रघुबीरजी अपनी पत्नी के साथ अपने घर की बॉलकनी में बैठकर चाय की चुस्कियों का आनन्द ले रहे हैं, घर सोसाइटी की तीसरी मंजिल में है और रघुबीरजी हैं उस सोसाइटी के सचिव। कर्मठ और जागरूक, अन्दर से कुछ सार्थक कर डालने को उत्सुक, हर दिन विश्व को कुछ नया दे जाने का स्वप्न देखकर ही उठते हैं रघुबीरजी। एक युवा के उत्साह और एक वृद्ध के अनुभव के बीच एक सशक्त अनुपात सँजोये है रघुबीरजी का व्यक्तित्व, प्रौढ़ता को भला इससे अच्छा उपहार क्या मिल सकता है?
रघुबीरजी के जीवन में तीन विश्व बसते हैं, तीनों विश्व शताब्दियों के अन्तर में स्थापित, तीनों का मोह बराबरी से समाया हुआ उनके हृदय में, किसको किसके ऊपर प्राथमिकता दें यह निर्णय करना बहुधा उनके लिये ही कठिन हो जाता है। एक विश्व शारीरिक, एक मानसिक और एक आध्यात्मिक है उनके लिये, इन तीन अवयवों की क्षुधापूर्ति की संतुष्टि उनके मुखमंडल से स्पष्ट झलकती है।
पहला और शारीरिक विश्व उनके व्यवसाय का है। उन्नत तकनीकी शिक्षा, मौलिक शोध और सतत श्रम का प्रतीक है उनका व्यवसाय। जीवकोपार्जन के इस स्रोत को सम्यक रूप से सजाकर अब उन्हें अपने शेष दो विश्वों के लिये पर्याप्त समय मिलने लगा है। इस कारण उन्हें बहुधा विदेश यात्रा करनी पड़ती है। तकनीक, वाणिज्य और वैश्विक परिप्रेक्ष्य उनके प्रथम विश्व के अंग हैं और समयरेखा में सबसे आगे खड़े हैं।
दूसरा और मानसिक विश्व उनकी पर्यावरणीय चेतना का है। इस चेतना के कारण वह सोसाइटी के सचिव हुये या सोसाइटी के सचिव होने के बाद उनकी पर्यावरणीय कुण्डलनी जागृत हुयी, ठीक ठीक कहना कठिन है पर उनके पर्यावरणीय प्रयोगों की चाह ने सोसाइटी में कई बार उत्सुकता, भय और सुख की त्रिवेणी बहायी है। नये प्रयोग के बारे में सोचना, उसे क्रमशः कार्यान्वित करना और उसमें आने वाली बाधाओं को झेलना, किसी गठबन्धन सरकार चलाने से कम कठिन नहीं है। अपने परिवेश में घटनाओं का संलिप्त साक्षी बनना उनके दूसरे विश्व का केन्द्रबिन्दु है और समयरेखा में मध्य में अवस्थित है।
तीसरा और आध्यात्मिक विश्व उनके गाँव व संस्कृति की जड़ों से जुड़ाव का है। जिन गलियों में पले बढ़े, जहाँ शिक्षा ली, जिन सांस्कृतिक आधारों में जीवन को समझने की बुद्धि दी और जहाँ जाकर छिप जाने की चाह व्यग्रता के हर पहले क्षण में होती हो, वह उनके जीवन के रिक्त क्षणों से बन्धन बन जुड़ सा गया है। सभ्यता के मानकों में भले ही वह विश्व समुन्नत न हो पर रघुबीरजी के जीवन का स्थायी स्तम्भ है वह विश्व, समयरेखा के आखिरी छोर पर त्यक्त सा।
रघुबीरजी के जीवन में आनन्द बहुत ही कम होता यदि एक भी विश्व उनके जीवन से अनुपस्थित होता। आनन्द इसलिये क्योंकि उन्हें तीनों विश्वों के श्रेष्ठतम तत्व प्राप्त हैं। पहले विश्व के प्रेम की कमी तीसरे विश्व से, तीसरे विश्व के धन और तकनीक की कमी पहले विश्व से, दूसरे विश्व के आलस्य और विरोध से जूझने की शक्ति तीसरे विश्व से और समाधान पहले विश्व से, सब के सब एक दूसरे के प्रेरक और पूरक। तीन विश्वों में एक साथ रहने से उनकी दृष्टि इतनी परिपक्व हो चली है कि उन्हें तीनों की सम्भावित दिशा और उसे बदलने के उपाय स्पष्ट दिखायी देते हैं।
रघुबीरजी के जीवन का यही उजला पक्ष उनकी अधीरता का एकल स्रोत है। समयरेखा में तीन विश्वों की उपस्थिति इतनी दूर दूर है कि उन्हें एक साथ ला पाने की अधीरता बहुधा उनके प्रयासों से अधिक बलवती हो जाती है। अपनी समग्र समझ सबको समझा पाना उनकी ऊर्जा को सर्वाधिक निचोड़ने वाला कार्य है, भाषा और तर्कसूत्र एक विश्व से दूसरे तक पहुँचते पहुँचते अपनी सामर्थ्य खो देते हैं। यही अधीरता रघुबीरजी की कथा का रोचक पक्ष है।
रघुबीरजी थोड़ी थोड़ी मात्रा में हम सबके भीतर विद्यमान हैं, देश तो रघुबीरजी के व्यक्तित्व का भौगोलिक रूपान्तरण ही है, रघुबीरजी के तीनों विश्व इस देश में भी बसते हैं। रघुबीरजी का आनन्द हम सबका आनन्द है और रघुबीरजी की कथा हम सबकी कथा। उनकी हर घटना में आप अपना मन डाल कर देखिये, संभव है कि उनकी कथा आपकी दवा बन जाये।
खैर, रघुबीरजी को बॉलकनी से एक कूड़े का ढेर दिखता है, बिजली के दो खंभों के बीच.......
(रघुबीरजी मेरे लिये एक पात्र नहीं वरन देश और समाज समझने के नेत्र हैं, यह श्रंखला यथासंभव समाज में व्याप्त रोचकता का अनुसरण करने का प्रयास करेगी)
रघुबीरजी के जीवन में तीन विश्व बसते हैं, तीनों विश्व शताब्दियों के अन्तर में स्थापित, तीनों का मोह बराबरी से समाया हुआ उनके हृदय में, किसको किसके ऊपर प्राथमिकता दें यह निर्णय करना बहुधा उनके लिये ही कठिन हो जाता है। एक विश्व शारीरिक, एक मानसिक और एक आध्यात्मिक है उनके लिये, इन तीन अवयवों की क्षुधापूर्ति की संतुष्टि उनके मुखमंडल से स्पष्ट झलकती है।
पहला और शारीरिक विश्व उनके व्यवसाय का है। उन्नत तकनीकी शिक्षा, मौलिक शोध और सतत श्रम का प्रतीक है उनका व्यवसाय। जीवकोपार्जन के इस स्रोत को सम्यक रूप से सजाकर अब उन्हें अपने शेष दो विश्वों के लिये पर्याप्त समय मिलने लगा है। इस कारण उन्हें बहुधा विदेश यात्रा करनी पड़ती है। तकनीक, वाणिज्य और वैश्विक परिप्रेक्ष्य उनके प्रथम विश्व के अंग हैं और समयरेखा में सबसे आगे खड़े हैं।
दूसरा और मानसिक विश्व उनकी पर्यावरणीय चेतना का है। इस चेतना के कारण वह सोसाइटी के सचिव हुये या सोसाइटी के सचिव होने के बाद उनकी पर्यावरणीय कुण्डलनी जागृत हुयी, ठीक ठीक कहना कठिन है पर उनके पर्यावरणीय प्रयोगों की चाह ने सोसाइटी में कई बार उत्सुकता, भय और सुख की त्रिवेणी बहायी है। नये प्रयोग के बारे में सोचना, उसे क्रमशः कार्यान्वित करना और उसमें आने वाली बाधाओं को झेलना, किसी गठबन्धन सरकार चलाने से कम कठिन नहीं है। अपने परिवेश में घटनाओं का संलिप्त साक्षी बनना उनके दूसरे विश्व का केन्द्रबिन्दु है और समयरेखा में मध्य में अवस्थित है।
तीसरा और आध्यात्मिक विश्व उनके गाँव व संस्कृति की जड़ों से जुड़ाव का है। जिन गलियों में पले बढ़े, जहाँ शिक्षा ली, जिन सांस्कृतिक आधारों में जीवन को समझने की बुद्धि दी और जहाँ जाकर छिप जाने की चाह व्यग्रता के हर पहले क्षण में होती हो, वह उनके जीवन के रिक्त क्षणों से बन्धन बन जुड़ सा गया है। सभ्यता के मानकों में भले ही वह विश्व समुन्नत न हो पर रघुबीरजी के जीवन का स्थायी स्तम्भ है वह विश्व, समयरेखा के आखिरी छोर पर त्यक्त सा।
रघुबीरजी के जीवन में आनन्द बहुत ही कम होता यदि एक भी विश्व उनके जीवन से अनुपस्थित होता। आनन्द इसलिये क्योंकि उन्हें तीनों विश्वों के श्रेष्ठतम तत्व प्राप्त हैं। पहले विश्व के प्रेम की कमी तीसरे विश्व से, तीसरे विश्व के धन और तकनीक की कमी पहले विश्व से, दूसरे विश्व के आलस्य और विरोध से जूझने की शक्ति तीसरे विश्व से और समाधान पहले विश्व से, सब के सब एक दूसरे के प्रेरक और पूरक। तीन विश्वों में एक साथ रहने से उनकी दृष्टि इतनी परिपक्व हो चली है कि उन्हें तीनों की सम्भावित दिशा और उसे बदलने के उपाय स्पष्ट दिखायी देते हैं।
रघुबीरजी थोड़ी थोड़ी मात्रा में हम सबके भीतर विद्यमान हैं, देश तो रघुबीरजी के व्यक्तित्व का भौगोलिक रूपान्तरण ही है, रघुबीरजी के तीनों विश्व इस देश में भी बसते हैं। रघुबीरजी का आनन्द हम सबका आनन्द है और रघुबीरजी की कथा हम सबकी कथा। उनकी हर घटना में आप अपना मन डाल कर देखिये, संभव है कि उनकी कथा आपकी दवा बन जाये।
खैर, रघुबीरजी को बॉलकनी से एक कूड़े का ढेर दिखता है, बिजली के दो खंभों के बीच.......
(रघुबीरजी मेरे लिये एक पात्र नहीं वरन देश और समाज समझने के नेत्र हैं, यह श्रंखला यथासंभव समाज में व्याप्त रोचकता का अनुसरण करने का प्रयास करेगी)
शनिवार 14-1-12 को कृपया नयी-पुरानी हलचल पर पधारें .आपकी कोई पोस्ट का लिंक वहां है .
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका
Deleteसर बहुत ही उम्दा पोस्ट |इस लेख के माध्यम से आज के परिवेश ,भागमभाग और व्यक्ति का उहापोह सबकुछ उजागर हो रहा है |
ReplyDeleteयह तीन पक्ष सदा ही मानव मन में रहते हैं, भिन्न भिन्न अनुपात में, किस समय क्या प्रबल हो जाये?
Deleteरघुबर कथा मनभावनी जग तारणी :) स्वागतम !
ReplyDeleteत्रिविश्वे मनस्थितम् व्यथा, सा रघुबीरस्य कथा..
Deleteश्रृंखला का प्रारम्भ उत्कृष्ट है,जिज्ञासा उंपन्न हो गई अगली कड़ी की,त्रिआयामी व्यक्तित्व के माध्यम से सृष्टि के दर्शन होंगे,प्रतीक्षा......
ReplyDeleteघटनायें हमारे आपके परिवेश से ही होंगी, कुछ ऐसी जो हमारे साथ घटित होती हैं।
Deleteek nayi kadi aur shaandar shuruwat
ReplyDeletekeep it up.
रघुबीर जी को शुभकामनायें ...
ReplyDeleteरघुबीरजी तो सदा से ही शुभेच्छाओं की प्रतीक्षा में हैं।
Delete@रघुबीरजी को बॉलकनी से एक कूड़े का ढेर दिखता है, बिजली के दो खंभों के बीच.....
ReplyDeleteबस इसी में समझना चाहता हूँ कि हमारे रघुबीर जी के जीवन की क्या प्राथमिकताएं हैं ?
आगे की कड़ियों का इन्तेज़ार रहेगा,रघुबीर जी के माध्यम से दुनिया को देखने का !
प्राथमिकता अपने तीनों विश्वों से समुचित न्याय करने की ही होगी, आशा है...
Deleteश्रेष्ठ शुरूवात की है आपने इस रचना को मोहपाश से निकलना मुश्किल है अगले अंक की प्रतीक्षा रहेगी ही। शब्द थोड़े सरल हो तो शुद्ध हिंदी से महरूम आम आदमी भी इसका पूरा आनंद ले पायेगा।
ReplyDeleteआपका सुझाव ध्यान में रखकर बड़ा ही सरल करने का प्रयास करते रहते हैं।
Deleteबहुत बढिया
ReplyDeleteमकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई…
वाह प्रवीण जी ,ये रघुवीर जी भिन्न-भिन्न अनुपातों में हम सब में बसे हैं .मानव जीवन का रहस्य इसी में समाया है.तीनो में संतुलन आ जाये तो सार्थक हो जाये सब कुछ !
ReplyDeleteरघुबीरजी का मन बारी बारी से तीनों में भटकता है, एक की अधिकता दूसरे में जाने को प्रेरित करने लगती है, यही उनके संतुलन का आधार है।
Deleteरघुवीर जी से मुलाकात अच्छी रही ... आगे जानना चाहूँगी
ReplyDeleteजहाँ तीनों विश्व आलिंगनबद्ध होते है वहीं अभिनव मानव का अभ्युदय होता है..
ReplyDeleteअभिनव परिस्थितियों के लिये अभिनव व्यक्तित्व रघुबीरजी का।
Deleteरघुबीर जी के बहाने आपने जीवन के विभिन्न संदर्भों को उद्घाटित किया है जी प्रासंगिक बन पड़ा है ...!
ReplyDeleteचलिए हम भी ढूंढते हैं रघुबीर जी को अपने अंदर।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteरोचक और ज्ञानवर्धक होने जा रही है यह श्रृंखला।
सही बात कि ''रघुबीरजी थोड़ी थोड़ी मात्रा में हम सबके भीतर विद्यमान हैं''.
ReplyDeleteआशा है यह लेखमाला अलग-अलग रघुवीरों का दर्शन करा सकेगी.
स्वागत.
सब विश्व रह रह कर जागते हैं हम सबके हृदय में, समाज में मान मिलने भर लगे, उनकी उड़ानों को।
Deleteरघुबीरजी थोड़ी थोड़ी मात्रा में हम सबके भीतर विद्यमान हैं, देश तो रघुबीरजी के व्यक्तित्व का भौगोलिक रूपान्तरण ही है, रघुबीरजी के तीनों विश्व इस देश में भी बसते हैं। रघुबीरजी का आनन्द हम सबका आनन्द है और रघुबीरजी की कथा हम सबकी कथा।
ReplyDeleteशायद ही किसी ने अपने भीतर बैठे रघुबीरजी पर गौर किया हो...
लेकिन आपका प्रयास सार्थक है..
अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा..
उन्हीं को जगाने का प्रयास करना चाहेगी यह लेखमाला।
Deleteदृष्टि और सोच जरूरी है, फिर रास्ते तो बनने ही लगमे हैं.
ReplyDeleteरघुवीर जी बने रहें.
ReplyDeleteरघुबीरजी थोड़ी थोड़ी मात्रा में हम सबके भीतर विद्यमान हैं, देश तो रघुबीरजी के व्यक्तित्व का भौगोलिक रूपान्तरण ही है, रघुबीरजी के तीनों विश्व इस देश में भी बसते हैं। रघुबीरजी का आनन्द हम सबका आनन्द है और रघुबीरजी की कथा हम सबकी कथा।
ReplyDeleteSach men...
Neeraj
फिल्म आनंद का मुरारीलाल और आपके रघुबीर जी!! बहुत कुछ मिलेगा देखने को इनके मार्फ़त!!
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा... बहुत सुलझी हुई समझ !
ReplyDeleteदेखतें है हमारे रघुबीर जी कितने प्रवीण जी हो पाते हैं.
ReplyDeleteक्यूँ कि प्रवीण जी तो बस प्रवीण जी ही हैं.
मकर सक्रांति और लोहड़ी कि बधाई और शुभकामनाएँ जी.
अगली कडी की प्रतीक्षा है।
ReplyDeleteमकर सक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं।
जी आपने ठीक कहा, रघुवीर जी हम सबमें से कई में जी रहे हैं, मेरे भी एक मित्र रघुवीर जी हैं, कभी आपसे उन्हें मिलाता हूँ, आपको अवश्य मिलकर अच्छा लगेगा।
ReplyDeleteमैं आपके रघुबीरजी के बारे में भी जानना चाहूँगा..
Deleteआगे की कहानी का इंतज़ार रहेगा !
ReplyDeleteजी आपने ठीक कहा हम सबके बीच कई रघुवीरजी जैसे अद्भुत व्यक्तित्व हैं। मेरे एक घनिष्ठ मित्र बंगलौर में रहते हैं, वे रघुवीरजी हैं, कभी उनको आपसे मिलाता हूँ।
ReplyDeleteरघुवीर जी से मुलाकात अच्छी रही ...आगे का इंतजार रहेगा.. मकर संक्रांति की हार्दिक शुभ कामनाएँ।
ReplyDeleteमैंने आज तीसरी बार आपके ब्लॉग को follow किया है ... पता नहीं क्यों पर आपकी पोस्ट की फीड मेरे डैशबोर्ड पर नहीं आ रही है !
ReplyDeleteसंक्रान्ति के समय गूगल महाराज कुछ संक्रमण की स्थिति में लग रहे हैं।
Delete''रघुबीरजी थोड़ी थोड़ी मात्रा में हम सबके भीतर विद्यमान हैं''
ReplyDeleteअगली कडी की प्रतीक्षा है,प्रवीण जी
रघुवीर जी जैसे बहुत से व्यक्तित्व हमारे अस्स पास होते हैं मगर बहुत कम लोग से ही मिलकर हम उन्हें जान पाते हैं बहुत अच्छा लिखा है आपने अगली कड़ी की प्रतीक्षा है
ReplyDeleteयह त्रिविमीय चेतना निश्चय ही समग्रता से हम सबके सामने आयेगी..
Deleteरोचक पात्रांश है रघुबीर .मैं भी रघुबीर तू भी ...
ReplyDeleteजय हो रघुवीर जी।
ReplyDeleteशायद हर व्यक्ति के जीवन में भी रघुवीर जी का कुछ अंश तो होता ही है!
ReplyDeleteरघुवीर जी के माध्यम से हर इंसान के मन को झाँका है .. दो खम्बों के बीच कूड़े का ढेर दिख तो रहा है पर यह हटेगा कैसे यही सोचना है ..
ReplyDeleteरोचक पात्र है रघुवीर जी,..बहुत सुंदर प्रस्तुति,बढ़िया अभिव्यक्ति
ReplyDeletenew post--काव्यान्जलि : हमदर्द.....
आपकी व्यावहारिक सूझ-बूझ की दाद देनी पड़ेगी, यह रचना आम लोगों के साथ-साथ खास लोगों में भी जगह बना लेगी।
ReplyDeleteरघुबीरजी थोड़ी थोड़ी मात्रा में हम सबके भीतर विद्यमान हैं-
ReplyDeleteयत्र तत्र सर्वत्र!!
आप भी हैं रघुबीरजी, आपकी रचनाओं से झलकता है।
Deleteयह लेख पढकर रघुबीर जी जरूर बधाई दे रहे होंगे आपको नए रघबीर को जन्म देने के लिये और सोये रघुबीरों को जगाने के लिये.
ReplyDeleteरघुबर क्रिपा कहत नहिं आवै।
ReplyDeleteज्यों गूंगेहि मीठे गुड कौ रस मन ही मन भावै।
काश! घट घट व्यापें रघुबीर जी...
ReplyDeleteसबकी प्रार्थनाओं में यह शक्ति अवश्य आयेगी।
Deleteरघुवीर जी जैसा वास्तविक चरित्र मिलना मुश्किल लगता है वैसे मान लेते हैं |
ReplyDeleteबहुत से रघुबीरजी अस्तित्व में आने को तैयार बैठे हैं, संतुलन की कला अनुभव से आ ही जायेगी।
Deleteजीवन के इन तीनों पहलुओं का उन्नयन जीवन को सार्थक बनाता है .
ReplyDeleteआपके ब्लॉग का पहला वाक्य पढ़ते ही मैने आवाज़ लगाई "सुमीता क्या आज चाय नही मिलेगी?" अब चाय की चुस्कियों के साथ धूप मे बैठा आपसे रूबरू हो रहा हूँ. बाहर कड़ाके की ठंड है मगर सुहानी धूप खिली है. रघूबीर जी हम सभी के अंदर हैं मगर अलग अलग अनुपात में. जिंदगी अलग अलग आयामों मे सही सामंजस्या बना सकने की कला का ही नाम है. मैं तो अब तक बड़ा ही कच्चा कलाकार साबित हुआ हूँ. आपसे कला के गुर सीखता हूँ. धन्यवाद. ४७ टिप्पणियो के बाद आप मेरे टिप्पणी को देख पायंगे क्या?
ReplyDeleteब्लॉगर के नये उत्तर देने की सुविधा के पूरे उपयोग का मन बनाया है, देर से ही सही पर हर टिप्पणी पर पहुँचेगे अवश्य। रघुबीरजी भी चाय के समय विचारों के सागर में हिंडोलते हैं।
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तुति,बढ़िया अभिव्यक्ति| मकर संक्रांति की शुभकामनायें|
ReplyDeleteरघुवीर जी जीवन दर्शन के महत्व पूर्ण पहलु को उद्घाटित करते हैं
ReplyDeleteजय रघुबीर जी की !
ReplyDeleteदूसरा और मानसिक विश्व उनकी पर्यावरणीय चेतना का है। इस चेतना के कारण वह सोसाइटी के सचिव हुये या सोसाइटी के सचिव होने के बाद उनकी पर्यावरणीय कुण्डलनी जागृत हुयी, ठीक ठीक कहना कठिन है पर उनके पर्यावरणीय प्रयोगों की चाह ने सोसाइटी में कई बार उत्सुकता, भय और सुख की त्रिवेणी बहायी है। नये प्रयोग के बारे में सोचना, उसे क्रमशः कार्यान्वित करना और उसमें आने वाली बाधाओं को झेलना, किसी गठबन्धन सरकार चलाने से कम कठिन नहीं है। अपने परिवेश में घटनाओं का संलिप्त साक्षी बनना उनके दूसरे विश्व का केन्द्रबिन्दु है और समयरेखा में मध्य में अवस्थित है।
ReplyDeleteदूसरा और मानसिक विश्व उनकी पर्यावरणीय चेतना का है। इस चेतना के कारण वह सोसाइटी के सचिव हुये या सोसाइटी के सचिव होने के बाद उनकी पर्यावरणीय कुण्डलनी जागृत हुयी, ठीक ठीक कहना कठिन है पर उनके पर्यावरणीय प्रयोगों की चाह ने सोसाइटी में कई बार उत्सुकता, भय और सुख की त्रिवेणी बहायी है। नये प्रयोग के बारे में सोचना, उसे क्रमशः कार्यान्वित करना और उसमें आने वाली बाधाओं को झेलना, किसी गठबन्धन सरकार चलाने से कम कठिन नहीं है। अपने परिवेश में घटनाओं का संलिप्त साक्षी बनना उनके दूसरे विश्व का केन्द्रबिन्दु है और समयरेखा में मध्य में अवस्थित है।
रघुबीर जी को आपकी कलम से पढ़ना अच्छा लगा ...आपका आभार ।
ReplyDeleteraghubir ji lajabab prstuti lagi bhutsundar drishtikon mila ....abhar pandey ji.....ap mere blog pr kb darshan denge pandey ji....ab bahut der tk prateeksha ho chuki hai bhai .
ReplyDeleteachchhii prastuti
ReplyDeletevikram7: महाशून्य से व्याह रचायें......
रघुबीरजी थोड़ी हम सबके भीतर विद्यमान हैं,
ReplyDeleteसच है। हम सब कहीं न कहीं रघुबीरजी हैं। इसीलिए यह पोस्ट अपनी सी लगी।
ReplyDeletePraveen ji
ReplyDeletebahut gahra vishleshan kar diya hai aapne ek samaany si sthiti ka!sochne yogya hai.
आपकी श्रृंखला के माध्यम से हम भी अपने अंदर के रघुवीर जी को पहचान जाएँ ......
ReplyDeleteभीतर भी रघुवीर हैं बाहर भी रघुवीर.
ReplyDeleteएक ही इंसान तीन दुनिया लिए हुए और बड़ी बात ये कि तीनो में "कॉमन" बहुत ही कम चीज़ें, एक दम ना के बराबर| बार ये ज़िंदगी है जो बस जिए जाते हैं हम, अपने अपने अंदर अपने अपने रघुबीर लिए हुए|बहुत अच्छा लगा पढ़के, खुद के अंदर तीनों विश्वों को पहचानना शुरू करना है अब!!!!
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद आना हुआ पहले २ कड़ी पढ़ी तब समझ नही पाई ये है कौन रघुबिर्जी और प्रथम कड़ी पे वो कहानी ले आई बहुत रोचक ढंग से लिखा है आपने बधाई !
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