दस वर्ष का बच्चा अपनी माँ से कहे कि उसे तो बस चित्रकार ही बनना है, तो माँ को कुछ अटपटा सा लगेगा, सोचेगी कि डॉक्टर, इन्जीनियर, आईएएस बनने की चाह रखने वालों की दुनिया में उसका बच्चा अलबेला है, पर कोई बात नहीं, बड़े होते होते उसकी समझ विकसित हो जायेगी और वह भी कल्पना की दुनिया से मोहच्युत हो विकास के मानकों की अग्रिम पंक्ति में सम्मिलित हो जायेगा। इसी बात पर पिता के क्रोध करने पर यदि वह बच्चा सब सर झुकाये सुनता रहे और जाते जाते पिता की तनी भृकुटियों का चित्र बना माँ को पहचानने के लिये पकड़ा दे, तो माँ को बच्चे की इच्छा शक्ति बालहठ से कहीं अधिक लगेगी। वह तब अपने बच्चे का संभावित भविष्य एक चित्रकार के रूप सोचना प्रारम्भ तो कर देगी, पर वह चिन्तन संशयात्मक अधिक होगा, निश्चयात्मक कम। बच्चा और बड़ा होकर अपने निर्णय पर अटल रहते हुये एक महाविद्यालय के कला संभाग में पढ़ने लगे, पर एक वर्ष बाद ही जब उसके प्राध्यापक उसे बुलाकर समझायें कि कला तो उसमें जन्मजात है, अब उसे और कला सीखने की आवश्यकता नहीं है, यदि महाविद्यालय में शेष वर्षों का सदुपयोग करना है तो उसे जीविकोपार्जन के लिये विज्ञापन या फोटोग्राफी भी सीख लेनी चाहिये। तब कहीं उसकी माँ अपने बच्चे के भविष्य के प्रति आश्वस्त हुयी होगी और उसे यह विश्वास हो गया होगा कि उसका बच्चा जीवन निर्वाह सकुशल कर पायेगा।
माँ की चिन्ता तो यहीं समाप्त हो जाती है पर क्या आप उसके बाद के लगभग २० वर्षों को नहीं जानना चाहेंगे जो उस बच्चे के स्वप्न को पूर्ण रूप से साकार होने में लगे और जिसका जानना हर उस माँ के लिये आवश्यक है जिनके बच्चे की कला में बहुत अधिक रुचि है या जिनका बच्चा १० वर्ष की उम्र में ही चित्रकार बनने की भीष्म प्रतिज्ञा किये बैठा है। हम सबको ऐसे बाल-निश्चयों को गम्भीरता से लेना होगा क्योंकि स्वयं को दस वर्ष की छोटी अवस्था में समझ पाना और अपने बनाये सपने को जी पाना मन की जीवटता का अद्भुत निरूपण है।
जो अच्छा लगे वह कर पाना बहुत कठिन है। अपने जैसे बहुतों को जानता भी हूँ जो औरों से अपनी तुलना करते करते जीवन व्यर्थ कर डालते हैं और जब तक समझ में आता है तब तक बहुत देर हो जाती है, सपनों को साकार करने में। समाज जिसे महत्व देता है, वही लबादा ओढ़ लेते हैं हम लोग, दम घुट जाये किसे परवाह। जो हैं, वह बन कर जी पाना ही सर्वाधिक सुख देता है। वह सुख अनुभव तो नहीं किया जा सकता है पर सबके लिये अनुकरणीय बन जाता है। जीवटता की कठिन राह से निकल आने के बाद तो हम उनसे प्रभावित होते हैं पर उनको किन परिस्थितियों ने प्रभावित किया और किस प्रकार अनजाने और विशेष जीवन को जीते हुये उन्होने अपने सपनों को निभाया है, यह जानना भी आवश्यक है।
हाँ, इस परिप्रेक्ष्य में फिर आते हैं उस कहानी पर। चित्रकला नियमित रूप से जुड़ी रहती है उससे पर पढ़ाई करने के बाद पहली नौकरी एक बहुराष्ट्रीय विज्ञापन कम्पनी में करने जाता है वह। चित्रों में अपनी आशा स्थापित करने वाला बच्चा अपनी सृजनात्मकता कम्पनी के उत्पाद बिकवाने के लिये और आमजन के अन्दर उसकी आवश्यकता के सपने जगाने में लगाने लगता है। कला का उपयोग साबुन, कोला, तेल या चॉकलेट बेचने के लिये। मैं भले ही ऐसे विज्ञापनों का धुर विरोधी न हूँ पर दस वर्ष की अवस्था में जिस बच्चे ने ब्रश से अपनी कल्पना उकेरने का सपना पाला हो उसके लिये यह एक स्थायी निष्कर्ष नहीं हो सकता था, भले ही कितना पैसा उसे मिल रहा हो। लोग इसे प्रतिभा का व्यावसायिक उपयोग मान सकते हैं, पर मन की संतुष्टि के सम्मुख धन का क्या मोल? अन्ततः विज्ञापन के व्यूह से बाहर आ जाता है वह।
फोटोग्राफी में महारत और दूसरी कम्पनी में नौकरी, एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी से बड़ा कार्य मिलता है, भारत के बच्चों के बारे में फोटोग्राफ-श्रंखला बनाने का। जहाँ एक ओर हमारे नित के जीवन में एक ही जगह पड़े रहने से और कृत्रिमता ओढ़ लेने से संवेदना का अकाल पड़ जाता है, उसको ईश्वर प्रदत्त अवसर मिलता है, पूरा देश घूमने का और बच्चों के चेहरों में जीवन के भाव पढ़ने का। सड़कों में, गरीबी में, भूख में, उत्साह में, उन्माद में, खेल में, बालश्रम मे, शापित, शोषित, हर ओर बच्चों के भाव, संवेदनाओं की उर्वरा भूमि देखने का अवसर, देश के भविष्य को पढ़ने का अवसर। हर यात्रा में चित्रकला को संवेदना का ग्रास मिलने लगता है।
जीवन बढ़ता है, चित्रकला अधिक के लिये उकेरने लगती है, गौड़ से मूल स्थान पाना चाहती है जीवन में। धीरे धीरे सारी व्यस्ततायें चित्रकला के मौलिक व्यसन के लिये सिमटती जाती हैं। दिन में, रात में, भीड़ में, एकान्त में, हर समय कल्पनाओं के घुमड़ते बादल रंग और आकार में ढल जाना चाहते हैं। अपना सपना देखने के २५ वर्ष बाद उसे अपनी चित्रकला का एकान्त मिलता है, मन के बाँध अपने सारे द्वार खोल देने को तत्पर हैं, प्रवाह अनवरत बने रहना चाहता है।
माँ बेटे के सपने को वास्तविकता बनते हुये देखती है, विश्वास के साथ, अभिमान के साथ। इस चित्रकार की सफल कहानी उन माँओं को विचलित नहीं करेगी जिनके बच्चे ऐसी ही भीष्म प्रतिज्ञायें करने को तत्पर बैठे हैं।
(मेरे मित्र की जीवन कथा है यह, २५ वर्ष बाद हम मिले, मेरे हाथ में कलम उसके हाथ में ब्रश, मैं बद्ध वह निर्बन्ध, मैं अपने सपनों का सेवक वह अपने सपनों का राजा)
माँ की चिन्ता तो यहीं समाप्त हो जाती है पर क्या आप उसके बाद के लगभग २० वर्षों को नहीं जानना चाहेंगे जो उस बच्चे के स्वप्न को पूर्ण रूप से साकार होने में लगे और जिसका जानना हर उस माँ के लिये आवश्यक है जिनके बच्चे की कला में बहुत अधिक रुचि है या जिनका बच्चा १० वर्ष की उम्र में ही चित्रकार बनने की भीष्म प्रतिज्ञा किये बैठा है। हम सबको ऐसे बाल-निश्चयों को गम्भीरता से लेना होगा क्योंकि स्वयं को दस वर्ष की छोटी अवस्था में समझ पाना और अपने बनाये सपने को जी पाना मन की जीवटता का अद्भुत निरूपण है।
जो अच्छा लगे वह कर पाना बहुत कठिन है। अपने जैसे बहुतों को जानता भी हूँ जो औरों से अपनी तुलना करते करते जीवन व्यर्थ कर डालते हैं और जब तक समझ में आता है तब तक बहुत देर हो जाती है, सपनों को साकार करने में। समाज जिसे महत्व देता है, वही लबादा ओढ़ लेते हैं हम लोग, दम घुट जाये किसे परवाह। जो हैं, वह बन कर जी पाना ही सर्वाधिक सुख देता है। वह सुख अनुभव तो नहीं किया जा सकता है पर सबके लिये अनुकरणीय बन जाता है। जीवटता की कठिन राह से निकल आने के बाद तो हम उनसे प्रभावित होते हैं पर उनको किन परिस्थितियों ने प्रभावित किया और किस प्रकार अनजाने और विशेष जीवन को जीते हुये उन्होने अपने सपनों को निभाया है, यह जानना भी आवश्यक है।
हाँ, इस परिप्रेक्ष्य में फिर आते हैं उस कहानी पर। चित्रकला नियमित रूप से जुड़ी रहती है उससे पर पढ़ाई करने के बाद पहली नौकरी एक बहुराष्ट्रीय विज्ञापन कम्पनी में करने जाता है वह। चित्रों में अपनी आशा स्थापित करने वाला बच्चा अपनी सृजनात्मकता कम्पनी के उत्पाद बिकवाने के लिये और आमजन के अन्दर उसकी आवश्यकता के सपने जगाने में लगाने लगता है। कला का उपयोग साबुन, कोला, तेल या चॉकलेट बेचने के लिये। मैं भले ही ऐसे विज्ञापनों का धुर विरोधी न हूँ पर दस वर्ष की अवस्था में जिस बच्चे ने ब्रश से अपनी कल्पना उकेरने का सपना पाला हो उसके लिये यह एक स्थायी निष्कर्ष नहीं हो सकता था, भले ही कितना पैसा उसे मिल रहा हो। लोग इसे प्रतिभा का व्यावसायिक उपयोग मान सकते हैं, पर मन की संतुष्टि के सम्मुख धन का क्या मोल? अन्ततः विज्ञापन के व्यूह से बाहर आ जाता है वह।
फोटोग्राफी में महारत और दूसरी कम्पनी में नौकरी, एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी से बड़ा कार्य मिलता है, भारत के बच्चों के बारे में फोटोग्राफ-श्रंखला बनाने का। जहाँ एक ओर हमारे नित के जीवन में एक ही जगह पड़े रहने से और कृत्रिमता ओढ़ लेने से संवेदना का अकाल पड़ जाता है, उसको ईश्वर प्रदत्त अवसर मिलता है, पूरा देश घूमने का और बच्चों के चेहरों में जीवन के भाव पढ़ने का। सड़कों में, गरीबी में, भूख में, उत्साह में, उन्माद में, खेल में, बालश्रम मे, शापित, शोषित, हर ओर बच्चों के भाव, संवेदनाओं की उर्वरा भूमि देखने का अवसर, देश के भविष्य को पढ़ने का अवसर। हर यात्रा में चित्रकला को संवेदना का ग्रास मिलने लगता है।
जीवन बढ़ता है, चित्रकला अधिक के लिये उकेरने लगती है, गौड़ से मूल स्थान पाना चाहती है जीवन में। धीरे धीरे सारी व्यस्ततायें चित्रकला के मौलिक व्यसन के लिये सिमटती जाती हैं। दिन में, रात में, भीड़ में, एकान्त में, हर समय कल्पनाओं के घुमड़ते बादल रंग और आकार में ढल जाना चाहते हैं। अपना सपना देखने के २५ वर्ष बाद उसे अपनी चित्रकला का एकान्त मिलता है, मन के बाँध अपने सारे द्वार खोल देने को तत्पर हैं, प्रवाह अनवरत बने रहना चाहता है।
(मेरे मित्र की जीवन कथा है यह, २५ वर्ष बाद हम मिले, मेरे हाथ में कलम उसके हाथ में ब्रश, मैं बद्ध वह निर्बन्ध, मैं अपने सपनों का सेवक वह अपने सपनों का राजा)
असुरक्षा की भावना से सताये माता-पिता द्वारा मेडिकल-इंजीनियरिंग की रैट-रेस में धकेले जा रहे बच्चों के बीच आपके इस मित्र का दृढनिश्चय सचमुच अनुकरणीय है। उन्हें हमारी शुभकामनायें!
ReplyDeleteसाथ ही हमारे राष्ट्र की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि अपने सीमित संसाधनों को बाल-शिक्षा की कीमत पर उच्च शिक्षा में लगाना कम करें और इस बात के प्रयास सुनिश्चित करें कि घर-घर (निर्धनों के घर भी) में बच्चों तक शिक्षा पहुंचे।
बहुत उम्दा विश्लेषण |नव वर्ष की मंगल कामनाओं के साथ ....
ReplyDeleteअपने तमाम स्वप्नों मे से किसी एक को चुनना और जीवनमन्त्र बना लेना ही भविष्य की सफलता तय कर देता है। स्वप्न क्या है ये महत्वपूर्ण नहीं।
ReplyDeleteसार्त्र कहते थे कि पढ़ाई के दिनों में ही उन्होंने तय कर लिया था कि उन्हें दार्शनिक बनना है.
ReplyDeleteजो लोग सड़कों के किनारे दुकानों के साइन बोर्ड पेंट करते हैं उन्होंने भी हुसैन के सपने संजोए होते हैं कभी, यही हाल फ़िल्मों के एक्ट्राओं का है कि वे भी घर से अमिताभ बच्चन बनने ही निकले होते हैं...
ReplyDeleteहैरानी होती है इस बात पर कि कोई इस पर नहीं लिखना चाहता कि कला अपने आप में तो जो कुछ होती है सो तो होती है, लेकिन उसे प्रतिस्थापित करना अपने आप में ही कला है न कि बच्चों का हंसी ठठ्ठा. किसी को भी दोनों में पारंगत होना ज़रूरी होता है वर्ना केवल एक कला में ही पारंगत होने से ढेरों लोग पूनम पांडे हो निकलते हैं.
। जीवटता की कठिन राह से निकल आने के बाद तो हम उनसे प्रभावित होते हैं पर उनको किन परिस्थितियों ने प्रभावित किया और किस प्रकार अनजाने और विशेष जीवन को जीते हुये उन्होने अपने सपनों को निभाया है, यह जानना भी आवश्यक है।
ReplyDeleteकोई सपना देखना और उसके पीछे भागते रहना ,उसको सफलता में परिवर्तित करना ...निश्चित रूप से इतना आसन नहीं है |बहुत लगन और हिम्मत चाहिए ...!!आपके मित्र की success story पढ़कर अच्छा लगा ...!!शुभकामनायें
काजल कुमार की टिप्पणी बहुत सटीक है।
ReplyDeleteतय होता है किसे क्या बनना है। सुंदर विश्लेषण आभार
ReplyDeleteकुछ कलाएं नैसर्गिक होती हैं,शौक से शुरू होकर पेशेवर बन जाना नियति बन जाती है.
ReplyDeleteज़रूर कुछ प्रतिभाएं सही मौका न पाने पर नष्ट भी हो जाती हैं !
यह प्रेरक प्रसंग उन तमाम मौलिक प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करेगा जिन्हें दुनियावी मामलात में उलझ कर कई समझौते करने पड़ जाते हैं मनुष्य अंततः उसी क्षेत्र में अपनी सफलता के झंडे गाड़ सकता है जिसमें उसकी नैसर्गिक अभिरुचि हो !
ReplyDeleteसपने तो सबने देखे होते हैं , भौतिक जरूरतों के साथ कलाकार मन की संतुष्टि के लिए एक संतुलन की आवश्यकता है जो सबके लिए आसान नहीं ... ऐसे बिरले साहसी लोगों को नमन !
ReplyDeleteकाजल जी की टिप्पणी भी बहुत कुछ कहती है ...
एक सिरिअल आता था , जिसमें बजता था - 'क्या बनोगे मुन्ना ...?' पर प्रश्न के साथ माता पिता की इच्छाएं शामिल थीं . जितनी अपनी इच्छा मायने रखती है, उतना ही महत्व बच्चों की इच्छा पर देने से सही होता है .
ReplyDeleteबहुत ही प्रेरक प्रसंग है... मेरी बिटिया को भी चित्रकारी बहुत पसंद है... अभी तो बहुत छोटी है, लेकिन रोज़ ही कुछ न कुछ बना कर अचंभित करती है...
ReplyDeleteनव-वर्ष की मंगल कामनाएं ||
ReplyDeleteधनबाद में हाजिर हूँ --
हमारी शिक्षा व्यवस्था में ही खोट है.
ReplyDeleteखुद का बेटा याद आया...........बस इन्तजार है ...
ReplyDeleteअच्छा लेख
ReplyDeleteबहोत अच्छे ।
ReplyDeleteहिंदी ब्लॉग
हिन्दी दुनिया ब्लॉग
आपकी कलम से किया गया यह विश्लेषण कई सवाल करता है अपने आप से ...आभार सहित इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए बधाई ।
ReplyDeleteदृढनिश्चय हो तो ...
ReplyDeleteभौतिकता और असुरक्षा की भावना से लड़ते हुए नैसर्गिक प्रतिभा को सुरक्षित रखना चुनौती तो है ही.
बहुत लगन और हिम्मत चाहिए...सपनो को साकार करने के लिए
ReplyDeleteकला में ही जीवन है।
ReplyDeleteदृढ निश्चय सफलता के लिए आवश्यक है
ReplyDeleteआपके मित्र की कहानी वास्तव में सोचने को प्रेरित करती है ..... पर भारतवर्ष में कितने ही ऐसे किशोर होते हैं जो परिवार को सोचते हुए अपना भावी कैरियर स्वाह कर लेते हैं...
ReplyDeleteएक सकरात्मक पोस्ट के लिए साधुवाद..
्हमारे यहाँ यही कमी है कि हम बच्चों की चाहतो पर कम और अपनी चाहतो पर ज्यादा ध्यान देते हैं ना ही शिक्षा प्रणाली ऐसी है कि जिसमे पता चल सके कि बच्चे का किस विषय मे रुझान है।
ReplyDeletesab kuch safe hai agar aap ki soch sarthak hai...future har taraf hai..
ReplyDeletejai baba banaras...
आपका यह लेख भी हमेशा की तरह अपने चिर परिचित अंदाज़ में पाठक को बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर देता है ! जीवन का यथार्थ लिखने का आपका यह सफल प्रयास है, परन्तु भारत जैसे अविकसित ( आप इसे विकास शील कह सकते हैं ) देशों में निवास करने वाले अभिभावकों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति उन्हें यह करने के लिए मजबूर कर देती है . बेटा/बेटी ज़ल्दी से बड़े होकर अपने पैर खड़े हो जाएँ और अपना परिवार चलने लायक हो जाएँ, बस हर एक माँ बाप यही सोचता है, बच्चे की अभिरुचि क्या है यह सोचने की फुर्सत किसके पास है या फिर फुर्सत है भी तो "पापी पेट का सवाल है" I और बस फिर शुरू होता है अन्धानुकरण I
ReplyDeleteआपका अंतिम प्रभावशाली वाक्य "मेरे हाथ में कलम उसके हाथ में ब्रश, मैं बद्ध वह निर्बन्ध, मैं अपने सपनों का सेवक वह अपने सपनों का राजा" शायद इसी मजबूरी का साहित्यिक रूपांतरण ही तो है!
कोई बच्चा या बड़ा जो होने की सम्भावना लिये इस जग में आया है वह अगर बन पाए तब ही उसकी क्षमता का आकलन हो सकता है..बच्चों को अपने हुनर पर भरोसा रखना होगा व मातापिता को भी उन्हें प्रेरित करना होगा...आपके मित्र को बधाई!
ReplyDeleteबिलकुल, और यह भी सत्य है कि इन्सान जिस भावना और धेय को लेकर चलता है फल भी उसीनुसार मिलता है उसे !
ReplyDeleteहम अक्सर दूसरे के तय किये हुए मार्ग पर चलने में ही सफलता मानने लगते हैं और जब स्वयं अभिभावक बनते हैं तब उस मन;स्थिति को भूल चुके होते हैं .....
ReplyDeleteसोचने को बाध्य करता आलेख . आभार .
ReplyDeleteहम सबको ऐसे बाल-निश्चयों को गम्भीरता से लेना होगा क्योंकि स्वयं को दस वर्ष की छोटी अवस्था में समझ पाना और अपने बनाये सपने को जी पाना मन की जीवटता का अद्भुत निरूपण है।
ReplyDeleteसच्ची और अच्छी बात
नीरज
बहुत चिंतन को मजबूर करती है आपकी पोस्ट.रूचि तो ठीक है परन्तु सिर्फ रूचि से जीवन चल जाये यह भी मुश्किल होता है.तालमेल आवश्यक है.
ReplyDeleteराजा तो हम भी हैं, आप भी, अपने-अपने सपनों के। और जब से ब्लॉग मिला है, जो स्वतंत्रता से लेखन हुआ है उसकी कोई मिसाल नहीं।
ReplyDeleteपता नहीं कितने गुलाब, कमल बनाकर विकसित होने की होड में कमल तो बन ही नहीं पाते (बनते कैसे) और गुलाब की सुवास भी नहीं बिखेर पाते!!
ReplyDeleteआपके मित्र की कहानी बहुत प्रेरक है .. सपनो को साकार करने के लिए भी यथार्थ की कठोर भूमि पर चलना पड़ता है ..
ReplyDeleteसटीक विश्लेषण.
ReplyDeleteइतनी कम उम्र मे आपने आपको समझना बहुत साधारणतौर पर कठिन होता है लेकिन अगर कोई बच्चा आफ्ना कोई सपना चुनले और उस पर अडिग रहने का प्रयास कर सके तो इसे अच्छी और कोई बात हो ही नहीं सकती। क्यूंकि जिस तरह आपकी इच्छा मायने रखती है ठीक वैसे ही आपके बच्चे की इच्छा का भी उतना ही मायने रखती है अतः उजवाल भविषय के लिए उसकी इच्छा को मनोबल देना ही साई होगा क्यूंकि ज़िंदगी और सपने उसके है जिनके आधार पर उसका भविष्य बनेगा ....सार्थक पोस्ट
ReplyDeleteलगन हो और बनी रहे यह भी बहुत जरुरी है। प्रेरक प्रसंग।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पोस्ट.
ReplyDeleteनव वर्ष पर आपको और आपके परिवार को हार्दिक शुभकामनायें।
कम ही लोगों को यह खुशनसीबी मिलती है उनका शौक ही उनका व्यवसाय बन जाए जन्मजात रुझान आजीविका बन निखरे .अच्छी जीवन कथा प्रेरक उत्प्रेरक नै ज़मीन तोडती तलाशती .बधाई .
ReplyDeleteएम एफ़ हुसैन भी तो हैदराबाद की सडकों पर पोस्टर पेंट करते-करते ही तो बडे कलाकार बने। सब से बडी बात तो यह है कि हमें यह समझना चाहिए कि कोई भी काम छोटा नहीं होता। जिस काम को भी लें उसकी ऊंचाई तक पहुंचे, यही तो मंज़िल है॥
ReplyDeleteknowingly or unknowingly parents pass their fear and desires to their kids.
ReplyDeleteIn India they may give money but not freedom .
couldn't agree more.
Deleteknowingly or unknowingly parents pass their fear and desires to their kids.
ReplyDeleteIn India they may give money but not freedom .
सपनो को साकार करने के लिए बहुत लगन और हिम्मत चाहिए|
ReplyDeleteहर घर की व्यथा-कथा!!
ReplyDeleteरंगों से अलग सा रंग बिखेरता आलेख ..
ReplyDeleteप्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट " जाके परदेशवा में भुलाई गईल राजा जी" पर आपके प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । नव-वर्ष की मंगलमय एवं अशेष शुभकामनाओं के साथ ।
ReplyDeleteबच्चे की जिसमे रूचि हो वही उसे पढ़ने को मिले।
ReplyDeleteBahut prabhavshalee!
ReplyDeleteकला को जीवन का लक्ष्य बना लेना बहुत कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है, किंतु यह जरूरी नहीं कि क्ला आजीविका का साधन भी बने.एक विचारणीय विश्लेषण सदा की तरह .
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लेख...
ReplyDeleteएक पागलपन हो तो बस मंजिल समझो मिल गयी...अगर वो दीवानगी आपको दिखती है खुद में या अपने बच्चे में तो फिर कोई भी राह हो..रोकें नहीं..
सादर.
Always listen to your heart..
ReplyDeleteएक सुन्दर प्रेरणादायी पोस्ट. कुछ ऐसी ही स्थिति मेरे पहचान के एक मान की भी है. साझा करूँगा. नव वर्ष की मंगल कामनाएं.
ReplyDeleteअपने सपने साकार करने के लिए जोखिम भी उठानी पडती है और कीमत भी चुकानी पडती है। सबके अपने-अपने सपने और अपनी-अपनी हिम्मत।
ReplyDeletebahut prabhaavshali vastvikta se bhara vivran.bahut umda is vivran ka saar.
ReplyDeleteधन्य है वो लोग जिनमें इतना आत्विश्वास होता है और जो इतने कर्मठ भी होते हैं ...
ReplyDeleteवैसे बहुत से माँ बाप असुरक्षा के माहोल में इसलिए भी रहते भी की कहीं बच्चे का जीवन न खराब हो जाए ...
जो अच्छा लगे वह कर पाना बहुत कठिन है। अपने जैसे बहुतों को जानता भी हूँ जो औरों से अपनी तुलना करते करते जीवन व्यर्थ कर डालते हैं और जब तक समझ में आता है तब तक बहुत देर हो जाती है, सपनों को साकार करने में।
ReplyDeletepar jab jago tabhi savera man ke chal sake to kya hi achchha ho.
गहन लेखनी,सोचने पर विवश करती...
ReplyDeleteप्रवीण जी.....
ReplyDeleteआप जो भी विषय उठाते हैं इतनी खूबसूरती से उसकी व्याख्या करते हैं कि उसमें किसी प्रकार की कोई गुंजाईश ही नहीं बचती है....!!
कितने ही लोग आपके लेख से प्रेरणा पा सकते हैं यदि वह उन्हें ध्यानपूर्वक पढ़ें तो....!!
सभी का मार्गदर्शन करने के लिए धन्यवाद...!!
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - आखिर हम जागेंगे कब....- ब्लॉग बुलेटिन
ReplyDeleteसफल परिणाम प्रारम्भ में लिए गए निर्णय को उचित सिद्ध नहीं कर सकते |
ReplyDeleteend does not justify the means, always.
जो जी चाहे वो मिल जाये कब ऐसा होता है. हर जीवन जीने का समझौता होता है.
ReplyDeleteकाश ऐसा सभी के साथ हो.
कहानी पढ़कर उम्मीद बंधी है भविष्य के प्रति।
ReplyDeleteमार्ग दर्शन देता बहुत सुंदर आलेख,बहुत बढिया लगा,
ReplyDeleteWELCOME to new post--जिन्दगीं--
sahab madhyamvargeey parivaar ki aaj tak yahi kahani hai...jee lo ya zindagi jee lo...
ReplyDeleteसच्ची लगन हर बाधा पार कर सपने साकार कर देती है !
ReplyDeletebehad sundar vishleshan ... aur swapno ka bahut mahtav hota hai... aur apni ruchi ke hisaab se hee agar apna proffesion chunaa jaaye to vaha aik uttamta aur utkristta kaa srijan hota hai...aapko Navvarsh par shubhkaamnayen
ReplyDeleteमार्ग दर्शन देता बहुत सुंदर आलेख आभार.
ReplyDeletepyara aur umda vishleshan...
ReplyDeletehappy new year sir!!
पूत के पाँव पालने में ही दिख जातें हैं दिक्कत यह है माँ बाप एक चले चलाए बने बनाए ढर्रे पे बच्चों को ठेले रहतें हैं .इधर जैसे जैसे काम के अवसरों में विविधता बढ़ी है प्रोद्योगिकी ने जीवन के विविध क्षेत्रों में दखल किया है स्थिति थोड़ा सा बदली ज़रूर है .आपकी हाजिरी गौर तलब है ,मानसिक और भौतिक सतर्कता भी .बधाई .इस ऊर्जा स्तर को बनाए रखिए .
ReplyDeleteसपनों का राजा बन पाना बहुत कम लोगों के संभव हो पाता- असल जीवन तो सही मायने में वो ही जीते हैं.
ReplyDeletema-bap apne bete men doctor/ engineer jyasda dekhte hai jabki kalakar ko nahin khojte. vicharniya post
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति,सुंदर दम दार आलेख ......
ReplyDeletewelcome to new post--जिन्दगीं--
ak sarahneey prastuti .....abhar
ReplyDeleteपैशन और प्रोफैशन का एक होना आनंद की अनुभूति तो देता ही है.
ReplyDeleteकलाकार को नमन.
माँ को ही पता होता है कि उसके बेटे को मन व हृदय मे क्या है, और यह विश्वास व संबल निश्चयही पुत्र की सफलता का मुख्य आधार बनता है। आपके मित्र को बधाई व शुभकामनायें।
ReplyDeleteगहन लेकिन सहज विचार प्रवाह का चिंतन.
ReplyDeletePraveen, thank you so much and I thank everyone for their comments, ever encouraging.
ReplyDeleteIf I look back at my own life and your observations, it raises only one question for which we do have an answer too.
From what age one can expect to be respected for his dream?
It's the very question my mother asked me when I was 10 'what do you want to be when you grow up?' was the first sign of respect for my dream as a child that got to my head that anything in life can be achieved. Its her question and assurance within her own capacity that I can go ahead, gave me the confidence to do whatever it takes to make my dreams come true. It's her wisdom, her courage and trust in her child made all the difference. When your mother re-affirms that her child is the best artist, rest of the world does not matter. Of course she always said ' Beta, Karm Karo par phal iksha mat karo'.
When you are imparted with such wisdom, courage, trust and confidence before you head out of your home, trust me every hurdle out there seems nothing.
My mother never asks how much money I earn, as long as I am enjoying my work and respected for what I do, that's how I've learned to define success.
The only addiction I have is 'search for truth' and that's what keeps me going. And art is my medium. The dream I hold close to my heart is 'to be able to continue to paint'.
प्रेरक और रुचिकर प्रसंग।
ReplyDeleteलगन की जीती जागती प्रेरक चित्रकारी!
ReplyDelete