14.9.11

पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और संश्लेषण

पढ़ा था, यदि घर्षण नहीं होता तो आगे बढ़ना असंभव होता, पुस्तक में उदाहरण बर्फ में चलने का दिया गया था, बर्फीले स्थानों पर नहीं गया अतः घर में ही साबुन के घोल को जमीन पर फैला कर प्रयोग कर लिया। स्थूल वस्तुओं पर किया प्रयोग तो एक बार में सिद्ध हो गया था, पर वही सिद्धान्त बौद्धिकता के विकास में भी समुचित लागू होता है, यह समझने में दो दशक और लग गये।

विचारों के क्षेत्र में प्रयोग करने की सबसे बड़ी बाधा है, दृष्टा और दृश्य का एक हो जाना। जब विचार स्वयं ही प्रयोग में उलझे हों तो यह कौन देखेगा कि बौद्धिकता बढ़ रही है, कि नहीं। इस विलम्ब के लिये दोषी वर्तमान शिक्षापद्धति भी है, जहाँ पर तथ्यों का प्रवाह एक ही दिशा में होता, आप याद करते जाईये, कोई प्रश्न नहीं, कोई घर्षण नहीं। यह सत्य तभी उद्घाटित होगा जब आप स्वतन्त्र चिन्तन प्रारम्भ करेंगे, तथ्यों को मौलिक सत्यों से तौलना प्रारम्भ करेंगे, मौलिक सत्यों को अनुभव से जीना प्रारम्भ करेंगे। बहुधा परम्पराओं में भी कोई न कोई ज्ञान तत्व छिपा होता है, उसका ज्ञान आपके जीवन में उन परम्पराओं को स्थायी कर देता है, पर उसके लिये प्रश्न आवश्यक है।

स्वस्थ लोकतन्त्र में विचारों का प्रवाह स्वतन्त्र होता है और वह समाज की समग्र बौद्धिकता के विकास में सहायक भी होता है। ठीक उसी प्रकार किसी भी सभ्यता में लोकतन्त्र की मात्रा कितनी रही, इसका ज्ञान वहाँ की बौद्धिक सम्पदा से पता चल जाता है। जीवन तो निरंकुश साम्राज्यों में भी रहा है पर इतिहास ने सदा उन्हें अंधयुगों की संज्ञा दी है।

बौद्धिकता के क्षेत्र में घर्षण का अर्थ है कि जो विचार प्रचलन में है, उसमें असंगतता का उद्भव। प्रचलित विचार पूर्वपक्ष कहलाता है, असंगति प्रतिपक्ष कहलाती है, विवेचना तब आवश्यक हो जाती है और जो निष्कर्ष निकलता है वह संश्लेषण कहलाता है। संश्लेषित विचार कालान्तर में प्रचलित हो जाता है और आगामी घर्षण के लिये पूर्वपक्ष बन जाता है। यह प्रक्रिया चलती रहती है, ज्ञान आगे बढ़ता रहता है, ठीक वैसे ही जैसे आप पैदल आगे बढ़ते हैं जहाँ घर्षण आपके पैरों और जमीन के बीच होता है।

समाज में जड़ता तब आ जाती है जब पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष को स्थायी मानने का हठ होने लगता है, लोग इसे अपनी अपनी परम्पराओं पर आक्षेप के रूप में लेने लगते हैं। जब तक पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष का संश्लेषण नहीं होगा, अंधयुग बना रहेगा, लोग प्रतीकों पर लड़ते रहेंगे, सत्य अपनी प्यास लिये तड़पता रहेगा। साम्य स्थायी नहीं है, साम्य को जड़ न माना जाये, चरैवेति का उद्घोष शास्त्रों ने पैदल चलने या जीवन जीने के लिये तो नहीं ही किया होगा, संभवतः वह ज्ञान के बढ़ने का उद्घोष हो।

उपनिषद पहले पढ़े नहीं थे, सामर्थ्य के परे लगते थे, थोड़ा साहस हुआ तो देखा, सुखद आश्चर्य हुआ। उपनिषदों का प्रारूप ज्ञान के उद्भव का प्रारूप है, पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और संश्लेषण।

शंकालु दृष्टि प्रश्न उठाने तक ही सीमित है, ज्ञान का प्रकाश संश्लेषण में है।

58 comments:

  1. तथ्यों का जब हम अपने जीवन में साक्षात्कार करते हैं तब कई किले ढहते हैं,भ्रांतियां टूटती हैं और सच्चा ज्ञान मिलता है.

    ReplyDelete
  2. ज्ञान का प्रकाश संश्लेषण में है,,,बहुत बढ़िया प्रकाश डाला है इस पर...आभार!!

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर बात!

    ReplyDelete
  4. उपनिषद पहले पढ़े नहीं थे, सामर्थ्य के परे लगते थे, थोड़ा साहस हुआ तो देखा, सुखद आश्चर्य हुआ। उपनिषदों का प्रारूप ज्ञान के उद्भव का प्रारूप है, पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और संश्लेषण।
    प्रशस्ति योग्य ...बहुत ही सार्थक आलेख है ..... मन का अन्धकार दूर करता हुआ ...ज्ञान से आलोकित पथ करता हुआ ....बहुत अच्छा लगा ..बधाई..

    ReplyDelete
  5. ज्ञान का प्रकाश संश्लेषण में है यही रचना का सार है बधाई

    ReplyDelete
  6. कई बार हम चारों तरफ बिखरे ज्ञान में से ही थोड़ा-बहुत इकट्ठा कर ही स्वयं को ज्ञानी मान बैठते हैं या फिर सिरफिरे मौलिक चिंतन को भी अंतिम शब्द मान लेते हैं... दोनों ही स्थितियां सुखद नहीं हैं...synthesis को मैं तो शुरूआत भी मानता हूं.

    ReplyDelete
  7. अनुकरणीय, किंतु व्‍यवहार में आत्‍मसात करना सहज नहीं होता.

    ReplyDelete
  8. ज्ञान का प्रकाश संश्लेषण में है।

    सच में विचारणीय .....सार्थक विवेचन

    ReplyDelete
  9. वादे वादे जायते तत्वबोधः

    ReplyDelete
  10. कमाल की लेखन शैली से लिखी इबारत सदैव सुन्दर होती है |अच्छी पोस्ट

    ReplyDelete
  11. ज्ञान का प्रकाश संश्लेषण में है।
    सौ बात की एक बात!

    ReplyDelete
  12. स्वस्थ लोकतन्त्र में विचारों का प्रवाह स्वतन्त्र होता है और वह समाज की समग्र बौद्धिकता के विकास में सहायक भी होता है।

    यही तो ज्ञान दृष्टि है और यही ज्ञानार्जन का लाभ कि हम उन्मुक्त और पूर्वाग्रह रहित विचारों को अपना सकें और जीवन को अपने लक्ष्य पर पहुंचा सकें .....आपका आभार

    ReplyDelete
  13. सहमति...द्वन्द विकास की मूल धूरी है :-)

    ReplyDelete
  14. आज सभी चिंतन में लगे हैं. मुझे लगा मैं किसी कारपोरेट क्लास रूम में हूँ. "कर्षण" और "घर्षण" पर भी कभी लिखें.

    ReplyDelete
  15. जानकारी का अभाव, शंकाओं को बढाने और इर्दगिर्द घूमने के लिए काफी है !

    आज की भाषा क्लिष्ट रही, तीन बार पढ़ा फिर भी कम समझ पाया !

    कुछ हम जैसों का ख्याल रखिये आप तो समर्थ हैं सो आशा तो रखूंगा ही !

    यह नहीं कहता कि ....
    समरथ को नहीं दोष गुसाईं
    :-)

    ReplyDelete
  16. ज्ञान का प्रकाश संश्लेषण में है...बिलकुल सत्य कहा है सहमत हूँ हिंदी दिवस की शुभकामनायें

    ReplyDelete
  17. समाज में जड़ता तब आ जाती है जब पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष को स्थायी मानने का हठ होने लगता है,

    बौद्धिक विकास के साथ परम्पराएँ टूटती हैं ... समय के साथ हर चीज़ में परिवर्तन होता है ... जो स्वयं को बदलना नहीं चाहता वहीं उसका विकास रुक जाता है ... बहुत अच्छा लेख ..

    ReplyDelete
  18. बढ़िया चिंतन . जारी रहे , संश्लेषण तो पादप और मनुष्य दोनों के जीवन के लिए आवश्यक है प्रकाश और ज्ञान का .

    ReplyDelete
  19. यहाँ तक तो मेरी पहुँच ही नहीं है

    ReplyDelete
  20. द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के साथ साथ समाधानात्मक भौतिकवाद की ओर भी देखना होगा

    ReplyDelete
  21. .

    भौतिकी की मानें तो बिना घर्षण गति संभव ही नहीं है , किन्तु यदि इसे अध्यात्म से जोड़ कर देखें तो मन एक घर्षण रहित माध्यम में विचरण करता है, वहाँ घर्षण का न होना ही उसे उन्मुक्त और आजाद विचरण करवाता है। दर्शन और ज्ञान की अनंत ऊँचाइयों और गहराइयों में ले जाता है। यदि आजादी चाहिए तो हर प्रकार के मोह (घर्षण) से मुक्ति पानी ही होगी।

    .

    ReplyDelete
  22. दो चरम-बिन्दुओं के मध्य कहीं पूर्णता का होना संभव होता है -खोज हमेशा चलती है लेकिन मानदंड हर बार बदल जाते हैं-एक अनवरत प्रक्रिया !

    ReplyDelete
  23. बौद्धिकता के क्षेत्र में घर्षण का अर्थ है कि जो विचार प्रचलन में है, उसमें असंगतता का उद्भव। प्रचलित विचार पूर्वपक्ष कहलाता है, असंगति प्रतिपक्ष कहलाती है, विवेचना तब आवश्यक हो जाती है और जो निष्कर्ष निकलता है वह संश्लेषण कहलाता है।
    दर्शन को जीवन में महसूस करवाती हुई पोस्ट .जीवन जगत और प्रेक्षण चिंतन से रिश्ता दर्शन और सम्यक विश्लेषण .आभार .

    ReplyDelete
  24. आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 15 -09 - 2011 को यहाँ भी है

    ...नयी पुरानी हलचल में ... आईनों के शहर का वो शख्स था

    ReplyDelete
  25. बुद्धि का विकास भाव-प्रेषण मे है |

    ज्ञान का प्रकाश संश्लेषण में है ||














































































    ............................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................

    ReplyDelete
  26. मेरी लिए तो वाकई नई जानकारी है।
    आभार

    ReplyDelete
  27. साम्य स्थायी नहीं है, साम्य को जड़ न माना जाये, चरैवेति का उद्घोष शास्त्रों ने पैदल चलने या जीवन जीने के लिये तो नहीं ही किया होगा, संभवतः वह ज्ञान के बढ़ने का उद्घोष हो।

    वाकई यही सार तत्व है, शुभकामनाएं.

    रामराम

    ReplyDelete
  28. बढ़िया चिंतन है.जारी रहे.

    ReplyDelete
  29. प्रत्येक इकाई का स्वतंत्र अहंकार बौद्धिकता को केवल हाथी बना रहा है जिसे अंधे टटोल रहे हैं. इसप्रकार का संश्लेषण भ्रम का ही विस्तार करते हैं. आज के इस गड्ड-मड्ड वाले दौड़ में.. वैसे 'अभि ' से आपकी काफी तारीफ़ सुना था ..आज पाया भी.

    ReplyDelete
  30. कई शब्दों ने घुमा दिया है।

    ReplyDelete
  31. bahut he acche topic pe likha aapna. gyaan bahut he zaroori hai. gyaan hai toh san kuch hai, aur agar wo nhi toh kuch bhi toh nhi reh jata humare pass!

    ReplyDelete
  32. बहुत संवेदनशील चिंतन ... और ...सारगर्भित आलेख...

    ReplyDelete
  33. जड़ता चाहे जितनी भी हो समय के साथ परिवर्तन होता ही है.परिवर्तन की गति ही घर्षण का प्रमुख कारण होती है.आवेगमय परिवर्तन में घर्षण की तीव्रता भी अधिक होगी.उत्तम विचारों वाला आलेख.

    ReplyDelete
  34. aapakaa lekh padhaa,'pritipakcch-----' bahut hee prabuddh lekh hai.aapake blog par tippanee kaa kaulam nahee dhoodh paee ccchamaa kare.
    man ke-manake

    ReplyDelete
  35. गंभीर आलेख। गंभीर चिंतन।

    ReplyDelete
  36. बहुत ही सार्थक आलेख है| ज्ञान का प्रकाश है संश्लेषण में| आभार|

    ReplyDelete
  37. आपने बहुत ठीक कहा।विचार संस्लेषण ही तो वैज्ञानिक सोच का आधार है।उपनिषदों के अधिकांश अंश प्रश्न-उत्तर के रूप में ही दिये हैं, शायद उनका भी यही आधार हो कि सही प्रश्न का पूछना ज्ञान के विकास व निरंतरता का मुख्य आधार है।

    ReplyDelete
  38. बहुत अच्छे से समझाया है आपने...पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और संश्लेषण। काश कि हर विद्यार्थी को आप जैसा शिक्षक मिले।

    ReplyDelete
  39. असहमतियों के स्‍वरूप में यह संश्‍लेषण अनवरत चलता रहता है। यह तो सनातन से चल रहा है और प्रलय तक चलता रहेगा।

    ReplyDelete
  40. घर्षण के बिना रपटना तो हो सकता है लेकिन संतुलित प्रगति नहीं।

    ReplyDelete
  41. kya baat kahi hai aapne...gyan chakshu khol diye!!!

    ReplyDelete
  42. उपनिषद पहले पढ़े नहीं थे, सामर्थ्य के परे लगते थे, थोड़ा साहस हुआ तो देखा, सुखद आश्चर्य हुआ। उपनिषदों का प्रारूप ज्ञान के उद्भव का प्रारूप है, पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और संश्लेषण।
    प्रवीण जी श्रेष्ठ लेखन के लिए आपका आभार .

    ReplyDelete
  43. सच में विचारणीय .....सार्थक पोस्ट....

    ReplyDelete
  44. विचारों का घर्षण अर्थात अमृतमंथन... जो विष भी दे और अमृत भी ॥

    ReplyDelete
  45. praveen ji
    aapki is post ne bahut hi prabhavit kiya.gyan ke jharokhe par bahut hi sundarta se aapne bakhan kiya hai.
    bahut bahut badhai
    poonam

    ReplyDelete
  46. Pravin Pandey ji
    sundar post ke liye badhai sweekaren.
    मेरी १०० वीं पोस्ट , पर आप सादर आमंत्रित हैं

    **************

    ब्लॉग पर यह मेरी १००वीं प्रविष्टि है / अच्छा या बुरा , पहला शतक ! आपकी टिप्पणियों ने मेरा लगातार मार्गदर्शन तथा उत्साहवर्धन किया है /अपनी अब तक की " काव्य यात्रा " पर आपसे बेबाक प्रतिक्रिया की अपेक्षा करता हूँ / यदि मेरे प्रयास में कोई त्रुटियाँ हैं,तो उनसे भी अवश्य अवगत कराएं , आपका हर फैसला शिरोधार्य होगा . साभार - एस . एन . शुक्ल

    ReplyDelete
  47. Anonymous15/9/11 21:45

    waah ..adbhut...

    ReplyDelete
  48. समाज में जड़ता तब आ जाती है जब पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष को स्थायी मानने का हठ होने लगता है, लोग इसे अपनी अपनी परम्पराओं पर आक्षेप के रूप में लेने लगते हैं। जब तक पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष का संश्लेषण नहीं होगा, अंधयुग बना रहेगा, लोग प्रतीकों पर लड़ते रहेंगे, सत्य अपनी प्यास लिये तड़पता रहेगा। साम्य स्थायी नहीं है, साम्य को जड़ न माना जाये, चरैवेति का उद्घोष शास्त्रों ने पैदल चलने या जीवन जीने के लिये तो नहीं ही किया होगा, संभवतः वह ज्ञान के बढ़ने का उद्घोष हो।

    अद्भुत विश्लेषण.....

    ReplyDelete
  49. "समाज में जड़ता तब आ जाती है जब पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष को स्थायी मानने का हठ होने लगता है"

    उपरोक्त से सहमत हूँ...बढ़िया अभ्व्यक्ति....आभार

    ReplyDelete
  50. सर जीवन के निष्कर्ष भी निकालने ही चाहिए !

    ReplyDelete
  51. बढ़िया चिंतन....बहुत अच्छे से समझाया है आपने

    ReplyDelete
  52. सादर आमंत्रण आपकी लेखनी को... ताकि लोग आपके माध्यम से लाभान्वित हो सकें.

    हमसे प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जुड़े लेखकों का संकलन छापने के लिए एक प्रकाशन गृह सहर्ष सहमत है.

    स्वागत... खुशी होगी इसमें आपका सार्थक साथ पाकर. आइये मिलकर अपने शब्दों को आकार दें

    ReplyDelete
  53. यह सत्य तभी उद्घाटित होगा जब आप स्वतन्त्र चिन्तन प्रारम्भ करेंगे, तथ्यों को मौलिक सत्यों से तौलना प्रारम्भ करेंगे, मौलिक सत्यों को अनुभव से जीना प्रारम्भ करेंगे। बहुधा परम्पराओं में भी कोई न कोई ज्ञान तत्व छिपा होता है, उसका ज्ञान आपके जीवन में उन परम्पराओं को स्थायी कर देता है, पर उसके लिये प्रश्न आवश्यक है |
    आपके विचारों से मैं बहुत प्रभावित हूँ मेरा भी यही सोचना है की सिर्फ किताबी ज्ञान बच्चो के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं ला सकते उन्हें स्वतंत्र शिक्षा का ज्ञान देना भी बहुत जरूरी है |
    बहुत खूबसूरत विचार आपकी बात से सहमत |

    ReplyDelete
  54. Synthesis of knowledge..
    the whole idea is interesting.

    A fantastic read as ever.

    ReplyDelete
  55. वैचारिक लोगों में जब मताग्रह पैदा हो जाता है तो मानव के मस्तिष्क का विकास रुक जाता है

    ReplyDelete