31.12.11

ध्यान कहाँ है पापाजी ?

ब्लॉगजगत के ताऊजी से सदा प्रभावित रहे अतः पहली बार स्वयं ताऊ बनने पर अपने भतीजे से भेंट का मन बनाया गया। उत्तर भारत की धुंधकारी ठंड अपने सौन्दर्य की शीतलहरी बिखेरने में मगन थी, दिल्ली के दो सदनों की राजनैतिक गरमाहट भी संवादों और विवादों की बर्फ पिघलाने में निष्फल रही, कई ब्लॉगरों के चाय, कम्बल, अलाव आदि के चित्र भी मानसिक ऊर्जा देने में अक्षम रहे। गृहतन्त्र की स्वस्थ परम्पराओं का अनुसरण करते हुये हमने भी उत्तर भारत की संभावित यात्रा का प्रस्ताव भोजन की मेज पर रखा, उपरिलिखित तथ्यों के प्रकाश में हमारा प्रस्ताव औंधे मुँह गिर गया, वह भी ध्वनिमत से। संस्कारी परम्पराओं का निर्वाह करते हुये, उठ खड़े हुये अवरोध के बारे में जब हमने अपने पिताजी को बताया तो उन्होने भी अपने पौत्र और पौत्री की बौद्धिक आयु हमसे अधिक घोषित कर दी, कहा कि इतनी ठंड में आने की कोई आवश्यकता नहीं है। श्रीमतीजी सदा ही बहुमत के साथ मिलकर मन्त्री बनी रहती हैं, तो हम भी निरुपाय और निष्प्रभावी हो ब्लॉग का सहारा लेकर परमहंसीय अभिनय में लग गये।

बच्चों की छुट्टियाँ श्रीमतीजी के हाथ में तुरुप का इक्का होती हैं, आपका हारना निश्चय है। लहरों की तरह उछाले जाते, उसके पहले ही हमने गोवा चलने का प्रस्ताव जड़ दिया। सब हक्के बक्के, संभवतः विवाह के १४वें वर्ष में सब पतियों के ज्ञानचक्षु खुल जाते हों। लहरों के साथ खेलने के लिये भला कौन सहमत न होगा, गोवा-गमन को हमारा निस्वार्थ उपहार मान हमें स्नेहिल दृष्टि में नहला दिया गया, यह बात अलग थी कि हमने भी वहाँ पर अपने एक बालसखा से मिलने की योजना बना ली थी, वह भी बिछड़ने के २५ वर्ष के बाद।

सागर के साथ संस्कृति को जोड़ते हुये, हम लोग हम्पी होते हुये गोवा पहुँचे। हम्पी संस्कृति के ढेरों अध्याय समेटे है और विवरण के पृथक प्रयास का अधिकारी है। गोवा में लहरों का उन्माद उछाह हमारी प्रतीक्षा में था, लहरों के साथ खेलते रहने की थकान, उसके बाद महीन रेत पर निढाल होकर घंटों लेटे रहना, नीचे से मन्द मन्द सेंकते हुये रेतकण और ऊपर से सूरज की किरणों से आपकी त्वचा पर सूख जाते नमककण, प्रकृति अपने गुनगुने स्पर्श से आपको अभिभूत कर जाती है। बच्चे कभी शरीर पर तो कभी पास में रेत के महल और डायनासौर बनाते रहे, जब कभी आँख खुलती तो बस यही लगता कि कैसे यह गरमाहट और निश्चिन्तता उत्तरभारत और विशेषकर दिल्ली पहुँचा दी जाये।

पिछली यात्राओं में चर्च आदि देखे होने के कारण हमने गोवा और उसके बीचों पर निरुद्देश्य घूमने का निश्चय किया। हमें तो लग रहा था कि हम आदर्श पर्यटक के गुण सीख चुके हैं अतः हमारे द्वारा उठाये आनन्द का अनुभव अधिकतम होगा, पर इस यात्रा में भी कुछ सीखना शेष था, वह भी अपने पुत्र पृथु से।

यद्यपि हम छुट्टी पर थे पर फिर भी कार्य का मानसिक भार कहीं न कहीं लद कर साथ में आ गया था। बच्चों को छुट्टी में पढ़ने के लिये कहना एक खुला विद्रोह आमन्त्रित करने जैसा है, पर हम लोगों के लिये छुट्टी में भी अपने कार्यस्थल से जुड़ाव स्वाभाविक सा लगता है। लगता है कि हम सब किसी न किसी जनम में एटलस रहे होंगे और पृथ्वी के अपने ऊपर टिके होने की याद हमें रह रहकर आती है। या ऐसा हो कि हम पतंगनुमा मानवों को कोई डोर आसमान पर टाँगे रहती है और उस डोर के नहीं रहने पर हमारी अवस्था एक कटी पतंग जैसी हो जाती है, समझ में नहीं आता हो कि हम गिरेंगे कहाँ पर।

जिन दिनों हम गोवा में थे एयरटेल की सेवायें पश्चिम भारत में ध्वस्त थीं। नेटवर्क की अनुपस्थिति हमें हमारे नियन्त्रण कक्ष से बहुत दूर रखे थी। अपने आईफोन पर ही हम अपने मंडल के स्वास्थ्य की जानकारी लेते रहते हैं और समय पड़ने पर समुचित निर्देश दे देते हैं। यदि और समय मिलता है तो उसी से ही ब्लॉग पर टिप्पणियाँ करने का कार्य भी करते रहते हैं। न कार्य, न ब्लॉग, बार बार हमारा ध्यान मोबाइल पर, हमारी स्थिति कटी पतंग सी, मन के भाव चेहरे पर पूर्णरूप से व्यक्त थे।

पृथु को वे भाव सहज समझ में आ गये। वह बोल उठे “नेटवर्क तो आ नहीं आ रहा है तो आपका ध्यान कहाँ है पापाजी।“ वह एक वाक्य ही पर्याप्त था, मोबाइल जेब में गया और पूरा ध्यान छुट्टी पर, बच्चों पर, गोवा पर और सबके सम्मिलित आनन्द पर।

28.12.11

जलकर ढहना कहाँ रुका है

आशा नहीं पिरोना आता, धैर्य नहीं तब खोना आता,
नहीं कहीं कुछ पीड़ा होती, यदि घर जाकर सोना आता,  

मन को कितना ही समझाया, प्रचलित हर सिद्धान्त बताया,
सागर में डूबे उतराते, मूढ़ों का दृष्टान्त दिखाया, 

औरों का अपनापन देखा, अपनों का आश्वासन देखा,
घर समाज के चक्कर नित ही, कोल्हू पिरते जीवन देखा, 

अधिकारों की होड़ मची थी, जी लेने की दौड़ लगी थी,
भाँग चढ़ाये नाच रहे सब, ढोलक परदे फोड़ बजी थी, 

आँखें भूखी, धन का सपना, चमचम सिक्कों की संरचना,
सुख पाने थे कितने, फिर भी, अनुपातों से पहले थकना, 

सबके अपने महल बड़े हैं, चौड़ा सीना तान खड़े हैं,
सुनो सभी की, सबकी मानो, मुकुटों में भगवान मढ़े हैं, 

जिनको कल तक अंधा देखा, जिनको कल तक नंगा देखा,
आज उन्हीं की स्तुति गा लो, उनके हाथों झण्डा देखा,

सत्य वही जो कोलाहल है, शक्तियुक्त अब संचालक है,
जिसने धन के तोते पाले, वह भविष्य है, वह पालक है,

आँसू बहते, खून बह रहा, समय बड़ा गतिपूर्ण बह रहा,
आज शान्ति के शब्द न बोलो, आज समय का शून्य बह रहा,

आज नहीं यदि कह पायेगा, मन स्थिर न रह पायेगा,
जीवन बहुत झुलस जायेंगे, यदि लावा न बह पायेगा,

मन का कहना कहाँ रुका है, मदमत बहना कहाँ रुका है,
हम हैं मोम, पिघल जायेंगे, जलकर ढहना कहाँ रुका है?

24.12.11

बूढ़े बाज की उड़ान

बाज लगभग ७० वर्ष जीता है, पर अपने जीवन के ४०वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना पड़ता है। उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निष्प्रभावी होने लगते हैं। पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है और शिकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं। चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है। पंख भारी हो जाते हैं और सीने से चिपकने के कारण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमित कर देते हैं। भोजन ढूढ़ना, भोजन पकड़ना और भोजन खाना, तीनों प्रक्रियायें अपनी धार खोने लगती हैं। उसके पास तीन ही विकल्प बचते हैं, या तो देह त्याग दे, या अपनी प्रवृत्ति छोड़ गिद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निर्वाह करे, या स्वयं को पुनर्स्थापित करे, आकाश के निर्द्वन्द्व एकाधिपति के रूप में।

जहाँ पहले दो विकल्प सरल और त्वरित हैं, तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा। बाज पीड़ा चुनता है और स्वयं को पुनर्स्थापित करता है। वह किसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है, अपना घोंसला बनाता है, एकान्त में और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रक्रिया। सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है, अपनी चोंच तोड़ने से अधिक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज के लिये। तब वह प्रतीक्षा करता है चोंच के पुनः उग आने की। उसके बाद वह अपने पंजे उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की। नये चोंच और पंजे आने के बाद वह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

१५० दिन की पीड़ा और प्रतीक्षा और तब कहीं जाकर उसे मिलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी। इस पुनर्स्थापना के बाद वह ३० साल और जीता है, ऊर्जा, सम्मान और गरिमा के साथ।

प्रकृति हमें सिखाने बैठी है, बूढ़े बाज की युवा उड़ान में जिजीविषा के समर्थ स्वप्न दिखायी दे जाते हैं।

पंजे पकड़ के प्रतीक हैं, चोंच सक्रियता की द्योतक है और पंख कल्पना को स्थापित करते हैं। इच्छा परिस्थितियों पर नियन्त्रण बनाये रखने की, सक्रियता स्वयं के अस्तित्व की गरिमा बनाये रखने की, कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की। इच्छा, सक्रियता और कल्पना, तीनों के तीनों निर्बल पड़ने लगते हैं, हममें भी, चालीस तक आते आते। हमारा व्यक्तित्व ही ढीला पड़ने लगता है, अर्धजीवन में ही जीवन समाप्तप्राय लगने लगता है, उत्साह, आकांक्षा, ऊर्जा अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई विकल्प होते हैं, कुछ सरल और त्वरित, कुछ पीड़ादायी। हमें भी अपने जीवन के विवशता भरे अतिलचीलेपन को त्याग कर नियन्त्रण दिखाना होगा, बाज के पंजों की तरह। हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली वक्र मानसिकता को त्याग कर ऊर्जस्वित सक्रियता दिखानी होगी, बाज की चोंच की तरह। हमें भी भूतकाल में जकड़े अस्तित्व के भारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी, बाज के पंखों की तरह।

१५० दिन न सही, तो एक माह ही बिताया जाये, स्वयं को पुनर्स्थापित करने में। जो शरीर और मन से चिपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही, बाज की तरह।

बूढ़े बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे, इस बार उड़ानें और ऊँची होंगी, अनुभवी होंगी, अनन्तगामी होंगी।

(कुछ पाठकों ने बाज के जीवन की इस घटना पर संशय व्यक्त किया है। मैंने यह एक जगह पर पढ़ा था, इसकी तथ्यात्मक सत्यता या असत्यता प्रमाणित नहीं की जा सकती है। यदि यह कहानी भी हो तब भी सत्य से अधिक प्रभावी है। जीवन नवीन ऊर्जा की स्तुति करता है, नवीनता के लिये प्रयास और पीड़ा दोनो ही लगते हैं)

21.12.11

आत्मीय अनुपात

एक बड़े होटल का परिवेश, सामने रखे विविध प्रकार के व्यंजन, विकल्पों में भ्रमित होती आपकी चयन प्रक्रिया, क्या लें, क्या न लें, किसमें कितना मसाला है, किसमें कितनी कैलोरी है, फाइबर है या नहीं, देश विदेश की सांस्कृतिक महक समेटे, कलात्मकता में सजे, आप के द्वारा आस्वादित किये जाने की राह देख रहे हैं, सब के सब। आपको क्या अच्छा लगता है? बड़ा ही व्यक्तिगत प्रश्न है, ढेरों विमायें समेटे है, भोजन को स्वाद का उद्गम मानने वाले भक्तगण बड़ा ही निश्चयात्मक उत्तर देंगे, भोजन को पोषण का आधार मानने वाले अनिश्चय की स्थिति में रहेंगे, बहुतों के लिये कुछ स्पष्ट सा, कुछ अस्पष्ट सा, या कुछ भी।

स्वाद, पोषण और संतुष्टि। स्वाद और पोषण का पुराना बैर है। विशुद्ध प्राकृतिक अवयवों में स्वाद भले ही न हो, पोषण पूर्ण रहता है। तेल, मसाले, घी आदि में स्वाद निखरता है पर शरीर उससे सशंकित रहता है। संतुष्टि का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, परिभाषित करना भी कठिन है। खुलकर भूख लगना संतुष्टि का प्रमुख कारक है, जब जठराग्नि धधकती है तो स्वाद भी आता है, पोषण भी होता है और संतुष्टि भी होती है। संतुष्टि मापने का एक आधार हो सकता है कि आपको भोजन के बाद कैसा लगता है, उत्साह आता है, उबाल आता है, उनींदापन आता है या उन्माद आता है। कहने को तो भोजन भी त्रिगुणी होता है, सतो, रजो और तमो, गीता में इसकी विस्तृत व्याख्या भी की गयी है। भोजन का गुण उसके प्रभाव में छिपा रहता है।

आप याद कीजिये कि आपको सबसे अधिक संतुष्टि कहाँ का भोजन करने के बाद प्राप्त होती है। बहुत कम ही लोग ऐसे होंगे जो किसी होटल का नाम लेंगे। बहुत से लोग अपनी माताजी या श्रीमतीजी का नाम लेंगे। घर में बनी एक कटोरी दाल और चार रोटी के सामने किसी बड़े होटल का पूरा मीनू लघुतर लगता है। बाहर जाकर न खाने की मेरी प्रवृत्ति को श्रीमतीजी द्वारा मेरी कृपणता से जोड़ने के कारण ही बाहर जाना पड़ता है। वैसे भी महीने में दो-तीन बार बाहर जाकर अन्य स्वादों को चखने में घर की अन्नपूर्णा को ही विश्राम मिलता है और हमारा स्वाद भी बदल जाता है।

ऐसा क्या है घर के खाने में जो इतनी संतुष्टि उत्पन्न करता है। कहते हैं जिस भाव से भोजन बनाया जाता है वह भाव हम भोजन के साथ ग्रहण करते हैं। घर में अशिक्षित माँ के हाथों से प्रेमपूर्वक बना हुआ भोजन, बड़े होटल के प्रशिक्षित रसोईये के हाथों से बने पकवानों से कहीं सुस्वादु और संतुष्टिकारक होता है। माँ के लिये बेटे का महत्व, रसोईये के लिये ग्राहक के महत्व से कहीं अधिक प्रेमासित व वात्सल्यपूर्ण होता है। वह भाव जब भोजन में पड़ता है तो स्वाद निराला हो जाता है। इसके विपरीत एक बार एक छात्रावास में आत्महत्यायें बढ़ने का विशेष कारण नहीं मिल रहा था, कारण का अनुमान तब लगा जब वहाँ के प्रमुख रसोईये ने भी आत्महत्या कर ली। आत्महंता मनःस्थिति में भोजन बनाने का कुप्रभाव यदि भोजन करने वाले पर पड़ जाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये।

भले ही इस अवधारणा का कोई वैज्ञानिक आधार न हो, भले ही भौतिक और मानसिक धरातलों के बीच के संबंध के सूत्र न मिले हों, भले ही भोजन-पाचन को रसायनिक क्रियाओं के परे न समझा जा सका हो, भले ही आज भी कई घरों में भोजन बनाने वाले के ऊपर पवित्रता की घोर कटिबद्धता हो, भले ही चुपके से बाहर भोजन करना कई घरों में हीन दृष्टि से देखा जाता हो, पर हम सब कहीं न कहीं यह अनुभव अवश्य करते हैं कि प्यार से बनाये खाने में एक आत्मीय अनुपात होता है।

भोजन पौष्टिक तत्वों से बने, स्वादपूर्ण हो, प्रेमनिहित हो और घर की आर्थिक क्षमता के अनुरूप हो, संभवतः यही आत्मीय अनुपात हो हमारे भोजन का।

17.12.11

शत प्रतिशत

कितना बड़ा आश्चर्य है कि जहाँ एक ओर मन को सदा ही नयापन सुहाता है वहीं दूसरी ओर वह किसी के बारे में पुरानी धारणाओं को इतना दृढ़ कर लेता है कि उसमें कुछ नया देखने के लिये शेष बचता ही नहीं। मन ऊबने लगता है पर पुरानी धारणायें नहीं त्यागता, पति पत्नी घंटों चुपचाप बैठे रहते हैं पर कोई नया शब्द नहीं बोलते हैं, किसी की बात में कुछ नयापन ढूढ़ने के स्थान पर उसके बारे में वक्र टिप्पणी तैयार करने लगता है मन। पुराना छोड़ नहीं पाता और नये के लिये तरसता रहता है मन।

प्रकृति के पास मन के लिये पर्याप्त आहार है। प्रकृति में नित नया घटता ही रहता है, पेड़ों में नित कोपलें फूटती हैं, पुष्प खिलते हैं, फल रसपूर्ण हो रंग बदलते हैं। मानव मन में भी सृजनात्मकता गतिमान होती है, नये विचार कौंधते है। बच्चों का खिलखिलाना, चिडियों का चहकना, झमझम बारिश का बरसना, सूरज का लालिमामय हो सहसा उगना और अस्त हो जाना, सब हमारे आस पास हो रहे नयेपन के सुन्दर संकेत हैं। भविष्य का अनिश्चय अपने आप में ही एक नयापन है हम सबके लिये। जब सब ओर सब कुछ हर पल बदल रहा है तो ऊब कैसी और किससे।

क्या पहले से ही इतना भर लिया है हमने कि नये के लिये कोई स्थान ही नहीं? क्या पहले से भरा हुआ इतना सड़ने लगा है कि उसमें नकारात्मकता व ऊब की गंध आने लगी है? पूर्वाग्रहों का ग्रहण हमारे जीवन उत्सव पर काली छाया डालकर तो नहीं बैठा है? क्या पहले से ही व्यस्त हमारी इन्द्रियों में भविष्य की संभावनायें अस्तप्राय हैं।

कहने को तो प्रेमभरी एक दृष्टि ही सक्षम होती श्रंगार का संवाद ढोने में। किसी के सर पर धीरे से फिराया गया हाथ जीवन भर का सहारा बताने में समर्थ होता। आँख बन्द करते हुये सर हिला देना आश्वासन के सारे अध्याय कह जाता। शब्दों से हमने उन भावों का गाढ़ापन कम कर दिया है। विश्वास को दृढ़ मानने के लिये शब्दों में उसे व्यक्त करने की परम्परा हमारी असहजता का आधार है। सुबह शाम अपने प्रेम की शाब्दिक अभिव्यक्ति की आदत बना चुके युगल भावों और शब्दों पर बराबर का अविश्वास किये बैठे हैं।

उत्साह से किसी कार्य में लगना और शीघ्र ही उससे ऊब जाना आधुनिकता की नियति बन गयी है। यदि तुलना की जाये तो पेट भरे हुये व्यक्ति को नया व्यंजन अच्छा तो लगता है पर वह उससे शीघ्र ही ऊब जाता है। स्वाद के लिये भूख लगनी आवश्यक है। नयापन हर क्षण में विद्यमान है पर उसे पूरा सहेज पाने के लिये जो भूख हो उसका प्रकटीकरण उस कार्य में हमारे शत प्रतिशत जुड़ाव से हो।

एक प्रयोग करें। व्यवहार की सारी कृत्रिमता रात भर ओढ़ी हुयी चादर के साथ ही बिस्तर पर छोड़कर उठें, अपने पूरे पूर्वाग्रह स्नान करते समय बहा दें, सुबह से शाम तक प्रयासपूर्वक भावों को व्यक्त करने के लिये शब्दों से अधिकतम बचें, अपने हर कार्य, हर संवाद, हर स्पर्श पर शत प्रतिशत ध्यान दें। हो सकता है कि ऊर्जा थोड़ी अधिक लगे, आप वो न लगें जो आप हैं, अन्य आप पर भृकुटियाँ ताने, संभव है हँसें भी, हो सकता है कि आपको बहुत अटपटा भी लगे, असहज भी लगे, पर दिन को विशेष मानकर यह निभा डालिये।

रात को सोते समय आपको पुनः आश्चर्य होगा, पर इस बार आश्चर्य का विषय भिन्न होगा। तब आपके लगेगा कि एक दिन भर में कितना कुछ नया है, मन के बन्द कपाट हमें वंचित कर देते हैं वह सब पाने से। इस जीवन के लिये प्रकृति कितने दृश्य समेटे बैठी है, हम ही थेथर की तरह आँख बन्द किये बैठे हैं। जीवन का व्यर्थ किया समय आये न आये पर हर व्यक्ति, हर संबंध में नयापन और रोचकता से भरा दिखेगा भविष्य। घर के कंकड़ गिनने से ध्यान हटेगा तब बाहर बिखरे माणिकों पर दृष्टि पड़ेगी।

बस आप हर क्षण को अपना शत प्रतिशत देने की ठान तो लें।

14.12.11

हमारे पारितन्त्र

शब्दकोष में अंग्रेजी के एक शब्द ईकोसिस्टम का हिन्दी में यही निकटतम शाब्दिक अर्थ मिला। यह कई अवयवों के ऐसे समूह को परिभाषित करता है जो एक दूसरे के प्रेरक व पूरक होते हैं। मूलतः जैविक तन्त्रों के लिये प्रयोग में आया यह शब्द अन्य क्षेत्रों में भी उन्हीं अर्थों को प्रतिबिम्बित करता है। किसी भी पारितन्त्र में एक प्रमुख चरित्र होता है, जिसके द्वारा वह पहचाना जाता है। जंगल हो या जल, शरीर हो या घर, नगर हो या विश्व, सब के सब कुछ तन्तुओं से जुड़े रहते हैं और एक दूसरे को सामूहिक आधार प्रदान करते हैं। बहुधा तो उसके अवयवों का महत्व पता नहीं चलता है पर किसी एक अवयव की अनुपस्थिति जब अपने कुप्रभाव छोड़ने लगती है तब उसका पूरा योगदान समझ में आता है हम सबको। किसी एक पारितन्त्र में सारे बिल्लियों को मार देने से जब प्लेग फैलने लगा तब लगा कि उनका रहना भी आवश्यक है।

इसी प्रकार पारितन्त्र में किसी नये अवयव का आगमन भी अस्थिरता उत्पन्न करता है। समय बीतने के साथ या तो वह उसमें ढल जाता है या उसका स्वरूप बदल देता है। इसी प्रकार विकास के कई चरणों से होता हुआ उसका एक सर्वथा नया स्वरूप दिखायी पड़ता है। न केवल भौतिक जगत में वरन विचारों के क्षेत्र में भी पारितन्त्रों की उपस्थिति का अवलोकन उनके बारे में हमारी समझ बढ़ा जाता है। विचारधारायें विचारों का पारितन्त्र स्थापित करती हैं। साम्यवाद हो या पूँजीवाद, भारतीय संस्कृति हो या पाश्चात्य दर्शन, सबके अपने पारितन्त्र हैं। उनमें वही विचार पोषित और पल्लवित होते हैं जो औरों के प्रेरक होते हैं या पूरक। विरोधी स्वर या तो दब जाते हैं या पारितन्त्रों की टूट का कारण बनते हैं। जो भी निष्कर्ष हो, जब तक एक स्थिरता नहीं आ जाती है तब तक संक्रमण होता रहता है इनमें।

किसी क्षेत्र में कोई बदलाव लाने के लिये उसके पारितन्त्र के हर अवयव के बारे में विचार करना आवश्यक है। बिना सोचे समझे बदलाव कर देने से उसके परिणाम दूरगामी होते हैं। पॉलीथिन का प्रयोग प्रारम्भ करने के पहले किसी ने नहीं सोचा था कि एक दिन यह गहरी समस्यायें उत्पन्न कर देगा। पर्यावरण के बारे में मची वर्तमान बमचक, पारितन्त्रों की अधूरी समझ का परिणाम ही है।

आज के समय में हम भारतीयों की स्थिति सबसे अधिक गड्डमड्ड है। कोई एक पारितन्त्र है ही नहीं, बचपन संस्कारों में बीतता है, सभी परिवार अपने बच्चों को घर में संस्कृति का सबसे उत्कृष्ट पक्ष सिखाते हैं, शिक्षापद्धति की प्राथमिकतायें दूसरी हैं, समाज में फैली राजनीति पोषित भिन्नतायें तीसरा ही संदेश देती हैं, वैश्विक होड़ में जीवन का चौथा रंग दिखायी देता है, स्वयं की विचार प्रक्रिया इन सब पंथों की खिचड़ी बन जाती है। प्राच्य से पाश्चात्य तक की यह यात्रा एक पारितन्त्र से दूसरे में कूदते कूदते बीतती है। जीवन की ऊर्जा कब कहाँ क्षय हो जाती है, हिसाब ही नहीं है। कह सकते हैं कि काल संक्रमण का है पर कोई निष्कर्ष दिखता ही नहीं है, न जाने कौन सी नस्ल तैयार होने वाली है, हम भारतीयों की।

ऐसे संक्रमण में कुछ सार्थक उत्पादकता देने वाले विरले ही कहलायेंगे। देश, समाज और परिवार के ध्वस्तप्राय पारितन्त्र कब ठीक होंगे और कैसे ठीक होंगे? कब व्यक्ति, परिवार, समाज, दल, प्रदेश एक दूसरे के प्रेरक व पूरक बनेंगे? भले ही कई परिवार अपना अस्तित्व अक्षुण्ण बनाये रखें पर उनके पारितन्त्र को हर स्तर पर बल मिलता रहेगा, इसकी संभावना बहुत ही कम है।

निश्चय मानिये कि आने वाली पीढ़ियों के पास पंख तो होंगे, पर उड़ानें भरने के लिये मुक्त गगन नहीं। क्या हमारे पारितन्त्र उस आकाश को बाधित करते हैं? ऊर्जा का एक अथाह स्रोत भी चाहिये लम्बी उड़ाने भरने के लिये, एक बार पुनः देख लें कि हमारी पद्धतियाँ उन्हें ऊर्जा देती हैं या उड़ने के पहले ही थका देती हैं? न जाने किन आशंकाओं से बाधित है, हमारी भविष्य की परिकल्पना? जटिलतायें रच लेना सरल हैं, समस्याओं को जस का तस छोड़ दीजिये, नासूर बन जायेंगी। सरलता की संरचना स्वेदबिन्दु चाहती है, मेधा की आहुति चाहती है, निश्चयात्मकता चाहती है निर्णयों में, सब के सब अनवरत।

क्या आने वाली पीढ़ियों को हम वह सब दे पा रहे हैं, क्या हमारे पारितन्त्र स्वस्थ हैं, क्या हमारे पारितन्त्र सबल हैं?

10.12.11

आईपैड या मैकबुक एयर

एक मित्र मिले, हमारा नया मैकबुक एयर देखे, प्रभावित हुये, बोले बड़ा हल्का है, पर जाते जाते संशय की एक कील ठोंक गये, कहे कि हल्का ही लेना था तो आईपैड ले लेते, हल्का भी पड़ता, सस्ता भी। बात ठीक ही थी, सहसा लगा कि कहीं गलत निर्णय तो नहीं ले लिया है। ऐसा नहीं था कि निर्णय प्रक्रिया में यह तथ्य ध्यान में नहीं था, पर किसी और के आत्मविश्वास को त्वरित झुठलाया भी नहीं जा सकता है।

पहले आईपैड के उन तीन पक्षों को समझ लें जो मैकबुक एयर पर भारी हैं। पहला, मैकबुक एयर के १००० ग्राम की तुलना में आईपैड का भार ७०० ग्राम है। ३०० ग्राम की कमी के कारण आप आईपैड को लम्बे समय तक एक हाथ से पकड़ कर उपयोग में ला सकते हैं, कोई पुस्तक पढ़ सकते हैं। लैपटॉप से पुस्तक पढ़ने के प्रयास में दोनों हाथ लगाने पड़ते हैं, पर उसमें भी लम्बे समय तक पढ़ भी सकते हैं और पढ़ने के बाद पुस्तक की तरह बन्द भी कर सकते हैं। दूसरा, आईपैड की बैटरी १० घंटे चलती है जबकि लैपटॉप की ७ घंटे, ३ घंटों का अतिरिक्त समय आपको आईपैड बिना चार्जर कहीं भी ले जाने की सुविधा देता है। तीसरा, यदि आप आईपैड का ६४ जीबी व वाई-फाई वाला मॉडल लें तब भी आईपैड लगभग ४६,००० रु का पड़ता है, मैकबुक एयर से २०,००० रु सस्ता।   

हिन्दी के कीबोर्ड की अनुपस्थिति आईपैड का सर्वाधिक निर्बल पक्ष था। यह एक प्रमुख कारण था कि आईपैड के बारे में और अधिक नहीं सोच सका। यद्यपि हिन्दीराइटर सॉफ्टवेयर के माध्यम से हिन्दी फॉनेटिकली टाइप की जा सकती थी पर लम्बे समय के लिये अंग्रेजी की वैशाखियों पर चलना बड़ा ही असहज और कठिन था। मैकबुक एयर में देवनागरी इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड में टाइप करने का आनन्द आईपैड में नहीं है। अब तो आईपैड में हिन्दी कीपैड आ भी  गया है तो भी स्क्रीन पर लम्बे समय के लिये टाइप करना बड़ा ही असुविधाजनक है। लगभग आधा स्क्रीन कीपैड से घिर जाने के बाद एक पूरा पैराग्राफ भी नहीं दिखता है, इससे लेख और विचारों की तारतम्यता बनाये रखना कठिन होता है। आईपैड पर वाह्य कीबोर्ड का भी प्रावधान है, पर  दो भागों को सम्हालने और समेटने का कष्ट देखते हुये मैकबुक एयर आईपैड की तुलना में कहीं अच्छा विकल्प है। यदि वाह्य कीबोर्ड और स्क्रीन कवर के भार व मूल्य को आईपैड में जोड़ दें तो हल्कापन घटकर १०० ग्राम व सस्तापन घटकर १०,००० रु भर रह जाता है। 

आईपैड की स्क्रीन लगभग २ इंच छोटी है। वैसे तो बहुत सारे कार्यों के लिये बड़ी स्क्रीन की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है, पर कई कार्यों के लिये स्क्रीन पर अधिक सूचना की उपस्थिति बड़ी उपयोगी होती है। लैपटॉप की निकटता, आँखों पर बनने वाले ठोस कोण, एक दृष्टि में दृष्टिगत पठनीय सामग्री और विशुद्ध लेखकीय बाध्यताओं के कारण १२ इंच की स्क्रीन ही सर्वोत्तम लगी।

आईपैड में बाह्य सम्पर्कों का नितान्त अभाव है, कोई यूएसबी नहीं, बाहर की फाईलों पर बड़ा पहरा है, संगीत आदि भी केवल आईट्यून के माध्यम से। अपनी फाइलों को स्थानान्तरित करने में आपका पसीना निकल आयेगा। वहीं दूसरी ओर मैकबुक एयर एक पूर्ण लैपटॉप होने के कारण पहले दिन से ही एक सुदृढ़ सहयोगी की तरह साथ में लगा है। साथ ही साथ अधिकतम ६४ जीबी के आईपैड में अपनी सारी फाइलें रख पाना संभव नहीं लगा। मैकबुक एयर में १२८ जीबी और यूएसबी के माध्यम से ५०० जीबी का साथ होने से सारी फाइलें एक जगह पर ही रखने का आराम है। यदि प्राथमिक और एकल कम्प्यूटर के लिये चयन करना हो तो आईपैड की तुलना में मैकबुक एयर कोसों आगे है।

आईपैड या कहें कि किसी भी टैबलेट के लिये उसे सम्हालना, सहेजना, रखना और यात्राओं में सुरक्षित रखना थोड़ा कठिन कार्य है, कारण स्क्रीन का खुला हुआ होना। उसके साथ में एक पैडेड बैग रखना अतिआवश्यक है। वहीं दूसरी ओर मैकबुक एयर की एल्यूमिनियम एलॉय काया स्क्रीन को न केवल सुरक्षित रखती है वरन लाने ले जाने भी सुविधाजनक है। चार-पाँच दिन तो एक फोल्डर में रखकर मैकबुक एयर को ऑफिस ले गया था। एक सोफे या कुर्सी पर बैठकर व लैपटॉप को गोद में रखकर घंटों कार्य कर सकने की सहजता आईपैड या किसी अन्य टैबलेट में अनुपस्थित है।

कहने को तो सैमसंग का गैलेक्सी टैब आईपैड से भी १५० ग्राम हल्का है, पर बात जब कार्यगत उपयोगिता की हो मैकबुक एयर बेजोड़ है। लगता है आने वाले मित्रों और उनके संशयों के समक्ष मेरे निर्णय को सुस्थापित रख पायेगा मैकबुक एयर। तीन माह बाद भी पहली नज़र का प्यार अपनी कसक बनाये हुये है।

7.12.11

ब्लॉग लेखन की बाध्यतायें

स्वयं पर प्रश्न करने वाला ही अपना जीवन सुलझा सकता है। जिसे इस प्रक्रिया से परहेज है उसे अपने बोझ सहित रसातल में डूब जाने के अतिरिक्त कोई राह नहीं है। प्रश्न करना ही पर्याप्त नहीं है, निष्कर्षों को स्वीकार कर जीवन की धूल धूसरित अवस्था से पुनः खड़े हो जीवन स्थापित करना पुरुषार्थ है। इस गतिशीलता को आप चाहें बुद्ध के चार सत्यों से ऊर्जस्वित माने या अज्ञेय की ‘आँधी सा और उमड़ता हूँ’ वाली उद्घोषणा से प्रभावित, पर स्वयं से प्रश्न पूछने वाले समाज ही अन्तर्द्वन्द्व की भँवर से बाहर निकल पाते हैं।

ब्लॉग लेखन भी कई प्रश्नों के घेरों में है, स्वाभाविक ही है, बचपन में प्रश्न अधिक होते हैं। इन प्रश्नों को उठाने वाली पोस्टें विचलित कर जाती हैं, पर ये पोस्टें आवश्यक भी हैं, सकारात्मक मनःस्थिति ही तो पनप रहे संशयों का निराकरण करने में सक्षम नहीं। और प्रश्न जब वह व्यक्ति उठाता है जो अनुभवों के न जाने कितने मोड़ों से गुजरा हो, तो प्रश्न अनसुने नहीं किये जा सकते हैं। अन्य वरिष्ठ ब्लॉगरों की तरह ज्ञानदत्तजी ने हिन्दी ब्लॉगिंग के उतार चढ़ाव देखे हैं, सृजनात्मकता को संख्याओं से जूझते देखा है, खुलेपन को बद्ध नियमों में घुटते देखा है, आधुनिकता को परम्पराओं से लड़ते देखा है, प्रयोगों के आरोह देखे हैं, निष्क्रियता का सन्नाटा और प्रतिक्रिया का उमड़ता गुबार देखा है।

प्रतिभा को सही मान न मिले तो वह पलायन कर जाना चाहती है, अमेरिका भागते युवाओं का यही सारांश है। स्थापित तन्त्रों में मान के मानक भी होते हैं, बड़ा पद रहता है, सत्ता का मद रहता है, और कुछ नहीं तो वाहनों और भवनों की लम्बाई चौड़ाई ही मानक का कार्य करते हुये दीखते हैं। समाज में बुजुर्गों का मान उनकी कही बातों को मानने से होता है। भौतिक हो या मानसिक, स्थापित तन्त्रों में मान के मानक दिख ही जाते हैं। ब्लॉग जगत में मान के मानक न भौतिक हैं और न ही मानसिक, ये तो टिप्पणी के रूप में संख्यात्मक हैं और स्वान्तः सुखाय के रूप में आध्यात्मिक। ज्ञानदत्तजी यहाँ पर अनुपात के अनुसार प्रतिफल न मिलने की बात उठाते हैं जो कि एक सत्य भी है और एक संकेत भी। ब्लॉग से मन हटाकर फेसबुक पर और हिन्दी ब्लॉगिंग से अंग्रेजी ब्लॉगिंग में अपनी साहित्यिक गतिविधियाँ प्रारम्भ करने वाले कई ब्लॉगरों के मन में यही कारण सर्वोपरि रहा होगा।

ब्लॉग पर बिताये समय को तीन भागों में बाँटा जा सकता है, लेखन, पठन और प्रतिक्रिया। प्रतिक्रिया का प्रकटीकरण टिप्पणियों के रूप में होता है। प्रशंसा, प्रोत्साहन, उपस्थिति, आलोचना, कटाक्ष, विवाद, संवाद और प्रमाद जैसे कितने भावों को समेटे रहती हैं टिप्पणियाँ। ज्ञानदत्तजी के प्रश्नों ने इस विषय पर चिंतन को कुरेदा है, मैं जिस प्रकार इन तीनों को समझ पाता हूँ और स्वीकार करता हूँ, उसे आपके समक्ष रख सकता हूँ। संभव है कि आपका दृष्टिकोण सर्वथा भिन्न हो, प्रश्नों के कई सही उत्तर संभव जो हैं इस जगत में।

लेखन, पठन और प्रतिक्रिया पर बिताया गया कुल समय नियत है, एक पर बढ़ाने से दूसरे पर कम होने लगता है। अपनी टिप्पणियों को संरक्षित करने की आदत है क्योंकि उन्हें भी मैं सृजन और साहित्य की श्रेणी में लाता हूँ, कई बार टिप्पणियों को आधार बना कई अच्छे लेख लिखे हैं। इस प्रकार मेरे लिये उपरिलिखित तीनों अवयव अन्तर्सम्बद्ध हैं। केवल की गयी टिप्पणियों को ही पोस्ट बनाऊँ तो अगले एक वर्ष नया लेखन नहीं करना पड़ेगा। मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि मेरी टिप्पणियों की संख्या बहुत बढ़ गयी है, आकार कम हो गया है, गुणवत्ता भगवान जाने।

टिप्पणी देने की प्रक्रिया की यदि किसी ज्ञात से तुलना करनी हो तो इस प्रकार करूँगा। जब परीक्षा के पहले किसी विषय का पाठ्यक्रम अधिक होता था तो बड़े बड़े भागों को संक्षिप्त कर छोटे नोट्स बना लेता था, जो परीक्षा के एक दिन पहले दुहराने के काम आते थे। किसी का ब्लॉग पढ़ते समय उसका सारांश मन में तैयार करने लगता हूँ, वही लिख देता हूँ टिप्पणी के रूप में और संरक्षित भी कर लेता हूँ भविष्य के लिये भी। कभी उस विषय पर पोस्ट लिखी तो उस विषय पर की सारी टिप्पणियाँ खोज कर उनका आधार बनाता हूँ। अच्छी और सार्थक पोस्टें अधिक समय और चिन्तन चाहती हैं, लिखने में भी और पढ़ने में भी।

मुझपर आदर्शवाद का दोष भले ही लगाया जाये पर हर पोस्ट को कुछ न कुछ सीखने की आशा से पढ़ता हूँ। यदि कोरी तुकबन्दी ही हो किसी कविता में पर वह भी मुझे मेरी कोई न कोई पुरानी कविता याद दिला देती है, जब मैं स्वयं भी तुकबन्दी ही कर पाता था।

प्रकृति का नियम बड़ा विचित्र होता है, श्रम और फल के बीच समय का लम्बा अन्तराल, कम श्रम में अधिक फल या अधिक श्रम में कम फल, कोई स्केलेबिलटी नहीं। पोस्ट भी उसी श्रेणी में आती हैं, गुणवत्ता, उत्पादकता व टिप्पणियों में कोई तारतम्यता नहीं। इस क्रूर से दिखने वाले नियम से बिना व्यथित हुये तुलसीबाबा का स्वान्तःसुखाय लिये चलते रहते हैं। किसी को अच्छी लगे न लगे, पर स्वयं की अच्छी लगनी चाहिये, लिखते समय भी और भविष्य में पुनः पढ़ते समय भी।

भले ही लोग सुख के संख्यात्मक मानक चाहें पर यह निर्विवाद है कि सुख और गुणवत्ता मापी नहीं जा सकती है। प्रोत्साहन की एक टिप्पणी मुझे उत्साह के आकाश में दिन भर उड़ाती रहती है। सुख को अपनी शर्तों पर जीना ही फन्नेखाँ बनायेगा, ब्लॉगिंग में भी। बहुतों को जानता हूँ जो अपने हृदय से लिखते हैं, उनके लिये भी बाध्यतायें बनी रहेंगी ब्लॉगिंग में, साथ साथ चलती भी रहेंगी कई दिनों तक, पर उनका लेखन रुकने वाला नहीं।

प्रश्न निश्चय ही बिखरे हैं राह में, आगे राह में ही कहीं उत्तर भी मिलेंगे, प्रश्न भी स्वीकार हैं, उत्तर भी स्वीकार होंगे।

3.12.11

गूगल का गणित

विश्व ने सदा ही अन्वेषकों को बड़ा मान दिया है, कुछ ने लुप्त प्रजातियाँ ढूढ़ निकाली, कुछ ने लुप्त सभ्यतायें, कुछ ने जीवाणुओं को तो कुछ ने पूरे के पूरे महाद्वीपों को ढूढ़ निकाला। आस्ट्रेलिया और अमेरिका न खोजे जाते तो विश्व का इतिहास और भूगोल, दोनों ही बदले हुये होते। जो भी ब्रह्माण्ड में बिखरा पड़ा है, उस बारे में हमारी उत्सुकता की प्यास बुझाने का कार्य करते हैं अन्वेषक। ज्ञान का विश्व इतना विशाल है कि कोई एक अन्वेषक कुछ विषयों से परे आपको संतुष्ट नहीं कर सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो ज्ञान-संतुष्टि के बाजार में माँग बहुत अधिक है, माँग पूरी करने वाले बहुत कम।

इस क्षेत्र में एक नया व्यापारी उभरा है, गूगल। यदि आपका बाजार व्यवस्था और व्यापारियों से विरोध है तो आप उसे कॉमरेड भी कह सकते हैं, पर उसका कार्य सारे ज्ञान का संग्रहण और व्यापार करना ही है और इस तथ्य पर हम सबकी सहमति निश्चयात्मक ही होगी। जैसे मोबाइल का नाम लेते ही आपके मन में नोकिया या एप्पल का नाम उभरता है उसी तरह ज्ञान का संदर्भ आते ही लोग गूगलाने लगते हैं।

तो क्या गूगल के पहले ज्ञान नहीं था? बिल्कुल था, पर थोड़े भिन्न स्वरूप में। पुस्तकों में था, बुजुर्गों के अनुभवों में था, गुरुजनों की मेधा में था, संस्कृति की परम्पराओं में था, हमारे संस्कारों में था, था ऐसे ही थोड़ा बिखरा हुआ सा। हमारे प्रश्न या तो तथ्यात्मक होते थे या निर्णयात्मक होते थे, उत्तर कहीं न कहीं मिल ही जाते थे, श्रम भले ही थोड़ा अधिक लग जाये। प्रश्न जितना गहराते थे, उत्तर उतने ही गम्भीर होते जाते थे। पीड़ा की निर्बल घड़ियों में हमारे ज्ञान के पारम्परिक स्रोत हमारे बिखरे अस्तित्व को एक स्थायी संबल दे जाते थे।

आज विदेशी महाव्यापारियों के आगमन से और उनके द्वारा खुदरा क्षेत्र पर होने वाले संभावित आक्रमण से आधा देश व्यथित है। पर ज्ञान के क्षेत्र में गूगल के द्वारा हमारे पारम्परिक ज्ञानस्रोतों के संभावित शतप्रतिशत अधिग्रहण से हम तनिक भी संशकित नहीं दिख रहे हैं। ज्ञान के क्षेत्र में सबका अधिकार है और सारी जानकारी किसी पर निर्भर हुये बिना मिलनी भी चाहिये। देखा जाये तो गूगल बौद्धिक स्वतन्त्रता का प्रतीक बनकर उतरा है, ठीक उसी तरह जिस तरह वालमार्ट आर्थिक लोकतन्त्र के राग आलाप रहा है।

गूगल का गणित जो भी हो पर गूगल के द्वारा गणित का गहन प्रयोग ही उसे वर्तमान स्थान पर ले आया है। ज्ञान के हर शब्द को गणितीय विधि से विश्लेषण कर उन्हें आगामी खोजों के लिये सहेज कर रखना ही गूगल की कार्यशैली है। किसी भी शब्द को खोज में डालते ही लाखों लिंक छिटक कर सामने आ जाते हैं, जिसमें हम अधिकतम पहले दस ही उपयोग में ला पाते हैं। कई मित्रों ने इस बात की सलाह दी कि किस तरह से खोज-शब्द डालने से निष्कर्ष सर्वाधिक प्रभावी होते हैं। कई बार यह सलाह काम आयी तो कई बार दसवें पन्ने तक पढ़ने का धैर्य। पहले कुछ निष्कर्षों में उनकी कम्पनी का नाम आ जाये, इसके लिये कम्पनियों में कुछ भी करने की होड़ लगी रहती है। गूगल किस लिंक को किस आधार पर वरीयता देता है, यह घोर गणितीय शोध का विषय है और यही उसका धारदार हथियार।

ज्ञान के किसी भी पक्ष को लेकर हमारी निर्भरता इतनी बढ़ गयी है कि छोटी छोटी बातों के उत्तर जानने के लिये हम कम्प्यूटर खोलकर बैठ जाते हैं और खो जाते हैं गूगल की अनगिनत गलियों में। कहीं एक दिन ऐसा न हो जाये कि हमारे ज्ञान-प्रक्रिया पर गूगल का एकाधिकार हो।

यहाँ तक तो ठीक है कि हम जो जानना चाहते हैं, जान जाते हैं। पर पता नहीं कितना और सम्बद्ध ज्ञान है जिसके बारे में हमें पता ही नहीं चल पाता है क्योंकि उसके बारे में हम कभी गूगल से पूछते ही नहीं, तो वह कभी बताता ही नहीं। मैं सगर्व कह सकता हूँ कि ज्ञान की बहुत सी अनुपम फुहारें मित्रों के द्वारा पता लगी हैं, न कि गूगल से। हाँ गूगल से उनके बारे में और जानकारी प्राप्त होती है।

ज्ञात के बारे में अधिक ज्ञान पर अज्ञात के बारे में मौन, गूगल का गणित बस यहीं पर ही गच्चा खा जाता है। ज्ञान की मात्रा तो ठीक है पर उसकी दिशा कौन निर्धारित करेगा? प्रसन्न रहने के ढेरों उपाय तो निश्चय ही गूगल बता देगा पर उसमें कौन सा आप पर सटीक बैठेगा, आपको ढंग से जानने वाले आपके शुभचिन्तक या आपके मित्र ही बता पायेंगे, अतः उनसे सम्पर्क में बने रहें। गूगल की गणितीय पहुँच उन क्षेत्रों में निष्प्रभ हो जाती है। सम्बन्धों के सम्बन्ध में गूगल का गणित निर्बन्ध हो जाता है।

तथ्यात्मक ज्ञान मिलने के बाद उन पर निर्णय लेने की समझ गूगल नहीं सिखा सकता। ज्ञान के परम्परागत स्रोत भले ही कई क्षेत्रों में गूगल से कमतर हों पर उसमें जो समग्रता हमें मिलती है, गूगल का गणित वहाँ नहीं पहुँच पाता है।

कृपया इस तर्क को खुदरा क्षेत्र से जोड़कर न देखा जाये, ज्ञान और सामान में कई असमानतायें भी हैं।