बच्चों की नींद अधिक होती है, दोनों बच्चे मेरे सोने के पहले सो जाते हैं और मेरे उठने के बाद उठते हैं। जब बिटिया पूछती है कि आप सोते क्यों नहीं और इतनी मेहनत क्यों करते रहते हो? बस यही कहता हूँ कि बड़े होने पर नींद कम हो जाती है, इतनी सोने की आवश्यकता नहीं पड़ती है, आप लोगों को बढ़ना है, हम लोगों को जितना बढ़ना था, हम लोग बढ़ चुके हैं। बच्चों को तो नियत समय पर सुला देते हैं, कुछ ही मिनटों में नींद आ जाती है उनकी आँखों में, मुक्त भाव से सोते रहते हैं, सपनों में लहराते, मुस्कराते, विचारों से कोई बैर नहीं, विचारों से जूझना नहीं पड़ता हैं उन्हें।
पर मेरे लिये परिस्थितियाँ भिन्न हैं। घड़ी देखकर सोने की आदत धीरे धीरे जा रही है। नियत समय आते ही नींद स्वतः आ जाये, अब शरीर की वह स्थिति नहीं रह गयी है। बिना थकान यदि लेट जाता हूँ तो विचार लखेदने लगते हैं, शेष बची ऊर्जा जब इस प्रकार विचारों में बहने लगती है तो शरीर निढाल होकर निद्रा में समा जाता है। आयु अपने रंग दिखा रही है, नींद की मात्रा घटती जा रही है। जैसे नदी में जल कम होने से नदी का पाट सिकुड़ने लगने लगता है, नींद का कम होना जीवन प्रवाह के क्षीण होने का संकेत है। अब विचारों की अनचाही उठापटक से बचने के लिये कितनी देर से सोने जाया जाये, किस गति से नींद कम होती जा रही है, न स्वयं को ज्ञात है, न समय बताने वाली घड़ी को।
जब समय की जगह थकान ही नींद का निर्धारण करना चाहती है तो वही सही। अपनी आदतें बदल रहा हूँ, अब बैठा बैठा कार्य करता रहता हूँ, जब थकान आँखों में चढ़ने लगती है तो उसे संकेत मानकर सोने चला जाता हूँ। जाते समय बस एक बार घड़ी अवश्य देखता हूँ, पुरानी आदत जो पड़ी है। पहले घड़ी से आज्ञा जैसी लेता था, अब उसे सूचित करता हूँ। हर रात घड़ी मुँह बना लेती है, तरह तरह का, रूठ जाती है, पर शरीर ने थकने का समय बदल दिया, मैं क्या करूँ?
क्या अब सोने के पहले विचारों ने आना बन्द कर दिया है? जब बिना थकान ही सोने का यत्न करता था, तब यह समस्या बनी रहती थी, कभी एक विचार पर नींद आती थी तो कभी दूसरे विचार पर। जब से थकान पर आधारित सोने का समय निश्चित किया है, सोने के पहले आने वाले विचार और गहरे होते जा रहे हैं। कुछ नियत विचारसूत्र आते हैं, बार बार। सारे अंगों के निष्क्रियता में उतरने के बाद लगता है कि आप कुछ हैं, इन सबसे अलग। कभी लगता है इतने बड़े विश्व में आपका होना न होना कोई महत्व नहीं रखता है, आप नींद में जा रहे हैं पर विश्व फिर भी क्रियारत है।
हर रात सोने के पहले लगता है कि शरीर का इस प्रकार निढाल होकर लुढ़क जाना, एक अन्तिम निष्कर्ष का संकेत भी है, पर उसके पहले पूर्णतया थक जाना आवश्यक है, जीवन को पूरा जीने के पश्चात ही। हमें पता ही नहीं चल पाता है और हम उतर जाते हैं नींद के अंध जगत में, जगती हुयी दुनिया से बहुत दूर। एक दिन यह नींद स्थायी हो जानी है, नियत समय पर सोने की आदत तो वैसे ही छोड़ चुके है। एक दिन जब शरीर थक जायेगा, सब छोड़कर चुपचाप सो जायेंगे, बस जाते जाते घड़ी को सूचित कर जायेंगे।
जब समय की जगह थकान ही नींद का निर्धारण करना चाहती है तो वही सही। अपनी आदतें बदल रहा हूँ, अब बैठा बैठा कार्य करता रहता हूँ, जब थकान आँखों में चढ़ने लगती है तो उसे संकेत मानकर सोने चला जाता हूँ। जाते समय बस एक बार घड़ी अवश्य देखता हूँ, पुरानी आदत जो पड़ी है। पहले घड़ी से आज्ञा जैसी लेता था, अब उसे सूचित करता हूँ। हर रात घड़ी मुँह बना लेती है, तरह तरह का, रूठ जाती है, पर शरीर ने थकने का समय बदल दिया, मैं क्या करूँ?
क्या अब सोने के पहले विचारों ने आना बन्द कर दिया है? जब बिना थकान ही सोने का यत्न करता था, तब यह समस्या बनी रहती थी, कभी एक विचार पर नींद आती थी तो कभी दूसरे विचार पर। जब से थकान पर आधारित सोने का समय निश्चित किया है, सोने के पहले आने वाले विचार और गहरे होते जा रहे हैं। कुछ नियत विचारसूत्र आते हैं, बार बार। सारे अंगों के निष्क्रियता में उतरने के बाद लगता है कि आप कुछ हैं, इन सबसे अलग। कभी लगता है इतने बड़े विश्व में आपका होना न होना कोई महत्व नहीं रखता है, आप नींद में जा रहे हैं पर विश्व फिर भी क्रियारत है।
हर रात सोने के पहले लगता है कि शरीर का इस प्रकार निढाल होकर लुढ़क जाना, एक अन्तिम निष्कर्ष का संकेत भी है, पर उसके पहले पूर्णतया थक जाना आवश्यक है, जीवन को पूरा जीने के पश्चात ही। हमें पता ही नहीं चल पाता है और हम उतर जाते हैं नींद के अंध जगत में, जगती हुयी दुनिया से बहुत दूर। एक दिन यह नींद स्थायी हो जानी है, नियत समय पर सोने की आदत तो वैसे ही छोड़ चुके है। एक दिन जब शरीर थक जायेगा, सब छोड़कर चुपचाप सो जायेंगे, बस जाते जाते घड़ी को सूचित कर जायेंगे।
समय की जगह थकान ही नींद का निर्धारण करना चाहती है ..... बिलकुल सहमत हूँ .... बच्चे एक हद तक बेफ़िक्र से होते हैं इसीलिये उन को नींद इतनी जल्दी से आ जाते है । वैसे आज का विचार ज़िन्दगी के कुछ ज्यादा ही करीब है .... शुभ प्रभात :)
ReplyDeleteआज तो जीवन सार ही परोस दिया आपने तो ..
ReplyDeleteमेरी नींद तो यात्राओं में ही पूरी होती है। कबेहे सोचता हूँ कि यदि यायावर न होता तो शायद गुडाकेश होता।
ReplyDeleteसोते समय यदि दिन की कोई बात हावी हो जाती है तो नींद कहीं दूर चली जाती है.बहुत थकान जब लद जाती है तभी बिस्तर पकड़ता हूँ, अगर सोते समय नींद के बारे में सोचने लगता हूँ तो भी वह जल्दी नहीं मिलती .मोबाइल को स्विच-ऑफ कर देता हूँ क्योंकि अचानक खलल पड़ती है !
ReplyDeleteनींद के बारे में बच्चों से रश्क होता है :-)
सुन्दर दर्शन....नींद के इंतजार में ...
ReplyDeleteसोने से पहले विचारों ने आना बन्द नहीं किया..उन्हें ब्लॉग नामक जगह मिल गई प्रवाहित होने को...और नींद का समय कम होना और थकान का आँखों में उतर जाना इसी का संकेत है ...शायद ऐसा भी हुआ हो कि शरीर ने थकने का समय घड़ी देखकर ही बदला हो...
उम्र बढ़ने के साथ साथ सबके साथ यही होता है!
ReplyDeleteसच में बच्चे बड़े दिनभर जितने ऊर्जावान रहते हैं सोते समय उतने ही निश्चिंत ...... समय के साथ शरीर का थकना और नींद का न आना अब तो रोजाना की बात है शायद हम सभी के लिए...... कभी कभी उकताहट होती है की मन मस्तिष्क कभी सोचना बंद भी करे ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आलेख लिखा है आपने!
ReplyDeleteसोने के पहले इसे आज के चर्चा मंच पर भी ले लिया है!
नींद जैसे भी आये पर जागने के बाद हम कई गुणित उर्जा और स्फूर्ति को पाते हैं जो विचारों को तिरिहित करके नए दिन और काम को नयी नजरों से दिखाता है.
ReplyDeleteगहन ..आलेख है ....मन की उथल-पुथल दर्शा रहा है ....कुछ उदासी की ओर खींचता हुआ ....जिजीविषा से दूर क्यों है ....?
ReplyDeleteआपकी किसी पोस्ट की चर्चा आज शनिवार को नयी-पुरानी हलचल पर है ,कृपया आयें और अपने बहुमूल्य विचार दें ....
अपना भी यही हाल है, जब आँखें मुंदने लगती हैं तभी सोने जाते हैं, पर हाँ उठने का समय निर्धारित है, पता नहीं बचपन से ही आदत है जल्दी उठने की, परंतु हाँ सोने के पहले अब विचारों में गहनता आती जा रही है।
ReplyDeleteआपका लेख पढ़कर ऐसा लगा कि जैसे अपने रोजाना जीवन की कहानी पढ़ रहा हूँ ।
जब छोटे थे तो किताब देख कर नींद आती थी, अब नींद आने के लिए किताबें देखता हूं।
ReplyDeleteमाँ और पिता होने में फर्क होता है ...
ReplyDeleteजब बच्चे छोटे होते हैं तो माओं की नींद बहुत कमजोर होती है , कही बच्चों को ठंड तो नहीं लग रही , पानी तो नहीं पीना है , उन्हें स्कूल जाने के लिए समय से जगाना है , आदि ..बच्चों के बड़े होने के बाद एक निश्चिंतता आ जाती है और भरपूर नींद भी!
हमारे छॊटू को सुलाने ले जाओ तो भाई हमे ही सुला कर वापस आ जाता है। वैसे सोने के पहले आधे घंटे का वाक अच्छी नींद सुनिश्चित कर देता है।
ReplyDeleteअब तो नींद ऐसे ही आती है... या फिर आती नहीं
ReplyDeleteपहले घड़ी से आज्ञा जैसी लेता था, अब उसे सूचित करता हूँ।
ReplyDeleteनींद से पहले विचारों की उथल पुथल देर तक चलती है ...कब नींद अपने आगोश में ले लेती है पता ही नहीं चलता .. जब शरीर थक जायेगा तो असीम निद्रा में सो जायेंगे ..पता नहीं घड़ी को सूचित भी कर पायेंगे या नहीं ..
विचारणीय लेख
सोने में खोने का भय है। जगना शरीर पर निर्भर है। एक दिन हम सब लिखते-लिखते सो जायेंगे।
ReplyDeleteसच है
ReplyDeleteवैसे तो नींद तो अपने नियत समय पर ही आएगी, हां सरकारी दफ्तरों के बाबुओं को इससे अलग कर दीजिए, कई बार वो कुर्सी पर बैठे बैठे भी बहुत गहरी नींद में होते हैं।
एक दिन यह नींद स्थायी हो जानी है, नियत समय पर सोने की आदत तो वैसे ही छोड़ चुके है। एक दिन जब शरीर थक जायेगा, सब छोड़कर चुपचाप सो जायेंगे, बस जाते जाते घड़ी को सूचित कर जायेंगे।
ReplyDeleteप्रवीण जी,शायद घडी को भी सूचित न कर पायें.
थोड़े में ही बहुत कुछ कह दिया है आपने.
ये सब आपने लिखा और हमने पढ़ लिया ,पर मुझे तो आप बच्चों से बहुत अधिक बड़े नहीं लगते(अपना फ़ोटो देख लें-बहुत पुराना तो नहीं ही होगा)!
ReplyDeleteनींद क्यों रात भर नहीं आती... ऐसा ही कोई लेख कभी पढ़ा था उसमें भी यही लिखा था कि यदि थकान के बाद सोयेंगे तो ही नींद गहरी आयेगी... सार्थक पोस्ट!
ReplyDeleteहम भी तो जब बच्चे थे तो तब यही सोचा करते थे , मां-पापा क्यो सोते ही नहीं है। उम्र के साथ नींद का सिस्टम एकदम बदल जाता है और जब नींद हावी हो जाए तभी सोने जाया जाए, यही इसका बेहतरीन उपाय है।
ReplyDeleteकान में वाकमैन का इयर-प्लग और ओशो वचन!!! बस और कुछ नहीं!!
ReplyDeleteप्रवीन भाई, लगा अपना ही वृतांत पढ़ रहा हु. पिछले लगभग २ सालो से यही एक विचार घूमता हैं. कि जीवन का पहिया अब उल्टा घूमना शुरू हो गया हैं. अनंत विचार, अपने होने का अर्थ, जीवन-मृत्यु के पहलू, अपने पराये होने के अर्थ, और न जाने क्या क्या....शायद बच्चो वाली गाढ़ी नींद अब अलविदा कह चुकी....
ReplyDeleteसमझने और बेहतर कर गुजरने का प्रयास जारी हे., जब तक सफ़र जारी हैं...
बडे होने पर नींद कम हो जाती है....... पर बूढे होने के बाद फिर नींद बढ जाती है... तभी तो कहते हैं बालक बूढा एक समान :)
ReplyDeleteye neend....jab bahut aati hai to sone ko nahi milta jab samay milne lagta hai to ye aati nahi....bahut accha lekh.sach kahu to mujhe bhavishya me pahuncha diya kuch der ke lie aapne....jab mujhe neend aana band ho jaegi to kya hoga....
ReplyDeleteaaj ki post kuch bhinn hai jeevan ki kaduvi sachchaai bhi hai par aapka aalekh padhte padhte soch rahi thi ki meri gr.daughter shayad kuch alag hain sona hi nahi chahti unko sulana chaho to yese chillati hain ki poori colony ko pata chal jaaye aur mere husband itna sote hain ki sunday ko to unko subah utha nahi sakte.yes meri neend ki kahani aap jaisi hi hai....bahut achcha lekh.
ReplyDeleteहम सब इस अनंत ब्रह्माण्ड का हिस्सा हैं... और सदैव रहेंगे, सोने-जागने और आने-जाने का क्रम तो चलते ही रहना है!
ReplyDeleteसार कह गया आपका आलेख!
बहुत ही बढ़िया आलेख लिखा है आपने, शायद सभी के साथ यही होता है मनोज जी की बात से सहमत हूँ। :-) यह भी एक अहम वजह है जो बड़ों को बच्चों से प्रथक करती हैं।
ReplyDeleteअभी कहाँ आराम मुझे यह मूक निमंत्रण छलना है
ReplyDeleteऔर अभी तो मीलों मुझको मीलो मुझको चलना है ....
सच है समय के साथ नींद कम होती जाती है...जरूरी है शरीर और मष्तिष्क को पूरी तरह थका देना कि नींद अपने आप आवाज़ देने लगे...बहुत गहन और दार्शनिक अंदाज़ लिये सार्थक आलेख...
ReplyDeleteसारगर्भित विवेचन |बच्चे जिज्ञासु होते हैं ,इसलिए प्रश्न तो करेंगे ही |
ReplyDeleteसारगर्भित विवेचन |बच्चे जिज्ञासु होते हैं ,इसलिए प्रश्न तो करेंगे ही |
ReplyDeleteशाश्वत की विवेचना....
ReplyDeleteसादर...
बाप रे आप तो दार्शनिक हो गये ।
ReplyDeleteपातंजली कहते हैं कि जब मस्तिष्क जानकारी लेना बंद करत है तो नींद स्वयं ही आ जाती है ।
हर रात घड़ी मुँह बना लेती है, तरह तरह का, रूठ जाती है, पर शरीर ने थकने का समय बदल दिया, मैं क्या करूँ?
मुझे तो लेट कर किताब पढना नींद की गोली जैसा काम करता है ।
Ikdum sahi bola aapne, bachpan main toh main 9 baje he so jaya karti thi, aur ab toh office main heaksar 9 baj jate hai....
ReplyDeleteबिस्तर पर जाते समय निर्विचार हो सकें तो नींद बच्चों की तरह आ सकती है.
ReplyDeleteयही यात्रा का चरम है- किन्तु तब शायद घड़ी को सूचित भी न करने दे जीवन भर की थकान...
ReplyDeleteउत्तम चिन्तन!!
ReplyDeleteशरीर की जरूरत पूर्ण सक्रियता बनाये रखते हुए, जितनी नीद से पूरी हो जाये, बस उतनी ही नींद आवश्यक है.
ReplyDeleteअरविन्द मिश्राजी की टिप्पणी पढकर Robert Frost की पंक्तियाँ याद आ गई.
ReplyDeleteThe woods are lovely, dark and deep.
But I have promises to keep.
And miles to go before I sleep.
And miles to go before I sleep.
मेरा अनुभव ः
जब भी नींद आती है, सो जाता हूँ।
कभी कभी जब कोइ दिल्चस्प काम में मग्न होता हूँ और नींंद से लडते लडते उस काम को जारी रखता हूँ , बाद में सोने में दिक्कत होती है.
आजकल दोपहर को बीस मिनट लघु नींद सोता हूँ
(अंग्रेज़ी में जिसे power nap कहते हैं)
बहुत फर्क् पडता है इससे.
थकान स्थगित हो जाता है.
रात ग्यारह बजे से पहले
सोने की तैयारी में लग जाता हूँ
सात घंटे का quota निर्धारित कर लिया हूँ
यह भी आशा है कि जब मेरा अंतिम समय आएगा, हम नींद में ही चले जाएंगे .
पर हर कोई को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं होता .
देखते हैं हमारे भाग्य में क्या लिखा है.
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
आज तो दार्शनिक हो गए प्रवीण भाई
ReplyDeleteनींद के बहाने जीवन की बात.... बहुत सुन्दर...
ReplyDeletechaliye agar need nahi aati to khule aankho se sapne dekhiye....aur saakaar kijiye.
ReplyDeleteहर रात सोने के पहले लगता है कि शरीर का इस प्रकार निढाल होकर लुढ़क जाना, एक अन्तिम निष्कर्ष का संकेत भी है, पर उसके पहले पूर्णतया थक जाना आवश्यक है, जीवन को पूरा जीने के पश्चात ही। हमें पता ही नहीं चल पाता है और हम उतर जाते हैं नींद के अंध जगत में, जगती हुयी दुनिया से बहुत दूर। एक दिन यह नींद स्थायी हो जानी है, नियत समय पर सोने की आदत तो वैसे ही छोड़ चुके है। एक दिन जब शरीर थक जायेगा, सब छोड़कर चुपचाप सो जायेंगे, बस जाते जाते घड़ी को सूचित कर जायेंगे।
ReplyDeleteजीवन और जगत समय बीतने के साथ हमारे बीतने की खबर देती पोस्ट .नींद का बने रहना ज़रूरी है रात भर ,टूटने लगे तो समझो जैविक घडी में गड़बड़ है .खतरे बढ़ रहें हैं दिल को .उम्र से ताल्लुक है नींद की अवधि का शिशु तो १८ घंटा स्प लेतें हैं २४ में से .
हमारी तो नींद ही कम नहीं होती। पूरी आठ घण्टे ही चाहिए।
ReplyDeleteवाह ,प्रवीण जी इतनी शीघ्रता से प्रतिक्रिया मिल गई । शुक्रिया । रोजमर्रा की जिन्दगी से जुडा आपका हर आलेख पठनीय होता है ।
ReplyDeleteजीवन दर्शन छुपा है इस पोस्ट में
ReplyDeleteसर सही दृष्टि है ! उत्तरदायित्व बढ़ते ही नींद घट जाती है ! हम तो सोने के लिए भी तरसते रहते है ! और जब चांस मिला तो मत कहिये ! हमारे घर में डैडी कब आयें और गएँ - बच्चो को मालूम ही नहीं होता !
ReplyDeleteनींद बड़े काम की चीज है।
ReplyDeleteघटती नीद का मुख्य कारण श्रम की कमी है. विचारों से तादात्म्य भी कभी-कभी नीद को दूर कर देता है. तटस्थ भाव से विचारों को देखें तो प्रवाह धीमा और शनैः शनैः शांत हो जाता है.
ReplyDeleteham sab zindgi ki isi naav me sawar hai kisi ka kinara pehle aa gaya kisi ka aane wala hai. apni kashmokash aur anubhav ko sunder shabdo se sunder lekh me rupantarit kiya hai.
ReplyDelete@ vani ji baccho ke bade ho jane par bhi shayad istriya puri neend kabhi nahi le pati...kuchh n kuchh agle din k liye chalta hi rahta hai...aur roz vo samay se late ho jati hai sone k liye.
आपकी पोस्ट सोमबार १४/११/११ को ब्लोगर्स मीट वीकली (१७)के मंच पर प्रस्तुत की गई है /आप आइये और अपने विचारों से हमें अवगत करिए /आप इसी तरह हिंदी भाषा की सेवा अपनी रचनाओं के द्वारा करते रहें यही कामना है /आपका "ब्लोगर्स मीट वीकली (१७) के मंच पर स्वागत है /जरुर पधारें /आभार /
ReplyDeleteबहुत सुंदर आलेख,जीवन का निचोड
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट ...अच्छा लगा ..
नए पोस्ट में स्वागत है ...
११ बजे के बाद तो नींद का सघन आक्रमण हो जाता है और सुबह सात बजे तक निर्वाध बना रहता है .
ReplyDeleteनींद न आने की पीड़ा झेलने वाला नींद के बारे में क्या कहे?! :)
ReplyDeleteआत्म-मन्थन के सार्वजनिकीकरण का सुन्दर उदाहरण।
ReplyDeleteपोस्ट का अन्तिम वाक्य तो मानो कोर्द दार्शनिक सूत्र-वाक्य है - एक दिन जब शरीर थक जायेगा, सब छोड़कर चुपचाप सो जायेंगे, बस जाते जाते घड़ी को सूचित कर जायेंगे।
अभी तो सच में नींद के ना आने की समस्या है , जब एक बार स्थाई नींद आएगी तब पता ही नहीं चलेगा ...गहन आलेख.. .सार्थक विवेचन...
ReplyDeleteमैं भी तभी सोती हैं जब आँखें बंद हो जाएँ. इस चक्कर में कितनी रातें तो जागते गुजरती हैं. किन्तु आपकी यह सब झेलने की उम्र कहाँ हुई है? अभी तो घोड़े बेच सोने की उम्र है.घोड़े नहीं तो कर स्कूटर ही सही.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
बहुत सही कहा...
ReplyDeleteमैंने भी अनुभव किया है, चिंताओं से अधिक चिंतन नींद के दुश्मन बनते हैं...बिस्तर पर तो लगता है घात लगाये बैठे रहते हैं..एक बार पहुंचे नहीं कि धर दबोचा....
अक्षरश: सही कहा है आपने ...बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteजब मस्तिष्क विचार शून्य हो जाता है मन के घोड़े दौड़ना छोड़ देते हैं व्यक्ति सो जाता है मूल्यांकन करके वर्तमान का .
ReplyDeleteनींद ..बढ़ती उम्र के साथ कम होती जाती है..इसमें कोई दो राय नहीं .नींद का शरीर की थकान से भी सीधा संबंध है ..जब खूब थके होते हैं तो अपने आप गहरी नींद आती है..
ReplyDeleteनींद पर बढ़िया चिंतन
ReplyDeleteप्रामाणिक इतिहास ही हैं ये बादल .माइक्रो -वेव बेकग्राउंड रेडियेशन की मानिंद .
ReplyDeleteहम तो फिलहाल तभी सोते हैं जब तक कि शरीर मजबूर न कर दे और नींद जबरन हम पर हावी न हो जाय।
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