सूर्य
पृथ्वी के ऊर्जा-चक्र का स्रोत है, हमारी गतिशीलता का मूल कहीं न कहीं सूर्य से
प्राप्त ऊष्मा में ही छिपा है, इस
तथ्य से परिचित पूर्वज अपने पोषण का श्रेय सूर्य को देते हुये उसे देवतातुल्य
मानते थे, संस्कृतियों की
श्रंखलायें इसका प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।
पूर्वजों
ने सूर्य से प्राप्त ऊर्जा को बड़े ही सरल और प्राकृतिक ढंग से उपयोग किया, गोबर के उपलों व सूखी लकड़ी से ईंधन, जलप्रवाह से पनचक्कियाँ, पशुओं पर आधारित जीवन यापन, कृषि और यातायात। अन्य कार्यों में शारीरिक
श्रम, पुष्ट भोजन और प्राकृतिक जीवन
शैली।
संभवतः
मानव को ऊर्जा को भिन्न भिन्न रूपों में उपयोग में लाना स्वीकार नहीं था। जिस
प्रकार आर्थिक प्रवाह में वस्तु-विनिमय
की सरल प्रक्रिया से निकल कई तरह की मुद्राओं चलन प्रारम्भ हो गया, लगभग हर वस्तु और सेवा का मूल्य निश्चित हो गया, उसी प्रकार प्राकृतिक जीवन शैली के हर क्रिया
कलाप को बिजली पर आधारित कर दिया गया, हर कार्य के लिये यन्त्र और उसे चलाने के लिये बिजली।
बिजली
बनने लगी, बाँधों से, कोयले से, बन के तारों से बहने लगी, बिकने
भी लगी, मूल्य भी निश्चित हो गया।
जिसकी कभी उपस्थिति नहीं थी मानव सभ्यता में, उसकी कमी होने लगी। संसाधनो का और दोहन होने लगा,
धरती गरमाने लगी, हर कार्य में प्रयुक्त ऊर्जा की कार्बन मात्रा निकाली जाने लगी। पर्यावरण-जागरण के नगाड़े बजने लगे।
जागरूक
नागरिकों पर जागरण की नादों का प्रभाव अधिक पड़ता है, हम भी प्रभावित व्यक्तियों के समूह में जुड़ गये। बचपन में कुछ भी न
व्यर्थ करने के संस्कार मिले थे पर बिजली के विषय में संवेदनशीलता सदा ही अपने
अधिकतम बिन्दु पर मँडराने लगती है। घर में बहुधा बिजली के स्विच बन्द करने का
कार्य हम ही करते रहते हैं। डेस्कटॉप के सारे कार्य लैपटॉप पर, लैपटॉप के बहुत कार्य मोबाइल पर, थोड़ी थोड़ी बचत करते करते लगने लगा कि कार्बन
के पहाड़ संचित कर लिये।
ऊर्जा
का मूल फिर भी सूर्य ही रहा। अपने नये कार्यालय में एक बड़ी सी खिड़की पाकर उस
मूलस्रोत के प्रति आकर्षण जाग उठा। स्थान में थोड़ा बदलाव किया, अपने बैठने के स्थान को खिड़की के पास ले जाने
पर पाया कि खिड़की से आने वाला प्रकाश पर्याप्त है। अब कार्यालय के समय में कोई
ट्यूब लाइट इत्यादि नहीं जलती है हमारे कक्ष में, बस प्राकृतिक सूर्य-प्रकाश।
कार्यों के बीच के क्षण उस खिड़की से बाहर दिखती हरियाली निहारने में बीतते हैं।
बंगलोर से वर्षा को विशेष लगाव है, जब
जमकर फुहारें बरसती हैं तो खिड़की खोलकर वातावरण का सोंधापन निर्बाध आने देता हूँ
अपने कक्ष में। एक छोटे से प्रयोग से न केवल मेरा मन संतुष्ट हुआ वरन हमारे
विद्युत अभियन्ता भी ऊर्जा संरक्षण के इस प्रयास पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर गये।
माचिस के डब्बों से घर बना दिये हैं, उन्हें दिन में प्रकाशमय, गर्मियों में ठंडा और शीत
में गर्म रखने के लिये ढेरों बिजली फूँकनी पड़ती है।
निशाचरी
आदतें डाल ली हैं, रात में बिजली
बहाकर दिन बनाते हैं और दिन में आँख बन्द किये हुये अपनी रात बनाये रखते हैं।
विकास
बड़े शहरों तक ही सीमित कर दिया है, आने
जाने में वाहन टनों ऊर्जा बहा रहे हैं।
ताजा भोजन
छोड़कर बासी खाना प्रारम्भ कर दिया है और बासी को सुरक्षित रखने में फ्रिज बिजली
फूँक रहा है, उसे पुनः गरम करने के लिये माइक्रोवेव ओवेन।
क्या विषय ले बैठा? जस्ट चिल। बिजली फूँकते चलो, ज्ञान बाटते चलो।