कुछ न कुछ सामान खराब ला देता था, उकताकर उन्होंने मुझे भेजना ही बंद कर दिया।
ReplyDeletesir jee,
Deleteaapne bahut hi badhiya upay sujhaya hai...
सब्जी लाना भी एक कला है जो हर कोइ नहीं जानता |
ReplyDeleteअच्छा लेख |
आशा
'तप' से सीखा हुआ जब 'यज्ञ' में परिवर्तित होता है
ReplyDeleteतो आनंद तो आना ही चाहिये.
पिताजी के दिए गए 'दान' के बिना क्या ऐसा हो पाता.
जीवन में यज्ञ, तप और दान ही अभीष्ठ हैं.
iphone पर shopping list!
ReplyDeleteयह कौनसा नया app है जी?
हम इस जिम्मेदारी से बच निकले।
कारण:
1) पत्नि को मुझपर भरोसा नही है। कह्ती है कि मैं कुछ भी खरीदना जानता नहीं हूँ और कभी सीख भी नहीं सकता। आसानी से ठगा जाता हूँ।
2) पत्नि को shopping इतना प्रिय है कि इसका आनंद खुद लेना चाहती है। हम वाहन चालक बनकर संतुष्ट रहते हैं। हम mall के बाहर अपनी रेवा गाडी चलाते हैम और mall के अंदर trolley धकेलते हैं।
3)जिस shopping के लिये पत्नि को एक घंटा चाहिए, वही shopping, अवसर मिलने पर, मैं पंद्रह मिनट में करके दिखाता हूँ, जिससे वह नाखुश हो जाती है। वह मानती है कि मैं shopping का मज़ा नष्ट कर देता हूँ।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
नोट में ही लिखते जाते हैं, हम शॉपिंग कर्म की तरह करते हैं, हमारी श्रीमतीजी शॉपिंग में कई कर्म ढूढ़ लेती हैं।
Deleteरोचक..मटर की मीठी फलियों सी..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ..
ReplyDeleteअभी देखा अमित जी भी पढ़ गये हैं,अब शायद आज हमारे घर भी मीठी मटर आ जाए .......:)
ReplyDeleteबहुत रोचक प्रस्तुति...मॉल में खरीदारी करने से एक सुविधा रहती है कि एक ही जगह सब सामान मिल जाता है, वरना पहले अलग अलग दुकानों के चक्कर लगाने होते थे. पहला अनुभव न भी हो, ज़िंदगी सब कुछ सिखा देती है, शॉपिंग करना भी..पर मटर छांटना वास्तव में मुश्किल काम है..
ReplyDeleteमैं तो हरी मटर को खाने के दौरान उसके खेत तक का आनंद उठा लेता हूँ। दरअसल मटर को छीलने के बाद उसकी फली को थोड़ा सा मसल कर सूंघा जाय तो वही खुशबू मिलती है जो मटर के खेतों की ओर से हवा चलने पर आती है। अबकी ट्राई किजिएगा। मटर तो मटर उसकी फलियां भी 'खेतिहर नॉस्टॉल्जिया' वाली कैफ़ियत रखती हैं।
ReplyDeleteअपने को भी यही ज्यादा पसंद है।
Deleteवाह जी , अपन तो न सिर्फ़ हाट बजार बल्कि पाक कला हस्त कला आदि तमाम टाईप की कला में पारंगत हो चुके हैं , सूची अनुसूचि सबे झेल जा रहे हैं । मटरवा का फ़ोटो देख के मोन हरिया गया
ReplyDeleteहमारे घर में भी सारी बुद्धि सब्जी लेने में लगती है। आलू मुंडेरा मण्डी से। मटर फाफमऊ से, स्पेंसर और बिगबाजार के रेट का तुलनात्मक अध्ययन... गांव से मन्गाई आलू 300 की 65 किलो पड़ी... इत्यादि।
ReplyDeleteहम सब सब्जीलॉजी में पोस्ट ग्रेज्युयेट हो गये हैं! :-)
मटर के दाने पनीर के साथ एक डेढ़ मिनिट माइक्रोवेव करके खाइए .स्वाद के अनुरूप काली मिर्च पाउडर नमक स्तेमाल कर सकतें हैं .ताज़ी सब्जी की रंगत आकर्षित करती है बीनाई (विज़न )में इजाफा करती है .
ReplyDeleteउबली हुई मूंफाली हमने चेन्नई में खाई है खूब .ज्यादा पौष्टिक होता है नमक भी कम लेती है .रोस्टिद(भुनी हुई ,तली हुई नहीं )का अपना स्वाद है .मध्य प्रदेश में कच्ची गीली मूंगफली आधा रेत में सेंक कर नमक हरीमिर्चा के साथ खाई जाती है . बस तली हुई बेसन चढ़ी (हल्दी राम) की मूंगफली से बचिए .
आपके हर काम की तरह सब्जी खरीदना भी सुनियोजित व हाईटेक है। और जैसा आपने कहा, यह तो बिल्कुल सही है कि यदि खाने-पीने का सामान व साग-सब्जी खरीददारी खुद की जाय तो खाने का स्वाद जरूर विशेष हो जाता है।मेरी भी यही कोशिश रहती हे कि साग-सब्जी खुद ही खरीदी जाये, बस यह है कि इस कार्य में पत्नी जी का सहयोगी का रोल निभाना ज्यादा अच्छा व उपयुक्त लगता है।
ReplyDeleteभाई .....मान गए |मटर खरीदना भी कोई आसान काम नहीं | कल से सब्जी मंडी मेरे खरीदने की दृष्टियाँ बदली बदली सी होंगीं |
ReplyDeleteumda likhte hai aap,lga ke hum bhi aap ke sath hi khridari kar rhen hai
ReplyDeleteWow, Such a true and nice post
ReplyDeleteघर से बलात भेजे गये मानुष को जब स्वतन्त्र देवता जैसा सम्मान मिलता है, तो सब्जी खरीदने जैसा कर्म भी अत्यन्त रोचक हो जाता है।....
ReplyDeleteसही कहते हैं... रोचक प्रस्तुति...
सादर.
वाह !!, सुन्दर पोस्ट,
ReplyDeleteठीक मटर की फलियों सी.
बहुत सुंदर आलेख ...छोटी छोटी बातों में छुपी जीवन की बड़ी-बड़ी खुशियाँ ...
ReplyDeleteSIR
ReplyDeleteZINDAGI KE HAR CHHOTI BADI GHATNA KO SUNDAR SHABDO ME VYAKT KARNE KI AAPKI ADBHUT KALA SE MUJHE EHSAS HO RAHA HAI KI AANE WALE DINO ME AAPKE DWARO LIKHE BEST SELLER BOOKS PADHANE KO MILEGA...PAKKA MILEGA...
बहुत सही कहा ..सच है..यही जीवन है..शिव रात्रि पर हार्दिक बधाई..
ReplyDeletehamaare bujurg behatar dhang se jivan ko samajhte hain---.
ReplyDeletepoonam
sabjee aur grihasthi ka saman chahe mall se khareede ya haat se parantu bhawnayen to ek see hoti hai.aap ke saare lekh man ko choone waale hai.bahut badhia.
ReplyDeleteबहुत सुन्दरमहा- शिव रात्रि के विशेष पर्व पर .खरीदने के साथ ही स्वाद और खाने की प्रक्रिया की रूप रेखा बनके तैयार हो जाती है .
ReplyDeleteमटर के दानों सी सुन्दर...., पारिवारिक जीवन की सुगंध बिखेरती बढ़िया पोस्ट!
ReplyDeleteमतलब आपके हाथ के खाने से वंचित रहेंगे ..
ReplyDeleteबहुत ही पारिवारिक पोस्ट है ... हर किसी से जुडी हुयी ...
हर परिवार की कहानी की रोचक प्रस्तुती...आपकी लेखनी आम बात को भी बरी खास और स्वादिष्ट बना देती है...आपके हर पोस्ट में ये खासियत होती है की पढ़ते हुए बोरियत महसूस नहीं होती...
ReplyDeleteसुना है कई पतियों को घर में खाना बनाने का कार्य अधिक रुचिकर लगने लगा है।
ReplyDeleteहे भगवान!! :P
बाई द वे, मंत्री मॉल का फोटो है न पहला वाला, दिल खुश हो गया देख कर ;)
क्षमा चाहता हूं। पता नहीं क्यों, ऐसी जगह पर मुझे घुटन सी होती है। मेरा मन कहता है इन लोगों ने देश के न जाने कितने कम पूंजी में रोजी-रोटी कमानेवालों का रोजगार छीन लिया है। बड़ी अजीब सी बदबू (शायद तरह-तरह के बॉडी स्प्रे की मिलीजुली गंध) वहां तैरती रहती है। पीले-पीले चेहरों पर कृत्रिम मुस्कान लिए लोग दिखाई देते हैं। उनमें एक अजीब सी संवेदन शून्यता महसूस होती है। पहले कभी-कभार कोई गिफ्ट बाउचर मिल जाता था तो मजबूरी में जाना पड़ता था।
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