31.8.11

डैडी दा पैसा, पुतरा मौज कर ले

स्पष्ट रूप से याद है, आईआईटी के प्रारंभिक दिन थे, रैगिंग अपने उफान पर थी, दिन भर बड़ी उलझन रहती थी और सायं होते होते मन में ये विचार घुमड़ने लगते थे कि आज पता नहीं क्या होगा?

दिन भर कक्षाओं में प्रोफेसरों की भारी भारी बातें, नये रंगरूटों को अपने बौद्धिक उत्कर्ष से भेदती उनकी विद्वता, चार वर्षों में आपके भीतर के सामान्य व्यक्तित्व को आइन्स्टीन में बदल देने की उनकी उत्कण्ठा, श्रेष्ठता की उन पुकारों में सीना फुलाने का प्रयास करती आपकी आशंका और उस पर हम जैसे न जाने कितनों के लिये अंग्रेजी में दिये व्याख्यानों को न पचा पाने की गरिष्ठता। ऐसी शैक्षणिक जलवायु में दिन बिताने का भारीपन मन में बड़ी गहरी थकान लेकर आता था।

हम तो सात वर्षों के छात्रावास के अनुभव के साथ वहाँ पहुँचे थे पर कईयों के लिये किसी नये स्थान पर अपरिचितों से पहला संपर्क उस भारीपन को और जड़ कर रहा था। यह भी ज्ञात था कि रात्रि के भोजन के बाद ही रैगिंग के महासत्र प्रारम्भ होते हैं। कई मित्र इन सबसे बचने के लिये 5 किमी दूर स्थित गुरुदेव टाकीज़ में रात्रि का शो देखने निकल जाते थे और वह भी पैदल, न जाने की जल्दी और न ही आने की, बस किसी तरह वह समय निकल जाये। कुछ मित्र स्टेडियम में जाकर रात भर के लिये सो जाते थे, नील गगन और वर्षाकाल के उमड़े बादलों के तले।

तुलसी बाबा के "हुइहे वही जो राम रचि राखा" के उपदेश को मन में बसा कर हम तो अपने कमरे में जाकर सो जाते थे। जब रात में जगाई और रगड़ाई होनी ही है तो कमाण्डो की तरह कहीं भी और कभी भी सोने की आदत डाल लेनी चाहिये। जैसी संभावना थी, रात्रि के द्वितीय प्रहर में सशक्त न्योता आ जाता है, आप भी पिंक फ्लॉयड के "एनादर ब्रिक इन द वाल" की तरह अनुभव करते हुये उस परिचय-प्रवृत्त समाज का अंग बन जाते हैं।

रैगिंग पर विषयगत चर्चा न कर बस इतना कहना है कि उस समय औरों के कष्ट के सामने अपने कष्ट बौने लगने लगते हैं और विरोध न कर चुपचाप अनुशासित बने रहने में आपको रैगिंग करने वालों से भी अधिक आनन्द आने लगता है। परम्पराओं ने हर क्षेत्र में संस्कृति को कितना कुछ दिया है, इसकी पुष्टि घंटों चला धाराप्रवाह अथक कार्यक्रम कर गया।

उस पूरे समय में मेरा ध्यान एक सीनियर पर ही था, एक सरदार जी थे, आनन्दपान में पूर्ण डूबे, वातावरण को अपने जीवन्त व्यक्तित्व से सतत ऊर्जस्वित करते हुये, उनकी भाव-गंगा के प्रवाह में संगीत का सुर मिल रहा था, पीछे एक पंजाबी गाना बज रहा था।

डैडी दा पैसा पुतरा मौज कर ले, तेरा जमाना पुतरा मौज कर ले.....

उनके पास तो प्रोफेसरों के द्वारा सताये दिन को भुलाने का बहाना था, गले के नीचे उतारने को सोम रस था, उड़ाने के लिये डैडी दा पैसा था, आनन्द-उत्सव में सर झुकाये सामने खड़े जूनियरों का समूह था, मित्रों का जमावड़ा था, युवावस्था की ऊर्जा थी। उनकी मौज के सारे कारक उपस्थित थे।

हमारे पास तो कुछ भी नहीं था, पर उस दिन विपरीत परिस्थितियों में भी हमें उन सरदार जी से अधिक आनन्द आया होगा क्योंकि हमें तो उनकी मौज पर भी मौज आ रही थी। अब यदि डैडी के पास उड़ाने वाला पैसा नहीं है तो क्या मौज नहीं कर सकते?

27.8.11

हाईवे के ट्रक

कभी भारी भरकम ट्रकों को राष्ट्रीय राजमार्ग पर भागते देखा है? देखा होगा और उससे पीड़ित भी हुये होंगे पर उनके चरित्र पर ध्यान नहीं दिया होगा। सामने से आते ट्रक आपको अपनी गति कम करने और बायें सरक लेने को विवश कर देते हैं, बड़ा भय उत्पन्न करते हैं ये ट्रक सड़क पर, आप चाहें न चाहें एक आदर देना पड़ता है, जब तक ये निकल न जाये आप निरीह से खड़े रहते हैं, सड़क से आधे उतरे।

यदि आप भी इन ट्रकों की दिशा में जा रहे हों तो संभवतः भय नहीं रहता है। आपके वाहन की गति बहुधा इन भारी भरकम ट्रकों से बहुत अधिक रहती है, यदि आप उन्हें एक बार पार कर लें तो उनसे पुन: भेंट होने की संभावना कम ही होती है। थोड़ी सावधानी बस उन्हें पार करने में रखी जाये तो निरीह से ही लगते हैं ये ट्रक।

कभी कभी यही ट्रक प्रतियोगिता पर उतर आते हैं। पिछले दिनों मैसूर से बंगलोर आते समय लगभग एक घंटे तक यह प्रतियोगिता देखी भी और उससे पीड़ित भी होते रहे। दो भारी भरकम ट्रक आगे चल रहे थे, एक दूसरे से होड़ लगाते हुये। एक दूसरे से सट कर चल रहे थे, कभी एक थोड़ा आगे जाने का प्रयास करता तो कभी दूसरा, कोई भी स्पष्ट रूप से आगे नहीं निकल पा रहा था। दोनों की ही गति 50 के आसपास थी क्योंकि मेरा वाहन भी लगातार वही गति दिखा रहा था। सड़क 100 की गति के लिये सपाट है, आपका वाहन भी उन्नत तकनीक के इंजन से युक्त है और 150 की गति छूने की क्षमता रखता है। उन ट्रकों की प्रतियोगिता के आनन्द के सामने आपके वाहन की गति धरी की धरी रह जाती है। 50 की गति सड़क खा जाती है, 50 की गति हाईवे के ये ट्रक। आप कितना उछलकूद मचा लीजिये, आपका वाहन कितना हार्न फूँक ले, जापानी विशेषज्ञों ने कितना ही शक्तिशाली इंजन बनाया हो, आपके वाहन का आकार कितना ही ऐरोडायनिमिक हो, आप अपनी एक तिहाई क्षमता से आगे बढ़ ही नहीं सकते।

यह सब देख रागदरबारी के प्रथम दृश्य का स्मरण हो आया। सड़क पर और आने वाले यातायात पर अपना जन्मसिद्ध बलात अधिकार जमाये इन ट्रकों का कुछ नहीं किया जा सकता है। अपने आगे दसियों किलोमीटर का खाली मार्ग उन्हें नहीं दिखता है, पीछे से सवेग चले आ रहे वाहनों की क्षमताओं का भी भान नहीं है उन्हें, यदि उन्हें कुछ दिखता है तो उनके बगल में चल रहा उनके जैसा ही भारी भरकम और गतिहीन ट्रक, आपसी प्रतियोगिता लगा उनका मन और उसी खेल में बीतता उनका जीवन।

उपयुक्त तो यही होता कि दोनों ही एक ही लेन में आ जाते और पीछे से आने वाले गतिशील वाहनों को आगे निकल जाने देते, जिससे उनकी भी चाल अवरोधित नहीं होती। वे ट्रक नहीं माने, स्वयं तो प्रतियोगिता का आनन्द उठाया और हम सबको पका दिया। वह तो भला हो कि एक जगह पर तीन लेन का रास्ता मिल गया, वहाँ पर थोड़ी गति बढ़ाकर कई वाहन उन मदमत्त ट्रकों से आगे निकल गये।

जाते जाते बस पीछे देख ट्रकों को यही कह पाये कि "भैया जब दम नहीं है तो काहे सड़क घेरे चल रहे हो।"

24.8.11

प्रार्थना

इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो न।

19.8.11

चेहरों का संवाद

बंगलोर में जहाँ मेरा निवास है, उससे बस 50 मीटर की दूरी पर ही है फ्रीडम पार्क। एक पुराना कारागार था, बदल कर स्वतन्त्रता सेनानियों की स्मृति में पार्क बना दिया गया। पार्क को बनाते समय एक बड़ा भाग छोड़ दिया गया जहाँ पर लोग धरना प्रदर्शन कर सकें। यहीं से नित्य आना जाना होता है क्योंकि यह स्थान कार्यालय जाने की राह में पड़ता है। सुबह टहलने और आगन्तुकों को घुमाने में भी यह स्थान प्रयोग में आता है।

लगभग हर तीसरे दिन यहाँ पर लोगों का जमावड़ा दिखता है। कभी पढ़े लिखे, कभी किसान, कभी आँगनवाड़ी वाले, कभी शिक्षक, कभी वकील, और न जाने कितने लोग, समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हुये। सुबह से एकत्र होते है, सायं तक वापस चले जाते हैं। पुलिस और ट्रैफिक की व्यवस्था सुदृढ़ रहती है, बस थोड़ी भीड़ अधिक होने पर वाहन की गति कम हो जाती है।

इतना समय या उत्साह कभी नहीं रह पाता है कि उनकी समस्याओं को सुना और समझा जा सके। उन विषयों को समस्यायें खड़े करने वाले और उन्हें सहने वाले समझें, मैं तो धीरे से पढ़ लेता हूँ कि बैनर आदि में क्या लिखा है, यदि नहीं समझ में आता है तो अपने चालक महोदय से पूछ लेते हैं कि कौन लोग हैं और किन माँगों को मनवाने आये हैं। अब तो चालक महोदय हमारे पूछने से पहले ही विस्तार से बता देते हैं।

इस प्रकार समस्याकोश का सृजन होने के साथ साथ, प्रदर्शनकारियों के चेहरों से क्या भाव टपक रहे होते हैं, उनका अवलोकन कर लेता हूँ। कवियों और उनकी रचनाओं में रुचि है अतः वह स्थान पार होते होते मात्र एक या दो पंक्तियाँ ही मन में आ पाती हैं।

कभी व्यवस्था से निराश भाव दिखते है,

जग को बनाने वाले, क्या तेरे मन में समायी,
तूने काहे को दुनिया बनायी?

कभी व्यवस्था का उपहास उड़ाते से भाव दिखते है,

बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था,
हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजाम--गुलिस्तां क्या होगा?

कभी व्यवस्था के प्रति आक्रोश के भाव दिखते हैं,

गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही 
पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ।

पिछले तीन दिनों से यहाँ से निकल रहा हूँ, लोग बहुत हैं, युवा बहुत हैं, उनके भी चेहरे के भाव पढ़ने का प्रयास करता हूँ। किन्तु पुराने तीन भावों से मिलती जुलती नहीं दिखती हैं वे आँखें। मन सोच में पड़ा हुआ था। आज ध्यान से देखा तो और स्पष्ट हुआ, सहसा राम प्रसाद बिस्मिल का लिखा याद आ गया। हाँ, उनकी आँखें बोल रही थीं,

वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमान,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है।


17.8.11

मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था

मिला था मुझे एक सुन्दर सबेरा,
मैं तजकर तिमिरयुक्त सोती निशा को,
प्रथम जागरण को बुलाने चला था,
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था ।।

विचारों ने जगकर अँगड़ाइयाँ लीं,
सूरज की किरणों ने पलकें बिछा दीं,
मैं बढ़ने की आशा संजोये समेटे,
विरोधों के कोहरे हटाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था ।।१।।

अजब सी उनींदी अनुकूलता थी,
तिमिर में भी जीवित अन्तरव्यथा थी,
निराशा के विस्तृत महल छोड़कर,
मैं आशा की कुटिया बनाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था ।।२।।

प्रतीक्षित फुहारें बरसती थीं रुक रुक,
पंछी थे फिर से चहकने को उत्सुक,
तपित ग्रीष्म में शुष्क रिक्तिक हृदय को,
मैं वर्षा के रंग से भिगाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था ।।३।।

कहीं मन उमंगें मुदित बढ़ रही थीं,
कहीं भाव-वीणा स्वयं बज रही थीं,
भुलाकर पुरानी कहीं सुप्त धुन को,
नया राग मैं गुनगुनाने चला था ।
मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था ।।४।।

13.8.11

वननोट और आउटलुक

एक बार लिख लेने के बाद सूचना को व्यवस्थित रखना और समय आने पर उसको ढूढ़ निकालना, इन दो कार्यों के लिये वननोट और आउटलुक का प्रयोग बड़ा ही उपयोगी रहा है मेरे लिये। प्रोग्रामों की भीड़ में अन्ततः इन दोनों पर आकर स्थिर होना, मेरे लिये प्रयोगों और सरलीकरण के कई वर्षों का निष्कर्ष रहा है। 1985 में बालसुलभ उत्सुकता से प्रारम्भ कर आज तक की नियमित आवश्यकता तक का मार्ग देखा है मेरे कम्प्यूटरों ने, न जाने कहाँ और कब यह साथ दार्शनिक हो गया, पता ही नहीं चला।

हर व्यक्ति के पास मोबाइल, दूर प्रदेशों और विदेशों में जाकर पढ़ते सम्बन्धी, विद्यालय, आईआईटी और नौकरी में बढ़ती मित्रों की संख्या, धीरे धीरे संपर्कों की संख्या डायरी के बूते के बाहर की बात हो गयी। प्रारम्भिक सिमकार्डों और मोबाइलों की भी एक सीमा थी, समय 2001 के पास का था। संपर्क, उनकी जन्मतिथियाँ, वैवाहिक वर्षगाठें, बैठकें, कार्यसूची आदि की बढ़ती संख्या और आवश्यकता थी एक ऐसे प्रोग्राम की जिस पर सब डाल कर निश्चिन्त बैठा जा सके। माइक्रोसॉफ्ट के ऑफिस आउटलुक में मुझे वह सब मिल गया और आज दस वर्ष होने पर भी वह सूचना का सर्वाधिक प्रभावी अंग है मेरे लिये। न जाने कितने मोबाइल बदले, नोकिया, सोनी, ब्लैकबेरी, विन्डोज, हर एक के साथ आउटलुक का समन्वय निर्बाध रहा। अनुस्मारक लगा देने के बाद कम्प्यूटर एक सधे हुये सहयोगी की तरह साथ निभाता रहा। यही नहीं, कई खातों के ईमेल और एसएमएस स्वतः आउटलुक के माध्यम से फीड में आते रहे, आवश्यक कार्य व बैठक में परिवर्तित होते रहे।

2007 तक अपनी सारी फाइलों को अलग अलग फोल्डरों में विषयानुसार रखने का अभ्यास हो चुका था। मुख्यतः वर्ड्स, एक्सेल, पॉवर-प्वाइण्ट, पीडीएफ, एचटीएमएल। यह बात अलग है कि हर बार किसी फाइल को खोलने और बन्द करने में ही इतना समय लग जाता था कि विचारों का तारतम्य टूटता रहता था। माइक्रोसॉफ्ट के ऑफिस वननोट की अवधारणा संभवतः यही देखकर की गयी होगी। वननोट का ढाँचा देखें तो आपको इसका स्वरूप किसी पुस्तकालय से मिलता जुलता लगता है, उसकी तुलना में अन्य प्रोग्राम कागज के अलग अलग फर्रों जैसे दिखते हैं। संग्रहण के कई स्तर हैं इसमें, प्रथम-स्तर वर्कबुक कहलाता है, आप जितनी चाहें वर्कबुक बना सकते हैं, विभिन्न क्षेत्रों के लिये जैसे व्यक्तिगत, प्रशासनिक, लेखन, पठन, तकनीक, मोबाइल समन्वय आदि। हर वर्कबुक में आप कई सेक्शन्स रख सकते हैं जैसे लेखन के अन्दर ब्लॉग, कविता, कहानी, पुस्तकें, संस्मरण, डायरी, टिप्पणी इत्यादि, यही नहीं आप कई सेक्शन्स को समूह में रखकर एक सेक्शन-समूह बना सकते हैं। हर सेक्शन में आप कितने ही पृष्ठ रख सकते, एक तरह के विषयों से सम्बन्धित उपपृष्ठ भी।

हर पृष्ठ पर आप कितने ही बॉक्स बनाकर अपनी जानकारी रख सकते हैं, उन बाक्सों के कहीं पर भी रखा जा सकता है। शब्द, टेबल, चित्र, ऑडियो, कुछ भी उनमें सहेजा जा सकता है। आप स्क्रीन पर आये किसी भी भाग को चित्र के रूप में सहेज सकते हैं, किसी भी सेक्शन को पासवर्ड से लॉक कर सकते हैं। मेरी सारी सूचनायें इस समय वननोट में ही स्थित हैं।

अब संक्षिप्त में इसके लाभ गिना देता हूँ। इसमें बार बार सेव करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है, स्वयं ही होता रहता है। मैंने अपनी कई वर्कबुकों को इण्टरनेट में विण्डोलाइव से जोड़ रखा है, कहीं पर कुछ भी बदलाव करने से स्वतः समन्वय हो जाता है। एक वर्कबुक मेरे विण्डो मोबाइल से भी सम्बद्ध है, मोबाइल पर लिखा इसमें स्वतः आ जाता है। यदि कभी किसी बैठक में किसी आलेख की आवश्यकता पड़ती है तो उसे मोबाइल की वर्कबुक में डाल देता हूँ, वह मोबाइल में स्वतः पहुँच जाती है। सूचना का तीनों अवयवों में निर्बाध विचरण।

आउटलुक में ईमेल, ब्लॉग फीड या अन्य अवयवों को सहेज कर पढ़ना चाहें तो 'सेण्ड टु वननोट' का बटन दबाते ही सूचना वननोट में संग्रहित हो जाती है। इसी प्रकार कोई भी वेब पृष्ठ स्वतः ही वननोट में सहेज लेता हूँ। यदि उसे मोबाइल में पढ़ना है तो उसे मोबाइल की वर्कबुक में भेज देता हूँ।

आप किसी भी वाक्य को कार्य में बदल सकते हैं, वह स्वतः ही आउटलुक में पहुँच जायेगा और वननोट के उस पृष्ठ से सम्बद्ध रहेगा। किसी भी वाक्य या शब्द में टैग लगाने की सुविधा होने के कारण आप जब भी सार देखेंगे तो सारे टैगयुक्त वाक्य एक पृष्ठ में आ जायेंगे। मैं उसी पृष्ठ को उस दिन की कार्यसूची के रूप में नित्य सुबह मोबाइल में सहेज लेता हूँ।


लगभग तीन वर्षों से मैं कागज और पेन लेकर नहीं चला हूँ। बैठकों में अपने मोबाइल पर ही टाइप कर लेता हूँ और यदि समय कम हो तो हाथ से भी लिख लेता हूँ। एक सूचना को कभी दुबारा डालने की आवश्यकता अभी तक नहीं पड़ी है। दो वर्ष पहले किसी विषय पर आये विचार अब तक संदर्भ सहित संग्रहित हैं। किसी भी शब्द को डालने भर से वह किन किन पृष्ठों पर है, स्वतः सामने प्रस्तुत हो जाता है।

हाथ से लिखा बहुत ही ढंग से रखता है वननोट, आने वाले समय में हाथ से लिखी हिन्दी को भी यूनीकोड में बदलेगा कम्प्यूटर तब हम अपने बचपन के दिनों में वापस चले जायेंगे और सब कुछ स्लेट पर ही उतारा करेंगे।

लाभ अभी और भी हैं, आपकी उत्सुकता जगा दी है, शेष भ्रमण आपको करना है। या कहें कि दो इक्के आपको दे दिये हैं, तीसरा आपको अपना फिट करना है, सोच समझ कर कीजियेगा।

10.8.11

संग्रहण और प्रवाह

मानव मस्तिष्क की एक क्षमता होती है, स्मृति के क्षेत्र में। बहुत अधिक सूचना भर लेने के बाद यह पूरी संभावना रहती है कि आगत सूचनायें ठहर नहीं रह पायेंगी और बाहर छलक जायेंगी। यह न हो, इसके लिये बहुत आवश्यक है कि उन्हें लिख लिया जाये। तीक्ष्ण बुद्धि के स्वामी भी स्मृति लोप से ग्रसित रहते हैं, जोर डालते हैं कि क्या भूल रहे हैं? अतः जिस समय जो भी विचार आये, लिख लिया जाये। यह आप निश्चय मान लीजिये यदि वह विचार दुबारा आता है तो आप पर उपकार करता है। अब विचार कहीं पर भी आ सकता है तो तैयारी सदा रहनी चाहिये उसे लिख लेने की। या तो एक छोटी सी डायरी हो एक पेन के साथ या आप अपने मोबाइल में ही लिख सकें वह विचार। मुझे भी अपनी स्मृति पर उतना भरोसा नहीं है, मुझे जो भी विचार उपहार में मिलता है मैं समेट लेता हूँ।

इसी प्रकार अध्ययन करते समय कई रचनायें व विषय समयाभाव के कारण उसी समय नहीं पढ़े जा सकते हैं, यह आवश्यक है कि उन्हें किसी ऐसी जगह संग्रहित कर लिया जाये जहाँ पर आप समय मिलने पर विस्तार से पुनः पढ़ सकें। किसी विषय पर शोध करने पर बहुत सी सूचनायें प्रथमतः पृथक स्वरूप में होती है पर उनका समुचित विश्लेषण करने के लिये उन्हें एक स्थान पर रखना आवश्यक होता है। कभी इण्टरनेट में, कभी पुस्तक में, कभी दीवार पर, कभी सूचना बोर्ड पर, कभी चित्र के माध्यम से, कभी वाणी रूप में, कभी मैसेज में, कभी ईमेल में, कभी ब्लॉग में, हर प्रकार से आपको सम्बन्धित तथ्य मिलते रहते हैं, आपको सहेजना होता है, रखना होता है, एक स्थान पर, भविष्य के लिये।

साहित्य के अतिरिक्त भी, अपने अपने व्यावसायिक क्षेत्रों में सम्बद्ध ज्ञान-संवर्धन और नियमावली अपना महत्व रखते हैं और आपकी निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। औरों पर निर्भरता कम रहे और निर्णय निष्पक्ष लिये जायें, उसके लिये भी आवश्यक है कि हम अपना ज्ञान संग्रहित और संवर्धित करते चलें। सामाजिक और व्यावसायिक बाध्यतायें आपको ढेरों संपर्क, तिथियाँ, बैठकें, कार्य, निर्देश आदि याद रखने पर विवश करेंगी, उन्हें कैसे सहेजना है, कैसे उपयोग में लाना है और कैसे उन्हें अगले स्तर पर पहुँचा प्रवाह बनाये रखना है, यह स्वयं में एक बड़ा और अत्यन्त ही आवश्यक कार्य है।

डिजिटल रूप में विविध प्रकार की सूचना का संग्रहण मुख्यतः आपके कम्प्यूटर में होता है, आपका ज्ञान आपके साथ और चल सकता है यदि आपके पास लैपटॉप हो। सूचनाओं के एकत्रीकरण के लिये एक उपयोगी मोबाइल और सूचनाओं के बैकअप के लिये इण्टरनेट का प्रयोग आपके संग्रहण को पूर्ण बनाता है। लैपटॉप, मोबाइल और इण्टरनेट, ये तीन अवयव एक दूसरे के पूरक भी हैं और आवश्यक समग्रता भी रखते हैं। आपका संग्रहण-प्रवाह इन तीनों पर आधारित बने रहने से कभी अवरुद्ध नहीं होगा।

सूचना के संग्रहण के तीन अवयव किसी एक डोर से बँधे हों जिससे इन तीनों के समन्वय में आपको कोई प्रयास न करना पड़े। कहीं भी और किसी भी माध्यम से एकत्र सूचना इन तीन अवयवों में स्वमेव पहुँच जानी चाहिये। कहीं आपको इण्टरनेट नहीं मिलेगा, कहीं आपका लैपटॉप आपके पास नहीं रहेगा, कई बार आप मोबाइल बदल लेते हैं या खो देते हैं। यह सब होने पर भी आपका सूचना-तंत्र निर्बाध बढ़ना चाहिये। किसी भी सूचना का आपकी परिधि में बस एक बार आगमन हो, उसे उपयोग में लाने के लिये बार बार बदलना न पड़े। जब मैं लोगों को मोबाइल बदलते समय सारे संपर्क हाथ से भरते हुये या सिमकार्ड से बार बार कॉपी करते हुये देखता हूँ तो मुझे ऊर्जा व्यर्थ होते देख दुःख भी होता है और क्षोभ भी।

सूचनाओं का संग्रहण और समग्र समन्वय, तीनों अवयवों में उनका स्वरूप, एकत्रीकरण और विश्लेषण में लचीलापन, समय पड़ने पर उनकी खोज। इन विषयों का महत्व जाने बिना यदि आप मोबाइल का चयन, लैपटॉप पर संग्रहक प्रोग्राम का चयन और इण्टरनेट पर इन सूचनाओं के स्वरूप का चयन करते हैं, तो संभव है कि आपका संग्रहण आपकी ऊर्जा और समय व्यर्थ करेगा।

असहज मत हों, इन सिद्धान्तों को मन में बिठा लेने के पश्चात जो भी आपके संग्रहण का प्रारूप होगा, वह आपको ही लाभ पहुँचायेगा। इस प्रकार संरक्षित ऊर्जा और समय साहित्य संवर्धन में लगेगा।

इस बार आप अपने संग्रहण के प्रारूप पर मनन कर लें, अगली बार बाजी पास नहीं करूँगा, अपने पत्ते दिखा दूँगा।

6.8.11

साहित्य और संग्रहण

संग्रहण मनुष्य का प्राचीनतम व्यसन है। जब कभी भी कोई अतिरिक्त वस्त्र, भोजन, शस्त्र इत्यादि अस्तित्व में आया होगा, उसका संग्रहण किस प्रकार किया जाये, यह प्रश्न अवश्य उठा होगा। हर वस्तु के संग्रह करने की अलग विधि, अलग स्थान, अलग सुरक्षा, अलग समय सीमा। मूलभूत संग्रहण को पूरा करने के पश्चात आवश्यकताओं का क्रम और बढ़ा, ज्ञान, विज्ञान, कला, साहित्य, सौन्दर्यबोध आदि विषय पनपे, उनसे सम्बन्धित संग्रहण भी आकार लेने लगा। मशीनें आयीं, कारखाने आये, व्यवसाय आया, संग्रहण का विज्ञान धीरे धीरे विकसित होने लगा। आज संग्रहण पर विशेषज्ञता, किसी भी व्यवसाय का अभिन्न अंग बन चुकी है।

हर व्यक्ति संग्रह करता है, आवश्यक भी है, कोई अत्याधिक करता है, कोई न्यूनतम रखता है। पशुओं में भी संग्रहण का गुण दिखता है, जीवन में अनिश्चितता का भय इस संग्रह का प्रमुख कारण है। हम अपने घरों की सीमाओं में न जाने कितनी प्रकार की वस्तुओं को रखते हैं, हर एक का नियत स्थान और नियत आकार। मूलभूत आवश्यकताओं के ही लिये यदि घरों का निर्माण होता तो सारा विश्व अपने दसवें भाग में सिमट गया होता।

नये विश्व में नित नयी नयी वस्तुयें जन्म ले रही हैं, सबका अपना अलग संग्रहण प्रारूप। आलेखों, श्रव्य और दृश्य सामग्रियों को डिजिटल स्वरूप दिया जा रहा है, भौतिक विश्व धीरे धीरे आभासी में बदलता जा रहा है अब चित्रों में भौतिक रंग नहीं वरन 1 और 0 से निर्मित आभासी रंगों का मिश्रण पड़ा होता है। भौतिक पुस्तकें और डायरी अब इतिहास के विषय होने को अग्रसर हैं, उनका स्थान ले रहे हैं उनके डिजिटल अवतार। पुस्तकालय या तो आपके कम्प्यूटर पर सिमट रहे हैं या इण्टरनेट के किसी सर्वर पर धूनी रमाये बैठे हैं।

आप लेख लिखते हैं, कहानियाँ रचते हैं, कवितायें करते हैं, गीत गुनते हैं, चित्र गढ़ते हैं। संवाद के माध्यम डिजिटल होने के कारण, उन सृजनाओं का डिजिटल स्वरूप आवश्यक हो जाता है। बहुधा कम्प्यूटर के ही किसी भाग में आपके सृजित-शब्द पड़े रहते हैं, फाइलों के रूप में। हम नव-उत्साहियों के पास ऐसी सैकड़ों फाइलें होंगी और जो वर्षों से सृजन-कर्म में रत हैं, उनके लिये यह संख्या निश्चय ही हजारों में होगी। न जाने कितनी फाइलें ऐसी होंगी जिसमें कोई एक विचार बाट जोहता होगा कि कब वह रचना की सम्पूर्णता पायेगा। सृजित और सृजनशील, पठित और पठनशील, न जाने कितनी रचनायें, कई विधायें, कई विषय, कई प्रकल्प, कई संदर्भ, यह सब मिलकर साहित्य संग्रहण के कार्य को गुरुतर अवश्य बना देते होंगे।

साहित्यकार ही नहीं, शोधकर्ता, विद्यार्थी, वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी और इस श्रेणी में स्थित सबको ही ज्ञान के संग्रहण की आवश्यकता पड़ती है। संग्रहण के सिद्धान्त भौतिक जगत में जिस तरह से प्रयुक्त होते हैं, लगभग वैसे ही डिजिटल क्षेत्र में भी उपयोग में आते हैं। कम स्थान में समुचित रखरखाव, समय पड़ने पर उनकी खोज, खोज में लगा समय न्यूनतम, शब्दों और विषयों के आधार पर खोज, अनावश्यक का निष्कासन, आवश्यक की गतिशीलता।

कम्प्यूटर में कोई फाइल कहाँ है यह पता लगाना सरल है यदि आपने बड़े ही वैज्ञानिक ढंग से उनका संग्रहण किया है। आपको उस फाइल का नाम थोड़ा भी ज्ञात है तब भी कम्प्यूटर आपको खोज कर दे देगा आपकी रचना। किन्तु यदि आपको बस इतना याद पड़े कि उस रचना में कोई शब्द विशेष उपयोग किया है, तो असंभव सा हो जायेगा खोज करना। कम्प्यूटर तब एक नगर जैसा हो जाता है और आपकी खोज में एक रचना किसी घर जैसी हो जाती है।

देखिये न, गूगल महाराज खोज के व्यवसाय से ही कितने प्रभावशाली हो गये हैं, इण्टरनेटीय ज्ञान में गोता लगाने में इनकी महारत आपको इण्टरनेट में तो सहायता दे सकती है पर आपके अपने कम्प्यूटर में वे कितना सहायक हो पायेंगे, इस विषय में संशय है। वैसे भी यदि ज्ञान इण्टरनेट पर न हो या ठीक से क्रमबद्ध न हो तो उस विषय में गूगल भी गुगला जाते हैं। एक विषय पर लाखों निष्कर्ष दे आपका धैर्य परखते हैं और पार्श्व में मुस्कराते हैं।

आपके कम्प्यूटर पर साहित्यिक संग्रह आपका है, उपयोग आपको करना है, व्यवस्थित आपको करना है। आप करते हैं या नहीं? यदि करते हैं तो कैसे? अपनी विधि से आपको भी अवगत करायेंगे, पर आपकी विधि जानने के बाद।

3.8.11

चंचलम् हि मनः कृष्णः

मैं मन नहीं हूँ, क्योंकि मन मुझे उकसाता रहता है। मैं मन नहीं हूँ, क्योंकि मन मुझे भरमाता रहता है। मैं स्थायित्व चाहता हूँ तो मन मुझ पर कटाक्ष करता है। मैं वर्तमान में रह जीवन को अनुभव करना चाहता हूँ तो मन मुझे आलसी जैसे विशेषणों से छेड़ता है, मुझ पर महत्वाकांक्षी न होने के आरोप लगाता है, मैं सह लेता हूँ क्योंकि मैं मन नहीं हूँ। किसी कार्य के प्रति दृढ़ निश्चय होकर पीछे पड़ता हूँ तो संशयात्मक तरंगें उत्पन्न करने लगता है मन, बाधा बन सहसा सामने आता है, निश्चय की हुंकार भरता हूँ तो सुन कर सहम सा जाता है मन, छिप जाता है कहीं कुछ समय के लिये। दिन भर यह लुकाछिपी चलती रहती है, रात भर यह लुकाछिपी स्वप्नों में परिलक्षित होती रहती है, कभी सुखद, कभी दुखद, कभी सम, कभी विषम, संवाद बना रहता है। संवाद के एक छोर पर मैं हूँ और दूसरी ओर है मन। मन से मेरा सतत सम्बन्ध है पर मैं मन नहीं हूँ।

आश्चर्य होता है कि इतनी ऊर्जा कहाँ से आ जाती है मन में, विचारों का सतत प्रवाह, एक के बाद एक। आश्चर्य ही है कि न जाने कितने विचार ऐसे हैं जिनकी उत्पत्ति प्रायिकता के सिद्धान्त से भी सिद्ध नहीं की जा सकती, विज्ञान के घुप्प अँधेरों के पीछे से निकल आते हैं वे विचार। सच में यह एक रहस्यमयी तथ्य है कि जिन विचारों के आधार पर विज्ञान ने अपना आकार पाया है, वही विचार अपने उद्गम की वैज्ञानिकता को जानने को व्यग्र हैं। विज्ञान के जनक वे विचार अनाथ हैं, क्योंकि वे अपना स्रोत नहीं जानते हैं, यद्यपि सारा श्रेय हम मानव लिये बैठे हैं, पर हम मन नहीं हैं।

हम कृतघ्न हो जाते हैं और सृजन का श्रेय ले लेते हैं, हम साहित्य के पुरोधा बन ज्ञान उड़ेल देते हैं, पर जब एकान्त में बैठ विचारों का आमन्त्रण-मन्त्र जपते हैं तो मन ही उन लड़ियों को एक के बाद एक धीरे धीरे आपकी चेतना में पिरोता जाता है। श्रेय कहीं और अवस्थित है क्योंकि आप मन नहीं हैं।

सम्प्रति गूगल की इस बात के लिये आलोचना हो रही है कि वह आपके विषय से सम्बन्धित विज्ञापन आपको दिखाने लगता है, गूगल आपके लेखन व पठन के अनुसार वह सब प्रस्तुत करता रहता है, आपको पता ही नहीं चलता है, सब स्वाभाविक लगता है। यह बात अलग है कि इसके लिये गूगल लाखों सर्वर और करोड़ों टन ऊर्जा सतत झोंकता रहता है इण्टरनेटीय प्रवाह में। आपका मन वही कार्य करता है, सूक्ष्म रूप से, विषय से सम्बन्धित विचार और स्मृतियाँ मनस-पटल पर एक के बाद एक आती रहती हैं, आप चाहें न चाहें। विज्ञान की आधुनिकतम क्षमतायें रखता है आपका मन, हमें स्वाभाविक लगता रहता है, पर हम तो मन नहीं हैं।

अपेक्षायें जब धूल-धूसरित होने लगती हैं तो संभवत: मन ही प्रथम आघात सहता है। अस्थिर हो जाता है, भय और आशंका में गहराता जाता है, भय आगत का और आशंका अनपेक्षितों की। अस्थिर मन दृढ़ अस्तित्वों को भी झिंझोड़ कर रख देता है, चट्टान को भी चीर कर पानी बहा देता है। हमारे निहित भय के तन्तुओं से ही बँधा है मन का तार्किक तन्त्र। इतना संवेदनशील है कि हमारे ही भयों की प्रतिच्छाया हमें चिन्ताओं के रूप में बताने लगता है हमारा मन।

मन चंचल है, ऊर्जा से परिपूर्ण है, वैज्ञानिक है, सृजनशील है, संवेदनशील है, तो निश्चय ही कभी न कभी बहकेगा भी।

सदियों से मन को आध्यात्मिक उन्नति में बाधा माना जाता रहा है, अध्यात्म स्वयं की स्थिरता को ढूढ़ने का प्रयास है। मन अपनी प्रकृति नहीं छोड़ता है, क्या करे, उसका काम ही वही है, जगत को गतिमान रखना।

मन से बड़ा मित्र नहीं है और मन से बड़ा शत्रु भी नहीं। चलिये, अर्जुन की तरह ही कृष्ण से पूछते हैं,

चंचलम् हि मनः कृष्णः .......