अपने अनुशासन से बुरी तरह पीड़ित हो गया तो आवारगी का लबादा ओढ़ कर निकल भागा। कहाँ जायें, सड़कों पर यातायात बहुत है, एक दशक पहले बंगलुरु की जिन सड़कों पर बिना किसी प्रायोजन के ४-५ किमी टहलना हो जाया करता था, वही सड़कें आज धुँये की बहती धारा अपनी चौड़ाई में समेटे हुये हैं, रही सही कसर वाहनों के कर्कशीय कोलाहल ने व उनके उन्मत्त चालकों ने पूरी कर दी है। सड़कों पर निष्प्रायोजनीय भ्रमण एक रोमांचपूर्ण खेल खेलने जैसा है और उसके बाद सकुशल घर पहुँचना उस दिन की एक विशेष उपलब्धि।
सड़कों पर टहलने का विचार शीघ्र ही छोड़ मॉल में चला गया, न समर्थक के रूप में, न विरोधी के रूप में, बस एक दृष्टा के रूप में, दृष्टि बाहर नहीं, दृष्टि अन्दर भी नहीं, बस कहीं भी और हर जगह, आवारगी और वह भी विशुद्ध अपनी ही तरह की। मॉल को बहुत लोग विलासिता को प्रतीक मानते हैं, मैं नहीं मान पाता। जितनी बार भी जाता हूँ, तन से थका हुआ और मन से सजग हो वापस आता हूँ, विलासिता से बिल्कुल विपरीत। वातानुकूलित वातावरण में घन्टे भर टहलने भर से ही शरीर का समुचित व्यायाम हो जाता है। दृष्टि दौड़ाने पर दिखते हैं, उत्सुक और पीड़ित चेहरे, संतुष्ट और असंतुष्ट चेहरे, निर्भर करता है कि कौन खरीदने आया है और कौन खरीदवाने। थोड़ा सा ध्यान स्थिर रखिये किसी एक दिशा में, बस दस मिनट, किसी की निजता का हनन तो होगा पर लिखने के लिये न जाने कितने रोचक सूत्र मिल जायेंगे।
आगे बढ़ा, एक स्टोर में खड़ा सामान देख रहा था, वहाँ पर एक और व्यक्ति भी थे, लम्बी दाढ़ी, बाल घुँघराले और चेहरे पर आनन्द, ध्यान से देखते ही यह विश्वास हो गया कि ये सुकरात ही हैं। बड़े दार्शनिक थे, नये विचारों के प्रणेता, अपने समय में उपेक्षित, फिर भी अपना ज्ञान बाटते रहे, शासक वर्ग भी जितना झेल सकता था, झेलता रहा, पर जब पक गया तो जहर पिला कर जग से प्रयाण करने को कह दिया। बड़ा आश्चर्य हुआ उन्हें देखकर, सोचा कि दार्शनिकों के देश में भला सुकरात क्या ज्ञान बाटेंगे, जहाँ हर व्यक्ति दार्शनिक है वहाँ सुकरात को क्यों कोई सुनेगा? ईश्वर को यदि किसी को भेजना था तो निर्जीव देश में किसी साहस जगाने वाले को भेज देते।
बात बढ़ी तो उन्होने स्वयं ही बता दिया कि मॉल इत्यादि घूमना तो उनका बड़ा पुराना व्यसन रहा है, मुझे भी निशान्तजी और रवि रतलामीजी के लिखे लेख याद आ गये। सुकरात बोले, पहले तो मैं बस यही सोचकर प्रसन्न हो लेता था कि बिना इन सब सामानों के भी उनका जीवन कितनी प्रसन्नता से बीत रहा है। धीरे धीरे और बार बार वही प्रसन्नता अनुभव करने की आवश्यकता व्यसन बन गयी। पहले तो बाजार आदि छोटे छोटे होते थे, धूल और गन्दगी रहती थी, कई दुकानों में जाना पड़ता था, पास से देखने की स्वतन्त्रता भी नहीं थी, अब बड़ा अच्छा हो गया है, मॉल में ढेरों सामान भी रहता है, समय बड़े आराम से कट जाता है।
उनके आनन्द के सहभागी बनने का लोभ तो सदा ही था, मैं भी साथ हो लिया। उनके साथ मॉल का सामान देखने में उतना ही आनन्द आने लगा जितना उन्हें आया करता था। उनके लिये जो कारण होता था बाजार घूमने का, वही कारण लगभग मेरा भी आंशिक सत्य था, दार्शनिक भी, बौद्धिक भी। मैं और भी ध्यान से देखने लगा कि किन किन सामानों के न होने पर भी जीवन कितने आनन्द से बिताया जा सकता है, न जाने कितना ही सामान हमारी आवश्यकताओं की दृष्टि से व्यर्थ था। न जाने कितने ही सामानों से हमने अपनी माँग हटानी प्रारम्भ कर दी। माँग कम होने से मूल्य कम हो जाता है, इस तरह हमारे दो घंटे के भ्रमण ने न जाने कितने सामानों के मूल्य को कम कर दिया होगा। हर भ्रमण के साथ पूँजीवादी की हानि और शोषित वर्ग का लाभ। मॉल को समर्थक की दृष्टि से देखकर, उसके विरोधियों का ही हित करते थे सुकरात, हम दोनों बस वही करते रहे, आज मॉल में संग संग टहलते हुये।
आज किसी मँहगे सामान को अधिक देखकर उसके प्रति सुकरातीय निस्पृहीय निरादर का भाव तो नहीं जगा सका, पर अपने लिये आवश्यक न जान, उसके लिये चाह जगाते विज्ञापनीय सौन्दर्य से प्रभावित भी नहीं हुआ। आभूषणों की दुकानें भावनात्मक लूटशालायें लगने लगीं, सलाह, जब तक विवश न हों तब तक बचे रहना चाहिये। कपड़ों की दुकानें, जूतियों की कतारें, पर्स और न जाने क्या क्या? मन किया कि हर्षवर्धन बन वर्ष में एक बार एक मॉल खरीद गरीबों में बाट दूँ।
भारतीय नारी तो फिर भी सब देख समझ कर व्यय करती हैं श्रंगार पर, बस यही भाव बना रहे, सुकरात का साथ देने के लिये तो हम हैं ही। अब लगता है कि कितना अच्छा हुआ कि इमेल्दा मारकोस भारत में पैदा नहीं हुयीं, कहीं उनके ऊपर लिखा अध्याय हमारी भावी पत्नियों को पढ़ने को मिल जाता तब तो निश्चय ही मॉल देश के आधुनिक उपासनास्थल बन गये होते।
सड़कों पर टहलने का विचार शीघ्र ही छोड़ मॉल में चला गया, न समर्थक के रूप में, न विरोधी के रूप में, बस एक दृष्टा के रूप में, दृष्टि बाहर नहीं, दृष्टि अन्दर भी नहीं, बस कहीं भी और हर जगह, आवारगी और वह भी विशुद्ध अपनी ही तरह की। मॉल को बहुत लोग विलासिता को प्रतीक मानते हैं, मैं नहीं मान पाता। जितनी बार भी जाता हूँ, तन से थका हुआ और मन से सजग हो वापस आता हूँ, विलासिता से बिल्कुल विपरीत। वातानुकूलित वातावरण में घन्टे भर टहलने भर से ही शरीर का समुचित व्यायाम हो जाता है। दृष्टि दौड़ाने पर दिखते हैं, उत्सुक और पीड़ित चेहरे, संतुष्ट और असंतुष्ट चेहरे, निर्भर करता है कि कौन खरीदने आया है और कौन खरीदवाने। थोड़ा सा ध्यान स्थिर रखिये किसी एक दिशा में, बस दस मिनट, किसी की निजता का हनन तो होगा पर लिखने के लिये न जाने कितने रोचक सूत्र मिल जायेंगे।
बात बढ़ी तो उन्होने स्वयं ही बता दिया कि मॉल इत्यादि घूमना तो उनका बड़ा पुराना व्यसन रहा है, मुझे भी निशान्तजी और रवि रतलामीजी के लिखे लेख याद आ गये। सुकरात बोले, पहले तो मैं बस यही सोचकर प्रसन्न हो लेता था कि बिना इन सब सामानों के भी उनका जीवन कितनी प्रसन्नता से बीत रहा है। धीरे धीरे और बार बार वही प्रसन्नता अनुभव करने की आवश्यकता व्यसन बन गयी। पहले तो बाजार आदि छोटे छोटे होते थे, धूल और गन्दगी रहती थी, कई दुकानों में जाना पड़ता था, पास से देखने की स्वतन्त्रता भी नहीं थी, अब बड़ा अच्छा हो गया है, मॉल में ढेरों सामान भी रहता है, समय बड़े आराम से कट जाता है।
आज किसी मँहगे सामान को अधिक देखकर उसके प्रति सुकरातीय निस्पृहीय निरादर का भाव तो नहीं जगा सका, पर अपने लिये आवश्यक न जान, उसके लिये चाह जगाते विज्ञापनीय सौन्दर्य से प्रभावित भी नहीं हुआ। आभूषणों की दुकानें भावनात्मक लूटशालायें लगने लगीं, सलाह, जब तक विवश न हों तब तक बचे रहना चाहिये। कपड़ों की दुकानें, जूतियों की कतारें, पर्स और न जाने क्या क्या? मन किया कि हर्षवर्धन बन वर्ष में एक बार एक मॉल खरीद गरीबों में बाट दूँ।
भारतीय नारी तो फिर भी सब देख समझ कर व्यय करती हैं श्रंगार पर, बस यही भाव बना रहे, सुकरात का साथ देने के लिये तो हम हैं ही। अब लगता है कि कितना अच्छा हुआ कि इमेल्दा मारकोस भारत में पैदा नहीं हुयीं, कहीं उनके ऊपर लिखा अध्याय हमारी भावी पत्नियों को पढ़ने को मिल जाता तब तो निश्चय ही मॉल देश के आधुनिक उपासनास्थल बन गये होते।
भौतिकता ,बजारवाद ,मॉल संस्कृति और शहरों की आपाधापी का चित्रण करता उम्दा आलेख सर |
ReplyDelete...मैं तो अपने घर में माल के प्रति दीवानगी के लिए बदनाम हूँ.बिलकुल पास में बहुत बड़ा और प्रसिद्ध माल है .अक्सर वहां घूमना होता है.खरीदारी वैसे ही करते हैं, जैसे आप !
ReplyDeleteबिलकुल नई दुनिया में हम होते हैं वहां .हमें तो वहां जाकर सुकून ही मिलता है.ऐसी जगहें केवल खरीदारी के लिए नहीं होतीं.
:) पढ़ कर अनायास एक और प्रसंग याद आया...गौतम बुद्ध अगर आज के दौर में होते तो उन्हें निर्वाण की प्राप्ति किसी मॉल के पिलर के नीचे बैठ कर ही होती :) :)
ReplyDeleteआपका मॉल खरीद कर गरीबों में बाँट देने का विचार अति उत्तम है...बस थोड़ा पहले इन्फॉर्मेशन दे दीजिएगा...हम भी गरीबों की जमात लेकर पहुँच जाएँगे। :)
पोस्ट अच्छी लगी...हमेशा की तरह :)
उत्तम.
ReplyDeleteवैसे आप हर्षवर्धन बन कब बांटने वाले हैं? बता दीजियेगा :)
सड़कों पर टहलने का विचार शीघ्र ही छोड़ मॉल में चला गया, न समर्थक के रूप में, न विरोधी के रूप में, बस एक दृष्टा के रूप में, दृष्टि बाहर नहीं, दृष्टि अन्दर भी नहीं, बस कहीं भी और हर जगह, आवारगी और वह भी विशुद्ध अपनी ही तरह की।
ReplyDeleteबहुत गहन भाव लिए है आज आपका लेख |दृष्टा की तरह ही जीवन जीना चाहिए ..........एक एक पंक्ति कुछ गूढ़ अर्थ लिए है ...बादल की तरह आवारा थे हम ...या Wordsworth का vagabond cloud याद आ रहा है ...
''हमारी भावी पत्नियों'' अवाक् कर देने वाला है.
ReplyDeleteहमारी भावी पत्नियों का आशय केवल कुँवारों से ही निकाला जाये, उन्हीं के हिस्से यह झेलना शेष रहा है।
Deleteविचारों पर लदी सोलहों श्रृंगारीय भाषा.
ReplyDeleteमॉल से मिलती जुलती, सुकरातीय आनन्द को समझा सकने में सक्षम..
Deleteमॉल्स घूमने के लिये नहीं होते, हमारा मानना तो यही है। मॉल्स में जाकर बाजारवाद और एसी की हवा बहुत परेशान करती है, प्रकृति ज्यादा सुहाती है।
ReplyDeleteजब तक विवश न हों तब तक बचे रहना चाहिये।
ReplyDeleteइस मॉल संस्कृति में आभूषणों की ही नहीं, हर दुकान पर इसी सोच के साथ विचरण करना चाहिए ....
इन मॉल की महती भूमिका है मंहगाई को बढ़ाने में.
ReplyDeleteदृष्टि बाहर नहीं, दृष्टि अन्दर भी नहीं, बस कहीं भी और हर जगह, आवारगी और वह भी विशुद्ध अपनी ही तरह की।
ReplyDeleteगहन भाव लिए हुए ... ।
मॉल बाज़ार वादी जाल हैं... वहाँ फँसिए भी और खुशफहमी मे हँसिये भी...
ReplyDeleteविज्ञापन तंत्र हमें उच्च मूल्य अपनाने की प्रेरणा देता है :)
ReplyDeleteगहरी बातें! आवारगी अच्छी ...!!
ReplyDeleteआनदित हुए हम भी, सुकरात से मिलकर और जीवन का नव दर्शन प्राप्त कर!!
ReplyDeleteआज की पोस्ट वाह वाह
ReplyDelete@मन किया कि हर्षवर्धन बन वर्ष में एक बार एक मॉल खरीद गरीबों में बाट दूँ।
सही है बंधुवर हर्षवर्धन भी मात्र भारतवर्ष में जनम लेते हैं..
क्या सुन्दर वर्णन किया है आपने.. माँग कम होने से मूल्य कम हो जाता है, इस तरह हमारे दो घंटे के भ्रमण ने न जाने कितने सामानों के मूल्य को कम कर दिया होगा।. मजे की बात है की हम भी यही मूल्य कम करने का काम अक्सर करते हैं...
ReplyDeleteकछु कहत न आवै ।
ReplyDelete"ज्यों गूंगेहि मीठे गुड कौ रस अन्तरगत ही भावै "
Maza aa gaya aapka aaalekh padhke! Mujhe to aapkee bhasha shaili bahut impress kartee hai!
Deleteप्रयाग में माघ मेला चल रहा है प्रवीण जी . हर्ष का इंतजार है वहा . इमेल्दा मार्कोस फिलिपीन्स में प्रभावी है क्योंकि वहा सुकरात नहीं पाए जाते है .
ReplyDeletevaakai maal me jaakar sari udasi aur thakaan dono gayab ho jaati hain.bahut achcha varnan kiya hai laga ghar baithe hi maal ghoom aaye.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर,सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDeleteऋतुराज वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
हम भी बंगलौर के माल में जाते हैं लेकिन अपना क्रेटिडकार्ड घर पर रखकर। सच तो यह है कि घूमने और घूरने की जगह माल में ही बची है।
ReplyDeleteइन मॉलों में घूमने का सबसे बड़ा आनंद तो यह है कि कि बिना कुछ खरीदे घूम लो और निकल पडो। यह उस पंसारी की दुकान की तरह नहीं कि उसमें जाओ और बिना कुछ खरीदे निकलो तो सेठ घूर कर देखता है :)
ReplyDeleteसुकरात के संग मॉल में ... वाह
ReplyDeleteद्रष्टा की तरह माल जाना ... बाजारवाद की आधी सफलता हो गई की आप गए तो सही ...
ReplyDeleteबाकी आधी सफलता बाजारवाद अपने आप करवा लेगा ...
हाय! बंगलूर वालों को मॉल ही बचा 'दर्शन' के लिए!!
ReplyDelete.माल और म़ोल और मॉल का फर्क आप धीरे से समझा गए अर्थ शाश्त्र का पाठ भी पढवा गए .भारत को सुकरात की वाकई ज़रुरत नहीं है .टहल शालाएं हैं आधुनिक मॉल .एक रास्ता को तोड़ने का ज़रिया भी हैं मॉल .
ReplyDeleteसच में एक द्रष्टा के रूप में मॉल में जाना एक अच्छा अनुभव है, लेकिन अक्सर वहां से क्रेता बन कर निकलना पडता है..लाज़वाब शैली में बहुत रोचक आलेख..बसन्त पंचमी की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteसुकरात को तो जहर पिलाया गया था आज सब अपने हाथों पीते हैं.
ReplyDeleteजब मॉल खरीद कर बांटने की ठान लें, तो कृपया ब्लॉगर्स को जरूर इत्तेला कर दें। बेचारे कुछ जेन्यून गरीबों का भला हो जाएगा।
ReplyDeleteमॉल की एक चीज़ सबसे अच्छी लगती है कि हर तबके के लोग किसी भी शोरूम में जा सकते हैं...वरना सिंगल स्टोर्स में तो दरबान घुसने भी ना दे. एक बार लाइफस्टाइल में एक कामवाली के परिवार को घूमते देख बहुत अच्छा लगा था.
ReplyDeleteहर भ्रमण के साथ पूँजीवादी की हानि और शोषित वर्ग का लाभ। मॉल को समर्थक की दृष्टि से देखकर, उसके विरोधियों का ही हित करते थे सुकरात, हम दोनों बस वही करते रहे, आज मॉल में संग संग टहलते हुये।
ReplyDeleteसुकरात के साथ अच्छा समय बिताया .. इतने मॉल चल रहे हैं तो लोग खरीदते तो होंगे ही ..गरीबों की लाईन लंबी होती जा रही है ..
भारत में जहां अभी मॉल घूमने फिरने व कुछ लोगों के या कुछ ख़रीदने की जगह हैं वहीं कई दूसरे देशों में मॉल ठीक वैसे ही हैं जैसे हमारे यहां अभी गली-मुहल्ले के नुक्कड़ पर परचून की दुकान. कुछ समय है यहां भी वैसा ही होने में..
ReplyDeleteसुकरात के संग मॉल में अच्छा लगा..गहन सोच..वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
ReplyDeletebadhia post
ReplyDeleteaccha smay bita aapka sukratji ke saath
http://drivingwithpen.blogspot.com/
बसंत पंचमी की शुभकामनाएं....!
ReplyDeleteइन मालों में कम से कम अमीर गरीब का भेदभाव तो नहीं रहता.
ReplyDeleteआप खुशनसीब हैं कि मॉल में जाने का वक्त मिल जाता है।
ReplyDeleteसुकरात जी मिल गये, बधाई!
ReplyDeleteमाल संस्कृति के उपभोक्ता व्यवहार में पैराडायीम शिफ्ट यह है कि अब उपभोक्ता अपनी जरुरत के बजाय माल पहुँच कर आईटम प्रास्पेकटिंग करता है और तब उसके मुताबिक़ अपनी जरूरते तय करता और खरीदता है ..आपकी मनोदशा एक संक्राति की लगती है .....जो स्वाभाविक ही है ..अगली बार प्लेटो सुकरात सार्त्र वगैरह भी मिल जायं तो कोई आश्चर्य नहीं :)
ReplyDeleteआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति
ReplyDeleteआज चर्चा मंच पर देखी |
बहुत बहुत बधाई ||
dear friend today I feel there is a post to write something without formality,it is your undoubtedly.It is not valuable to find the Socrates,rather to live the SUKRAT is important.It seems a lot of scarcity to calculate the views.consumer to consumer and ultimate consumer is becoming are our fate .yet it is a question installed-why not we read the producer. A lot of vies are in air ,but breathable because they are suspended from benevolent. Appreciable bunch of commendable views.Thanks ,Mr panday ji .
ReplyDeleteमाल का भी अच्छा उपयोग हो रहा है .
ReplyDeleteमुझे कबीर दास जी की याद आ गई, वे तो बाज़ार में लाठी लेकर खड़े हो जाते थे चैलेंज देते हुये--'जो घर जारै आपुनो ,सो चलै हमारे साथ. '
हमें तो मॉल में कुछ भी खरीदने में आनन्द नहीं आता, जैसा एक आम दुकान पर आता है। दुकानदार दिखाता जाता है और हम ना नुकर करते जाते हैं। यह क्या, लगा हुआ है, देख लो और खरीद लो।
ReplyDeleteशासक वर्ग भी जितना झेल सकता था, झेलता रहा, पर जब पक गया तो जहर पिला कर जग से प्रयाण करने को कह दिया
ReplyDeleteशासक सुकरात रीत चली आई......
ब्लॉग बुलेटिन पर की है मैंने अपनी पहली ब्लॉग चर्चा, इसमें आपकी पोस्ट भी सम्मिलित की गई है. आपसे मेरे इस पहले प्रयास की समीक्षा का अनुरोध है.
ReplyDeleteस्वास्थ्य पर आधारित मेरा पहला ब्लॉग बुलेटिन - शाहनवाज़
आवश्यकताऍं जितनीं कम, सुख और आनन्द उतना ही अधिक। यह अनुभव मेरा भी है।
ReplyDeleteभाई समय कम है, तो आपके लिए माल बहुत जरूरी है।
ReplyDeleteवैसे तो हम घरेलू सामान की खरीददारी भी grahak.com पर
online करते हैं।
अच्छा विश्लेषण...
हर चेज़ के अपने फायदे और नुकसान हुआ करते हैं माल के भी है।
ReplyDeleteबहोत अच्छे ।
ReplyDeleteनया ब्लॉग
http://hindidunia.wordpress.com/
ऊँची दूकान महंगा पकवान,सुंदर प्रस्तुति,
ReplyDeletewelcome to new post ...काव्यान्जलि....
इतनी व्यस्तता के बावजूद मॉल में घूमने के लिए समय निकाल लेना बड़ी बात है.
ReplyDeleteवाह क्या बात है!
ReplyDeleteसुकरात औप मॉल!
आजकल तो छोटे शहरों में भी बेंगलुरु बू आरही है .हवा गंधा रही है ,विदेशी स्टोर्स साजोसामान और सुकरातों की
ReplyDeleteभरमार है .
हर्ष वर्धन को फिर एक वाणभट्ट कि आवश्यकता भी पड़ेगी जीवनी लिखने के लिए या स्वयं ही बन जाओगे वाण भट्ट .
ReplyDeleteदुनियाँ में हूं, दुनियां का तलबगार नहीं हूं। बाजार से गुजरा हूं, खरीददार नहीं हूं!
ReplyDeleteप्रासंगिक लेख, बधाई
ReplyDeleteसमर्थन और स्नेहाशीष प्रदान करने का आभारी हूँ.
ReplyDeleteसार्थक और सामयिक प्रस्तुति, आभार.
बिना इन सब सामानों के भी उनका जीवन कितनी प्रसन्नता से बीत रहा है। !!! मै तो आप की आभारी हूँ प्रवीन जी आपने यह याद दिलाया की कितनी व्यर्थ की चीजे भर गयी हैं हमारे भीतर और बाहर ! ताज्जुब हम अपने को भूल गये हैं !
ReplyDeleteइसीलिए कहा गया है, द्रष्टा बने ,द्रश्य नहीं |
ReplyDeleteअपन तो पक्के अवारा हैं....ऐसी अवारगी में जाने कौन कौन टकरा जाता है ..पर सुकरात से टकराना न हुआ..हां परिचय तो कहीं हुआ था..पर मॉल में नहीं टकराए...क्योकि मेरा तो मॉल के बिना भी मस्त अवारापन चालू रहता है सो अपन तो प्रस्न्न हैं ...
ReplyDeleteसुकरात का साथ देने के लिये तो हम हैं ही। :) हा हा!! हम भी!!
ReplyDeleteरोचक आवरगी है !
ReplyDeleteअपन को भी विंडो शॉपिंग ही भाती है...
ReplyDeleteअब तो हम मॉल देख-देखकर थक गए हैं | अब केवल खिड़की-बाजारी करते हैं या फिर किसी से मिलने चले जाते हैं..
ReplyDeleteवैसे भी सब माया ही लगता है.. जब तक बचे हैं, बचे हैं :)
बढ़िया! :)
ReplyDeleteआपकी ये रचना कल चर्चा में चर्चामंच पे रहेगी !
ReplyDeleteसादर
कमल