स्वयं पर प्रश्न करने वाला ही अपना जीवन सुलझा सकता है। जिसे इस प्रक्रिया से परहेज है उसे अपने बोझ सहित रसातल में डूब जाने के अतिरिक्त कोई राह नहीं है। प्रश्न करना ही पर्याप्त नहीं है, निष्कर्षों को स्वीकार कर जीवन की धूल धूसरित अवस्था से पुनः खड़े हो जीवन स्थापित करना पुरुषार्थ है। इस गतिशीलता को आप चाहें बुद्ध के चार सत्यों से ऊर्जस्वित माने या अज्ञेय की ‘आँधी सा और उमड़ता हूँ’ वाली उद्घोषणा से प्रभावित, पर स्वयं से प्रश्न पूछने वाले समाज ही अन्तर्द्वन्द्व की भँवर से बाहर निकल पाते हैं।
ब्लॉग लेखन भी कई प्रश्नों के घेरों में है, स्वाभाविक ही है, बचपन में प्रश्न अधिक होते हैं। इन प्रश्नों को उठाने वाली पोस्टें विचलित कर जाती हैं, पर ये पोस्टें आवश्यक भी हैं, सकारात्मक मनःस्थिति ही तो पनप रहे संशयों का निराकरण करने में सक्षम नहीं। और प्रश्न जब वह व्यक्ति उठाता है जो अनुभवों के न जाने कितने मोड़ों से गुजरा हो, तो प्रश्न अनसुने नहीं किये जा सकते हैं। अन्य वरिष्ठ ब्लॉगरों की तरह ज्ञानदत्तजी ने हिन्दी ब्लॉगिंग के उतार चढ़ाव देखे हैं, सृजनात्मकता को संख्याओं से जूझते देखा है, खुलेपन को बद्ध नियमों में घुटते देखा है, आधुनिकता को परम्पराओं से लड़ते देखा है, प्रयोगों के आरोह देखे हैं, निष्क्रियता का सन्नाटा और प्रतिक्रिया का उमड़ता गुबार देखा है।
प्रतिभा को सही मान न मिले तो वह पलायन कर जाना चाहती है, अमेरिका भागते युवाओं का यही सारांश है। स्थापित तन्त्रों में मान के मानक भी होते हैं, बड़ा पद रहता है, सत्ता का मद रहता है, और कुछ नहीं तो वाहनों और भवनों की लम्बाई चौड़ाई ही मानक का कार्य करते हुये दीखते हैं। समाज में बुजुर्गों का मान उनकी कही बातों को मानने से होता है। भौतिक हो या मानसिक, स्थापित तन्त्रों में मान के मानक दिख ही जाते हैं। ब्लॉग जगत में मान के मानक न भौतिक हैं और न ही मानसिक, ये तो टिप्पणी के रूप में संख्यात्मक हैं और स्वान्तः सुखाय के रूप में आध्यात्मिक। ज्ञानदत्तजी यहाँ पर अनुपात के अनुसार प्रतिफल न मिलने की बात उठाते हैं जो कि एक सत्य भी है और एक संकेत भी। ब्लॉग से मन हटाकर फेसबुक पर और हिन्दी ब्लॉगिंग से अंग्रेजी ब्लॉगिंग में अपनी साहित्यिक गतिविधियाँ प्रारम्भ करने वाले कई ब्लॉगरों के मन में यही कारण सर्वोपरि रहा होगा।
ब्लॉग पर बिताये समय को तीन भागों में बाँटा जा सकता है, लेखन, पठन और प्रतिक्रिया। प्रतिक्रिया का प्रकटीकरण टिप्पणियों के रूप में होता है। प्रशंसा, प्रोत्साहन, उपस्थिति, आलोचना, कटाक्ष, विवाद, संवाद और प्रमाद जैसे कितने भावों को समेटे रहती हैं टिप्पणियाँ। ज्ञानदत्तजी के प्रश्नों ने इस विषय पर चिंतन को कुरेदा है, मैं जिस प्रकार इन तीनों को समझ पाता हूँ और स्वीकार करता हूँ, उसे आपके समक्ष रख सकता हूँ। संभव है कि आपका दृष्टिकोण सर्वथा भिन्न हो, प्रश्नों के कई सही उत्तर संभव जो हैं इस जगत में।
लेखन, पठन और प्रतिक्रिया पर बिताया गया कुल समय नियत है, एक पर बढ़ाने से दूसरे पर कम होने लगता है। अपनी टिप्पणियों को संरक्षित करने की आदत है क्योंकि उन्हें भी मैं सृजन और साहित्य की श्रेणी में लाता हूँ, कई बार टिप्पणियों को आधार बना कई अच्छे लेख लिखे हैं। इस प्रकार मेरे लिये उपरिलिखित तीनों अवयव अन्तर्सम्बद्ध हैं। केवल की गयी टिप्पणियों को ही पोस्ट बनाऊँ तो अगले एक वर्ष नया लेखन नहीं करना पड़ेगा। मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि मेरी टिप्पणियों की संख्या बहुत बढ़ गयी है, आकार कम हो गया है, गुणवत्ता भगवान जाने।
टिप्पणी देने की प्रक्रिया की यदि किसी ज्ञात से तुलना करनी हो तो इस प्रकार करूँगा। जब परीक्षा के पहले किसी विषय का पाठ्यक्रम अधिक होता था तो बड़े बड़े भागों को संक्षिप्त कर छोटे नोट्स बना लेता था, जो परीक्षा के एक दिन पहले दुहराने के काम आते थे। किसी का ब्लॉग पढ़ते समय उसका सारांश मन में तैयार करने लगता हूँ, वही लिख देता हूँ टिप्पणी के रूप में और संरक्षित भी कर लेता हूँ भविष्य के लिये भी। कभी उस विषय पर पोस्ट लिखी तो उस विषय पर की सारी टिप्पणियाँ खोज कर उनका आधार बनाता हूँ। अच्छी और सार्थक पोस्टें अधिक समय और चिन्तन चाहती हैं, लिखने में भी और पढ़ने में भी।
मुझपर आदर्शवाद का दोष भले ही लगाया जाये पर हर पोस्ट को कुछ न कुछ सीखने की आशा से पढ़ता हूँ। यदि कोरी तुकबन्दी ही हो किसी कविता में पर वह भी मुझे मेरी कोई न कोई पुरानी कविता याद दिला देती है, जब मैं स्वयं भी तुकबन्दी ही कर पाता था।
प्रकृति का नियम बड़ा विचित्र होता है, श्रम और फल के बीच समय का लम्बा अन्तराल, कम श्रम में अधिक फल या अधिक श्रम में कम फल, कोई स्केलेबिलटी नहीं। पोस्ट भी उसी श्रेणी में आती हैं, गुणवत्ता, उत्पादकता व टिप्पणियों में कोई तारतम्यता नहीं। इस क्रूर से दिखने वाले नियम से बिना व्यथित हुये तुलसीबाबा का स्वान्तःसुखाय लिये चलते रहते हैं। किसी को अच्छी लगे न लगे, पर स्वयं की अच्छी लगनी चाहिये, लिखते समय भी और भविष्य में पुनः पढ़ते समय भी।
भले ही लोग सुख के संख्यात्मक मानक चाहें पर यह निर्विवाद है कि सुख और गुणवत्ता मापी नहीं जा सकती है। प्रोत्साहन की एक टिप्पणी मुझे उत्साह के आकाश में दिन भर उड़ाती रहती है। सुख को अपनी शर्तों पर जीना ही फन्नेखाँ बनायेगा, ब्लॉगिंग में भी। बहुतों को जानता हूँ जो अपने हृदय से लिखते हैं, उनके लिये भी बाध्यतायें बनी रहेंगी ब्लॉगिंग में, साथ साथ चलती भी रहेंगी कई दिनों तक, पर उनका लेखन रुकने वाला नहीं।
प्रश्न निश्चय ही बिखरे हैं राह में, आगे राह में ही कहीं उत्तर भी मिलेंगे, प्रश्न भी स्वीकार हैं, उत्तर भी स्वीकार होंगे।
ब्लॉग लेखन भी कई प्रश्नों के घेरों में है, स्वाभाविक ही है, बचपन में प्रश्न अधिक होते हैं। इन प्रश्नों को उठाने वाली पोस्टें विचलित कर जाती हैं, पर ये पोस्टें आवश्यक भी हैं, सकारात्मक मनःस्थिति ही तो पनप रहे संशयों का निराकरण करने में सक्षम नहीं। और प्रश्न जब वह व्यक्ति उठाता है जो अनुभवों के न जाने कितने मोड़ों से गुजरा हो, तो प्रश्न अनसुने नहीं किये जा सकते हैं। अन्य वरिष्ठ ब्लॉगरों की तरह ज्ञानदत्तजी ने हिन्दी ब्लॉगिंग के उतार चढ़ाव देखे हैं, सृजनात्मकता को संख्याओं से जूझते देखा है, खुलेपन को बद्ध नियमों में घुटते देखा है, आधुनिकता को परम्पराओं से लड़ते देखा है, प्रयोगों के आरोह देखे हैं, निष्क्रियता का सन्नाटा और प्रतिक्रिया का उमड़ता गुबार देखा है।
ब्लॉग पर बिताये समय को तीन भागों में बाँटा जा सकता है, लेखन, पठन और प्रतिक्रिया। प्रतिक्रिया का प्रकटीकरण टिप्पणियों के रूप में होता है। प्रशंसा, प्रोत्साहन, उपस्थिति, आलोचना, कटाक्ष, विवाद, संवाद और प्रमाद जैसे कितने भावों को समेटे रहती हैं टिप्पणियाँ। ज्ञानदत्तजी के प्रश्नों ने इस विषय पर चिंतन को कुरेदा है, मैं जिस प्रकार इन तीनों को समझ पाता हूँ और स्वीकार करता हूँ, उसे आपके समक्ष रख सकता हूँ। संभव है कि आपका दृष्टिकोण सर्वथा भिन्न हो, प्रश्नों के कई सही उत्तर संभव जो हैं इस जगत में।
लेखन, पठन और प्रतिक्रिया पर बिताया गया कुल समय नियत है, एक पर बढ़ाने से दूसरे पर कम होने लगता है। अपनी टिप्पणियों को संरक्षित करने की आदत है क्योंकि उन्हें भी मैं सृजन और साहित्य की श्रेणी में लाता हूँ, कई बार टिप्पणियों को आधार बना कई अच्छे लेख लिखे हैं। इस प्रकार मेरे लिये उपरिलिखित तीनों अवयव अन्तर्सम्बद्ध हैं। केवल की गयी टिप्पणियों को ही पोस्ट बनाऊँ तो अगले एक वर्ष नया लेखन नहीं करना पड़ेगा। मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि मेरी टिप्पणियों की संख्या बहुत बढ़ गयी है, आकार कम हो गया है, गुणवत्ता भगवान जाने।
मुझपर आदर्शवाद का दोष भले ही लगाया जाये पर हर पोस्ट को कुछ न कुछ सीखने की आशा से पढ़ता हूँ। यदि कोरी तुकबन्दी ही हो किसी कविता में पर वह भी मुझे मेरी कोई न कोई पुरानी कविता याद दिला देती है, जब मैं स्वयं भी तुकबन्दी ही कर पाता था।
प्रकृति का नियम बड़ा विचित्र होता है, श्रम और फल के बीच समय का लम्बा अन्तराल, कम श्रम में अधिक फल या अधिक श्रम में कम फल, कोई स्केलेबिलटी नहीं। पोस्ट भी उसी श्रेणी में आती हैं, गुणवत्ता, उत्पादकता व टिप्पणियों में कोई तारतम्यता नहीं। इस क्रूर से दिखने वाले नियम से बिना व्यथित हुये तुलसीबाबा का स्वान्तःसुखाय लिये चलते रहते हैं। किसी को अच्छी लगे न लगे, पर स्वयं की अच्छी लगनी चाहिये, लिखते समय भी और भविष्य में पुनः पढ़ते समय भी।
प्रश्न निश्चय ही बिखरे हैं राह में, आगे राह में ही कहीं उत्तर भी मिलेंगे, प्रश्न भी स्वीकार हैं, उत्तर भी स्वीकार होंगे।
सार्थक, संक्षिप्त और सटीक टिप्पणियों के साथ आपकी व्यापक उपस्थिति चकित करने वाली है.
ReplyDeleteप्रश्न की बात पर देथा जी के लिए मैंने लिखा था- ''यह लेखक अपने लिखे को फिर से नहीं पढ़ता, लेकिन अपने लिखे पर न्यायसंगत उत्तर की आशा में स्वयं सवाल खड़े करता है, देथा से पाठक को जो उम्मीद है, वह इससे कायम रह जाती है।''
ब्लॉगिंग की दुनिया में आप तो omnipresent है...
ReplyDeleteआप वृक्ष रोपेंगे तो फल तो आएंगे। चाहे आप स्वयं उन्हें न पा सकें। पर कोई तो पाएगा।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट पर आकर मेरा मनोबल बढीएं । धन्यवाद ।
ReplyDelete" ... प्रशंसा, प्रोत्साहन, उपस्थिति, आलोचना, कटाक्ष, विवाद, संवाद और प्रमाद जैसे कितने भावों को समेटे रहती हैं टिप्पणियाँ ... "
ReplyDelete... saarthak charchaa !!
ब्लॉग-लेखन और टीपों को लेकर इधर विशद चर्चा हो रही है.निश्चित ही लिखने वाले को तोष तभी होता है जब वह यह समझता है कि उसे कोई पढ़ भी रहा है.महज़ प्रशंसा पाना ही उसका उद्देश्य हमेशा नहीं होता,अगर वास्तव में लेखन को लेकर वह गंभीर है तो उसे यह भी लगता है कि उसकी खामियों पर भी कोई नज़र डाले.
ReplyDeleteयहाँ टीप का छोटा-बड़ा होना ज़्यादा मायने नहीं रखता. मुख्य बात यह है कि उसका लिखे हुए से सन्दर्भ है या यूं ही सब जगह फिट बैठने वाला प्रयोजन !
कुछ लोग नए ब्लॉग्स पर न जाकर इसे अपने स्केल से जोड़ते हैं जबकि लेखक तभी सम्पूर्ण होता है जब उसमें प्रेरक-तत्व हो,आत्मीयता हो ! यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि हम कई बार शिष्टाचार वश कहीं जाते हैं,पर केवल शिष्टाचार ही हर बार आकर्षित नहीं कर सकता. कई बार यदि कोई सार्थक टीप हो जाति है तो हल्का लिखने वाला भी कुछ सुधार तो कर ही सकता है !
लिखने वाले से ज़्यादा बड़ा वह है जो किसी का प्रेरक बन जाए,बाकी कुछ अर्थों में स्वान्तः सुखाय तो हम होते ही हैं !
बहुत ही सारगर्भित और विवेचनात्मक पोस्ट |आभार
ReplyDeleteबस मूल मन्त्र वही है जिसे तुलसी बाबा दे गए हैं -स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा ..अगर यह खुद की संतृप्ति के लिए है तो यह क्रम चलता रहेगा अनवरत ...निर्बाध ....अन्यथा यह थम जायेगा ....टिप्पणियाँ और विज्ञ टिप्पणियाँ (जैसे यह :) ) भी महज इसलिए जरुरी हैं कि लेखक /रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति का एक सार्वजनीन और शायद सर्वकालिक अनुमोदन भी चाहता है ....मगर यह अपने सही परिप्रेक्ष्य और भाव में तभी संभव है जब पाठक /पाठक वर्ग भी लेखक की अनुभूति /विचार के स्तर का हो ....अगर यह मणि कांचन संयोग बन गया तो सर्जक और उपभोक्ता(लेखक और पाठक ) का एक अद्भुत क्रियाशील (डायनेमिक ) सम्बन्ध स्थापित हो जाता है जो उभयपक्षों के लिए प्रेरणादायक बनता है ....भवभूति ने इसलिए ही ऐसे समानधर्मा पाठक के लिए कह डाला था -
ReplyDeleteउपत्स्यते कोपि समानधर्मा कालोवधि निरवधि विपुलांच पृथ्वी ....मुझे तो अनन्त कल तक ऐसे समान धर्मा की प्रतीक्षा रहेगी जो मुझे समझ सके .....आप अहर्निश लिखते रहें.....हम तो पढ़ते ही रहेगें ....और हाँ चूँकि मनुष्य नितांत पृथकता (आईसोलेसन) का वजूद लिए नहीं होता -उसके सरोकारों -ब्लागरों की सामाजिकता के पक्ष का भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए .....नाम न लेकर मैं यह अवश्य कहना चाहूँगा कि कुछ ब्लॉगर अभिजात्यता की भावना लिए हैं जो उनकी सोच जीवन यापन ,निःसंगता सब और दीखती है -अंतर्जाल लोकतांत्रिक प्रक्रिया का महा -आह्वान है ...यहाँ सभी को सम भाव से हविदान करना होगा ...आप बड़के ब्लॉगर हैं तो अपने घर के हैं ..जय सिया राम की !
संतुलित, सटीक और सुव्यवस्थित!!
ReplyDeleteआपकी ब्लॉगिंग के प्रति गम्भीरता जबरदस्त और काबिलेतारीफ़ है।
ReplyDeleteजिज्ञासा न हो , तो कुछ नहीं सीखा जा सकता ... भागों में बांटकर विषय को स्पष्ट कर दिया है
ReplyDeleteआपने वही सवाल उठाए हैं जो एक सजग ब्लागर के मन में घुमड़ते रहते हैं। टिप्पणियां आती हैं,उनमें प्रतिक्रिया होती है, तो पता चलता है कि लोग पढ़ रहे हैं। मेरी पिछली कविता आत्मविश्वास पर टिप्पणियां तो कुल जमा 25 से कुछ अधिक आईं। पर पोस्ट के आंकड़े बताते हैं कि उसे 200 से अधिक लोगों ने पढ़ा। पर विडम्बना यही है कि मुझे यह पता नहीं चल रहा है कि उन्हें कविता कैसी लगी। उसमें कौनसे विचार ने उन्हें झिझोंड़ा।
ReplyDeleteबहरहाल एक बात तो आपने स्वीकार भी की है कि आपकी टिप्पणियों की संख्या बढ़ गई है। लेकिन उनका आकार घट गया है। मैंने भी यह बात नोट की है। मेरा मानना है कि आपको आकार नहीं घटाना चाहिए। वरना आप की एक पंक्ति की टिप्पणी जल्द ही उसी श्रेणी में शामिल हो जाएगी,जिसमें सुंदर प्रस्तुति,सुंदर भाव, आदि आदि होती हैं।
जब वेब लोग बना होगा शायद ही किसी ने सोचा होगा इस पर इतना गहन गंभीर चिंतन होगा .
ReplyDeleteब्लॉग की महता होती तो चिंतन मनन की जरुरत थी
यहाँ कभी ब्लॉग लेखन , विषय , मुद्दे जरुरी रहे ही नहीं
यहाँ जरुरी था / हैं सोशल नेटवर्क जिसके पीछे जितने खड़े हैं उसका चिंतन उतना गंभीर हैं चाहे वो टोइलेट सीट के चित्र ही क्यूँ ना हो !!!
यहाँ बाध्यता रही हैं मित्रता , लेखन का क़ोई वजूद नहीं रहा हैं और सबसे अहम बात यहाँ हिंदी के हिज्जो की महता हैं लेखन और विचारों की नहीं
यहाँ व्यक्ति प्रधान हैं लेख और मुद्दा नहीं इस लिये बाध्यता जैसा क़ोई मुद्दा हैं ही नहीं
और खाली समय का खेल हैं ब्लॉग लेखन और उससे जुडा चिंतन !!!!!!!!
टिप्पणी हमेशा विषय को आगे बढाने वाली होनी चाहिए ना कि केवल खानापूर्ति। ब्लाग लेखन का अर्थ ही यह है कि हम किसी भी विषय पर त्वरित प्रतिक्रिया प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन जब कुछ लोग विषय पर अपनी एक लाईना टिप्पणी लिखकर इतिश्री कर देते हैं तब दुख होता है। हम विद्वान लेखकों से तो उम्मीद करते हैं कि वे विषय पर अपने विचार स्पष्ट करें।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति ||
ReplyDeleteबधाई महोदय ||
@ मुझपर आदर्शवाद का दोष भले ही लगाया जाये पर हर पोस्ट को कुछ न कुछ सीखने की आशा से पढ़ता हूँ। यदि कोरी तुकबन्दी ही हो किसी कविता में ...
ReplyDeleteमैंने दिल से लिखी गई रचना में यही बात कही थी कि हर कोई दिल से लिखता है, चाहे वह तुकबन्दी ही क्यों न हों।
कुछ लोगों ने अपने ज़माने में उन भाषाओं में लिखी जो तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग मी भाषा नहीं थी, पर वो आज भी लोगों में काफ़ी प्रसिद्ध और सार्थक हैं।
हमें तो हर रचना अच्छी लगती है, और सीखने का प्रयत्न करता हूं।
कोई भी रचना किसी को अच्छी लगे न लगे, पर स्वयं को अच्छी लगनी चाहिये, लिखते समय भी और भविष्य में पुनः पढ़ते समय भी। लेखन का सुख स्वान्तः सुखाय ही है !भले ही लोग सुख के संख्यात्मक मानक चाहें पर यह निर्विवाद है कि सुख और गुणवत्ता मापी नहीं जा सकती है।
ReplyDeleteकिसी पोस्ट पर की गयी टिप्पणिया सकारात्मक टिपण्णी / आलोचनात्मक टिप्पणिया चिंतन को नए आयाम प्रदान करती है नए विचार वन में विचरण करने का आमंत्रण देती है .........प्रोत्साहन देती है ............. नयी ऊर्जा देती है ........... प्रतिभा को यथोचित मान देती है
कोई भी रचना किसी को अच्छी लगे न लगे, पर स्वयं को अच्छी लगनी चाहिये, लिखते समय भी और भविष्य में पुनः पढ़ते समय भी। लेखन का सुख स्वान्तः सुखाय ही है !भले ही लोग सुख के संख्यात्मक मानक चाहें पर यह निर्विवाद है कि सुख और गुणवत्ता मापी नहीं जा सकती है।
ReplyDeleteकिसी पोस्ट पर की गयी टिप्पणिया सकारात्मक टिपण्णी / आलोचनात्मक टिप्पणिया चिंतन को नए आयाम प्रदान करती है नए विचार वन में विचरण करने का आमंत्रण देती है .........प्रोत्साहन देती है ............. नयी ऊर्जा देती है ........... प्रतिभा को यथोचित मान देती है
टिप्पणियों के मामले में मैं आपसे सहमत हूँ , मैं किसी लेखन को बेकार नहीं मानता चाहे तुकबंदी ही क्यों न हो, अभिव्यक्ति अपनी अपनी सामर्थ्य अनुसार सब करते हैं अतः आलोचना क्यों प्रोत्साहन मिलना ही चाहिए ! प्रोत्साहन के अभाव में बड़ी से बड़ी कलम दम तोड़ते देर नहीं लगाएगी !
ReplyDeleteहर लेखक चाहता है कि उसे लोग पढ़ें, कमेन्ट करने से एक लाभ यह भी है कि अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी जाए , आवश्यक नहीं कि हर समय आपको लोग याद रखें ...
हाँ हर बार मित्रों के लेख पर समयाभाव के कारण टिप्पणी चाहते हुए भी नहीं कर पाता इसका खेद अवश्य रहता है !
टिप्पणी आकार घटाना कई बार मजबूरी हो जाती है ....
शुभकामनायें आपको !
bahut hi saargarbhit tarq sangat prastuti hai aapki bloging ke prati gambheerta aur aashvaadita ko dekhkar achcha laga.har ek kala me koi bhi vyakti aur chaahe ek chota bachcha bhi ho doosron ki pratikriya ya prashansa kahe to behtar hoga,ki apeksha karta hai jisko pakar usme urjaa aur doguni ho jaati hai aur uski kala me aur sudhaar aata hai.koi gyaani vyakti ki ek tippani bhi kafi hai aapki lekhni ko utsaahit karne ke liye.
ReplyDeleteगुलदस्ता जैसा लगे, ब्लॉगिंग का संसार।
ReplyDeleteटिप्पणियो हैं पोस्ट की,खुशबू का आधार।।
कितनी बातें आपने सहजता से कह दी हैं जो कुछ लोगों के मन में प्रश्न बन जाती हैं .. इस सार्थक प्रस्तुति के लिए आपका आभार ।
ReplyDeleteलिखने वाला और पढने वाला दोनों टिपण्णी पढ़कर ही समझ जाते हैं की टिपण्णी पोस्ट को पढ़कर की गयी है या बस यूँ ही | यक़ीनन सार्थक और सारगर्भित टिप्पणियाँ पोस्ट में प्रस्तुत विचार को विस्तार देती हैं पर आपके इस विचार से भी सहमत हूँ....
ReplyDeleteश्रम और फल के बीच समय का लम्बा अन्तराल, कम श्रम में अधिक फल या अधिक श्रम में कम फल, कोई स्केलेबिलटी नहीं। पोस्ट भी उसी श्रेणी में आती हैं, गुणवत्ता, उत्पादकता व टिप्पणियों में कोई तारतम्यता नहीं।
हाँ ब्लॉग्गिंग में स्वांत: सुखाय वाली सोच से बेहतर कुछ नहीं लगा .....
BLOGJAGAT KE 'BUDHHA'....
ReplyDeletePRANAM.
सहमत हूं आपकी बातों से..
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति
सुख को अपनी शर्तों पर जीना ही फन्नेखाँ बनायेगा, ब्लॉगिंग में भी। बहुतों को जानता हूँ जो अपने हृदय से लिखते हैं, उनके लिये भी बाध्यतायें बनी रहेंगी ब्लॉगिंग में, साथ साथ चलती भी रहेंगी कई दिनों तक, पर उनका लेखन रुकने वाला नहीं।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आलेख लिखा है आज आपने ..!सार्थक टिप्पणी देने के लिए अच्छे से पढ़ना पड़ा ...!!पर लिखने वाला भी जनता है की टिप्पणी को कितना महत्व दिया जाये |ब्लोगिंग का स्तर बढेगा ...टिप्पणी का स्तर अपने आप ही बढेगा ...!!
लिखने देते हैं सबको। कितने ब्लागर महाशयों ने तो ब्लाग-ब्लागिंग-टिप्पणी पर ही सैकड़ों लेख लिख डाले! न लिखना हो तो न लिखने पर ही पचास लेख।
ReplyDeleteजैसे -जैसे हिंदी ब्लोगिंग का विस्तार हो रहा है वैसे -वैसे हिंदी साहित्य वाली विसंगतियां भी देखने को मिल रही है . कैसे फल के लिए यहाँ आपाधापी मची हुई है जो स्पष्ट नहीं है . शायद ' स्वान्त : सुखाय ' ही है पता नहीं . जहाँ तक टिप्पणियों का प्रश्न है तो ह्रदय से निकली हुई कोई भी टिप्पणी सीधे हमारे ह्रदय तक आती है . गनीमत है कि हमें ये क्षमता मिली हुई है कि हम आसानी से फर्क कर सकते है . जो हमारे लेखन कार्य को हल्के पालिश की तरह चमका देते हैं . लेकिन मूल तो हमारी रचनात्मकता ही होती है जो अत्यंत प्रभावी प्रेरणा से ही प्रभावित होती है . बाकी तो हम ....अन्यथा न लें तो .. कचरा के आदान -प्रदान में कुशल तो हैं ही . हमें इन्ही में से आपके आलेखों की तरह स्तरीय सामग्री खोजना पड़ता है .
ReplyDeleteलिखना अपने आप में प्रतिफल है .प्रसाद है .संतुष्टि है .टिपण्णी निश्चय ही उसे सार्थकता देती हैं प्रोत्साहन भी लेकिन सिर्फ टिपण्णी प्राप्त करने के लिए हर कोई नहीं लिखता .लिखना खुद में एक व्यसन है ओबसेशन है बाध्यता है आसक्ति है .ब्लोगार्थी और बहुत से हैं कहतें हैं की ग़ालिब का है अंदाज़े बयाँ और हैं वाला मान गुमान यहाँ नहीं है .यहाँ वन इज टू वन रिलेशन शिप है .
ReplyDeleteबहुत संतुलित विवेचन .. टिप्पणियाँ देना बाध्यता नहीं है ...लेकिन टिप्पणी रुपी दो शब्द भी उर्जा को बढाते हैं ..हर लेखन में कुछ नया मिलता है पढने और सीखने के लिए ..आपकी इस पोस्ट ने बहुत कुछ सोचने पर विवश किया है .. आभार
ReplyDeleteप्रतिभाजी को मैं नहीं जानता। यह कौन प्रतिभा है जो पलायनंम् कर रही है :)
ReplyDelete:-) वाह, ज़बरदस्त सर जी!
ReplyDeleteज्यादा ब्लॉग पढ़ने के चक्कर में गुणवत्ता पर असर पड़ेगा ही, इसलिये चुन कर पढ़ना उचित लगता है। हां, सरसरी निगाह से बाकी ब्लॉग जरूर देखने की कोशिश करनी चाहिये ताकि अच्छा न छूट जाय। बाकी तो नये ब्लॉगरों को प्रोत्साहन हेतु अपनी समय प्रणाली के हिसाब से टिप्पणी देना भी जरूरी है, क्योंकि हम भी कभी नये थे और उस दौरान आई टिप्पणीयां मन में उत्साह भरतीं थीं, और भी कुछ नया लिखने के लिये प्रेरित करती थीं।
ReplyDeleteअब इसे समय का असर कहूं या परिस्थितयों की ललकार कि सारी ब्लॉगदारी भूल अब दुनियावी बातों में हम रम गये हैं, वरना वो भी एक दिन था कि पोस्ट लिखने के बाद हम खुद से टिप्पणी लिख उसे Test करते थे कि कहीं कुछ तकनीकी व्यवधान तो नहीं आ गया है जो टिप्पणीयां नहीं आ रही :)
मानसिक जीवन्तता उत्कृष्ट करने की उन्मुख रहती है
ReplyDeleteलेखन स्वान्तः सुखाय ही होता है...
ReplyDeleteप्रोत्साहन से तो ऊर्जा का संचार होता है और ऐसा होता है तो इसमे बुराई क्या है …………गलती हो तो अलग से समझाई जा सकती है मगर सभी धीरे धीरे सीखते है अपने अपने अनुभवो से ………तो सभी को कहने का भी हक है फिर चाहे वो जिस तरह अभिव्यक्त करे ………बस ब्लोग से ये फ़ायदा है कि यहाँ सबके बीच आप आ जाते हैं और सबके विचारो के आदान प्रदान से आपकी सोच का दायरा भी पढता है………लेखन और पठन बराबर होते रहना चाहिये जैसे क्रिया की प्रतिक्रिया होती है वैसे ही संतुलन बैठाकर जो कार्य किया जायेगा एक दिन मुकाम जरूर पायेगा।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteवाकई प्रश्न भी स्वीकार हैं उत्तर भी स्वाकारने ही होंगे बहुत ही बढ़िया सार्थक एवं सार गर्भित आलेख बहुत अच्छा लिखा है आपने !!! शुभकामनायें
ReplyDeleteThis is one the best post I've ever read on "blogging" as a topic.
ReplyDeleteFantastic read !!
ब्लॉग लेखन की बाध्यताओ को लेकर
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आलेख लिखा है आपने काबिलेतारीफ़....पाण्डेय जी
ब्लॉग खुरदरा लेखन है। उसका मजा उसके खुरदरे पन में ही है।
ReplyDeleteब्लॉगर को नया सीखते हुये अपने को समय समय पर रिव्यू कर लेना चाहियें। यह अपने विचारों पर लागू होता है और ब्लॉग/टिप्पणी लेखन पर भी।
मैं भी करता रहा हूं। अपनी कुछ पुरानी पोस्टें देखते लगता है - किसने लिखी हैं ये! :)
प्रवीण जी नमस्कार, बहुत अच्छा लिखा ब्लाग विषय पर मेरे भी ब्लाग पर आपका स्वागत है आये व रचनाओ की समीक्षा करे और राय दे।
ReplyDeleteइस सार्थक प्रस्तुति के लिए आपका आभार....!!
ReplyDelete" हम बढ़ते रहेंगे " के बेसलाइन टैग के साथ आप ने बहुत ही आशावादी सन्देश दिया है. ज्ञानदत्त जी और आपने बहरहाल बहुत ही गंभीर चर्चा को शुरू किया है. टिपणिया लेना और देना दोनों समय पर निर्भर है, जो शायद हर एक के पास बराबर नहीं. कई ब्लॉगों पर गंभीर साहित्य भी मिला रहा है मगर टिपणियों के मायाजाल को उनके लिए न समझ पाना उन्हें कमतर बना रहा ...... आप लोंगों की इस पोस्ट ने काफी विचारनीय प्रश्न उठाया है. सारगर्भित पोस्ट के लिए साधुवाद.
ReplyDeleteवैसे तो लेखन स्वान्तः सुखाय ही होता है ,पर ब्लांग में दी गई सकारात्मक टिप्पणिया चिंतन को नए आयाम प्रदान करती है नए विचार देती है,प्रोत्साहन देती है ...इतना ही नही ये एक दूसरे को जोड़ने में सहायक भी होती हैं....आभार...
ReplyDeleteकितने ही प्रश्न उठाती आपकी यह पोस्ट।यह तो आपने ठीक कहा जब तक दिल में चाह है और स्वयं को सुख की अनुभूति मिलती है, लेखन तो जारी रहेगा।
ReplyDeleteस्वांतः सुखाय की परिधि में ही टिप्पणियों से मिलने वाला सुख भी शामिल कर लिया जाय तो पूरा मामला आसान और सुपथ्य हो जाता है।
ReplyDeleteईमानदारी की बात यह है कि टिप्पणियाँ हमारी चिन्तन धारा को परिमार्जित करती हैं। हम जिस तरीके से सोचते हैं और लिखते हैं उसका निर्धारण हमारे प्रत्यक्ष पाठकों की प्रतिक्रियाएँ भी करती हैं। मैं तो यहाँ तक मानता हूँ कि इस माध्यम ने कितनों को सलीके से सोचना और लिखना सिखा दिया जो इसका वजूद न होने पर शायद कुछ भी लिखे बिना ही जीवन काट देते।
न सिर्फ़ पोस्ट लिखने में बल्कि टिप्पणियाँ लिखने में भी हमें तार्किक और बोधगम्य होना पड़ता है। लेखकीय सफलता के लिए इनका होना अनिवार्य है।
संक्षिप्तता चातुर्य की आत्मा है (Brevity is the soul of wit)। आपकी संक्षिप्त टिप्पणियाँ इसकी गवाह हैं।
पाण्डेयजी की पोस्ट पर आपका कमेंट पढ़कर भान हो गया था कि एक सुगठित दर्शन वाली पोस्ट पढ़ने को मिलेगी।
ReplyDeleteहमारे नामराशि से सहमत - ’ब्लॉग बुद्ध’
मुझे लगता है कि हिदी ब्लॉगिंग में टिप्पणियों को लेकर जो आग्रह है वो जरूरत से ज्यादा है। अगर कोई टिप्पणी करने के लिए समय निकाल रहा है तो ये अच्छी बात है पर इससे उसका ख़ुद के कान्टेन्ट की गुणवत्ता नहीं प्रभावित होनी चाहिए। अपनी कहूँ तो मेरा ज्यादा समय तो अपने विषय के बारे में पढ़ने लिखने में ही चला जाता है।
ReplyDeleteमैं तो छः सालों से ब्लागिंग की है और लगातार की है। जो चीज आपके मन की हो आपके हृदय से निकलती हो उसे टिप्पणियों की घटती बढ़ती संख्या रोक नहीं सकती। वैसे भी टिप्पणियाँ अधिकतर ब्लागर ही करते हैं जबकि हम लिखते समस्त जनता के लिए हैं। अगर आप अच्छा लिखेंगे तो ज्यादा लोग उसे पढ़ना चाहेंगे भले ही वो टिप्पणी करें ना करें। जैस कि ऊपर कई लोगों ने लिखा मेरी भी यही मान्यता है कि अगर टिप्पणियाँ विषय को आगे बढ़ाने वाली हों तो उनका एक अलग ही आनंद है।। दूसरे जैसा मिश्रा जी ने कहा कि ... यह अपने सही परिप्रेक्ष्य और भाव में तभी संभव है जब पाठक /पाठक वर्ग भी लेखक की अनुभूति /विचार के स्तर का हो से मैं पूर्णतः सहमत हूँ।
चल तू अपनी राह पथिक चल!
ReplyDeleteटिप्पणियां कभी-कभी दुआ सलाम की तरह होती हैं, कभी-कभी थोडा आगे बढ़कर हाल -चाल पूछने वाले मित्र की तरह. और कभी-कभी साथ बैठकर बतियाते मित्र की तरह. सबसे अच्छी बात यह है कि लिखा जा रहा है, और पढ़ा भी जा रहा है. यह किसी न किसी धरातल पर हमें जोड़ भी तो रहा है.
चल तू अपनी राह पथिक चल!
ReplyDeleteटिप्पणियां कभी-कभी दुआ सलाम की तरह होती हैं, कभी-कभी थोडा आगे बढ़कर हाल -चाल पूछने वाले मित्र की तरह. और कभी-कभी साथ बैठकर बतियाते मित्र की तरह. सबसे अच्छी बात यह है कि लिखा जा रहा है, और पढ़ा भी जा रहा है. यह किसी न किसी धरातल पर हमें जोड़ भी तो रहा है.
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल आज 08 -12 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज... अजब पागल सी लडकी है .
पूरा सार है- प्रश्न निश्चय ही बिखरे हैं राह में, आगे राह में ही कहीं उत्तर भी मिलेंगे, प्रश्न भी स्वीकार हैं, उत्तर भी स्वीकार होंगे। - बिल्कुल इसी विचारधारा को थामे चलते रहिये...शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteविचारपूर्ण पोस्ट,अनेकानेक सवालों के उतने ही जवाब...
ReplyDeleteप्रोत्साहन की एक टिप्पणी मुझे उत्साह के आकाश में दिन भर उड़ाती रहती है। सुख को अपनी शर्तों पर जीना ही फन्नेखाँ बनायेगा, ब्लॉगिंग में भी।
ReplyDeleteवाह! बहुत खूब.
राहुल सिंह जी की बात मैं भी दोहराता हूँ.
'सार्थक, संक्षिप्त और सटीक टिप्पणियों के साथ आपकी व्यापक उपस्थिति चकित करने वाली है.'
आज की आपकी पोस्ट उद्वेलित करती सी लगती .... कारण जान कर सुकून सा मिला ..:) वैसे मैं आपसे सहमत हूँ , मैं किसी लेखन को बेकार नहीं मानती क्यों की ये उस लेखक की अपनी सोच है ,आप को पसंद आये तो पढे अथवा अनदेखा करें .....
ReplyDeleteआप ऐसे ही आगे बढतें रहें आगे और आगे हम आते रहेंगे जैसे "उडि जहाज को पंछी उडि जहाज पे आवे ...".आप लिखें रहें कागद कारे करते रहें ....
ReplyDeleteक्या बात है | :)
ReplyDelete@ सतीश जी की बात बहुत अच्छी लगी - सतीश जी - आपसे प्रार्थना है की हमारे लिए भी कुछ टिप्पणिया दीजिये :) |
@ वैसे प्रवीण जी - यदि बता सकें की आप अपनी टिप्पणियों को कैसे सुरक्षित करते हैं / रखते हैं - तो आभारी रहूंगी | मैं नहीं जानती की यह कैसे किया जा सकता है ?
मन की अनेक शंकाओं का निवारण करता आपका सारगर्भित आलेख बहुत अच्छा लगा ! अभी तक यही जाना सुना था कि टिप्पणियों का खेल आदान प्रदान के नियमों का अनुपालन करता है ! यदि लेखक के पास यथेष्ट समय और सुविधा नहीं है अन्य ब्लॉग्स पर जाने की तो उसकी पोस्ट भी उपेक्षित ही रह जायेगी यह गणित समझ में नहीं आता ! मेरे विचार से ऐसा होना भी नहीं चाहिये ! सकारात्मक टिप्पणी नवोदित लेखक को सदैव प्रोत्साहित करती हैं और स्थापित लेखकों का यह दायित्व बनाता है कि वे युवा पीढ़ी का उचित मार्गदर्शन करें ! फिर भी यदि लेखक स्वान्त: सुखाय और आत्म तुष्टि के लिये लिखता है तो टिप्पणी की संख्या उसके लेखन को प्रभावित नहीं करेगी ऐसा मेरा मानना है ! सार्थक आलेख के लिये आपको बहुत बहुत बधाई एवं अभिनन्दन !
ReplyDeleteसुख को अपनी शर्तों पर जीना ही फन्नेखाँ बनायेगा, ब्लॉगिंग में भी। ....
ReplyDeleteबहुत सही लगा यह...
अपनी कहूँ तो लिखना पढना दोनों ही स्वान्तः सुखाय हेतु करती हूँ...हाँ, किसी को अच्छा लग गया तो खुशी तो मिलती ही है...
टिप्पणियां कई बार विषय को और भली प्रकार समझ पाने की क्षमता बढ़ाती हैं,ऐसी टिप्पणियाँ हर्षकारक होती हैं...केवल वाह वाह ऊबदायक...पढ़ते और टिपण्णी करते समय इससे भरसक बचे रहने की कोशिश करती हूँ...
मनमौजी रहना सुखकर लगता है,कि मन किया तो पढ़ा पढ़ा पढ़ा...और न मन किया तो महीनो एक भी न पढ़ा, न लिखा...
प्रवीण जी आपको पहली बार पढ़ रही हूँ बहुत अच्छा लिखा है ,ब्लॉग की दुनिया मे बिलकुल नयी हूँ
ReplyDeleteजाहिर है कि मेरी जानकारियां शुन्य है इसलिए मुझे इस लेख से बहुत कुछ पता चला ..आगे भी मार्गदर्शन मिलता रहेगा एसी उम्मीद है ..आपका आभार
खासा विश्लेषण कर डाला ब्लॉगिग का । पर आप की एक बात बहुत भाई और मै उससे सहमत भी हूं कि
ReplyDeleteप्रोत्साहन की एक टिप्पणी मुझे उत्साह के आकाश में दिन भर उड़ाती रहती है । बहुत ब्लॉगों को भेट देना और टिप्पणी करना मेरे बस का नही है फिर भी मै यथा शक्ति प्रयत्न करती रहती हूँ ।
मैं तो ब्लोग लेखन की विधा में,न्युकमर हूं.बहुत से आयाम,ब्लोग -,जगत के मेरी पहुंच से दूर हैं.
ReplyDeleteआपके द्वारा दी गई जानकारियां मेरे लिये उपयोगी सिद्ध होंगी,साथ ही आपकी नियमित टिप्पणियां
मुझे सदैव प्रोत्साहित करती हैं,बेशकः वे छोटी होती हैं.
आपकी सारगर्भित टिपण्णी यत्र तत्र सर्वत्र देख कर अभिभूत होते रहते हैं... you seem to be the apt personification of the quote 'Brevity is the soul of wit.'
ReplyDeleteचिठ्ठा लोकप्रियता सूचकांक (ब्लॉग पाप्युलारिती इंडेक्स )वही जो अरविन्द बहाई समझें .प्रवीण जी ने सिर्फ यही कहा है गति सापेक्षिक होती है .आप ट्रेन में बैठे हैं ट्रेन आपके लिए आगे जा रही है पास वाले पेड़ पीछे छूट रहें हैं .दूर वाले पेड़ आपके साथ चलते प्रतीत होतें हैं .पेड़ यह भी कह सकतें हैं ट्रेन पीछे छूट रही है असल सवाल है सापेक्षिक स्थितियों का परिवर्तन .अब यदि दो ट्रेन एक ही दिशा में समान्तर ट्रेक्स पर एक ही लयताल से गति से आगे बढ़ रहीं हों सरल रेखा में और खिड़की में से दो यात्री एक दूसरे को अपनी अपनी ट्रेन से निहार रहें हों .दोनों साथ साथ ही रहेंगे .लेकिन विपरीत दिशा में देखने पर यह बोध नहीं होगा .जब आपकी ट्रेन खड़ी होती है और बराबर वाली चुपके से चल देती है आपको आभास होता है आपकी ट्रेन चल पड़ी है दूसरी और देखने पर यह एहसास समाप्त हो जाता है वहां कोई गति नहीं है सिर्फ प्लेटफोर्म की स्थिर दूकानें हैं .सो गति का फंदा सापेक्षिक है .प्रेक्षक निष्ठ है .परम गति या निरपेक्ष गति का कोई अर्थ नहीं है .
ReplyDelete---सुख और गुणवत्ता मापी नहीं जा सकती है।---यही सत्य है टिप्पणियों के बारे में भी...
ReplyDelete--टिप्पणियों की चिन्ता क्या....
"तवै तुमि एकला चलो रे..." हां आलेख में कुछ मूल तत्व-विषय तो होना ही चाहिये....
अब मैं क्या कहूँ टिप्पणियों के बारे में -जो दे उसका भला ,जो न दे उसका भी भला !
ReplyDeleteब्लॉग लेखन की बाध्यताओ को लेकर बहुत बढ़िया आलेख लिखा है आपने| धन्यवाद|
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteमेरा शौक
मेरे पोस्ट में आपका इंतजार है,
आज रिश्ता सब का पैसे से
naye blogar ka margdarshan karega yah aalekh..
ReplyDeleteबढ़िया आलेख...बधाई
ReplyDeleteबढ़िया आलेख...बधाई
ReplyDeleteकहते है ज्ञान बाटने से बढ़ता है , तो क्यों न ब्लोगिंग से बांटा जाये वरना |
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर प्रस्तुति |
I agree with you.
ReplyDelete.ये आना जाना मिलनसारी भी ब्लोगरी का एक सबब है .प्रसाद भी .वर्च्युअल दुनिया बड़ी अपनी सी हो गई है .जरा देर के लिए ई -मेल न खुले साइन इन न कर सकें बस लगता है सब कुछ लुट गया .लेकिन दिल यही तसल्ली देता है -ले आयेंगे एक ब्लॉग और एक पता और .
ReplyDeleteज्यादा लोगो के बारे में नहीं जानता पर मेरे लिए मुख्यत स्वांत सुखाय है....टिप्पणियां भी अधिकतर खाने में नमक की तरह है। जो कई बार खुशी दे जाती है...पर दुख नहीं देती। दूसरों को पढ़ना हमेशा किसी विषय के दूसरे रुप से परिचय करा देता है।
ReplyDeleteब्लॉगिंग में बकवास से लेकर बेहतरीन लेखन तक का स्कोप है। बकवास से बेहतरीन लेखन की तरफ जाना ब्लॉगिंग की विकास प्रक्रिया है।
ReplyDeletebahut achchhi lagi ye post ,aur sath hi sabki tippaniya bhi ..
ReplyDeleteआने वाली पीढ़ी की ख़ातिर मिल जुल कर
ReplyDeleteआओ भरें सारा लिटरेचर कम्प्युटर में
ये अपना मानना है, बाकी ब्लॉग पर टिप्पणियों की एक पंचायत मेरे ब्लॉग पर पहले भी हो चुकी है, यदि आप लोगों को फिर से हँसने, मुस्कुराने का मन हो तो पधारिएगा मेरी मर्ज़ी पर
सृजनात्मकता को संख्याओं से जूझते देखा है, खुलेपन को बद्ध नियमों में घुटते देखा है, आधुनिकता को परम्पराओं से लड़ते देखा है, प्रयोगों के आरोह देखे हैं, निष्क्रियता का सन्नाटा और प्रतिक्रिया का उमड़ता गुबार देखा है।..behtarin main jindagi dhuyein me udaata chala gaya...likh likh ke lekh roj sunaata padhata chala gaya...dil ka gubar nikla to sahitya ka naam ban gaya..dil me hee rahta to jaan nikal jaati..aap kee tareef karunga ..aap sab ko protsahit karte hain..sargarbhit shabdon mein..ishwar aapko aise hi urjawan rakhe..sadar badhayee ke sath
ReplyDeleteमुझे क्यों लग रहा है कि मैं न केवल यह पोस्ट पढ चुका हूँ अपितु इस पर टिप्पणी भी कर चुका हूँ। किन्तु हैरत है कि मेरी टिप्पणी कहीं नहीं है।
ReplyDeleteब्लॉग लेखन के मायने मेरे लिए सर्वथा अनूठे ही रहे। हर दिन इसके नए अर्थ और नए आयाम सामने आते रहे। भावनाओं का सतरंगी इन्द्रधनुष दिया है इसने मुझे। अपनी कमजोरियों को जानने का अच्छा जरिया भी बना यह।
मैं भी 'स्वान्त: सुखाय' भावना के अधीन ही इस पर बना रहूँगा।
जय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 02/09/2016 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
जय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 02/09/2016 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥ ............ इसी तर्ज पर ब्लॉग्गिंग चल रही अपनी .... ..
ReplyDeleteचिंतन-मनन भी जरुरी हैं ...इसी क्रम में बहुत अच्छी प्रस्तुति ..