स्पष्ट
रूप से याद है, आईआईटी के प्रारंभिक
दिन थे, रैगिंग अपने उफान पर थी, दिन भर बड़ी उलझन रहती थी और सायं होते होते मन
में ये विचार घुमड़ने लगते थे कि आज पता नहीं क्या होगा?
दिन भर
कक्षाओं में प्रोफेसरों की भारी भारी बातें, नये रंगरूटों को अपने बौद्धिक उत्कर्ष से भेदती उनकी विद्वता, चार वर्षों में आपके भीतर के सामान्य
व्यक्तित्व को आइन्स्टीन में बदल देने की उनकी उत्कण्ठा, श्रेष्ठता की उन पुकारों में सीना फुलाने का प्रयास करती आपकी आशंका और उस
पर हम जैसे न जाने कितनों के लिये अंग्रेजी में दिये व्याख्यानों को न पचा पाने की
गरिष्ठता। ऐसी शैक्षणिक जलवायु में दिन बिताने का भारीपन मन में बड़ी गहरी थकान
लेकर आता था।
हम तो
सात वर्षों के छात्रावास के अनुभव के साथ वहाँ पहुँचे थे पर कईयों के लिये किसी
नये स्थान पर अपरिचितों से पहला संपर्क उस भारीपन को और जड़ कर रहा था। यह भी ज्ञात
था कि रात्रि के भोजन के बाद ही रैगिंग के महासत्र प्रारम्भ होते हैं। कई मित्र इन
सबसे बचने के लिये 5 किमी दूर स्थित
गुरुदेव टाकीज़ में रात्रि का शो देखने निकल जाते थे और वह भी पैदल, न जाने की जल्दी और न ही आने की, बस किसी तरह वह समय निकल जाये। कुछ मित्र
स्टेडियम में जाकर रात भर के लिये सो जाते थे, नील गगन और वर्षाकाल के उमड़े बादलों के तले।
तुलसी
बाबा के "हुइहे वही जो राम रचि
राखा" के उपदेश को मन में बसा
कर हम तो अपने कमरे में जाकर सो जाते थे। जब रात में जगाई और रगड़ाई होनी ही है तो
कमाण्डो की तरह कहीं भी और कभी भी सोने की आदत डाल लेनी चाहिये। जैसी संभावना थी, रात्रि के द्वितीय प्रहर में सशक्त न्योता आ
जाता है, आप भी पिंक फ्लॉयड के "एनादर ब्रिक इन द वाल" की तरह अनुभव करते हुये उस परिचय-प्रवृत्त समाज का अंग बन जाते हैं।
रैगिंग
पर विषयगत चर्चा न कर बस इतना कहना है कि उस समय औरों के कष्ट के सामने अपने कष्ट
बौने लगने लगते हैं और विरोध न कर चुपचाप अनुशासित बने रहने में आपको रैगिंग करने
वालों से भी अधिक आनन्द आने लगता है। परम्पराओं ने हर क्षेत्र में संस्कृति को
कितना कुछ दिया है, इसकी पुष्टि
घंटों चला धाराप्रवाह अथक कार्यक्रम कर गया।
डैडी दा
पैसा पुतरा मौज कर ले, तेरा जमाना
पुतरा मौज कर ले.....
उनके
पास तो प्रोफेसरों के द्वारा सताये दिन को भुलाने का बहाना था, गले के नीचे उतारने को सोम रस था, उड़ाने के लिये डैडी दा पैसा था, आनन्द-उत्सव में सर झुकाये सामने खड़े जूनियरों का समूह था, मित्रों का जमावड़ा था,
युवावस्था की ऊर्जा थी। उनकी मौज के सारे कारक उपस्थित थे।
हमारे
पास तो कुछ भी नहीं था, पर उस दिन विपरीत परिस्थितियों में भी हमें उन सरदार जी से अधिक आनन्द आया होगा क्योंकि
हमें तो उनकी मौज पर भी मौज आ रही थी। अब यदि डैडी के पास उड़ाने वाला पैसा नहीं है
तो क्या मौज नहीं कर सकते?
अब यदि डैडी के पास उड़ाने वाला पैसा नहीं है तो क्या मौज नहीं कर सकते..?
ReplyDeleteगुरुमंत्र हो सकता है यह तो हर जनरेशन के लिए ..... ज़बरदस्त पोस्ट है :)
मौज तो मन की और मन से ही हो सकती है.
ReplyDeleteमौज तो बस डैडी के पैसे के बाद ही बंद हो जाती है -अपनी कमाई से भला कहाँ मौज !
ReplyDeleteवैसे यथार्थ तो यही है। जो भी मौज की, वह डैडी के ही पैसे पर हुई। अपनी कमाई में तो एक ढंग की पुस्तक भी खरीदने के पहले दो बार सोचना पडता है कि महँगी तो नहीं और महीने का बजट न गडबड हो जाय। सुंदर , संतुलित व अति रोचक प्रस्तुति ।
ReplyDeleteअपनी कमाई हुई धनराशि को मौज-मस्ती में उड़ाने में वाकई में कष्ट होता है।
ReplyDeleteबाप की कमाई पर ही तो मौज-मस्ती कर रहे हैं आज के कर्णधार!
अब.. ये उड़ाने वाला पैसा ? कैसा होता है ???
ReplyDeleteमौज तो डैडी के ही माल से होती है...
ReplyDeleteयथार्थ को चित्रित करता बढ़िया आलेख
ReplyDeleteपैसा उड़ाने का मजा तो डैडी के पैसा का ही है। काश हम भी यह आनन्द ले पाते?
ReplyDeleteमौज की मौज लेने वाले ही तो असली ताऊ होते हैं, उनके आनंद को कौन छिन्न भिन्न कर सकता है? बहुत उत्कॄष्ट सोच, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
सही लिखा है ....परम्पराएँ हमारी संरक्षक तो हैं ही ...तभी उन विपरीत परिस्थितियों में भी आपको अपने कर्तव्य से बांधे रखा ...वर्ना बिगड़ने वालों को बिगड़ने का बहाना चाहिए ...
ReplyDeleteमौज़ के लिए पैसा नहीं मन की मनमौजी अवस्था चाहिए होती है|
ReplyDeleteजिनके डैडी के पास उड़ाने वाला पैसा नहीं होता है उनके मौज लेने के तरीक़े अलग होते हैं :)
ReplyDeleteअलबत्ता कमी उनकी मौज में भी कोई नहीं होती.
रोचक संस्मरण।
ReplyDeleteबधाई!
हमारे तो दो पुत्र क्रमशः तॄतीय और द्वितीय वर्ष में अध्धयनरत हैं, आई.आई.टी. कानपुर में ,और मै पूछता रहता हूं कि क्या और पैसों की आवश्यकता है तो वे दोनो कहते हैं ,अभी पहले वाले ही नही खर्च हो पाये हैं ,वे दोनो तो बिना पैसों के ही एकदम मस्त रहते हैं और लगभग सभी क्रिया-कलापों मे मस्त रहते हैं । हाँ ! मै जब मोती लाल नेहरू इंजीनियरिंग कालेज .इलाहाबाद में था ,तब मैं जरूर अभाव महसूस करता था,वास्तव मॆं अभाव में ही था ,फ़िर भी मस्त रहने में कभी कोई कसर नही छोड़ी थी,आज भी मेरी अभूतपूर्व खुराफ़ातें मेरे दोस्त याद करते हैं । हाँ ,जेब में पैसे हो तो थोड़ा दोस्तों पे जलवा तो होता ही है !!!
ReplyDeleteहमारे भाग्य मे यह सब नही था . लेकिन डैडी का पैसा मेहनत का था इस्लिये चाहते हुये भी मौज की हिम्मत ना कर सके
ReplyDeleteहमारे पास तो कुछ भी नहीं था, पर उस दिन विपरीत परिस्थितियों में भी हमें उन सरदार जी से अधिक आनन्द आया होगा क्योंकि हमें तो उनकी मौज पर भी मौज आ रही थी। अब यदि डैडी के पास उड़ाने वाला पैसा नहीं है तो क्या मौज नहीं कर सकते?
ReplyDeleteमौज करने के लिए पैसों की ज़रूरत नहीं होती ... दिमाग खुराफाती होना चाहिए :):)
पेंशन और पगार में यही अंतर है.
ReplyDeleteअत्यंत सारगर्भित चिंतन ..
ReplyDeleteमौज के लिए पैसा क्या जरूरी है?
ReplyDeleteमुझे हॉल- २ के अहलुवालिया जी याद आये जो हम सबको अपने पेसे से अमिताभ की हर पिक्चर दिखाते थे चाहे गुरुदेव में हो या हीर पैलेस में . मौज तो दिमाग का प्रोडक्ट है .
ReplyDeleteमौज लेने वाले हर हाल में मौज ले ही लेते हैं। जब काम अधिक हो तो बोझ समझ कर करने से बेहतर है कि काम का ही आनंद लिया जाय। किसी विदेशी साहित्यकार ने कहा भी है कि जब बलात्कार अवश्यसंभावी हो जाय तो विरोध करने के बजाय उसका आनंद लेना चाहिए।
ReplyDeleteप्रवीण जी ,
ReplyDeleteडैडी दा पैसा पुतरा मौज कर ले,
हमने तो अपने पैसे से भी मौज नही करी ....
मौज करते रहें ,और अपने बच्चों को भी कराएँ .
शुभकामनाये!
बहुत सुन्दर --
ReplyDeleteप्रस्तुति |
बधाई |
D C Gupta
I S M
Dhanbad
मौज-मस्ती भला कब पैसों के लिये रुकी है उसके लिये तो मात्र एक बहाना चाहिये...
ReplyDeleteआप कमाई कीमती , बाप कमाई धूल
ReplyDeleteखुद उड़ाये मौजा लगे,बेटा उड़ाये हिय-शूल.
मौज मना पर-मौज पर.प्रवीण पाण्डेय का मंत्र
अपना ले हर यूथ तो सुधरे जीवन-तंत्र.
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति आज के तेताला का आकर्षण बनी है
तेताला पर अपनी पोस्ट देखियेगा और अपने विचारों से
अवगत कराइयेगा ।
http://tetalaa.blogspot.com/
मौजां ही मौजां...इधर भी, उधर भी!
ReplyDeleteमौज़ लेने की चाह्त हो तो फ़कीर भी ले लेता है :-)
ReplyDeleteअब यदि डैडी के पास उड़ाने वाला पैसा नहीं है तो क्या मौज नहीं कर सकते?
ReplyDeleteबिलकुल नहीं कर सकते......
अब यदि डैडी के पास उड़ाने वाला पैसा नहीं है तो क्या मौज नहीं कर सकते?
ReplyDeleteबिलकुल नहीं कर सकते......
हाय हाय ये मजबूरी..... आइन्स्टाइन बनते बनते रेल ठेलना नसीब में :) अब तो रेगिंग एक अपराध माना जाएगा॥
ReplyDeleteहमने तो जी दूसरों के पैसे पर मौज करनेवाले बहुत देखे हैं. जब संत माखन खाते हैं तो भक्तों को छाछ मिल ही जाती है.
ReplyDeleteमेरी न तो कभी रैगिंग हुई और न ही मैंने किसी की रैगिंग ली. यह सीनियर और जूनियर का फंडा ही समझ में नहीं आता . भाई लोग वहां पढ़ने जाते हैं, श्यान्पंती करने नहीं.
मौज करने के लिए पैसों की ज़रूरत नहीं होती ... दिमाग खुराफाती होना चाहिए.....
ReplyDeletejai baba banars.....
अति रोचक प्रस्तुति ।
ReplyDeleteआपका आलेख,’डेडी का पैसा------’पढा,बहुत सच्चा चिट्ठा आपने खोला है.वही रेगिंग उन दिनों अपनत्व की भावनाओं से जुडी होती थी,परंतु,अब उस परिचय के माहोल में पशविक पृवत्तियां ने जगह ले ली है.
ReplyDeleteआपका आलेख,’डेडी का पैसा------’पढा,बहुत सच्चा चिट्ठा आपने खोला है.वही रेगिंग उन दिनों अपनत्व की भावनाओं से जुडी होती थी,परंतु,अब उस परिचय के माहोल में पशविक पृवत्तियां ने जगह ले ली है.
ReplyDeleteहमारे एक मित्र इसे Hotel D'Papa कहा करते थे..
ReplyDeletemauj apne andar hi hota hai...
ReplyDelete‘हास्टल के दिन भी क्या दिन थे’..हमने भी खूब सुर बेसुर गाया है भाई !
ReplyDeleteजीवन के यही चार दिना, जिंदगी न चले मौज बिना....
ReplyDeleteबहुत खूब प्रवीण जी !आपकी शैली और कथ्य दोनों सम्मोहित करतें हैं ,अब तो लगता है "गुजरा ज़माना रेगिंग का ..."?
ReplyDeletewow, college ke dino ki yaad dila de aapke iss post ne.
ReplyDeleteab toh papa ke paise udhane ke umar mere bhi nhi rhe!!
nice article
ReplyDeleteragging is crime and who ever does it should be suspended forever on the spot.
मौज तो अपने मन से ही होती है। पैसा, पावर ये सिर्फ़ भरमाने वाली चीजें हैं, ये अलग बात है कि हम प्राय: इनसे भरम जाते हैं।
ReplyDeleteभाई, रैगिंग के अपने अनुभव याद आ गए. हमारे सीनियर अपनी हर ज्यादती की भी व्याख्या इस तरह करते थे जैसे सारा आदर्शवाद उन्हीं के पास गिरवी धरा है. काश इन परिचय सत्रों में से अशिष्टाचार और क्रूरता को निकाला जा सकता!
ReplyDeleteबस यही उत्साह की जिंदगी ही वसूल वाली है बाकी तो कुल उधार खाता..!
ReplyDeleteमौज करने के लिए तो मन ही काफी है।
ReplyDeleteप्रवीण जी आपके लेखन में ये तो कहीं नहीं झलक रहा कि आपको डैडी का पैसा ना होने का कोई मलाल था । वो लोग तो पैसे उड़ा कर मौज ले रहे थे और आप तो मन की मौज मुफ्त में ले रहे थे ।
ReplyDeleteहमें पढ़ कर ही मौज आ गयी आप के तो फिर क्या कहने
बिलकुल कर सकते हैं. आजकल पंजाब में हूँ. दारु नहीं पीता. लेकिन दारू पिए लोगों की हरकतों को देखने में जो आनंद है.... वो और कहाँ?
ReplyDeleteआशीष
उत्कृष्ट शैली में लिखा एक रोचक और शिक्षाप्रद आलेख बधाई आदरणीय पाण्डेय जी
ReplyDeleteNice Post...
ReplyDeleteआज तो गणेश-चतुर्थी है. गणेश भगवान जी तो मुझे बहुत प्रिय हैं. कित्ते सारे मोदक (लड्डू) खा जाते हैं. कोई रोकने-टोकने वाला भी नहीं. और हम बच्चे अगर ज्यादा मिठाई खाने लगें तो दांत से लेकर पेट तक ख़राब होने की बात. ...गणेश चतुर्थी पर सभी को बधाई !!
प्रवीण भाई "इन दिनों कुछ लोग विदेशी बाप के पैसे पर अन्ना जी की भी रेंगिंग करना चाह रहें हैं .सावधान रहें इन देश -घातियों,पंचान्गियों से .आदर एवं नेहा से -
ReplyDeleteशुक्रिया प्रवीण भाई साहब !
ReplyDeleteबुधवार, ३१ अगस्त २०११
मुद्दा अस्पताल नहीं है ?
http://veerubhai1947.blogspot.com/
shandar prastuti sir...ham bhi in halaton se thoda bahut 2-4 hue hai..to yaden taja huyi...
ReplyDeleteबहुत बढिया प्रस्तुति ..
ReplyDeleteगणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनायें!
छात्र-जीवन का दिलचस्प लगा यह संस्मरण. आभार. गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएं .
ReplyDeleteसर रैगिंग का नाम लेते ही डर भी आता है और मजा भी ! झेलने और खेलने पड़ते है !wish you a happy Ganesha chaturthi
ReplyDeleteकहाँ कहाँ नहीं भागते थे लोग उन दिनो. हम तो एक ही दिन भागे फिर जो होगा देख लेंगे पर उतर आये :)
ReplyDeleteमौज तो मन से होती है....जरुर कर सकते हैं प्रभु..खैर आपने तो की भी...:)
ReplyDeleteगणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteडैडी होते ही इसी लिए हैं... अति रोचक प्रस्तुति ।आभार...
ReplyDeleteAwesome read !!
ReplyDeleteKeep enjoying :)
जब हम पढ़ते थे ,तब वातावरण ऐसा नहीं था ,न आज जैसी स्थितियाँ थीं.आज जितना पैसा भी अधिकांश डैडियों के पास नहीं होता होगा .तभी ऐसी बातें सुनने में नहीं आती होंगी.पर वे दिन भी अच्छे थे .
ReplyDeleteसोच को नई दिशा देने वाली महत्पूर्ण प्रस्तुति ....
ReplyDeleteगणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनायें!
डैडी के पैसों की बात ही कुछ और होती है, दर्द पुतरा को नहीं होता और डैडी बिचारा लुटता देखता रहता है।
ReplyDeleteमौज का पैसे से क्या लेना देना ..गज़ब की पोस्ट.
ReplyDeleteछात्र-जीवन का संस्मरण दिलचस्प लगा| आभार|
ReplyDeleteहर किसी को कहां होता है डैडी दा पैसा मौज के लिये । पर किसी और की मौज से मौज लेना आ जाये तो फिर क्या मौजा ही मौजा ।
ReplyDeleteआपने पुराने संस्मरण के बहाने एक बड़ी बात कह दी. मौज के भी कई रंग हैं.किसी को किसी चीज़ में मौज मिलती है तो उसी में किसी को ऊब !
ReplyDeleteआपकी किसी पोस्ट की चर्चा शनिवार ३-०९-११ को नयी-पुरानी हलचल पर है ...कृपया आयें और अपने विचार दें......
ReplyDeleteवाह वाह क्या बात है आपने तो विद्यालयीय जीवन के सारे राज खोल दिए...मन करता है की उन दिनों में फिर वापस चले जाएँ ...पर अब कह्हन वो मौज वाले दिन...घर में गुर्राहट ...बाहर विद्यार्थियों को दिए जाते हैं उपदेश ..जय हो आपकी !!!
ReplyDeleteबहुत दिनों के बाद कुछ फुर्सत मिली है...!
ReplyDeleteसुन्दर लेख...सभी के लिए...
जो इस दौर से गुज़र चुके हैं,जो गुज़र रहे हैं
और जो गुज़रने वाले है उनके लिए भी...!!
लो जी हम तो हाल ही में छोटे बेटे को जबलपुर के इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिल करवाकर लौटे हैं। रह रहा है वह भी एक प्राइवेट होस्टल में। अब अपने पास तो बस उतने ही हैं जितने होने चाहिए। पुतरा मौज करें कि सौज.. ये तो वे ही जानें।
ReplyDeleteमैं पेशे से फैशन designer हूँ
ReplyDeleteऔर पढाई भी पंजाब के ही एक फैशन कॉलेज से की है
इस रचना को पढ़ते वक़्त मुझे कॉलेज के दिन याद आ गए
:)
:) :)
ReplyDeleteक्या बात है...और भी कुछ बताइए :)
अपना पैसा तो कोई कोई ही उड़ाता है और उड़ाना पड भी जाए तो बाद में मन दुखता है पर डैडी का पैसा उडाने में जो सुख है वो और कहाँ...
ReplyDeleteवो बीते दिन और वो पुरानी यादें ...
ReplyDeleteपर ये सच है की देदी के पैसों पर सबसे ज्यादा ऐश हो सकती है ... अपने जाते हैं तो दिल दुखता है ...
सही कहा, अपना कमाने पर तो हर आदमी सोच-समझकर खर्च करने लगता है।
ReplyDeleteअपनी कमाई हुई दौलत से कितना भी मजे कर ले
ReplyDeleteपर वो आनंद नही आता।
आपका बहुत बहुत धन्यवाद
ReplyDelete