शब्दकोष में अंग्रेजी के एक शब्द ईकोसिस्टम का हिन्दी में यही निकटतम शाब्दिक अर्थ मिला। यह कई अवयवों के ऐसे समूह को परिभाषित करता है जो एक दूसरे के प्रेरक व पूरक होते हैं। मूलतः जैविक तन्त्रों के लिये प्रयोग में आया यह शब्द अन्य क्षेत्रों में भी उन्हीं अर्थों को प्रतिबिम्बित करता है। किसी भी पारितन्त्र में एक प्रमुख चरित्र होता है, जिसके द्वारा वह पहचाना जाता है। जंगल हो या जल, शरीर हो या घर, नगर हो या विश्व, सब के सब कुछ तन्तुओं से जुड़े रहते हैं और एक दूसरे को सामूहिक आधार प्रदान करते हैं। बहुधा तो उसके अवयवों का महत्व पता नहीं चलता है पर किसी एक अवयव की अनुपस्थिति जब अपने कुप्रभाव छोड़ने लगती है तब उसका पूरा योगदान समझ में आता है हम सबको। किसी एक पारितन्त्र में सारे बिल्लियों को मार देने से जब प्लेग फैलने लगा तब लगा कि उनका रहना भी आवश्यक है।
इसी प्रकार पारितन्त्र में किसी नये अवयव का आगमन भी अस्थिरता उत्पन्न करता है। समय बीतने के साथ या तो वह उसमें ढल जाता है या उसका स्वरूप बदल देता है। इसी प्रकार विकास के कई चरणों से होता हुआ उसका एक सर्वथा नया स्वरूप दिखायी पड़ता है। न केवल भौतिक जगत में वरन विचारों के क्षेत्र में भी पारितन्त्रों की उपस्थिति का अवलोकन उनके बारे में हमारी समझ बढ़ा जाता है। विचारधारायें विचारों का पारितन्त्र स्थापित करती हैं। साम्यवाद हो या पूँजीवाद, भारतीय संस्कृति हो या पाश्चात्य दर्शन, सबके अपने पारितन्त्र हैं। उनमें वही विचार पोषित और पल्लवित होते हैं जो औरों के प्रेरक होते हैं या पूरक। विरोधी स्वर या तो दब जाते हैं या पारितन्त्रों की टूट का कारण बनते हैं। जो भी निष्कर्ष हो, जब तक एक स्थिरता नहीं आ जाती है तब तक संक्रमण होता रहता है इनमें।
किसी क्षेत्र में कोई बदलाव लाने के लिये उसके पारितन्त्र के हर अवयव के बारे में विचार करना आवश्यक है। बिना सोचे समझे बदलाव कर देने से उसके परिणाम दूरगामी होते हैं। पॉलीथिन का प्रयोग प्रारम्भ करने के पहले किसी ने नहीं सोचा था कि एक दिन यह गहरी समस्यायें उत्पन्न कर देगा। पर्यावरण के बारे में मची वर्तमान बमचक, पारितन्त्रों की अधूरी समझ का परिणाम ही है।
आज के समय में हम भारतीयों की स्थिति सबसे अधिक गड्डमड्ड है। कोई एक पारितन्त्र है ही नहीं, बचपन संस्कारों में बीतता है, सभी परिवार अपने बच्चों को घर में संस्कृति का सबसे उत्कृष्ट पक्ष सिखाते हैं, शिक्षापद्धति की प्राथमिकतायें दूसरी हैं, समाज में फैली राजनीति पोषित भिन्नतायें तीसरा ही संदेश देती हैं, वैश्विक होड़ में जीवन का चौथा रंग दिखायी देता है, स्वयं की विचार प्रक्रिया इन सब पंथों की खिचड़ी बन जाती है। प्राच्य से पाश्चात्य तक की यह यात्रा एक पारितन्त्र से दूसरे में कूदते कूदते बीतती है। जीवन की ऊर्जा कब कहाँ क्षय हो जाती है, हिसाब ही नहीं है। कह सकते हैं कि काल संक्रमण का है पर कोई निष्कर्ष दिखता ही नहीं है, न जाने कौन सी नस्ल तैयार होने वाली है, हम भारतीयों की।
ऐसे संक्रमण में कुछ सार्थक उत्पादकता देने वाले विरले ही कहलायेंगे। देश, समाज और परिवार के ध्वस्तप्राय पारितन्त्र कब ठीक होंगे और कैसे ठीक होंगे? कब व्यक्ति, परिवार, समाज, दल, प्रदेश एक दूसरे के प्रेरक व पूरक बनेंगे? भले ही कई परिवार अपना अस्तित्व अक्षुण्ण बनाये रखें पर उनके पारितन्त्र को हर स्तर पर बल मिलता रहेगा, इसकी संभावना बहुत ही कम है।
निश्चय मानिये कि आने वाली पीढ़ियों के पास पंख तो होंगे, पर उड़ानें भरने के लिये मुक्त गगन नहीं। क्या हमारे पारितन्त्र उस आकाश को बाधित करते हैं? ऊर्जा का एक अथाह स्रोत भी चाहिये लम्बी उड़ाने भरने के लिये, एक बार पुनः देख लें कि हमारी पद्धतियाँ उन्हें ऊर्जा देती हैं या उड़ने के पहले ही थका देती हैं? न जाने किन आशंकाओं से बाधित है, हमारी भविष्य की परिकल्पना? जटिलतायें रच लेना सरल हैं, समस्याओं को जस का तस छोड़ दीजिये, नासूर बन जायेंगी। सरलता की संरचना स्वेदबिन्दु चाहती है, मेधा की आहुति चाहती है, निश्चयात्मकता चाहती है निर्णयों में, सब के सब अनवरत।
क्या आने वाली पीढ़ियों को हम वह सब दे पा रहे हैं, क्या हमारे पारितन्त्र स्वस्थ हैं, क्या हमारे पारितन्त्र सबल हैं?
किसी क्षेत्र में कोई बदलाव लाने के लिये उसके पारितन्त्र के हर अवयव के बारे में विचार करना आवश्यक है। बिना सोचे समझे बदलाव कर देने से उसके परिणाम दूरगामी होते हैं। पॉलीथिन का प्रयोग प्रारम्भ करने के पहले किसी ने नहीं सोचा था कि एक दिन यह गहरी समस्यायें उत्पन्न कर देगा। पर्यावरण के बारे में मची वर्तमान बमचक, पारितन्त्रों की अधूरी समझ का परिणाम ही है।
आज के समय में हम भारतीयों की स्थिति सबसे अधिक गड्डमड्ड है। कोई एक पारितन्त्र है ही नहीं, बचपन संस्कारों में बीतता है, सभी परिवार अपने बच्चों को घर में संस्कृति का सबसे उत्कृष्ट पक्ष सिखाते हैं, शिक्षापद्धति की प्राथमिकतायें दूसरी हैं, समाज में फैली राजनीति पोषित भिन्नतायें तीसरा ही संदेश देती हैं, वैश्विक होड़ में जीवन का चौथा रंग दिखायी देता है, स्वयं की विचार प्रक्रिया इन सब पंथों की खिचड़ी बन जाती है। प्राच्य से पाश्चात्य तक की यह यात्रा एक पारितन्त्र से दूसरे में कूदते कूदते बीतती है। जीवन की ऊर्जा कब कहाँ क्षय हो जाती है, हिसाब ही नहीं है। कह सकते हैं कि काल संक्रमण का है पर कोई निष्कर्ष दिखता ही नहीं है, न जाने कौन सी नस्ल तैयार होने वाली है, हम भारतीयों की।
ऐसे संक्रमण में कुछ सार्थक उत्पादकता देने वाले विरले ही कहलायेंगे। देश, समाज और परिवार के ध्वस्तप्राय पारितन्त्र कब ठीक होंगे और कैसे ठीक होंगे? कब व्यक्ति, परिवार, समाज, दल, प्रदेश एक दूसरे के प्रेरक व पूरक बनेंगे? भले ही कई परिवार अपना अस्तित्व अक्षुण्ण बनाये रखें पर उनके पारितन्त्र को हर स्तर पर बल मिलता रहेगा, इसकी संभावना बहुत ही कम है।
क्या आने वाली पीढ़ियों को हम वह सब दे पा रहे हैं, क्या हमारे पारितन्त्र स्वस्थ हैं, क्या हमारे पारितन्त्र सबल हैं?
रोचक। पूरी धरती की एक एण्टिटी - गाय के रूप में कल्पना की गयी है। आप अगर एक भाग को प्रभावित करें - अच्छे या बुरे रूप में तो दूसरे भाग पर प्रभाव डाले बिना नहीं रह सकते।
ReplyDeleteविचारणय आलेख-बेहद रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया है.
ReplyDeleteदार्शनिक महोदय तो आप हैं...हम नहीं..:P
ReplyDeleteएक ही जीवन में हमें किस्म किस्म के पारितंत्र में रहना होता है... दार्शनिक अंदाज़...
ReplyDeleteआने वाली पीढ़ी केलिये हम कितने फ़िक्रमंद हैं, और होना चाहिये... बहुत कुछ नया मिला ।
ReplyDeleteगहन अनुभूति ,विचार ,दर्शन और विश्लेषण से लिखी गयी उम्दा पोस्ट |
ReplyDeleteगहन अनुभूति ,विचार ,दर्शन और विश्लेषण से लिखी गयी उम्दा पोस्ट |
ReplyDeleteप्रकृति हमारी हर मनमानी बरदाश्त कर लेती है, लेकिन कब तक?
ReplyDeletevicharniy
ReplyDeleteप्रारंभ विकास और अंत , प्रकृति का नियम है , जब जब हमने इसमें व्यवधान डालने का प्रयत्न किया हमारा सर्वनाश तय हो जाता है !
ReplyDeleteहम वाकई संक्रमण काल से गुज़र रहे हैं , नियति पता नहीं मुझे मगर परिणिति अच्छी और भारतीय संस्कारों अनुसार नहीं होने जा रही, यह तय है....
शुभकामनायें अगली पीढ़ी को !
paaritantra shabd ka vishleshan karte hue bahut sundar tareeke se tathya ko samjhaya hai.bahut sarahniye aalekh.
ReplyDeleteबेहतरीन वैचारिक पोस्ट ......यह असंतुलन भौतिक जगत का हो या प्रकृति का ... इसका मूल्य हमें ही चुकाना है ......
ReplyDeleteबहुत आवश्यक है कि इन सब चीज़ों के लिए हम पहले से सचेत रहें,पर यहाँ सवाल उस 'तंत्र' का है जो सर पर मुसीबत आने पर ही सक्रिय होता है !
ReplyDeleteसंसार परिवर्तन शील है कभी गड मड तो कभी सरलतम. चक्र घूमता ही रहेगा .
ReplyDeleteरोचक..विचारणय आलेख...
ReplyDeleteरोचकता के साथ सार्थक व सटीक लेखन ..आभार ।
ReplyDeleteParadigm shift विकास की प्रक्रिया का एक अपरिहार्य अंग है। इस संक्रमण के दौरान पुरानी दीवारें गिरती हैं और नयी खड़ी होती हैं। भीत का घर गिरता है तो खपरैल बनती है और खपरैल हटाकर लिन्टर लगता है। कच्ची जमीन पर प्लास्टर लगता है लेकिन उसे तोड़कर मोजैक कराया जाता है जो मार्बल के लिए उखाड़ दिया जाता है। यह प्रक्रिया अंतहीन है। सभ्यता के विकास की कहानी निर्माण और विध्वन्स की कहानी ही है।
ReplyDeleteवासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
हम सिर्फ़ एक स्वार्थी समाज में जी रहे हैं...इससे ज्यादा और कुछ हकीक़त नहीं।
ReplyDeleteदिलचस्प।
गहन विश्लेषण.
ReplyDeleteजलप्रलय की कल्पना या हकीकत का कारण भी यही रहा होगा !
ReplyDeleteगहराई में जाकर अपनी प्राथमिकता तय करने का वक्त आ गया है न कि आँख बंद कर दौड़ में शामिल होने का .
ReplyDelete----परिस्थितिकी....अधिक सटीक शब्द है..
ReplyDelete----एसा कौन सा समय, काल व समाज रहा है जिसमें विकास के लिये परिवर्तन न हुआ हो,परिवर्तन के लिये सदा ही प्रक्रिति से छेडछाड होती है व होती रहेगी ; और समाज कब स्वार्थी नहीं रहा । यह सब प्रक्रिति-चक्र का आवश्यक अन्ग है...चलता रहेगा ...जब राम-क्रष्ण जैसे इसे नहीं रोक पाये तो कौन....आज भी वैसा ही सब कुछ है...
---गाय स्वयं ब्रह्मा से प्रार्थना करने को पहुंचेगी ...अपने तारण हेतु....पाप का घडा भरने पर..
---मस्त रहिये.....
बहुत ही सटीक बात कह दी आपने. जाने आने वाली पीढियां किस रूप में दिखाई देंगी हमें.
ReplyDeleteविषय गंभीर है मगर '.चलता है' वाला attitude यहाँ भी अपनाना पडेगा ! नासा प्रयासरत है कि जो दूसरी पृथ्वी खोजी गई है, निकट भविष्य में कुछ आवादी यहाँ से वहाँ सिफ्ट हो सके ! पारिस्थितिकीय तंत्र को एक और रास्ता मिल जाएगा !
ReplyDeleteबहुत कुछ सोचने पर विवश करती पोस्ट!
ReplyDeleteआपकी इस सुन्दर प्रस्तुति पर हमारी बधाई ||
ReplyDeleteterahsatrah.blogspot.com
बढिया ज्ञानवर्धक
ReplyDeleteप्रस्तुति बहुत तो बहुत ही सुंदर है
कुछ नए शब्दों की जानकारी के साथ आपका आलेख बहुत ही उद्वेलित करता है विचार प्रणाली को ...
ReplyDeleteबदलाव ही जीवन की चाश्नी है, इसमें मिठास त्ब ही आती है जब बदलाव दिखाई देते हैं। तभी तो हमारी संस्कृति और संस्कार में भी बदलाव आ रहे हैं, सोच में भी!!!!!
ReplyDeletekabhi kabhi mujhe bahut dar lagne lagta hai..
ReplyDeleteसजीवों का अपने परिवेश के साथ सहजीवन सह्वर्धन संतुलित परितंत्र की पहली शर्त है लेकिन पारिस्थितिकी तंत्र निरंतर विकासमान हैं वैचारिक हों या सजीव हों या निर्जीव थिर कुछ भी नहीं है इस सृष्टि में केवल परिवर्तन ही शाश्वत है प्रवाहमान है पारितंत्र उसका अपवाद नहीं हो सकते .इकोसिस्टम कहो या कुछ और यह पर्यावरण की एक छोटी इकाई का नाम है .
ReplyDeleteवास्तव में हमारी सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि हम अपनी अगली पीढ़ी को एक स्वस्थ,सार्थक व सहजतापूर्ण इकोसिस्टम प्रदान कर सकें जिसमें उनके व्यक्तित्व को पूर्णता प्राप्त हो सके। सुंदर, सार्थक विचारपूर्ण प्रस्तुति।
ReplyDeleteएक और महत्वपूर्ण आलेख आप की तरफ से
ReplyDeleteकह सकते हैं कि काल संक्रमण का है पर कोई निष्कर्ष दिखता ही नहीं है, न जाने कौन सी नस्ल तैयार होने वाली है, हम भारतीयों की।
ReplyDeletedar isai ka sata raha hai.
अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं
ReplyDeleteहम कुल्हाड़ी पर अपना पैर मार रहे हैं
पारितंत्र शब्द को आपने एक व्यापक फलक मुहैया करवाया है .विज्ञान साहित्य पर्यावरण सामाजिक और दर्शन तक .हाँ डार्क चोकलेट खाइए लेकिन केलोरीज़ का हिसाब तो सब जगह बराबर रखा जाएगा .
ReplyDeleteबहुत ही विचारणीय प्रस्तुति..... विकास की आंधी क्या पता कब रुकेगी.
ReplyDeleteगागर में सागर...
ReplyDeleteहम एक दूसरे का हाथ छोड़कर अकेले हो जाना चाहते हैं तो कैसे बचेगा सबकुछ?
ReplyDeleteब्रह्माण्ड की समता और समत्व के भाव की व्याख्या एवं चिंता!!
ReplyDeleteपरि का अर्थ है चारो ओर- परिवेश या पारिस्थितिकी में पहला शब्द समान्य बोलचाल का है जबकि दूसरा पारिभाषिक है ....
ReplyDeleteमनुष्य का परिवेश /पारिस्थतिकी विशिष्ट है मगर यह अन्य जीव जंतुओं की पारिस्थतिकी से अन्योन्याश्रित रूप से सम्बद्ध है ....निश्चय ही एक की असहजता /असंतुलन दूसरे को प्रभावित करती है -मगर शीर्ष पर चूंकि मनुष्य है इसलिए वह खतरे के शिखर पर है ...विचारोत्तेजक ! इस पर आप एक पुस्तक लिख सकते हैं !
this is law of entropy. no one can help it,entropy has to go on increasing and ultimately in the end catastrophy ,then again BigBang will happen ,God Particle ,etc and so on...
ReplyDeleteबहुत अच्छी जानकारी मिली एक निवेदन है कि कृपया अपने LG के gs290 फोन मेँ प्लीज चेक करेँ कि क्या WWW.VOICEVOIBES.NET से रेडियोँ बजता है मैँ भी यही फोन खरीदना चाहता हूँ आपके लेख बहुत रुचि से पढ़ता हूँ मेरा ईमेल PS50236@gmail.com फोन 09559908060 ब्लाग WWW.PRABHAKARVANI.BLOGSPOT.COM प्लीज मदद करेँ
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति । मेरे मए पोस्ट नकेनवाद पर आप सादर आमंत्रित हैं । धन्यवाद |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति । मेरे मए पोस्ट नकेनवाद पर आप सादर आमंत्रित हैं । धन्यवाद |
ReplyDeleteप्रवीण जी, प्रेम सरोवर जी के यहाँ आप एक बार हो ही लो !
ReplyDeleteगहन चिंतन.रोचक विश्लेषण. पूर्वजों ने यदि हमारा भला न सोचा होता, तो आज धरती पर जीना दुश्वार होता. लेकिन हमने आने वाली पीढ़ियों का जीना मुश्किल करने की पूरी तैयारी कर रहे हैं.
ReplyDeleteबहुत सार्थक चिन्तन !
ReplyDeleteयहाँ भी हमारा पारितंत्र टूट रहा है हम कल की चिंता नहीं करते .पारितंत्र के साथ कायम रह सकने लायक संतुलन नहीं बना पाते .
ReplyDeleteपरितंत्र पर सार्थक चिंतन ... अगली पीढ़ी को क्या दे पा रहे हैं सोचना होगा ..
ReplyDeleteयह पोस्ट तनिक भारी लगी। दो बार पढने पर भी उलझन दूर नहीं हुई।
ReplyDeleteसभी कुछ एक दूसरे से जुड़ा है चाहे अच्छा हो या बुरा तो प्रभाव पड़ना स्व्भाविक ही है। सटीक बात कहती सार्थक प्रस्तुति....
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