मिला था
मुझे एक सुन्दर सबेरा,
मैं
तजकर तिमिरयुक्त सोती निशा को,
प्रथम
जागरण को बुलाने चला था,
मैं अस्तित्व
तम का मिटाने चला था ।।
विचारों
ने जगकर अँगड़ाइयाँ लीं,
सूरज की
किरणों ने पलकें बिछा दीं,
मैं
बढ़ने की आशा संजोये समेटे,
विरोधों के
कोहरे हटाने चला था ।
मैं अस्तित्व
तम का मिटाने चला था ।।१।।
अजब सी
उनींदी अनुकूलता थी,
तिमिर
में भी जीवित अन्तरव्यथा थी,
निराशा
के विस्तृत महल छोड़कर,
मैं आशा की
कुटिया बनाने चला था ।
मैं अस्तित्व
तम का मिटाने चला था ।।२।।
प्रतीक्षित
फुहारें बरसती थीं रुक रुक,
पंछी थे
फिर से चहकने को उत्सुक,
तपित
ग्रीष्म में शुष्क रिक्तिक हृदय को,
मैं वर्षा के
रंग से भिगाने चला था ।
मैं अस्तित्व
तम का मिटाने चला था ।।३।।
कहीं मन
उमंगें मुदित बढ़ रही थीं,
कहीं
भाव-वीणा स्वयं बज रही थीं,
भुलाकर
पुरानी कहीं सुप्त धुन को,
नया राग मैं
गुनगुनाने चला था ।
मैं अस्तित्व
तम का मिटाने चला था ।।४।।
विचारों ने जगकर अँगड़ाइयाँ लीं,
ReplyDeleteसूरज की किरणों ने पलकें बिछा दीं,
मैं बढ़ने की आशा संजोये समेटे,
विरोधों के कोहरे हटाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था
हर पंक्ति उजास और उल्लास की सोच लिए .......पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा.....
सुन्दर!
ReplyDeleteI guess this is first time I am reading your poetry and just like your proses it is equally fantastic.
ReplyDeleteLines are full of potency and gives a sense of luminosity to the reader.
Loved it as ever !!!
ek sundar geet aur us par sundar chitra...
ReplyDeleteकहीं मन उमंगें मुदित बढ़ रही थीं,
ReplyDeleteकहीं भाव-वीणा स्वयं बज रही थीं,
भुलाकर पुरानी कहीं सुप्त धुन को,
नया राग मैं गुनगुनाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था
नई रौशनी ..नवल चेतना युक्त ...बहुत सुंदर उद्गार ह्रदय के ....!!
भुलाकर पुरानी कहीं सुप्त धुन को,
ReplyDeleteनया राग मैं गुनगुनाने चला था !
बढ़िया अभिव्यक्ति ....शुभकामनायें आपको !
बहुत मनभावन कविता -आशा ,विश्वास और उत्साह से लबरेज.......
ReplyDeleteकहीं मन उमंगें मुदित बढ़ रही थीं,
ReplyDeleteकहीं भाव-वीणा स्वयं बज रही थीं,
भुलाकर पुरानी कहीं सुप्त धुन को,
नया राग मैं गुनगुनाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था ।।४।।
जीवन इसी का नाम तो है कि हम अपने मन के निराशावादी भावों को भुलाकर हमेशा नए जोश के साथ आगे बढ़ते रहें ....!
सुन्दर गीत !
ReplyDeleteBehtreen! Behtreen!
ReplyDeleteभाई पाण्डेय जी बहुत ही सुंदर कविता बधाई |have a nice day
ReplyDeleteभाई पाण्डेय जी बहुत ही सुंदर कविता बधाई |have a nice day
ReplyDeleteवर्तमान परिदृश्य पर सटीक कविता, बधाई।
ReplyDeletebeautiful..looking forward to yr recital on 10th seop.
ReplyDeleteसामयिक रचना! आपके प्रयास निरर्थक नहीं होंगे,शुभकामनाएँ !
ReplyDeleteकहीं मन उमंगें मुदित बढ़ रही थीं,
ReplyDeleteकहीं भाव-वीणा स्वयं बज रही थीं,
भुलाकर पुरानी कहीं सुप्त धुन को,
नया राग मैं गुनगुनाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था ।। आशावादी स्वर ज़िन्दगी के पटरी एक नया जोश लिए ,गीत का हर बंद अंतरा एक निश्चय भाव लिए आगे बढ़ता है गेयता लिए सांगीतिक लय ताल लिए .सुन्दर मनोहर सांगीतिक बंदिश के योग्य गीत .बधाई ,आभार सांझा करने के लिए .
. August 16, 2011
उठो नौजवानों सोने के दिन गए ......http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
सोमवार, १५ अगस्त २०११
संविधान जिन्होनें पढ़ लिया है (दूसरी किश्त ).
http://veerubhai1947.blogspot.com/
मंगलवार, १६ अगस्त २०११
त्रि -मूर्ती से तीन सवाल .
बहुत ही प्यारी रचना,गंभीर सोच को सरलता व खूबसूरती से पिरोया है आपने...
ReplyDeleteमिला था मुझे एक सुन्दर सबेरा,
ReplyDeleteमैं तजकर तिमिरयुक्त सोती निशा को,
प्रथम जागरण को बुलाने चला था,
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था ।।
वाह! प्रवीन जी,
गीत की जितनी भी प्रसंशा की जाय कम है ! हर पंक्ति वर्तमान सन्दर्भों की संवेदना बड़ी प्रबलता से मुखरित कर रही है !
मेरा साधुवाद स्वीकार करें !
धरा का हर कण , प्रकाश पुंज , चिन्तनशील और देदीप्यमान हो
ReplyDeleteकर सके समूल नाश, तिमिर और तमस का, हम ऐसे प्रकाशवान हो
सुँदर गीत .
तम ज़रूर मिटेगा .. अच्छी आशावादी रचना .. प्रयास जारी रहना चाहिए ..
ReplyDeleteसुन्दर गीत
वाह ! गुनगुनाकर डालिए इसे.
ReplyDeleteकहीं मन उमंगें मुदित बढ़ रही थीं,
ReplyDeleteकहीं भाव-वीणा स्वयं बज रही थीं,
भुलाकर पुरानी कहीं सुप्त धुन को,
नया राग मैं गुनगुनाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था... nai subah jagmagane ko hai
अन्ना जी को पूर्ण समर्थन विदित होता है, इस कविता से . भ्रष्टाचार के तम को वे भी मिटाने चले हैं, सामयिक बात लिखी है
ReplyDeleteभुलाकर पुरानी कहीं सुप्त धुन को,
ReplyDeleteनया राग मैं गुनगुनाने चला था !
वाह ...बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ...।
वाकई जागने का समय तो हैं ही. बहुत प्रेरणा वर्धक मन-गीत. प्रवीन भाई.:-)
ReplyDeletesarthak rachna...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी रचना !
ReplyDeleteसच बाते, ऐसा भी होता ही है।
ReplyDeleteएक बिलकुल अलग सोच ...... अच्छा लगा पढ़ना .......
ReplyDeleteविचारों ने जगकर अँगड़ाइयाँ लीं,
ReplyDeleteसूरज की किरणों ने पलकें बिछा दीं,
मैं बढ़ने की आशा संजोये समेटे,
विरोधों के कोहरे हटाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था
बहुत सुंदर.
क्या बात है...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...आनन्द आ गया.
ReplyDeleteकहीं मन उमंगें मुदित बढ़ रही थीं,
ReplyDeleteकहीं भाव-वीणा स्वयं बज रही थीं,
भुलाकर पुरानी कहीं सुप्त धुन को,
नया राग मैं गुनगुनाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था
bahut hi sundar abhivyakti......thanks.
panktiyan badia hai .... achi lagi
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 18 - 08 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज ... मैं अस्तित्त्व तम का मिटाने चला था
धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
ReplyDeleteकुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है,
मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज़ रो रहा है?
--दिनकर
इस सुन्दर रचना पर टिप्पणी में देखिए मेरे चार दोहे-
ReplyDeleteअपना भारतवर्ष है, गाँधी जी का देश।
सत्य-अहिंसा का यहाँ, बना रहे परिवेश।१।
शासन में जब बढ़ गया, ज्यादा भ्रष्टाचार।
तब अन्ना ने ले लिया, गाँधी का अवतार।२।
गांधी टोपी देखकर, सहम गये सरदार।
अन्ना के आगे झुकी, अभिमानी सरकार।३।
साम-दाम औ’ दण्ड की, हुई करारी हार।
सत्याग्रह के सामने, डाल दिये हथियार।४।
विरोधों के कोहरे हटाने चला था ।
ReplyDeleteमैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था .
-
कविता मन को प्रमुदित करती है,लेकिन एक बात नहीं समझ पा रही हूँ -'चला था' के स्थान पर 'चला हूँ ' क्यों नहीं कर सके आप ?
बीत गई सो बात गई .अब वर्तमान में चलिये बहुत लोग साथ होंगे !
कवता तो अपनी जगह सुन्दर है ही किन्तु आपकी शब्दावली हिन्दी के अपने मूल स्वरूप में जीवित रहने का भरोसा दिलाती है।
ReplyDeleteवाह!! सुंदर शव्दावली व सार्थक भावपूर्ण रचना...व काव्य कला में भी सौंदर्यपूर्ण ...बधाई..
ReplyDelete----ये 'मैं' कौन है जी.??. यदि गिरधारी जी के अनुसार अन्ना हैं तो अभी से था क्यों..अभी तो चल ही रहा है ...हूँ या है ..हो तो सटीक रहेगा...
कहीं मन उमंगें मुदित बढ़ रही थीं,
ReplyDeleteकहीं भाव-वीणा स्वयं बज रही थीं,
भुलाकर पुरानी कहीं सुप्त धुन को,
नया राग मैं गुनगुनाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था
परिपक्व उम्र की सकारात्मक सोच.अति सुंदर.
निराशा के विस्तृत महल छोड़कर,
ReplyDeleteमैं आशा की कुटिया बनाने चला था
सुन्दर शब्द संयोजन और बेहतरीन भाव
शब्द शब्द आशा का संचार करते हुए मानो कह रहा है,
ReplyDeleteतमसो मा ज्योतिर्गमय ।
सुन्दर!
ReplyDeleteमिला था मुझे एक सुन्दर सबेरा,
ReplyDeleteमैं तजकर तिमिरयुक्त सोती निशा को,
प्रथम जागरण को बुलाने चला था,
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था ।।
kya gazab ka likha hai.......wah.
नमस्कार प्रवीण जी ...
ReplyDeleteइस लाजवाब रचना को पढ़ कर जैसे अँधेरा मिट रहा है ... बहुत ओज़स्वी लयबद्ध ... अति सुन्दर ...
बहुत सुन्दर कविता।
ReplyDeleteप्रवीण जी आपका लेखन और कवितायें देखकर लगता है जैसे किसी उच्च कोटि के कवि की रचनायें हैं। अफसर श्रेणी के लोगों द्वारा ऐसी कविताओं के सृजन कम ही देखने को मिलता है।
.
ReplyDeleteमैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था...
Lovely creation !
.
आशा का उजास फ़ैलाती खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
कहीं मन उमंगें मुदित बढ़ रही थीं,
ReplyDeleteकहीं भाव-वीणा स्वयं बज रही थीं,
भुलाकर पुरानी कहीं सुप्त धुन को,
नया राग मैं गुनगुनाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था ।।४।।
रचना के भाव, शब्द संयोजन, लय मन में एक अजीब ताज़गी भर देती है..अद्भुत प्रस्तुति ..
कहीं मन उमंगें मुदित बढ़ रही थीं,
ReplyDeleteकहीं भाव-वीणा स्वयं बज रही थीं,
भुलाकर पुरानी कहीं सुप्त धुन को,
नया राग मैं गुनगुनाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था ।।४।।
aapki kavita mujhe behad pasand hai ,padhkar jo khushi milti hai wo shabdo me main byan nahi kar sakti ,ati uttan ,saargarbhit baate hai .
वाह बड़ा प्यारा गीत है। याद कर गुनगुनाना, मित्रों को सुनाना चाहिए।
ReplyDeleteइस दौर में सात्विक सौन्दर्य भारतीय ऊर्जस्विता के प्रतीक बने हुएँ हैं अन्नाजी ..अन्ना देख रहे खिड़की से,
ReplyDeleteदुबक रहे राजा व कलमाड़ी,
धक्का मार रहे सब नेता,
कीचड़ में फंसी सत्ता की गाड़ी . अन्ना के हैं आदमी चार ,जिनसे डरती है सरकार ..
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था
17.8.11
मिला था मुझे एक सुन्दर सबेरा,
मैं तजकर तिमिरयुक्त सोती निशा को,
प्रथम जागरण को बुलाने चला था,
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था ।।
. सार्थक टिप्पणी के लिए आभार प्रवीण जी ,"एक सेहत हज़ार नियामत " ..http://veerubhai1947.blogspot.com/http://veerubhai1947.blogspot.com/
मंगलवार, १६ अगस्त २०११
पन्द्रह मिनिट कसरत करने से भी सेहत की बंद खिड़की खुल जाती है .
Thursday, August 18, 2011
Will you have a heart attack?
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
अँधेरे का अस्तित्व इत सकें न सकें पर प्रकाश का अस्तित्व जगा ज़रूर सकते हैं...
ReplyDeleteएक लकीर को छोटी करने के लिए उसे मिटाना ही समाधान नहीं है, उसके साथ एक बड़ी लकीर बनाना ही महानता है..
विचारों ने जगकर अँगड़ाइयाँ लीं,
ReplyDeleteसूरज की किरणों ने पलकें बिछा दीं,
मैं बढ़ने की आशा संजोये समेटे,
विरोधों के कोहरे हटाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था ....आशा उल्लास और विश्वास से परिपूर्ण सुन्दर रचना......
prernadayak rachna....
ReplyDeleteहर पंक्ति खूबसूरत है और प्रेरणा दायक भी..
ReplyDeleteनई ओज और सोच के लिए आपकी लेखनी को सलाम ..!!
कहीं मन उमंगें मुदित बढ़ रही थीं,
ReplyDeleteकहीं भाव-वीणा स्वयं बज रही थीं,
भुलाकर पुरानी कहीं सुप्त धुन को,
नया राग मैं गुनगुनाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला
aaj ke sandarbh mein to yah bahut hi jaruri hai..wakai kisi naye rag ki jarurat hai
behatareen prastuti...dhanyawad
ReplyDeleteक्या बात है!!! :)
ReplyDeleteअच्छी कविता। साधुवाद।
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