उन्मादित
सब जीव, वृक्ष भी,
अन्तरमन
भी और दृश्य भी,
एक
व्यवस्था परिचायक है,
अह्लादित
हैं ईश, भक्त भी,
रहें
विविध सब, पर मिल रहतीं,
भाँति
भाँति की संरचनायें,
एक
सृष्टि बन उतरी, फैलीं,
परम ईश
की विविध विधायें,
नहीं
अधिक है, नहीं कहीं कम,
जितनी
जीवन को आवश्यक,
सहज रूप
में स्वतः प्राप्त सब,
प्रकृति
पालती रहे मातृवत,
धरती
माँ सी, रहती तत्पर,
वन, नद, खनिज अपार सजी है,
तरह तरह
के पशु पक्षी हैं,
पुष्प, वृक्ष, फल, शाक सभी हैं,
महासंतुलन
सब अंगों में,
एक दूजे
के प्रेरक, पूरक,
रहें
परस्पर सुख से बढ़ते,
सब जीते
हैं औरों के हित,
मानव ने
पर अंधेपन में,
अपनी
तृष्णा का घट भरने,
सकल
प्रकृति को साधन समझा,
ढाये
अत्याचार घिनौने,
संकेतों
से प्रकृति बोलती,
समझो और
स्वीकार करो,
जितने
अंग विदेह किये हैं,
प्रकृति
अंक में पुनः भरो,
देखो सब
है प्राप्त, पिपासा-फन क्यों फैले?
सम्मिलित
सभी सृष्टि में, फिर क्यों दंश
विषैले?
किसकी
बलि पर किसका बल हम बढ़ा रहे?
एक नगर
था, तोड़ महलिया बना रहे ।
उत्कृष्ट ...अनमोल भावनाओं से सजी ..संवरी ...एक प्रबल विचार देती हुई ...सटीक ..सुंदर रचना..!!
ReplyDeleteआओ ये प्रण लें ..कर्मवीर बने हम सब ..वसुंधरा को सिसकने न दें ...!!
इस रचना के लिए बधाई और अपने उद्देश्य पूर्ती के लिए शुभकामनायें ...!!
Nice post .
ReplyDeleteख़ुशी के अहसास के लिए आपको जानना होगा कि ‘ख़ुशी का डिज़ायन और आनंद का मॉडल‘ क्या है ? - Dr. Anwer Jamal
धरती की चिंता किसी को नहीं. सब गाल बजइये हैं.
ReplyDeleteवाकई हम धरती को माँ का सम्मान देने में असफल रहे हैं !
ReplyDeleteधरती की छाती से निकली
सहमी सहमी कोंपलें दिखे
काला गहराता धुआं देख,
कलियों में वह मुस्कान नहीं
जलवायु प्रकृति को दूषित कर धरती लगती खाली खाली,
विध्वंस हाथ से अपना कर क्यों लोग मनाते दीवाली ?
उत्कृष्ट रचना
ReplyDeleteway4host
संकेतों से प्रकृति बोलती,
ReplyDeleteसमझो और स्वीकार करो,
जितने अंग विदेह किये हैं,
प्रकृति अंक में पुनः भरो,
चेतना जगाती श्रेष्ठ रचना.समाधान भी साथ में उल्लेखित हैं.
सुन्दर पर्यावरण गीत...
ReplyDeleteखूबसूरत कविता...
ReplyDeleteहालात पर समग्र दृष्टि.
ReplyDeleteकविता की हासिल पंक्ति- 'महासंतुलन सब अंगों में, एक दूजे के प्रेरक, पूरक' के 'महा' शब्द को 'सहज' बदल कर पढ़ा, मुझे भाया.
शुद्ध भाषा का कविता मे प्रयोग निसन्देह संग्रहण योग्य है
ReplyDeleteखूबसूरत कविता,सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteप्रकृति को नुकसान पहुँचाता मानव। क्या किया जाए?
ReplyDeleteझूठे विकास की पोल खोलती विज्ञान-कविता !
ReplyDeleteदेखो सब है प्राप्त, पिपासा-फन क्यों फैले?
ReplyDeleteसम्मिलित सभी सृष्टि में, फिर क्यों दंश विषैले?
किसकी बलि पर किसका बल हम बढ़ा रहे?
एक नगर था, तोड़ महलिया बना रहे ।
bahut hi zaruri baaten ... adwitiye rachna
संकेतों से प्रकृति बोलती,
ReplyDeleteसमझो और स्वीकार करो,
जितने अंग विदेह किये हैं,
प्रकृति अंक में पुनः भरो...
--
बहुत सुन्दर प्रेरक रचना!
देखो सब है प्राप्त, पिपासा-फन क्यों फैले?
ReplyDeleteसम्मिलित सभी सृष्टि में, फिर क्यों दंश विषैले?
किसकी बलि पर किसका बल हम बढ़ा रहे?
एक नगर था, तोड़ महलिया बना रहे ।
zaruri vichaar, adwitiye rachna
मनुष्य के अनतरबोद्ध को जाग्रत करती रचना अनुकरणीय है ।
ReplyDeleteरहें परस्पर सुख से बढ़ते,
ReplyDeleteसब जीते हैं औरों के हित ||
पर मनुष्य,
मनुष्य अपनी बुद्धि का खुद
शिकार हो गया है ||
स्वार्थ सर्वोपरि ||
अपना - अपना परिवार - मित्र-मण्डली ----क्रमश:
प्रवीण, आप की कविता प्रकृति तथा मानव के बीच जीवन की रक्षा हेतू शिष्टाचार व्यवहार का मंत्र है. धन्यवाद.
ReplyDeleteसर शीर्षक ही सब कुछ कह दिया ! प्रकृति को सुरक्षित रखना ही परमोधर्म होनी चाहिए !
ReplyDeleteहम प्रकृ्ति के प्रति अपना उत्तरदायित्व नही निभा रहे इसी चिन्ता को उजागर करता सुन्दर गीत। शुभकामनायें।
ReplyDelete"मानव ने पर अंधेपन में,
ReplyDeleteअपनी तृष्णा का घट भरने,
सकल प्रकृति को साधन समझा,
ढाये अत्याचार घिनौने"
बहुत ही सुन्दर रचना. प्रकृति की गोद भरने का यही वक्त भी है.
जितना लूट सकते हो लूट लो अपने बाप का क्या जायेगा की तर्ज पर बाप त्प स्वर्गे सिधार गया है और बेटा जब मां धरती नष्ट हो जायेगी तो अपने निजी प्लेन से उड़ कर विदेश भागे जायेगा
ReplyDeleteमानव ने पर अंधेपन में,
ReplyDeleteअपनी तृष्णा का घट भरने,
सकल प्रकृति को साधन समझा,
ढाये अत्याचार घिनौने,
संकेतों से प्रकृति बोलती,
समझो और स्वीकार करो,
जितने अंग विदेह किये हैं,
प्रकृति अंक में पुनः भरो,
अभी भी वक्त है ...यह चेतना जागृत करती हुयी सार्थक सन्देश दे रही है यह रचना ..सुन्दर प्रस्तुति
प्रकृति को वन्दनीय मानना ही होगा, इसकी रक्षा का व्रत रखना ही होगा .
ReplyDeleteसंकेतों से प्रकृति बोलती,
ReplyDeleteसमझो और स्वीकार करो,
जितने अंग विदेह किये हैं,
प्रकृति अंक में पुनः भरो,
हम सभी को प्रकृति का संतुलन बनाये रखने का प्रयास तो करते ही रहना चाहिए.
संकेतों से प्रकृति बोलती,
ReplyDeleteसमझो और स्वीकार करो,
जितने अंग विदेह किये हैं,
प्रकृति अंक में पुनः भरो,
बहुत खूब कहा है आपने ... बेहतरीन ।
सच्चाई बयाँ करती सुन्दर कविता।
ReplyDeleteछंदबद्ध प्रस्तुति| अनुपम शब्द संयोजन| काव्य की आत्मा के बेहद क़रीब| और चिंतन की तो क्या बात है प्रवीण भाई............ उम्दा चिंतन है|
ReplyDeleteमानव ने पर अंधेपन में,
ReplyDeleteअपनी तृष्णा का घट भरने,
सकल प्रकृति को साधन समझा,
ढाये अत्याचार घिनौने,
कितना सही कहा आपने...
संकेतों से प्रकृति बोलती,
समझो और स्वीकार करो,
जितने अंग विदेह किये हैं,
प्रकृति अंक में पुनः भरो,
पर कौन सुनेगा यह...विध्वंसक बहरा अँधा और हृदयहीन हो चूका है...यह निवेदन उसके ह्रदय तक नहीं पहुंचेगा...
जिस तेजी से ह्रास हो रहा है हमारे बाद की तीसरी चौथी पीढी जो संसार देखेगी ,वह कैसी होगी...
विज्ञान का दंभ...पेड़ काट ,पहाड़ उजाड़ , एसी लगा रहे हैं, ठंडी हवा खाने को...
लेकिन यह कबतक चलेगा...
नहीं अधिक है, नहीं कहीं कम,
ReplyDeleteजितनी जीवन को आवश्यक,
सहज रूप में स्वतः प्राप्त सब,
प्रकृति पालती रहे मातृवत...
काश यह सोच सभी अंगीकृत कर पाते..बहुत सार्थक और सुन्दर प्रस्तुति..
saral tatha sahaj parantu utna hi gambhir vishay.
ReplyDeleteमानव ने पर अंधेपन में,
ReplyDeleteअपनी तृष्णा का घट भरने,
सकल प्रकृति को साधन समझा,
ढाये अत्याचार घिनौने,
ऐसी पंक्तियाँ प्रकृति के दर्द को जीकर ही लिखी जाती हैं !
पूरी कविता मन को आंदोलित करती है !
आभार !
महासंतुलन सब अंगों में,
ReplyDeleteएक दूजे के प्रेरक, पूरक,
रहें परस्पर सुख से बढ़ते,
सब जीते हैं औरों के हित,
पर्यावरणीय संतुलन में ही पृथ्वी का भविष्य निहित है. अभी भी समय है कि इसे सब समझ लें.
जागरूकता का संदेश देती महत्वपूर्ण रचना...
संकेतों से प्रकृति बोलती,
ReplyDeleteसमझो और स्वीकार करो,
जितने अंग विदेह किये हैं,
प्रकृति अंक में पुनः भरो,
Hats of to this wonderful poet !
Badhaii !
.
काश सभी यही भावना रख सकें, सुंदर रचना
ReplyDeleteश्री सुनील दीपक जी के कथन से पूर्णतया सहमति और यही मेरी टीप मानी जाए ..... ऐसा मेरा अनुरोध है....
ReplyDeleteऔर एक दूसरा निवेदन : nice post के लिए
संजय अनेजा (मौ सम कौन) को उदृत करना चाहता हूँ : सिर्फ लिंक बेखेरकर जाने वाले महानुभाव कृपा अपना समय बरबाद न करें.
आप भी टीप बॉक्स के उपर लगा लेवें . ये एक अनुरोध है.
बेहद गहरे अर्थों को समेटती खूबसूरत और संवेदनशील रचना. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
प्रकृति का विनाश कर हम ख़ुद का नाश कर रहे हैं।
ReplyDeleteकविता के शिल्प, भाव और भाषा बहुत ही सुंदर लगे।
बहुत ही अच्छी सोच दर्शाती रचना .....
ReplyDeleteसही चेतावनी.....अपनी गलती के प्रति अब भी जागरूक हो जायें तभी कुछ हो सकता है ....
ReplyDeleteमानव की पिपासा का कहीं अंत नहीं॥
ReplyDeleteभारत में बढ़ती जनसंख्या पर तुरन्त नियन्त्रण नहीं हुआ तो हालात बेकाबू हो जायेंगे, पर अफसोस ऐसा होगा नहीं क्योंकि वोट किसे नहीं चाहिये...
ReplyDeleteवाह प्रवीण जी, सोदेश्य उत्तम रचना, आपके शब्दों का चयन बहुत सुन्दर है,आपकी रचना पढ़ कर मुझे अपनी रचना की एक पंक्ति स्मरण हो आयी है,
ReplyDelete"निशब्द शब्द जहर रहा,वन है आज मर रहा"
प्रकृति के लिए आपकी भावनाओं को व्यक्त करती संवेदनशील रचना..
संकेतों से प्रकृति बोलती,
ReplyDeleteसमझो और स्वीकार करो,
जितने अंग विदेह किये हैं,
प्रकृति अंक में पुनः भरो,
यह तो मेरे मन की बात है।
मानव ने पर अंधेपन में,
ReplyDeleteअपनी तृष्णा का घट भरने,
सकल प्रकृति को साधन समझा,
ढाये अत्याचार घिनौने,
बहुत सुन्दर भाव .
आओ ये प्रण लें ..कर्मवीर बने हम सब ..वसुंधरा को सिसकने न दें ..
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति.
khubsurat aur sarthak abhivaykti....
ReplyDeletekhubsurat aur sarthak abhivaykti....
ReplyDeleteधरती चिंतन को इंगित करती .. अनुपम रच है ...
ReplyDelete''प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित
ReplyDeleteहम सब थे भूले मद में,
भोले थे, हाँ तिरते केवल
सब विलासिता के नद में।''
[कामायनी]
संकेतों से प्रकृति बोलती,
ReplyDeleteसमझो और स्वीकार करो,
जितने अंग विदेह किये हैं,
प्रकृति अंक में पुनः भरो,
इस सच को हम जितनी जल्दी स्वीकार करें उतना ही श्रेयस्कर होगा मानव जाति के लिए !
आभार पाण्डेय जी |सुन्दर कविता बधाई |
ReplyDeleteआभार पाण्डेय जी |सुन्दर कविता बधाई |
ReplyDelete'संकेतों से प्रकृति बोलती,
ReplyDeleteसमझो और स्वीकार करो,'
सच है प्रकृति बार -बार संकेत देती है मगर इंसान देख अनदेखा कर देता है..न जाने आने वाले युगों के भविष्य में क्या है?सुनामी/भूकंप..
इस ज्वलंत विषय पर एक बहुत ही अच्छी कविता.
ईशावास्यमिदम सर्वं यत्किंचित जगत्यां जगत -
ReplyDeleteतेंन त्यक्तानाम भुंजीथा ....
याद आयी !
मानव ने पर अंधेपन में,
ReplyDeleteअपनी तृष्णा का घट भरने,
सकल प्रकृति को साधन समझा,
ढाये अत्याचार घिनौने...
प्रकृति के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होना आज की महती आवश्यकता है...
एक जाग्रत करती सुगढ़ रचना...
सादर....
किसकी बलि पर किसका बल हम बढ़ा रहे? एक नगर था, तोड़ महलिया बना रहे ।
ReplyDeleteहर छोरों से आग बरसती, धरती रह रह आज सिसकती
सार्थक सन्देश दे रही है यह रचना.......
बहुत सुन्दर प्रेरक, अनुकरणीय रचना|
ReplyDeleteधरती माँ को नमन करते हुए आपकी इस उत्कृष्ट रचना के लिए आपको साधुवाद!!!
ReplyDeleteसुंदर रचना!
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया आज से सरोकार रखती हुई रचना,
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
प्रकृति को साधन समझा,
ReplyDeleteढाये अत्याचार घिनौने,
संकेतों से प्रकृति बोलती,
समझो और स्वीकार करो, जितने अंग विदेह किये हैं, प्रकृति अंक में पुनः भरो,
देखो सब है प्राप्त, पिपासा-फन क्यों फैले? सम्मिलित सभी सृष्टि में, फिर क्यों दंश विषैले? .... prakriti ka sundra matraroopi chitran kar aadmi ko iske prati sachet kar jaagrukta ka yah prayas anukarniya hai...
saarthak prastuti ke liya aabhar! .
VASTVIKTA KA CHITRAN,,
ReplyDeleteABHAR
पर्यावरण संतुलन पर इतनी अच्छी कविता पहली बार पढ़ी है, पूरी तरह सकारात्मक.
ReplyDeleteक्या बात है, बहुत सुंदर
ReplyDeleteमानव ने पर अंधेपन में,
अपनी तृष्णा का घट भरने,
सकल प्रकृति को साधन समझा,
ढाये अत्याचार घिनौने,
प्रकृति एक अनुपम धरोहर है इसे सहेज कर रखना ही श्रेयष्कर है
ReplyDeleteकिसकी बलि पर किसका बल हम बढ़ा रहे?
ReplyDeleteएक नगर था, तोड़ महलिया बना रहे ।
पर्यावरण विनाश पर सही चेतावनी पर हम कहां सबक लेने वालों में से हैं ।
भावपूर्ण,सच को उकेरती सुन्दर रचना, आभार
ReplyDeleteSabhi ko padhni chahaiye yh kavita aur is dhara ko bachaane ke liye kuch karna chahiye.
ReplyDeleteआप तो बहुत अच्छा लिखते हैं.धरती की चिंता किसी को नहीं.
ReplyDelete_________________
'पाखी की दुनिया' में भी घूमने आइयेगा.
प्रवीण पाण्डेय जी अभिवादन -उत्कृष्ट रचना , सुन्दर सन्देश देती ..आइये हम सब मिल प्रण करें धरती को बचाएं अधिक दोहन न करें अनावश्यक ...
ReplyDeleteअपनी तृष्णा का घट भरने, सकल प्रकृति को साधन समझा, ढाये अत्याचार घिनौने,
संकेतों से प्रकृति बोलती, समझो और स्वीकार करो, जितने अंग विदेह किये हैं, प्रकृति अंक में पुनः भरो,
शुक्ल भ्रमर ५
बाल झरोखा सत्यम की दुनिया
पारिस्थिति तंत्रों प्रकृति नटी के संरक्षण संवर्धन संतुलन का आवाहान करती महत्वपूर्ण पोस्ट .
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