चायपान आधुनिक जीवनशैली का अनिवार्य अंग बन चुका है, पहले मैं नहीं पीता था पर उस कारण से हर जगह पर इतने तर्क पीने पड़ते थे कि मुझे चाय अधिक स्वास्थ्यकारी लगने लगी। बहुतों के लिये यह दिन का प्रथम पेय होता है, जापानी तो इसको पीने में पूजा करने से भी अधिक श्रम कर डालते हैं, पर बहुतों के लिये कार्यालय से आने के बाद अपनी श्रीमतीजी के साथ बिताये कुछ एकांत पलों की साक्षी बनती है चाय।
जब चाय की चैतन्यता गले के नीचे उतर रही हो तो दृश्य में अपना स्थान घेरे कूड़े का ढेर बड़ा ही खटकने लगा रघुबीरजी को। यद्यपि बिजली के जिन खम्भों के बीच वह कूड़े का ढेर था वे सोसाइटी की परिधि के बाहर थे, पर जीवन के मधुरिम क्षणों को इतनी कर्कशता से प्रभावित करने वाली परिस्थितियाँ भला मन की परिधि के बाहर कहाँ जा पाती हैं? कई बार वहाँ से कूड़ा हटवाया गया, पर स्थिति वही की वही बनी रही। कहते हैं कि कूड़ा कूड़े को आकर्षित करता है और खाली स्थान और अधिक कूड़े की प्रतीक्षा में रहता है। बिना कायाकल्प कोई उपाय नहीं दिख रहा था, मन में निर्णय हो चुका था, रघुबीरजी कुछ अच्छे पौधे जाकर ले आये, समय लगाकर उन्हें रोपित भी कर दिया, मानसून अपने प्रभाव में था, कुछ ही दिनों में वह स्थान दर्शनीय हो गया, चाय पीने में अब पूरा रस आने लगा रघुबीर जी को।
छोटे कायाकल्पों में बड़े बदलावों की संभावना छिपी रहती है। कहानी यहीं समाप्त हो गयी होती यदि रघुबीरजी को उस संभावना को औरों में ढूढ़ने का कीड़ा न काटा होता। औरों को प्रेरित करने के लिये उन्होने उस स्थान के पहले और बाद के चित्रों को एक साथ रख कर अपनी सोसाइटी के सब सदस्यों को ईमेल के माध्यम से भेजने का मन बनाया। कुछ व्यस्तताओं के कारण वह मेल भेजने में ४-५ दिन की देरी हो गयी, उतना अन्तराल पर्याप्त था, समय को अँगड़ाई लेने के लिये।
जब चार वर्ष पहले उनकी सोसाइटी का निर्माण हुआ था तो जाने अनजाने उसका स्तर पास की सोसाइटी से नीचे था, हर बरसात आसपास का जल सोसाइटी में आकर भर जाता था और कुछ निदान ढूढ़ने का संदेश दे जाता था। हर वर्ष कुछ भागदौड़ और नगरनिगम की अन्यमनस्कता, इतनी छोटी समस्या सुलझाने के प्रति। सिविल सेवा की तैयारी में लगे लड़को के भाग्य की तरह अन्ततः चौथे वर्ष रघुबीरजी को आशा की किरण उस समय दिखायी पड़ी जब वह एक नये अधिकारी से मिलकर आये, संवाद सकारात्मक रहा। पानी को एकत्र कर पाइप के माध्यम से मेनपाइप में जोड़ देने की योजना थी जो मानसून आने के पर्याप्त पहले क्रियान्वित कर दी गयी।
कार्य के सम्पादन के साथ ही लोगों का रघुबीरजी पर विश्वास बढ़ने लगा, परिवेश के उत्साही और पत्रकारी युवक घटनाक्रम में रुचि लेने लगे, यह सब देखकर रघुबीरजी ने भव्य भविष्य के आस की साँस ली जिससे उनका सीना चौड़ा होने लगा। लगा कि मानसून आने के पहले बड़ा महत कार्य सम्पन्न हो गया। कुछ सप्ताह बाद ही, भला हो एक खोजी युवक का, जिसने आकर बताया कि पाइप तो मेनपाइप तक पहुँच गया है पर अभी तक जुड़ा नहीं है और बरसात होने की स्थिति में सारा पानी कीचड़ समेत आ जायेगा, पहले से कहीं अधिक। रघुबीरजी के प्रयासों में पुनः गति आ गयी, पहले तो कई पत्र भेजे, कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अन्ततः अधिकारी से पुनः मिलकर अनुनय विनय की, उसने अगले दिन शेष कार्य करवाने का आश्वासन दे दिया। रघुबीरजी का मन प्रसन्न था, सुखद भविष्य की आस अधिक सुख लाती है, लगे हाथों रघुबीरजी ने कूड़े के स्थान के कायाकल्प की ईमेल भी सबको प्रेषित कर दी।
उस रात बारिश हुयी थी, पाइप से कीचड़ अधिक आ गया था। अगले दिन बड़ी सुबह कार्य आरम्भ हो गया, बुलडोजर कीचड़ साफ करना प्रारम्भ कर चुके थे और पाइप जोड़ने का कार्य दोपहर तक हो जाने की संभावना थी। रघुबीरजी अपना चाय का प्याला ले बॉलकनी में समाचार पत्र पढ़ने लगे। तीसरा पेज खोलते ही उनका दिल धक से रह गया, किसी उत्साही पत्रकार ने नगरनिगम की अकर्मण्यता और रघुबीरजी के प्रयासों पर एक हलचलपूर्ण आलेख छाप दिया था, सचित्र, एक ओर नायक के रूप में रघुबीरजी, दूसरी ओर खलनायक के रूप में नगरनिगम का अधिकारी और बीच में कीचड़ के साथ बिना जुड़े हुये दो पाइप। रघुबीरजी सोच ही रहे थे कि कहीं वह अधिकारी यह समाचार न पढ़ ले, तब तक अधिकारी का क्रोध भरा फोन आ गया, आधे घंटे के अन्दर ही नगरनिगमकर्मी वापस जा चुके थे।
सूरज चढ़ आया था, दोपहर होते होते लोग ईमेल पढ़ चुके थे, उत्सुकतावश बाहर आये तो दृश्य पूर्णतया बदला हुआ था, कायाकल्प हुये कूड़े के स्थान का पुनः कायाकल्प हो चुका था, हरी चादर के ऊपर अभी अभी उलीचे कीचड़ की परत जमी थी, ईमेल में प्रेषित दोनों चित्रों से भयावह थी उस जगह की स्थिति। सोसाइटी का गेट व निकट भविष्य, दोनों ही कीचड़रुद्ध दिख रहे थे।
कहते हैं कि कीचड़ में कमल खिलते हैं पर आज यहाँ पर कीचड़ रघुबीरजी के श्रम-कमलों की लील चुका था, सौन्दर्यबोध सशंकित था, बॉलकनी की चाय कसैली होनी तय थी, सोसाइटी के सदस्यों के आलोचनात्मक स्वर अवसरप्रदत्त शक्ति से सम्पन्न थे। रघुबीरजी पर हार मानने वाले जीवों में नहीं थे, साँस सीने में गहरी भर जाती है, रघुबीरजी की पुनः जूझने की इच्छा बलवती होने लगती है.....
जब चाय की चैतन्यता गले के नीचे उतर रही हो तो दृश्य में अपना स्थान घेरे कूड़े का ढेर बड़ा ही खटकने लगा रघुबीरजी को। यद्यपि बिजली के जिन खम्भों के बीच वह कूड़े का ढेर था वे सोसाइटी की परिधि के बाहर थे, पर जीवन के मधुरिम क्षणों को इतनी कर्कशता से प्रभावित करने वाली परिस्थितियाँ भला मन की परिधि के बाहर कहाँ जा पाती हैं? कई बार वहाँ से कूड़ा हटवाया गया, पर स्थिति वही की वही बनी रही। कहते हैं कि कूड़ा कूड़े को आकर्षित करता है और खाली स्थान और अधिक कूड़े की प्रतीक्षा में रहता है। बिना कायाकल्प कोई उपाय नहीं दिख रहा था, मन में निर्णय हो चुका था, रघुबीरजी कुछ अच्छे पौधे जाकर ले आये, समय लगाकर उन्हें रोपित भी कर दिया, मानसून अपने प्रभाव में था, कुछ ही दिनों में वह स्थान दर्शनीय हो गया, चाय पीने में अब पूरा रस आने लगा रघुबीर जी को।
छोटे कायाकल्पों में बड़े बदलावों की संभावना छिपी रहती है। कहानी यहीं समाप्त हो गयी होती यदि रघुबीरजी को उस संभावना को औरों में ढूढ़ने का कीड़ा न काटा होता। औरों को प्रेरित करने के लिये उन्होने उस स्थान के पहले और बाद के चित्रों को एक साथ रख कर अपनी सोसाइटी के सब सदस्यों को ईमेल के माध्यम से भेजने का मन बनाया। कुछ व्यस्तताओं के कारण वह मेल भेजने में ४-५ दिन की देरी हो गयी, उतना अन्तराल पर्याप्त था, समय को अँगड़ाई लेने के लिये।
जब चार वर्ष पहले उनकी सोसाइटी का निर्माण हुआ था तो जाने अनजाने उसका स्तर पास की सोसाइटी से नीचे था, हर बरसात आसपास का जल सोसाइटी में आकर भर जाता था और कुछ निदान ढूढ़ने का संदेश दे जाता था। हर वर्ष कुछ भागदौड़ और नगरनिगम की अन्यमनस्कता, इतनी छोटी समस्या सुलझाने के प्रति। सिविल सेवा की तैयारी में लगे लड़को के भाग्य की तरह अन्ततः चौथे वर्ष रघुबीरजी को आशा की किरण उस समय दिखायी पड़ी जब वह एक नये अधिकारी से मिलकर आये, संवाद सकारात्मक रहा। पानी को एकत्र कर पाइप के माध्यम से मेनपाइप में जोड़ देने की योजना थी जो मानसून आने के पर्याप्त पहले क्रियान्वित कर दी गयी।
उस रात बारिश हुयी थी, पाइप से कीचड़ अधिक आ गया था। अगले दिन बड़ी सुबह कार्य आरम्भ हो गया, बुलडोजर कीचड़ साफ करना प्रारम्भ कर चुके थे और पाइप जोड़ने का कार्य दोपहर तक हो जाने की संभावना थी। रघुबीरजी अपना चाय का प्याला ले बॉलकनी में समाचार पत्र पढ़ने लगे। तीसरा पेज खोलते ही उनका दिल धक से रह गया, किसी उत्साही पत्रकार ने नगरनिगम की अकर्मण्यता और रघुबीरजी के प्रयासों पर एक हलचलपूर्ण आलेख छाप दिया था, सचित्र, एक ओर नायक के रूप में रघुबीरजी, दूसरी ओर खलनायक के रूप में नगरनिगम का अधिकारी और बीच में कीचड़ के साथ बिना जुड़े हुये दो पाइप। रघुबीरजी सोच ही रहे थे कि कहीं वह अधिकारी यह समाचार न पढ़ ले, तब तक अधिकारी का क्रोध भरा फोन आ गया, आधे घंटे के अन्दर ही नगरनिगमकर्मी वापस जा चुके थे।
सूरज चढ़ आया था, दोपहर होते होते लोग ईमेल पढ़ चुके थे, उत्सुकतावश बाहर आये तो दृश्य पूर्णतया बदला हुआ था, कायाकल्प हुये कूड़े के स्थान का पुनः कायाकल्प हो चुका था, हरी चादर के ऊपर अभी अभी उलीचे कीचड़ की परत जमी थी, ईमेल में प्रेषित दोनों चित्रों से भयावह थी उस जगह की स्थिति। सोसाइटी का गेट व निकट भविष्य, दोनों ही कीचड़रुद्ध दिख रहे थे।
कहते हैं कि कीचड़ में कमल खिलते हैं पर आज यहाँ पर कीचड़ रघुबीरजी के श्रम-कमलों की लील चुका था, सौन्दर्यबोध सशंकित था, बॉलकनी की चाय कसैली होनी तय थी, सोसाइटी के सदस्यों के आलोचनात्मक स्वर अवसरप्रदत्त शक्ति से सम्पन्न थे। रघुबीरजी पर हार मानने वाले जीवों में नहीं थे, साँस सीने में गहरी भर जाती है, रघुबीरजी की पुनः जूझने की इच्छा बलवती होने लगती है.....
Achha laga ise padhna wo bhee subah 5 baje....chay kee chuskiyan lete,lete!
ReplyDeleteजुझारू रघुबीर जी.
ReplyDeleteआशीष
रघुबीरजी चाय के साथ-साथ क्रोध भी पीने लगे,ये अच्छा संकेत है.
ReplyDeleteऐसे कामों में गज़ब की धैर्य-शक्ति चाहिए ,जो उनमें है !
संवेदना ही व्यक्त कर सकते हैं, रघुबीर जी से।
ReplyDeleteऔर चाय के लिये यही हालत हमारी भी थी, तो चाय पीना ज्यादा श्रेय्स्कर लगा, अब यह हालत है कि अगर काम ज्यादा है और उठने की फ़ुरसत नहीं हो तो हमारे साथीगण चुपचाप चाय बगल में रखकर निकल लेते हैं, हमें पता भी नहीं चल पाता कि कौन चाय रखकर निकल लिया ।
संवेदना ही व्यक्त कर सकते हैं, रघुबीर जी से।
ReplyDeleteऔर चाय के लिये यही हालत हमारी भी थी, तो चाय पीना ज्यादा श्रेय्स्कर लगा, अब यह हालत है कि अगर काम ज्यादा है और उठने की फ़ुरसत नहीं हो तो हमारे साथीगण चुपचाप चाय बगल में रखकर निकल लेते हैं, हमें पता भी नहीं चल पाता कि कौन चाय रखकर निकल लिया ।
यह समाज रघुबीर जी जैसे लोगों के मजबूत कंधों पर ही टिका हुआ है।
ReplyDeleteअलबर्ट पिंटो कहूँ या मोहन जोशी!! सोच रहा हूँ!!
ReplyDeleteओह नकारात्मकता और सकारात्मकता का भीषण युद्ध .....हार के हार नहीं माने थे रघुबीर जी ....लड़ने से बचना चाह रहे हैं ......जीवन भर लड़ना ही पड़ेगा .....चीज़ों को देखने की ....समझने कि नज़रें जो दी हैं प्रभु ने ....
ReplyDeleteकहानी यहीं समाप्त हो गयी होती यदि रघुबीरजी को उस संभावना को औरों में ढूढ़ने का कीड़ा न काटा होता। औरों को प्रेरित करने के लिये उन्होने उस स्थान के पहले और बाद के चित्रों को एक साथ रख कर अपनी सोसाइटी के सब सदस्यों को ईमेल के माध्यम से भेजने का मन बनाया। कुछ व्यस्तताओं के कारण वह मेल भेजने में ४-५ दिन की देरी हो गयी, उतना अन्तराल पर्याप्त था, समय को अँगड़ाई लेने के लिये।
समय परीक्षा लेता रहेगा ......और हम रघुवीर जी के कार्यकलापों का आनंद लेते रहेंगे .....सीखते भी रहेंगे बहुत कुछ ...
सार्थक श्रंखला...
रघुवीर जी जैसे कर्मठ समाज सेवकों के चलते ही शहरी कालोनियां व सोसायटियां रहने लायक बनी हुई है|
ReplyDeleteलगे रहिये रघुबीर जी . बहुत बढ़िया ..
ReplyDeleteरघुबीर जी की जय हो !
ReplyDeleteबिना धैर्य दिखाए रघुबीर जी के प्रयास कहाँ सफल होने वाले ?
ऐसे रघुबीरों की हर समाज को आवश्यकता है ...!
ReplyDeleterochak ...
ReplyDeleteबढिया चल रही है रघुवीरजी की कथा।
ReplyDeleteव्यवस्था से लड़ना वह भी हमारे देश में , हे राम !
ReplyDeleteउस अधिकारी की सोच उस की मानसिक प्रवृत्ति और चेतना को दर्शाती है. यदि अखबार में कुछ गलत छाप दिया गया तो उसका ऐसा वैर-भाव. हद है.
ReplyDeleteजूझने के डर से सहन करने वाले समाज ठहर जाते हैं।
ReplyDeleteसकारात्मक पोस्ट के लिये आभार। सुप्रभात।
जूझने के डर से सहन करने वाले समाज ठहर जाते हैं।
ReplyDeleteसकारात्मक पोस्ट के लिये आभार। सुप्रभात।
रघुबीर जी को नमन. शुभकामनाएं. सदैव सफल होते रहें.
ReplyDeleteछोटे कायाकल्पों में बड़े बदलावों की संभावना छिपी रहती है।
ReplyDeletejai baba banaras....
किसी से फायदा लेना अलग बात है ... तारीफ़ से ज्यादातर लोग परहेज रखते हैं .
ReplyDeleteरघुवीर जी के उत्साह पर उस पत्रकार का उत्साह ज्यादा प्रभावी निकला - और मीडिया ने अपने कार्य को अंजाम दे दिया .
ReplyDeleteजुझारू रघुबीर जी ..
ReplyDeleteरघुबीर जी जैसे व्यक्तित्व का होना बेहद जरूरी है ... बहुत ही अच्छी प्रस्तुति आपका आभार ।
ReplyDeleteरोचक अंदाज,
ReplyDeleteसकारात्मक पोस्ट
कार्यदायी इच्छा सदा बलवती बनी रहे
ReplyDeleteमेरे लिए मदिरा पर यही स्थिति रहती है पर मैंने उसे अब तक अपनाया नहीं :) कायाकल्प करनेवाले कर्मठ बहुत कम ही तो होते हैं॥
ReplyDeleteचलती रहे कहानी रघुवीर जी की.जरुरत है समाज की.
ReplyDeleteआज समाज में रघुबीर जी जैसे ही व्यक्तित्व की आवश्यकता है..प्रेरित करती पोस्ट..
ReplyDeleteएक सशक्त पात्र के माध्यम से उम्दा अभिव्यक्ति |
ReplyDeleteरोचक वृतांत
ReplyDeleteछोटे कायाकल्पों में बड़े बदलावों की संभावना छिपी रहती है। कहानी यहीं समाप्त हो गयी होती यदि रघुबीरजी को उस संभावना को औरों में ढूढ़ने का कीड़ा न काटा होता। औरों को प्रेरित करने के लिये उन्होने उस स्थान के पहले और बाद के चित्रों को एक साथ रख कर अपनी सोसाइटी के सब सदस्यों को ईमेल के माध्यम से भेजने का मन बनाया। कुछ व्यस्तताओं के कारण वह मेल भेजने में ४-५ दिन की देरी हो गयी, उतना अन्तराल पर्याप्त था, समय को अँगड़ाई लेने के लिये।
ReplyDeleteभाई साहब रघुबीर जी से कही मंदिर न सही साईं बाबा की एक तस्वीर ही वहां टंगवा दें फिर देखतें हैं नगर निगम अपनी नाक का मुद्दा कैसे बनाता है .
जब भी अच्छी व नयी पहल होती है, उसकी चुनौतियाँ भी काफी जटिल पेंचीदी होती हैं।ऐसे में बड़े दृढ़संकल्प की आवश्यकता होती हैं।आशा है रघवीरजी एक कुशल कर्मयोगी की तरह इस कठिन चुनौती का सामना सफलतापूर्वक करने में सफल रहे होंगे।
ReplyDeleteजब भी अच्छी व नयी पहल होती है, उसकी चुनौतियाँ भी काफी जटिल पेंचीदी होती हैं।ऐसे में बड़े दृढ़संकल्प की आवश्यकता होती हैं।आशा है रघवीरजी एक कुशल कर्मयोगी की तरह इस कठिन चुनौती का सामना सफलतापूर्वक करने में सफल रहे होंगे।
ReplyDeleteहरी चादर के ऊपर अभी अभी उलीचे कीचड़ की परत जमी थी, ईमेल में प्रेषित दोनों चित्रों से भयावह थी उस जगह की स्थिति। सोसाइटी का गेट व निकट भविष्य, दोनों ही कीचड़रुद्ध दिख रहे थे।
ReplyDeleteBEJOD LEKHAN
NEERAJ
अंततः रघु साहब ही विजयी होंगें ,इंशाल्लाह |
ReplyDeleteअंततः रघु साहब ही विजयी होंगें ,इंशाल्लाह |
ReplyDeleteBahut acha laga aapka post padhke baht dino baat!
ReplyDeletebada achcha laga padhkar...aap kii likhne kii style bahut pasanad hai.
ReplyDeleteरोचक अंदाज,
ReplyDeleteसकारात्मक पोस्ट के लिये आभार...
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - अंजुरि में कुछ कतरों को सहेज़ा है …………ब्लॉग बुलेटिन
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 19- 01 -20 12 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज... जिंदगी ऐसे भी जी ही जाती है .
एक सशक्त पात्र की सकारात्मक बहुत सुंदर प्रस्तुति,बेहतरीन पोस्ट
ReplyDeletewelcome to new post...वाह रे मंहगाई
धैर्य और सकारात्मक सोच के बिना यह सब संभव नहीं ..... एक बेहतरीन प्रतीकात्मक व्यक्तित्व , सोचने को विवश करता ......
ReplyDelete:-)
ReplyDeletehats off to media...
बढ़िया लेखन..रोचक भी सार्थक भी..
सोचने पर विवश करती पोस्ट रघुवीर जी जैसे लोगों की आज सचमुच आवशकता है हमारे समाज को सार्थक कथा...
ReplyDeleteRaghu ji ki mehnat rang layegi.
ReplyDeleteacchi post
ReplyDeletekafi kuch sikhane ko mila isse
likhane ki shaili shandar hain aapki
mere blog par bhi aaiyega
हवन करने में हाथ इसी तरह जलते होंगे। रघुबीरजी के प्रति सहानुभूति और शुभ-कामनाऍं।
ReplyDeleteदिक्कत यह है रघुबीर जी का खून पीने नौ माह बाद कलमाड़ी बाहर आ जातें हैं .वरना रघुबीर जी किसी से कम नहीं है .
ReplyDeleteरघुवीर जी उन लोगों में से नहीं जो इन बाधाओं से हार मान लें - और सच्ची लगन अपना उद्द्श्य पूरे किये बिना विश्राम नहीं लेती .
ReplyDeleteरघुबीर जी को नमन....सकारात्मक प्रस्तुति
ReplyDeletebahut khoob............
ReplyDeleteमित्र रघुवीर जी के प्रयास की सद्भुमिका वहन करने का प्रयाण तो करते हैं पर ,आत्मनिरिक्षण का कार्य विस्मृत हो जाता है ,रघुवीर जी की सद्भावनाओं में अपना निहितार्थ भी ढूंढ़ते तो शायद कचरा समायोजित हो ही जाता ,जो मुनिसिपिलिटी के सहारे है..... सुखद व यथार्थ लेखन ,बधाईयाँ जी /
ReplyDeleteबहोत अच्छे ।
ReplyDeleteनया हिंदी ब्लॉग
http://http://hindidunia.wordpress.com/
स्वांत सुखस्य लेखन .रघुबीर जी प्रतीक्षित हैं .रोचकता बढती जा रही है .आगे क्या होगा ?ऊँट किस करवट बेठेगा ?बेठेगा भी या नहीं .रघुबीर जी का जीवट काबिले तारीफ़ है .हार नहीं मानूंगा ,राड़ नहीं मानूंगा ...
ReplyDeleteरघुबीर जी की विजय वाले ई मेल की प्रतीक्षा रहेगी।
ReplyDeleteकेवल लक्ष्य ही नहीं, पथ भी महत्वपूर्ण है, प्रयास भी।
ReplyDeleteरोचक लगा यह प्रकरण रघुबीर जी का।
रघुवीर जी की कथा सामाजिक कार्यों में आने वाले गतिरोध की पड़ताल के साथ-साथ उत्साही पत्रकारिता पर भी करारा व्यंग्य है।
ReplyDeleteआप सही कहते है हम सब के अन्दर रघुबीर जी है लेकिन कुछ में जगे हुए कुछ में सोये हुए. आशा है आपके रघुबीर जी सोये हुओ को जगा देंगे.
ReplyDeletebahut hi achi post hain
ReplyDeletehttps://www.sabinhindi.com/2020/11/happy-new-year-wishes-for%20-friends-and-family-in-hindi-2021.html?m=1
ReplyDeleteHappy new year 2021