छात्रावास में आज अनुराग का दूसरा दिन है। कल जब पिता जी उसे यहाँ छोड़कर गये थे, तब से अनुराग को अजीब सी बेचैनी हो रही थी। अपने दस वर्ष के जीवन में अनुराग ने घर ही तो देखा था, अनुराग को लगातार उसी घर की याद आ रही थी।
दो महीने पहले पाँचवी कक्षा में उसके अच्छे अंक आये थे। उसके पिता जी अपने शहर के एक प्रबुद्ध व्यक्ति से मिलने गये थे जहाँ पर अनुराग के भविष्य के बारे में भी बातें हुयी थीं। वहाँ से आने के बाद अनुराग के पिता जी ने उसके बाहर जाकर पढ़ने के लिये भूमिका बांधनी चालू कर दी थी। अनुराग ने पिता जी को कई बार माँ से कहते सुना था "अपने शहर में कोई अच्छा विद्यालय नहीं है, अनुराग का भविष्य यहाँ बिगड़ जायेगा। अपने यहाँ लोग बनते ही क्या हैं, कुछ गुण्डे बनते हैं, कुछ चोर बनते हैं। अगर हमको अनुराग का भविष्य बनाना है तो उसे यहाँ से निकाल कर बाहर पढ़ाना पड़ेगा।"
इस तरह धीरे धीरे प्रस्तावना बनने लगी। माँ का विरोध भी भविष्य की उज्जवल आशा के सामने फीका पड़ने लगा, लेकिन माँ का प्यार अनुराग के प्रति और भी बढ़ने लगा। अनुराग के सामने छात्रावास के अच्छे अच्छे खाके खींचे जाने लगे, नया शहर घूमने को मिलेगा, ढेर सारे मित्र मिलेंगे, घूमने इत्यादि की स्वतन्त्रता रहेगी और न जाने क्या क्या बताया गया अनुराग को मानसिक रूप से तैयार करने के लिये।
लेकिन आज अनुराग दुःखी था। उसे घर की बहुत याद आ रही थी, किसी से बात करने की इच्छा नहीं हो रही थी। कल की रात पहली बार अनुराग अपने घर के बाहर सोया था और जागते ही अपने घर की छवि न पाकर अनुराग का मन भारी हो गया। कभी-कभी उसे अपने माता पिता पर क्रोध आता था, प्यारे प्यारे छोटे भाई बहनों का चेहरा रह रह कर आँखों के सामने घूम जाता था। अभी अनुराग के अन्दर वह क्षमता नहीं आयी थी कि वह अपने आप को समझा सके। बुद्धि इतनी विकसित नहीं हुयी थी कि भविष्य के आँगन में वर्तमान की छवि देख पाता। विचारों का आयाम केवल घर की चहारदीवारी तक ही सीमित था, घर के सामने सारी दुनिया का विस्तार नगण्य था।
ऐसी मानसिक उथल पुथल में घंटों निकल गये। अनुराग उठा, तैयार हुआ, विद्यालय गया। कक्षा में अध्यापक उसे मुँह हिलाते हुये गूँगे से प्रतीत हो रहे थे। साथ में बैठा हुआ छात्र अपने मामा की कार के बारे में बता रहा था लेकिन अनुराग से उचित मान न पाकर वह दूसरी तरफ मुड़ गया। मध्यान्तर में अनुराग भोजनालय में खाना खाने गया और फिर अनमना सा विद्यालय के सामने वाले प्रांगण में आकर चुपचाप बैठ गया। "क्या नाम है तुम्हारा, बच्चे?" आवाज सुनकर अनुराग चौंका। "अनुराग.....शर्मा" मुड़कर देखा तो एक दाढ़ी वाले सज्जन खड़े थे। वेशभूषा से विद्यालय के अध्यापक प्रतीत हो रहे थे।
"क्यों, घर की याद आ रही है ना?" प्रश्न सुनकर अनुराग सकते में आ गया। "हाँ...नहीं नहीं" अनुराग हकलाते हुये बोला। अनुराग खड़ा हो गया और अब वह अध्यापक के साथ खड़े एक और छात्र को देख सकता था, जिसके सर पर हाथ रखकर अध्यापक बोले "इसका नाम रोहित है। यह भी तुम्हारी तरह कल ही आया है, यह भी रो रहा था, तुम भी रो रहे थे। सोचा कि तुम दोनों को मिला देते हैं। दोनों मिलकर आँसू बहाना।"
अनुराग का दुःख कम हुआ और यह बात सुनकर अनुराग की अध्यापक के प्रति आत्मीयता भी बढ़ी।
"नमस्ते" गलती याद आते ही अनुराग बोला।
"नमस्ते" फिर तीनों किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े थे।
अनुराग बचपन से ही शर्मीली प्रवृत्ति का था। कक्षा में उत्तर देने के अलावा उसे इधर उधर की बातें बनाना नहीं आता था। उसे अब समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले? अध्यापक वहीं बैठ गये, अभी मध्यान्तर समाप्त होने में पर्याप्त समय था, वह दोनों भी सामने बैठ गये।
"तुम्हारे माता पिता अच्छे नहीं हैं, देखो तुम लोगों को अकेले ही छोड़ दिया। तुमसे प्यार नहीं करते।" अध्यापक धीरे से मुस्कराते हुये बोले।
आश्चर्य हो रहा था अनुराग को। इन अध्यापक को उसके मन की बात कैसे पता चली? कुछ उत्तर नहीं सूझा अनुराग को। नहीं भी नहीं कर सकता था क्योंकि सचमुच यही सोच रहा था। हाँ कह कर वह अपने माता पिता के प्यार को झुठलाना नहीं चाहता था।
रोहित बोल पड़ा "नहीं नहीं, हमारे मम्मी पापा तो हमें बहुत चाहते हैं, उन्होने तो हमें बड़ा बनने के लिये यहाँ भेजा है।"
अनुराग ने सोचा, अरे, यही तो उसको भी बताया गया है।
"बड़ा बनने के लिये क्या करना पड़ता है?" अध्यापक बोले।
"पढ़ना पड़ता है" अनुराग बोल उठा।
उसके बाद अध्यापक ने दोनों के घरों के बारे में पूछा, तभी मध्यान्तर की घंटी बज गयी। सब लोग अपनी अपनी कक्षा में चले गये। रोहित और अनुराग अलग अलग वर्गों में थे।
"पढ़ना पड़ता है।" यह वाक्य अनुराग के दिमाग में गूंज रहा था। "तो घर में ही पढ़ लेते" प्रश्नोत्तर अनुराग के मन में पूछे जाने लगे। "नहीं नहीं अपने शहर में पढ़ाई अच्छी नहीं है" पिता जी ने कहा था। "माँ मुझे चाहती है तो भेज क्यों दिया" प्रश्न कौंधा। "नहीं नहीं, माँ तो दुखी थी, जब मैं छात्रावास आ रहा था" अनुराग नें मन को फिर समझाया।
अनुराग न अपने दुःख को कम कर सकता था और न ही दुःख का भार अपने घर वालों पर डाल सकता था। उसे जो ध्येय की प्रतिमा दिखायी गयी है उस पर उसको अपना जीवन खड़ा करना था। लेकिन प्रेम का उमड़ता हुआ बवंडर उसे बार बार दुःखी कर देता था। इस ध्येय और प्रेम के विरोधाभास ने अनुराग के मस्तिष्क को अचानक काफी परिपक्व कर दिया था। अब अनुराग यह जानता था कि अभी तक जो पारिवारिक स्नेह की नींव पर उसके जीवन का भवन निर्मित था उस भवन को ध्येय की ऊँचाईयों तक पहुँचाना ही उसका परम कर्तव्य है।
दो महीने पहले पाँचवी कक्षा में उसके अच्छे अंक आये थे। उसके पिता जी अपने शहर के एक प्रबुद्ध व्यक्ति से मिलने गये थे जहाँ पर अनुराग के भविष्य के बारे में भी बातें हुयी थीं। वहाँ से आने के बाद अनुराग के पिता जी ने उसके बाहर जाकर पढ़ने के लिये भूमिका बांधनी चालू कर दी थी। अनुराग ने पिता जी को कई बार माँ से कहते सुना था "अपने शहर में कोई अच्छा विद्यालय नहीं है, अनुराग का भविष्य यहाँ बिगड़ जायेगा। अपने यहाँ लोग बनते ही क्या हैं, कुछ गुण्डे बनते हैं, कुछ चोर बनते हैं। अगर हमको अनुराग का भविष्य बनाना है तो उसे यहाँ से निकाल कर बाहर पढ़ाना पड़ेगा।"
इस तरह धीरे धीरे प्रस्तावना बनने लगी। माँ का विरोध भी भविष्य की उज्जवल आशा के सामने फीका पड़ने लगा, लेकिन माँ का प्यार अनुराग के प्रति और भी बढ़ने लगा। अनुराग के सामने छात्रावास के अच्छे अच्छे खाके खींचे जाने लगे, नया शहर घूमने को मिलेगा, ढेर सारे मित्र मिलेंगे, घूमने इत्यादि की स्वतन्त्रता रहेगी और न जाने क्या क्या बताया गया अनुराग को मानसिक रूप से तैयार करने के लिये।
ऐसी मानसिक उथल पुथल में घंटों निकल गये। अनुराग उठा, तैयार हुआ, विद्यालय गया। कक्षा में अध्यापक उसे मुँह हिलाते हुये गूँगे से प्रतीत हो रहे थे। साथ में बैठा हुआ छात्र अपने मामा की कार के बारे में बता रहा था लेकिन अनुराग से उचित मान न पाकर वह दूसरी तरफ मुड़ गया। मध्यान्तर में अनुराग भोजनालय में खाना खाने गया और फिर अनमना सा विद्यालय के सामने वाले प्रांगण में आकर चुपचाप बैठ गया। "क्या नाम है तुम्हारा, बच्चे?" आवाज सुनकर अनुराग चौंका। "अनुराग.....शर्मा" मुड़कर देखा तो एक दाढ़ी वाले सज्जन खड़े थे। वेशभूषा से विद्यालय के अध्यापक प्रतीत हो रहे थे।
"क्यों, घर की याद आ रही है ना?" प्रश्न सुनकर अनुराग सकते में आ गया। "हाँ...नहीं नहीं" अनुराग हकलाते हुये बोला। अनुराग खड़ा हो गया और अब वह अध्यापक के साथ खड़े एक और छात्र को देख सकता था, जिसके सर पर हाथ रखकर अध्यापक बोले "इसका नाम रोहित है। यह भी तुम्हारी तरह कल ही आया है, यह भी रो रहा था, तुम भी रो रहे थे। सोचा कि तुम दोनों को मिला देते हैं। दोनों मिलकर आँसू बहाना।"
अनुराग का दुःख कम हुआ और यह बात सुनकर अनुराग की अध्यापक के प्रति आत्मीयता भी बढ़ी।
"नमस्ते" गलती याद आते ही अनुराग बोला।
"नमस्ते" फिर तीनों किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े थे।
अनुराग बचपन से ही शर्मीली प्रवृत्ति का था। कक्षा में उत्तर देने के अलावा उसे इधर उधर की बातें बनाना नहीं आता था। उसे अब समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले? अध्यापक वहीं बैठ गये, अभी मध्यान्तर समाप्त होने में पर्याप्त समय था, वह दोनों भी सामने बैठ गये।
"तुम्हारे माता पिता अच्छे नहीं हैं, देखो तुम लोगों को अकेले ही छोड़ दिया। तुमसे प्यार नहीं करते।" अध्यापक धीरे से मुस्कराते हुये बोले।
आश्चर्य हो रहा था अनुराग को। इन अध्यापक को उसके मन की बात कैसे पता चली? कुछ उत्तर नहीं सूझा अनुराग को। नहीं भी नहीं कर सकता था क्योंकि सचमुच यही सोच रहा था। हाँ कह कर वह अपने माता पिता के प्यार को झुठलाना नहीं चाहता था।
रोहित बोल पड़ा "नहीं नहीं, हमारे मम्मी पापा तो हमें बहुत चाहते हैं, उन्होने तो हमें बड़ा बनने के लिये यहाँ भेजा है।"
अनुराग ने सोचा, अरे, यही तो उसको भी बताया गया है।
"बड़ा बनने के लिये क्या करना पड़ता है?" अध्यापक बोले।
"पढ़ना पड़ता है" अनुराग बोल उठा।
उसके बाद अध्यापक ने दोनों के घरों के बारे में पूछा, तभी मध्यान्तर की घंटी बज गयी। सब लोग अपनी अपनी कक्षा में चले गये। रोहित और अनुराग अलग अलग वर्गों में थे।
"पढ़ना पड़ता है।" यह वाक्य अनुराग के दिमाग में गूंज रहा था। "तो घर में ही पढ़ लेते" प्रश्नोत्तर अनुराग के मन में पूछे जाने लगे। "नहीं नहीं अपने शहर में पढ़ाई अच्छी नहीं है" पिता जी ने कहा था। "माँ मुझे चाहती है तो भेज क्यों दिया" प्रश्न कौंधा। "नहीं नहीं, माँ तो दुखी थी, जब मैं छात्रावास आ रहा था" अनुराग नें मन को फिर समझाया।
अनुराग न अपने दुःख को कम कर सकता था और न ही दुःख का भार अपने घर वालों पर डाल सकता था। उसे जो ध्येय की प्रतिमा दिखायी गयी है उस पर उसको अपना जीवन खड़ा करना था। लेकिन प्रेम का उमड़ता हुआ बवंडर उसे बार बार दुःखी कर देता था। इस ध्येय और प्रेम के विरोधाभास ने अनुराग के मस्तिष्क को अचानक काफी परिपक्व कर दिया था। अब अनुराग यह जानता था कि अभी तक जो पारिवारिक स्नेह की नींव पर उसके जीवन का भवन निर्मित था उस भवन को ध्येय की ऊँचाईयों तक पहुँचाना ही उसका परम कर्तव्य है।
मार्गदर्शक कथा ...
ReplyDeleteकृपया नयी-पुरानी हलचल पर आयें और अपने विचार दें ...आपकी कहानी है यहाँ ...!!
कमसिन उम्र में माता पिता से दूर घर छोड़ते बच्चों के मन में बहुत उथल पुथल होती है ...शिक्षक और संगी साथी इसे समझ ले तो जीवन आसान हो जाता है!
ReplyDeleteप्रेरक मनोवैज्ञानिक कथा !
यह तो अपने पिट्सबर्ग वाले अनुराग शर्मा जी की कहानी लग रही है ...:) और याद आयी उस बूँद की आत्मकथा जो बादलों के आँचल को छोड़ एक दिन मोती बनी ....
ReplyDeleteमन का हिंडोला.
ReplyDeleteप्रेरणा सटीक औषधि है पर यह उचित मात्र में उचित समय पर मिले तो ....
ReplyDeleteमन को प्रेरित करती मनोवैज्ञानिक कथा| धन्यवाद|
ReplyDeleteपढ़ने जैसा उद्देश्य पारिवारिक-स्नेह के तले ज़्यादा अच्छी तरह से व व्यावहारिक ढंग से पूरा किया जा सकता है.दूर रहकर हम किताबी पढाई तो बेहतर कर सकते हैं पर रिश्तों की गर्मी से ज़रूर महरूम रह जायेंगे !हालाँकि इससे माँ-बाप का प्यार कम नहीं हो जाता.
ReplyDeleteपढ़ने में मनोविज्ञान की अहम भूमिका है !
जीवन के भवन में ऐसे ही कई ईंट जुड़कर मजबूती प्रदान करते है .
ReplyDeleteपुनर्विचार और पुनरावलोकन को प्रेरित करती लघुकथा!
ReplyDelete१९८० के दशक में, मैंने मुन्ने का दाखिला हिन्दुस्तान के सबसे जाने माने स्कूल में कराया था।
ReplyDeleteवहां के प्रधानाचार्य ने कहा कि उनका स्कूल हिन्दुस्तान का सबसे बेहतरीन स्कूल, उन मां-बाप के लिये है, जिनके पास अपने बच्चों के लिये समय नहीं है।
यह सुन कर मैं उसको वापस ले आया वह हमारे साथ ही रह कर पढ़ा और बारवीं के बाद आई आईआईटी कानपुर गया। मुझे गर्व है उसकी कोई खराब आदतें नहीं हैं - वह न शराब छूता है न ही सिग्रेट और न ही पान या पा-मसाला या तम्बाखू।
'अनुराग शर्मा'-कौन-से-वाले ?
ReplyDeleteइस ध्येय और प्रेम के विरोधाभास ने अनुराग के मस्तिष्क को अचानक काफी परिपक्व कर दिया था। अब अनुराग यह जानता था कि अभी तक जो पारिवारिक स्नेह की नींव पर उसके जीवन का भवन निर्मित था उस भवन को ध्येय की ऊँचाईयों तक पहुँचाना ही उसका परम कर्तव्य है।
ReplyDeletejai baba banaras...
:)
ReplyDeleteजीवन पाने के क्रम में ऐसे कई मोड आते हैं
ReplyDeleteShreya went through the same process, we put her into a hostel when she was just 9 years and got her back with us after an year. She could not develop strength to beat her emotions but definitely it added to her resilience towards difficult decisions in life affecting her.
ReplyDeleteबहुत ही प्रेरक प्रसंग है.... इस कहानी से बहुत सीख मिलती है..
ReplyDeleteबच्चों की मनोदशा दर्शाता आलेख
ReplyDeleteमाता पिता के साथ रहकर पढाई करने को मिले तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता .
ReplyDeleteमेरा हमेशा से यही विचार रहा है कि हॉस्टल में भेजना बच्चे को अनाथ बना देना है। गुरुकुल की बातें अलग थी, ध्येय अलग था।
ReplyDeleteप्रणाम
भवन को ध्येय की ऊँचाईयों तक पहुँचाना ही उसका परम कर्तव्य है।
ReplyDeleteबहुत सार्थक कथा...
सादर.
dil ko choo gayi ye prerak kahani
ReplyDeleteबच्चों के भविष्य के लिए माता - पिता को ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं .. प्रेरक कहानी
ReplyDeleteहोस्टल में बच्चे भावनात्मक रुप से मजबूत हो जाते हैं, एसा मेरा सोचना है।
ReplyDeleteमगर वहां भी उन्हें सकारात्मक वातावरण मिलना जरुरी हैं।
प्रेरक कहानी।
होस्टल में बच्चे भावनात्मक रुप से मजबूत हो जाते हैं, एसा मेरा सोचना है।
ReplyDeleteमगर वहां भी उन्हें सकारात्मक वातावरण मिलना जरुरी हैं।
प्रेरक कहानी।
होस्टल की जिंदगी का अनुभव ही एक निराला ही अनुभव होता है. बाकी बच्चे की समझदारी पर.
ReplyDeleteजब भी कोई अपने वातावरण से निकल कर बाहर आता है तो उसे लगता है कि वह बिन पानी की मछली है पर धीरे धीरे नये बातावरण में ढल जाता है। बेंगलूर पहुंच कर आप को भी ऐसा ही तो लगा होगा:)
ReplyDeleteबच्चे कहाँ समझ पाते हैं,'कभी हाँ कभी न',भावपूर्ण विचार।
ReplyDeleteसब अपनी अपनी मजबूरियों से बंधे हैं।
ReplyDeleteसन्तान का भविष्य माता-पिता के लिए सर्वोपरि होता है। इसीलिए बच्चों को मन कठोर करके छात्रावास में भेजना पड़ता है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया पोस्ट लगाई है आपने!
this story clearly depicts the thoughts arising in the child psycology and parents...in a very simple way ...happy new brother//
ReplyDeleteनिर्णय हालातों पर निर्भर करते हैं.
ReplyDeleteमनोविज्ञान दर्शाती प्रेरक कथा.
बाल मन की उथल पुथल ऐसे संवर जाये तो ही उचित राह मिल पाती है सर्वांगीण विकास के लिए..
ReplyDeleteकुछ अपनी सी कहानी लगती है।बहुत सी बातें आपने याह दिला दीं।बहित अच्छा लगा पढ़कर।बहुत-बहुत आभार।
ReplyDeleteबहुत सार्थक लेखन..
ReplyDeleteवास्तव में जिस उम्र में बच्चों को बाहर पढ़ने भेजा जाता है तभी उसको सबसे अधिक माँ के स्नेह और पिता के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है..अजीब विडम्बना है..
जीवन की पाठशाला में भावनाओं पर संयम की कला सीखना ही तो जीवन जीने की कला है। बचपन की याद दिलाती अर्थपूर्ण कहानी....।
ReplyDeleteध्येय पाने के लिए चुकाई गई कीमत।
ReplyDeleteमनोवैज्ञानिक जीवन से जुड़कर मजबूती प्रदान करते है
ReplyDeleteसुंदर रचना.....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
Ham to itne bade ho gaye par abhi bhi ghar se kahin door jaate waqt...dil bhaari ho jaata hai...bachhon kii to baat hi aur hai..
ReplyDeleteबाल मन की उथल पुथल को दर्शाता एक प्रेरक मनोवैज्ञानिक कथा !..बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteदिलचस्प...
ReplyDeletebalmn pr mnovaigyanik drishti pat....achhi prastuti ..abhar.
ReplyDeleteप्रेरक कथा
ReplyDelete..
बाल मनोविज्ञान का बहुत सुन्दर चित्रण...छोटी उम्र में घर से दूर होना मुश्किल होता है, लेकिन सही प्रेम और मार्ग दर्शन निश्चय ही सोच में बदलाव ला सकता है...बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
ReplyDeletebara hee kashamaksh me dal diya hai apake is aalekh/kahaanee/sach ne.
ReplyDeleteअगर यह कहानी है तो सच जैसा लगता है। और सच है तो कहानी सा लगता है।
ReplyDelete'स्नेह से ध्येय तक ' भाई साहब पहुंचा ही नहीं जा सकता है .झांसा और स्नेह पर्याय्व्ची शब्द नहीं हैं .संवेदना किसी काम की चीज़ नहीं है मनमोहन की तरह मोती खाल लेके जियो एश करो .यही इस कथा का सार है .अच्छा परिवेश खडा करती है कथा बाल मन के कुहांसे को शब्दों में पिरोदेती है .
ReplyDeletemental conflict is depicted beautifully in this post.
ReplyDeleteबहुत ही गुत्थम गुत्था कहानी है, भविष्य की और अभिभावकों से प्रेम की, वाकई मैं भी यही सोचता हूँ कि क्या केवल होस्टल वाले बच्चे ही अच्छा भविष्य बनाते हैं, तो वाकई जवाब मिलता है नहीं सभी अच्छा करते हैं, यह निर्भर करता है कि माता पिता की सोच क्या है। हो सकता है कि होस्टल में बच्चे में स्वनिर्भर होने की क्षमता विकसित होती हो, परंतु यही क्षमता का विकास घर पर भी रहकर किया जा सकता है। और एक बात कि जो बच्चे होस्टल में जाते हैं, माता पिता उनसे बेहद प्यार करते हैं, यह बात १०१ फ़ीसदी सत्य है। बस वे बच्चे माता पिता के ध्येय को कंधे पर लादे रहते हैं।
ReplyDeleteप्रेरणात्मक प्रस्तुति ।
ReplyDeleteप्रेरक लघु कथा!
ReplyDeleteaapki likhi kahaniyan kam hi padhi ya ya shayad ye pahli ya dusri hi hogi...acchi lagi...
ReplyDeleteभावनाओं का अतिरेक अंतर्द्वन्द्व पैदा करता है बस इसे दिशा देने की आवश्यकता है.
ReplyDeleteसमय सब कुछ समझा देता है...
ReplyDelete------
मुई दिल्ली की सर्दी..
... बुशरा अलवेरा की जुबानी।
बेशक व्यक्ति की क्षमताएं अपार हैं .१५ दिन के बाद ही व्यक्ति नए परिवेश का आदि हो जाता है .बूझने अन्वेषण की क्षमता का स्वतन्त्र रूप विकास होता है अलबत्ता होता यह सब संवेदनाओं की कीमत चुकाके .ब्लॉग पर आपकी दस्तक के लिए शुक्रिया .
ReplyDeleteविद्या तो विद्यालय में प्राप्त हो जाती है परन्तु शिक्षा माँ-बाप के समीप ही रह कर मिलती है |
ReplyDeletePreaveen, It's a moving narration, your writing chills my bones, its amazing how you make us look at life in 360 degree perspective.
ReplyDeleteBut I fail to accept the idea of parents' deciding on a child's future. If they were so worried about his future why didn't they move to another city? Because its always easy to displace a child and one can always find convincing enough reasons to wash his hands off his/her responsibilities. I wonder how lotus blooms in a mucky pond? We too were raised in a neighborhood where my parents were worried about our future but they did everything to keep us close to them and still inculcate wisdom and values that shaped our lives. I understand situations and circumstances can be different for different people but its the choice we make, determines who'll pay the price for it. Its like today most parents in big cities leave toddlers in day-care center. Why? Why have a child if you cannot raise it? This whole idea makes me so angry and because I work with children and through their drawings/paintings I hear their cries, how damaged is their whole world within its beyond me.
p.s. I will respond to earlier post now :-)
आपके पोस्ट पर आकर का विचरण करना बड़ा ही आनंददायक लगता है । मेरे नए पोस्ट "लेखनी को थाम सकी इसलिए लेखन ने मुझे थामा": पर आपका बेसब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद। .
ReplyDeleteअनुशासन कहीं का भी हो
ReplyDeleteवह विद्रोही भी बना सकता है या विनम्र भी
bal-manovigyan samjne ke liye bahut achhi post...
ReplyDeletepranam.
bahut sahi kahani praveen ji
ReplyDeletekafi samay se aap blog par nahi aaye
kya bat hain koi galti hui kya hamse
सुंदर मार्ग दर्शक कथा .......
ReplyDeleteजो हो बचपन को विचारों के भंवर में उलझाती है यह मार्मिक कथा अबूझ सवालों के घेरे में ला खडा करती है .
ReplyDeleteआपकी यह रचना पढ़कर तारे ज़मीन पर फिल्म याद आ गई ...
ReplyDelete:)
ReplyDelete