ठंड और धुंध ने पूरा कब्जा जमाया हुआ है, हवाई जहाज को सूझता नहीं कि कहाँ उतरें, ट्रेनों को अपने सिग्नल उसके नीचे ही आकर दिखते हैं, कार ट्रक के नीचे घुस जाती है, लोग कुछ बोलते हैं तो मुँह से धुँआ धौंकने लगता है। सारा देश रेंग रहा है, कुछ वैसा ही जैसा भ्रष्टाचार ने बना रखा है, लोगों की वेदना है कि कहीं कोई कार्य होता ही नहीं है।
मेरे कई परिचित इस धुंधीय सिद्धान्त को नहीं मानते हैं, वे आइंस्टीन के उपासक हैं, ऊर्जा और भार के सम्बन्ध वाले सिद्धान्त के। उनका कहना है कि जितनी गति से कार्य अपने देश में होता है उतनी गति से कहीं हो ही नहीं सकता है, प्रकाश की गति से, उस गति में धन और ऊर्जा में कोई भेद नहीं, कभी धन ही ऊर्जा हो जाती है, कभी ऊर्जा धन बन जाता है, उस गति में दोनों ही अपना स्वरूप खोकर आइंस्टीन के प्रसिद्ध सूत्र (E=mc²) को सामाजिक जीवन में सिद्ध करने में लग जाते हैं। किसी कार्य के लिये धन लेने के बाद गजब की गुणवत्ता और तीव्रता आ जाती है उस कार्य में, कार्य धार्मिक आस्था से भी गहरे भावों से निपटाये जाने लगते हैं, नियम आदि के द्वन्द्व से परे।
विशेष सिद्धान्त विशेषों के लिये ही होते हैं, आमजन तो अपने लिये सूर्य की सार्वजनिक ऊष्मा पर ही निर्भर हैं। उनके लिये तो उपाय कतार में खड़े अन्तिम व्यक्ति तक पहुँचने चाहिये, जैसा गांधी बाबा ने चाहा। यही कारण रहा होगा कि लोकपाल के विषय ने देश की आशाओं में थोड़ी गर्माहट भर दी, लगने लगा काश देश की भी मकर संक्रान्ति आ जाये, देश का भविष्य-सूर्य उत्तर-पथ-गामी हो जाये। कई महानुभाव जो बंदर-टोपी चढ़ाये इस ठंड और धुंध का आनन्द ले रहे हैं, उन्हें संभवतः यह संक्रान्ति स्वीकार न थी, लोकपाल तुड़ा-मुड़ा, फटा हुआ, महासदन के मध्य, त्यक्त पड़ा पाया गया।
अब लगे हाथों चुनाव भी आ गया। जब भी चुनाव आता है, लगता है कि कतार में खड़े अन्तिम व्यक्ति को अपनी बात कहने का अधिकार मिलेगा। जिस स्वप्न को उसने पिछले पाँच वर्षों तक धूल धूसरित होते देखा था, उसे पुनः संजोने का समय आ गया है, किसी नये प्रतिनिधि के माध्यम से, स्वच्छ छवि और कर्मठमना प्रतिनिधि के माध्यम से। सत्ता के आसमान और जनता की धरा के मिलन की आशाओं का क्षितिज पाँच वर्ष में एक बार ही आता है, उत्सव मने या कर्तव्य निभाया जाये, सबको यही निश्चित करना होता है।
पता नहीं क्यों इस परिप्रेक्ष्य में एक सच घटना याद आ रही है।
एक अधिकारी निरीक्षण पर थे, स्थानीय पर्यवेक्षक कार्य में बड़ा कुशल था पर उसके विरुद्ध स्थानीय कर्मचारियों ने आकर अधिकारी को बताया कि वह हर कार्य कराने का पैसा लेता है। यद्यपि प्रशासन को उस पर्यवेक्षक से तनिक भी शिकायत न थी, उसके पर्यवेक्षण में सारे प्रशासनिक कार्य अत्यन्त सुचारु रूप से चल रहे थे, फिर भी अधिकारी ने उसे स्थान्तरित करने का मन बना लिया। बस कर्मचारियों से कहा गया कि वही शिकायत लिखित में दे दें। जब बहुत दिनों तक कोई पत्र न आया तो एक कर्मचारी को बुला इस उदासीनता का कारण पूछा गया। जो उत्तर मिला, वही संभवतः हमारा सामाजिक सत्य बन चुका है।
कर्मचारी ने कहा कि साहब यद्यपि शिकायत हमने ही की थी, बस आप उसे समझा दीजिये पर उसे हटाईये मत। वह पर्यवेक्षक थोड़ा भ्रष्ट अवश्य है पर हमसे अत्यन्त अपनत्व रखता है, छोटे बड़े सारे कार्य दौड़ धूप कर करवाता है, दिन रात नहीं देखता, सबका बराबर से ध्यान रखता है....साहब, वह हमारा अपना ही है....
पता नहीं भविष्य किस ओर दिशा बदलेगा, किसी का कोई अपना जीतेगा या भविष्य का सपना जीतेगा, अपनत्व के विस्तृत जाल बुने जा रहे हैं। पता नहीं क्यों मन खटक सा रहा है, कहीं उपरिलिखित घटना सच न हो जाये, कहीं अपनत्व न जीत जाये, कहीं आदर्शों को अगले ५ वर्ष पुनः प्रतीक्षा न करनी पड़ जाये, समझाने भर के चक्कर में एक और अवसर न खो जाये।
मेरे कई परिचित इस धुंधीय सिद्धान्त को नहीं मानते हैं, वे आइंस्टीन के उपासक हैं, ऊर्जा और भार के सम्बन्ध वाले सिद्धान्त के। उनका कहना है कि जितनी गति से कार्य अपने देश में होता है उतनी गति से कहीं हो ही नहीं सकता है, प्रकाश की गति से, उस गति में धन और ऊर्जा में कोई भेद नहीं, कभी धन ही ऊर्जा हो जाती है, कभी ऊर्जा धन बन जाता है, उस गति में दोनों ही अपना स्वरूप खोकर आइंस्टीन के प्रसिद्ध सूत्र (E=mc²) को सामाजिक जीवन में सिद्ध करने में लग जाते हैं। किसी कार्य के लिये धन लेने के बाद गजब की गुणवत्ता और तीव्रता आ जाती है उस कार्य में, कार्य धार्मिक आस्था से भी गहरे भावों से निपटाये जाने लगते हैं, नियम आदि के द्वन्द्व से परे।
विशेष सिद्धान्त विशेषों के लिये ही होते हैं, आमजन तो अपने लिये सूर्य की सार्वजनिक ऊष्मा पर ही निर्भर हैं। उनके लिये तो उपाय कतार में खड़े अन्तिम व्यक्ति तक पहुँचने चाहिये, जैसा गांधी बाबा ने चाहा। यही कारण रहा होगा कि लोकपाल के विषय ने देश की आशाओं में थोड़ी गर्माहट भर दी, लगने लगा काश देश की भी मकर संक्रान्ति आ जाये, देश का भविष्य-सूर्य उत्तर-पथ-गामी हो जाये। कई महानुभाव जो बंदर-टोपी चढ़ाये इस ठंड और धुंध का आनन्द ले रहे हैं, उन्हें संभवतः यह संक्रान्ति स्वीकार न थी, लोकपाल तुड़ा-मुड़ा, फटा हुआ, महासदन के मध्य, त्यक्त पड़ा पाया गया।
अब लगे हाथों चुनाव भी आ गया। जब भी चुनाव आता है, लगता है कि कतार में खड़े अन्तिम व्यक्ति को अपनी बात कहने का अधिकार मिलेगा। जिस स्वप्न को उसने पिछले पाँच वर्षों तक धूल धूसरित होते देखा था, उसे पुनः संजोने का समय आ गया है, किसी नये प्रतिनिधि के माध्यम से, स्वच्छ छवि और कर्मठमना प्रतिनिधि के माध्यम से। सत्ता के आसमान और जनता की धरा के मिलन की आशाओं का क्षितिज पाँच वर्ष में एक बार ही आता है, उत्सव मने या कर्तव्य निभाया जाये, सबको यही निश्चित करना होता है।
पता नहीं क्यों इस परिप्रेक्ष्य में एक सच घटना याद आ रही है।
एक अधिकारी निरीक्षण पर थे, स्थानीय पर्यवेक्षक कार्य में बड़ा कुशल था पर उसके विरुद्ध स्थानीय कर्मचारियों ने आकर अधिकारी को बताया कि वह हर कार्य कराने का पैसा लेता है। यद्यपि प्रशासन को उस पर्यवेक्षक से तनिक भी शिकायत न थी, उसके पर्यवेक्षण में सारे प्रशासनिक कार्य अत्यन्त सुचारु रूप से चल रहे थे, फिर भी अधिकारी ने उसे स्थान्तरित करने का मन बना लिया। बस कर्मचारियों से कहा गया कि वही शिकायत लिखित में दे दें। जब बहुत दिनों तक कोई पत्र न आया तो एक कर्मचारी को बुला इस उदासीनता का कारण पूछा गया। जो उत्तर मिला, वही संभवतः हमारा सामाजिक सत्य बन चुका है।
पता नहीं भविष्य किस ओर दिशा बदलेगा, किसी का कोई अपना जीतेगा या भविष्य का सपना जीतेगा, अपनत्व के विस्तृत जाल बुने जा रहे हैं। पता नहीं क्यों मन खटक सा रहा है, कहीं उपरिलिखित घटना सच न हो जाये, कहीं अपनत्व न जीत जाये, कहीं आदर्शों को अगले ५ वर्ष पुनः प्रतीक्षा न करनी पड़ जाये, समझाने भर के चक्कर में एक और अवसर न खो जाये।
@भ्रष्ट अवश्य है पर हमसे अत्यन्त अपनत्व रखता है, छोटे बड़े सारे कार्य दौड़ धूप कर करवाता है
ReplyDeleteसच है, अपने पराये से ऊपर उठे बिना कुछ कैसे बदलेगा?
सच है, अपने पराये से ऊपर उठे बिना कैसे कुछ बदलेगा?
ReplyDeleteगन्दा है,पर धंधा है !
ReplyDeleteभ्रष्टाचार अपनी जगह और रिश्तेदारी हर कहीं बना लेता है !
आलेख में सही चित्रण किया है आपने मौसम का।
ReplyDeleteचर्चा मंच में भी लगा दिया है इस लिंक को!
समझाने के लिए सच में पहले ही बरसों खो चुके हैं ....... एक नागरिक के तौर पर हम सबकी जिम्मेदारी भरी सोच इस अपनत्व से ऊपर उठनी चाहिए .... तभी शायद कुछ बदले .....
ReplyDeleteभ्रष्टाचार के विरोध में आक्रोश घमासान बरस रहा है ....प्रवीन जी बढ़िया आलेख है ....कृपया नयी-पुरानी हलचल पर पधारियेगा अपने विचार दीजियेगा ...!!
ReplyDeleteआभार.
यह उहापोह तो सचमुच निराकरण की राह नहीं पा रहा
ReplyDeleteसमझौतावादी दृष्टिकोण ही सब के मूल में है..
ReplyDeleteयहीं तो मार खा गया हिन्दुस्तान, बाही-बड़ी के चक्कर में , वोट का मतलब नहीं समझे तो आइन्स्टाइन को समझना तो दूर की कौड़ी है !`
ReplyDeleteबहुत बढ़िया , विचारणीय.....
ReplyDeleteशायद इसी भ्रम, उहापोह के बीच कहीं होता है जीवन का सौंदर्य.
ReplyDeleteह्म्म, जब मौसम ही बेईमान हो तो क्या करियेगा....
ReplyDelete"भ्रष्ट है लेकिन अपना है".... वाकई विचारणीय़ और सार्थक लेख...
वाकई समस्याओं के प्रति हम उदासीन होते जा रहे हैं ....
ReplyDeleteआभार याद दिलाने को !
"किसी का कोई अपना जीतेगा या भविष्य का सपना जीतेगा" ? बहुत सुन्दर.
ReplyDeleteटेढ़ी दुम से उम्मीद पालना ..बढ़िया है..
ReplyDeleteअपनेपन का ही जोड़ घटाव है
ReplyDeleteलगने लगा काश देश की भी मकर संक्रान्ति आ जाये, देश का भविष्य-सूर्य उत्तर-पथ-गामी हो जाये।
ReplyDeleteबस हम यही सोचते हैं की सब कुछ अपने आप हो जाये ..
सही गलत का विचार ही अपनेपन से ऊपर उठाएगा ..सार्थक लेख
जानते हुए भी अनजान बने रहना-स्पष्ट कहने की आदत जो नहीं !
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक बात कही है आपने इस आलेख में आभार ।
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक बात,विचारणीय़ , प्रवीन जी बढ़िया आलेख,
ReplyDeleteसच है, अपने पराये से ऊपर उठना पड़ेगा तभी कुछ उम्मीद कर सकते हैं ......
ReplyDeleteShuruat kaun kare, apne apne matlab se jinda hai sabhi,
Deleteसार्थक और विचारणीय़ आलेख..
ReplyDeleteसही समय पर सही चित्रण। हमें इस सोच को बदलना होगा। धन्यवाद।
ReplyDeleteभ्रष्ट है लेकिन अपना है ......वाकेही ये ही हो रहा है आज कल , समाज को आइना दिखाती पोस्ट ...बधाई........
ReplyDeleteयही तो रोना है सब तो अपने ही हैं। इसीलिए सपने कभी अपने नहीं हो पाते।
ReplyDeletehmmmm.............
ReplyDeleteभ्रष्ट है, पर अपना है
ReplyDeleteसबका यही कहना है,विचारणीय...
saamaajik kaamkaaji aur daftari parivesh par achchhi tippani .
ReplyDeleteनिवेदिता जी की बात से सहमत हूँ इस अपने पराये से उठकर ही कुछ किया जाये तभी सही मायने में अपने-अपने बन पायेंगे॥ विचारणीय आलेख
ReplyDeleteसब कुछ बहुत देखा है। 32 साल की वकालत में कभी रिश्वत का सहारा न लिया।
ReplyDeleteयथार्थ परक रचना |बहुत अच्छा लेख |
ReplyDeleteआशा
विशेष सिद्धान्त विशेषों के लिये ही होते हैं...सही कहा ,आपने.
ReplyDeletesartak ,vicharniya lekh...........bahut sunder
ReplyDeleteअपनो की तलाश इसीलिए होती है कि सपने भी हम अपने लिए देखते हैं। सपने जब राष्ट्रवादी हो जांय तो बात बने।
ReplyDeleteहम्म ...विचारणीय..
ReplyDeleteकाश कि थोड़ा यहाँ गीताजी का सिद्धांत लगा लेते ये लोग "कोई अपना नहीं है, अत: किसी से प्रेम करना है तो वो हैं कृष्ण"
ReplyDeletebhrashtachar aj ki samay me sabase badi samsya hai Praveen ji ......apka lekh samyik aur behad prabhavshali hai ....bilkul prernatmak .....badhai sweekaren.
ReplyDeletesardi ka bahut he accha description diya hai aapne! wakayee.. main yahn mumbai main sardi ko bht miss kar rhe hu
ReplyDeleteहर चुनाव में अपनों की तादाद देखकर ही तो प्रत्याशी बनाया जाता है :)
ReplyDeletebrashtachar ye vo achar hi jise banana aur khana dono aasan hain
ReplyDeletemasala chahe jo daalo
bas sabme khanak hona chaiye
ऐसे वक़्त में अपनत्व ज्यादा ही रंग दिखता है ..
ReplyDeleteअपने ही हैं सब, जैसे भी हैं :) :) :)
ReplyDeleteचुनाव आ ही गए हैं, बहुत बार आये हैं, हर बार ऐसे ही उम्मीद लेकर आते हैं, जितने भी जीतते है कुल मिलाके वही गणित खेलते हैं, अब तो खुद ही उतरना पड़ेगा नहीं तो कंप्लेंट करने का अधिकार भी नहीं बचेगा
बढ़िया लगा लेख!!!!
हम भ्रष्टन के ,भ्रष्ट हमारे ..
ReplyDeleteसब अपने हैं मगर देश भी तो अपना है। यह समझना जरुरी है।
ReplyDeleteउम्मीद तो अच्छे की ही करें...बाकी देखा जायेगा.
ReplyDeleteअनजान बने रहने की आदत नहीं ! विचारणीय़ आलेख
ReplyDeleteयह सब अब जीवन का हिस्सा बन चूका है और किसी को भी यह विश्वास नहीं है कि अगला अधिकारी पहले अधिकारी की तरह ही लिप्त नहीं होगा.
ReplyDeleteजहाँ सच्चाई व नैतिकता का अभाव है, कथनी व करनी में भारी विभंद है, संस्थागत व्यवस्थायें मरी पड़ी हैं, वहाँ इसी तरह ढकोसलेबाजों,पोंगापंथियों व स्वार्थपरक तत्वों का वर्चस्व वा साम्राज्य बना रहता है।ऐसी व्यवस्था में सच कहने व सही करने वाले को लोग काम में रोड़ा व बेवकूफ, जो दुनियादारी ठीक से नहीं समझता, समझते हैं। इनसे पार पाने के लिये व्यक्तिआधारित सथाकथित सक्षमता के बजाय संस्थागत सक्षमता पर ध्यान व विश्वास करना होगा।
ReplyDeleteआपकी आशंका सही है, यही होने वाला है।
ReplyDeleteहम आज भी बस अपने पराये में ही फंसे रहते हैं ... और धीरे धीरे संकीर्ण होते जा रहे हैं ...
ReplyDeleteसार्थक पोस्ट है ...
बहुत अच्छा लेख |
ReplyDeletehttp://hindidunia.wordpress.com/
रिश्ते -दोस्ती- नाते -के मामले में भारतीय बहुत भावुक हैं और इसी को भुनाया जाता हई ऐसे समय पर। आशा है लोग अपना दिमाग और समझ भी प्रयोग में लाएँ वोट देते समय
ReplyDeleteआपकी कविता अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट धर्मवीर भारती पर आपका सादर आमंत्रण है । धन्यवाद ।
ReplyDeleteसारा देश रेंग रहा है, कुछ वैसा ही जैसा भ्रष्टाचार ने बना रखा है, लोगों की वेदना है कि कहीं कोई कार्य होता ही नहीं है।
ReplyDeleteवाह...वाह..वाह...हमेशा की तरह बेजोड़ लेखन...बधाई
नीरज
जितना भ्रष्ट ये बन्दा है, उससे ज्यादा जबानी शिकायत करने वाले।
ReplyDeleteसदाशयता और अपनत्व भरी ऐसी शिकायतें ही हमारा वास्तविक चरित्र हैं।
ReplyDeleteशुक्रिया आपकी निरंतर हौसला अफजाई का .प्रवीण पांडे जी .यहाँ भ्रष्टाचार की गंगोत्री में दुबकी लगाके लोगों का आशीर्वाद सहज ही मिल जाता है .विजय भाव लिए निकलते हैं लोग तिहाड़ से पूर्वपद भी पा जातें हैं अपने कलमाड़ी जी की तरह .
ReplyDeleteसंसार की हर शह का इतना ही फ़साना है, इक धुंध से आना है, इक धुंध में जाना है...
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जय हिंद...
सच यही है कि लोग अपनत्व के चक्कर भ्रष्टाचार को भूल जाते है|
ReplyDeleteयही अपनत्व चुनाव में साफ झलकता है कोई अपनी जाति के भ्रष्ट उम्मीदवार को वोट देता है तो कोई धर्म के नाम पर अपनत्व के चलते भ्रष्टाचारी को चुनता है|
अक्सर भ्रष्टाचार के आरोप में पकडे कर्मचारी को भी बचाने के लिए भी लोग अपनत्व दिखाते हुए उसके पक्ष में लामबंद हो जाते है कि वो उनके जात का है, उनके धर्म का है या फिर वो उनके काम आता है|
हम भ्रष्टों के भ्रष्ट हमारे ,होते सबके वारे न्यारे .भारत एक कुर्सी प्रधान देश हैं .
ReplyDeleteजब बहुत दिनों तक कोई पत्र न आया तो एक कर्मचारी को बुला इस उदासीनता का कारण पूछा गया। जो उत्तर मिला, वही संभवतः हमारा सामाजिक सत्य बन चुका है....sabhi to apne hai, phir shikayat kissse karen..
ReplyDeletebahut badiya samyik chintansheel prasututi..
@कहीं उपरिलिखित घटना सच न हो जाये
ReplyDeleteयही सत्य है... लिखने वाले लिख गए हैं..
हम भ्रष्टन के और भ्रष्ट हमारे.
ग़ज़ब का सिद्धांत है।
ReplyDeleteपर ऐसे लोग खुशहाल और सफल ही दिखते हैं।
कहीं-कहीं तो हाल यह है कि पैसे देने पर भी काम ठीक से होजाना ईमानदारी की श्रेणी में आता है ।अच्छा चित्रण ।
ReplyDeleteकचरे का ढेर पोस्ट भी अच्छी लगी
आदतें पुरानी हों कि नईं,
ReplyDeleteकब गईं
फिर भ्रष्टाचार तो अर्वाचीन है जीवन पद्धति है .
आपके इस उत्कृष्ट लेखन के लिए आभार ।
ReplyDeleteयह अपनत्व का जाल ही सारी व्यवस्था को अपने चंगुल में लपेटे हुए है...बहुत सार्थक और रोचक प्रस्तुतीकरण..
ReplyDeleteदेखते हैं यह मोह का जाल कब और कैसे कटेगा ?
ReplyDeleteइस तंत्र में सब मिल बैठके खातें हैं ऐसे में कौन किसकी शिकायत करे सभी तो मौसेरे भाई हैं .
ReplyDeleteकई महानुभाव जो बंदर-टोपी चढ़ाये इस ठंड और धुंध का आनन्द ले रहे हैं, उन्हें संभवतः यह संक्रान्ति स्वीकार न थी, लोकपाल तुड़ा-मुड़ा, फटा हुआ, महासदन के मध्य, त्यक्त पड़ा पाया गया।
ReplyDeleteकटु सत्य, जिसे देखते हुए भी इस देश की जनता अंधी बनी है. लानत है ऐसी काहिली पर.
विचारोत्तेजक आलेख.
मै जनता दल ( UNITED )मुंबई का अध्यक्ष हूँ .पुराना लोहिया वादी समाजवादी .उम्मीदवार चुनने की प्रक्रिया में व्यस्त .बहुत सारे आवेदन हैं .लेकिन जिन कसौटी पर मैं उम्मीदवार उतारना चाहता हूँ ,बहुत ही कम उस पर खरे उतर रहे हैं ,यानी अपराध विहीन रिकार्ड ,इमानदारी ,धर्म ,प्रान्त ,भाषा ,जाति दुराग्रह से मुक्त ,जन कार्यों का अच्छा रिकार्ड वगैरह .लेकिन बहुत कम लोग पूरे उतर रहे हैं .और जो उतर भी रहे हैं उनमे खर्चीले चुनाव और राज ठाकरे जैसों की गुंडागर्दी झेलने की क्षमता नहीं है ( क्योंकि महाराष्ट्र शासन का वरद हस्त है उन पर राजनैतिक रन निति के दबाव में ) फिर भी ' न दैन्यं न पलायनम ' की धुन में लगा हूँ .आपको पढता तो रहता हूँ पर आजकल लिखना काफी कम हो गया है .टिप्पणी न दे पा सकने का अर्थ ये न लगाईयेगा की आप के सार्थक लेखन का मुरीद नहीं हूँ .
ReplyDeleteBhai Praveen ji aap bhi lagta hai jankari uptodate nahi rakhte hai, ab ghoos dene ke baad bhi kaam ki guaruntee nahi hoti hai.Ten mahina pahle ghoos jamaker aaye the, jamin ka ek paper nikalwana tha, abhi tak nahi mila, karan poochne per pata chala ki ghoos ka rate aapke jane ke doosre din hi badh gaya, , Nitish ji ko request letter bheja hu ki mera purane ghoos ke rate ka kaam hai isliye mere saath nyay kiya jayetatha puranr rate per ya badhe huye rate ka 50% le.RAJ KAMAL MISHRA
ReplyDeleteCorruption mitaane ke liye lagta hai Bhagwaan ko hii avtaar lena padega .
ReplyDeletenaheen ! swayam me pahle bhagwan dhoondhna padega .
Deleteये बड़ा बवाल मामला है जी!
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