30.7.11

बिजली फूँकते चलो, ज्ञान बाटते चलो

सूर्य पृथ्वी के ऊर्जा-चक्र का स्रोत है, हमारी गतिशीलता का मूल कहीं न कहीं सूर्य से प्राप्त ऊष्मा में ही छिपा है, इस तथ्य से परिचित पूर्वज अपने पोषण का श्रेय सूर्य को देते हुये उसे देवतातुल्य मानते थे, संस्कृतियों की श्रंखलायें इसका प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।

पूर्वजों ने सूर्य से प्राप्त ऊर्जा को बड़े ही सरल और प्राकृतिक ढंग से उपयोग किया, गोबर के उपलों व सूखी लकड़ी से ईंधन, जलप्रवाह से पनचक्कियाँ, पशुओं पर आधारित जीवन यापन, कृषि और यातायात। अन्य कार्यों में शारीरिक श्रम, पुष्ट भोजन और प्राकृतिक जीवन शैली।

संभवतः मानव को ऊर्जा को भिन्न भिन्न रूपों में उपयोग में लाना स्वीकार नहीं था। जिस प्रकार आर्थिक प्रवाह में वस्तु-विनिमय की सरल प्रक्रिया से निकल कई तरह की मुद्राओं चलन प्रारम्भ हो गया, लगभग हर वस्तु और सेवा का मूल्य निश्चित हो गया, उसी प्रकार प्राकृतिक जीवन शैली के हर क्रिया कलाप को बिजली पर आधारित कर दिया गया, हर कार्य के लिये यन्त्र और उसे चलाने के लिये बिजली।

बिजली बनने लगी, बाँधों से, कोयले से, बन के तारों से बहने लगी, बिकने भी लगी, मूल्य भी निश्चित हो गया। जिसकी कभी उपस्थिति नहीं थी मानव सभ्यता में, उसकी कमी होने लगी। संसाधनो का और दोहन होने लगा, धरती गरमाने लगी, हर कार्य में प्रयुक्त ऊर्जा की कार्बन मात्रा निकाली जाने लगी। पर्यावरण-जागरण के नगाड़े बजने लगे।

जागरूक नागरिकों पर जागरण की नादों का प्रभाव अधिक पड़ता है, हम भी प्रभावित व्यक्तियों के समूह में जुड़ गये। बचपन में कुछ भी न व्यर्थ करने के संस्कार मिले थे पर बिजली के विषय में संवेदनशीलता सदा ही अपने अधिकतम बिन्दु पर मँडराने लगती है। घर में बहुधा बिजली के स्विच बन्द करने का कार्य हम ही करते रहते हैं। डेस्कटॉप के सारे कार्य लैपटॉप पर, लैपटॉप के बहुत कार्य मोबाइल पर, थोड़ी थोड़ी बचत करते करते लगने लगा कि कार्बन के पहाड़ संचित कर लिये।

ऊर्जा का मूल फिर भी सूर्य ही रहा। अपने नये कार्यालय में एक बड़ी सी खिड़की पाकर उस मूलस्रोत के प्रति आकर्षण जाग उठा। स्थान में थोड़ा बदलाव किया, अपने बैठने के स्थान को खिड़की के पास ले जाने पर पाया कि खिड़की से आने वाला प्रकाश पर्याप्त है। अब कार्यालय के समय में कोई ट्यूब लाइट इत्यादि नहीं जलती है हमारे कक्ष में, बस प्राकृतिक सूर्य-प्रकाश। कार्यों के बीच के क्षण उस खिड़की से बाहर दिखती हरियाली निहारने में बीतते हैं। बंगलोर से वर्षा को विशेष लगाव है, जब जमकर फुहारें बरसती हैं तो खिड़की खोलकर वातावरण का सोंधापन निर्बाध आने देता हूँ अपने कक्ष में। एक छोटे से प्रयोग से न केवल मेरा मन संतुष्ट हुआ वरन हमारे विद्युत अभियन्ता भी ऊर्जा संरक्षण के इस प्रयास पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर गये।
विकास के नाम पर आविष्कार करते करते हम यह भूल गये हैं कि हमारी आवश्यकतायें तो कब की पूरी हो चुकी हैं । इतनी सुविधा हर ओर फैली है कि दिनभर बिना शरीर हिलाये भी रहा जा सकता है। घर में ऊर्जा चूसने वाले उपकरणों को देखने से यह लगता है कि बिना उनके भी जीवन था और सुन्दर था। तनिक सोचिये,

माचिस के डब्बों से घर बना दिये हैं, उन्हें दिन में प्रकाशमय, गर्मियों में ठंडा और शीत में गर्म रखने के लिये ढेरों बिजली फूँकनी पड़ती है।

निशाचरी आदतें डाल ली हैं, रात में बिजली बहाकर दिन बनाते हैं और दिन में आँख बन्द किये हुये अपनी रात बनाये रखते हैं।

विकास बड़े शहरों तक ही सीमित कर दिया है, आने जाने में वाहन टनों ऊर्जा बहा रहे हैं।

ताजा भोजन छोड़कर बासी खाना प्रारम्भ कर दिया है और बासी को सुरक्षित रखने में फ्रिज बिजली फूँक रहा है, उसे पुनः गरम करने के लिये माइक्रोवेव ओवेन।

क्या विषय ले बैठा? जस्ट चिल। बिजली फूँकते चलो, ज्ञान बाटते चलो। 

27.7.11

सफ़र ज़ारी आहे

मेरी बिटिया 8 साल की है, सप्ताह में दो दिन चित्रकला सीखने जाती है, रंगों के अद्भुत संसार में बहुत रमता है उसका मन, पढ़ाई से भले ही कभी जी चुरा ले पर चित्रकला के प्रति उसकी उत्सुकता देखते ही बनती है। पहले तो लगता था कि मौलिक रंगों के परे नहीं होगी उसकी समझ पर जब चित्रों की गूढ़ता में उसे उतरते देखा तो अपना विचार बदलना पड़ा।

अवसर था सफर के दूसरे पड़ाव का, एकत्रित थे अपनी शैलियों में सिद्धहस्त कर्नाटक के 6 ख्यातिप्राप्त वरिष्ठ चित्रकार, दिन 16 जुलाई, बंगलोर स्टेशन का प्लेटफार्म 5, कलाप्रेमियों के जमावड़े के बीच नगर के कई गणमान्य नागरिक, आयोजन महिला समिति का, उत्प्रेरक पूर्व की भाँति मंडल रेल प्रबन्धक श्री सुधांशु मणि।

यदि आप बंगलोर सिटी स्टेशन के निकास द्वार को ध्यान से देखें तो उसमें गांधीजी का ट्रेन में चढ़ते हुये का दृश्य है, यह चित्र सफर के पहले पड़ाव की देन है। आपका यदि मंडल कार्यालय आना हो तो सीढ़ी से चढ़ते समय आपको 6 उत्कृष्ट चित्र दिखायी पड़ेंगे, वे भी सफर के पहले पड़ाव की देन हैं। कला का प्रचार-प्रसार उसे लोगों के मनस-पटल पर एक स्थायी स्वरूप देता है। आगन्तुकों से प्राप्त सराहनाओं ने जब यह पूर्ण रूप से स्पष्ट कर दिया कि आमजनों में कला की भूख प्रचुर मात्रा में है, सफर के दूसरे पड़ाव की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गयीं।

पता नहीं चित्रों में ऐसा क्या होता है कि सबको अपने अपने मन के रंगों का समरूप मिल जाता है। हर व्यक्ति उस चित्र में कुछ न कुछ अलग देखता है, एक ही आकृति न जाने कितने विचार प्रवाहों को जन्म देती हो। निःशब्द चित्र न जाने कितना अनुनाद करता होगा मन में, क्या पता? बिटिया जब वह चित्र देखती होगी तो सोचती होगी कि कैसे बनाया जाये इतना सुन्दर चित्र, किसी वयस्क को रंगों का चटखपन भाता होगा, एक जानकार को ब्रशों का प्रयोग सुन्दर लगता होगा, विशेषज्ञ को रंगों का संयोजन सराहनीय लगता होगा।

मैं कोई चित्र देखता हूँ तो उसमें उपस्थित पात्रों के मनोभावों को रंगों में निहित भावों से जोड़ने लगता हूँ। मन मुदित हो तो पीला रंग, क्रोध में लाल रंग, संतुष्टि में छिपे हरे रंग के रेशे, दुःख में स्याह घुप्प आवरण। हो सकता है आपके लिये इन रंगों का सम्बन्ध अलग भावों से हो।

कई चित्रकारों से अनौपचारिक बातचीत हुयी, सबकी अपनी विशिष्ट शैली। सबने सीखना प्रारम्भ एक सा किया होगा, परिवेश, विचार, संस्कार, घटनायें, समाज, संवेदनशीलता और न जाने क्या क्या मिलता गया होगा, उनको सृजन पथ में। हर अनुभव एक नये रंग का, हर व्यक्तित्व एक नया गहरापन लिये, सुख-दुःख का गाढ़ापन हर बार अलग मात्रा में, न जाने कितना कुछ संचित। जब वह चित्रकार सामने पाता है एक सपाट कैनवास, हाथों में ब्रश और छिटकाने के लिये रंग, पहला भाव क्या आता होगा, स्फूर्त तरंग सा होता होगा या होता होगा सतत चिन्तन का एक स्थूल निष्कर्ष। हम शब्द उतारते हैं तो जानते हैं कि क्या कह रहे हैं, चित्रकार तो आकृतियों और रंगों से अपना संवाद स्थापित कर लेता है।

जब बिटिया को चित्र समझते देख रहा था तो उन दोनों को देखकर मन में नये भाव आकार ले रहे थे, अब मेरे द्वारा व्यक्त भावों को पढ़ आप भी कुछ नया सोच रहे होंगे। चित्रों की संवाद-लहर यूँ ही बढ़ती जाती है।

रंग, आकृति, अभिनय, न जाने कितने माध्यम उपस्थित हैं हमारे बीच, संवाद की स्थिति शब्दों से कहीं ऊपर स्थित है, भाषा से कहीं ऊपर स्थित है। हमारे जीवन का सफर न जाने कितनी ऐसी मनःस्थितियाँ जान पायेगा। सफर का तीसरा पड़ाव कहीं बैठा हमारी प्रतीक्षा कर रहा होगा।

सफर जारी आहे।



23.7.11

तोड़ महलिया बना रहे

उन्मादित सब जीव, वृक्ष भी,
अन्तरमन भी और दृश्य भी,
एक व्यवस्था परिचायक है,
अह्लादित हैं ईश, भक्त भी,

रहें विविध सब, पर मिल रहतीं,
भाँति भाँति की संरचनायें,
एक सृष्टि बन उतरी, फैलीं,
परम ईश की विविध विधायें,

नहीं अधिक है, नहीं कहीं कम,
जितनी जीवन को आवश्यक,
सहज रूप में स्वतः प्राप्त सब,
प्रकृति पालती रहे मातृवत,

धरती माँ सी, रहती तत्पर,
वन, नद, खनिज अपार सजी है,
तरह तरह के पशु पक्षी हैं,
पुष्प, वृक्ष, फल, शाक सभी हैं,

महासंतुलन सब अंगों में,
एक दूजे के प्रेरक, पूरक,
रहें परस्पर सुख से बढ़ते,
सब जीते हैं औरों के हित,

मानव ने पर अंधेपन में,
अपनी तृष्णा का घट भरने,
सकल प्रकृति को साधन समझा,
ढाये अत्याचार घिनौने,

संकेतों से प्रकृति बोलती,
समझो और स्वीकार करो,
जितने अंग विदेह किये हैं,
प्रकृति अंक में पुनः भरो,

देखो सब है प्राप्त, पिपासा-फन क्यों फैले?
सम्मिलित सभी सृष्टि में, फिर क्यों दंश विषैले?
किसकी बलि पर किसका बल हम बढ़ा रहे?
एक नगर था, तोड़ महलिया बना रहे ।

20.7.11

काबिनी

घना जंगल, न आसमान का नीलापन, न धरती पर सोंधा रंग, न कोई सीधी रेखा, न ही दृष्टि की मुक्त-क्षितिज पहुँच, संग चलता आच्छादित एक छाया मंडल, छिन्नित प्रकाश को भी अनुमति नहीं, बस हरे रंग के सैकड़ों उपरंगों से सजी प्रकृति की अद्भुत चित्तीकारी, रंग कुछ हल्के, कुछ चटख, कुछ खिले, पर सब के सब, बस हरे। हरी चादर ओढ़े प्रकृति का श्रंगार इतना घनीभूत होता जाता है कि संग बहती हुयी शीतल हवा का रंग भी हरा लगने लगता है। बहती हवा को अपनी सिहरनों से रोकने का प्रयास करती झील अपनी गहराई में ऊँचे शीशम वृक्षों के प्रतिबिम्ब समेटे हरीतिमा चादर सी बिछी हुयी है।

घना जंगल, गहरी झील, बरसती फुहारें, शीतल बयार, पूर्ण मादकता से भरा वातावरण।

मैं स्वप्न में नहीं, काबिनी में हूँ।

मैसूर से 80 किमी दक्षिण की ओर, केरल की सीमा से 20 किमी पहले, काबिनी नदी पर बने बाँध ने घने जंगल के बीच 22 वर्ग किमी की एक विशाल जलराशि निर्मित की है और साथ में दिया है न जाने कितने जीव जन्तुओं को एक प्राकृतिक अभयारण्य, निश्चिन्त सा जीवन बिताने के लिये, विकास की कलुषित छाया से सुरक्षित, मनमोहक और रमणीय।

बंगलोर से सुबह 6 बजे निकल कर 11 बजे पहुँचने के बाद जंगल के बीचों बीच बने अंग्रेजों के द्वारा निर्मित कक्ष में जब स्वयं को पाया तो यात्रा की थकान न केवल उड़न छू हो गयी वरन एक उत्साह सा जाग गया, प्रकृति की गोद में निश्छल खेलने का, न टीवी, न फोन, बस प्रकृति से सीधा संवाद। बच्चे तो पल भर के लिये भी नहीं रुके और बाहर जाकर खेलने लगे। थोड़ी ही देर में हम सब निकल पड़े, जीप सफारी में जंगल की सैर करने। 

जंगल के बीच 3 घंटे की जीप-सफारी में इंजन की सारी आवृत्तियाँ स्पष्ट सुनायी पड़ती हैं और जीप रुकने पर आपकी साँसों की भी। बीच बीच में जंगल के जीव जन्तुओं के संवाद में अटकती आपकी कल्पनाशक्ति, साथ में चीता या हाथी के सामने आने का एक अज्ञात भय और उनकी एक झलक पा जाने के लिये सजग आँखें। चीता यद्यपि नहीं दिखा पर उसके पंजों को देख कर उस राजसी चाल की कल्पना अवश्य हो गयी थी।

रात्रि में भोजन के पहले एक वृत्तचित्र दिखाया गया जिसमें मानव की अन्ध विकासीय लोलुपता और अस्पष्ट सरकारी प्रयासों के कारणों से लुप्त हो रहे चीतों की दयनीय दशा का मार्मिक चित्रण था।

सुबह 6 बजे से 3 घंटे की बोट-सफारी में हमने पक्षियों की न जाने कितनी प्रजातियाँ देखी, झील के जल में पानी पीते और क्रीड़ा करते जानवरों के झुण्ड देखे, पेड़ों से पत्तियाँ तोड़ते स्वस्थ हाथियों का समूह देखा, धूप सेकने के लिये बाहर निकला एक मगर देखा। बन्दर, हिरन, मोर, जंगली सुअर, चील, गिद्ध, नेवले और न जाने कितने जीव जन्तु हर दृश्य में उपस्थित रहे।

वातावरण तो वहाँ पर कुछ और दिन ठहरकर साहित्य सृजन करने का था, पर प्रशासनिक पुकारों ने वह स्वप्न अतिलघु कर दिया। वहाँ के परिवेश से पूर्ण साक्षात्कार अभी शेष है।  

वन आधारित पर्यटन की एक सशक्त व्यावसायिक उपलब्धि है, जंगल लॉज एण्ड रिसॉर्ट। वन के स्वरूप को अक्षुण्ण रखते हुये, मानवों को उस परिवेश में रच बस जाने का एक सुखद अनुभव कराता है यह उपक्रम। वन विभाग के अधिकारियों द्वारा संचालित इस स्थान का भ्रमण अपने आप में एक विशेष अनुभव है और संभवतः इसी कारण से इण्टरनेट पर संभावित पर्यटकों के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय भी है।

न जाने क्यों लोग विदेश भागते हैं घूमने के लिये, काबिनी घूमिये।  


16.7.11

आप उनको याद आयेंगे

जिन स्थानों पर आपका समय बीतता है, उसकी स्मृतियाँ आपके मन में बस जाती हैं। कुछ घटनायें होती हैं, कुछ व्यक्ति होते हैं। सरकारी सेवा में होने के कारण हर तीन-चार वर्ष में स्थानान्तरण होता रहता है, धीरे धीरे स्मृतियों का एक कोष बनता जा रहा है, कुछ रोचकता से भरी हैं, कुछ जीवन को दिशा देने वाली हैं। स्मृतियाँ सम्पर्क-सूत्र होती हैं, उनकी प्रगाढ़ता तब और गहरा जाती है जब उस स्थान का कोई व्यक्ति आपके सम्मुख आकर खड़ा हो जाता है।

एक स्थान पर स्थायी कार्यकाल न होना, मेरे जैसे कई व्यक्तियों के लिये एक कारण रहता है, उस स्थान का यथासंभव और यथाशीघ्र विकास करने का, पता नहीं भविष्य में वहाँ पर आना हो न हो। सुप्त सा कार्यकाल बिताने का क्षणिक विचार भी स्वयं को दिये धोखे जैसा लगता है। तीन-चार हजार कर्मचारियों की व्यक्तिगत और प्रशासनिक समस्याओं को हल करने का दायित्व आप पर होने से, कई बार आपसे वह न्याय और सहायता भी हो जाती है, जिसका आपके लिये बहुत महत्व न हो पर वह कर्मचारी उसे भुला नहीं पाता है। उसका महत्व आपको तब पता चलता है जब कई वर्ष बीतने के बाद भी, सहसा वह व्यक्ति आपके सामने खड़ा हो जाता है।

आत्मकथा लिखने का विचार अभी नहीं है, पर अवसर पाकर स्मृतियाँ मन से निकल भागना चाहेंगी, संवाद-क्षेत्रों में अपना नियत स्थान ढूढ़ने के लिये। यह भी आत्मकथा नहीं है, बस एक साथी अधिकारी से बातचीत के समय ये दो घटनायें सामने आयीं तो उसे आपसे कह देने का लोभ संवरण न कर पाया।

एक व्यक्ति कार्यालय खुलने के दो घंटे पहले से आपके कार्यालय के बाहर बैठे प्रतीक्षा करते हैं, आपके आने की। आने का कोई कारण नहीं, इस नगर में किसी और कार्यवश आये थे, ज्ञात था कि आप यहाँ हैं अतः मिलने चले आये। अपने गृहनगर की प्रसिद्ध मिठाईयाँ आपको मना करने पर भी सयत्न देते हैं, पुरानी कुछ घटनाओं को याद करते हैं औऱ अन्त में आपके लिये मुकेश का एक गीत गाकर सुनाते हैं, अपनी मातृभाषा की लिपि में लिखा हुआ। आप किसी नायक की तरह विनम्रता से सर झुकाये सुनते हैं, आपके व्यवहार ने उस व्यक्ति को एक नया जीवन दिया था 7-8 वर्ष पहले।

एक महिला अपने पुत्र के साथ आपसे मिलने आती है, 7-8 वर्ष पहले की गयी आपकी सहायता से अभिभूत। साथ आये पुत्र के विवाह का निमन्त्रण-पत्र आपको देती है। आपकी आँखें यह सुनकर नम हो जाती हैं कि वह प्रथम निमन्त्रण-पत्र था, आप संभवतः इस तथ्य को पचा नहीं पाते हैं कि आपकी कर्तव्यनिष्ठा में की गयी एक सहायता आपको देवतुल्य बना देती है।

यह दोनों घटनायें मेरी नहीं हैं पर जब भी पुराने कार्यस्थल के कर्मचारियों से बातचीत होती है तो उनके स्वरों में खनकती आत्मीयता और अधिक संबल देती है कि कहीं किसी की सहायता करने का कोई अवसर छूट न जाये। अधिकार के रूप में प्राप्त इस महापुण्य का अवसर, पता नहीं, फिर मिले न मिले।

बहते जल में निर्मलता होती है। यह हो सकता है कि यदि एक स्थान पर अधिक रहता तो भावों की नदी को निर्मल न रख पाता। एक असभ्य गाँव के लिये न बिखरने की और एक सहृदय गाँव के लिये विश्वभर में बिखर जाने की गुरुनानक की प्रार्थना, भले ही मुझे क्रूर लगती रही, भले ही बार बार घर समेटने और बसाने का उपक्रम कष्टकारी रहा हो, पर यही दो घटनायें पर्याप्त हैं गुरुनानक की प्रार्थना को स्वीकार कर लेने के लिये।

13.7.11

प्यार छिपाये फिरता हूँ

छिपी किसी के मन में कितनी गहराई, मैं क्या जानूँ?
आतुर कितनी बहने को, हृद-पुरवाई, मैं क्या जानूँ?

कैसे जानूँ, लहर प्रेम की वेग नहीं खोने वाली,
कैसे जानूँ, प्रात जगी जो आस नहीं सोने वाली।

धूप, छाँव में बह जाता दिन, आ जाती है रात बड़ी,
बढ़ता रहता, खुशी न जाने किन मोड़ों पर मिले खड़ी।

एक अनिश्चित बादल सा आकार बनाये फिरता हूँ,
सकल विश्व पर बरसा दूँ, वह प्यार छिपाये फिरता हूँ।

9.7.11

सहना, रहना, सहते रहना

वर्षों हम तो यही समझते रहे कि पीड़ा पहुँचाने की क्षमता ही शक्ति का प्रतीक-चिन्ह है, पीड़ा का भय ही शक्ति का आदर करता है। जीवन भर यही समझ लिये पड़े रहते यदि लगभग 15 वर्ष पहले एक सेमिनार में जाने का सौभाग्य न मिला होता। संदर्भ भारत और पाकिस्तान की सामरिक क्षमताओं पर था और एक प्रखर वक्ता उस पर बड़े तार्किक ढंग से प्रकाश डाल रहे थे। उनके अनुसार, शक्ति को नापने में पीड़ा पहुँचाने की क्षमता से भी अधिक महत्वपूर्ण है की पीड़ा सहने की क्षमता। उस समय लगा कि किसी ने विचारों के कपाट सहसा खोल दिये हैं, हम भी मुँह बाये सुनते रहे। धीरे धीरे जब शक्ति के इस सिद्धान्त की व्याख्या कई उदाहरणों के साथ की गयी तो सामरिक संदर्भों में वह सिद्धान्त मूर्त रूप लेने लगा।

जो देश पर लागू होता है, वह देह पर भी लागू होता है। एक धुँधला सा चित्र बना रहा, व्यवहारिक अनुप्रयोग के अभाव में अपूर्ण सा ही बना रहा यह सिद्धान्त। कुछ सिद्धान्त उद्घाटित होने के लिये अनुभव का आहार चाहते हैं, स्वयं पर बीतने से अनुभव का उजाला शब्दों की स्पष्टता बढ़ा देता है। यौवन तो केवल कहने और करने का समय था, संभवतः इसीलिये यह सिद्धान्त अपूर्ण सा बना रहा। सहने के अनुप्रयोग जीवन में आने शेष थे, संभवतः इसीलिये यह सिद्धान्त अपूर्ण सा बना रहा।

भारतीय मनीषियों ने भले ही अविवाहित रह कर यह तथ्य न समझा हो पर हमारे लिये विवाह सिद्धान्त-समूहों का प्राकृतिक निष्कर्ष है। हर वर्ष बीतने के साथ ज्ञान-चक्षुओं के न जाने कितने स्तर खुलते जाते हैं, जीवन यथारूप समझ में आने लगता है, घर में अपनी स्थिति स्पष्ट होने के साथ ही विश्व में भी अपनी नगण्यता का भान होने लगता है, युवावस्था की वेगवान पहाड़ी नदी सहसा समतल पर आकर फैल जाती है, श्रीमतीजी और बच्चों के किनारों के बीच सिमटी।

जब कुछ अनुकूल नहीं होता है तो बड़ी कसमसाहट होती है, व्यग्रता को उसी क्षण उतार देने का मन करता है, दिन भर उतारने और चढ़ाने में मन और तन लगा रहता है, जीवन गतिमान बना रहता है। घर के बाहर तो यह व्यवहार चल सकता है पर घर के भीतर भी आप यही करने बैठ गये तो आपको शान्ति कहाँ मिलेगी?

शान्ति-प्राप्ति की इसी विवशता ने सहने का महामन्त्र सिखा दिया। स्वभावानुसार थोड़े दिन तो व्यवहार में रुक्षता बनी रही पर धीरे धीरे सहने का गुण सीखने लगे। पहले तो तुरन्त उत्तर न देकर कुछ घंटों के लिये जीभ ने सहना सीखा, फिर उस बात को कुछ दिनों में ही भुलाकर मन ने सहना सीखा, फिर उन्हीं परिस्थितियों में संभावित अनुकूलता निकाल कर जीवन ने सहना सीखा।

कल्पना कीजिये कि आपकी सहनशीलता इतनी बढ़ जाये कि प्रतिकूलताओं के छोटे मोटे पत्थर आपकी मनस-झील में तरंग तो उत्पन्न करें पर उनमें न ही आयाम हो और न ही अनुनाद। तब आपकी मानसिक-शक्ति का क्षरण करने के प्रयास थक हार कर वापस चले जायेंगे। जब सामने वाला आपको विचलित करने के प्रयास करते करते थक जायेगा, तब आपको बिना अपनी ऊर्जा व्यर्थ किये शक्ति का आभास होने लगेगा।

पता नहीं, जब देश में हर ओर आक्षेपों का उद्योग पनप रहा है, मेरा सहनशील चिन्तन किस महत्व का हो, पर आत्मशक्ति का एक सशक्त कारक बनकर उभरी है मेरी सहनशीलता। सहनशीलता में गाँधीजी के सत्य के प्रयोगों ने एक स्वतन्त्रता तो दिला दी है, हमारे प्रयोग न जाने क्या मुक्त कर बैठेंगे।

हम तो 'सहना, रहना और सहते रहना' के मार्ग पर चलते चलते अपनी शक्ति बढ़ाने में लगे हैं, कम से कम घर में हमारा बॉर्नबीटा यही है। आप कौन सा शक्ति-पेय पीते है?

6.7.11

व्यवस्थित परिवेश

सुबह का समय, दोनों बच्चों को विद्यालय भेजने में जुटे माता-पिता। यद्यपि बेंगलुरु में विद्यालय सप्ताह में 5 दिन ही खुलते हैं पर प्रतिदिन 7 घंटों से भी अधिक पढ़ाई होने के कारण दो मध्यान्तरों की व्यवस्था है। दो मध्यान्तर अर्थात दो टिफिन बॉक्स अर्थात श्रीमतीजी को दुगना श्रम, वह भी सुबह सुबह। शेष सारा कार्य तब हमें ही देखना पड़ता है। अब कभी एक मोजा नहीं मिलता, कभी कोई पुस्तक, कभी बैज, कभी और कुछ। परिचालन में आने के पहले तक, सुबह के समय व्यस्तता कम ही रहती थी, तो इन खोज-बीन के क्रिया-कलापों में अपना समुचित योगदान देकर प्रसन्न हो लेते थे। समस्या गम्भीर होती जा रही थी, अस्त-व्यस्त प्रारम्भ के परिणाम दिन में दूरगामी हो सकते थे, अतः कुछ निर्णय लेने आवश्यक थे।

अब दोनों बच्चों को बुलाकर समझाया गया। रात को ही अगले दिन की पूरी तैयारी करने के पश्चात ही सोना अच्छा है। प्रारम्भ में कई बार याद दिलाना पड़ा पर धीरे धीरे व्यवस्था नियत रूप लेने लगी। बस्ता, ड्रेस, गृहकार्य इत्यादि पहले से ही हो जाने से हम सबके लिये आने वाली सुबह का समय व्यवस्थित हो गया।

विद्यालय जाने की प्रक्रिया एक उदाहरण मात्र है, घर के प्रबन्धन में ऐसी बहुत सी व्यवस्थाओं को मूर्तरूप देना पड़ता है। हर वस्तु का एक नियत स्थान हो और हर वस्तु उस नियत स्थान पर हो। यदि घर में सामान अव्यवस्थित पड़ा हो, हमें अटपटा लगता है। हमारे पास कितना भी समय हो पर किसी अन्य स्थान पर रखी वस्तु को ढूढ़ने में व्यय श्रम और समय व्यर्थ सा प्रतीत होता है, उपयोग के बाद किसी वस्तु को समुचित स्थान पर रखने में उससे कहीं कम श्रम और समय लगता है।

एक व्यवस्थित परिवेश में स्वयं को पाने का आनन्द ही कुछ और है। छोटे से छोटे विषय पर किया हुआ विचार किसी भी स्थान को एक सौन्दर्यपूर्ण आकार दे देता है। किसी भी स्थान को व्यवस्थित करने में लगी ऊर्जा उसके सौन्दर्य से परिलक्षित होती है। कुछ लोग कह सकते हैं कि इस व्यवस्था रूपी सौन्दर्य से विशेष अन्तर नहीं पड़ता है पर उन्हें भी अव्यवस्थित स्थान क्षुब्ध कर जाता है।

किसी भी तन्त्र, परिवार, संस्था, समाज और देश का कुशल संचालन इसी आधार पर होता है कि वह कितना व्यवस्थित है। जो कार्य सीधे होना चाहिये, यदि उसमें कहीं विलम्ब होता है या अड़चन आती है तो असहज लगता है। यही असहजता आधार बनती है जिससे तन्त्र और भी व्यवस्थित किया जा सकता है।

कई व्यवस्थायें बहुत पुरानी होती हैं, कालान्तर में न जाने कितने अवयव उसमें जुड़ते जाते हैं, हम अनुशासित से उनका बोझ उठाये चलते रहते हैं। परम्पराओं का बोझ जब असह्य होता है तो उसमें विचार की आवश्यकतायें होती हैं, सरलीकरण की आवश्यकतायें होती हैं। क्या कोई दूसरा मार्ग हो सकता है, क्या प्रक्रिया का समय और कम किया जा सकता है, क्या बिना इसके कार्य चल सकता है, अन्य स्थानों पर कैसे कार्य होता है, बहुत से ऐसे प्रश्न हैं जो घुमड़ते रहने चाहिये। प्रश्न पूछने का भय और अलग दिखने की असहजता हमें अव्यवस्थाओं का बोझ लादे रहने पर विवश कर देती है। जटिल तन्त्रों का बोझ असह्य हो जाता है, सरलता स्फूर्तमयी होती है। प्रबन्धन का सार्थक निरूपण एक व्यवस्थित परिवेश की अनुप्राप्ति ही है।

कोई भी क्षेत्र चुनिये, घर से ही सही, अपने कपड़ों से ही सही, पूछिये कि क्या आपको उन सब कपड़ों की आवश्यकता है? जब तक आप संतुष्ट न हो जायें किसी गरीब को दिये जाने वाले थैले में उनको डालते रहिये।

यही प्रश्न अब हर ओर पूछे जाने हैं, हर तन्त्र सरल होना है, हर तन्त्र व्यवस्थित होना है, हर तन्त्र सौन्दर्यपूर्ण होना है।

2.7.11

एक के बाद एक

एक अँग्रेज़ी फिल्म है, गारफील्ड। गारफील्ड एक बिल्ले का नाम है जो अपने मालिक पर अपना एकाधिकार समझता है। एक दिन उसका मालिक, न चाहते हुये भी, अपनी प्रेमिका के दबाव में ओडी नाम का एक छोटा सा कुत्ता घर ले आता है। एकाधिकार से वंचित गारफील्ड सदा ही किसी न किसी जुगत में रहता है कि किस तरह वह ओडी को घर के बाहर भटका दे। एक दिन वह सफल हो जाता है और ओडी सड़क पर होता है। 


स्वभाववश ओडी सड़क पर एक जाते हुये वाहन के पीछे भागता है। चौराहे पर पहुँचते पहुँचते सामने से एक दूसरा वाहन निकलता है, ओडी उसके पीछे भागने लगता है। अगले चौराहे पर पुनः यही क्रम। भागते रहने की शक्ति होने तक वह यही करता रहता है और जब थक कर बैठता है तब उसे घर की याद आती है। वापस पहुँचने में वह घर का रास्ता भूल जाता है।

फिल्म मनोरंजक मोड़ ले अन्ततः सुखान्त होती है, ओडी को घर लाने में गारफील्ड महोदय ही महत भूमिका निभाते हैं।

ओडी के भटकने के दृश्य पर थोड़ा और विचार करें। एक के बाद एक लक्ष्य, सारे के सारे लक्ष्य ऐसे जो प्राप्त होना संभव नहीं, लक्ष्य प्राप्त होने पर भी कोई लाभ नहीं, इस निरर्थक प्रयास में होश ही नहीं कि कहाँ भाग रहे हैं, भागने में इतने मगन कि राह पर ध्यान ही नहीं, अन्ततः निष्कर्ष, घर से दूर और असहाय।

अब ओडी के स्थान पर स्वयं को रख कर देखिये, अन्यथा मत लीजियेगा क्योंकि मैं स्वयं को ओडी के स्थान पर रख कर समानता का अनुभव कर चुका हूँ। न जाने कितने चौराहे विकल्पों के, पहला लक्ष्य बिना पाये ही निकट से लगते दूसरे लक्ष्य पर दृष्टि, बिना बुद्धि लगाये ऊर्जा का उन्माद, राह की सुधि नहीं, अन्ततः स्वयं से कोसों दूर और स्वयं को ढूढ़ने की आकांक्षा।

ओडी का स्वभाव जो भी रहा हो, क्या हम मनुष्यों को सच में पता नहीं चल पाता कि हमारा स्वभाव क्या है? कौन सा लक्ष्य ग्राह्य है, कौन सा त्याज्य है, गति कितनी अधिक है, मार्ग से कितना भटकाव हो गया है, घर से कितना दूर आ गये हैं, कितना अभी और चलना है, कब तक वापस पहुँचना होगा, कब विश्राम होगा? इनके उत्तर निश्चय ही केन्द्र-बिन्दु से नियन्त्रित सम्पर्क बनाये रखते हैं, पर राह में आये विचारों से भी बहुत अधिक महत्वपूर्ण है, लक्ष्य की उपादेयता। क्या लक्ष्य आपके योग्य है, क्या लक्ष्य आपके वर्तमान जीवन-स्तर को और उठाने में सक्षम है?

चरैवेति चरैवेति अनुपालक मन्त्र है, उसमें चलते रहने का संदेश है, पर जीवन में हम कब भागने लगते हैं, पता ही नहीं चलता है और जब तक पता चलता है, हम अपने घर से बहुत दूर होते हैं, स्मृतिभ्रम की स्थिति में, असहाय, अपनेपन में कुछ समय बिताने को लालायित।

गति, ऊर्जा, उपादेयता, सुख आदि के विविध दिशोन्मुखी वक्तव्यों के बीच खड़ा है हमारा जीवन, एक के बाद एक न जाने कितने लक्ष्य सामने से निकले जा रहे हैं और निकला जा रहा है मिला हुआ समय।

इस गतिशीलता में आपका हर निर्णय महत्वपूर्ण है, एक के बाद एक।