जिन
स्थानों पर आपका समय बीतता है, उसकी
स्मृतियाँ आपके मन में बस जाती हैं। कुछ घटनायें होती हैं,
कुछ व्यक्ति होते हैं। सरकारी सेवा में होने के कारण हर तीन-चार वर्ष में स्थानान्तरण होता रहता है, धीरे धीरे स्मृतियों का एक कोष बनता जा रहा है, कुछ रोचकता से भरी हैं,
कुछ जीवन को दिशा देने वाली हैं। स्मृतियाँ सम्पर्क-सूत्र होती हैं, उनकी प्रगाढ़ता तब और गहरा जाती है जब उस स्थान का कोई व्यक्ति आपके
सम्मुख आकर खड़ा हो जाता है।
एक
स्थान पर स्थायी कार्यकाल न होना, मेरे
जैसे कई व्यक्तियों के लिये एक कारण रहता है, उस स्थान का यथासंभव और यथाशीघ्र विकास करने का, पता नहीं भविष्य में वहाँ पर आना हो न हो। सुप्त सा कार्यकाल बिताने का
क्षणिक विचार भी स्वयं को दिये धोखे जैसा लगता है। तीन-चार हजार कर्मचारियों की व्यक्तिगत और प्रशासनिक समस्याओं को हल करने का
दायित्व आप पर होने से, कई बार आपसे
वह न्याय और सहायता भी हो जाती है, जिसका
आपके लिये बहुत महत्व न हो पर वह कर्मचारी उसे भुला नहीं पाता है। उसका महत्व आपको
तब पता चलता है जब कई वर्ष बीतने के बाद भी, सहसा वह व्यक्ति आपके सामने खड़ा हो जाता है।
आत्मकथा
लिखने का विचार अभी नहीं है, पर
अवसर पाकर स्मृतियाँ मन से निकल भागना चाहेंगी, संवाद-क्षेत्रों में अपना
नियत स्थान ढूढ़ने के लिये। यह भी आत्मकथा नहीं है, बस एक साथी अधिकारी से बातचीत के समय ये दो घटनायें सामने आयीं तो उसे
आपसे कह देने का लोभ संवरण न कर पाया।
एक
व्यक्ति कार्यालय खुलने के दो घंटे पहले से आपके कार्यालय के बाहर बैठे प्रतीक्षा
करते हैं, आपके आने की। आने का कोई
कारण नहीं, इस नगर में किसी और
कार्यवश आये थे, ज्ञात था कि आप
यहाँ हैं अतः मिलने चले आये। अपने गृहनगर की प्रसिद्ध मिठाईयाँ आपको मना करने पर
भी सयत्न देते हैं, पुरानी कुछ
घटनाओं को याद करते हैं औऱ अन्त में आपके लिये मुकेश का एक गीत गाकर सुनाते हैं, अपनी मातृभाषा की लिपि में लिखा हुआ। आप किसी
नायक की तरह विनम्रता से सर झुकाये सुनते हैं, आपके व्यवहार ने उस व्यक्ति को एक नया जीवन दिया था 7-8 वर्ष पहले।
एक
महिला अपने पुत्र के साथ आपसे मिलने आती है, 7-8 वर्ष पहले की गयी आपकी सहायता से अभिभूत। साथ आये पुत्र के विवाह का
निमन्त्रण-पत्र आपको देती है। आपकी
आँखें यह सुनकर नम हो जाती हैं कि वह प्रथम निमन्त्रण-पत्र था, आप संभवतः इस तथ्य
को पचा नहीं पाते हैं कि आपकी कर्तव्यनिष्ठा में की गयी एक सहायता आपको देवतुल्य
बना देती है।
यह दोनों घटनायें मेरी नहीं हैं पर जब भी पुराने कार्यस्थल के कर्मचारियों से बातचीत होती है तो उनके स्वरों में खनकती आत्मीयता और अधिक संबल देती है कि कहीं किसी की सहायता करने का कोई अवसर छूट न जाये। अधिकार के रूप में प्राप्त इस महापुण्य का अवसर, पता नहीं, फिर मिले न मिले।
बहते जल में
निर्मलता होती है। यह हो सकता है कि यदि एक स्थान पर अधिक रहता तो भावों की नदी को
निर्मल न रख पाता। एक असभ्य गाँव के लिये न बिखरने की और एक सहृदय गाँव के लिये विश्वभर में
बिखर जाने की गुरुनानक की प्रार्थना, भले ही मुझे क्रूर लगती रही, भले ही बार बार
घर समेटने और बसाने का उपक्रम कष्टकारी रहा हो, पर यही दो घटनायें पर्याप्त हैं
गुरुनानक की प्रार्थना को स्वीकार कर लेने के लिये।
क्या कहूँ ,आपकी कथा ने कुछ अपना सा याद दिला दिया ..मार्केटिंग की नौकरी कि वजह से , कई शहर में घूमना पड़ता है.. और जिंदगी हमेशा ही कुछ इसी तरह के व्यवहार के सहारे कटती है ... आप अच्छा करे तो यही चीज आपको देवतुल्य बना देती है ..
ReplyDeleteबहुत सीख देती हुई पोस्ट.
दिल से बधाई
आपका
विजय
आजकल लोग आत्मीयता भूल से गए हैं ! समस्याओं में जूझते समय, अगर आप किसी के काम आ जाएँ तो वह आजीवन उस विशेषता को भुला नहीं पायेगा ! आज हम जब इस योग्य हैं तब हम किसी के काम आ सकें यह भावना जीवन का भरपूर सुख देने के लिए काफी है !
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
एक असभ्य गाँव की न बिखरने की और एक सहृदय गाँव को विश्वभर में बिखर जाने की गुरुनानक की प्रार्थना, भले ही मुझे क्रूर लगती रही, भले ही बार बार घर समेटने और बसाने का उपक्रम कष्टकारी रहा हो, पर यही दो घटनायें पर्याप्त हैं गुरुनानक की प्रार्थना को स्वीकार कर लेने के लिये।
ReplyDeleteबाबा को प्रणाम ||
एक छोटा बालक आज से २६ वर्ष पूर्व ७ वर्ष की आयु में धनबाद अपने ताऊ श्री राम बलि पाण्डेय जी के घर आया |
पढता नहीं था बस पुस्तकों का दुश्मन मानो, फाड़ कर रख देता था |
उसकी यह आदत जानकार मैं अपने घर से एक चित्रमय पुस्तिका लेकर निकला और पाण्डेय जी के घर के सामने बैठ कर बगल के दो बच्चों को सुन्दर चित्रों के दर्शन कराने लगा |
हलक-हलक कर वो उद्दंड बालक देखने का प्रयास कर रहा था |
मैंने उससे कहा --
न बाबू न, तुम तो फाड़ दोगे, दूर रहो |
कुछ और भी ---|
अगले दिन सुबह वो मेरे घर पर था |
किताब देखि उसने --|
दुबारा आने के लिए बोल गया |
शाम-सुबह-शाम |
बस वो और मैं --
२५ दिनों में अच्छा ज्ञान |
कोल्कता में उसके पापा थे | गाँव में न रहकर वो पापा के पास रहने चला गया |
अभी ३ वर्ष पूर्व आया था --एयर फ़ोर्स में है |
उसका स्नेह आनंदित कर गया ||
पाण्डेय जी आपसे सहमत पर हम तो एक स्थान पर बीस बीस साल से है और कुछ घटनाएँ हमारे जीवन में भी बसी है अच्छा आलेख आभार
ReplyDeletebahut khoobsurat,alag hatkar prastuti,badhai
ReplyDeleteअपने से यथाशक्ति किसी की सहायता करना जहां दूसरों की बिगड़ी बनाता हैं वहां सहायता करने वाले की निर्मलता को भी बरकरार रखता है।
ReplyDeleteसुन्दर आत्मीय लेखन।
अधिक और स्थायी भरोसा उसी पर होता है, जो तटस्थ रह कर (अकारण पक्ष ले कर नहीं), कर्तव्य पूरा करता हो.
ReplyDeleteइस का विपरीत छोर भी है।
ReplyDeleteएक व्यक्ति का नौकरी में किसी कारणवश इंक्रीमेंट न लग पाया। उस की मृत्यु हो गई। इंक्रीमेंट न लगने से पेंशन में रुकावट आ गई। उस का बेटा दफ्तरों के चक्कर लगा लगा कर थक गया। उसे पता लगा कि किस व्यक्ति ने इरादतन इंक्रीमेंट रोका था। काम तो बेटे ने करवा लिया लेकिन अब तीसरा खंबा से पूछ रहा है कि जिस ने इंक्रीमेंट रोका था उसे कैसे रगड़ा जा सकता है।
आजकल सामान्य काम जो किसी कर्मचारी के कर्तव्य का हिस्सा हैं वे भी धन लिए बिना न करने की रवायत हो गई है वहाँ कोई रुका हुआ काम सहज ही कर दे तो निश्चित ही देवतूल्य कहा जाएगा।
हम तो ऐसे पेशे में हैं कि काम करते नहीं पर युक्ति से या लड़झगड़ कर करवाते हैं। लोग उस का भी अहसान नहीं भूलते जीवन भर।
मधुर स्मृतियों की बात ही कुछ और है... थाती होतीं हैं ये किसी के भी जीवन की
ReplyDeleteएक असभ्य गाँव की न बिखरने की और एक सहृदय गाँव को विश्वभर में बिखर जाने की गुरुनानक की प्रार्थना,
ReplyDeleteआपकी प्रस्तुति हमेशा ही कुछ न कुछ सीख दे जाती
है.आभार.
"परहित सरस धरम नहीं भाई " . सम्मान और आत्मसुख दोनों का कारक है .
ReplyDeleteप्रेरणा देती हुई सार्थक पोस्ट
ReplyDeleteयह आपकी आत्मकथा ही तो है. इतने अच्छे संस्मरण और इतने खूबसूरत ढ़ंग से. बस एक बार एकत्रित कर छपवाना ही तो शेष है..
ReplyDeleteकिसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार,
ReplyDeleteकिसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार,
जीना इसी का नाम है...
जय हिंद...
दर-असल लेखन की सार्थकता तभी है जब आप अपने जीवन में भी वैसे ही आदर्श प्रस्तुत करें जैसे अपने लेखन में हों !जाने-अनजाने हम यदि किसी के काम आ जाते हैं तो कई लोग इसे 'देवतुल्य' का दर्ज़ा देते हैं क्योंकि आज की दुनिया में संवेदनाओं की भारी कमी है !आप ऐसा कर पायें,इसकी शुभकामनाएँ !
ReplyDeleteप्रेरक आलेख।
ReplyDeleteहम तो नियमों को ऐसे ही देखते हैं कि वे लोगों का भला करने के लिए है, न कि उनको कष्ट में डालने के लिए। पर इसी दुनिया में तरह-तरह के लोग हैं। सबका अपना-अपना नज़रिया होता है, जिसके बारे में द्विवेदी जी बता रहे हैं।
मुनव्वर राणा जी का एक शे’र याद आ रहा है,
किसी के पास आते हैं तो दरिया सूख जाते हैं
किसी की एड़ियों से रेत में चश्मा निकलता है।
फजा़ में घोल दी है नफ़रतें अहले सियासत ने
मगर पानी कुंए से आज तक मीठा निकलता है।
पिछली कविता और यह लेख दोनों ही संदेशपरक हैं.
ReplyDeleteएक असभ्य गाँव की न बिखरने की और एक सहृदय गाँव को विश्वभर में बिखर जाने की गुरुनानक की प्रार्थना, भले ही मुझे क्रूर लगती रही, भले ही बार बार घर समेटने और बसाने का उपक्रम कष्टकारी रहा हो, पर यही दो घटनायें पर्याप्त हैं गुरुनानक की प्रार्थना को स्वीकार कर लेने के लिये।
ReplyDeleteशब्दों की धारा से बह रही है ...सहृदय भाव धारा ...जोड़ती जाती है ...लोगों को ...वेग बढ़ता है ...जीवन चलता है ...
बहुत सुंदर आलेख .
शुभ कर्म करते चलें...
shubhkamnayen.
आत्मीयता से कहे गये दो शब्द ..कई बार जीवन का मूल मंत्र हो जाते हैं प्रेरणात्मक प्रस्तुति के लिये आभार ।
ReplyDeleteकिसी का भला करना या उसकी मदद करना आज के समय में मनुष्य को देवतुल्य बना देता है |
ReplyDeleteएक दिन में दसियों नये चेहरे दिखते हैं और एक साल में सैकडों से मिलना-जुलना हो जाता है, लेकिन याद रहते हैं बस ऊंगलियों पर गिने जाने लायक
ReplyDeleteप्रणाम
सचमुच ...दुहरा लाभ है इसमें...
ReplyDeleteअपने सामर्थ्य भर किसी के लिए कुछ करने के क्रम में अपनी ही जीवनी शक्ति बढ़ती है,संतोष धन बढ़ता है और जिसके लिए कुछ किया जाता है उसके जीवन या व्यक्तित्व में यही सब शक्ति बन जुड़ जाता है....
जो मन में स्मृतियाँ बस जाती हैं वे कभी साथ नहीं छोड़ती हैं ...
ReplyDeleteसही लिखा आपने...सुखद यादों की थाती ही छोड़ने का प्रयास करना चाहिए.
ReplyDeletebahut sunder yaaden, waakai chalna humen nirmal banaye rakhta hai
ReplyDeleteप्रेरक पोस्ट
ReplyDeleteआभार
आपकी कर्तव्यनिष्ठा में की गयी एक सहायता आपको देवतुल्य बना देती है।
ReplyDeleteमैं भी बरी दृढ़ता से इस बात को मानता हूँ की कर्तव्यनिष्ठ व इमानदार इंसान ही देवता है ...मंदिरों मस्जिदों में तो लोग यूँ ही बेकार देवता को खोजते हैं...आपसे एक दो मुलाकात हुयी है जिसके बाद मैं कह सकता हूँ की आप भी देवत्व के कर्तव्यनिष्ठता की और अग्रसर हैं..इश्वर आपको शक्ति दे...
सुखद स्मृतियां सदैव प्रेरण देती हैं1
ReplyDelete------
जीवन का सूत्र...
NO French Kissing Please!
सुखद स्मृतियां सदैव प्रेरण देती हैं1
ReplyDelete------
जीवन का सूत्र...
NO French Kissing Please!
आपकी प्रस्तुति हमेशा ही कुछ न कुछ सीख दे जाती
ReplyDeleteहै| आभार|
awesome anecdotes..
ReplyDeletethe very thought of doing help to others is divine.. This post clearly shows that u r a sugar heart :)
Regards !!
आपकी यह पोस्ट पढते-पढते मुझे अनेक लोग याद आने लगे - एक के बाद एक, जिन्होंने मुझे दूसरा जीवन दिया, खडे रहने को जमीन दी, जीने के लिए मकसद और जरिए दिए।
ReplyDeleteखुली ऑंखों से पढना शुरु किया और समाप्त किया अधमुँदी, पुरनम ऑंखों से।
जब हम निश्छल मन से किसी के लिए कोई सेवा कार्य करते हैं तो वह उसे सदैव याद रहती है , और उससे आत्मीयता प्रगाढ़ होती है.
ReplyDeleteKahin bhi chale jayn ham lekin yaaden hamare saath shaath chalti hain...
ReplyDeletebahut hi badiya ghatnayen prastut kee hai aapne... bahut badiya laga!
जीवन ऐसे ही सार्थक बीत जाए तो फिर क्या कहना ...
ReplyDeleteBahut kuchh sikhane ko diya ...apki is post ne.
ReplyDeleteHamre yaha bhi padhare.... hame padhe.
praveen ji namskar ,prerak post hai.
ReplyDeletemere vicharon se milti hui .yadi ishwer ne aapko kisi yogay banaya hai to devtuly rahna chahiye,aatmik sukh tabhi milta hai.
praveen ji namskar ,prerak post hai.
ReplyDeletemere vicharon se milti hui .yadi ishwer ne aapko kisi yogay banaya hai to devtuly rahna chahiye,aatmik sukh tabhi milta hai.
जीवन में होशोहवास के साथ इन संदर्भों में गहन गोता मारना एक ईश्वरीय साधना है जो समय पर आकर फ़लीभूत होती है. बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
achhi yaden hamesha sukhkar hoti hain....
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा आलेख,
ReplyDeleteसाभार,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
निस्वार्थ भाव से अपना कार्य पूरी निष्ठा से करना ही देव पूजा है। कुछ ऐसी ही यादें हम भी बटोरे चले जा रहे हैं हर साल…यह यादें ही जिन्दगी की असली पूंजी हैं
ReplyDeleteबड़िया पोस्ट
श्रीमान जी,आपका लेख बहुत ही शिक्षापरक है यदि आंशिकतौर पर भी लोग दूसरों के हित का ध्यान रखने लगे तो मानव जन्म सफल हो जाए, किन्तु आज के दौर में अधिकाँश लोगो के पास सिर्फ स्वार्थसिद्धी का ही उद्द्येश्य बांकी बचा है..
ReplyDeleteमर के भी किसी को याद आयेंगे,
ReplyDeleteकिसी के आँसुओं में मुस्कुराएंगे,
जीना इसी का नाम है.......
सारगर्भित आलेख ने अनेक प्रसंगों की स्मृतियाँ ताजा कर दी.
आपका लेख बहुत ही शिक्षापरक है
ReplyDeleteआपकी लेखनी का बेसब्री से इंतज़ार रहता है,
if you have "values" then for others, definitely, you carry "repeat value".
ReplyDeleteसरल भाषा,उत्कॄष्ट संस्मरण एवं अनुकरणीय आलेख ।
ट्रांस्फर जॉब वालों को सुंदर संदेश देती सार्थक पोस्ट.
ReplyDeletepraveen ji
ReplyDeleteaapne sahi likhaa hai mai bhi is baat ko vishesh rup se bal deti hun ki yadi kisi ki sahayata jara sa bhi ham kisi bhi tarah se kar sake to jarur karna chahiye lekin ni;swarth bhav se.
bahut hi prerak aalekh
bahut bahut dhanyvaad
poonam
आपसे अक्षरशः सहमत....क्या पता फिर कब मौका मिले...जब जब जितना बन पड़े...करते चलिये मदद...बहते जल में निर्मलता होती है।
ReplyDeleteशिक्षाप्रद प्रस्तुति! बहुत बहुत बधाई। जो व्यक्ति किसी की मुसीबत मे काम आये वह तो साक्षात ईश्वर का रूप माना ही जाता है। और फिर मन मे यह विचार उत्पन्न होना स्वाभाविक है "प्रति उपकार करौं का तोरा। सन्मुख होइ न सकत मन मोरा।" और इससे भी ज्यादा सार्थक होगी यह पंक्ति "सुन सुत(यहां सुत के बदले उपयुक्त संबोधन दिया जाय) तोहि उरिन मैं नाही। देखेउं करि विचार मन माही।
ReplyDeleteशिक्षाप्रद प्रस्तुति! बहुत बहुत बधाई। जो व्यक्ति किसी की मुसीबत मे काम आये वह तो साक्षात ईश्वर का रूप माना ही जाता है। और फिर मन मे यह विचार उत्पन्न होना स्वाभाविक है "प्रति उपकार करौं का तोरा। सन्मुख होइ न सकत मन मोरा।" और इससे भी ज्यादा सार्थक होगी यह पंक्ति "सुन सुत(यहां सुत के बदले उपयुक्त संबोधन दिया जाय) तोहि उरिन मैं नाही। देखेउं करि विचार मन माही।
ReplyDeleteइस आलेख में उद्धृत व्यक्ति आप हों या कोई और, ऐसे व्यक्ति हर विभाग [खास कर सरकारी विभाग] में होने ही चाहिए|
ReplyDeleteखूब कियामैंने दुनिया से प्रेम और दुनियाने मुझ से तभी तो मेरी मुस्कराहटें उनके हॊठों में थीं और उनके आँसू मेरे आँखों में..[खलील जिबरान]
ReplyDeleteइन दो घटनाओं ने मुझे भी कुछ याद दिला दिया..बहुत बार ऐसा हम सब के साथ भी होता है..
ReplyDelete..सच कहते हैं आप कि बस परोपकार का कोई अवसर नहीं छोडना चाहिए..जीवन है ही कितना!
सीख देती हुई पोस्ट.
ReplyDeleteस्थानान्तरण की सुखद व दुखद घटनाएं तो जीवन क अंग बन जाती हैं। आपने मेरे अपने कुछ संस्मरण याद दिला दिए। बढिया लेख के लिए बधाई पाण्डेय जी।
ReplyDeleteदोनों घटनायें प्रेरक हैं। अच्छे बुरे लोग हरेक काल में रहे हैं और हमेशा रहेंगे। अच्छाई का आदर और सम्मान हो और बुराई का नाश हो! सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया ...
ReplyDeleteलाख टेक की बात कही है...पैर आतम खतः लिखना रेतिरेमेंट की बात नहीं होती...कभी भी अनुभव आतम कथा में समां जाता है ....
ReplyDeleteSorry Praveen ji blog par aane me late ho gai.aapki post ..aap unko yaad aayenge padhi.bahut hi shiksha prad post lagi.sach me life me kai ese pal aate hain,aapko to yaad bhi nahi rahta ki kab kiski madad ki thi aur jab vo bahut dino baad aapke samne aata hai to insaan bhaav vibhor ho jaata hai.bahut achcha lekh hai.badhaai.
ReplyDeletebahut hi shikshprad satye ghatna! bakai aisi hi anubhuti hoti he, !
ReplyDeleteinfact everything is manage by god, we are here to perform allmighty task! bina uski marji ke kuch nhi hota!
उपकार किसी के भी प्रति किसी भी रुप में क्यों न हो, उसे करने वाला भूल जाता है किन्तु पाने वाला कभी भी नहीं भुला पाता ।
ReplyDeleteएक असभ्य गाँव के लिये न बिखरने की और एक सहृदय गाँव के लिये विश्वभर में बिखर जाने की गुरुनानक की प्रार्थना, भले ही मुझे क्रूर लगती रही, भले ही बार बार घर समेटने और बसाने का उपक्रम कष्टकारी रहा हो, पर यही दो घटनायें पर्याप्त हैं गुरुनानक की प्रार्थना को स्वीकार कर लेने के लिये.
ReplyDeleteसच है एक ही जगह पर रहने से विचार में प्रवाह नहीं रहता ... हर नयी जगह , नए लोंग बहुत कुछ सिखाते हैं ... विचारणीय पोस्ट
बहुत सच कहा है..नए नए स्थानों पर काम करना अपने आप में एक यादगार अनुभव है. हरेक स्थान से आप कुछ यादगार पल और मित्र लेकर आगे बढते रहते हैं.किसी की अगर सहायता कर सकें, तो उसे आप शायद भूल जायें, लेकिन उसके लिये वह एक अविस्मरणीय स्मृति बन जाती है. अगर आप किसी की समस्या धैर्य और सहानुभूति से सुन भी लेते हैं, तो किसी के दुखी मन को यह ही काफी होता है.यह मैंने अपने जीवन में स्वयं अनुभव किया है. एक सार्थक आलेख के लिये आभार
ReplyDeleteआपकी पोस्ट से गुलजार की कविता याद आती है। खुशबू जैसे लोग मिले अफसाने में, एक पुराना खत खोला अनजाने में, शाम के साये बालिश्तों से नापे, चाँद ने इतनी देर लगा दी आने में।
ReplyDeleteबेहद सुन्दर लेख... पुरानी यादों का और बिखर जाने का भी दर्द .. लेख विचारों को भी उद्वेलित करता है.. आभार इस सुन्दर रचना के लिए..
ReplyDeleteआपने तो यादों का पिटारा ही खोल दिया, मार्मिक लेख.
ReplyDeleteएक एक सहायता आपके शब्दकोश के शब्दों को बिखेरती है। भोजपुरी में- बन्हिया लागल।
ReplyDeleteस्मृतियाँ सम्पर्क-सूत्र होती हैं, उनकी प्रगाढ़ता तब और गहरा जाती है जब उस स्थान का कोई व्यक्ति आपके सम्मुख आकर खड़ा हो जाता है।
ReplyDeleteye to sach hai ,kai baate aur bhi dil ko chhoo gayi .laazwaab lagi ,isi karan karm ki pooja hoti hai aur aas bandhi rahti hai aage ke liye .
" यह दोनों घटनायें मेरी नहीं हैं पर जब भी पुराने कार्यस्थल के कर्मचारियों से बातचीत होती है तो उनके स्वरों में खनकती आत्मीयता और अधिक संबल देती है कि कहीं किसी की सहायता करने का कोई अवसर छूट न जाये। अधिकार के रूप में प्राप्त इस महापुण्य का अवसर, पता नहीं, फिर मिले न मिले। '' सर ये पन्तिया आप के महापुण्य को उजागर कराती है ! अधिकार के इस्तेमाल हमेशा पुन्य में करने से मन को बहुत शान्ति मिलती है !
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद आपकी पोस्ट पढ़ पाई|अभी आगे की पढनी बाकि है |
ReplyDeleteआत्मीयता से भरे पल ,अच्छे कार्यो खुशबूमहकती ही रहती है और दूसरो के लिए प्रेरणा बन जाती है \जब चारो दिशाओ में नकारात्मक विचारो को फैलाने की कोशिश जारी है तब ऐसे सकारात्मक विचार और कर्म ही उससे छुटकारा दिला सकते है |
बहुत बढिया पोस्ट |