30.11.11

नये फिल्म समीक्षक

भोजन पर सब साथ बैठे थे, टेलीविजन को विश्राम दे दिया गया था, सबकी अपनी व्यस्तता में यही समय ऐसा मिलता है जब सब एक साथ बैठकर इधर उधर की बातें करते हैं। बच्चों के प्रति मन में स्नेह सदा ही रहा है, उनकी ऊर्जा एक प्रकाश स्तम्भ की तरह हम जैसे दूर जाते जहाजों को जीवन से जुड़े रहने का संकेत देती रहती है। यद्यपि स्वयं भी बचपन की राहों से होकर बड़ा हुआ हूँ पर अब भी औरों के बचपन से कुछ न कुछ सीखने की ललक बनी रहती है। उनको कभी हल्के में लेने का प्रश्न ही नहीं रहा, पहले उनके पालन में, फिर उनके प्रश्नों के उत्तर ढूढ़ने में और उनकी विचार प्रक्रिया समझने में समुचित सतर्कता बनाये रखनी पड़ती है। निश्चय मान लीजिये यदि आज उन्हें हल्के में लिया तो भविष्य में वही हल्कापन ससम्मान वापस मिल जायेगा।

यदि बच्चे आपकी व्यस्तता में आपका समय चाहते हैं तो या आप अपने कार्य को थोड़ा विराम देकर उनकी शंकाओं का समाधान कर दें या उन्हें यह बता दें कि आप उन्हें कब समय दे पायेंगे। झिड़क देने से या टहला देने से, आत्मीयता कुंठित होने लगती है और धीरे धीरे अपने आधार ढूढ़ने कहीं और चली जाती है। बच्चों को सम्मान देने का अर्थ यह कभी नहीं है कि उन्हें अनुशासन में न रहने का अधिकार मिल गया, वरन यह संदेश स्पष्ट करने का उपक्रम है कि उन्हें सकारात्मकता में पूर्ण सहयोग मिलेगा और नकारात्कता में पूर्ण विरोध।

भोजन के अतिरिक्त बच्चों को सोते समय कुछ न कुछ सुनाते अवश्य हैं, मुझे या श्रीमतीजी, जिसको  भी समय मिल जाये। श्रीमतीजी कहानी सुनाती हैं और मेरे हिस्से पड़ती हैं शेष जिज्ञासायें। मुझे कोई एक विषय देते हैं बच्चे और उस पर मुझे जो भी आता है, मुझे वह उनके समझने योग्य भाषा में सुनाना पड़ता है। पता नहीं कि कहानी सुनाने से मेरे लेखन को बल मिलता है या मेरे लेखकीय कर्म कहानी सुनाने को सरल बना देते हैं, पर इस कार्य में रोचकता सदा ही बनी रहती है। यह बात अलग है कि कभी कहानी सुनाते सुनाते मुझे भी नींद आ जाती है। बच्चों द्वारा प्रदत्त पिछले पाँच विषयों को देखकर आप मेरी दशा का अनुमान लगा सकते हैं। ये थे मौसम की भविष्यवाणी, टैंक की कार्यप्रणाली, फिल्मों का निर्माण, विद्युत का आविष्कार और कम्प्यूटर एनीमेशन। दिन भर थक जाने के बाद आपको इन विषयों पर बोलने को कहा जाये तो संभवतः आपको भी बच्चों के पहले ही नींद आ जाये। बच्चे भी अब ढूढ़ ढूढ़कर विषय लाने लगे हैं और मेरी परीक्षा लेने लगे हैं। जो भी परिणाम आये इस परीक्षा के, पर अब धीरे धीरे इस प्रक्रिया में आनन्द आने लगा है।

अन्य संवादों का संदर्भ देने का अभिप्राय उस स्तर को बताने का था जिस पर बच्चों का बौद्धिक आत्मविश्वास अधिकार बनकर झलकता है। यदि कहा जाये कि भोजन की मेज पर सबके बीच बराबर के स्तर पर बातचीत होती है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
विषय था रॉकस्टार के गानों का, घर में सबको ही बहुत अच्छे लगे वे गाने, और उनके बोल भी। निर्णय लिया गया कि बच्चों की परीक्षाओं के बाद देखी जायेगी। गानों की तरह ही उसकी कहानी भी अच्छी होनी चाहिये। इतने में आठ वर्षीय बिटिया बोल उठीं कि मुझे मालूम कि कहानी क्या होगी। अच्छा, जब फिल्म देखी नहीं तो कैसे पता चली? बिटिया बोलीं, उसके गानों से। आश्चर्य, बड़े बड़े फिल्म समीक्षक भी किसी फिल्मों की कहानी उसके गाने देखकर नहीं बता सकते हैं, टीवी पर पाँच गाने देखकर बिटिया कहानी बताने को तैयार हैँ। भोजन का कौर जहाँ था, वहीं रुक गया, बिटिया कहानी बताने लगी।

रणबीर कपूर एक अच्छा लड़का होता है, गिटार बजाता है मंदिर में, हल्का हल्का अच्छा गाना गाता है (गीत फाया कुन)। फिर एक लड़की आती है जिसे वह मोटर साइकिल में घुमाता है, वही लड़की हीरो को बिगाड़ देती है, दोनों बेकार पिक्चर देखने जाते हैं (गीत कतिया करूँ)। लड़का उस लड़की के साथ और बिगड़ जाता है, दाढ़ी बढ़ा लेता है, बेकार से कपड़े पहनता है और तेज तेज गाना गाता है (गीत जो भी मैं)। फिर वह सबके साथ लड़ाई करने लगता है, गाने में एक बार गाली भी देता है, पुलिस से भी लड़ता है और पुलिस उसे पकड़कर भी ले जाती है (गीत साडा हक)। जब उसे अपनी गलती पता चलती है तो उसे बहुत खराब लगता है और वह पहले जैसा होना चाहता है (गीत नादान परिन्दे)।

इतनी स्पष्ट कहानी सुन मेरी बुद्धि स्तब्ध सी रह गयी। पता नहीं, कहानी यह है कि नहीं, वह तो देखने पर ही पता चलेगा, पर अपने घर में एक नये फिल्म समीक्षक को पाकर हम धन्य हो गये।

26.11.11

कुम्भकर्ण का श्राप

कुम्भकर्ण शान्ति का प्रतीक था, उसे सोते रहने का वरदान मिला था। हम दैनिक रूप से जगने वालों को कुम्भकर्ण की मानसिक शान्ति की कल्पना भी नहीं हो सकती है, हमें लग सकता है कि वह सोकर जीवन व्यर्थ कर रहा था। हमें लग सकता है कि सोते रहना उसकी बाध्यता थी पर यह तथ्य किसी को ज्ञात ही नहीं है कि कुम्भकर्ण की शान्तिसाधना अपने आप में एक अनुकरणीय आदर्श थी जो राम और रावण के भारी व्यक्तित्वों के बीच कहीं छिप गयी। काश किसी ने कुम्भकर्ण के मन को समझने का प्रयत्न किया होता। उसका तो जीवन आनन्द से सोते हुये कट ही रहा था, रावण की व्यग्रता के कारण कुम्भकर्ण को असमय जगना पड़ा। रावण को कितना समझाया उसने कि युद्ध छोड़ शान्ति से रहो, सीता मैया को ससम्मान वापस कर दो, पर जिस विचार को आज के समय में फलीभूत होना लिखा हो, वह भला उस समय रावण के समझ में कैसे आता। रावण नहीं माना, कुम्भकर्ण को युद्ध करना पड़ा, राम के हाथों शान्ति के अग्रदूत को चिरनिद्रीय निर्वाण मिला।

रामायण समाप्त हो गयी, रावण रूपी समस्या समाप्त हो गयी, राम प्रसन्नचित्त अयोध्या लौट आये, उनके स्वागत में दिये जलाये गये, देवताओं ने पुष्पवर्षा की। हम सब भी निश्चिन्त हो गये कि अब कोई युद्ध नहीं होगा, बुराई का समूल नाश हो गया है, रावण का उदाहरण दुष्टों के हृदयों में स्थायी डर बन कर धड़केगा। आनन्द और आश्वस्तता के वातावरण में इस बात पर किसी का ध्यान नहीं गया कि हम सबको कुम्भकर्ण का श्राप लग गया है।

जहाँ एक ओर रामायण के सारे चरित्रों ने अपने चरित्र को अपनी बातों व अपने कर्मों से प्रकाशित किया और उन सबको इस बात के लिये पर्याप्त अवसर भी मिला, दुर्भाग्यवश यह अवसर कुम्भकर्ण को नहीं मिल पाया। बलात नींद से उठाये जाने के बाद थोड़ी सी शान्तिवार्ता और तत्पश्चात युद्ध में अवसान। ऐतिहासिक साक्ष्य तो नहीं है कि कुम्भकर्ण ने आने वाली पाढ़ियों को कोई श्राप दिया हो, पर थोड़ा अवलोकन करने से यह तथ्य स्वयं उद्घाटित हो जाता है।

रामराज्य की आस थी, शाश्वत, पर विश्व क्या पुनः वैसा हो पाया? नहीं, एक शान्तिप्रिय का श्राप हम सबको लग गया, कुम्भकर्ण मरा नहीं वरन हम सबके अन्दर आकर सो गया। अब उसका क्रोध न अपने भाई रावण से है, न अपने हन्ता राम से है, न उसका विरोध सच से है, न झूठ से है, उसका तो विरोध तो उनसे है जो लोग नींद में विघ्न डालते हैं और उनसे तो और भी है जो युद्ध के लिये उकसाते हैं।

यह श्राप का ही प्रभाव है कि हम लोगों की नींद गहरी और लम्बी हो गयी है, समाज स्वस्थ रहे न रहे, शान्ति बनी हुयी है। कितनी बड़ी से बड़ी समस्या आ जाये समाज में, हमारी नींद में विघ्न नहीं पड़ता है। कोई कितना भी चीखता रहे, कोई कितने भी दुख में हो, कोई अन्तर नहीं पड़ता है, बस शान्ति बनी रहे, नींद बनी रहे। हम सबकी काया में घुसकर कुम्भकर्ण अब और आलसी हो गया है। ६ माह के स्थान पर ५ वर्ष सोना प्रारम्भ कर दिया है। पंचवर्षीय कर्म हेतु उठता है, खा पीकर पुनः ५ वर्ष के लिये सो जाता है। चादर तनी है, निद्रा चरम पर है, कुम्भकर्ण का श्राप लय में है, न रावण के दुष्कर्म को अनुचित बताया जाता है और न ही राम के गुणों का वर्णन होता है, शान्ति और निद्रा युगशब्द बन जी रहे हैं, बीच बीच में बमचक मचती है पर शीघ्र ही दम तोड़ देती है।

संभवतः सोते सब रहते हैं पर इस तथ्य को सगर्व स्वीकार कर लेना अध्यात्मिकता की पहली किरण है। जागने का अभिनय करना जागने से कहीं अधिक कष्टकर है।

एक शान्तिप्रिय के बलिदान के श्राप की परिणति ऐसी स्याह शान्ति के रूप में होगी कि न प्रसन्न होते बनेगा और न ही दुख को व्यक्त करते बनेगा। अजब सी शान्ति है, विस्फोट के पहले सी। यह श्राप कैसे उतरेगा, कोई राह नहीं दीखती। हम सबके अन्दर सो रहे उदासीन कुम्भकर्ण को मारने के लिये अब तो आ जाओ राम, यह शान्ति काटती है।

23.11.11

चेतन भगत और शिक्षा व्यवस्था

चेतन भगत की नयी पुस्तक रिवॉल्यूशन २०२० कल ही समाप्त की, पढ़कर आनन्द आ गया। शिक्षा व्यवस्था पर एक करारा व्यंग है यह उपन्यास। शिक्षा से क्या आशा थी और क्या निष्कर्ष सामने आ रहे हैं, बड़े सलीके से समझाया गया है, इस उपन्यास में।

इसके पहले कि हम कहानी और विषय की चर्चा करें, चेतन भगत के बारे में जान लें, लेखकीय मनःस्थिति समझने के लिये। बिना जाने कहानी और विषय का आनन्द अधूरा रह जायेगा।

चेतन भगत का जीवन, यदि सही अर्थों में समझा जाये, वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को समझने के लिये एक सशक्त उदाहरण है। अपने जीवन के साथ हुये अनुभवों को बहुत ही प्रभावी ढंग से व्यक्त भी किया है उन्होंने। फ़ाइव प्वाइण्ट समवन में आईआईटी का जीवन, नाइट एट कॉल सेन्टर में आधुनिक युवा का जीवन, थ्री मिस्टेक ऑफ़ माई लाइफ़ में तैयारी कर रहे विद्यार्थी का जीवन, टू स्टेट में आईआईएम का जीवन और इस पुस्तक में शिक्षा व्यवस्था का जीवन। हर पुस्तक में एक विशेष पक्ष पर प्रकाश डाला गया है, या संक्षेप में कहें कि शिक्षा व्यवस्था के आसपास ही घूम रही है उनकी उपन्यास यात्रा।

जिसकी टीस सर्वाधिक होती है, वही बात रह रहकर निकलती है, संभवतः यही चेतन भगत के साथ हो रहा है। पहले आईआईटी से इन्जीनियरिंग, उसके बाद आईआईएम से मैनेजमेन्ट, उसके बाद बैंक में नौकरी, सब के सब एक दूसरे से पूर्णतया असम्बद्ध। इस पर भी जब संतुष्टि नहीं मिली और मन में कुछ सृजन करने की टीस बनी रही तो लेखन में उतरकर पुस्तकें लिखना प्रारम्भ किया, सृजन की टीस बड़ी सशक्त जो होती है। कई लोग कह सकते हैं कि जब लिखना ही था तो देश का इतना पैसा क्यों बर्बाद किया। कई कहेंगे कि यही क्या कम है उन्हें एक ऐसा कार्य मिल गया है जिसमें उनका मन रम रहा है। विवाद चलता रहेगा पर यह तथ्य को स्वीकार करना होगा कि कहीं न कहीं बहुत बड़ा अंध स्याह गलियारा है शिक्षा व्यवस्था में जहाँ किसी को यह नहीं ज्ञात है कि वह क्या चाहता है जीवन में, समाज क्या चाहता है उसकी शिक्षा से और जिन राहों को पकड़ कर युवा बढ़ा जा रहा है, वह किन निष्कर्षों पर जाकर समाप्त होने वाली हैं। इस व्यवस्था की टीस उसके भुक्तभोगी से अधिक कौन समझेगा, वही टीस रह रहकर प्रस्फुटित हो रही है, उनके लेखन में।

कहानी में तीन प्रमुख पात्र हैं, गोपाल, राघव और आरती। गोपाल गरीब है, बिना पढ़े और अच्छी नौकरी पाये अपनी गरीबी से उबरने का कोई मार्ग नहीं दिखता है उसे। अभावों से भरे बचपन में बिताया समय धन के प्रति कितना आकर्षण उत्पन्न कर देता है, उसके चरित्र से समझा जा सकता है। शिक्षा उस पर थोप दी जाती है, बलात। राघव मध्यम परिवार से है, पढ़ने में अच्छा है पर उसे जीवन में कुछ सार्थक कर गुजरने की चाह है। आईआईटी से उत्तीर्ण होने के बाद भी उसे पत्रकार का कार्य अच्छा लगता है, समाज के भ्रष्टाचार से लड़ने का कार्य। आरती धनाड्य परिवार से है, शिक्षा उसके लिये अपने बन्धनों से मुक्त होने का माध्यम भर है।

वाराणसी की पृष्ठभूमि है, तीनों की कहानी में प्रेमत्रिकोण, आरती कभी बौद्धिकता के प्रति तो कभी स्थायी जीवन के प्रति आकर्षित होती है। तीनों के जीवन में उतार चढ़ाव के बीच कहानी की रोचकता बनी रहती है। कहानी का अन्त बताकर आपकी उत्सुकता का अन्त कर देना मेरा उद्देश्य नहीं है पर चेतन भगत ने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि इस पुस्तक पर भी एक बहुत अच्छी फिल्म बनायी जा सकती है।

कहानी की गुदगुदी शान्त होने के बाद जो प्रश्न आपके सामने आकर खड़े हो जाते हैं, वे चेतन भगत के अपने प्रश्न हैं, वे हमारे और हमारे बच्चों के प्रश्न हैं, वे हमारी शिक्षा व्यवस्थता के अधूरे अस्तित्व के प्रश्न हैं।

प्रश्न सीधे और सरल से हैं, क्या शिक्षा हम सबके लिये एक सुरक्षित भविष्य की आधारशिला है या शिक्षा हम सबके लिये वह पाने का माध्यम है जो हमें सच में पाना चाहिये।

मैं आपको यह नहीं बताऊँगा कि मैं क्या चाहता था शिक्षा से और क्या हो गया? पर एक प्रश्न आप स्वयं से अवश्य पूछें कि आज आप अधिक विवश हैं या आपके द्वारा प्राप्त शिक्षा। चेतन भगत तो आज अपने मन के कार्य में आनन्दित हैं, सारी शिक्षा व्यवस्था को धता बताने के बाद।

19.11.11

लेखकीय मनःस्थिति

कहते हैं कि किसी लेखक की पुस्तक उसके व्यक्तित्व के बारे में सब स्पष्ट कर के रख देती है। सही भी है, जब लेखक किसी पुस्तक में अपना हृदय निकाल के रख दे तो उसके बारे में जानना कौन सा कठिन कार्य रह जाता है? वर्षों का अनुभव जब पुस्तक में आता हो, तो उन वर्षों में लेखक किन राहों से चलकर आया है, पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है। पुस्तकों को पढ़ना लेखक से बतियाने जैसा ही है और बात करने से कितना कुछ पता चल जाता है किसी के बारे में।

यह संभव है कि किसी पुस्तक में लेखक के व्यक्तित्व के सारे पक्ष व्यक्त न हो सकें। किसी विषय विशेष पर लिखी पुस्तक के बारे में यह संभव भी है। यदि ध्यान से देखा जाये तो कोई भी विषय अपने से संबद्ध विचारों के एकांत में नहीं जीता है, कहीं न कहीं उस पर लेखक के पूरे व्यक्तित्व का प्रक्षेप अवश्य पड़ता है। विषय को दूर से छूकर निकलती उन विचार तरंगों को समझने में संशय बना रहता है। यदि लेखक जीवित है तो वह संशय दूर कर देता है पर जो हमारे बीच में नहीं हैं वे सच में क्या कहना चाह रहे थे, इस पर सदा ही विवाद की स्थिति बनी रहती है। सर्वाधिक विवाद के बिन्दु मूल विषय से बहुत दूर इन्ही तटीय भँवरों में छिपे रहते हैं।

लेखक से कालखंडीय-निकटता अधिक होने से पाठक उन संदर्भों को समझ लेता है जिन पर वह विषय अवस्थित रहा होगा। तत्कालीन परिवेश और परिस्थिति विषय पर हर ओर से प्रकाश डालते हैं। कालखंड में लेखक जितना हमसे दूर होता है, उसे समझने में अनुमान की मात्रा उतनी ही बढ़ जाती है। इतिहास में गहरे छिपे पन्ने, जो हमें दिग्भ्रमित करते हैं, अपना मंतव्य अपने उर में छिपाये रहते हैं, उनका मूल कहीं न कहीं लेखक के व्यक्तित्व में छिपा होता है।

यदि आपको लेखक के जीवन के बारे में ज्ञात है तो उनका लेखन समझने में जो स्पष्ट दृष्टि आपके पास रहती है, उसमें उनका लेखन और उभरकर सामने आता है। निराला की फक्कड़ जीवन शैली जानने के बाद जब आप सरोज-स्मृति पुनः पढ़ेंगे तो आपके आँसुओं की संख्या और गति, दोनों ही दुगने हो जायेंगे। मीरा के भजन साहित्य की शैली न होकर, अध्यात्म की रुपहली छाया बनकर आयेंगे। सूर, तुलसी, कबीर का व्यक्तिगत जीवन उनके कृतित्व के मर्म को गहराता जाता है।

अब किसी के लेखन से संबंधित विवादित विषयों का निर्णय कैसे हो? किसी महापुरुष व उनके लेखन को स्वार्थवश अपने अनुसार प्रचारित करना तो उन्हें प्रयोग की वस्तु बनाने जैसा हुआ। ग्रन्थों का निष्कर्ष अपने आग्रहों पर आधारित करना भला कहाँ का न्याय हुआ? गीता के ७०० श्लोकों पर हजार से ऊपर टीकायें, प्रत्येक में एक नया ही अर्थ निकलता हुआ, सत्य हजारमुखी कब से हो गया? यह सत्य है कि सत्य के कई पक्ष हो सकते हैं, पर दो सर्वथा विलोम पक्ष एक सत्य को कैसे परिभाषित कर सकते हैं? तर्कशास्त्र के अनुसार यदि किसी तंत्र में दो विरोधाभासी पक्ष एक साथ उपस्थित हैं तो वहाँ कुछ भी सत्य सिद्ध किया जा सकता है, कुछ भी।

किसी के लेखन पर अन्तिम निर्णय केवल लेखक ही दे सकता है, विवाद के विषयों पर अपना कोई आग्रह थोपने से पहले, हमें लेखक की मनःस्थिति समझनी होगी, स्थापित करनी होगी, तार्किक आधार पर, यही एकमात्र विधि है जिससे शब्द का मर्म समझा जा सकता है। आधुनिक शिक्षा पद्धति के प्रभाव में शास्त्रों को दर्शनीय पिटारा मान चुके आधुनिकमना व्यक्तियों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि ग्रंथों की प्रस्तावना में विषयवस्तु, लेखक की योग्यता, पाठक की योग्यता, विषयवस्तु का पाठक से संबंध, लेखन का अभिप्राय, लेखकीय कारणों का वर्णन और अपेक्षित प्रभावों जैसे बिन्दुओं को स्थान मिलता था। यह लेखकीय मनःस्थिति की प्रथम अभिव्यक्ति होती है।

कहते हैं, पुस्तक का प्राकट्य मन में पहले ही हो जाता है, एक समूह के रूप में, एक संकेत के रूप मे, लेखन प्रक्रिया बस उसे शब्दों में क्रमबद्ध उतारने जैसा है, ठीक वैसे ही जैसे हम एक दूसरे से बातचीत करते हैं, ठीक वैसे ही जो पाठकों को समझ में आ सके। पॉलो कोहेलो तो कहते हैं कि पुस्तक लिखना तो किसी से प्यार करने जैसा होता है, आप पहले थोड़ा तटस्थ से रहते हैं, थोड़ा असमंजस सा होता है, थोड़ी शंकायें होती हैं, पर एक बार लेखकीय कर्म में पूर्णतया उतर जाने के पश्चात आपको लगता है कि किस तरह अपना श्रेष्ठ पक्ष रखना है, कैसे इस प्रक्रिया में आनन्द उड़ेलना है, कैसे आनन्द उठाना है? 

इस प्रक्रिया में जो तत्व प्रारम्भ से लेखन के साथ जुड़ा रहता है और जिसके आधार पर लेखन समझना श्रेयस्कर है, न्यायोचित है, तो वह है लेखकीय मनःस्थिति।

16.11.11

मल्टीटास्किंग

मल्टीटास्किंग एक अंग्रेजी शब्द है जिसका अर्थ है, एक समय में कई कार्य करना। इस शब्द का आधुनिक प्रयोग मोबाइलों की क्षमता आँकने के लिये होता रहा है, अर्थ यह कि एक समय में अधिक कार्य करने वाला मोबाइल अधिक शक्तिशाली। गाना भी चलता हो, ईमेल भी स्वतः आ रहा हो, मैसेज का उत्तर भी लिखा जा सके, और हाँ, फोन आये तो बात भी कर लें, वह भी सब एक ही समय में। कान में ठुसे ईयरफोन, कीबोर्ड पर लयबद्ध नाचती उँगलियाँ, छोटी सी स्क्रीन पर उत्सुकता से निहारती आँखें, एक समय में सब कुछ कर लेने को सयत्न जुटे लोगों के दृश्य आपको अवश्य प्रभावित करते होंगे। आपको भी लगता होगा कि काश हम भी ऐसा कुछ कर पाते, काश हम भी डिजिटल सुपरमैन बन पाते।

ईश्वर ने आपको ५ कर्मेन्द्रियाँ व ५ ज्ञानेन्द्रियाँ देकर मल्टीटास्किंग का आधार तो दे ही दिया है। पर यह तो उत्पाद के निर्माता से ही पूछना पड़ेगा कि दसों इन्द्रियों को एक साथ उपयोग में लाना है या अलग अलग समय में। एक समय में एक कर्मेन्द्रिय और एक ज्ञानेन्द्रिय तो कार्य कर सकती हैं पर दो कर्मेन्द्रिय या दो ज्ञानेन्द्रिय को सम्हालना कठिन हो जाता है। दस इन्द्रियों के साथ एक ही मन और एक ही बुद्धि प्रदान कर ईश्वर ने अपना मन्तव्य स्पष्ट कर दिया है।

खाना बनाते हुये गुनगनाना, रेडियो सुनते हुये पढ़ना आदि मल्टीटास्किंग के प्राथमिक उदाहरण हैं और बहुलता में पाये जाते हैं। जटिलता जैसे जैसे बढ़ती जाती है, मल्टीटास्किंग उतनी ही विरल होती जाती है। मोबाइल कम्पनियों को संभवतः पता ही न हो और वे हमारे लिये मल्टीटास्किंग के और सूक्ष्म तन्त्र बनाने में व्यस्त हों।

आप में से बहुत लोग यह कह सकते हैं कि मल्टीटास्किंग तो संभव ही नहीं है, समय व्यर्थ करने का उपक्रम। एक समय में तो एक ही काम होता है, ध्यान बटेगा तो कार्य की गुणवत्ता प्रभावित होगी या दुर्घटना घटेगी। एक समय में एक ही विषय पर ध्यान दिया जा सकता है। मैं तो आपकी बात से सहमत हो भी जाऊँ पर उन युवाओं को आप कैसे समझायेंगे जो एक ही समय में ही सब कुछ कर डालना चाहते हैं, ऊर्जा की अधिकता और अधैर्य में उतराते युवाओं को। जेन के अनुयायी इसे एक समय में कई केन्द्र बिन्दुओं पर मन को एकाग्र करने जैसा मानते हैं, जिसके निष्कर्ष आपको भटका देने वाले होते हैं। हमारे बच्चे जब भी भोजन करते समय टीवी देखते हैं, दस मिनट का कार्य आधे घंटे में होता है, पता नहीं क्या अधिक चबाया जाता है, भोजन या कार्टून।

थोड़ी गहनता से विचार किया जाये तो, मल्टीटास्किंग का गुण अभ्यास से ही आता है। अभ्यास जब इतना हो जाये कि वह कार्य स्वतः ही होने लगे, बिना आपके ध्यान दिये हुये, तब आप उस कार्य को मल्टीटास्किंग के एक अवयव के रूप में ले सकते हैं। धीरे धीरे यह कलाकारी बढ़ती जाती है और आप एक समय में कई कार्य सम्हालने के योग्य हो जाते हैं, आपकी उत्पादकता बढ़ जाती है और सामने वाले का आश्चर्य।

क्या हमारे पास सच में समय की इतनी कमी है कि हमें मल्टीटास्किंग की आवश्यकता पड़े? क्या मल्टीटास्किंग में सच में समय बचता है? औरों के बारे में तो नहीं कह सकता पर मेरे पास इतना समय है कि एक समय में दो कार्य करने की आवश्यकता न पड़े। एक समय में एक कार्य, वह भी पूरे मनोयोग से, उसके बाद अगला कार्य। वहीं दूसरी ओर एक समय में एक कार्य को पूर्ण एकाग्रता से करने में हर बार समय बचता ही है। इस समय लैपटॉप पर लिख रहा हूँ तो वाई-फाई बन्द है, शेष प्रोग्राम बन्द हैं, एक समय में बस एक कार्य। मेरे लिये कम्प्यूटरीय या मोबाइलीय सहस्रबाहु किसी काम का नहीं।

आजकल कार्यालय आते समय एक तेलगू फिल्म का पोस्टर देखता हूँ, बड़ी भीड़ भी रहती है वहाँ, कोई बड़ा हीरो है। आप चित्र देख लें, मल्टीटास्किंग का बेजोड़ उदाहरण है यह, बदमाश की गर्दन पर पैर, खोपड़ी पर पिस्तौल तनी, मोबाइल से कहीं बातचीत और बीच सड़क पर ‘विनाशाय च दुष्कृताम्’ का मंचन।

क्या आप भी हैं मल्टीटास्किंग के हीरो?

12.11.11

सोने के पहले

बच्चों की नींद अधिक होती है, दोनों बच्चे मेरे सोने के पहले सो जाते हैं और मेरे उठने के बाद उठते हैं। जब बिटिया पूछती है कि आप सोते क्यों नहीं और इतनी मेहनत क्यों करते रहते हो? बस यही कहता हूँ कि बड़े होने पर नींद कम हो जाती है, इतनी सोने की आवश्यकता नहीं पड़ती है, आप लोगों को बढ़ना है, हम लोगों को जितना बढ़ना था, हम लोग बढ़ चुके हैं। बच्चों को तो नियत समय पर सुला देते हैं, कुछ ही मिनटों में नींद आ जाती है उनकी आँखों में, मुक्त भाव से सोते रहते हैं, सपनों में लहराते, मुस्कराते, विचारों से कोई बैर नहीं, विचारों से जूझना नहीं पड़ता हैं उन्हें।

पर मेरे लिये परिस्थितियाँ भिन्न हैं। घड़ी देखकर सोने की आदत धीरे धीरे जा रही है। नियत समय आते ही नींद स्वतः आ जाये, अब शरीर की वह स्थिति नहीं रह गयी है। बिना थकान यदि लेट जाता हूँ तो विचार लखेदने लगते हैं, शेष बची ऊर्जा जब इस प्रकार विचारों में बहने लगती है तो शरीर निढाल होकर निद्रा में समा जाता है। आयु अपने रंग दिखा रही है, नींद की मात्रा घटती जा रही है। जैसे नदी में जल कम होने से नदी का पाट सिकुड़ने लगने लगता है, नींद का कम होना जीवन प्रवाह के क्षीण होने का संकेत है। अब विचारों की अनचाही उठापटक से बचने के लिये कितनी देर से सोने जाया जाये, किस गति से नींद कम होती जा रही है, न स्वयं को ज्ञात है, न समय बताने वाली घड़ी को।

जब समय की जगह थकान ही नींद का निर्धारण करना चाहती है तो वही सही। अपनी आदतें बदल रहा हूँ, अब बैठा बैठा कार्य करता रहता हूँ, जब थकान आँखों में चढ़ने लगती है तो उसे संकेत मानकर सोने चला जाता हूँ। जाते समय बस एक बार घड़ी अवश्य देखता हूँ, पुरानी आदत जो पड़ी है। पहले घड़ी से आज्ञा जैसी लेता था, अब उसे सूचित करता हूँ। हर रात घड़ी मुँह बना लेती है, तरह तरह का, रूठ जाती है, पर शरीर ने थकने का समय बदल दिया, मैं क्या करूँ?

क्या अब सोने के पहले विचारों ने आना बन्द कर दिया है? जब बिना थकान ही सोने का यत्न करता था, तब यह समस्या बनी रहती थी, कभी एक विचार पर नींद आती थी तो कभी दूसरे विचार पर। जब से थकान पर आधारित सोने का समय निश्चित किया है, सोने के पहले आने वाले विचार और गहरे होते जा रहे हैं। कुछ नियत विचारसूत्र आते हैं, बार बार। सारे अंगों के निष्क्रियता में उतरने के बाद लगता है कि आप कुछ हैं, इन सबसे अलग। कभी लगता है इतने बड़े विश्व में आपका होना न होना कोई महत्व नहीं रखता है, आप नींद में जा रहे हैं पर विश्व फिर भी क्रियारत है।

हर रात सोने के पहले लगता है कि शरीर का इस प्रकार निढाल होकर लुढ़क जाना, एक अन्तिम निष्कर्ष का संकेत भी है, पर उसके पहले पूर्णतया थक जाना आवश्यक है, जीवन को पूरा जीने के पश्चात ही। हमें पता ही नहीं चल पाता है और हम उतर जाते हैं नींद के अंध जगत में, जगती हुयी दुनिया से बहुत दूर। एक दिन यह नींद स्थायी हो जानी है, नियत समय पर सोने की आदत तो वैसे ही छोड़ चुके है। एक दिन जब शरीर थक जायेगा, सब छोड़कर चुपचाप सो जायेंगे, बस जाते जाते घड़ी को सूचित कर जायेंगे।

9.11.11

संदेश और कोलाहल

कभी किसी को भारी भीड़ में दूर खड़े अपने मित्र से कुछ कहते सुना है, अपना संदेश पहुँचाने के लिये बहुत ऊँचे स्वर में बोलना पड़ता है, बहुत अधिक ऊर्जा लगानी पड़ती है। वहीं रात के घुप्प अँधेरे में झींगुर तक के संवाद भी स्पष्ट सुनायी पड़ते हैं। रात में घर की शान्ति और भी गहरा जाती है जब सहसा बिजली चली जाती और सारे विद्युत उपकरण अपनी अपनी आवाज़ निकालना बन्द कर देते हैं। पार्श्व में न जाने कितना कोलाहल होता रहता है, हमें पता ही नहीं चलता है, न जाने कितने संदेश छिप जाते हैं इस कोलाहल में, हमें पता ही नहीं चलता है। जीवन के सभी क्षेत्रों में संदेश और कोलाहल को पृथक पृथक कर ग्रहण कर लेने की क्षमता हमारे विकास की गति निर्धारित करती है। 

किसी ब्लॉग में पोस्ट ही मूल संदेश है, शेष कोलाहल। यदि संवाद व संचार स्पष्ट रखना है तो, संदेश को पूरा महत्व देना होगा। जब आधे से अधिक वेबसाइट तरह तरह की अन्य सूचनाओं से भरी हो तो मूल संदेश छिप जाता है। शुद्ध पठन का आनन्द पाने के लिये एकाग्रता आवश्यक है और वेबसाइट पर उपस्थित अन्य सामग्री उस एकाग्रता में विघ्न डालती है। अच्छा तो यही है कि वेबसाइट का डिजाइन सरलतम हो, जो अपेक्षित हो, केवल वही रहे, शेष सब अन्त में रहे, पर बहुधा लोग अपने बारे में अधिक सूचना देने का लोभ संवरण नहीं कर पाते हैं। आप यह मान कर चलिये कि आप की वेबसाइट पर आने वाला पाठक केवल आपका लिखा पढ़ने आता है, न कि आपके बारे में या आपकी पुरानी पोस्टों को। यदि आपका लिखा रुचिकर लगता है तो ही पाठक आपके बारे में अन्य सूचनायें भी जानना चाहेगा और तब वेबसाइट के अन्त में जाना उसे खलेगा नहीं। अधिक सामग्री व फ्लैश अवयवों से भरी वेबसाइटें न केवल खुलने में अधिक समय लेती हैं वरन अधिक बैटरी भी खाती हैं। अतः आपके ब्लॉग पर पाठक की एकाग्रता बनाये रखने की दृष्टि से यह अत्यन्त आवश्यक है कि वेबसाइट का लेआउट व रूपरेखा सरलतम रखी जाये।

यह सिद्धान्त मैं अपने ब्लॉग पर तो लगा सकता हूँ पर औरों पर नहीं। अच्छी लगने वाली पर कोलाहल से भरी ऐसी वेबसाइटों पर एक नयी विधि का प्रयोग करता हूँ, रीडर का प्रयोग। सफारी ब्राउज़र में उपलब्ध इस सुविधा में पठनीय सामग्री स्वतः ही एक पुस्तक के पृष्ठ के रूप में आ जाती है, बिना किसी अन्य सामग्री के। इस तरह पढ़ने में न केवल समय बचता है वरन एकाग्रता भी बनी रहती है। सफारी के मोबाइल संस्करण में भी यह सुविधा उपस्थित होने से वही अनुभव आईफोन में भी बना रहता है। गूगल क्रोम में इस तरह के दो प्रोग्राम हैं पर वाह्य एक्सटेंशन होने के कारण उनमें समय अधिक लगता है।

किसी वेबसाइट पर सूचना का प्रस्तुतीकरण किस प्रकार किया जाये जिससे कि अधिकाधिक लोगों को उसका लाभ सरलता से मिल पाये, यह एक सतत शोध का विषय है। विज्ञापनों के बारे में प्रयुक्त सिद्धान्त इसमें और भी गहनता से लागू होते हैं, कारण सूचना पाने की प्रक्रिया का बहुत कुछ पाठक पर निर्भर होना है। यदि प्रस्तुतीकरण स्तरीय होगा तो पाठक उस वेबसाइट पर और रुकेगा। अधिक सूचना होने पर उसे व्यवस्थित करना भी एक बड़ा कार्य हो जाता है। कितनी सूचियाँ हों, कितने पृष्ठ हों, वे किस क्रम में व्यवस्थित हों और उनका आपस में क्या सम्बन्ध हो, ये सब इस बात को ध्यान में रखकर निश्चित होते हैं कि पाठक का श्रम न्यूनतम हो और उसकी सहायता अधिकतम। उत्पाद या कम्पनी की वेबसाइट तो थोड़ी जटिल तो हो भी सकती है पर ब्लॉग भी उतना जटिल बनाया जाये, इस पर सहमत होना कठिन है।

अन्य सूचनाओं के कोलाहल में संदेश की तीव्रता नष्ट हो जाने की संभावना बनी रहती है। यदि हम उल्टा चलें कि ब्लॉग व पोस्ट के शीर्षक के अतिरिक्त और क्या हो पोस्ट में, संभवतः परिचय, सदस्यता की विधि, पाठकगण और पुरानी पोस्टें। ब्लॉग में इनके अतिरिक्त कुछ भी होना कोलाहल की श्रेणी में आता है, प्रमुख संदेश को निष्प्रभावी बनाता हुआ। बड़े बड़े चित्र देखने में सबको अच्छे लग सकते हैं, प्राकृतिक दृश्य, अपना जीवन कथ्य, स्वयं की दर्जनों फ़ोटो, पुस्तकों की सूची और समाचार पत्रों में छपी कतरनें, ये सब निसंदेह व्यक्तित्व और अभिरुचियों के बारे एक निश्चयात्मक संदेश भेजते हैं, पर उनकी उपस्थिति प्रमुख संदेश को धुँधला कर देती है।

गूगल रीडर की फीड व सफारी की रीडर सुविधा इसी कोलाहल को प्रमुख संदेश से हटाकर, प्रस्तुत करने का कार्य करते हैं। यह भी एक अकाट्य तथ्य है कि गूगल महाराज की आय मूलतः विज्ञापनों के माध्यम से होती है और ब्लॉग के माध्यम से आय करने वालों के लिये विज्ञापनों का आधार लेना आवश्यक हो जाता है, पर विज्ञापन-जन्य कोलाहल प्रमुख संदेश को निस्तेज कर देते हैं।

मेरा विज्ञापनों से कोई बैर नहीं है, पर बिना विज्ञापनों की होर्डिंग का नगर, बिना विज्ञापनों का समाचार पत्र, बिना विज्ञापनों का टीवी कार्यक्रम और बिना विज्ञापनों का ब्लॉग न केवल अभिव्यक्ति के प्रभावी माध्यम होंगे अपितु नैसर्गिक और प्राकृतिक संप्रेषणीयता से परिपूर्ण भी होंगे।

आईये, अभिव्यक्ति का भी सरलीकरण कर लें, संदेश रहे, कोलाहल नहीं।

5.11.11

ब्राउज़र

ब्राउज़र का प्रयोग आप सब करते हैं, यही एक सम्पर्क सूत्र है इण्टरनेट से जुड़ने का और ब्लॉग आदि पढ़ने का। कई प्रचलित ब्राउज़र हैं, क्रोम, फायरफॉक्स, सफारी, इण्टरनेट एक्सप्लोरर आदि। सबके अपने सुविधाजनक बिन्दु हैं, पुरानी जान पहचान है, विशेष क्षमतायें हैं। इसके पहले कि उनके गुणों की चर्चा करूँ, तथ्य जान लेते हैं कि किसका कितना भाग है?

लगभग २ अरब इण्टरनेट उपयोगकर्ता हैं, ९४% डेक्सटॉप(या लैपटॉप) पर, ६% टैबलेट(या मोबाइल) पर। डेक्सटॉप पर ९२% अधिकार विण्डो का व शेष मैक का है। टैबलेट पर ६२% अधिकार एप्पल का व शेष एनड्रायड आदि का है। टैबलेट में ब्राउज़र का हिसाब सीधा है, जिसका टैबलेट या मोबाइल, उसका ही ब्राउज़र, बस ओपेरा को मोबाइल धारकों के द्वारा अधिक उपयोग में लाया जाता है। डेक्सटॉप पर ब्राउज़र का हिस्सा बटा हुआ है, मुख्यतः चार के बीच, क्रोम, फायरफॉक्स, सफारी और इण्टरनेट एक्सप्लोरर के बीच।

२००४ तक ब्राउज़र पर लगभग इण्टरनेट एक्सप्लोरर का एकाधिकार था। २००४ से लेकर २००८ तक फायरफॉक्स ने वह हिस्सा आधा आधा कर दिया। २००८ में गूगल ने क्रोम उतारा और २०११ तक इन तीनों का हिस्सा लगभग एक तिहाई हो गया है। मैक ओएस में मुख्यतः सफारी और थोड़ा बहुत क्रोम भी प्रचलित है। जहाँ प्रतिस्पर्धा से सबसे अधिक लाभ उपयोगकर्ता को हुआ है, वहीं ब्राउज़र उतारने वालों के लिये यह इण्टरनेट के माध्यम से बढ़ते व्यापार पर प्रभुत्व स्थापित करने का उपक्रम है। पिछले दो वर्षों में जितना कार्य ब्राउज़र को उत्कृष्ट बनाने में हुआ है, उतना पहले कभी नहीं हुआ। सबने ही एक के बाद एक ताबड़तोड़ संस्करण निकाले हैं, अपने अपने ब्राउज़रों के।

कौन सा ब्राउज़र उपयोग में लाना है, इसके लिये कोई स्थिर मानक नहीं हैं। जिसको जो सुविधाजनक लगता है, उस पर ही कार्य करता है, धीरे धीरे अभ्यस्त हो जाता है और अन्ततः उसी में रम जाता है। या कहें कि सबका स्तर एक सा ही है अतः किसी को भी उपयोग में ले आयें, अन्तर नहीं पड़ता है। फिर भी तीन मानक कहे जा सकते हैं, गति, सरलता व सुविधा, पर उन पक्षों के साथ कुछ हानि भी जुड़ी हैं। यदि गति अधिक होगी तो वह अधिक बैटरी खायेगा, सुविधा अधिक होगी तो अघिक रैम लगेगी और खुलने में देर भी लगेगी, सरल अधिक होगा तो हर सुविधा स्वयं ही जुटानी पड़ेगी।

जिस दिन से क्रोम प्रारम्भ हुआ है, उसी दिन से उस पर टिके हैं, कारण उसका सरल लेआउट, खोज और पता टाइप करने के लिये एक ही विण्डो, बुकमार्क का किसी अन्य मशीन में स्वयं ही पहुँच जाना, उपयोगी एक्सटेंशन और साथ ही साथ उसका अधिकतम तेज होना है। क्रोम के कैनरी संस्करण का भी उपयोग किया जिसमें आने वाले संस्करणों के बारे में प्रयोग भी चलते रहते हैं। मात्र दो अवसरों पर क्रोम से दुखी हो जाता था, पहला अधिक टैब होने पर उसका क्रैश कर जाना और दूसरा किसी भी वेब साइट को सीधे वननोट में भेजने की सुविधा न होना। बीच बीच में इण्टरनेट एक्सप्लोरर का नये संस्करण व फॉयरफाक्स पर कार्य किया पर दोनों ही उपयोग में बड़े भारी लगे। कुछ दिन घूम फिर कर अन्ततः क्रोम पर आना पड़ा।

जहाँ विण्डो में क्रोम का कोई विकल्प नहीं, मैक में परिस्थितियाँ भिन्न हैं। सफारी का प्रदर्शन जहाँ विण्डो में चौथे स्थान पर रहता है, मैक में उसे अपने घर में होने का एक बड़ा लाभ रहता है। मैक ओएस के अनुसार सफारी की संरचना की गयी है। क्रोम और सफारी दोनों में ही काम किया, बैटरी की उपलब्धता लगभग एक घंटे अधिक रहती है सफारी में। थोड़ा अध्ययन करने पर पता लगा कि कारण मुख्यतः ३ हैं। पहला तो क्रोम में प्रत्येक टैब एक अलग प्रोसेस की तरह चलता, यदि आपके १० टैब खुले हैं तो ११ प्रोसेस, एक अतिरिक्त क्रोम के लिये स्वयं, और हर प्रोसेस ऊर्जा खाता है। सफारी में कितने ही टैब खुले हों, केवल २ प्रोसेस ही चलते हैं, यद्यपि दूसरे प्रोसेस में रैम अधिक लगती है पर बैटरी बची रहती है। दूसरा कारण मैक ओएस के सुदृढ़ पक्ष के कारण है, मैक में यदि कोई प्रोसेस उपयोग में नहीं आता है तो वह तुरन्त सुप्तावस्था में चला जाता है। सफारी के उपयोग में न आ रहे टैब अवसर पाते ही सो जाते हैं, पर क्रोम की संरचना सुप्तावस्था में जाने के लिये नहीं बनी होने के कारण वह जगता रहता है और ऊर्जा पीता रहता है।

तीसरा कारण ग्राफिक्स व फ्लैश से सम्बन्धित है। एप्पल फ्लैश को छोड़ एचटीएमएल५ आधारित वीडियो लाने का प्रबल पक्षधर है, एप्पल का कहना है कि फ्लैश बहुत अधिक ऊर्जा खाता है और इस कारण से अन्य प्रक्रियाओं को अस्थिर कर देता है। एडोब व एप्पल का इस तथ्य को लेकर बौद्धिक युद्ध छिड़ा हुआ है। एचटीएमएल५ फ्लैश की तुलना में बहुत कम ऊर्जा खाता है। क्रोम में फ्लैश पहले से ही विद्यमान है और मैक में फ्लैश सपोर्ट न होने पर भी निर्बाध चलता है। सफारी में फ्लैश नहीं है, पर एक एक्सटेंशन के माध्यम से सारी फ्लैश वीडियो एचटीएमएल५ में परिवर्तित होकर आ जाते हैं, वह भी तब जब आदेश होते हैं। क्रोम प्रारम्भ करते ही उसकी जीपीयू(ग्राफिक्स प्रोसेसर यूनिट) स्वतः चल जाती हो, फ्लैश चले तो बहुत अधिक और न भी चले तब भी कुछ न कुछ ऊर्जा खाती रहती है।

मैक में अब हम वापस सफारी में आ गये हैं, क्रोम जितना ही तेज है, सरल भी है, पठनीय संदेश को बिना कोलाहल दिखाता है, कहीं अधिक स्थायी है और अथाह ऊर्जा बचाता है। क्यों न हो, देश की ऊर्जा जो बचानी है।

@ विवेक रस्तोगी जी - विण्डो में IE9 सबसे कम ऊर्जा खाता है पर सबसे तेज अभी भी क्रोम है। सफारी का प्रदर्शन मैक में ही सर्वोत्तम है।

2.11.11

विदाई संदेश

आदरणीय महाप्रबंधक महोदय, मैडम, उपस्थित महानुभावों और साथियों

आज सुबह जब रेलवे क्लब के सचिव श्री हरिबाबू ने मुझे आपके विदाई समारोह में बोलने का आग्रह किया तो मन में एक अवरोध सा था। प्रमुखतः दो कारण होते हैं इस अवरोध के, या तो सेवानिवृत्त हो रहे व्यक्ति के पास उल्लेखनीय गुण ही न हों, या व्यक्तिगत कारण हों जिनके कारण आप उनके बारे में कुछ कहना न चाह रहे हों। मेरा कारण तीसरा था। आपके लिये मन में जितना आदर निहित है, उसे शब्दों में पिघला पाना मेरी सामर्थ्य के बाहर था। कैसे उस आदर को वाक्यों में संप्रेषित कर पाऊँगा, यह दुविधा थी मेरी। भाव शब्दों में ढल कहीं अपनी महक न खो दे, यह भय था मेरा। फिर भी मैंने बोलने का निश्चय किया, क्योंकि आज भी यदि मैं नहीं बोलता तो यह अन्तिम अवसर भी खो देता और वे सारे भाव मेरे हृदय और आँखों को सदा ही नम करते रहते, अप्रेषित और रुद्ध।

आने वाले कई वक्ता आपकी प्रशासनिक उपलब्धियों पर निश्चय ही प्रकाश डालेंगे, मैं केवल उन बातों की चर्चा करूँगा जिन्होंने मुझे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित किया है।

एक ही सेवा में होने के कारण, अपने प्रशिक्षण के समय में, मैं आपसे पहली बार १९९६ में मिला था, उस समय आप पश्चिम रेलवे में मुख्य वाणिज्य प्रबन्धक थे। जिस तन्मयता से आपने हमारी समस्या सुनी और जिस सहज भाव से उसका समाधान किया, वह मेरे लिये प्रबन्धन की प्रथम शिक्षा थी। उसके पश्चात कई बार आपसे भेंट हुयी, पर दक्षिण-पश्चिम रेलवे में पिछले २ वर्षों के कार्यकाल में आपसे ३ बातें सीखी हैं। कहते हैं कि प्रसन्नता बाटने से बढ़ती है। मैं आपसे अपनी वह प्रसन्नता बाटना चाहता हूँ जो मुझे इन ३ शिक्षाओं के अनुकरण से मिली है।

पहला, आपके चेहरे का समत्व व स्मित मुस्कान किसी भी आगन्तुक को सहज कर देती है, अतुलनीय गुण है किसी के हृदय को टटोल लेने का। आगन्तुक का तनाव, पद का भय, बीच में आने का साहस भी नहीं कर पाता है। पूरा अस्तित्व और संवाद शान्तिमय सागर में उतराने लगता है। लोग कह सकते हैं कि यह एक व्यक्तिगत गुण है, प्रशासनिक नहीं, पर अपने कनिष्ठों को सहजता की अवस्था में ले आना, उन्हें उनकी सर्वोत्तम क्षमता के लिये प्रेरित करने की दिशा में पहला पग है। केवल अभागे और मूर्ख ही इस गुण का लाभ नहीं ले पाते हैं।

दूसरा, आपकी उपस्थिति पूरी टीम में ऊर्जा का संचार करती है। मुझे स्पष्ट रूप से याद है, दो वर्ष पूर्व जब मुझे वाणिज्य प्रबन्धक के रूप में मन्त्रीजी के द्वारा होने वाले एक साथ कई उद्घाटनों की व्यवस्था सम्हालनी थी। मंडल रेल प्रबन्धक किसी कार्यवश बाहर थे। कार्यक्रमों की अधिकता और कई स्थानों पर समन्वय करने के कारण गड़बड़ी की पूरी आशंका बनी हुयी थी। पर आपके वहाँ आ जाने से और अन्त तक बने रहने से सारे कार्यक्रम सुन्दरतम तरीके से सम्पन्न हो गये। इसी तरह न जाने कितने अन्य कार्यक्रमों में भी आपकी उपस्थिति हम सबकी ऊर्जा बढ़ाती रही, हम लोग सदा ही अपने चारों ओर एक अव्यक्त सुरक्षा कवच का अनुभव करते रहे।

तीसरा, यद्यपि नेतृत्व का अपने सारे कर्मचारियों से नियमित सम्पर्क न हो पर वह नेतृत्वशैली संस्था के हर कार्य में परिलक्षित होती है, ऊपर से नीचे सभी परतों पर। मैंने रेलवे सेवा में १५ वर्ष पूरे कर लिये हैं और २१ वर्ष और सेवारत रहना है। किसी का भी सेवाकाल एक बड़ी दौड़ के जैसा होता है और जिस प्रकार किसी भी बड़ी दौड़ में गति और स्टैमना का संतुलन बिठाना पड़ता है उसी प्रकार एक लम्बे सेवाकाल में कार्य, स्वास्थ्य और परिवार के बीच भी एक संतुलन आवश्यक होता है। यह संतुलन तब ही आ सकता है जब सब अपना अपना कार्य समझें और करें। किसी और के कार्य करने की व स्वयं के कार्यों को टालने की प्रवृत्ति न केवल आपका तनाव बढ़ाती है वरन औरों के विकास का मार्ग भी अवरुद्ध करती है। सब अपने अपने वेतन का औचित्य व सार्थकता सिद्ध करें, तभी संस्था को सामूहिक गति व दिशा मिल सकती है। आपकी नेतृत्वशैली में इस तथ्य की छाप स्पष्ट रूप से अंकित थी। आपने सबको इस बात की पूरी स्वतन्त्रता भी दी कि वे अपना कार्य अपनी पूर्ण क्षमता व नयेपन से कर सकें और सतत यह भी निश्चित किया कोई और उनके कार्य में दखल न दे पाये। प्रबन्धन का यह मूल तत्व नेतृत्व का स्थायी गुण है जो आपने बड़ी सहजता व सरलता से निष्पादित किया।

उपरोक्त तीन गुण, सामने वाले को तनावमुक्त कर देना, टीम में ऊर्जा का संचार करना और सबका कार्य उसके पदानुसार करते रहने देना, इन तीनों को मैं अपने जीवन में उतारने का प्रयास कर रहा हूँ और बड़े निश्चयात्मक रूप से कह सकता हूँ कि इसके लिये न केवल आप जैसी स्थिर और शान्तिमय बुद्धि चाहिये वरन आप जैसा ही एक हीरे का हृदय भी चाहिये।

ईश्वर करे, आप जहाँ भी रहें, हीरे की तरह चमचमाते रहें। आपका अनुसरण कर मैं भी हीर-कणिका बनने का प्रयास कर रहा हूँ, आवश्यक भी है क्योंकि मेरी श्रीमतीजी बहुधा हीरे की माँग करती रहती हैं।

मैं सच में बहुत बड़ा अन्याय करूँगा यदि आप जैसे विरल हीरे को तराशने में मैडम द्वारा प्रदत्त योगदान का उल्लेख नहीं करूँगा।

अन्ततः मेरा भय फिर भी सिद्ध हुआ, हृदय भरा सारा आदर शब्दों में नहीं पिघल पाया। वे कोमल मृदुल भाव मेरे हृदय और आँखों को सदा ही नम करते रहेंगे, अप्रेषित और रुद्ध।

धन्यवाद

(यह विदाई संदेश मैंने अपने महाप्रबन्धक श्री कुलदीप चतुर्वेदी के लिये पढ़ा था। श्री चतुर्वेदी पिछले माह सेवानिवृत्त हुये हैं और अभी कोलकता में उप चेयरमैन रेलवे दावा प्राधिकरण में पदस्थ हैं। उन्ही पर देवेन्द्रजी के भावमयी व काव्यमयी उद्गारों को भी रख रहा हूँ।)

कुलदीप हो 

गरिमामयी,सौम्यतामयी
करुणामयी व्यक्तित्व हो
नैनृत्य रेल कुटुम्ब के,
ज्योतिमय देवदीप हो
कुलदीप हो।

प्रदीप्त भाल देह विशाल
दिव्य प्रभाष गजमय चाल
मधुर संवाद करते निहाल
शुभ कांतिमय स्नेह हो,
कुलदीप हो।

प्रभातरवि सम कांति मय
शशि पूर्णिमा सम शांति मय
व्यवहार अमृत प्रेममय,
ज्ञानमय तुम कल्पनामय हो
कुलदीप हो।