खुले बन्द वातायन, मन के भाव विचरना चाहें अब,
कुछ अध्याय मेरे जीवन के पुनः सँवरना चाहें अब।
लगता है वो सच था, जिसमें मन की हिम्मत जुटी नहीं,
और अनेकों रिक्त ऋचायें मन के द्वार अबाध बहीं।
नहीं व्यक्तिगत क्षोभ तनिक यदि झुठलाना इतिहास पड़े,
आगत के द्वारे निष्प्रभ हो, विगत विकट उपहास उड़े।
मैं आत्मा-आवेग, छोड़कर बढ़ जाऊँगा क्षुब्ध समर,
आत्म-जनित तम त्याग, प्रभा के बिन्दु बने मेरा अवसर।
राह हटें तो होती पीड़ा मन की, हानि समय श्रम की,
श्रेयस्कर फिर भी है यदि जीवन ने राह नहीं भटकी।
एक जन्म था हुआ, बढ़ा यह तन, जीवन भी चढ़ आया,
मन के जन्म अनेकों देखे, छोड़ विगत नव अपनाया।
है विचार संवाद सतत तो मोह लिये किसका बैठें,
तज डाले सब त्याज्य, हृदय को बँधने को कैसे कह दें।
कर प्रयत्न भूले पहले भी कर्कश स्वर के राग कई,
पर अब मन-उद्वेग उठा है जी लेने एक प्रात नयी।
कुछ अध्याय मेरे जीवन के पुनः सँवरना चाहें अब।
लगता है वो सच था, जिसमें मन की हिम्मत जुटी नहीं,
और अनेकों रिक्त ऋचायें मन के द्वार अबाध बहीं।
नहीं व्यक्तिगत क्षोभ तनिक यदि झुठलाना इतिहास पड़े,
आगत के द्वारे निष्प्रभ हो, विगत विकट उपहास उड़े।
मैं आत्मा-आवेग, छोड़कर बढ़ जाऊँगा क्षुब्ध समर,
आत्म-जनित तम त्याग, प्रभा के बिन्दु बने मेरा अवसर।
राह हटें तो होती पीड़ा मन की, हानि समय श्रम की,
श्रेयस्कर फिर भी है यदि जीवन ने राह नहीं भटकी।
एक जन्म था हुआ, बढ़ा यह तन, जीवन भी चढ़ आया,
मन के जन्म अनेकों देखे, छोड़ विगत नव अपनाया।
है विचार संवाद सतत तो मोह लिये किसका बैठें,
तज डाले सब त्याज्य, हृदय को बँधने को कैसे कह दें।
कर प्रयत्न भूले पहले भी कर्कश स्वर के राग कई,
पर अब मन-उद्वेग उठा है जी लेने एक प्रात नयी।
अपने को बार-बार घोखना और चमकाना ज़रूरी है .विगत से सबक लेते हुए आगत की तैयारी में लगे रहना चाहिए !
ReplyDeleteबहुत ही उत्कृष्ट काव्यात्मक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteएक जन्म था हुआ, बढ़ा यह तन, जीवन भी चढ़ आया,
ReplyDeleteमन के जन्म अनेकों देखे, छोड़ विगत नव अपनाया।
जीवन के विविध भाव समेटे यह रचना .
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteअपने अध्याय के पन्ने हम तक पहुँचाने के लिए आभार!
--
गणतन्त्रदिवस की पूर्ववेला पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
अब मन-उद्वेग उठा है जी लेने एक प्रात नयी।.....शुभकामनाएं!
ReplyDeleteराह हटें तो होती पीड़ा मन की, हानि समय श्रम की,
ReplyDeleteश्रेयस्कर फिर भी है यदि जीवन ने राह नहीं भटकी।
यह सोच ही शक्ति बनी रहती है .... जीवन का ध्येय न छूटे बस....
लगता है वो सच था, जिसमें मन की हिम्मत जुटी नहीं,
ReplyDeleteऔर अनेकों रिक्त ऋचायें मन के द्वार अबाध बहीं।
वाह प्रवीण जी, तराशे हुए शब्दों के रत्न टाँक दिये रेशमी भाव चुनरिया पर
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ... करनी है कुछ शुरुआत नई
ReplyDeleteati sumdar..
ReplyDeleteह्रदय के भाव ज्यादा मुखरित होते हैं सुन्दर काव्य में..अच्छी लगी..
ReplyDeleteबढिया है।
ReplyDelete@है विचार संवाद सतत तो मोह लिये किसका बैठें,
ReplyDeleteतज डाले सब त्याज्य, हृदय को बँधने को कैसे कह दें।
कर प्रयत्न भूले पहले भी कर्कश स्वर के राग कई,
पर अब मन-उद्वेग उठा है जी लेने एक प्रात नयी।
सुन्दर, प्रेरक!
है विचार संवाद सतत तो मोह लिये किसका बैठें,
ReplyDeleteतज डाले सब त्याज्य, हृदय को बँधने को कैसे कह दें।
कर प्रयत्न भूले पहले भी कर्कश स्वर के राग कई,
पर अब मन-उद्वेग उठा है जी लेने एक प्रात नयी।
sundar bhav aur sundar akanksha liye huye panktiyan prernadayee lagi...bilkul utkrsht rchana....Gantantr diwas tatha sundar rachana ke liye badhai sweekaren Praveen ji.
खुले बन्द वातायन, मन के भाव विचरना चाहें अब,
ReplyDeleteकुछ अध्याय मेरे जीवन के पुनः सँवरना चाहें अब।
बहुत सुंदर भाव और उससे भी सुंदर भाषा...आपके गद्य से ज्यादा निष्ठ है पद्य की भाषा, आभार!
लगता है वो सच था, जिसमें मन की हिम्मत जुटी नहीं,
ReplyDeleteऔर अनेकों रिक्त ऋचायें मन के द्वार अबाध बहीं।
मैं आत्मा-आवेग, छोड़कर बढ़ जाऊँगा क्षुब्ध समर,
आत्म-जनित तम त्याग, प्रभा के बिन्दु बने मेरा अवसर।
मन-उद्वेग छिटक आया !
बेहतरीन भाव संयोजन ।
ReplyDeleteबेहतरीन भाव संयोजन ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया कविता... जीवन के अध्याय यदि पुनः सवर सकते तो क्या कहना था... सुन्दर कविता...
ReplyDeleteBahut badhiya rachana!
DeleteGantantr Diwas mubarak ho!
एक जन्म था हुआ, बढ़ा यह तन, जीवन भी चढ़ आया,
ReplyDeleteमन के जन्म अनेकों देखे, छोड़ विगत नव अपनाया।
वाह ... मन तो हमेशा ही मौजी होता है .... हर नया अपनाने को उत्सुक ...
बहुत सुन्दर काव्य ...
सुन्दर रचना.
ReplyDeleteएक जन्म था हुआ, बढ़ा यह तन, जीवन भी चढ़ आया,
ReplyDeleteमन के जन्म अनेकों देखे, छोड़ विगत नव अपनाया।
bahut sundar utkrasht rachna sabhi panktiyan shandar hain.gantantradivas ki badhaai.
वाह ...आपकी तो भाषा ही पढकर मन खुश हो जाता है.
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव.... खुद को भी मांजना चमकाना पड़ता है.
ReplyDeleteऊर्जा से ओत प्रोत प्रेरक अतिसुन्दर रचना...
ReplyDeleteयह जीवन दृष्टि बन जाए तो फिर जन्म संवर जाए...
लगता है करवट बदलें। कुछ नया हो। ...
ReplyDeleteमन की ऋचाओं को बड़े सुंदर ढंग से इन दोहों में समेटा है।
ReplyDeleteकर प्रयत्न भूले पहले भी कर्कश स्वर के राग कई,
ReplyDeleteपर अब मन-उद्वेग उठा है जी लेने एक प्रात नयी।
बहुत गहन भाव ....बहुत सकारात्मक भी .....नई भोर सी ...ऊष्मा देती सुंदर रचना ...
काव्य की संख्या बढ़नी चाहिए ....शुभकामनायें...
कुछ अध्याय मेरे जीवन के पुनः सँवरना चाहें अब।
ReplyDeleteसार समाहित जीवन का, आपकी रचना बेहद गहन।
sundar rachna
ReplyDelete"पर अब मन-उद्वेग उठा है जी लेने एक प्रात नयी।"
ReplyDeleteबहुत खूब...!
मन के भावों को ऐसे अनूठे बेजोड़ शब्दों में व्यक्त करना सिर्फ और सिर्फ आपके बस की ही बात है...बधाई स्वीकारें...
ReplyDeleteनीरज
एक जन्म था हुआ, बढ़ा यह तन, जीवन भी चढ़ आया,
ReplyDeleteमन के जन्म अनेकों देखे, छोड़ विगत नव अपनाया।
- नया प्रात जीने के लिये बहुत सही उपक्रम है !
एक जन्म था हुआ, बढ़ा यह तन, जीवन भी चढ़ आया,
ReplyDeleteमन के जन्म अनेकों देखे, छोड़ विगत नव अपनाया।
यतहर्थ को दर्शाता बहतरीन भाव संयोजन... http://aapki-pasand.blogspot.com/
बहुत सुंदर भाव....
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावमयी कविता।
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावमयी कविता।
ReplyDeletesundar......kavyatmak abhivyakti ......
ReplyDeleteमैं आत्मा-आवेग, छोड़कर बढ़ जाऊँगा क्षुब्ध समर,
ReplyDeleteआत्म-जनित तम त्याग, प्रभा के बिन्दु बने मेरा अवसर।
है विचार संवाद सतत तो मोह लिये किसका बैठें,
तज डाले सब त्याज्य, हृदय को बँधने को कैसे कह दें।
भाव और भाषा दोनों ही उत्कृष्ट ..बहुत सकारात्मक उर्जा देने वाली रचना
पर अब मन-उद्वेग उठा है जी लेने एक प्रात नयी...
ReplyDeleteहर एक दिन नयी सुबह ही तो लेकर आती है ....
सकरात्मक सोच की उत्कृष्ट कविता !
आनंद ही आनंद. समय का चक्र कभी उल्टा चल पाता तो.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना। बधाई।
ReplyDeleteउच्च कोटि के भाव ,उच्च कोटि की भाषा |
ReplyDeleteमैं आत्मा-आवेग, छोड़कर बढ़ जाऊँगा क्षुब्ध समर,
ReplyDeleteआत्म-जनित तम त्याग, प्रभा के बिन्दु बने मेरा अवसर।
सार्थक ,सुन्दर भाव लिये बेहतरीन रचना
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें
vikram7: कैसा,यह गणतंत्र हमारा.........
स्पंदित करता उर्जा का प्रवाह . उत्कृष्ट
ReplyDeleteबेहतरीन रचना...गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामना !
ReplyDeleteआपके इस साहस पर मेरी हार्दिक शुभकामनाएं आपके साथ हैं.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteहिंदी दुनिया
बहुत सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति|
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें|
उत्तम भाव प्रेरणादायक.......
ReplyDeleteकृपया इसे भी पढ़े-
क्या यही गणतंत्र है
उत्साह से लबरेज...
ReplyDeleteगहरे भाव....
सुंदर प्रस्तुति।
गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं....
जय हिंद... वंदे मातरम्।
प्रशंसनीय बहुत बढ़िया कविता परवीन जी
ReplyDelete****************************
गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं
नहीं व्यक्तिगत क्षोभ तनिक यदि झुठलाना इतिहास पड़े,
ReplyDeleteआगत के द्वारे निष्प्रभ हो, विगत विकट उपहास उड़े।
गजब का शब्द बन्धन!!
है विचार संवाद सतत तो मोह लिये किसका बैठें,
ReplyDeleteतज डाले सब त्याज्य, हृदय को बँधने को कैसे कह दें।
sundar jiwan darshan .man ko tarangit karanewali.
नई प्रात का नया सवेरा कर्कश स्वर मीठा कर दे,
ReplyDeleteउद्वेलित मन हो शांत और जीवन में नवरस भर दे..
चमकदार अध्याय हैं जी! बधाई!
ReplyDeleteकभी अपनी आवाज भी सुना दो भाई किसी गीत पर...बहुत दिन हुए. :) बेहतरीन अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteएक जन्म था हुआ, बढ़ा यह तन, जीवन भी चढ़ आया,
ReplyDeleteमन के जन्म अनेकों देखे, छोड़ विगत नव अपनाया।
खूबसूरत रचना मन को आगे और आगे ठेलती ऊर्ध्व दिशा देती विचारों को भावों को .
कर प्रयत्न भूले पहले भी कर्कश स्वर के राग कई,
ReplyDeleteपर अब मन-उद्वेग उठा है जी लेने एक प्रात नयी।
बहुत खूब। न दैन्यं, न पलायनम् को व्यक्त करते आपके ये काव्योद्गगार
आपके दिल का आईना हैं।
हम तो इतना ही कहेंगे कि आमीन....
शुभकामनाएं ||
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर बंद सकारात्मकता को लगे हैं छंद ,मुस्काये मन मंद मंद ...
ReplyDeleteहै विचार संवाद सतत तो मोह लिये किसका बैठें,
तज डाले सब त्याज्य, हृदय को बँधने को कैसे कह दें।
कर प्रयत्न भूले पहले भी कर्कश स्वर के राग कई,
पर अब मन-उद्वेग उठा है जी लेने एक प्रात नयी।
bahut hi rochak post hai padh kar khushi huee
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर शब्द और खूबसूरत भावों से सजी सकारात्मक रचना |
ReplyDeleteगहन जीवन दर्शन से ओतप्रोत कविता.एक द्रष्टा का भाव.हर पंक्ति जीवन को परिभाषित करती हुई.
ReplyDeleteऐसी शब्दावली और ऐसे छन्द प्रयोग अब अपवादस्वरूप ही देखने/पढने को मिलते हें।
ReplyDeleteआज 05/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (सुनीता शानू जी की प्रस्तुति में) लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
एक जन्म था हुआ, बढ़ा यह तन, जीवन भी चढ़ आया,
ReplyDeleteमन के जन्म अनेकों देखे, छोड़ विगत नव अपनाया।
बहुत खूब..
गहन अभिव्यक्ति
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