सागर से साक्षात्कार उसकी लहरों के माध्यम से ही होता है। किनारे पर खड़े हो विस्तृत जलसिन्धु में लुप्त हो जाती आपकी दृष्टि, कुछ कुछ कल्पनालोक में विचरने जैसा भाव उत्पन्न करती है, पर इस प्रक्रिया में आप सागर में खो जाते है। पानी की लहराती कृशकाय सिहरन आपके पैरों को नम कर जाती है, पर इस प्रक्रिया में सागर पृथ्वी में खो जाता है। एक स्थान, जहाँ सागर का साक्षात्कार विधिवत और बराबरी से होता है, वह है जहाँ लहरें बनना प्रारम्भ होती हैं।
वैज्ञानिक दृष्टि से लहरों का बनना समझाया जा सकता है। पृथ्वी के गतिमय रहने से सागर में कुछ तरंगें उत्पन्न होती है, तरंगें सदा किनारे की ओर भागती हैं, पृथ्वी से प्राप्त ऊर्जा को पुनः किनारे पटक आने के लिये। किनारे आने पर गहरी जलराशि को जब तल में चलने की जगह नहीं मिलती है, वह ऊपर आने के लिये होड़ मचाती है, एक के ऊपर एक, ऊपर वाली आगे, नीचे वाली पीछे। धीरे धीरे ऊँचाई बढ़ती जाती है, गति बढ़ती जाती है। जब और किनारा आता है, गति स्थिर नहीं रह पाती है, लहरें टूटने लगती हैं, पीछे से आने वाली जलराशि उस ऊँचाई से जलप्रपात की तरह गिरने लगती है, दृश्य गतिमय हो जाता है, लहरों से फेन निकलने लगता है, थपेड़ों की ध्वनि मुखर होने लगती है, लगता है मानो लहरें साँप जैसी फन फैलाये, फुँफकारती चली आ रही हैं।
सम्मोहनकारी दृश्य बन जाता है, लोग मुग्ध खड़े हो निहारते रहते हैं, घंटों। मुझे भी यह देखना भाता है, घंटों, बिना थके, लगातार। मेरी दार्शनिकता मुझसे बतियाने लगती है, दिखने लगता है कि जब धीर, गम्भीर व्यक्ति को छिछले परिवेश में स्वयं को व्यक्त करने की विवशता होती होगी, उसका भी निष्कर्ष किनारे पर सर पटकती लहरों जैसा ही होता होगा। लहरों का बनना और टूटना ऊर्जा को सही स्थान न मिल पाने की देश की अवस्था को भी चित्रित कर जाता है। मेरे मन में, जूझने की जीवटता, उन लहरों से कुछ सीख लेना चाहती है। पूर्णिमा का चाँद जब प्रेमवश सागर को अपनी ओर अधिक खींचने लगता होगा, सागर की वियोगी छटपटाहट इन लहरों के माध्यम से ही स्वयं को व्यक्त कर पाती होगी।
सायं का समय है, सूरज अपनी लालिमा बिखरा रहा है, सागर किनारे, दोनों ओर बच्चे बैठे बतिया रहे हैं। समुद्र से जुड़ा सारा ज्ञान धीरे धीरे उलीच रहे हैं दोनों, पिता की स्नेहिल उपस्थिति में। दोनों को ही ज्ञात है कि यदि अगले प्रश्न में अधिक समय लिया तो पिताजी कल्पनालोक में सरक जायेंगे। अपने समय में कल्पना की अनाधिकार चेष्टा से सचेत बच्चे बहुधा मेरी कल्पनाशीलता से उकताने लगते हैं। उन्हें दूर बनती लहरों का बनना, बहना, टूटना और किनारे आकर वापस लौट जाना, यह देखना तो अच्छा लगता है पर उससे भी अच्छा लगता है, लहरों से खेलना। लहरों से खेलने का हठ सायं को पूरा नहीं किया जा सकता था, अगले दिन सुबह का समय निश्चित किया गया।
बच्चों को लहरें बहुत पसन्द हैं, बेटा अब ठोड़ी तक आ गया है, तैरना आता है अतः गले तक की ऊँचाई में निर्भय हो पानी में बना रहता है। ऊँची लहर आती है तो साथ में उछल कर तैरने लगता है, पूरा आनन्द उठाता है, बस स्वयं से आगे नहीं जाने देता हूँ उसे। बिटिया माँ के साथ किनारे बैठे बैठे उकताने लगती है, भैया की तरह लहरों से खेलना चाहती है। दोनों ही साथ साथ सागर के अन्दर तक आ जाते हैं, बेटा बगल में, बिटिया गोद में। बिटिया छोटी है, लहरों की ऊँचाई उससे डेढ़ गुना अधिक है। सारी लहरें ऊँची नहीं आती हैं, वह गिनने लगती है, संभवतः हर पाँचवी लहर ऊँची होती है। धीरे धीरे उसका भी भय छूटता है, चार लहरों तक वह अपने पैरों पर खड़ी रहती हैं, बस हाथ पकड़े रहती है। हर पाँचवी लहर पर गोद में आकर चिपट जाती है। गोद में चढ़ पिता से भी ऊँची हो जाती है, लहर को अपने नीचे से जाते हुये देखती है तो खिलखिला कर हँस पड़ती है, बालसुलभ।
लहरों के साथ खेलते खेलते दो घंटे निकल जाते हैं, आँखों में थोड़ा खारा पानी जाने लगता है, धूप शरीर को तपाने लगती है, थकान होने लगती है, बच्चे वापस चले जाते हैं, मुझे कुछ और देर लहरों से खेलने का मन होता है। मैं हर पाँचवी लहर की प्रतीक्षा में रहता हूँ, लहर आती है, मैं स्वयं को छोड़ देता हूँ, थोड़ा तैरता हूँ, लहर चली जाती है, पुनः अपने पैर पर खड़ा हो जाता हूँ।
वापस अपने कमरे जा रहा हूँ, दार्शनिकता पुनः घिर आती है, आसपास की हलचल ध्यान भंग नहीं करती है। मन में विचार घुमड़ने लगते हैं, लहरों से खेलना बिल्कुल जीवन जीने जैसा ही है, हर पाँचवी लहर ऊँची आती है, थोड़ा प्रयास कर लीजिये, लहर चली जायेगी, पैर पुनः जमीन पर।
'आप फिर सोचने लगे, न' बिटिया टोक देती है, देखता हूँ, मुस्कराता हूँ, सर पर हाथ रख कर बस इतना ही कहता हूँ, 'शाम को फिर लहरों से खेलने चलेंगे'।
सम्मोहनकारी दृश्य बन जाता है, लोग मुग्ध खड़े हो निहारते रहते हैं, घंटों। मुझे भी यह देखना भाता है, घंटों, बिना थके, लगातार। मेरी दार्शनिकता मुझसे बतियाने लगती है, दिखने लगता है कि जब धीर, गम्भीर व्यक्ति को छिछले परिवेश में स्वयं को व्यक्त करने की विवशता होती होगी, उसका भी निष्कर्ष किनारे पर सर पटकती लहरों जैसा ही होता होगा। लहरों का बनना और टूटना ऊर्जा को सही स्थान न मिल पाने की देश की अवस्था को भी चित्रित कर जाता है। मेरे मन में, जूझने की जीवटता, उन लहरों से कुछ सीख लेना चाहती है। पूर्णिमा का चाँद जब प्रेमवश सागर को अपनी ओर अधिक खींचने लगता होगा, सागर की वियोगी छटपटाहट इन लहरों के माध्यम से ही स्वयं को व्यक्त कर पाती होगी।
सायं का समय है, सूरज अपनी लालिमा बिखरा रहा है, सागर किनारे, दोनों ओर बच्चे बैठे बतिया रहे हैं। समुद्र से जुड़ा सारा ज्ञान धीरे धीरे उलीच रहे हैं दोनों, पिता की स्नेहिल उपस्थिति में। दोनों को ही ज्ञात है कि यदि अगले प्रश्न में अधिक समय लिया तो पिताजी कल्पनालोक में सरक जायेंगे। अपने समय में कल्पना की अनाधिकार चेष्टा से सचेत बच्चे बहुधा मेरी कल्पनाशीलता से उकताने लगते हैं। उन्हें दूर बनती लहरों का बनना, बहना, टूटना और किनारे आकर वापस लौट जाना, यह देखना तो अच्छा लगता है पर उससे भी अच्छा लगता है, लहरों से खेलना। लहरों से खेलने का हठ सायं को पूरा नहीं किया जा सकता था, अगले दिन सुबह का समय निश्चित किया गया।
जल का आनन्द, संग संग, देवला और पृथु |
लहरों के साथ खेलते खेलते दो घंटे निकल जाते हैं, आँखों में थोड़ा खारा पानी जाने लगता है, धूप शरीर को तपाने लगती है, थकान होने लगती है, बच्चे वापस चले जाते हैं, मुझे कुछ और देर लहरों से खेलने का मन होता है। मैं हर पाँचवी लहर की प्रतीक्षा में रहता हूँ, लहर आती है, मैं स्वयं को छोड़ देता हूँ, थोड़ा तैरता हूँ, लहर चली जाती है, पुनः अपने पैर पर खड़ा हो जाता हूँ।
वापस अपने कमरे जा रहा हूँ, दार्शनिकता पुनः घिर आती है, आसपास की हलचल ध्यान भंग नहीं करती है। मन में विचार घुमड़ने लगते हैं, लहरों से खेलना बिल्कुल जीवन जीने जैसा ही है, हर पाँचवी लहर ऊँची आती है, थोड़ा प्रयास कर लीजिये, लहर चली जायेगी, पैर पुनः जमीन पर।
'आप फिर सोचने लगे, न' बिटिया टोक देती है, देखता हूँ, मुस्कराता हूँ, सर पर हाथ रख कर बस इतना ही कहता हूँ, 'शाम को फिर लहरों से खेलने चलेंगे'।
बहुत सुन्दर...समंदर और लहरें बचपन से मुझे भी बहुत पसंद हैं...घंटों पानी से बाहर आने को दिल ही नहीं करता :) शीर्षक देख कर ही भागी चली आई :)
ReplyDeleteसागर और लहरें जिसे दार्शनिक ना बना दें ...
ReplyDeleteसम्मोहनकारी है आपका लेखन भी !
जीवन भी लहरों की भांति ही है .....हर लहर एक नया अफसाना छोड़ जाती है .....हमारे अंतर्मन की हलचल इसे प्रभावित करती है ...और हम सोचते रह जाते हैं .....!
ReplyDeleteजल ही जीवन है ... न सिर्फ सागर , बल्कि नदी नहरें ..... सब में जलक्रीडा का अपना आनंद है ... आप बराबर मेरे ब्लॉग पर आते है .... मेरी बात पर ... मेरा एक दूसरा ब्लॉग भी है २१वि सदी का इन्द्रधनुष .... उस पर भी आये ॥ आभार
Deletebabanpandey.blogspot.com
जलराशि में क्रीड़ा का अलग ही आनंद है, लहरें बरबस ही आकर्षित करती हैं।
ReplyDeleteसागर की लहरें ...स्वतः ही अपनी ओर आकृष्ट करती हैं ....समेटे हुए अपने आप में ...जीवन की गाथा और व्यथा ...दोनों ही ....गहन भाव से सूक्ष्म विश्लेषण किया है ....बहुत सुंदर आलेख ...
ReplyDeleteसुन्दर निबन्ध! बिटिया को भी तैरना सिखा दीजिये।
ReplyDeleteहर पांचवी लहर ऊंची होती है ,
ReplyDeleteइसी प्रकार एक निश्चित अंतराल के पश्चात जीवन में ऊंचाइयों तक ले जाने को एक पहर भी आता अवश्य है ,
बस आवश्यकता धैर्य एवं प्रतीक्षा की होती है |
रोमांचकारी लहरों की बीच बच्चो के साथ खेलने का द्रश्य सचमुच भव्य होगा... पढ़ते समय ऐसा लग रहा था जैसे चलचित्र चल रहा है सामने...
ReplyDeleteलहरों से खेलना बिल्कुल जीवन जीने जैसा ही है, हर पाँचवी लहर ऊँची आती है, थोड़ा प्रयास कर लीजिये, लहर चली जायेगी, पैर पुनः जमीन पर।
ReplyDeleteलहरों संग जीवन दर्शन की बात ...... सुंदर पोस्ट
सोच और विचारों की लहरें, चलता रहे यह खेल.
ReplyDeleteप्रकृति के संग रह पाना सबसे बड़ा आनंद देता है.हमें जीवन का असली 'दर्शन' वहीँ होता है !
ReplyDelete...लहरों से खेलना मुझे भयभीत करता है !
लहरों के बहाने जीवन दर्शन . आनंदम आनंदम.
ReplyDeleteदो बार सागर किनारे बहुत सारा समय व्यतीत करने का अवसर मिला। सोचता हूं कि सभी ऋषि-मुनि पर्वतों पर ही ध्यान करने क्यों जाते थे, क्या उन्हें सागर का बोध नहीं आया। जबकि इस विषय के लिये सागर ज्यादा कैटेलिक एजेंट या साधन लगा मुझे तो।
ReplyDeleteप्रणाम
जीवन भी इन्ही लहरों में लहराता है. आती हैं और चली जाती हैं. किन्तु ये तो बताते कि कौन से समंदर में गए खेलने के लिए
ReplyDeleteदिसम्बर में गोवा गये थे, उसी समय के उद्गार हैं..
Deleteदेवला और पृथु - इन लहरों का जवाब नहीं
ReplyDeleteमन में विचार घुमड़ने लगते हैं, लहरों से खेलना बिल्कुल जीवन जीने जैसा ही है, हर पाँचवी लहर ऊँची आती है, थोड़ा प्रयास कर लीजिये, लहर चली जायेगी, पैर पुनः जमीन पर।
ReplyDeleteलहरों से खेलते हुये भी जीवन दर्शन ... सारा जीवन हम ऐसे ही लहरों से तो खेलते रहते हैं ... बहुत सुंदर पोस्ट
पानी से अच्छी और भी कोई चीज़ दुनिया में है मुझे नहीं लगता-चाहे कहीं हो ,ताल ,नदी, सागर .. या कहीं भी ;सृष्टि का रस या सार कहें तो भी चलेगा .
ReplyDeleteलहरों पर भारी मन की लहरें..
ReplyDeleteye lehre aur pal dono anmol
ReplyDeleteसागर की लहरें जीवन उर्मियाँ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं .बेहतरीन पोस्ट जीवन में ज्वार भाटा आते रहतें हैं किनारे बैठ लहरें गिनते न रह जाइए उतरिये डूबिये जीवन सागर में .
ReplyDeleteजीवन-सन्देश !पांव से धरती मत खिसकने दो ..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ!
लहरों से बहुत सारा ज्ञान बटोर जा सकता है. कोई निर्जन समुद्र तट हो तो कैसा रहे!
ReplyDeleteलहरों के संग ये बाल मन की जिज्ञासाएं और ये अनुपम पल .. अनुपम ..आभार आपका ।
ReplyDeleteबाहर से देखते हैं तो समझेंगे आप क्या,
ReplyDeleteकितने ग़मों की भीड़ है इक आदमी के साथ!
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जाने क्यों इस बात से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ कि सागर से साक्षात्कार उसकी लहरों से ही होता है!! सागर सिर्फ लहरों का नाम नहीं, इसलिए लहरों को देखना कभी सागर को देखना नहीं हो सकता!!
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वैसे सागर की लहरों से खेलना और उसका वर्णन आपसे सुनना वाकई आनंददायक रहा!!
बढ़िया लुत्फ़ उठा रहे है आप !
ReplyDeleteबच्चों के साथ ..लहरों से खेलना ..कितना अच्छा लगता है..आपने खूब आनंद लिया ..और विचार श्रंखला भी लहराती रही ..उम्दा ..दार्शनिक मन कहा रुक सकेगा ...हां बच्चे बिना दार्शनिकता से प्रक्रति का खुली आँखों से आनंद लेते है... शुभकामनाएं
ReplyDeleteअहा हा हा... आनंद आ गया...
ReplyDeleteलहरों के बहाने बढ़िया दर्शन
ReplyDeleteसागर पर बन पडा दर्शन सुदर्शन, शानदार संस्मरण!!
ReplyDeleteलहरों के संग खेलना वाकई आंनददायी होता है....
ReplyDeleteबेहद गंभीर जीवन दर्शन्।
ReplyDeleteसच बहुत कुछ छुपा होता है इन सागर की लहरों में मुझे भी बहुत पसंद है यूं सागर किनारे लहरों को देखना और उन से खेलना भी....
ReplyDeleteसागर के किनारे बिताये क्षण का सुन्दर सजीव चित्रण कई मीठे - नमकीन स्मृतियों को जगा गया. लहरें क्यों उठती हैं - इसके विज्ञानं की झलक भी मिली मगर अब तक टीक से समझ नहीं पाया हूँ- कुछ करने का बहाना मिल गया- धन्यवाद. एक तीव्र ललक हो रही है बच्चों के साथ सागर तट पर जाने की.
ReplyDeleteसमंदर और लहरे जो न सोचने पर मजबूर कर दें थोडा है.मुझे तो बिटिया का दर्शन भाया हर ऊँची आती लहर के साथ भय का छूटना.पहले पहले कदम डगमगाते हैं फिर जमीन पर जम जाते हैं.
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी पोस्ट.
लहरें हमें समझाती हैं .. सफलता के तीन रहस्य हैं - योग्यता, साहस और कोशिश।
ReplyDeleteअभी आया हूँ आपकी पोस्ट्स पर... कई बार बहुत अफ़सोस होता है... कि काश वक़्त चौबीस घंटे से ज्यादा का होता.....
ReplyDeleteRefreshing post.........
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 16-02-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज...हम भी गुजरे जमाने हुये .
समु्द्र की लहरों पर लेखन। सुंदर।
ReplyDeleteमुंबई के वो पांच साल याद आ गये जब चौपाटी के पड़ोस में रहते थे और नित शाम सागर की अठखेलियाँ निहारते थे.
ReplyDeleteमैं तो समझता था कि लहरें, चन्द्रमा के गुरुत्वकर्षन और हवा के झोंकों के कारण बनती हैं।
ReplyDeletesagar ki lahren jivan ki vyakhya karti pratit hati haen sda ,sundar manohari varnan hae aapki post par. aabhar.
ReplyDeletelahre jab tufan banti tab khara dhati hai and jab dhere chalti tab sagar ki pehchaan ban jati hai, ye lines mene kisi ki poem mai padi thi, yaad agyi apka ye blog padke..
ReplyDeleteमुझे समंदर depressing लगता है...लहरें डरावनी..
ReplyDeleteमगर आपका लेखन बहुत भाया..
शुभकामनाएँ.
बहुत सुंदर प्रस्तुति,लहरों के बीच आपको देखकर उसका आनंद हमने भी लिया....
ReplyDeleteMY NEW POST ...कामयाबी...
वाह, बहुत सुंदर लिखा है.लहरें तो नित देखती हूँ, मैं भी गिनती हूँ, माँ यहाँ थीं तो पूछो क्या कर रही हो तो कहतीं कि लहरें गिन रही हूँ. किन्तु आपके भाव पढ़ आनन्द आ गया. देवला को भी तैरना सिखाइए.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
मुझे तो किशोर कुमार का गाया गाना याद आ गया "लहरों की तरह यादें ...."
ReplyDeleteलहरों का गणित भौतिकी और दर्शन सभी तो समझा दिया आपने .'क्रेस्ट 'और 'ट्राफ़'ही तो जीवन हैं जीवन रुपी परबत और घाटियाँ हैं .शिखर और पाताल हैं .
ReplyDeleteभीगी भीगी लहरों सी ठंडक देती पोस्ट ..आनन्द आ गया
ReplyDeleteसुंदर गद्य.
ReplyDeleteलहरें ही लहरें.
अभिनंदन.
सुन्दर! दर्शन? लहरों का अच्छा लगा।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
लेख नहीं पढ़ा सिर्फ फोटो देखता रहा ....
ReplyDeleteइसके साथ का एक एक क्षण दुर्लभ होता है...
इस पाँचवी लहर को समझना पूरे जीवन को जी लेने जैसा है ....
ReplyDeletelahro ke saath soch ......:) wah re khubsurat mishran:)
ReplyDeleteहर पांचवी लहर ऊँची आती है जो हमे गतिमान बनाकर हमें किसी और वर्तुल में डाल सकती है ।
ReplyDeleteमन में विचार घुमड़ने लगते हैं, लहरों से खेलना बिल्कुल जीवन जीने जैसा ही है, हर पाँचवी लहर ऊँची आती है, थोड़ा प्रयास कर लीजिये, लहर चली जायेगी, पैर पुनः जमीन पर।
ReplyDelete....बहुत गहन दर्शन...बहुत रोचक आलेख..
rochak aalekh padhkar acha lga
ReplyDelete.बहुत रोचक आलेख अभिनंदन.
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावपूर्ण लेख....आभार!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!
ReplyDeleteलहरों को देखते हुवे अक्सर मन बहुत दूर निकल जाता है लहरों से परे ... पर गतिमान अथक लहरें रूकती नहीं ...
ReplyDeleteगज़ब का समा बाँधा है ...
Lahro ki tarah saanse is dil se takrati hain ,
ReplyDeleteआपने तो लहरों को मोती बना दिया।
ReplyDeleteकल 28/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति में) लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
लहरों से खेलना बिल्कुल जीवन जीने जैसा ही है
ReplyDeleteइससे बेहतर क्या कहा जा सकता है। रोचक वर्णन। सागर जैसी गहराई।