मैं मन
नहीं हूँ, क्योंकि मन मुझे उकसाता
रहता है। मैं मन नहीं हूँ, क्योंकि
मन मुझे भरमाता रहता है। मैं स्थायित्व चाहता हूँ तो मन मुझ पर कटाक्ष करता है।
मैं वर्तमान में रह जीवन को अनुभव करना चाहता हूँ तो मन मुझे आलसी जैसे विशेषणों
से छेड़ता है, मुझ पर महत्वाकांक्षी
न होने के आरोप लगाता है, मैं सह
लेता हूँ क्योंकि मैं मन नहीं हूँ। किसी कार्य के प्रति दृढ़ निश्चय होकर पीछे
पड़ता हूँ तो संशयात्मक तरंगें उत्पन्न करने लगता है मन, बाधा बन सहसा सामने आता है, निश्चय की हुंकार भरता हूँ तो सुन कर सहम सा जाता है मन, छिप जाता है कहीं कुछ समय के लिये। दिन भर यह
लुकाछिपी चलती रहती है, रात भर यह
लुकाछिपी स्वप्नों में परिलक्षित होती रहती है, कभी सुखद, कभी दुखद, कभी सम, कभी विषम, संवाद बना रहता
है। संवाद के एक छोर पर मैं हूँ और दूसरी ओर है मन। मन से मेरा सतत सम्बन्ध है पर
मैं मन नहीं हूँ।
आश्चर्य
होता है कि इतनी ऊर्जा कहाँ से आ जाती है मन में, विचारों का सतत प्रवाह, एक
के बाद एक। आश्चर्य ही है कि न जाने कितने विचार ऐसे हैं जिनकी उत्पत्ति प्रायिकता
के सिद्धान्त से भी सिद्ध नहीं की जा सकती, विज्ञान के घुप्प अँधेरों के पीछे से निकल आते हैं वे विचार। सच में यह एक
रहस्यमयी तथ्य है कि जिन विचारों के आधार पर विज्ञान ने अपना आकार पाया है, वही विचार अपने उद्गम की वैज्ञानिकता को जानने
को व्यग्र हैं। विज्ञान के जनक वे विचार अनाथ हैं, क्योंकि वे अपना स्रोत नहीं जानते हैं, यद्यपि सारा श्रेय हम मानव लिये बैठे हैं, पर हम मन नहीं हैं।
हम
कृतघ्न हो जाते हैं और सृजन का श्रेय ले लेते हैं, हम साहित्य के पुरोधा बन ज्ञान उड़ेल देते हैं, पर जब एकान्त में बैठ विचारों का आमन्त्रण-मन्त्र जपते हैं तो मन ही उन लड़ियों को एक के बाद एक धीरे धीरे आपकी
चेतना में पिरोता जाता है। श्रेय कहीं और अवस्थित है क्योंकि आप मन नहीं हैं।
सम्प्रति
गूगल की इस बात के लिये आलोचना हो रही है कि वह आपके विषय से सम्बन्धित विज्ञापन
आपको दिखाने लगता है, गूगल आपके
लेखन व पठन के अनुसार वह सब प्रस्तुत करता रहता है, आपको पता ही नहीं चलता है, सब
स्वाभाविक लगता है। यह बात अलग है कि इसके लिये गूगल लाखों सर्वर और करोड़ों टन
ऊर्जा सतत झोंकता रहता है इण्टरनेटीय प्रवाह में। आपका मन वही कार्य करता है, सूक्ष्म रूप से, विषय से सम्बन्धित विचार और स्मृतियाँ मनस-पटल पर एक के बाद एक आती रहती हैं, आप चाहें न चाहें। विज्ञान की आधुनिकतम क्षमतायें रखता है आपका मन, हमें स्वाभाविक लगता रहता है, पर हम तो मन नहीं हैं।
अपेक्षायें
जब धूल-धूसरित होने लगती हैं तो
संभवत: मन ही प्रथम आघात सहता है।
अस्थिर हो जाता है, भय और आशंका में
गहराता जाता है, भय आगत का और आशंका
अनपेक्षितों की। अस्थिर मन दृढ़ अस्तित्वों को भी झिंझोड़ कर रख देता है, चट्टान को भी चीर कर पानी बहा देता है। हमारे
निहित भय के तन्तुओं से ही बँधा है मन का तार्किक तन्त्र। इतना संवेदनशील है कि
हमारे ही भयों की प्रतिच्छाया हमें चिन्ताओं के रूप में बताने लगता है हमारा मन।
मन चंचल
है, ऊर्जा से परिपूर्ण है, वैज्ञानिक है, सृजनशील है, संवेदनशील है, तो निश्चय ही कभी न कभी बहकेगा भी।
सदियों
से मन को आध्यात्मिक उन्नति में बाधा माना जाता रहा है, अध्यात्म स्वयं की स्थिरता को ढूढ़ने का प्रयास है। मन अपनी प्रकृति नहीं
छोड़ता है, क्या करे, उसका काम ही वही है, जगत को गतिमान रखना।
मन से
बड़ा मित्र नहीं है और मन से बड़ा शत्रु भी नहीं। चलिये, अर्जुन की तरह ही कृष्ण से पूछते हैं,
चंचलम्
हि मनः कृष्णः .......
मन तो ऐसा यान है जो हमें कल्पना-लोक से भी इतर ले जाता है,इसके साथ यदि संयम या अनुशासन का थोड़ा मेल हो तो जीवन-यात्रा सुखद हो जाती है.'मन के हारे हार है,मन के जीते जीत' से भी मन की शक्ति का अनुमान लगाया जा सकता है !
ReplyDeleteतोरा मन बड़ा पापी सजनवां रे !
ReplyDeleteमन ही तो है सारी खुराफात का जड़ ....
मगर यह मन क्या है यही ठीक से अवधारित नहीं है ..
मन के हारे हार है मन के जीते जीत ....
मन पर मनमाफिक !
मन से बड़ा मित्र नहीं है और मन से बड़ा शत्रु भी नहीं।
ReplyDeleteजिन विचारों को हर मनुष्य जीता है आप उन्हें सहजता से शब्दों में ढाल लेते हैं.....हर बार की तरह बहुत सुंदर पोस्ट....
लिख ही दी -- "मेरे मन की".....थैंक्स
ReplyDeleteमन की तो मन ही जाने. समझ नही आता कि मन क्या है और बुद्धि क्या है? मन शरीर के किस हिस्से में पाया जाता है.. जरूर दिमाग के किसी चैम्बर में इसकी खटिया लगी होगी.
ReplyDeleteसदियों से मन को आध्यात्मिक उन्नति में बाधा माना जाता रहा है, अध्यात्म स्वयं की स्थिरता को ढूढ़ने का प्रयास है। मन अपनी प्रकृति नहीं छोड़ता है, क्या करे, उसका काम ही वही है, जगत को गतिमान रखना।
ReplyDeleteगहन चिंतन के उपरांत लिखी सार्थक रचना ...
मन की एक डोर बुद्धि ..या विवेक के हाथ में भी होती है ....!!
मन को स्वछन्द नहीं छोड़ा जा सकता .....!!
मन है मायावी मगर इस माया से छूटना कहाँ संभव है ...बस कोशिश रहे यही की सत्य और न्याय पर स्थिर रहे !
ReplyDeleteदार्शनिक ख्याल !
मन की गति की कोई पार नही पा सका। इसकी चंचलता और चपलता शायद ही कोई बच पाया हो।
ReplyDeleteशुभकामनाएं
आत्मा को रथी, शरीर रथ, बुद्धि सारथी, इन्द्रियां घोड़े और मन को लगाम कहा गया है.
ReplyDeleteक्या बात है प्रवीण जी.
ReplyDeleteआपने तो मेरे मन की बात कह दी.
मन के ऊपर हमारे ऋषि मुनियों ने
बहुत शोध किया है और आज का विज्ञान
भी शोध करने में जुटा है.
किसी भी 'शोध' के लिए मन का दृष्टा बनना आवश्यक है.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
बहुत सहज शब्दों में बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति और प्रस्तुति,आभार पाण्डेय जी.
ReplyDeleteविज्ञान की आधुनिकतम क्षमतायें रखता है आपका मन
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने विज्ञान से भी बढ़कर क्षमताएं रखता है हमारा मन इसकी गति और चंचलता को समझना किसी के बस की बात नहीं ....!
'मन के मते न चालिये ,छाँड़ि जीव की बान ,
ReplyDeleteताकू केरे सूत ज्यूँ ,उलटि अपूठा आन.'
- कबीर.
मन की चंचलता का सुन्दर चित्रण.. गम्भीर बात सहज उल्लेख ...
ReplyDeleteमन से बड़ा मित्र नहीं है और मन से बड़ा शत्रु भी नहीं
ReplyDeleteमन अति चंचल है , इन्द्रियों का निग्रहण अति-आवश्यक है .
ReplyDeleteमन से बड़ा मित्र नहीं है और मन से बड़ा शत्रु भी नहीं। चलिये, अर्जुन की तरह ही कृष्ण से पूछते हैं,
ReplyDeleteअक्षरश: सत्य कहा है ...बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ..आभार ।
सही कहा आपने, मन की नियति गतिशील रहना ही है, जब तक मन है तब तक संसार है, मन गया कि संसार गया, बहुत ही श्रेष्ठापूर्ण आलेख, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
मन के विभिन्न उतार -चढ़ावों का विस्तृत विश्लेष्ण
ReplyDeleteआपने बहुत ही सुन्दर और सटीक चित्रण किया है मन की गति का……………इसे यूँ तो रोकना संभव नही मगर आत्मनियन्त्रण से ही इस पर लगाम लगायी जा सकती है यदि हम चाहे तो।
ReplyDeleteमन तो शाश्वत है मन अनंत है , अन्तरिक्ष है , विशाल है हर घट घट में मन बसा है
ReplyDeleteआज 03- 08 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
ReplyDelete...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
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एक पक्ष यह भी "ऊधौ मन ना भये दस-बीस एक हुतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस?"
ReplyDeleteबढ़िया निबंध है मन पर .
sab mann ka hi khel hai , mann se jeet , mann se haar
ReplyDeleteमन ही देवता मन ही इश्वर , मन से बड़ा ना कोई
ReplyDeleteमन उजियारा जब जब फैले , जग उजियारा होई
इस उजले दर्पण पे प्राणी , धुल ना जमने पाए
तोरा मन दर्पण कहलाये .
:) :) :)
ReplyDeleteमुझे आपके जैसा लिखना सिखा दीजिये :D
Man ka koi kuch nahin kar sakta... lekin man sabka sab kuch kuch kar sakta hai....... what a tragedy !!!
ReplyDeleteइण्टरनेटीय shabd de kar apne hindi shabd kosh ko krutagya kiya. :)
ReplyDeleteबिल्कुल सही
ReplyDeleteक्या कहना
आपके लिखने का अंदाज बहुत प्रभावशाली है।
शुभकामनाएं
--अत्यंत सुन्दर, तात्विक आलेख...बधाई...
ReplyDeleteआत्मा को रथी, शरीर रथ, बुद्धि सारथी, इन्द्रियां घोड़े और मन को लगाम कहा गया है.
--यहाँ गीता में ही स्पष्ट उत्तर है...मन की लगाम रथी-आत्मा के हाथ है वहीं से आते हैं ये सारे विचार व उनके श्रोत...जो मन के द्वारा व्यक्त होते हैं...जब आत्मतत्व मनन करता है...
“यदा वै मनुत, अथ विजानाति । नामत्वा विजानाति । मत्वैव विजानाति । मतिस त्येव विजिज्ञासित व्येति । मतिं भगवो विजिज्ञासे इति ॥” –छांदोग्य उपनिषद ।
व्यक्ति जब मनन करता है तभी( किसी वस्तु का ) ज्ञान होता है। मनन किये बिना नहीं जान सकता। अतः मनन को जानने की इच्छा करें कि भगवन ! मैं मनन को जानना चाहता हूं।
किसी वस्तु की वास्तविकता व गहराई जानने हेतु उसमें डुबकी लगाना आवश्यक होता है। मनन क्या है , यह भी ठीक प्रकार से जानना चाहिये ।
"MANN" chhota sa sabd par kitna vishal hai ye, kya kya nahi isme sama jata hai:)
ReplyDeleteaapke sabhi lekh kaphi acchae hain
ReplyDeleteहम तो अपना कृष्ण आप में अहसासने लगे हैं..तो चलना कैसा...
ReplyDeleteआधुनिक जगत के गुगल और मन की तुलना...आधुनिक अध्यात्म के परौधा आप हुए...जय हो!!! मन रम जाता है इस द्वार आ कर....मन से बड़ा मित्र नहीं है और मन से बड़ा शत्रु भी नहीं।
मन से बड़ा मित्र नहीं है और मन से बड़ा शत्रु भी नहीं।
ReplyDeleteलाख टके की बात..
मन के ऊपर तो अपना दर्शन भी कुछ ऐसा ही ...
ReplyDeleteमन को पिंजड़े में न डालो
मन का कहना मत टालो।
अपेक्षाएं मत रखो.... टिप्पणियां अपने आप आएंगी :)
ReplyDeleteमनोबुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं,
ReplyDeleteन च श्रोण जिह्वो ,न च घ्राण नेत्रो।
न च व्योमभूमिर्नतेजो न वायुः,
चिदानंद रूपः शिवोहम्- शिवोहम्।
सुन्दर व्याख्या, साधुवाद।
सादर,
देवेन्द्र
यह आलेख पहले ही वाक्य से, दार्शनिकता का पुट लिए लगा था और लगा था कि श्रीमद् भागवत गीता को स्पर्श करेगा।
ReplyDeleteसुन्दर और मननीय पोस्ट है यह आपकी।
आज इतने अच्छे लेख पर भी टिप्पणी देने का मन नहीं प्रवीण भाई ....
ReplyDelete:-)
शुभकामनायें
मन की बात मन से लिखी ... सच ही मन बहुत चंचल होता है इसको साधना सबसे कठिन तप है .. गहन चिन्तन मनन से उपजी अच्छी पोस्ट
ReplyDeleteमन भाया अति सुन्दर लेख..
ReplyDeleteबढ़िया विश्लेष्ण
ReplyDeletepraveen ji..aapka nirantar protsahan milta rahta hai..abhi college admission mein uljhe hone ke karan baut kam samy de paa raha tha..aaj to man ka manan karaya aapne..bahut shandar lekh..aapko hardik badhayee...
ReplyDeleteमन तो मुन्ना है जी...
ReplyDeleteजय हिंद...
सदैव ही नव -नूतन सौन्दर्यलिए आतें हैं अपनी पोस्टों में काल चिंतन बन .कृपया यहाँ भी - http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/2011/08/blog-post_04.html
ReplyDeleteऔर यहाँ भी -http://sb.samwaad.com/
आप की इस पप्रस्तुति को एक बार फिर से पढ़ने का मन है .................
ReplyDeleteउत्कृष्ट आलेख. मन का अच्छा पोस्ट मोरटम किया आपने.
ReplyDeleteसही बात, कहा भी गया है कि संसार में सबसे तेज है मन की चाल।
ReplyDeleteमन बहुत चंचल होता है इसको साधना सबसे कठिन तप है ...सार्थक रचना ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteऊधो मन क्यों न भए दस बीस।
ReplyDeleteसच है - तोरा मन दर्पण कहलाये ..... पर क्या करें इतने गहन गम्भीर मन्थन के बाद भी मन तो अपने मन की ही करेगा ......
ReplyDeleteसदियों से मन को आध्यात्मिक उन्नति में बाधा माना जाता रहा है, अध्यात्म स्वयं की स्थिरता को ढूढ़ने का प्रयास है। मन अपनी प्रकृति नहीं छोड़ता है, क्या करे, उसका काम ही वही है, जगत को गतिमान रखना।
ReplyDeleteमन से बड़ा मित्र नहीं है और मन से बड़ा शत्रु भी नहीं। चलिये, अर्जुन की तरह ही कृष्ण से पूछते हैं...बहुत खूबसूरती से मन को परिभाषित भी कर दिया फिर सवाल वही का वही की चलो कृष्ण से पूछते हैं अरे उनका तो अपना मन चंचल है वो कहाँ बता पाएंगे दोस्त जी मन सच में ऐसा ही होता है ये कही नहीं ठरता इसीलिए तो मन है | बहुत सुन्दर |
मन तो ऐसा जाल है कि जो हमेशा ही हमें उलझाया रकता है और इसकी भटकन का क्या कहना .. प्रवीण जी , बहुत सुन्दर लिखा है .. बधाई
ReplyDeleteसर मन बहुत चंचल है !
ReplyDeleteमन से बडा मित्र नही और शत्रू भी नही
ReplyDeleteजग से चाहे भाग ले कोई मन से भाग न पाये ।
गहरे पैठ कर लिखी गई रचना ।
मन क्या है , और क्या चाहता है , अक्सर हम समझ ही नही पाते ।
ReplyDeleteमगर इतना तो तय है कि मन स्वयं से झूठ कभी नही बोलता ..
अपेक्षायें जब धूल-धूसरित होने लगती हैं तो संभवत: मन ही प्रथम आघात सहता है। अस्थिर हो जाता है, भय और आशंका में गहराता जाता है, भय आगत का और आशंका अनपेक्षितों की। अस्थिर मन दृढ़ अस्तित्वों को भी झिंझोड़ कर रख देता है, चट्टान को भी चीर कर पानी बहा देता है। हमारे निहित भय के तन्तुओं से ही बँधा है मन का तार्किक तन्त्र। इतना संवेदनशील है कि हमारे ही भयों की प्रतिच्छाया हमें चिन्ताओं के रूप में ब लगता है हमारा मन।
ReplyDeleteमन से बड़ा मित्र नहीं है और मन से बड़ा शत्रु भी नहीं।
man ki baate man ko bha gayi pravin ji ,bahut hi badhiya likha hai
मेरे मन ने तो बहुत पाप किये हैं और क्षण प्रतिक्षण करते ही रहते हैं । मन तो shock absorber का काम करता है और proxy पापी बन मुझे असल में पापी बनने से बचा लेता है । परोक्ष रूप से मन तो "नीलकंठ" का अवतार है ...
ReplyDeleteमन घटना स्थल है .सारा द्वंद्व और कशमकश मानसी सृष्टि है ,सब कुछ पहले मन में घटित होता ,पहले विचार पैदा होता है मन में ,फिर निश्चय और फिर उसका क्रियान्वन .शुक्रिया आपका खूबसूरत चेहरा रोज़ दिखाने के लिए अपना ,ऊर्जित और प्रेरक .कृपया यहाँ भी -http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
ReplyDeleteतोरा मन दर्पण कहलाये ,भले बुरे सारे कर्मों को देखे ओर दिखाए ......
ReplyDeleteतोरा मन दर्पण कहलाये ,भले बुरे सारे कर्मों को देखे ओर दिखाए ......http://sb.samwaad.com/
ReplyDeletesunder aalekh .
ReplyDeleteAre aap kisse pooch baithe......
ve to swayam chanchal man ke dhanee hai......
मन की दुनिया पर बड़े ही मन से लिखे आपके विचारों ने मन मोह लिया....
ReplyDeleteमुझे क्षमा करे की मैं आपके ब्लॉग पे नहीं आ सका क्यों की मैं कुछ आपने कामों मैं इतना वयस्थ था की आपको मैं आपना वक्त नहीं दे पाया
ReplyDeleteआज फिर मैंने आपके लेख और आपके कलम की स्याही को देखा और पढ़ा अति उत्तम और अति सुन्दर जिसे बया करना मेरे शब्दों के सागर में शब्द ही नहीं है
पर लगता है आप भी मेरी तरह मेरे ब्लॉग पे नहीं आये जिस की मुझे अति निराशा हुई है
http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
क्या बात है प्रभु. मन से बड़ा मित्र भी नहीं शत्रु भी नहीं, सचमुच, निर्विवाद सत्य.
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