पुस्तकें बड़ी प्रिय हैं, जब भी कभी बाहर जाता हूँ दो पुस्तकें अवश्य रख लेता हूँ। पढ़ने का समय हो न हो, यात्रा कितनी भी छोटी हो, एक संबल बना रहता है कि यदि विश्राम के क्षण मिले तो पुस्तक खोल कर पढ़ी जा सकती है। बहुत बार पुस्तक पढ़ने का अवसर मिल जाता है पर शेष समय पुस्तकें ढोकर ही अपना ज्ञान बढ़ाते रहते हैं। पुस्तक साथ रहती है तो एक संतुष्टि बनी रहती है कि सहयात्री यदि मुँह बनाये बैठे रहे तो समय काटना कठिन नहीं होगा, यद्यपि बहुत कम ऐसा हुआ है कि शेष पाँच सहयात्री ठूँठ निकले हों। अन्ततः कुछ ही न पढ़कर पुस्तकें सुरक्षित वापस आ जाती हैं। पुस्तकस्था तु या विद्या का श्लोक पढ़ा था पर सारा ज्ञान पुस्तक में लिये घूमते रहते हैं और ज्ञानी होने का मानसिक अनुभव भी करते हैं।
पहले समय अधिक रहता था, पुस्तके पढ़ने और समाप्त करने का समय मिल जाता था। मुझे अभी भी याद है कि कई पुस्तकें मैने एक बार में ही बैठ कर समाप्त की हैं। जिस लेखक की कोई पुस्तक अच्छी लगती थी, उसकी सारी पुस्तकें पढ़ डालने का उपक्रम अपने निष्कर्ष तक चलता रहता था। कभी भी किसी विषय पर रोचक शैली में लिखा कुछ भी अच्छा लगने लगता है, सब क्षेत्रों में कुछ न कुछ आता है पर किसी क्षेत्र विशेष में शोधार्थ समय बहाने की उत्सुकता संवरण करता रहता हूँ। किसी पुस्तक को मेरे द्वारा पुनः पढ़वा पाने का श्रेय बस कुछ गिने चुने लेखकों को ही जाता है।
उपरिलिखित बाध्यताओं के कारण घर में पुस्तकों का अम्बार सजा है। श्रीमती जी को भी यह अभिरुचि भा गयी है, पर उनके विषय अलग होने के कारण एक नयी अल्मारी लेनी पड़ गयी है। पुस्तकें पढ़ने की गति से पुस्तकें खरीदी भी जानी चाहिये नहीं तो समय में व मस्तिष्क में निर्वात सा उत्पन्न होने लगता है। धीरे धीरे पुस्तकें घर आने लगीं, जब कभी भी मॉल जाना होता था, कुछ भी लाने के लिये, पर वापस आते समय हाथ में एक दो पुस्तकें आ ही जाती हैं। अल्मारी भरने लगती हैं, पढ़ी हुयी पुस्तकें उस पर सजने लगती हैं, आते जाते जब पढ़ी हुयी पुस्तकों पर दृष्टि पड़ती है तो अपने अर्जित ज्ञान पर विश्वास बढ़ने लगता है, किसी ने सच ही कहा है कि जिस घर में पुस्तकें रहती हैं उस घर का आत्मविश्वास बढ़ा रहता है।
आजकल अन्य कार्यों में व्यस्तता बढ़ जाने के कारण पुस्तकें घर तो आ रही हैं, पढ़ी नहीं जा पा रही हैं। अब अल्मारी के पास से निकलते समय कुछ अनपहचाने चेहरे मुलकते हैं तो ठिठक कर वहीं रुक जाता हूँ क्षण भर के लिये। कई बार ऐसे ही हो गया तो अगली बार उनसे मुँह चुराने लगा। घर यदि बड़े नगरों की तरह कई रास्तों का होता तो राह बदल कर निकल जाते, यहाँ तो नित्य भेंट की संभावना बनी रहती है।
कई दिन से मेज पर बैठा ही नहीं, कि कहीं पुस्तकें दिख न जायें, सोफे पर ही बैठकर ब्लॉगिंग आदि का कार्य कर लेता था। आज याद नहीं रहा और किसी कार्यवश मेज के पास पहुँच गया। सारी पुस्तकें एक स्वर में बोल उठीं….
क्या हुआ तेरा वादा ?
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@ संतोष त्रिवेदी, @ डॉ0 ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ , @ Rahul Singh, @ Dr. shyam gupta
संभवतः अनपढ़ी पुस्तकों में हिन्दी की पुस्तक न पाना आप लोगों को निराश कर गया और यह अवधारणा दे गया कि मेरा पुस्तकीय प्रेम अंग्रेजी में ही सिमटा हुआ है। हिन्दी पुस्तकें बहुत पढ़ता हूँ और खरीदने के बाद अतिशीघ्र पढ़ लेता हूँ, इसीलिये कोई हिन्दी पुस्तक बची नहीं थी। यह तथ्य ध्यान दिलाकर आपने मेरा सुख बढ़ाया है।
संभवतः अनपढ़ी पुस्तकों में हिन्दी की पुस्तक न पाना आप लोगों को निराश कर गया और यह अवधारणा दे गया कि मेरा पुस्तकीय प्रेम अंग्रेजी में ही सिमटा हुआ है। हिन्दी पुस्तकें बहुत पढ़ता हूँ और खरीदने के बाद अतिशीघ्र पढ़ लेता हूँ, इसीलिये कोई हिन्दी पुस्तक बची नहीं थी। यह तथ्य ध्यान दिलाकर आपने मेरा सुख बढ़ाया है।
बहुत अच्छे शब्दों और भावों से मन की टीस का वर्णन है ..!!आपने आप से किये गए वादे ..अपने ही घर में ..अपने आगे पीछे घूमते रहते हैं ...!पर अंतर्मन में जो बात आ जाये वो देर-सबेर पूरी हो ही जाती है ...|बहुत गहरी बात सहजता से कहता हुआ ...बहुत सुंदर आलेख ...शुभकामनायें.... जल्दी ही किताबें पढ़ लीजिये ...आपकी पोस्ट पढ़ कर मुझे भी अपने आप से किये कुछ वादे याद हो आये ...
ReplyDeleteअपन तो 12 किताबें एक साथ देखकर ही गश खा जायें ... हिम्मत है आपकी।
ReplyDeleteपढने के मामले मे मुझे आई पैड ने काफी मदद की है। आई पैड हमेशा मेरे साथ रहता है, इसलिये पुस्तके हमेशा साथ रहती है। साथ मे १० मिनिट के मेट्रो/बोट/बस के सफर मे भी पढ़ लेता हूं।
ReplyDeleteपहले पुस्तक खोलो, कहां तक पढ़ा था ढुंढो, जैसे चक्कर मे १० मिनिट की यात्रा मे पढ़ नही पाता था।
बहुत ही रोचक लेख |हमको तो हैरत होती है कि आप इतने व्यस्त और जिम्मेदार पद पर वह भी रेलवे का रहते हुए इतने कमेंट्स ,ब्लागिंग पठन -पाठन कैसे संभव होता है कृपया किसी लेख में इसका भी खुलासा करें |आपका दिन मंगलमय हो |
ReplyDeleteबहुत ही रोचक लेख |हमको तो हैरत होती है कि आप इतने व्यस्त और जिम्मेदार पद पर वह भी रेलवे का रहते हुए इतने कमेंट्स ,ब्लागिंग पठन -पाठन कैसे संभव होता है कृपया किसी लेख में इसका भी खुलासा करें |आपका दिन मंगलमय हो |
ReplyDeleteतो बताया नहीं पुस्तकों को ?
ReplyDelete--भूलेगा दिल,जिस दिन तुम्हें,वो दिन .....
व्यस्त दिनचर्या में बहुत कुछ सहेजा हुआ पढने से छूट जाता है ...
ReplyDeleteकिताबें भी कह रही होंगी, नजर बचाकर कहाँ जाईयेगा!
सफ़दर हाशमी की एक कविता याद आ रही है ,'किताबें कुछ कहना चाहती हैं' ! सोचता हूँ ,उसे अपनी वाल (फेसबुक की नहीं) पर चिपका दूँ तो शायद काम बन जाए! आप भी यही कर लें.मैंने न जाने कितनी अच्छी पुस्तकें ला के सजा के रख दी हैं,पर वही,न पढ़ने के बहाने...इन्टरनेट,मोबाइल !
ReplyDeleteवैसे, आपकी इन बारह पुस्तकों में हिंदी की कोई नहीं दिख रही है ?
क्या हुआ तेरा वादा में ही जिन्दगी बिताये दे रहे हैं..पूरी अलमारी अनछुई सी लगती है अक्सर.....खासकर जब दो सुरायें उतर जायें तब तो बहुत दुख होता है....:)
ReplyDeleteसही विषय लिया फिर से....उम्मिदानुसार!!
बहुत बढिया। जब ये रोग लगा लिया, तो बच कर कहां जाएंगे।
ReplyDeleteलेकिन एक शिकायत है, चित्र में सिर्फ अंग्रेजी पुस्तकें दिख रही हैं। क्या आजकल खाली अंग्रेजी चल रही है?
:)
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मायावी मामा?
जीवन को प्रेममय बनाने की जरूरत..
सही जवाब पुस्तकों का ......
ReplyDeleteअपन तो इन दिनों अपना शौक पूरा कर पा रहे हैं। गृह नगर में वापिसी होने पर अपने शौक का पहला काम फ़िर से लाईब्रेरी का मेंबर बनने का किया। महानगरी आपाधापी में जितना समय चुरा पा रहे हैं, वादा निभाने में लगे हैं।
ReplyDeleteबहुत अच्छा शौक है, अब हमने तो Kindle को ही दोस्त बना लिया है,
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
पुस्तक न पढ़ पाने की टीस ब्लॉगरों को होनी ही है। करें तो क्या करें..? ब्लॉग पढ़ें..अपना लिखें या कि पुस्तकें पढ़ें ? सांप छछुंदर वाली गती हो जाती है। सबके मन की पीड़ा को शब्द दिया है आपने।
ReplyDeletejo vaada kiya wo nibhana hoga
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर किताबे देखकर मन खुश हो गया
ReplyDeleteअपनी पसंद की पोस्ट और पसंद भी बहुत आयी है।......बहुत सुंदर आलेख
आप का यह लेख पढ़ कर अब मेरा भी मन हो रहा है कि एक दो पुस्तकों को पढ़ने के लिए छांट ही लिया जाये
ReplyDeleteअति सर्वत्र मन है |
ReplyDeleteकहीं इसी को ध्यान में रख कर अति की, और पढने की आदत से पीछा छुडाने की कोशिश भी ||
३० वर्ष पूर्व---
उपन्यास पढने की लत लग गई थी |
एक बार लाइब्रेरी से ६ उठा लाया |
दो दिन में सब पढ़ डाली|
पढ़ते समय लगा कि सब की कथा तो मिलती जुलती है--
आदत गई |
और प्राय: स्तरीय साहित्यिक पठन-पाठन होने लगा ||
आभार प्रवीन जी ||
कहानी घर-घर की :-)
ReplyDeleteसभी 12 की 12 अंगरेजी, एक भी हिन्दी नहीं.
ReplyDelete"सारा ज्ञान पुस्तक में लिये घूमते रहते हैं और ज्ञानी होने का मानसिक अनुभव भी करते हैं।" कई लोगों के यही हाल हैं. हमारा CPU अब धीमा हो गया है. फॉर्मेट करने से मामला बन सकता है.
ReplyDelete'किकी' ( किताबी कीड़े) होने पर हम यहां वहां से अपनी खुराक ढूंढ ही लेते हैं, ये अलग बात है कि उस खुराक को खत्म करने में बाह्य कारक आड़े आ जाते हैं।
ReplyDeleteअभी पिछले महीने CST के सर्वोदय से खरीदी गई कुछ किताबें मेरे यहां भी आसन जमाये हैं। अमृतलाल नागर, परसाई, शरद जोशी, सभी बाट जोह रहे हैं। देखता हूँ कब तक इन बड़े बड़े लोगों तक पहुँच पाता हूँ :)
वैसे ये मुँह बनाये सहयात्रीयों की बात खूब कही। कभी कभी ऐसे यात्री अपनी चोंच बंद कर हमारे किकीत्व की खुराक पूरी करने में सहयोगी की भूमिका निभाते हैं। ऐसे वक्त उनका चुप रहना सुकूनदेह रहता है :)
किसी ने सच ही कहा है कि जिस घर में पुस्तकें रहती हैं उस घर का आत्मविश्वास बढ़ा रहता है।
ReplyDeleteवाह...कितनी सच्ची और अच्छी बात कही है आपने...मेरा पुस्तक प्रेम भी लगभग आप जैसा ही है, जयपुर का शायद ही कोई पुस्तक विक्रेता हो जो मुझे शक्ल देख न पहचानता हो...हालत ये है के किताबें ही किताबें हैं घर में, असली घर जयपुर में है वहां भी अलमारी भरी पड़ी है और दूसरा घर खोपोली में वहां भी किताबें ही किताबें हैं...सोचता हूँ एक समय बाद इनका होगा क्या? कौन पढ़ेगा इन सहेजी हुई किताबों को...मेरी एक मात्र आशा मेरी पोती मिष्टी है जिसका पुस्तक प्रेम देख कर मैं भी दंग रह जाता हूँ...नयी किताब आई नहीं की बस खाना टी.वी. सब बंद सिर्फ किताब की पढाई अभी वो सिर्फ पांच साल की है...एक अलमारी अभी उसकी किताबों से भर गयी है...अच्छा लगता है.
नीरज
पांडे जी ये सारी पुस्तकें अंग्रेज़ी की हैं ....दूसरे की भाषा में पढने में अधिक श्रम, समय अधिक लगता है एवं निश्चय ही मानस के मूल भावानुसार सहर्ष मन तैयार नहीं होता ,उनका सार तत्व ठीक ठीक समझने में भी भ्रम बना रहता है....
ReplyDelete---इन विषयों पर स्व भाषा की पुस्तकें खरीदिए एवं शीघ्रता से पढ़ डालिए....पुस्तकें पढ़े बिना वास्तविक व गंभीर विषयों पर सार्थक ब्लॉग्गिंग भी कैसे हो सकती है ....
कुछ अपने किये वादे भी याद आ गए.:-)
ReplyDeleteपुस्तके पढने का आनन्द ही कुछ और है।
ReplyDeleteसही है प्रवीण जी वो समय निकल गया जब पढने का खूब समय मिल जाता था ...अब बस किताबें जीभ चिढाती सी लगती है....और दिल में एक ही दर्द उठता है बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी....
ReplyDelete@ संतोष त्रिवेदी
ReplyDelete@ डॉ0 ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
@ Rahul Singh
@ Dr. shyam gupta
संभवतः अनपढ़ी पुस्तकों में हिन्दी की पुस्तक न पाना आप लोगों को निराश कर गया और यह अवधारणा दे गया कि मेरा पुस्तकीय प्रेम अंग्रेजी में ही सिमटा हुआ है। हिन्दी पुस्तकें बहुत पढ़ता हूँ और खरीदने के बाद अतिशीघ्र पढ़ लेता हूँ, इसीलिये कोई हिन्दी पुस्तक बची नहीं थी। यह तथ्य ध्यान दिलाकर आपने मेरा सुख बढ़ाया है।
बहुत दिन से कोई अंग्रेजी नॉवेल नहीं पढ़ी मैंने....सोच रहा हूँ आपके किताबों पर ही हाथ साफ़ कर लूँ...:P
ReplyDeleteवैसे मेरे भी बैग में हर समय एक या दो किताबें रहती ही हैं...और आजकल तो खूब पढ़ रहा हूँ :)
हम तो ना जाने कितनी बार वादा कर चुके है , अब तो किताबे मेरी बेशर्मी पर हसने भी लगी है . जाने कहा गए वो दिन --.
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति आज के तेताला का आकर्षण बनी है
तेताला पर अपनी पोस्ट देखियेगा और अपने विचारों से
अवगत कराइयेगा ।
http://tetalaa.blogspot.com/
पूरी पोस्ट की बातें सच्ची हैं.. सबके साथ होता है ऐसा तो..
ReplyDeleteपर अभी पुस्तकों का अम्बार नहीं लगा है.. पर धीरे-धीरे इसी स्थिति में पहुँचता नज़र आ रहा है..
अपनी ही कहानी पढता हुआ सा महसूस हुआ..
"जहाँ एक ओर आपकी शिथिलता को तो प्रकृति सहयोग करती है वहीं दूसरी ओर आपके विश्वास को परखने बैठ जाती है।"
ReplyDeleteयही तो असली संघर्ष है।
मैं भी किताब ढोता ज्यादा रहा हूँ,बनिस्बत अपेक्षानुरूप पढ़ नहीं पाता, बहाने तो कई हैं।
हाँ किताबें खरीदने का संवरण नहीं कर पाता, और इसीलिये घर में जहाँ-तहाँ किताबें बिखेरने के लिये पत्नी जी के शिकायतों का भाजन बनना पड़ता है।
सुंदर प्रस्तुति के लाये साधुवाद।
वाह ...यह वादा भी अपना जवाब मांग रहा है ...बहुत बढि़या ।
ReplyDeleteये बस आपका दर्द नहीं है हम सबका है और तो और गुलज़ार चाचा भी गुज़रे है इसी दर्द से
ReplyDeleteकिताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती है
महीनो अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें इनकी सोहबत में कटा करती थी.. अब अक्सर
गुज़र जाती है कंप्यूटर के पर्दों पर
जब मैं फुर्सत में होता हूँ , पढ़ता हूँ और तहेदिल से इन भावनाओं का शुक्रगुज़ार होता हूँ ....
ReplyDeleteवाकई आपका पुस्तक प्रेम अनुकरणीय है।
ReplyDeleteकिताबों की एक बात सबसे अच्छी होती है , वो आपका हमेशा इन्तजार करती रहती है . जब आप उसे पढने लगते हैं तो कोई शिकवा-शिकायत नहीं करती हैं. सुन्दर पोस्ट.
ReplyDeleteआते जाते जब पढ़ी हुयी पुस्तकों पर दृष्टि पड़ती है तो अपने अर्जित ज्ञान पर विश्वास बढ़ने लगता है, किसी ने सच ही कहा है कि जिस घर में पुस्तकें रहती हैं उस घर का आत्मविश्वास बढ़ा रहता है।
ReplyDelete\एकदम सच सच कह दिया आपने.बाकी यह दर्द शायद सभी का है आजकल.
बेवफाई किताबों से करके हमने, वफ़ा का मजाक उड़ा लिया है.
सुंदर प्रस्तुति..बिल्कुल व्यवहारिक..
ReplyDeleteदूर-दूर तुम रहे, पुकारते हम रहे!!
ReplyDeleteवो तो ठीक है पर स्थानांतरण पर क्या होगा पाण्डेय जी!
ReplyDeleteअपनी भी चोरी पकड़ी गई...
ReplyDeleteसटीक प्रस्तुति...
पुस्तक प्रेम सब प्रेम से अव्वल .और प्रेम क्या यह तो ओबसेशन है भाई साहब !
ReplyDeleteमेरी कुछ अनुभव जनित मान्यताएं हैं -श्रेष्ठ लेख कोई नहीं लिखता बल्कि लेख खुद को लिखा लेते हैं श्रेय लेखक को मिल जाता है -उसी तरह किताबें पढ़ा लेती हैं हम उन्हें पढ़ते नहीं .....जो श्रेष्ठ है खुद को पढ़ा लेगीं !
ReplyDeleteएक और सत्य सुन्दर लेख.
ReplyDeleteएक बार kindle ज़रूर आजमा के देखिएगा. निराश नहीं होंगे
एक समय में किताबें पढने का बहुत शौक था जबसे नेट सर्फ़िंग और ब्लागिंग में उलझे तब से समय ही नही निकाल पाते. और ज्यादा देर लेपटाप पर काम काज करते रहने की वजह से अब आंखे भी पढते समय थकने लगी हैं. वैसे मेरी निजी मान्यता यही है कि पुस्तकों से बेहतर सातःई कोई नही होता.
ReplyDeleteरामराम
कोई बात नही वह समय भी आयेगा जब आप ये वादा आसानी से पूरा कर पायेंगे । जैसे मेरे साथ हो रहा है । हालांकि यहां अंग्रेजी की ही पुस्तकें मिलती हैं लायब्रेरी में, पर अक्सर हिंदुस्तानी लेखक लेखिकाओं को खोजती रहती हूँ ।
ReplyDeleteसारा ज्ञान पुस्तक में लिये घूमते रहते हैं और ज्ञानी होने का मानसिक अनुभव भी करते हैं । यह मेरे साथ अक्सर होता है क्यूंकि सफर में वक्त कम ही मिलता है पढने का ।
सही कहा आपने आजकल सफर में ही किताब पढ़ी जा सकती हैं। मैंने अपनी पिछली बंगलौर-भोपाल यात्रा में -मृत्युंजय-पढ़ ही डाला। अन्यथा वह उपन्यास दो साल से खरीदकर रखा हुआ था।
ReplyDeleteबहुत गहरी बात सहजता से कहता हुआ बहुत सुंदर आलेख| शुभकामनायें|
ReplyDeleteबहुत ही रोचक लेख |पुस्तके भी अपना दर्द किससे कहें....धीरे धीरे हम इनसे दूर होते जारहे हैं..
ReplyDeleteआपकी पोस्ट का तो नाम ही बड़ा अच्छा है "क्या हुआ तेरा वादा" यह गीत मेरे पसंदीदा गीतों में से एक हैं खैर जितना अच्छा आपकी पोस्ट का शीर्षक है उतनी ही अच्छी आपकी पोस्ट भी है। वाकई जहां पुस्तके रहती है,वहाँ आत्मविश्वास रहता है...बढ़िया पोस्ट...शुभकामनायें
ReplyDeleteसमय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है साथ ही आपकी महत्वपूर्ण टिप्पणी की प्रतीक्षा भी धन्यवाद.... :)
http://mhare-anubhav.blogspot.com/
अनपढी किताबों की आलमारी मुझसे भी सदैव यही पूछती है...क्या हुआ तेरा वादा....
ReplyDeleteआपके लेख ने मेरे भावों को भी प्रतिध्वनि दी है..
aise he kuch hua hai mere saath bhi, kaam karne lage hai toh apne liye waqt he nhi milta...
ReplyDeletekitab toh main bht se khareedte hu, par padhne ka kuch waqt he nhi!!
पहले न तो टीवी था न अन्तरजाल - इसलिये पुस्तकों और खेल के लिये समय अधिक रहता था। लेकिन अब नहीं।
ReplyDeleteअच्छी पुस्तके अच्छे साथी की तरह हैं। यात्रा में कोई साथ हो तो यात्रा तो आराम से कट जाती ही है। और हां साथी से किया गया वादा तो पूरा करना ही चाहिए।
ReplyDeleteप्रवीण जी,
ReplyDeleteकिताबें तो सच्ची दोस्त होती हैं और आपने बहुत से दोस्त इकट्ठा कर रखे हैं। जहाँ तक न पढ़ पाने वाली बात है तो यह सबके साथ होता है। अपवाद कुछ ही होते हैं। मैं भी बिना पढ े नहीं रह पाता फिर भी बहुत कुछ बिन पढ ा ही रह गया है। हाँ, पुस्तकों की भाषा के विषय में मेरा मत अलग है। हिन्दी में लिखना - पढ ना मेरा भी है पर मैं भाषा के प्रति दुराग्रही होना ठीक नहीं समझता । अच्छी पुस्तकें हर भाषा में हैं और कई भाषाओं की पुस्तकें पढ ने से ज्ञान में और वृद्धि होती है। दूसरी भाषा के देशकाल की परंपराओं एवं चिन्तनपद्धति का भी पता चलता है और विचारों में विविधता आती है। इतना जरूर करना चाहिए कि अपनी भाषा उपेक्षित न हो। दूसरी भाषा की पुस्तकें पढ कर उनसे अपनी भाषा में लेखन करना मेरी दृष्टि में सराहनीय कार्य है।
पुस्तकों से सच्चा मित्र कोई अन्य नहीं. इन दिनों विवेकानंद की पुस्तक "आई एम् ए व्योंस विदाउट फ़ार्म " पढ़ रहा हूँ. बड़े बेटे को किताब पढने की आदत डालने की कोशिश कर रहा हूँ. बेटा को पूछता हूँ तुम्हारी फेवरेट किताब कौन सी है तो कहता है.... 'नेटिव अमेरिकन टेल्स' ..सुनकर अच्छा लगता है.... पुस्तक मेले से खरीदी थी यह किताब. बढ़िया आलेख ...
ReplyDeleteयह पीड़ा सिर्फ आपकी नहीं. पुस्तकें अब आलमारी में हमारा इंतजार करती हैं और हमारे पास समय ही नहीं..हमारे जेहन को रोशन करनेवाली पुस्तकें अब अँधेरे में कैद हैं.
ReplyDeleteप्रवीण जी ,
ReplyDeleteजब एक खुली किताब(जीवन की )सामने रखी है ,तो उसे भी तो उपेक्षित नहीं कर सकते.कभी-कभी मन न माने तो उठते-बैठते,बंद कितावें के कुछ पन्ने थोड़ा अर्थ तो दे ही जाते हैं.
अब वादा निभा भी दीजिए ... पुस्तकों का कोई विकल्प नहीं है ...
ReplyDeleteवादा किया है प्रवीन जी तो निभाना ही पड़ेगा ,पर मै अक्सर सोचती हूँ, की ये किताबे उपेक्षित न हो !
ReplyDeleteये पोस्ट बस मैं अपने नाम से लिख दूं और १२ को १३ कर दूं तो कुछ भी बदलना नहीं पड़ेगा :)
ReplyDeleteकुछ और पुस्तकें और भी आर्डर कर दी गयी है ! देखते हैं कब और कैसे वादा पूरा हो पाता है.
पुस्तक प्रेम इसी तरह तकाजे करता है....
ReplyDeleteमैं तो हमेशा जब जब टूर पे जाता हूँ २-३ किताबें साथ ले जाता हूँ ... समय का सदुपयोग भी हो जाता है इसी बहाने ...
ReplyDeleteआपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है.
ReplyDeleteकृपया पधारें
चर्चामंच-645,चर्चाकार- दिलबाग विर्क
रोचक पोस्ट !
ReplyDeleteअच्छा तो आपकी दार्शनिक लेखन शैली का राज पुस्तक पठन है।
ReplyDeleteवाह! अच्छा खासा ढेर है, इसे देखकर याद आया के मैंने भी गोदान और विंग्स ऑफ़ फायर कब से रखीं है और अभी तक शुरू नहीं की.... :(
ReplyDeleteबा वफ़ा होतीं हैं किताबें ,भरोसे मंद साथी जो अल्ज़ाइमर्स से बचाए रहता है .शुक्रिया आपके टिपियाने का .
ReplyDeleteसच है पुस्तकों से हम सभी वादे कर लेते है पर निभाते कहाँ हैं..... उन्हें घर भी ले आते हैं ......पुस्तकों के मन में भी टीस तो होगी ही.....
ReplyDeleteअंगरेजी किताबों का यह हाल। छोड़ेगी नहीं अंग्रेजी। बच के रहिएगा। …वैसे हमने वफ़ा न सीखी…लेकिन कई किताबें ऐसे ही रह जाती हैं लेकिन ऐसा नहीं कि पढ़ते नहीं…संतुलन शायद बिगड़ गया है …पढ़ने का समय और किताबों की संख्या…इधर-उधर हो गये हैं। कई तो बेहद आवश्यक किताब भी इन्तजार में है…लेकिन पढ़ लेंगे…बारह किताबें …आप 2012 तक नहीं पढ़ पाएंगे…अब यह न कहिए कि ललकार रहा हूँ…
ReplyDeleteअपना भी इन्हीं दिनों यही हाल है, बगैर पढी किताबों का ढेर बढता जा रहा है और पढ़ी हुई किताबें शायद उन्हें मुंह चिढ़ाती हैं कि देखो हमें कितने अच्छे समय में खरीदा गया था, जब मन से हमें पढ़ा गया था।
ReplyDeleteक्या कहूँ...मुझसे भी पूछती रहती हैं किताबें....'क्या हुआ तेरा वादा
ReplyDeleteVAAH....VAAH....BALLE-BALLE....AAPKI HAMAARI ABHIRUCHI EK HI HAIN....MAZZAA AA GAYAA....
ReplyDeleteपुरानी कहावत है ए मेन इज कोण बाई दी कम्पनी ही कीप्स ,बाई दी बुक्स ही रीड्स .
ReplyDeleteचाहे गीता बांचिये या पढ़िए कुरआन ,तेरा मेरा प्रेम ही .
हर अक्षर की जान .
वास्तव में बडा दुःख होता है कई बार
ReplyDeleteमहीनों हो जाते है तब जाकर
कोई किताब पुरी पढ पाते हैं।
लेख पढकर अच्छा लगा।
जल्दी वादा निभा लें तो बेहतर....बड़ा मुश्किल है यूँ संवर कर ही मिलें...जैसे जब मौका लगे...उतना तो मिलिये....
ReplyDeleteI know how it feels...
ReplyDeleteeven I have few unfinished books which constantly gazes me every single day. Coz they r arranged on my bed :D
padhne ki tum koshish karna wada kabhi na karna....wada to toot jata hai...:)
ReplyDeleteIs baar mere blog par comment ke saath apna URL daalne ke liye dhanyawad.