28.1.12

सुकरात संग, मॉल में

अपने अनुशासन से बुरी तरह पीड़ित हो गया तो आवारगी का लबादा ओढ़ कर निकल भागा। कहाँ जायें, सड़कों पर यातायात बहुत है, एक दशक पहले बंगलुरु की जिन सड़कों पर बिना किसी प्रायोजन के ४-५ किमी टहलना हो जाया करता था, वही सड़कें आज धुँये की बहती धारा अपनी चौड़ाई में समेटे हुये हैं, रही सही कसर वाहनों के कर्कशीय कोलाहल ने व उनके उन्मत्त चालकों ने पूरी कर दी है। सड़कों पर निष्प्रायोजनीय भ्रमण एक रोमांचपूर्ण खेल खेलने जैसा है और उसके बाद सकुशल घर पहुँचना उस दिन की एक विशेष उपलब्धि।

सड़कों पर टहलने का विचार शीघ्र ही छोड़ मॉल में चला गया, न समर्थक के रूप में, न विरोधी के रूप में, बस एक दृष्टा के रूप में, दृष्टि बाहर नहीं, दृष्टि अन्दर भी नहीं, बस कहीं भी और हर जगह, आवारगी और वह भी विशुद्ध अपनी ही तरह की। मॉल को बहुत लोग विलासिता को प्रतीक मानते हैं, मैं नहीं मान पाता। जितनी बार भी जाता हूँ, तन से थका हुआ और मन से सजग हो वापस आता हूँ, विलासिता से बिल्कुल विपरीत। वातानुकूलित वातावरण में घन्टे भर टहलने भर से ही शरीर का समुचित व्यायाम हो जाता है। दृष्टि दौड़ाने पर दिखते हैं, उत्सुक और पीड़ित चेहरे, संतुष्ट और असंतुष्ट चेहरे, निर्भर करता है कि कौन खरीदने आया है और कौन खरीदवाने। थोड़ा सा ध्यान स्थिर रखिये किसी एक दिशा में, बस दस मिनट, किसी की निजता का हनन तो होगा पर लिखने के लिये न जाने कितने रोचक सूत्र मिल जायेंगे।

आगे बढ़ा, एक स्टोर में खड़ा सामान देख रहा था, वहाँ पर एक और व्यक्ति भी थे, लम्बी दाढ़ी, बाल घुँघराले और चेहरे पर आनन्द, ध्यान से देखते ही यह विश्वास हो गया कि ये सुकरात ही हैं। बड़े दार्शनिक थे, नये विचारों के प्रणेता, अपने समय में उपेक्षित, फिर भी अपना ज्ञान बाटते रहे, शासक वर्ग भी जितना झेल सकता था, झेलता रहा, पर जब पक गया तो जहर पिला कर जग से प्रयाण करने को कह दिया। बड़ा आश्चर्य हुआ उन्हें देखकर, सोचा कि दार्शनिकों के देश में भला सुकरात क्या ज्ञान बाटेंगे, जहाँ हर व्यक्ति दार्शनिक है वहाँ सुकरात को क्यों कोई सुनेगा? ईश्वर को यदि किसी को भेजना था तो निर्जीव देश में किसी साहस जगाने वाले को भेज देते।

बात बढ़ी तो उन्होने स्वयं ही बता दिया कि मॉल इत्यादि घूमना तो उनका बड़ा पुराना व्यसन रहा है, मुझे भी निशान्तजी और रवि रतलामीजी के लिखे लेख याद आ गये। सुकरात बोले, पहले तो मैं बस यही सोचकर प्रसन्न हो लेता था कि बिना इन सब सामानों के भी उनका जीवन कितनी प्रसन्नता से बीत रहा है। धीरे धीरे और बार बार वही प्रसन्नता अनुभव करने की आवश्यकता व्यसन बन गयी। पहले तो बाजार आदि छोटे छोटे होते थे, धूल और गन्दगी रहती थी, कई दुकानों में जाना पड़ता था, पास से देखने की स्वतन्त्रता भी नहीं थी, अब बड़ा अच्छा हो गया है, मॉल में ढेरों सामान भी रहता है, समय बड़े आराम से कट जाता है।


उनके आनन्द के सहभागी बनने का लोभ तो सदा ही था, मैं भी साथ हो लिया। उनके साथ मॉल का सामान देखने में उतना ही आनन्द आने लगा जितना उन्हें आया करता था। उनके लिये जो कारण होता था बाजार घूमने का, वही कारण लगभग मेरा भी आंशिक सत्य था, दार्शनिक भी, बौद्धिक भी। मैं और भी ध्यान से देखने लगा कि किन किन सामानों के न होने पर भी जीवन कितने आनन्द से बिताया जा सकता है, न जाने कितना ही सामान हमारी आवश्यकताओं की दृष्टि से व्यर्थ था। न जाने कितने ही सामानों से हमने अपनी माँग हटानी प्रारम्भ कर दी। माँग कम होने से मूल्य कम हो जाता है, इस तरह हमारे दो घंटे के भ्रमण ने न जाने कितने सामानों के मूल्य को कम कर दिया होगा। हर भ्रमण के साथ पूँजीवादी की हानि और शोषित वर्ग का लाभ। मॉल को समर्थक की दृष्टि से देखकर, उसके विरोधियों का ही हित करते थे सुकरात, हम दोनों बस वही करते रहे, आज मॉल में संग संग टहलते हुये।

आज किसी मँहगे सामान को अधिक देखकर उसके प्रति सुकरातीय निस्पृहीय निरादर का भाव तो नहीं जगा सका, पर अपने लिये आवश्यक न जान, उसके लिये चाह जगाते विज्ञापनीय सौन्दर्य से प्रभावित भी नहीं हुआ। आभूषणों की दुकानें भावनात्मक लूटशालायें लगने लगीं, सलाह, जब तक विवश न हों तब तक बचे रहना चाहिये। कपड़ों की दुकानें, जूतियों की कतारें, पर्स और न जाने क्या क्या? मन किया कि हर्षवर्धन बन वर्ष में एक बार एक मॉल खरीद गरीबों में बाट दूँ।

भारतीय नारी तो फिर भी सब देख समझ कर व्यय करती हैं श्रंगार पर, बस यही भाव बना रहे, सुकरात का साथ देने के लिये तो हम हैं ही। अब लगता है कि कितना अच्छा हुआ कि इमेल्दा मारकोस भारत में पैदा नहीं हुयीं, कहीं उनके ऊपर लिखा अध्याय हमारी भावी पत्नियों को पढ़ने को मिल जाता तब तो निश्चय ही मॉल देश के आधुनिक उपासनास्थल बन गये होते।

25.1.12

कुछ अध्याय मेरे जीवन के

खुले बन्द वातायन, मन के भाव विचरना चाहें अब,
कुछ अध्याय मेरे जीवन के पुनः सँवरना चाहें अब।

लगता है वो सच था, जिसमें मन की हिम्मत जुटी नहीं,
और अनेकों रिक्त ऋचायें मन के द्वार अबाध बहीं।

नहीं व्यक्तिगत क्षोभ तनिक यदि झुठलाना इतिहास पड़े,
आगत के द्वारे निष्प्रभ हो, विगत विकट उपहास उड़े।

मैं आत्मा-आवेग, छोड़कर बढ़ जाऊँगा क्षुब्ध समर,
आत्म-जनित तम त्याग, प्रभा के बिन्दु बने मेरा अवसर।

राह हटें तो होती पीड़ा मन की, हानि समय श्रम की,
श्रेयस्कर फिर भी है यदि जीवन ने राह नहीं भटकी।

एक जन्म था हुआ, बढ़ा यह तन, जीवन भी चढ़ आया,
मन के जन्म अनेकों देखे, छोड़ विगत नव अपनाया।

है विचार संवाद सतत तो मोह लिये किसका बैठें,
तज डाले सब त्याज्य, हृदय को बँधने को कैसे कह दें।

कर प्रयत्न भूले पहले भी कर्कश स्वर के राग कई,
पर अब मन-उद्वेग उठा है जी लेने एक प्रात नयी।

21.1.12

भ्रष्ट है, पर अपना है

ठंड और धुंध ने पूरा कब्जा जमाया हुआ है, हवाई जहाज को सूझता नहीं कि कहाँ उतरें, ट्रेनों को अपने सिग्नल उसके नीचे ही आकर दिखते हैं, कार ट्रक के नीचे घुस जाती है, लोग कुछ बोलते हैं तो मुँह से धुँआ धौंकने लगता है। सारा देश रेंग रहा है, कुछ वैसा ही जैसा भ्रष्टाचार ने बना रखा है, लोगों की वेदना है कि कहीं कोई कार्य होता ही नहीं है।

मेरे कई परिचित इस धुंधीय सिद्धान्त को नहीं मानते हैं, वे आइंस्टीन के उपासक हैं, ऊर्जा और भार के सम्बन्ध वाले सिद्धान्त के। उनका कहना है कि जितनी गति से कार्य अपने देश में होता है उतनी गति से कहीं हो ही नहीं सकता है, प्रकाश की गति से, उस गति में धन और ऊर्जा में कोई भेद नहीं, कभी धन ही ऊर्जा हो जाती है, कभी ऊर्जा धन बन जाता है, उस गति में दोनों ही अपना स्वरूप खोकर आइंस्टीन के प्रसिद्ध सूत्र (E=mc²) को सामाजिक जीवन में सिद्ध करने में लग जाते हैं। किसी कार्य के लिये धन लेने के बाद गजब की गुणवत्ता और तीव्रता आ जाती है उस कार्य में, कार्य धार्मिक आस्था से भी गहरे भावों से निपटाये जाने लगते हैं, नियम आदि के द्वन्द्व से परे।

विशेष सिद्धान्त विशेषों के लिये ही होते हैं, आमजन तो अपने लिये सूर्य की सार्वजनिक ऊष्मा पर ही निर्भर हैं। उनके लिये तो उपाय कतार में खड़े अन्तिम व्यक्ति तक पहुँचने चाहिये, जैसा गांधी बाबा ने चाहा। यही कारण रहा होगा कि लोकपाल के विषय ने देश की आशाओं में थोड़ी गर्माहट भर दी, लगने लगा काश देश की भी मकर संक्रान्ति आ जाये, देश का भविष्य-सूर्य उत्तर-पथ-गामी हो जाये। कई महानुभाव जो बंदर-टोपी चढ़ाये इस ठंड और धुंध का आनन्द ले रहे हैं, उन्हें संभवतः यह संक्रान्ति स्वीकार न थी, लोकपाल तुड़ा-मुड़ा, फटा हुआ, महासदन के मध्य, त्यक्त पड़ा पाया गया।

अब लगे हाथों चुनाव भी आ गया। जब भी चुनाव आता है, लगता है कि कतार में खड़े अन्तिम व्यक्ति को अपनी बात कहने का अधिकार मिलेगा। जिस स्वप्न को उसने पिछले पाँच वर्षों तक धूल धूसरित होते देखा था, उसे पुनः संजोने का समय आ गया है, किसी नये प्रतिनिधि के माध्यम से, स्वच्छ छवि और कर्मठमना प्रतिनिधि के माध्यम से। सत्ता के आसमान और जनता की धरा के मिलन की आशाओं का क्षितिज पाँच वर्ष में एक बार ही आता है, उत्सव मने या कर्तव्य निभाया जाये, सबको यही निश्चित करना होता है।

पता नहीं क्यों इस परिप्रेक्ष्य में एक सच घटना याद आ रही है।

एक अधिकारी निरीक्षण पर थे, स्थानीय पर्यवेक्षक कार्य में बड़ा कुशल था पर उसके विरुद्ध स्थानीय कर्मचारियों ने आकर अधिकारी को बताया कि वह हर कार्य कराने का पैसा लेता है। यद्यपि प्रशासन को उस पर्यवेक्षक से तनिक भी शिकायत न थी, उसके पर्यवेक्षण में सारे प्रशासनिक कार्य अत्यन्त सुचारु रूप से चल रहे थे, फिर भी अधिकारी ने उसे स्थान्तरित करने का मन बना लिया। बस कर्मचारियों से कहा गया कि वही शिकायत लिखित में दे दें। जब बहुत दिनों तक कोई पत्र न आया तो एक कर्मचारी को बुला इस उदासीनता का कारण पूछा गया। जो उत्तर मिला, वही संभवतः हमारा सामाजिक सत्य बन चुका है।

कर्मचारी ने कहा कि साहब यद्यपि शिकायत हमने ही की थी, बस आप उसे समझा दीजिये पर उसे हटाईये मत। वह पर्यवेक्षक थोड़ा भ्रष्ट अवश्य है पर हमसे अत्यन्त अपनत्व रखता है, छोटे बड़े सारे कार्य दौड़ धूप कर करवाता है, दिन रात नहीं देखता, सबका बराबर से ध्यान रखता है....साहब, वह हमारा अपना ही है....

पता नहीं भविष्य किस ओर दिशा बदलेगा, किसी का कोई अपना जीतेगा या भविष्य का सपना जीतेगा, अपनत्व के विस्तृत जाल बुने जा रहे हैं। पता नहीं क्यों मन खटक सा रहा है, कहीं उपरिलिखित घटना सच न हो जाये, कहीं अपनत्व न जीत जाये, कहीं आदर्शों को अगले ५ वर्ष पुनः प्रतीक्षा न करनी पड़ जाये, समझाने भर के चक्कर में एक और अवसर न खो जाये।

18.1.12

रघुबीरजी और कूड़े का ढेर

चायपान आधुनिक जीवनशैली का अनिवार्य अंग बन चुका है, पहले मैं नहीं पीता था पर उस कारण से हर जगह पर इतने तर्क पीने पड़ते थे कि मुझे चाय अधिक स्वास्थ्यकारी लगने लगी। बहुतों के लिये यह दिन का प्रथम पेय होता है, जापानी तो इसको पीने में पूजा करने से भी अधिक श्रम कर डालते हैं, पर बहुतों के लिये कार्यालय से आने के बाद अपनी श्रीमतीजी के साथ बिताये कुछ एकांत पलों की साक्षी बनती है चाय।

जब चाय की चैतन्यता गले के नीचे उतर रही हो तो दृश्य में अपना स्थान घेरे कूड़े का ढेर बड़ा ही खटकने लगा रघुबीरजी को। यद्यपि बिजली के जिन खम्भों के बीच वह कूड़े का ढेर था वे सोसाइटी की परिधि के बाहर थे, पर जीवन के मधुरिम क्षणों को इतनी कर्कशता से प्रभावित करने वाली परिस्थितियाँ भला मन की परिधि के बाहर कहाँ जा पाती हैं? कई बार वहाँ से कूड़ा हटवाया गया, पर स्थिति वही की वही बनी रही। कहते हैं कि कूड़ा कूड़े को आकर्षित करता है और खाली स्थान और अधिक कूड़े की प्रतीक्षा में रहता है। बिना कायाकल्प कोई उपाय नहीं दिख रहा था, मन में निर्णय हो चुका था, रघुबीरजी कुछ अच्छे पौधे जाकर ले आये, समय लगाकर उन्हें रोपित भी कर दिया, मानसून अपने प्रभाव में था, कुछ ही दिनों में वह स्थान दर्शनीय हो गया, चाय पीने में अब पूरा रस आने लगा रघुबीर जी को।

छोटे कायाकल्पों में बड़े बदलावों की संभावना छिपी रहती है। कहानी यहीं समाप्त हो गयी होती यदि रघुबीरजी को उस संभावना को औरों में ढूढ़ने का कीड़ा न काटा होता। औरों को प्रेरित करने के लिये उन्होने उस स्थान के पहले और बाद के चित्रों को एक साथ रख कर अपनी सोसाइटी के सब सदस्यों को ईमेल के माध्यम से भेजने का मन बनाया। कुछ व्यस्तताओं के कारण वह मेल भेजने में ४-५ दिन की देरी हो गयी, उतना अन्तराल पर्याप्त था, समय को अँगड़ाई लेने के लिये।

जब चार वर्ष पहले उनकी सोसाइटी का निर्माण हुआ था तो जाने अनजाने उसका स्तर पास की सोसाइटी से नीचे था, हर बरसात आसपास का जल सोसाइटी में आकर भर जाता था और कुछ निदान ढूढ़ने का संदेश दे जाता था। हर वर्ष कुछ भागदौड़ और नगरनिगम की अन्यमनस्कता, इतनी छोटी समस्या सुलझाने के प्रति। सिविल सेवा की तैयारी में लगे लड़को के भाग्य की तरह अन्ततः चौथे वर्ष रघुबीरजी को आशा की किरण उस समय दिखायी पड़ी जब वह एक नये अधिकारी से मिलकर आये, संवाद सकारात्मक रहा। पानी को एकत्र कर पाइप के माध्यम से मेनपाइप में जोड़ देने की योजना थी जो मानसून आने के पर्याप्त पहले क्रियान्वित कर दी गयी।

कार्य के सम्पादन के साथ ही लोगों का रघुबीरजी पर विश्वास बढ़ने लगा, परिवेश के उत्साही और पत्रकारी युवक घटनाक्रम में रुचि लेने लगे, यह सब देखकर रघुबीरजी ने भव्य भविष्य के आस की साँस ली जिससे उनका सीना चौड़ा होने लगा। लगा कि मानसून आने के पहले बड़ा महत कार्य सम्पन्न हो गया। कुछ सप्ताह बाद ही, भला हो एक खोजी युवक का, जिसने आकर बताया कि पाइप तो मेनपाइप तक पहुँच गया है पर अभी तक जुड़ा नहीं है और बरसात होने की स्थिति में सारा पानी कीचड़ समेत आ जायेगा, पहले से कहीं अधिक। रघुबीरजी के प्रयासों में पुनः गति आ गयी, पहले तो कई पत्र भेजे, कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अन्ततः अधिकारी से पुनः मिलकर अनुनय विनय की, उसने अगले दिन शेष कार्य करवाने का आश्वासन दे दिया। रघुबीरजी का मन प्रसन्न था, सुखद भविष्य की आस अधिक सुख लाती है, लगे हाथों रघुबीरजी ने कूड़े के स्थान के कायाकल्प की ईमेल भी सबको प्रेषित कर दी।

उस रात बारिश हुयी थी, पाइप से कीचड़ अधिक आ गया था। अगले दिन बड़ी सुबह कार्य आरम्भ हो गया, बुलडोजर कीचड़ साफ करना प्रारम्भ कर चुके थे और पाइप जोड़ने का कार्य दोपहर तक हो जाने की संभावना थी। रघुबीरजी अपना चाय का प्याला ले बॉलकनी में समाचार पत्र पढ़ने लगे। तीसरा पेज खोलते ही उनका दिल धक से रह गया, किसी उत्साही पत्रकार ने नगरनिगम की अकर्मण्यता और रघुबीरजी के प्रयासों पर एक हलचलपूर्ण आलेख छाप दिया था, सचित्र, एक ओर नायक के रूप में रघुबीरजी, दूसरी ओर खलनायक के रूप में नगरनिगम का अधिकारी और बीच में कीचड़ के साथ बिना जुड़े हुये दो पाइप। रघुबीरजी सोच ही रहे थे कि कहीं वह अधिकारी यह समाचार न पढ़ ले, तब तक अधिकारी का क्रोध भरा फोन आ गया, आधे घंटे के अन्दर ही नगरनिगमकर्मी वापस जा चुके थे।

सूरज चढ़ आया था, दोपहर होते होते लोग ईमेल पढ़ चुके थे, उत्सुकतावश बाहर आये तो दृश्य पूर्णतया बदला हुआ था, कायाकल्प हुये कूड़े के स्थान का पुनः कायाकल्प हो चुका था, हरी चादर के ऊपर अभी अभी उलीचे कीचड़ की परत जमी थी, ईमेल में प्रेषित दोनों चित्रों से भयावह थी उस जगह की स्थिति। सोसाइटी का गेट व निकट भविष्य, दोनों ही कीचड़रुद्ध दिख रहे थे।

कहते हैं कि कीचड़ में कमल खिलते हैं पर आज यहाँ पर कीचड़ रघुबीरजी के श्रम-कमलों की लील चुका था, सौन्दर्यबोध सशंकित था, बॉलकनी की चाय कसैली होनी तय थी, सोसाइटी के सदस्यों के आलोचनात्मक स्वर अवसरप्रदत्त शक्ति से सम्पन्न थे। रघुबीरजी पर हार मानने वाले जीवों में नहीं थे, साँस सीने में गहरी भर जाती है, रघुबीरजी की पुनः जूझने की इच्छा बलवती होने लगती है.....

14.1.12

रघुबीरजी की कथा

रघुबीरजी अपनी पत्नी के साथ अपने घर की बॉलकनी में बैठकर चाय की चुस्कियों का आनन्द ले रहे हैं, घर सोसाइटी की तीसरी मंजिल में है और रघुबीरजी हैं उस सोसाइटी के सचिव। कर्मठ और जागरूक, अन्दर से कुछ सार्थक कर डालने को उत्सुक, हर दिन विश्व को कुछ नया दे जाने का स्वप्न देखकर ही उठते हैं रघुबीरजी। एक युवा के उत्साह और एक वृद्ध के अनुभव के बीच एक सशक्त अनुपात सँजोये है रघुबीरजी का व्यक्तित्व, प्रौढ़ता को भला इससे अच्छा उपहार क्या मिल सकता है?

रघुबीरजी के जीवन में तीन विश्व बसते हैं, तीनों विश्व शताब्दियों के अन्तर में स्थापित, तीनों का मोह बराबरी से समाया हुआ उनके हृदय में, किसको किसके ऊपर प्राथमिकता दें यह निर्णय करना बहुधा उनके लिये ही कठिन हो जाता है। एक विश्व शारीरिक, एक मानसिक और एक आध्यात्मिक है उनके लिये, इन तीन अवयवों की क्षुधापूर्ति की संतुष्टि उनके मुखमंडल से स्पष्ट झलकती है।

पहला और शारीरिक विश्व उनके व्यवसाय का है। उन्नत तकनीकी शिक्षा, मौलिक शोध और सतत श्रम का प्रतीक है उनका व्यवसाय। जीवकोपार्जन के इस स्रोत को सम्यक रूप से सजाकर अब उन्हें अपने शेष दो विश्वों के लिये पर्याप्त समय मिलने लगा है। इस कारण उन्हें बहुधा विदेश यात्रा करनी पड़ती है। तकनीक, वाणिज्य और वैश्विक परिप्रेक्ष्य उनके प्रथम विश्व के अंग हैं और समयरेखा में सबसे आगे खड़े हैं।

दूसरा और मानसिक विश्व उनकी पर्यावरणीय चेतना का है। इस चेतना के कारण वह सोसाइटी के सचिव हुये या सोसाइटी के सचिव होने के बाद उनकी पर्यावरणीय कुण्डलनी जागृत हुयी, ठीक ठीक कहना कठिन है पर उनके पर्यावरणीय प्रयोगों की चाह ने सोसाइटी में कई बार उत्सुकता, भय और सुख की त्रिवेणी बहायी है। नये प्रयोग के बारे में सोचना, उसे क्रमशः कार्यान्वित करना और उसमें आने वाली बाधाओं को झेलना, किसी गठबन्धन सरकार चलाने से कम कठिन नहीं है। अपने परिवेश में घटनाओं का संलिप्त साक्षी बनना उनके दूसरे विश्व का केन्द्रबिन्दु है और समयरेखा में मध्य में अवस्थित है।

तीसरा और आध्यात्मिक विश्व उनके गाँव व संस्कृति की जड़ों से जुड़ाव का है। जिन गलियों में पले बढ़े, जहाँ शिक्षा ली, जिन सांस्कृतिक आधारों में जीवन को समझने की बुद्धि दी और जहाँ जाकर छिप जाने की चाह व्यग्रता के हर पहले क्षण में होती हो, वह उनके जीवन के रिक्त क्षणों से बन्धन बन जुड़ सा गया है। सभ्यता के मानकों में भले ही वह विश्व समुन्नत न हो पर रघुबीरजी के जीवन का स्थायी स्तम्भ है वह विश्व, समयरेखा के आखिरी छोर पर त्यक्त सा।

रघुबीरजी के जीवन में आनन्द बहुत ही कम होता यदि एक भी विश्व उनके जीवन से अनुपस्थित होता। आनन्द इसलिये क्योंकि उन्हें तीनों विश्वों के श्रेष्ठतम तत्व प्राप्त हैं। पहले विश्व के प्रेम की कमी तीसरे विश्व से, तीसरे विश्व के धन और तकनीक की कमी पहले विश्व से, दूसरे विश्व के आलस्य और विरोध से जूझने की शक्ति तीसरे विश्व से और समाधान पहले विश्व से, सब के सब एक दूसरे के प्रेरक और पूरक। तीन विश्वों में एक साथ रहने से उनकी दृष्टि इतनी परिपक्व हो चली है कि उन्हें तीनों की सम्भावित दिशा और उसे बदलने के उपाय स्पष्ट दिखायी देते हैं।

रघुबीरजी के जीवन का यही उजला पक्ष उनकी अधीरता का एकल स्रोत है। समयरेखा में तीन विश्वों की उपस्थिति इतनी दूर दूर है कि उन्हें एक साथ ला पाने की अधीरता बहुधा उनके प्रयासों से अधिक बलवती हो जाती है। अपनी समग्र समझ सबको समझा पाना उनकी ऊर्जा को सर्वाधिक निचोड़ने वाला कार्य है, भाषा और तर्कसूत्र एक विश्व से दूसरे तक पहुँचते पहुँचते अपनी सामर्थ्य खो देते हैं। यही अधीरता रघुबीरजी की कथा का रोचक पक्ष है।

रघुबीरजी थोड़ी थोड़ी मात्रा में हम सबके भीतर विद्यमान हैं, देश तो रघुबीरजी के व्यक्तित्व का भौगोलिक रूपान्तरण ही है, रघुबीरजी के तीनों विश्व इस देश में भी बसते हैं। रघुबीरजी का आनन्द हम सबका आनन्द है और रघुबीरजी की कथा हम सबकी कथा। उनकी हर घटना में आप अपना मन डाल कर देखिये, संभव है कि उनकी कथा आपकी दवा बन जाये।

खैर, रघुबीरजी को बॉलकनी से एक कूड़े का ढेर दिखता है, बिजली के दो खंभों के बीच.......

(रघुबीरजी मेरे लिये एक पात्र नहीं वरन देश और समाज समझने के नेत्र हैं, यह श्रंखला यथासंभव समाज में व्याप्त रोचकता का अनुसरण करने का प्रयास करेगी)

11.1.12

ऐसी सजनी हो

आँखों ही आँखों में मन के, भाव समझकर पढ़ जाती हो,
हृद की अन्तरतम सीमा में, सहज उतरकर बढ़ जाती हो ।
भावों में सागर लहरों सी, सतत बहे, मधुमय रमणी हो,
हो संजीवनि, नवजीवन सी, संग रहे, ऐसी सजनी हो ।।१।।

अरुण किरण सी, नभ-नगरी में, बन जाये स्फूर्ति चपलता,
डुला रही अपने आँचल से, बन पवनों का शीतल झोंका ।
धीरे धीरे नयन समाये, अलसायी, मादक रजनी हो,
हो संजीवनि, नवजीवन सी, संग रहे, ऐसी सजनी हो ।।२।।

मन के अध्यायों में सब था, किन्तु तुम्हारा नाम नहीं था,
तत्पर, आतुर, प्रेमपूर्ण वह, मदमाता अभिराम नहीं था ।
आ जाये, ऐश्वर्य दिखाये, सकल ओर मन मोह रमी हो,
हो संजीवनि, नवजीवन सी, संग रहे, ऐसी सजनी हो ।।३।।

(बस इतना जान लीजिये कि विवाह के बहुत पहले लिखी थी, यह आसभरी कविता)

7.1.12

स्नेह से ध्येय तक

छात्रावास में आज अनुराग का दूसरा दिन है। कल जब पिता जी उसे यहाँ छोड़कर गये थे, तब से अनुराग को अजीब सी बेचैनी हो रही थी। अपने दस वर्ष के जीवन में अनुराग ने घर ही तो देखा था, अनुराग को लगातार उसी घर की याद आ रही थी।

दो महीने पहले पाँचवी कक्षा में उसके अच्छे अंक आये थे। उसके पिता जी अपने शहर के एक प्रबुद्ध व्यक्ति से मिलने गये थे जहाँ पर अनुराग के भविष्य के बारे में भी बातें हुयी थीं। वहाँ से आने के बाद अनुराग के पिता जी ने उसके बाहर जाकर पढ़ने के लिये भूमिका बांधनी चालू कर दी थी। अनुराग ने पिता जी को कई बार माँ से कहते सुना था "अपने शहर में कोई अच्छा विद्यालय नहीं है, अनुराग का भविष्य यहाँ बिगड़ जायेगा। अपने यहाँ लोग बनते ही क्या हैं, कुछ गुण्डे बनते हैं, कुछ चोर बनते हैं। अगर हमको अनुराग का भविष्य बनाना है तो उसे यहाँ से निकाल कर बाहर पढ़ाना पड़ेगा।"

इस तरह धीरे धीरे प्रस्तावना बनने लगी। माँ का विरोध भी भविष्य की उज्जवल आशा के सामने फीका पड़ने लगा, लेकिन माँ का प्यार अनुराग के प्रति और भी बढ़ने लगा। अनुराग के सामने छात्रावास के अच्छे अच्छे खाके खींचे जाने लगे, नया शहर घूमने को मिलेगा, ढेर सारे मित्र मिलेंगे, घूमने इत्यादि की स्वतन्त्रता रहेगी और न जाने क्या क्या बताया गया अनुराग को मानसिक रूप से तैयार करने के लिये।

लेकिन आज अनुराग दुःखी था। उसे घर की बहुत याद आ रही थी, किसी से बात करने की इच्छा नहीं हो रही थी। कल की रात पहली बार अनुराग अपने घर के बाहर सोया था और जागते ही अपने घर की छवि न पाकर अनुराग का मन भारी हो गया। कभी-कभी उसे अपने माता पिता पर क्रोध आता था, प्यारे प्यारे छोटे भाई बहनों का चेहरा रह रह कर आँखों के सामने घूम जाता था। अभी अनुराग के अन्दर वह क्षमता नहीं आयी थी कि वह अपने आप को समझा सके। बुद्धि इतनी विकसित नहीं हुयी थी कि भविष्य के आँगन में वर्तमान की छवि देख पाता। विचारों का आयाम केवल घर की चहारदीवारी तक ही सीमित था, घर के सामने सारी दुनिया का विस्तार नगण्य था।

ऐसी मानसिक उथल पुथल में घंटों निकल गये। अनुराग उठा, तैयार हुआ, विद्यालय गया। कक्षा में अध्यापक उसे मुँह हिलाते हुये गूँगे से प्रतीत हो रहे थे। साथ में बैठा हुआ छात्र अपने मामा की कार के बारे में बता रहा था लेकिन अनुराग से उचित मान न पाकर वह दूसरी तरफ मुड़ गया। मध्यान्तर में अनुराग भोजनालय में खाना खाने गया और फिर अनमना सा विद्यालय के सामने वाले प्रांगण में आकर चुपचाप बैठ गया। "क्या नाम है तुम्हारा, बच्चे?" आवाज सुनकर अनुराग चौंका। "अनुराग.....शर्मा" मुड़कर देखा तो एक दाढ़ी वाले सज्जन खड़े थे। वेशभूषा से विद्यालय के अध्यापक प्रतीत हो रहे थे।

"क्यों, घर की याद आ रही है ना?" प्रश्न सुनकर अनुराग सकते में आ गया। "हाँ...नहीं नहीं" अनुराग हकलाते हुये बोला। अनुराग खड़ा हो गया और अब वह अध्यापक के साथ खड़े एक और छात्र को देख सकता था, जिसके सर पर हाथ रखकर अध्यापक बोले "इसका नाम रोहित है। यह भी तुम्हारी तरह कल ही आया है, यह भी रो रहा था, तुम भी रो रहे थे। सोचा कि तुम दोनों को मिला देते हैं। दोनों मिलकर आँसू बहाना।"

अनुराग का दुःख कम हुआ और यह बात सुनकर अनुराग की अध्यापक के प्रति आत्मीयता भी बढ़ी।

"नमस्ते" गलती याद आते ही अनुराग बोला।

"नमस्ते" फिर तीनों किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े थे।

अनुराग बचपन से ही शर्मीली प्रवृत्ति का था। कक्षा में उत्तर देने के अलावा उसे इधर उधर की बातें बनाना नहीं आता था। उसे अब समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले? अध्यापक वहीं बैठ गये, अभी मध्यान्तर समाप्त होने में पर्याप्त समय था, वह दोनों भी सामने बैठ गये।

"तुम्हारे माता पिता अच्छे नहीं हैं, देखो तुम लोगों को अकेले ही छोड़ दिया। तुमसे प्यार नहीं करते।" अध्यापक धीरे से मुस्कराते हुये बोले।

आश्चर्य हो रहा था अनुराग को। इन अध्यापक को उसके मन की बात कैसे पता चली? कुछ उत्तर नहीं सूझा अनुराग को। नहीं भी नहीं कर सकता था क्योंकि सचमुच यही सोच रहा था। हाँ कह कर वह अपने माता पिता के प्यार को झुठलाना नहीं चाहता था।

रोहित बोल पड़ा "नहीं नहीं, हमारे मम्मी पापा तो हमें बहुत चाहते हैं, उन्होने तो हमें बड़ा बनने के लिये यहाँ भेजा है।"

अनुराग ने सोचा, अरे, यही तो उसको भी बताया गया है।

"बड़ा बनने के लिये क्या करना पड़ता है?" अध्यापक बोले।

"पढ़ना पड़ता है" अनुराग बोल उठा।

उसके बाद अध्यापक ने दोनों के घरों के बारे में पूछा, तभी मध्यान्तर की घंटी बज गयी। सब लोग अपनी अपनी कक्षा में चले गये। रोहित और अनुराग अलग अलग वर्गों में थे।

"पढ़ना पड़ता है।" यह वाक्य अनुराग के दिमाग में गूंज रहा था। "तो घर में ही पढ़ लेते" प्रश्नोत्तर अनुराग के मन में पूछे जाने लगे। "नहीं नहीं अपने शहर में पढ़ाई अच्छी नहीं है" पिता जी ने कहा था। "माँ मुझे चाहती है तो भेज क्यों दिया" प्रश्न कौंधा। "नहीं नहीं, माँ तो दुखी थी, जब मैं छात्रावास आ रहा था" अनुराग नें मन को फिर समझाया।

अनुराग न अपने दुःख को कम कर सकता था और न ही दुःख का भार अपने घर वालों पर डाल सकता था। उसे जो ध्येय की प्रतिमा दिखायी गयी है उस पर उसको अपना जीवन खड़ा करना था। लेकिन प्रेम का उमड़ता हुआ बवंडर उसे बार बार दुःखी कर देता था। इस ध्येय और प्रेम के विरोधाभास ने अनुराग के मस्तिष्क को अचानक काफी परिपक्व कर दिया था। अब अनुराग यह जानता था कि अभी तक जो पारिवारिक स्नेह की नींव पर उसके जीवन का भवन निर्मित था उस भवन को ध्येय की ऊँचाईयों तक पहुँचाना ही उसका परम कर्तव्य है।

4.1.12

एक चित्रकार की कहानी

दस वर्ष का बच्चा अपनी माँ से कहे कि उसे तो बस चित्रकार ही बनना है, तो माँ को कुछ अटपटा सा लगेगा, सोचेगी कि डॉक्टर, इन्जीनियर, आईएएस बनने की चाह रखने वालों की दुनिया में उसका बच्चा अलबेला है, पर कोई बात नहीं, बड़े होते होते उसकी समझ विकसित हो जायेगी और वह भी कल्पना की दुनिया से मोहच्युत हो विकास के मानकों की अग्रिम पंक्ति में सम्मिलित हो जायेगा। इसी बात पर पिता के क्रोध करने पर यदि वह बच्चा सब सर झुकाये सुनता रहे और जाते जाते पिता की तनी भृकुटियों का चित्र बना माँ को पहचानने के लिये पकड़ा दे, तो माँ को बच्चे की इच्छा शक्ति बालहठ से कहीं अधिक लगेगी। वह तब अपने बच्चे का संभावित भविष्य एक चित्रकार के रूप सोचना प्रारम्भ तो कर देगी, पर वह चिन्तन संशयात्मक अधिक होगा, निश्चयात्मक कम। बच्चा और बड़ा होकर अपने निर्णय पर अटल रहते हुये एक महाविद्यालय के कला संभाग में पढ़ने लगे, पर एक वर्ष बाद ही जब उसके प्राध्यापक उसे बुलाकर समझायें कि कला तो उसमें जन्मजात है, अब उसे और कला सीखने की आवश्यकता नहीं है, यदि महाविद्यालय में शेष वर्षों का सदुपयोग करना है तो उसे जीविकोपार्जन के लिये विज्ञापन या फोटोग्राफी भी सीख लेनी चाहिये। तब कहीं उसकी माँ अपने बच्चे के भविष्य के प्रति आश्वस्त हुयी होगी और उसे यह विश्वास हो गया होगा कि उसका बच्चा जीवन निर्वाह सकुशल कर पायेगा।

माँ की चिन्ता तो यहीं समाप्त हो जाती है पर क्या आप उसके बाद के लगभग २० वर्षों को नहीं जानना चाहेंगे जो उस बच्चे के स्वप्न को पूर्ण रूप से साकार होने में लगे और जिसका जानना हर उस माँ के लिये आवश्यक है जिनके बच्चे की कला में बहुत अधिक रुचि है या जिनका बच्चा १० वर्ष की उम्र में ही चित्रकार बनने की भीष्म प्रतिज्ञा किये बैठा है। हम सबको ऐसे बाल-निश्चयों को गम्भीरता से लेना होगा क्योंकि स्वयं को दस वर्ष की छोटी अवस्था में समझ पाना और अपने बनाये सपने को जी पाना मन की जीवटता का अद्भुत निरूपण है।

जो अच्छा लगे वह कर पाना बहुत कठिन है। अपने जैसे बहुतों को जानता भी हूँ जो औरों से अपनी तुलना करते करते जीवन व्यर्थ कर डालते हैं और जब तक समझ में आता है तब तक बहुत देर हो जाती है, सपनों को साकार करने में। समाज जिसे महत्व देता है, वही लबादा ओढ़ लेते हैं हम लोग, दम घुट जाये किसे परवाह। जो हैं, वह बन कर जी पाना ही सर्वाधिक सुख देता है। वह सुख अनुभव तो नहीं किया जा सकता है पर सबके लिये अनुकरणीय बन जाता है। जीवटता की कठिन राह से निकल आने के बाद तो हम उनसे प्रभावित होते हैं पर उनको किन परिस्थितियों ने प्रभावित किया और किस प्रकार अनजाने और विशेष जीवन को जीते हुये उन्होने अपने सपनों को निभाया है, यह जानना भी आवश्यक है।

हाँ, इस परिप्रेक्ष्य में फिर आते हैं उस कहानी पर। चित्रकला नियमित रूप से जुड़ी रहती है उससे पर पढ़ाई करने के बाद पहली नौकरी एक बहुराष्ट्रीय विज्ञापन कम्पनी में करने जाता है वह। चित्रों में अपनी आशा स्थापित करने वाला बच्चा अपनी सृजनात्मकता कम्पनी के उत्पाद बिकवाने के लिये और आमजन के अन्दर उसकी आवश्यकता के सपने जगाने में लगाने लगता है। कला का उपयोग साबुन, कोला, तेल या चॉकलेट बेचने के लिये। मैं भले ही ऐसे विज्ञापनों का धुर विरोधी न हूँ पर दस वर्ष की अवस्था में जिस बच्चे ने ब्रश से अपनी कल्पना उकेरने का सपना पाला हो उसके लिये यह एक स्थायी निष्कर्ष नहीं हो सकता था, भले ही कितना पैसा उसे मिल रहा हो। लोग इसे प्रतिभा का व्यावसायिक उपयोग मान सकते हैं, पर मन की संतुष्टि के सम्मुख धन का क्या मोल? अन्ततः विज्ञापन के व्यूह से बाहर आ जाता है वह।

फोटोग्राफी में महारत और दूसरी कम्पनी में नौकरी, एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी से बड़ा कार्य मिलता है, भारत के बच्चों के बारे में फोटोग्राफ-श्रंखला बनाने का। जहाँ एक ओर हमारे नित के जीवन में एक ही जगह पड़े रहने से और कृत्रिमता ओढ़ लेने से संवेदना का अकाल पड़ जाता है, उसको ईश्वर प्रदत्त अवसर मिलता है, पूरा देश घूमने का और बच्चों के चेहरों में जीवन के भाव पढ़ने का। सड़कों में, गरीबी में, भूख में, उत्साह में, उन्माद में, खेल में, बालश्रम मे, शापित, शोषित, हर ओर बच्चों के भाव, संवेदनाओं की उर्वरा भूमि देखने का अवसर, देश के भविष्य को पढ़ने का अवसर। हर यात्रा में चित्रकला को संवेदना का ग्रास मिलने लगता है।

जीवन बढ़ता है, चित्रकला अधिक के लिये उकेरने लगती है, गौड़ से मूल स्थान पाना चाहती है जीवन में। धीरे धीरे सारी व्यस्ततायें चित्रकला के मौलिक व्यसन के लिये सिमटती जाती हैं। दिन में, रात में, भीड़ में, एकान्त में, हर समय कल्पनाओं के घुमड़ते बादल रंग और आकार में ढल जाना चाहते हैं। अपना सपना देखने के २५ वर्ष बाद उसे अपनी चित्रकला का एकान्त मिलता है, मन के बाँध अपने सारे द्वार खोल देने को तत्पर हैं, प्रवाह अनवरत बने रहना चाहता है।

माँ बेटे के सपने को वास्तविकता बनते हुये देखती है, विश्वास के साथ, अभिमान के साथ। इस चित्रकार की सफल कहानी उन माँओं को विचलित नहीं करेगी जिनके बच्चे ऐसी ही भीष्म प्रतिज्ञायें करने को तत्पर बैठे हैं।

(मेरे मित्र की जीवन कथा है यह, २५ वर्ष बाद हम मिले, मेरे हाथ में कलम उसके हाथ में ब्रश, मैं बद्ध वह निर्बन्ध, मैं अपने सपनों का सेवक वह अपने सपनों का राजा)